राममंदिर निर्माण को ले कर कुछ सवर्णों को छोड़ बाकी लोगों में 30 वर्षों पहले सा उत्साह नहीं है. कुछ लोग ही दीये जला रहे हैं. ऐसा इसलिए कि देश और समाज न केवल बंट रहे हैं बल्कि आर्थिक दौड़ में पिछड़ भी रहे हैं. पेश है बदहाली और कोरोना संक्रमण के इस दौर में राममंदिर की प्रासंगिकता पर उठते कुछ सवाल बताती यह विशेष रिपोर्ट.
देश इन दिनों जिस दौर से गुजर रहा है वह बेहद हताशाभरा है. कोरोना वायरस के खतरे के साथसाथ बेरोजगारी, ध्वस्त होती कानून व्यवस्था, डूबती अर्थव्यवस्था और सामाजिक विद्वेष ने लोगों से जीने का उत्साह छीन लिया है जो अयोध्या में 100 करोड़ रुपए के भव्य राममंदिर निर्माण के हल्ले से भी कतई प्रभावित नहीं हो रहा. उलटे, ऐसा पहली बार देखने में आ रहा है कि अधिसंख्य लोगों में इस मेगा इवैंट को ले कर तटस्थता है. नहीं तो, यह वही देश है जिस में 90 के दशक में राममंदिर निर्माण को ले कर हाहाकार मच गया था और अगड़ेपिछड़े, छोटेबड़े सभी तरह के हिंदू तब मुसलमानों के खिलाफ लामबंद हो गए थे मानो मंदिर नहीं बना, तो कोई पहाड़ टूट पड़ेगा और देश, धर्म व संस्कृति सब खतरे में पड़ कर नष्ट हो जाएंगे.
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90 का दशक न केवल राजनीति बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी अहम व भारी उलटफेर वाला था. 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होते ही समाज का सब से बड़ा पिछड़ा वर्ग आरक्षण का पात्र हो गया था, जिस का सवर्णों ने हिंसक विरोध किया था क्योंकि इस से उन की बादशाहत व दबदबा दोनों खत्म हो रहे थे. तब भाजपा ने कमंडल का कार्ड खेल कर एक तीर से कई निशाने साध लिए थे. फिर 1992 में नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक उदारीकरण लागू किया तो एकाएक ही देश खुशहाल होने लगा, कहने का मतलब यह नहीं कि पैसों की बरसात होने लगी बल्कि हुआ यह कि लोगों की आमदनी, धीरेधीरे ही सही, बढ़ने लगी.
भाजपा की राममंदिर निर्माण को ले कर सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा का एक बड़ा मकसद धर्म के नाम पर सभी तरह के हिंदुओं को भगवा झंडे तले लाना भी था जो तब एक हद तक कामयाब भी रहा था. इधर आरक्षण का फायदा मिलते ही पिछड़ों ने अलग राह पकड़ ली जिस का मकसद खुद को आर्थिक व सामाजिक रूप से मजबूत करना था जिस के वे हकदार भी थे. अब तक उन की गिनती धर्म के लिहाज से चौथे यानी शूद्र वर्ण में होती थी. इस बदतर हालत से उबरने की छटपटाहट भी इस वर्ग में शुरू से रही थी क्योंकि आबादी के अनुपात में वे सब से ज्यादा हैं.
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ऐसे बदले समीकरण
यह बहुत दिलचस्प और हैरतअंगेज बात है कि आरक्षण से दलितों की हालत 70 वर्षों में भी उतनी नहीं सुधरी जितनी पिछड़ों की महज 8-10 साल में सुधर गई थी. राजनीति से इसे सम झें, तो 90 का दशक पिछड़ों के नाम रहा. मुलायम सिंह यादव , लालू प्रसाद यादव, कल्याण सिंह, नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी, अशोक गहलोत, शरद यादव, उमा भारती और शिवराज सिंह चौहान जैसे दर्जनों पिछड़े वर्ग के नेताओं की राजनीति इसी दौर में परवान चढ़ी. एक वक्त तो ऐसा भी आया कि सभी प्रमुख हिंदीभाषी राज्यों के मुख्यमंत्री पिछड़े होने लगे. सरकारी नौकरियों में थोक में पिछड़े भरती हुए क्योंकि इस वर्ग के महत्त्वाकांक्षी युवाओं में कुछ बन जाने की ललक भी थी और संसाधनों की भी उन के पास खास कमी न थी. सरकारी और प्राइवेट नौकरियों के लिए इस तबके की लड़कियां भी उच्च शिक्षा लेने लगीं.
भाजपा का पिछड़ाप्रेम
मंडल का डैमेज कंट्रोल करने के लिए बनिए और ब्राह्मणों की कही जाने वाली भाजपा ने सब से पहले इस वर्ग की अहमियत सम झी और इस वर्ग को गले लगा लिया. पिछड़े वर्ग के ही कल्याण सिंह और उमा भारती आज भी राममंदिर मुकदमों के अभियुक्त हैं, हालांकि, चालाकी दिखाते भाजपा यानी सवर्ण हिंदुओं ने इन्हें पहले हथियार और फिर मोहरे की तरह इस्तेमाल किया. तमाम पिछड़े इस बात से खुश थे, जो एक तरह की गलतफहमी ही साबित हो रही है कि राज उन का आ रहा है. दरअसल, भाजपा को सम झ आ गया था कि अब पिछड़ों को हिंदू मानना ही पड़ेगा और उन्हें सवर्णों से नीचे रखते मुख्यधारा से भी जोड़ना पड़ेगा, तभी बात बनेगी वरना मंडल कमीशन ने तो सवर्णों को एक तरह से अलगथलग और अल्पसंख्यक बना डाला था. इसी दौर में ब्राह्मणों और ठाकुरों की राजनीति हाशिए पर आई थी.
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मंदिर आंदोलन, दरअसल, पिछड़ों की भागीदारी के चलते ही प्रभावी रहा था, लेकिन यह उन के अगड़े होने की स्वीकृति या मान्यता नहीं थी. साल 2005 आतेआते पिछड़े अपने और आरक्षण के दम पर एक मुकाम हासिल कर चुके थे और खासा पैसा भी कमा चुके थे. यह सिलसिला 2012 तक चला, फिर धीरेधीरे थमने लगा और अब खत्म सा हो चला है. निश्चितरूप से इस की एक बड़ी वजह पिछड़ों में पसरती धर्मांधता भी है जिस ने उन्हें आर्थिक व सामाजिक रूप से खोखला करना शुरू कर दिया है. पैसा आया तो पंडोंपुरोहितों ने भी उन्हें यजमान बनाते इन की जेबें ढीली और दिमाग खाली करना शुरू कर दिया.
पोंगापंथी का हाल, देश बदहाल
इस में शक नहीं कि 1995 से ले कर 2015 तक देश खुशहाल रहा. जितनी तरक्की उस दौर में हुई उतनी आजादी के बाद भी नहीं हुई थी. प्रतिव्यक्ति औसत आय बढ़ी और जीडीपी ने भी उड़ान भरी. लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही देश फिर 1990 के पहले की सी दुर्दशा का शिकार हो चला है. इस में एक बहुत बड़ी गड़बड़ यह सम झ आती है कि बढ़ते धार्मिक जनून ने लोगों के सोचनेसम झने की ताकत छीन ली है और भव्य राममंदिर निर्माण व उस से जुड़े पोंगापंथ कहीं न कहीं लोगों, खासतौर से पिछड़ों की कर्मठता पर हावी हो रहे हैं. यही नहीं, खुद रामभक्त सवर्ण समुदाय भी धार्मिक अवसाद में डूबता नजर आ रहा है जिस से वह और उन्मादी हो रहा है.
इस अवसाद और उन्माद की तुलना नशे से की जा सकती है जिस में डूबा आदमी तो क्या, एक पूरी कौम होश में आने से घबराने लगी है. अधिकतर सवर्ण कह भले ही न पा रहे हों लेकिन सोच जरूर रहे हैं कि मुफलिसी के इस दौर में 40 किलो चांदी की ईंटों की नींव से किसे क्या हासिल होगा और राममंदिर की 100 करोड़ रुपए की लागत, जो देखते ही देखते 500 करोड़ की हो जानी है, से उन्हें क्या हासिल होगा और इस की लंबाई, चौड़ाई व ऊंचाई बढ़ाने से किस की हालत सुधरेगी? अब यह वर्ग चाह कर भी इस बात पर खुश नहीं हो पा रहा कि राममंदिर हमारे लिए है, एससीबीसी के लिए नहीं और अगर यह प्रतीकात्मक रूप में कम खर्च में बन जाता तो भी हमारी श्रद्धा और आस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता. हां, ब्राह्मण जरूर खुश हैं क्योंकि उन के लिए दुनिया का सब से बड़ा धार्मिक मौल बन रहा है.
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सबक सोमनाथ का
इस सोच का सोमनाथ मंदिर आंदोलन और निर्माण से सीधा कनैक्शन है, जो इसी तरह सवर्णों की जिद और सनक का नतीजा था. जैसे ही राममंदिर के शिलान्यास के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 5 अगस्त को अयोध्या आना तय हुआ, भक्त चैनलों ने उक्त स्थिति को सोमनाथ की गाथा, सत्यनारायण की कथा और सुंदर कांड की तरह बांचना शुरू कर दिया. बहस को मोदी बनाम नेहरू बनाया गया कि कैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर न बनने देने की पूरी कोशिशें की थीं लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और हिंदूवादी कांग्रेसी नेताओं में से एक पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने हिंदुओं की आस्था और अस्मिता की लाज रख ली थी.
इस दौर में सोमनाथ मंदिर के इतिहास के कोई खास माने नहीं हैं सिवा इस के कि हिंदूवादी संगठनों ने एक सुनियोजित साजिश के तहत इसे हिंदू अस्मिता का सवाल बना दिया था, ठीक वैसे ही जैसे 1992 में राममंदिर को बना दिया था, मुगल इतिहासकारों को छोड़ भी दें तो वर्तमान दौर की चर्चित और प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर 2004 में अपनी लिखी किताब ‘सोमनाथ – द मैनी वौइस औफ हिस्ट्री’ में कई अहम बातों, जो हिंदू मान्यताओं, आस्था और दावेदारी के चीथड़े उड़ाती हुई हैं, के साथ सोमनाथ को एक व्यापारकेंद्र सिद्ध कर चुकी हैं. लेकिन, बावजूद तमाम बातों के इस में कोई शक नहीं कि सोमनाथ मंदिर में अथाह दौलत थी जिसे बारबार लूटा गया.
आज सोचने वाली उपयोगी इकलौती बात यह है कि भारत और भारतीयों को सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से क्या मिला था? क्या हम एक अमीर देश हो गए थे, क्या हमारी अर्थव्यवस्था सरपट दौड़ने लगी थी और क्या दरिद्रता इस मंदिर के बनने से दूर हो गई थी? ऐसे कई सवाल आज फिर मुंहबाए खड़े हैं कि राममंदिर से आम लोगों को क्या हासिल होगा?
राममंदिर निर्माण का वादा भाजपा ने पूरा कर दिया है फिर भले ही सब से बड़ी अदालत ने फैसला सरकार के दबाव में दिया लगता हो कि जैसे भी हो बला टरकाओ. लेकिन इस के साइड इफैक्ट्स निसंदेह देश और समाज के लिए घातक सिद्ध होंगे. मसलन, अरबों रुपए के इस मंदिर से सिवा पंडेपुजारियों के, किसी को रोजगार नहीं मिलने वाला, उलटे, यह नया तीर्थ सामाजिक विद्वेष को और बढ़ावा देगा. धार्मिक पाखंड तो निर्माण से पहले ही फलनेफूलने लगे हैं कि 5 अगस्त को फलांफलां शुभ मुहूर्त हैं, ग्रहनक्षत्र ऐसे और वैसे हैं और ट्रस्ट सरकार से मदद नहीं लेगा बल्कि 10 करोड़ परिवारों से चंदा लेगा.
नुकसान इन का
ये परिवार जाहिर हैं उन सवर्णों के होंगे जो पूजापाठ में पहले से ही बरबाद हैं. मुमकिन है कुछ संपन्न पिछड़े भी जेब ढीली करें पर ये लोग वास्तव में खुद के पांव पर ही कुल्हाड़ी मारेंगे क्योंकि इन की कर्मठता पाखंडों तले दबा दी गई है. सब से ज्यादा नुकसान उन पिछड़ों का होगा जिन्होंने 90 के दशक में पैसा कमाया और समाज व राजनीति में अपनी पहचान और जगह भी बनाई. हालांकि, अब इन के पल्ले कुछ नहीं है क्योंकि इन की भूमिका सिमटने लगी है. लड़खड़ा कर गिर चुकी अर्थव्यवस्था ने इन के लिए कुछ नहीं छोड़ा है. इसी तबके के निचले पायदान पर खड़े गरीब मेहनतकश मजदूर फाके कर रहे हैं जो न तो किसी गिनती में हैं और न ही जिन की किसी को फिक्र है, जबकि यही लोग अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं.
इन सब से भी ज्यादा नुकसान उन युवाओं का हो रहा है जो हाथ में डिग्रियां, दिल में आस और आंखों में सपने लिए 10 हजार रुपए महीने की नौकरी भी हासिल नहीं कर पा रहे. इन युवाओं में इतनी भी हिम्मत नहीं रह गई है कि वे सरकार से यह पूछ सकें कि अनपढ़ पंडों के लिए तो मंदिर लेकिन हमारे लिए नौकरी या रोजगार क्यों नहीं? कोरोना के कहर के चलते अब तो चाय और पकौड़ों की दुकान खोलने से भी कुछ नहीं मिलने वाला.
पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी सिर्फ धार्मिक इतिहास में दर्ज होने के वास्ते शिलान्यास के लिए तैयार हो गए हैं और प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले वल्लभभाई पटेल को आधुनिक निर्माता साबित करने की कोशिशें करते उन की तरह ही पाखंड करते व रचते रहे हैं, जिन की प्राथमिकता मंदिर और हिंदुत्व थे.
स्टैचू औफ यूनिटी इस की बेहतर मिसाल है जिस के लिए अरबों रुपए उन्होंने पानी की तरह बहा दिए और अब राममंदिर के लिए भी पंडेपुजारियों के इशारे पर नाच रहे हैं. लेकिन वे नेहरू की तरह कारखाने, बांध और सार्वजनिक उपक्रम नहीं बना पा रहे, उलटे, धड़ाधड़ बेच रहे हैं. इस से युवाओं के लिए रोजगार के मौके कम हो रहे हैं. सो, इस के और नुकसानदेह नतीजे झेलने के लिए सभी को तैयार रहना चाहिए.