चुनावी राजनीति में महिलाओं की भूमिका बदल गई है. अब जो महिलाओं के हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा. वैसे तो महिलाओं की भूमिका बहुत पहले भी थी अब यह अहम होती जा रही है. बिहार में नीतीश कुमार की जीत में महिलाओं की भूमिका दिखी थी. उन की शराब बंदी योजना से सब से अधिक महिलाएं खुश थीं, क्योकि शराब पी कर पति की मार पत्नियों को ही खाना पड़ती थी. अब वोट लेने के लिए महिलाओं तक नकद रूपया पहुंचाना पड़ रहा था. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री रहते हुए ‘लाड़ली बहना योजना’ चलाई थी. महिलाओं के बीच उन की लोकप्रियता बढ़ी तो उन का नाम ही ‘शिवराज मामा’ पड़ गया.
इस के बाद चुनाव में महिलाओं तक नकदी पहुंचाने की होड़ मच गई. यही जीत का मूलमंत्र हो गया. महिलाओं को सामने रख कर बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं ने पूरी वर्ण व्यवस्था को बदल कर रख दिया. रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं को ‘ताड़न के अधिकारी’ बता कर उन के साथ भेदभाव किया गया. वोट व्यवस्था ने पूरे हालात को बदल कर रख दिया. अब कोई महिला ताड़न की अधिकारी नहीं है. ऐसे में हिंदू राष्ट्र बना कर जिस तरह से वर्ण व्यवस्था को लागू करने की कोशिश हो रही है वह कैसे सफल होगी ?
अयोध्या में राममंदिर की राजनीति के सहारे भारतीय जनता पार्टी देश में धर्म का राज स्थापित करना चाहती थी. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राममंदिर का उदघाटन करने के पीछे सब से बड़ी योजना इस लिए थी कि इसी के सहारे जीत हासिल कर ली जाए. चुनाव में यह मुद्दा चला नहीं. भाजपा को केवल 240 सीटें ही मिल सकीं. राममंदिर से पहले उन को 300 से उपर सीटें मिली थीं. राममंदिर का चुनावी लाभ नहीं मिल सका. राममंदिर के सहारे देश में वर्ण व्यवस्था लागू नहीं हो सकी. इस के बाद के चुनाव में महिलाओं को खुश करने वाले काम करने पड़े. जिस का लाभ भी हुआ. महिलाओं के खाते में सीधे नगद ट्रांसफर की जाने वाली योजना ने भारत की राजनीति में वोट लेने का एक प्रमुख तरीका हो गया. मध्य प्रदेश में इस योजना की कामयाबी के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में भी इस का सही परीक्षण हुआ है. यह वोट व्यवस्था के आसमान पर एक नया राकेट लांच होने जैसा है.
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