पितृसत्तात्मक समाज की चालाकी और लालच आज भी महिलाओं का अस्तित्व उस के शरीर से आगे स्वीकार करने को तैयार नहीं है और उस की देह पर अपना कब्जा जमाए रखने के लिए वह औरत को कपड़ों की जकड़ व आभूषणों की बेडि़यों में कसे रखना चाहता है. इन बेडि़यों को काटे बिना औरत की गति नहीं है. इस षड्यंत्र को समझना और इस से मुक्त होने के रास्ते औरत को ही निकालने होंगे.

अकसर देखा गया है कि किसी बिल्ंिडग में आग लगने पर हताहतों की संख्या में औरतों की संख्या मर्दों से ज्यादा होती है क्योंकि वे अपने कपड़ों के कारण जल्दी भाग नहीं पातीं, पुरुषों की तरह तीनतीन सीढि़यां फलांग कर उतर नहीं पातीं. खिड़की के रास्ते कूद नहीं पातीं. उन के लबादेनुमा कपड़े इस में बाधक बन जाते हैं. उन की साड़ी या दुपट्टा आग पकड़ लेता है और वे उस आग में घिर कर झुलस जाती हैं या मर जाती हैं.

दुर्घटना के वक्त ज्यादातर औरतों के कपड़े ही उन की जान जाने का कारण बनते हैं. इस के उलट मर्द जोकि पैंट या निक्कर में होते हैं, तेजी से बच कर भाग निकलते हैं. पैंट, जिस में चलनाफिरना आसान है, लगातार पहनते रहने के कारण उन को आदत होती है तेज चलने या भागने की, लिहाजा वे तेजी से सीढि़यां फलांग लेते हैं, खिड़कियों से कूद जाते हैं. वहीं सलवारकुरता या साड़ी में औरतों को धीमे चलने की ट्रेनिंग यह समाज देता है, लिहाजा दुर्घटना के वक्त भी उन के पैरों में गति नहीं आ पाती, और दूसरी ओर उन के पहने गए कपड़े भी रुकावट पैदा करते हैं. ऐसे समाचार भी अकसर सुनने को मिल जाते हैं कि बाइक या स्कूटर पर पीछे बैठी महिला का दुपट्टा उस के गले और बाइक के टायर के बीच फंस कर उस की मौत का कारण बन गया.

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अकसर देखा गया है कि बलात्कार, हिंसा, उत्पीड़न और छेड़छाड़ की शिकार वे महिलाएं ही ज्यादा होती हैं जो सलवारसूट या साड़ी में होती हैं. ये कपड़े उन को मानसिक व शारीरिक रूप से इतना कमजोर और लाचार बना देते हैं कि वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध भी नहीं कर पाती हैं. अत्याचारी के चंगुल से निकल कर भाग नहीं पाती हैं. ये दब्बूपना, डर, आतंरिक कमजोरी और लाचारी की भावना उन को उन पर थोपे गए कपड़ों से मिलती है. जबकि जींसटीशर्ट पहनने वाली महिला को कोई अपराधी तत्त्व जल्दी छेड़ने की हिम्मत नहीं करता है क्योंकि वे पलटवार करती हैं. तेजी से बच निकलती हैं. ये हिम्मत और निडरता उन को उन के कपड़ों से मिलती है.

अकसर देखा गया है कि पैंटशर्ट या जींस पहनने वाली महिलाएं कहीं आनेजाने के लिए किसी पर आश्रित नहीं होती हैं. वे खुद स्कूटर या बाइक चला कर निकल जाती हैं. उन्हें कहीं जाने के लिए पति, पिता या भाई का रास्ता नहीं देखना पड़ता है, बस या रिकशा का इंतजार नहीं करना पड़ता है. वे खुद सक्षम हैं, यह आत्मविश्वास उन को उन के कपड़ों से मिलता है.

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जींसटीशर्ट या पैंटशर्ट पहनने वाली महिलाएं, साड़ी या सलवारसूट पहनने वाली महिलाओं के मुकाबले ज्यादा चुस्त, ऊर्जावान, शारीरिक रूप से फिट, खूबसूरत, आत्मविश्वास से भरी हुई और तेजी से काम निबटाने वाली होती हैं. कार्यालयों में उन की पूछ भी ज्यादा होती है. इस में दोराय नहीं कि यह चुस्तीफुरती उन को उन के कपड़ों से मिलती है.

सवाल यह उठता है कि जो कपड़े स्त्री को संबल, निडरता, ताकत, ऊर्जा और गति देते हैं, उन को पहनने के बजाय वे क्यों खुद को 6 गज लंबे कपड़े में लपेटे रखना चाहती हैं? क्यों इधरउधर लटके रहने वाले, मशीनों में फंस कर ऐक्सिडैंट कराने वाले कपड़े पहनती हैं? आखिर क्यों अपनी गति को बाधित करती हैं? दुनिया का हर घर चलाने वाली औरत, मर्द के मुकाबले दोगुना काम करने वाली औरत, घर और कार्यालय एकसाथ संभालने वाली औरत क्यों अपने मूवमैंट के लिए जीवनभर दूसरों की दया पर निर्भर रहती है?

सवाल यह भी उठता है कि क्यों फैशन वर्ल्ड, कपड़ा उद्योग, मनोरंजन की दुनिया में उन ड्रैसों का प्रचारप्रसार, दिखावा और ट्रैंड में होने का विज्ञापन ज्यादा है जो महिलाओं की आजादी और गति को बाधित करता है? दरअसल, यह पितृसत्तात्मक सोच है जो औरत को गुलाम बनाए रखने की कोशिश में आदिकाल से लगी है. औरत के वस्त्र हों या आभूषण अथवा अन्य साजशृंगार, ये सभी औरत को मर्द की दासी घोषित करने वाले प्रतीक माने जाते हैं.

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जिस दिन पति अपनी पत्नी के गले में मंगलसूत्र बांधता है, उस दिन वह उस को अपनी दासी घोषित करता है, क्योंकि आभूषण अगर धर्म, संबंध, धन और वैभव के प्रतीक के रूप में स्त्री को पहनाए जाते हैं, तो इस धर्म, संबंध, धन और वैभव का प्रदर्शन फिर पुरुष भी क्यों नहीं करता? भारी पायल सिर्फ स्त्री के पैरों में ही क्यों सजाई जाती है? सिर्फ इस उद्देश्य से ताकि उस की गति को रोका जा सके और पायल की छम्मछम्म से उस के मूवमैंट का पता चलता रहे. ये आभूषण नहीं स्त्री के शरीर पर बांधे गए झुनझुने हैं जो घर के पुरुष को पलपल इस बात की जानकारी देते रहते हैं कि उस की स्त्री किस जगह है और क्या कर रही है. शृंगार और कपड़ों के जरिए औरत को गुलाम बनाने की कोशिश सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनियाभर में कमोबेश एक जैसी ही रही है.

पश्चिमी समाज की

गुलाम स्त्री

पहनावे की शैलियों का फर्क दुनियाभर के मर्दों और औरतों के बीच हमेशा से रहा है. विक्टोरियाई इंग्लैंड में महिलाओं को बचपन से ही आज्ञाकारी, खिदमती, सुशील व दब्बू होने की शिक्षा दी जाती थी. उन के पितृसत्तात्मक समाज में आदर्श नारी वही थी जो दुखदर्द सह सके. जहां मर्दों से धीरगंभीर, बलवान, आजाद और आक्रामक होने की उम्मीद की जाती थी, वहीं औरतों को क्षुद्र, छुईमुई, निष्क्रिय व दब्बू माना जाता था.

पहनावे में, रस्मोरिवाज में भी यह फर्क दिखाई देता था. छुटपन से ही लड़कियों को सख्त फीतों से बंधे और शरीर से चिपके कपड़ों में कस कर रखा जाता था. मकसद यह था कि उन के जिस्म का फैलाव न हो, उन का बदन इकहरा रहे. थोड़ी बड़ी होने पर लड़कियों को बदन से चिपके कौर्सेट पहनने होते थे. टाइट फीतों से कसी पतली कमर वाली महिलाओं को आकर्षक, शालीन व सौम्य समझा जाता था. इस तरह विक्टोरियाई महिलाओं की अबला दब्बू छवि बनाने में उन के कपड़ों ने अहम भूमिका निभाई.

महिलाओं ने इन तौरतरीकों को अपने बचपन से देखा. बच्ची ने देखा कि उस की मां कैसे कपड़े पहनती है, तो उस ने भी वही कपड़े अपनाए. उन कपड़ों को पहनने पर उसे अपने पुरुष पिता की ओर से शाबाशी और स्नेह मिला तो उस ने इस बारे में सोचा ही नहीं कि वह ऐसे कपड़े क्यों पहन रही है, जिस को पहन कर न तो वह खेल सकती है और न ही भागदौड़ कर सकती है.

उस ने कभी यह सवाल ही नहीं उठाया कि वह अपने पिता की तरह के कपड़े क्यों नहीं पहन सकती है. विक्टोरिया काल में आदर्श नारी की इस परिभाषा को बहुत सारी महिलाएं मानती थीं. यह संस्कार उन के माहौल में, उस हवा में जहां वे सांस लेतीं,  किताबें जो वे पढ़तीं, जो वह उन किताबों के चित्रों में देखतीं और घर व स्कूल में जो शिक्षा उन्हें दी जाती थी, सर्वव्याप्त था. बचपन से ही उन्हें घुट्टी पिला दी जाती थी कि पतली कमर रखना उन का नारीसुलभ कर्तव्य है. सहनशीलना महिलाओं का जरूरी गुण है. आकर्षक दिखने के लिए उन का शरीर से चिपका, कमर पर कसा और एड़ी तक लंबा कौर्सेट पहनना जरूरी था. इस के लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात मानी जाती थी.

हालांकि कालांतर में इन मूल्यों को सभी औरतों ने स्वीकार नहीं किया. 19वीं सदी के दौरान कुछ विचार बदले. इंग्लैंड में 1830 के दशक तक महिलाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं ने आंदोलन किया और पोशाक सुधार की मुहिम भी चल पड़ी. महिला पत्रिकाओं ने बताना शुरू कर दिया कि तंग कपड़े और कौर्सेट पहनने से युवतियों में कैसीकैसी बीमारियां और जटिलताएं आ जाती हैं. ऐसे पहनावे शारीरिक विकास में बाधा पहुंचाते हैं, इन से रक्तप्रवाह भी अवरुद्ध होता है. मांसपेशियां अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ की हड्डी भी झुक जाती है.

पत्रिकाओं में इंटरव्यू के जरिए डाक्टरों ने बताया कि महिलाएं आमतौर पर कमजोरी की शिकायत ले कर आती हैं, बताती हैं कि शरीर निढाल रहता है, जबतब बेहोश हो जाया करती हैं.

अमेरिका में भी पूर्वी तट के गोरे प्रवासी लोगों के बीच ऐसा ही आंदोलन चला. पारंपरिक महिला कपड़ों को कई कारणों से बुरा बताया गया. कहा गया कि लंबे स्कर्ट, घाघरा, लहंगा आदि झाड़ू की तरह फर्श को बुहारते हुए चलते हैं और अपने साथसाथ कूड़ा व  धूल बटोरते हैं जो कई गंभीर बीमारियों का कारण है. फिर औरतों की स्कर्ट इतनी विशाल होती थी कि संभलती ही नहीं थी और चलने में परेशानी होने के कारण औरतों का काम करना  व जीविका कमाना मुश्किल था. कपड़ों में सुधार करने से महिलाओं की स्थिति में बदलाव आएगा, ऐसी बातों की लहर चलने लगी. कहा गया कि कपड़े अगर आरामदेह हों तो औरतें बाहर निकल कर कामधंधा कर सकती हैं, स्वतंत्र भी हो सकती हैं.

1870 के दशक में, श्रीमती स्टैंटन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ और अमेरिकी महिला मताधिकार एसोसिएशन के नेतृत्व में लुसी स्टोन ने ड्रैस सुधार के लिए बहुत प्रचार किया. उद्देश्य था पोशाक को आसान बनाना, स्कर्टों को छोटा करना और शरीर से कसे हुए कौर्सेट छोड़ना. उन का कहना था, ‘कपड़ों को सरल बनाओ, स्कर्ट छोटी करो और कौर्सेट का त्याग करो.’ इस तरह अटलांटिक के दोनों तरफ आसानी से पहने जाने वाले कपड़ों की मुहिम चल पड़ी.

सामाजिक मूल्यों में बदलाव तुरंत नहीं हुए

पाश्चात्य देशों में स्त्री पहनावे को ले कर कई आंदोलन हुए मगर पितृसत्तात्मक समाज से अपनी मांगें मनवाने में महिलाएं फौरन कामयाब नहीं हुईं. उन्हें उपहास और दंड दोनों झेलने पड़े. दकियानूसी तबकों ने हर जगह परिवर्तन का विरोध किया. उन का प्रलाप यह होता था कि पारंपरिक शैली की ड्रैसें नहीं पहनने से महिलाओं की खूबसूरती खत्म हो जाएगी. यही नहीं, उन की शालीनता भी गायब हो जाएगी. इन लगातार हमलों से त्रस्त हो कर कई महिला सुधारकों ने अपने कदम वापस घरों में खींच लिए और एक बार फिर पारंपरिक कपड़े पहनने लगीं.

फिर भी, 19वीं सदी के अंत तक हवा का रुख काफी बदल गया. कई तरह के दबावों में आ कर सौंदर्य के विचार और पहनावे की शैलियों में बुनियादी बदलाव आए. नए वक्त के साथ नए मूल्य भी चलन में आए. नए दौर में मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं के पहनावे में कई बड़े बदलाव आए और उन की स्कर्ट से लंबी झालरें गायब हो गईं.

प्रथम विश्व युद्ध ने औरत की पोशाक बदली

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान महिलाएं भी ब्रितानी हथियार फैक्ट्री में काम करने के लिए घरों से बाहर निकलीं. तब इसी पितृसत्ता ने, जो उन्हें लंबे लबादों में शालीन और सुंदर मानती थी, अपने मतलब के लिए उन के पहनावे में बदलाव को सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस वक्त सहज गति की जरूरत के चलते महिलाओं के कपड़ों में बड़ा परिवर्तन आया और कार्यस्थलों पर महिलाएं पुरुषों की तरह के कपड़े करने लगीं.

ब्रिटेन में 1917 तक आतेआते करीब 70 हजार औरतें हथियार की फैक्ट्रियों में काम कर रही थीं. वे फैक्ट्री में ब्लाउज व पैंट वाली वर्दी पर स्कार्फ पहनने लगीं. बाद में इस वर्दी में स्कार्फ की जगह टोपी ने ले ली. जंग लंबी खिंची, शहीद मर्दों की संख्या बढ़ने लगी तो घरेलू महिलाओं के कपड़ों का भी चटख रंग गायब होने लगा. वे हलके रंग के सादे और सरल कपड़ों में आ गईं. स्कर्ट तो छोटी हुई ही, ट्राउजर भी जल्द ही पाश्चात्य महिला की पोशाक का अहम हिस्सा बन गया. इस से उन्हें चलनेफिरने की बेहतर आजादी हासिल हुई और सब से जरूरी बात, सहूलियत की खातिर औरतों ने बाल भी छोटे रखने शुरू कर दिए.

20वीं सदी आतेआते कठोर और सादगीभरी जीवनशैली गंभीरता और प्रोफैशनल अंदाज का पर्याय हो गई. बच्चों के स्कूलों में सादी पोशाक पर शोर दिया गया और तड़कभड़क को हतोत्साहित किया गया. लड़कियों के पाठ्यक्रम में जिमनास्टिक व अन्य खेलों का प्रवेश हुआ. खेलनेकूदने में उन्हें ऐसे कपड़ों की दरकार थी, जिस से उन की गति में बाधा न आए. उसी तरह काम के लिए बाहर जाने के वक्त उन्हें आरामदेह और सुविधाजनक कपड़ों की जरूरत हुई.

महिलाओं ने भारीभरकम, बेहद तंग और उलझाऊ वस्त्रों को 1870 के दशक तक धीरेधीरे त्याग दिया. कपड़े अब हलके, छोटे और पतले होने लगे. लेकिन फिर भी 1914 तक तो महिलाओं के कपड़े एड़ी तक होते ही थे और यह लंबाई 13वीं सदी से बदस्तूर चली आ रही थी. लेकिन अगले साल, 1915 में ही, स्कर्ट का पायंचा उठ कर अचानक पिंडलियों तक सरक आया.

दरअसल, यह बड़ा परिवर्तन विश्व युद्ध के कारण आया जब यूरोप में ढेर सारी औरतों ने जेवर और बेशकीमती कपड़े पहनने छोड़ दिए. उच्चवर्ग की महिलाएं अन्य तबकों की महिलाओं से घुलनेमिलने लगीं जो अपने कामधंधे के दौरान पिंडलियों तक की स्कर्ट पहनती थीं. उन की देखादेखी उच्चवर्ग की महिलाओं ने भी अपनी स्कर्ट छोटी की. इस से सामाजिक सीमाएं भी टूटीं और महिलाएं एकसी दिखने लगीं.

इस तरह औरत के कपड़ों का इतिहास समाज के वृहत्तर इतिहास से गुंथा रहा. पितृसत्ता ने अपने मतलब के लिए जब भी औरत की शारीरिक व मानसिक शक्ति का इस्तेमाल किया, उस ने उस के पहनावे में बदलाव को भी स्वीकार कर लिया. खूबसूरती की परिभाषा जरूरत के मुताबिक बदल ली जाती रही. मगर अधिकांश देशों में और खासतौर पर मुसलिम देशों में औरत को घर की चारदीवारी में समेटे रखने की मानसिकता के चलते उस के शरीर पर वजनी और गतिरोधक लबादे डाल कर रखे गए, जो आज तक बदस्तूर जारी है.

अरब देश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत हर जगह औरतों की हालत लगभग एकजैसी है. उन्हें सुंदर, शालीन, संस्कारी जैसी तारीफों के मकड़जाल में फंसा कर कपड़ों और जेवरों की बेडि़यों में जकड़ दिया गया है. कितनी हैरत की बात है कि धन की देवी लक्ष्मी को पूजने वाले अपने घर की बेटी लक्ष्मी को धनसंपत्ति में कोई अधिकार नहीं देना चाहते. वह एकएक पैसे के लिए घर के मर्दों के आगे भिखारी की तरह हाथ फैलाती है.

ज्ञान की देवी सरस्वती की आराधना करने वाले घर की ‘सरस्वतियों’ को स्कूल नहीं भेजना चाहते, उस को उच्च शिक्षा नहीं लेने देते, बल्कि उस के गले में एक मर्द से मंगलसूत्र बंधवा कर उस को उस की दासी घोषित करना अपना सब से बड़ा धर्म व गर्व समझते हैं. कहानियों में, लोककथाओं में, धार्मिक किताबों में, पूजा स्थलों में नारी को नर से आगे रखने वाले वास्तविक जीवन में नारी की गति और आजादी को बांध कर उसे हमेशा पीछे धकेले रखना चाहते हैं.

बंगलादेश में रेडीमेड कपड़ों की दुकानों पर नजर डालें, तो वहां पुरुषों के लिए शर्ट, पैंट, टाई या कुरता, पायजामा तो है, लेकिन महिलाओं के लिए बुर्के की तरह लंबी पोशाक है. सिर ढकने के लिए हिजाब भी है. कहींकहीं महिलाएं साड़ी के ऊपर बुर्के की जगह गाउन पहनती हैं. साड़ी पहनने पर पूरी बांह वाले ब्लाउज पहनने का चलन है. बंगलादेश में भीषण गरमी पड़ती है. फिर भी महिलाओं को लबादे पर लबादा ओढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है. गरम मुसलिम इलाकों में बुर्के और हिजाब का चलन लागू करना धर्म के नाम पर उस की गति रोकने का वही तरीका है, जिसे औरत शताब्दियों से भुगत रही है.

दरअसल, पुरुष खुद अपने को बंधनमुक्त रख कर महिलाओं को संस्कारों के नाम पर बांधे रखना चाहता है ताकि महिलाओं को अपने बारे में सोचने की ही फुरसत न मिले. महिलाओं को भी अपनी उस पारंपरिक और तथाकथित पवित्र छवि से मोह हो गया है जो उन के लिए पुरुषों ने गढ़ी है. जबकि वे काम की जगहों पर अपने कपड़ों की वजह से पिछड़ रही हैं, अपने कपड़ों के कारण कई तरह की मुसीबतों का सामना कर रही है. वे खुद यह भी मानती हैं कि कपड़ा किसी के चरित्र का मापदंड नहीं होता है. वे सवाल भी उठाती हैं कि जहां महिलाएं घूंघट या बुर्के में रहती हैं, वहां क्या उन का बहुत सम्मान किया जाता है? क्या उन्हें वहां बराबरी के सारे अधिकार हासिल हैं? क्या कपड़े हमारे चरित्र का पैमाना हैं? बावजूद इन तमाम सवालों के, महिलाएं खुद आगे बढ़ कर गतिरोधक कपड़ों की बेडि़यां उतारना नहीं चाहतीं.

नजर से गिरने का थोथा डर

कपड़ों में बदलाव न करने की सब से बड़ी वजह है डर. यह डर है अपनों की नजरों से गिरने का. सिर से पल्ला हटाया तो ससुर क्या कहेगा? देवर कैसी नजरों से देखेगा? जेठ के सामने से कैसे निकलूंगी? सास ताने मारेगी. महल्ले वाले बातें बनाएंगे. कैसी असंस्कारी, असभ्य, निर्लज्ज बहू है, ऐसी बातों के बाण मारेंगे. मनचले छेड़ेंगे. यही डर बेटियों को है कि जींसटौप पहना, तो पापा गुस्सा होंगे, भाई चिल्लाएगा. इस डर का मुकाबला कर के इस को हरा कर जो लड़कियां आगे बढ़ गईं, जीवन उन के लिए आसान हो गया. जीवन में गति आ गई, आजादी और आत्मनिर्भरता आ गई, खुद में आत्मविश्वास जागा.

कुसुम को पति की मौत के बाद जब सरकारी फैक्ट्री में उस की जगह काम करने का मौका मिला तो उस की ससुराल वालों ने सहर्ष हामी भर दी. बल्कि उस को पति की जगह काम दिलवाने की कोशिश तो घर वालों की सलाह से उस के जेठ ने ही की और कुसुम को काम मिल गया. 2 नन्हे बच्चों की विधवा मां कुसुम को ससुराल में रहने के लिए पैसे की जरूरत थी और ससुराल वालों को भी उस धन की लालसा जो वेतन के रूप में पहले बेटा लाता था और अब उस के मरने के बाद उन की बहू लाएगी.

कुसुम काम के लिए फैक्ट्री जाने लगी. वह रोज सुबह साड़ी लपेट कर सिर पर माथे तक पल्ला निकाल कर घर से निकलती थी, महल्ला पार करती, बस में सवार होती और आधे घंटे के सफर के बाद पसीने से लथपथ फैक्ट्री पहुंचती थी. फैक्ट्री पहुंच कर वह सिर से पल्ला उतार कर कमर में खोंस लेती ताकि मशीन पर खड़ी हो कर काम कर सके. लेकिन कुसुम की तारीफ घर और महल्ले में थी कि देखो, काम पर जाती है पर क्या मजाल कि सिर से एक इंच भी पल्ला खिसक जाए, कैसी संस्कारी बहू है. बस, यही संस्कारी बहू वाले तमगे ने उसे अपने कपड़ों में बदलाव से रोका हुआ है.

मशीन पर खड़े होते वक्त वह साड़ी के कारण परेशान होती रहती है, रास्तेभर यह 6 गज का कपड़ा उसे तेज चलने से रोकता है, गरमी के कारण आए पसीने में पेटीकोट बारबार दोनों पैरों के बीच चिपकता और फंसता है, मगर संस्कारी बहू इन परेशानियों को जीवनभर झेलती है और यही घुटनभरा संस्कार वह अपनी बेटियों को भी परोसती है.

पाकिस्तान में औफिस में काम करने वाली कितनी महिलाएं और कालेज जाने वाले लड़कियां जींसटौप के ऊपर बुर्का पहनती हैं, जो औफिस या कालेज पहुंचने के बाद उतर जाते हैं. महज इस कारण से कि कहीं उन की तथाकथित ‘शालीनता’ और ‘लज्जा’ पर सवाल न खड़े हो जाएं. यह बिलकुल ऐसा है जैसे मन गतिमान है, वह उड़ना चाहता है मगर सामाजिक तमगों के कारण औरतें खुद कपड़े पर कपड़ा ओढ़ कर उस गति को रोक देती हैं.

धर्म डालता है आजादी में बाधा

औरत को आजाद होने और गतिशील होने में सब से बड़ा बाधक है धर्म. धार्मिक स्थलों पर पुरुष तो पैंटशर्ट पहन कर जा सकता है मगर औरत नहीं. पुरुष अगर लुंगी या धोती पहने है तो अपनी लुंगी या धोती को घुटनों तक चढ़ा कर अपने पैरों का प्रदर्शन कर सकता है मगर औरत की साड़ी एड़ी तक होनी चाहिए. औरत को पल्लू से सिर भी ढांकना होगा. धार्मिक स्थल पर वह स्कर्ट पहन कर नहीं घुस सकती. सलवारकुरता पहने है तो लंबे दुपट्टे से सिर और छाती को ढकना होगा. हिंदू औरत पति के साथ पूजा में बैठती है, तो पूरे शरीर सहित उस का सिर और आधा चेहरा भी साड़ी के पल्लू से छिपा रहता है.

ये तमाम नियम धर्म और धर्म के ठेकेदारों ने औरतों पर थोपे हैं. ये नियम सभी धर्मों में हैं. ईसाई औरत लंबे गाउन पहनती है और सिर पर स्कार्फ या दुपट्टा बांध कर चर्च जाती है. मुसलमान औरतों को तो मसजिद में आना ही मना है, हालांकि वे आ सकती हैं, मगर उन के घरों से ही इजाजत नहीं मिलती. अन्य कामों से बाहर निकलती हैं तो उन को अपने सिर सहित पूरा शरीर लाबादेनुमा बुर्के में लपेटना होता है.

औरतें कैसे कपड़े पहनें, यह उन के धर्म और उस के ठेकेदार तय कर के उन के समाज और परिवार के माध्यम से उन पर लागू करवाते हैं. मगर यही धर्म और उस के ठेकेदार वहां चुप्पी साध लेते हैं जहां औरतें तपती धूप में खेतों या फैक्ट्रियों में काम करती हैं. जहां वे अपनी साडि़यों को धोती की तरह दोनों पैरों के बीच इस तरह पहन लेती हैं कि काम करने के लिए उन के पैर कपड़े में न अटकें. धोतीनुमा पहनी गई साड़ी कभीकभी उन की जांघों तक चढ़ आती है. आमतौर पर धान की रोपाई के वक्त पानी से भरे खेतों में औरतों को आप इसी पोशाक में पाएंगे. तब उन के सिर पर कोई घूंघट भी नहीं होता. तब क्योंकि, औरत से शारीरिक श्रम लेना है तो वहां कपड़ों के कारण शालीनता खोने या स्त्रियों के गुण खत्म होने का कोई सवाल पैदा नहीं होता है. वाह रे, दोमुंहा पितृसत्तात्मक समाज.

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