पिछली सदी के 1970-80 के सब्जी बाजारों की तुलना आज की सब्जी मंडियों से करें तो न्यूयौर्क, पेरिस या लंदन की सब्जी मंडियां ही नहीं, न सिर्फ दिल्ली और मुंबई के सब्जी बाजार, बल्कि लुधियाना और मेरठ तक के सब्जी बाजार तब के मुकाबले आज बहुत बदलेबदले नजर आएंगे. आखिर 1970-80 की सब्जी मंडियों में कहां थे- लाल, पीले और बैगनी रंग की शिमलामिर्च? 1970-80 की सब्जी मंडियों में कहां थे 4 किस्मों के टमाटर, 5-6 किस्मों के बैगन, कई किस्मों के बेर, दर्जनों किस्मों की फलियां और न जाने क्याक्या?
कहने का मतलब यह कि पिछले 4-5 दशकों में सब्जियों की दुनिया में बहुत सारे बदलाव हुए हैं. हर सब्जी की न केवल कईकई किस्में बाजार में आ गई हैं, बल्कि इन के साथ अब मौसमों और महीनों की बंदिशें भी खत्म हो गई हैं.
आज 4 दशकों पहले के मुकाबले हर सब्जी न केवल तमाम नईनई किस्म में मौजूद है बल्कि ये किस्में, किसी भी पुरानी किस्म के मुकाबले कहीं ज्यादा उपयोगी, स्वादिष्ठ और आकर्षक हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि इन्हें कोशिश कर के ऐसा बनाया गया है.
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लेकिन जरा रुकिए, यह सम झने के लिए कि यह बदलाव सिर्फ सब्जियों या फलों तक ही सीमित नहीं और न ही सीमित रहेगा. यह बदलाव और विकास इंसान की काया के संबंध में भी हो रहा है, कुछ अपनी तरफ से और बहुतकुछ कोशिशन. वास्तव में भविष्य में इंसान ऐसा ही नहीं होगा, जैसा आज है.
भविष्य के इंसान के शरीर में बहुत सारी मशीनरी की हिस्सेदारी होगी. सच तो यह है कि इस की अच्छीखासी शुरुआत हो चुकी है. ब्रिटिश रोबोटिक्स इंजीनियर केविन वारविक दुनिया के पहले ऐसे इंसान थे जो यह सम झने के लिए कि इंसान का नर्वस सिस्टम किसी बाहरी मशीन के साथ कैसे संगति करता है या आपस में मिलने पर कैसी प्रतिक्रिया करता है, उन्होंने अपनी बांह के नीचे एक सैंसर या कहें इलैक्ट्रौनिक डिवाइस इंप्लांट कराई थी. उन्हें दुनिया का पहला सायबोर्ग या अर्धमशीनी मानव होने का श्रेय हासिल है.
उड़ भी सकेगा मानव
यूनाइटेड किंगडम में रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस के अध्येता केविन वारविक, जोकि मौजूदा समय में कोवैंट्री यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं, बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, ‘‘कल का इंसान आज के जैसा बिलकुल नहीं होगा.’’ हम सब ने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि हमारे पूर्वजों के एक जमाने में, भले यह 10,000 साल पहले की बात हो, पूंछ हुआ करती थी. लेकिन कालांतर में वह गायब हो गई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इंसान के लिए उस की कोई उपयोगिता नहीं बची.
उपयोगिता का यही सिद्धांत आने वाले दिनों में इंसान के और बहुत से अंगों पर लागू होगा और तमाम ऐसे अंगों की जरूरत पर भी लागू होगा जोकि मौजूदा लाइफस्टाइल के हिसाब से भविष्य में चाहिए होंगे. मसलन, इंसान के जीवन में रफ्तार की जरूरत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. इसलिए, विकासक्रम का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों को लगता है कि भविष्य का इंसान उड़ भी सकता है.
इंसान के लिए उड़ने की बात कहते हुए वैज्ञानिक अभी भी बहुत सारे किंतुपरंतु का सहारा ले रहे हैं, लेकिन बंदरों को ले कर वे काफी विश्वसनीयता से ऐसा कह रहे हैं तो क्या भविष्य तथाकथित हनुमान के उड़ने को सच साबित करने जा रहा है? शायद हां, लेकिन हालफिलहाल में नहीं, बहुत सालों बाद, बल्कि हजारों साल बाद.
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दरअसल इस उम्मीद का आधार इंसान का क्रमागत विकास का इतिहास है, जिस के मुताबिक, शरीर के जिन अंगों की जरूरत हमें नहीं थी, वे स्वमेव खत्म हो गए और जिन की जरूरत थी लेकिन वे नहीं थे, धीरेधीरे विकसित हो गए. चूंकि पहले तो महज जरूरत ही एकमात्र कैटेलिटिक एजेंट थी, जिस के चलते ये जरूरी बदलाव और विकास हुए, जबकि अब तो इस जरूरत को विकास के लिए पंख देने हेतु विकसित विज्ञान भी है. ऐसे में क्यों न यह अनुमान लगाने की कोशिश की जाए कि भविष्य में इंसान का बहुत काल्पनिक हद तक विकास होगा.
आज के जैसा नहीं होगा जीवन
वैसे भी माना जाता है कि प्रकृति के विकास का पहिया हमेशा घूमता रहता है. इस प्रक्रिया के चलते भी इंसान के रंगरूप, आकार और गतिविधियों में कई किस्म के चौंकाने वाले बदलाव वैज्ञानिक कल्पना कर पा रहे हैं. बीबीसी भविष्य सीरीज के तहत छपे एक शोधलेख के मुताबिक, ‘आने वाले समय में पूरी कायनात में ऐसे परिवर्तन होंगे कि धरती पर रहने वाला कोई भी जीव आज के जैसा नजर नहीं आएगा.’
वर्ष 1980 में लेखक डुगल डिक्सन ने एक किताब लिखी थी, ‘आफ्टर मैन : ए जूलौजी औफ द फ्यूचर.’ इस किताब में उन्होंने लाखों साल बाद नजर आने वाली ऐसी दुनिया की कल्पना की है जिस पर यकीन कर पाना मुश्किल है. इस किताब में उड़ने वाले बंदर, चिडि़यों की शक्ल वाले ऐसे फूल जिन पर शिकार खुद आ कर बैठता है और उड़ने वाले ऐसे सांपों का जिक्र है जो हवा में ही अपना शिकार कर लेते हैं. किसी आम इंसान के लिए यह दुनिया किसी सनकी लेखक के दिमाग की उपज से ज्यादा कुछ नहीं. यह पूरी तरह मनगढ़ंत है. लेकिन, रिसर्चर इस किताब में भविष्य की तमाम संभावनाएं देखते हैं.
क्रमिक विकास के जीव वैज्ञानिक जोनाथन लोसोस के मुताबिक, ‘करीब 54 करोड़ साल पहले जब कैम्ब्रियन विस्फोट हुआ था, तो धरती कई तरह के अजीब जीवों से फट पड़ी थी. इस दौर के हैलोसेजिन्या नाम के एक जीव के जीवाश्म मिले हैं, जिस के पूरे शरीर पर हड्डियों का ऐसा जाल था जैसा कि हमारी रीढ़ की हड्डी में देखने को मिलता है. इस बात की पूरी संभावना है कि निकट भविष्य में ऐसे ही कुछ और जीव पैदा हो जाएं.’
जोनाथन जिस तरह की कल्पना से एक अर्धमानवों के विकास की बात कर रहे हैं वह बात विज्ञान के दायरे में भले पहली बार हो रही हो लेकिन माइथोलौजी के दायरे में इस तरह की जीव प्रजातियों के बारे में बातें ही नहीं, बल्कि उन के तमाम जीवन कौशलों का विस्तृत लेखाजोखा दुनिया की तमाम सभ्यताओं के पास है. हिंदू माइथोलौजी तो इस का भंडार है. इस में अनेक ऐसे राक्षसों का जिक्र है. जिन की आज भी किसी हाइब्रिड विज्ञान में कल्पना मुश्किल लगती है. लेकिन, रोमन और ग्रीकन माइथोलौजी में भी ऐसी जीव प्रजातियां हैं जो जलचर, नभचर और थलचर एकसाथ हैं.
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कुल मिला कर इंसान का तेज रफ्तार विकास उस तरफ जा रहा है जहां जल्द ही वह अपनी कोई नई पहचान हासिल करेगा. लेकिन इस नई पहचान पाने का समय कोई 10-20 या 50-100 साल की सीमा नहीं है, बल्कि यह सैकड़ों साल आगे की संभावनाओं का खाका है.