Story In Hindi : मां के मन में मानो बरसों का बंधा हुआ बांध टूट कर बह रहा था. उन का पछतावा, उन का दर्द और खालीपन सबकुछ उस दिन आंसुओं संग बह रहा था और उन का चेहरा सहारे के लिए मुझे पुकार रहा था.
सभी कामों से निबट कुछ देर सुस्ता लेने का मन हुआ. कितनी तेज धूप है. सूर्य का उद्दंड प्रखर प्रकाश खिड़कियों के रास्ते कमरे के अंदर तक प्रविष्ट हो गया है. खिड़कियों पर टंगे मोटेमोटे गहरे नीले परदों को खींच, उन का मार्ग अवरुद्ध कर दिया. अहा, अंधेरे कमरे में आंखें मूंद कर रिलैक्स होने का मजा कुछ और ही है. झपकी लगी ही थी कि आंखों में मां का चेहरा उभर आया, दर्द और पीड़ा से भरा, शायद कुछ कहना चाहती थीं.
मन व्याकुल हो गया. फोन उठाया, ‘‘हैलो मां, कैसी हो?’’
दूसरी ओर से कमजोर अशक्त स्वर आया, ‘‘ठीक हूं बेटा. बस, तू आ जा एक बार, मिल ले आ कर. बोल कब आ रही है?’’
‘‘मां, समझ न, एकदम से घर छोड़ कर निकलना बहुत मुश्किल होता है.’’
‘‘तुम लोग सब मुझे ही समझते हो, समझासमझा कर मैं थक गई हूं. तू तो मुझे समझने की कोशिश कर, मेरी लाडो.’’
मां के स्वर में खीझ और विवशता थी. फोन कट गया था.
झट सुदीप को फोन किया, ‘‘सुदीप, मुझे मां के पास जाना है.’’
‘‘एकाएक, क्यों, क्या हुआ? औल इज फाइन, सब ठीक तो है?’’ सुदीप के स्वर में चिंता थी.
‘‘कुछ नहीं, बस, मां की तबीयत ठीक नहीं है, बुला रही हैं.’’
‘‘ओके, आज शाम की ही बुकिंग करा देता हूं. तुम पैकिंग कर लो.’’
शाम 5 बजे की फ्लाइट है, एक घंटे पहले तो एयरपोर्ट पहुंचना ही होगा. अभी तो 2 बज रहे हैं. जल्दीजल्दी बैग में कपड़े ठूंसे और कैलाशी को आवश्यक निर्देश दे दिए. तब तक कैब भी आ गई थी. फ्लाइट समय पर थी.
फ्लाइट के टेकऔफ के साथ ही विचारों का प्रवाह आरंभ हो गया. दिल में अलग ही बेचैनी. मां, एकाकी, असहाय, अशक्त. उफ्फ यह बुढ़ापा. सारा जीवन बच्चों में लगा दिया. यह सब सोचतेसोचते गालों पर गीलापन महसूस हुआ. धीरे से रूमाल निकाल आंसुओं को ढक लिया. वही जानीपहचानी दिल्ली और दिल्ली की संकरी गलियां. भले ही कोई इन्हें देख कर नाकभौं सिकोड़़े लेकिन मेरी तो बांछें खिल जाती हैं. सारा बचपन इन्हीं गलियों में दौड़तेभागते, उछलतेकूदते गुजारा है. रात गहरा रही थी. ऊंघती गलियों ने भी बांहें फैला कर उस का स्वागत किया. गली
नंबर 12, मकान नंबर 10, प्रतीक्षातुर दिख रहा है. अधखुले दरवाजे से झांकता प्रकाश अधीरता से बुला रहा है.
औटो से उतर कर छूटे तीर की माफिक सीधे मां के कमरे में पहुंच गई.
‘‘मां, मां लो मैं आ गई.’’
‘‘गुड्डो,’’ लेटेलेटे ही मां का क्षीण किंतु उल्लसित था स्वर.
‘‘मां,’’ हुलस कर मां से चिपक गई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’
मां हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी.
‘‘बेटा, बुढ़ापा ही सब से बड़ा रोग है और यह मुआ अकेलापन.’’
‘‘पर ये दोनों छोटू और गुड्डू?’’
‘‘बेटा, अब उन का अपना संसार है. प्रेम और ममता भी तो सोते की तरह नीचे की ओर ही बहता है.’’
घर में कुछ बदला सा लगा. घर की छत पर दो मंजिलें और चढ़ गईं थीं. उन में अपने में मशगूल दो दुनिया और समा गईं थीं. सब से ऊपर गुड्डू अपनी पत्नी और दोनों बेटों के साथ, बीच वाली में छुटका अपनी पत्नी और बिटिया के साथ और निचले हिस्से में, राने घर में असहाय पीड़ा झेलती, अशक्त-एकाकी मां आंखें मूंदे.
कभी बच्चों की आवाज आंगन से कमरे तक पहुंच जातीं तो मां उसी में सुख पा जातीं. बहुएं छज्जे से रस्सी के सहारे, टोकरी में खाना रख कर पहुंचा देतीं और घंटी बजा देतीं, कभी बड़ी तो कभी छोटी और कभी यों ही उपवास हो जाता. मां के बगल में ही लेट गई. मां की वही चिरपरिचित खुशबू. मैं फिर से वही छोटी सी गुड्डो बन गई थी. जर्जर हाथों का कोमल स्पर्श पा मां की ममता से भीगती रही. मन भयभीत था. सामने जीवन का कटु भयावह सत्य.
रास्ते की थकान और मां को ले कर उस की चिंता. मन भी थक गया था. पापा के जाने के बाद मां से ही तो उस का मायका था. उन के लिए ही तो वह भागी चली आती थी. घर की हर दीवार और आंगन के कोनेकोने में अपना बचपन दोहरा लेती. शायद यह एहसास शब्दातीत है और हमेशा रहेगा.
‘‘बेटा,’’ सुन कर तंद्रा टूटी, मां का चेहरा ध्यान से देखा. समय की मार और बुढ़ापे की छाप पूरी प्रबलता से उभर आई थी. मां का खिलाखिला सुंदर चेहरा झुर्रियों के मकड़जाल से ढक गया था. बड़ीबड़ी आंखें काले स्याह हो आए गड्ढों में धंस गई थीं. एक विवशता, एक निराशा से ढका चेहरा.
‘‘हां मां, कुछ चाहिए क्या?’’
‘‘बेटा, बहुत भूख लगी है,’’ मै ने थोड़ा डरेसहमे स्वर में कहा.
‘‘अरे, तो क्या हुआ, अभी कुछ बना लेती हूं. आप क्या खाओगी?’’
‘‘बेटा, आलूटमाटर की तरी वाली सब्जी के साथ 2 फुलके उतार दे, बस. बहुत दिन हो गए सब्जीरोटी खाए. रोजरोज की अचाररोटी से जीभ और गला दोनों छिल गए.’’
मां की आवाज का दर्द अंतर तक उतर गया. क्या बुढ़ापा ऐसा ही होता है? ‘मां, मैं लौकी नहीं खाता. और मां, मेरी सब्जी में हरा धनिया मत डालना. मां मेरी आलू की तरी वाली सब्जी.’ हां बेटा, मां तीनों के नखरे उठातीं. तड़के उठ कर उन की अलगअलग सब्जियां ?ाटपट बना कर टिफिन लगा देतीं. वही बेटे आज?
मैं रसोई की ओर गई. रसोईघर भी मां की तरह उदास और निराश, कुछ उपेक्षित. मेरा हाथ लगते ही कुछ ही देर में रसोईघर काम करने लायक हो गया. गली के पंसारी से जरूरी सामान ला कर गैस चूल्हे पर एक ओर मसाला भून कर सब्जी चढ़ा दी और दूसरी ओर तवा रख दिया. इतना सबकुछ करने में एकडेढ़ घंटे से अधिक का समय लग गया. इस बीच मां दसियों बार पूछ चुकी थीं, ‘बेटा, खाना बन गया?’
एकाएक लगा कि मैं मां की मां बन गई हूं और वे नन्ही बच्ची. उसी कांसे की थाली को साफ कर, चमका कर मां के लिए खाना लगा दिया.
‘‘खाना खा लो, मां’’
मां की आंखें खुशी से चमक रही थीं. बांहों का सहारा दे कर, 2 बड़े तकियों के सहारे उन्हें बैठा दिया. अपने हाथ से उन्हें पहला कौर दिया तो मां उस बच्चे की तरह खुश हो गईं जिसे उस की पसंदीदा मिठाई एक लंबे अरसे बाद मिली हो. दोनों की आंखों से दुख-वेदना का झरना फूट पड़ा. गहरी चुप्पी में बोलती सिसकियां. मां की कमजोर उंगलियां मेरी घनी केशराशि में गुम हो गईं.
मां की आंखें कहीं दूर, अतीत के किसी कोने में खोई हुई थीं. उन के चेहरे की झुर्रियों में छिपी हुई कहानियां जैसे आज खुलने को बेताब थीं. मैं उन्हें देखती रही, लेकिन मन में उठ रहे सवालों का गुबार मुझे भीतर तक घुटन दे रहा था.
मां के साथ बिताए अपने बचपन के वे दिन चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम गए. जब कभी भाइयों से मेरा झगड़ा होता, मां उन का पक्ष ले मुझे ही गलत ठहरातीं और भाई मु?ो चिढ़ाते हुए बाहर खेलने निकल जाते. छोटीछोटी बातों पर मुझे टोकती थीं मां, भाइयों को नहीं. भाइयों के अच्छे स्कूल थे. इस के अलावा मोटी फीस दे कर उन्हें कोचिंग सैंटर भी भेजा जाता कि वे अच्छा पढ़लिख कर अच्छी नौकरी पा जाएं और मेरे हिस्से में महल्ले का सरकारी स्कूल.
मुझे अकसर सवाल चुभते- क्या मेरा सपना देखने का हक नहीं? क्या मेरी इच्छाएं, मेरी जरूरतें माने नहीं रखतीं? इन सवालों के जवाब मुझे कभी नहीं मिले और न ही कभी मां से पूछने की हिम्मत हुई. सालों तक ये मेरे भीतर एक टीस बन कर रहे और इसी कारण मां के प्रति कभीकभी आक्रोश भी पैदा हो जाता.
लेकिन जैसेजैसे बड़ी हुई, मुझे समझ आया कि मां खुद भी उस व्यवस्था की शिकार थीं जिस ने उन्हें यह सिखाया था कि बेटों को अधिक प्राथमिकता दी जाए. पापा की कठोरता और समाज की अपेक्षाओं ने शायद उन्हें मजबूर कर दिया होगा. फिर भी, बचपन का गहरे में दफन दर्द कभीकभी सिर उठा लेता. लेकिन आज वे खुद अपनी रूढि़वादी सोच और परंपराओं की कैद की सजा उन्हीं बेटों के हाथ भुगतने को मजबूर थीं.
न जाने कब तक मैं भावनाओं के ज्वारभाटे में डूबतीउतराती रही. मेरा गला रुंध गया. धीरे से बोली, ‘‘मां, आप ने हमेशा कहा था कि लड़की पराया धन है और बेटे कुल के दीपक.’’
मेरी बात पूरी भी न हुई कि मां ने मेरे मुंह पर अपना खुरदरा कमजोर हाथ रख, फफक कर रो पड़ीं.
मन के अंदर से मानो कोई बरसों का बंधा हुआ बांध टूट कर बह रहा था. उन का पछतावा, उन का दर्द और उन के भीतर का खालीपन सबकुछ आंसुओं संग बह निकला.
मैं ने धीरे से उन के हाथों को पकड़ा और कहा, ‘‘मां, अब मैं हूं न. अब यह अकेलापन, यह दर्द सब मिल कर बांट लेंगे.’’
मां ने मुझे खींच कर अपने गले से लगा लिया. उन की कमजोर बांहों में वह शक्ति महसूस हुई जो वर्षों पहले मुझे सुकून देती थी. हम दोनों देर तक यों ही बैठे रहे, जैसे एकदूसरे के आंसुओं को चुपचाप समेट रहे हों.
उस रात जब मां सो गईं तो मैं उन के पास बैठी उन के झुर्रियोंभरे चेहरे को निहारती रही. यह वही चेहरा था जिस ने मुझे जीवन दिया, जिस ने मुझे सिखाया कि संघर्ष कैसे किया जाता है. अब वही चेहरा सहारे के लिए मुझे पुकार रहा था. एक नए इरादे के साथ भोर की किरण के इंतजार में कब आंख लग गई, पता ही न चला. Story In Hindi
लेखिका : डा. यशोधरा भटनागर