चुनावी राजनीति में महिलाओं की भूमिका बदल गई है. अब जो महिलाओं के हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा. वैसे तो महिलाओं की भूमिका बहुत पहले भी थी अब यह अहम होती जा रही है. बिहार में नीतीश कुमार की जीत में महिलाओं की भूमिका दिखी थी. उन की शराब बंदी योजना से सब से अधिक महिलाएं खुश थीं, क्योकि शराब पी कर पति की मार पत्नियों को ही खाना पड़ती थी. अब वोट लेने के लिए महिलाओं तक नकद रूपया पहुंचाना पड़ रहा था. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री रहते हुए ‘लाड़ली बहना योजना’ चलाई थी. महिलाओं के बीच उन की लोकप्रियता बढ़ी तो उन का नाम ही ‘शिवराज मामा’ पड़ गया.

 

इस के बाद चुनाव में महिलाओं तक नकदी पहुंचाने की होड़ मच गई. यही जीत का मूलमंत्र हो गया. महिलाओं को सामने रख कर बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं ने पूरी वर्ण व्यवस्था को बदल कर रख दिया. रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं को ‘ताड़न के अधिकारी’ बता कर उन के साथ भेदभाव किया गया. वोट व्यवस्था ने पूरे हालात को बदल कर रख दिया. अब कोई महिला ताड़न की अधिकारी नहीं है. ऐसे में हिंदू राष्ट्र बना कर जिस तरह से वर्ण व्यवस्था को लागू करने की कोशिश हो रही है वह कैसे सफल होगी ?

अयोध्या में राममंदिर की राजनीति के सहारे भारतीय जनता पार्टी देश में धर्म का राज स्थापित करना चाहती थी. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राममंदिर का उदघाटन करने के पीछे सब से बड़ी योजना इस लिए थी कि इसी के सहारे जीत हासिल कर ली जाए. चुनाव में यह मुद्दा चला नहीं. भाजपा को केवल 240 सीटें ही मिल सकीं. राममंदिर से पहले उन को 300 से उपर सीटें मिली थीं. राममंदिर का चुनावी लाभ नहीं मिल सका. राममंदिर के सहारे देश में वर्ण व्यवस्था लागू नहीं हो सकी. इस के बाद के चुनाव में महिलाओं को खुश करने वाले काम करने पड़े. जिस का लाभ भी हुआ. महिलाओं के खाते में सीधे नगद ट्रांसफर की जाने वाली योजना ने भारत की राजनीति में वोट लेने का एक प्रमुख तरीका हो गया. मध्य प्रदेश में इस योजना की कामयाबी के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में भी इस का सही परीक्षण हुआ है. यह वोट व्यवस्था के आसमान पर एक नया राकेट लांच होने जैसा है.

झारखंड विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की बढ़ती राजनीतिक ताकत को देखते हुए महिला केंद्रित कल्याण योजनाओं को सामने रखा गया. झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ‘मंईयां सम्मान योजना’ तैयार की. इस योजना के तहत अगस्त 2024 से प्रतिमाह महिलाओं को एक हजार रुपए देना शुरू किया. इस योजना में 66 प्रतिशत महिला सदस्यों ने पंजीकरण कराया. इन परिवारों में से, लगभग 47 प्रतिशत झारखंड मुक्ति मोर्चा के पक्ष में मतदान किया. जिस से पता चलता है कि इस योजना का चुनाव पर कितना प्रभाव पड़ा है.

 

झारखंड मुक्ति मोर्चा की ‘मंईयां सम्मान योजना’ के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी ने ‘गोगो दीदी’ योजना की घोषणा की थी. ‘गोगो दीदी योजना’ भाजपा की तरफ से वादा किया गया कि उन की सरकार आने पर महिलाओं को 2100 रुपए प्रतिमाह का भुगतान किया जाएगा. इस योजना का पार्टी को लाभ हुआ. जिन घरों में महिलाओं ने ‘गोगो दीदी योजना’ के लिए पंजीकरण कराया. उन्होंने भाजपा को वोट दिया. ‘गोगो दीदी योजना’ की काट के लिए झामुमो सरकार ने अपनी ‘मंईयां सम्मान योजना’ के लिए दिए जाने वाले भुगतान को बढ़ा कर 2500 रुपए प्रतिमाह कर दिया.

 

महिलाओं ने वोट व्यवस्था के जरीए वर्ण व्यवस्था को कैसे बदला यह इन के वोटिंग पैटर्न से पता चलाता है. जहां पुरुषों और महिलाओं ने भाजपा को (38 प्रतिशत) समान रूप से समर्थन दिया, वहीं इंडिया ब्लौक गठबंधन ने महिलाओं के बीच बेहतर प्रदर्शन किया. चुनाव में इस गठबंधन को पुरुषों के 43 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं के 45 प्रतिशत वोट मिले. ग्रामीण और आदिवासी मतदाताओं के बीच इंडिया ब्लौक को मिले लाभ की बात करें, तो इन वर्गों की महिलाओं ने भी इंडिया गठबंधन को अधिक वोट दिया. ग्रामीण महिलाओं में से लगभग आधी (48 प्रतिशत) ने, जबकि 37 प्रतिशत शहरी महिलाओं ने इंडिया ब्लौक को समर्थन दिया.

 

कुछ साल पहले तक महिलाएं कम मतदान करती थीं. दूसरा यह माना जाता था कि वह अपने वोट डालने का फैसला खुद नहीं लेती थीं. परिवार के लोग जहां कहते थे वही मतदान हो जाता था. 1984 में पंचायती राज अधिनियम लागू हुआ. उस को लागू होने में 10-12 साल का समय लग गया. पंचायती राज कानून में ग्राम पंचायत के चुनावों और शहरी निकाय चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिला. महिलाओं में राजनीतिक चेतना जगनी शुरू हुई. उन का मतदान भी बढ़ने लगा. उन को राजनीतिक मुददों की समझ भी होने लगी. वह अपने वोट के अधिकार को पहचान गई. वोट पाने के लिए महिलाओं के भी पैर छूने पड़ते हैं. अपने वोट के जरीए महिलाओं ने साबित कर दिया कि वह वर्ण व्यवस्था को बदल लेगी.

 

वोट लेने के लिए उन महिलाओं के सामने राजनीतिक दलों को झुकना पड़ा. महिलाओं के हित में योजनाएं ले कर आनी पडी. जदयू नेता नीतीश कुमार के बाद मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने महिलाओं पर फोकस कर के योजनाएं बनाई. यह दोनों की नेता वर्णव्यवस्था की समर्थक विचारधारा से जुड़े रहे हैं. जो महिलाओं को उन का अधिकार नहीं देना चाहती थी. उन के लिए महिलाएं शुद्र जैसी थीं. वोट के लिए इन शूद्र समान महिलाओं के आगे झुकना पड़ा. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन ने महिलाओं को प्राथमिकता दी. सरकार ने महिला सशक्तिकरण योजना का विस्तार किया. जिस में महिलाओं की शिक्षा और कौशल विकास के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किए गए. ‘लाड़की बहिन योजना’ तैयार की. इस योजना के तहत सरकार हर परिवार की महिला मुखिया को प्रतिमाह 1500 रुपए दे रही है. चुनाव के तुरंत पहले सरकार ने रणनीतिक चाल चलते हुए इस रकम को 2500 तक करने का वादा किया. इस का यह प्रभाव हुआ कि महायुति गठबंधन सत्ता में वापस आ गया.

 

महिलाएं जब इन चुनावों में बढ़ चढ़ कर मतदान करने निकली थीं, उसी समय यह अंदाजा लगने लगा था कि परिणाम क्या होने वाला है ? खासकर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में बड़ी संख्या में महिलाएं वोट देने निकलीं और चुनाव के नतीजे बताते हैं कि महिलाओं ने महायुति सरकार को जम कर वोट किया. यही वजह रही कि जिन सीटों पर महाविकास अघाड़ी महायुति को कांटे की टक्कर दे रही थी वहां भी महायुति ने महिला वोटरों के दम पर बंपर कामयाबी हासिल की.

 

प्रत्यक्ष लाभार्थी महिलाओं को केंद्र रख कर बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं में नकद पैसे हस्तांतरण होते हैं. इस से लाभार्थी तत्काल और बिना झंझट के फायदा महसूस करता है. उसे बिचौलियों से मुक्ति मिलती है और वो सशक्त महसूस करता है. इस फायदे के बदले में उसे संबंधित पार्टी को वोट देने में गुरेज नहीं होता है. एक महिला जब समूह में होती है और इन योजनाओं की चर्चा करती है तो दूसरी महिलाएं भी इस से प्रभावित होती हैं. यह योजनाएं सिंगल मदर, विधवाओं और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को तुरंत आकर्षित करती हैं. क्योंकि इस में बिना किसी सरकारी दखल के उन्हें नगद राशि की प्राप्ति होती है. इन योजनाओं को बनाना पार्टियों के लिए जीत का मंत्र हो गया है. इस से महिलाएं परमानेंट वोट बैंक बदल जाती है.

 

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों से एक साफ तस्वीर उभर कर सामने आती है. महिलाएं अब खामोश वोटर नहीं रह गई हैं. महिलाओं को केंद्र में रख कर बनाई गई योजनाएं राजनीतिक दलों के लिए सफलता का मूलमंत्र बन गई है. चुनाव जीतने के लिए इन की मदद के बिना काम नहीं होने वाला है. ऐसे में वर्णव्यवस्था में यकीन करने वाले दल क्या करेंगे ? उन्होंने अयोध्या में राममंदिर की स्थापना के सहारे हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखा था उस का क्या होगा ? जिस वर्ण व्यवस्था में महिलाओं को ‘ताड़न के अधिकारी’ बताया गया था उसी की बात करने वाली पार्टी महिलाओं को केंद्र में रख कर योजनाएं बना रही है.

 

क्या है वर्ण व्यवस्था ?

वर्ण व्यवस्था की शुरूआत वैदिक काल के समय से मानी जाती है. वर्ण व्यवस्था का सब से पहला संदर्भ ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलता है. वर्ण व्यवस्था में समाज को 4 श्रेणियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा गया था. प्रत्येक वर्ण को मानदंडो के अनुसार दायित्वों का पालन करना था. 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आने के साथ ही भारत में वर्ण व्यवस्था प्रचलन में आ गई. आर्य गोरी चमड़ी वाले लोग थे और अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को बनाए रखने के देश के मूल निवासियों, यानी काली चमड़ी वाले लोगों से खुद को अलग किया. यह काली चमड़ी वालों को दास मानते थे.

इस संघर्ष ने दासों को गुलाम बनाने के इरादे से समूह दो भागों में विभाजित कर दिया. ऋग्वैदिक काल में ही समाज का विभाजन हुआ. आर्यों के एक समूह ने खुद को समुदाय से अलग कर लिया और बौद्धिक नेतृत्व के लिए दावा किया. इन लोगों को ‘पुजारी’ कहा गया. एक और समूह ने खुद को अलग कर लिया. इस ने समाज की रक्षा के लिए दावा किया जिसे ‘राजन्या’ कहा गया. इस प्रकार समाज तीन समूहों में विभाजित हो गया. पुजारी, राजन्य और आम लोग.

ऋग्वेद के दसवें मंडल के अनुसार उत्तर वैदिक काल में शूद्र नामक एक नए वर्ण का जन्म हुआ. वहां से वर्ण व्यवस्था में 4 हिस्से हो गए. ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्यों को द्विज का दर्जा दिया गया. शूद्रों को द्विज स्थिति के दायरे से बाहर रखा गया था. उन का काम ऊपरी 3 वर्णों की सेवा करना था. अछूतों को वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं माना गया था. वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण का स्थान सब से उपर था. आध्यात्मिक व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उन के ऊपर थी. चारों वर्णों के बीच की कड़ी के रूप में काम करते थे. एक ब्राह्मण महिला एक ब्राह्मण पुरुष से शादी कर सकती थी. जबकि उसे अपनी पसंद के पुरुष से शादी करने की पर्याप्त स्वतंत्रता दी गई थी.

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण के बाद क्षत्रिय दूसरे स्थान था. उन को योद्धा वर्ग माना जाता था. उन का मुख्य कार्य युद्धभूमि में लड़ना था. अन्य तीन वर्णों को किसी भी विदेशी शत्रु से बचाने की जिम्मेदारी उन की थी. एक क्षत्रिय को सभी वर्णों की स्त्री से विवाह करने की अनुमति थी. इस में ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला को प्राथमिकता दी जाती थी. एक शूद्र महिला को क्षत्रिय से शादी करने से मना नहीं किया जाता था.

 

वैश्य वर्ण व्यवस्था के तीसरे स्थान पर थे. इन में व्यापारी, किसान और अन्य पेशेवर शामिल थे. यह लाभदायक व्यावसायिक कामों के साथ ही साथ प्रशासन के साथ मिल कर काम करते थे. इस वर्ण की महिलाओं ने पशुपालन, कृषि और व्यवसाय में अपने पति का समर्थन कर के काम के बोझ को साझा किया. वैश्य महिलाओं को किसी भी वर्ण के पुरुष से शादी करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी. शूद्र पुरुष से शादी करने का आमतौर पर प्रयास नहीं किया जाता था.

 

वर्ण व्यवस्था के सब से निचले चौथे पायदान पर शूद्र थे. इन का मुख्यकार्य अपने से ऊपर वाले तीनों वर्णों की सेवा करना था. इन को किसी भी तरह की पूजा पाठ की अनुमति नहीं थी. वेदपाठ को सुनने की अनुमति भी नहीं थी. कुछ शूद्रों को किसानों और व्यापारियों के रूप में काम करने की अनुमति थी. शूद्र महिलाएं किसी भी वर्ण के पुरुष से विवाह कर सकती थीं. एक शूद्र पुरुष केवल शूद्र वर्ण की महिला से ही विवाह कर सकता था. वर्ण व्यवस्था ने पूरे समाज को बांटने का काम किया.

 

सब से खराब हालत में थी महिलाएं

वर्ण व्यवस्था में सब से बड़ा प्रभाव औरतों पर पड़ा. इस की आड़ में धर्म व्यवस्था ने औरतों की आजादी को पूरी तरह से छीन लिया. वह किसी भी वर्ण की हो उन को अपनी जिदंगी अपने हिंसा से जीने का अधिकार नहीं था. वह पुरूषवादी सत्ता की गुलाम थी. पति के लिए ही उन की जिदंगी थी. उन को भोग्य की वस्तु समझा जाता था. उन को न तो संपत्ति में कोई अधिकार था न अपनी जिदंगी अपने हिसाब से जीने की. अपनी पसंद से शादी की आजादी तो थी ही नहीं पति के मरने पर दूसरे विवाह की आजादी भी नहीं थी. उन के ऊपर पति के मरने पर सती होने का दबाव भी था. कई परिवारों नवजात लड़कियों की पैदा होते ही हत्या कर दी जाती थी.

तमाम औरतों का दैहिक शोषण होता था. उन को देवदासी बना कर रखा जाता था. औरतों को अपने स्तन ढकने का अधिकार तक नहीं था. केरल के त्रावणकोर में दलित जाति की महिलाओं को ‘मुलक्करम’ नामक टैक्स चुकाना पड़ता था. अगर कोई अधिकारी या ब्राह्मण उन के सामने आता था, तो उन्हें या तो अपनी छाती से वस्त्र हटाने पड़ते थे, या फिर अपनी छाती ढकने के लिए एक टैक्स देना पड़ता था. इस कानून का पालन सार्वजनिक स्थानों पर अनिवार्य था. इस टैक्स को बहुत कठोरता से वसूला जाता था. व्यापक विरोध के कारण और अंग्रेजों के दबाव में इस कानून को समाप्त करना पड़ा था.

त्रावणकोर राज्य में निचली जाति की महिलाओं पर अत्याचार की हदें पार कर दी गई थीं. इन महिलाओं को अपनी छाती ढकने के लिए एक कर देना पड़ता था और यह कर महिलाओं के स्तन के आकार के आधार पर तय किया जाता था. यह त्रावणकोर के राजा के आदेश पर लागू किया गया था. इस टैक्स का विरोध करने वाली महिलाओं को अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं.

नांगेली नाम की एक दलित महिला ने इस अत्याचार का विरोध किया तो उसे मौत के घाट उतार दिया गया. उस के स्तनों को काट देने की क्रूरता ने पूरे समाज को हिलाकर रख दिया था.  अंगरेजी शासन के दबाव में त्रावणकोर को यह क्रूर कानून रद्द करना पड़ा था. दीवान जर्मनी दास ने अपनी किताब ‘महारानी’ में लिखा है कि त्रावणकोर के शासनकाल में केरल के एक हिस्से में रहने वाली महिलाओं को अपने पहनावे के बारे में कड़े नियमों का पालन करना पड़ता था. यह नियम इतने सख्त थे कि किसी के कपड़ों को देख कर उस की जाति का अंदाजा लगाया जा सकता था. अंगरेज गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने 1859 में इसे खत्म करने का आदेश दिया. नाडार महिलाओं ने उच्च वर्ग की तरह कपड़े पहन कर इस का विरोध किया. आखिरकार, 1865 में सभी को ऊपरी वस्त्र पहनने की आजादी मिली.

 

‘देवदासी’ प्रथा भी वर्णव्यवस्था और धर्म आस्था से जुड़ा हुआ है. इस के जरीए दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया. सामाजिक पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुई. देवदासी प्रथा के अंतर्गत कोई भी महिला धार्मिक स्थल में खुद को समर्पित कर के देवताओं की सेवा करती थीं. देवताओं को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं.

 

इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ धर्म स्थल के पुजारियों ने यह कह कर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इस से उन के और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है. धीरेधीरे यह उन का अधिकार बन गया, जिस को सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई. उस के बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया. जब राजाओं को लगा इतनी संख्या में देवदासियों का पालन पोशण करना उन के वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं.

 

कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है. देवदासी प्रथा को ले कर कई गैर सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहते हैं. देवदासी ऐसी महिलाओं को कहते हैं, जिन का विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है. देवदासियां वैसे तो ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हें पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है. अंगरेजों के काल में समाज सुधारकों ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की तो इस का विरोध हुआ था. दक्षिण भारत की ही तरह से उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति सोच अच्छी नहीं थी. प्रमुख पौराणिक ग्रंथ रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं को ले कर कई बार गलत टिप्पणियां की है. इन में सब से चर्चित ‘ढोल गंवार, शुद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ है. जिस में नारी को पशु और शुद्र के समान माना है. रामचरितमानस के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने रावण व मंदोदरी के संवाद को माध्यम बना कर महिलाओं पर टिप्पणी करते उन के स्वभाव में शामिल अवगुणों के बारे में लिखा है.

‘नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं,
अवगुन आठ सदा उर रहहीं.
साहस अनृत चपलता माया,
भय अबिबेक असौच अदाया.

इस का अर्थ है कि ‘स्त्रियां बहुत साहसी होती हैं इसलिए वह बहुत बार ऐसे काम कर जाती हैं जिस से बाद में उन्हें और उन के परिवार को पछताना पड़ता है. वह यह बात भली भांति नहीं जानती कि कब और कैसे अपने साहस का प्रयोग करें. साहस दुरूसाहस में परिवर्तित हो जाए तो वह नुकसानदायक होता है. स्त्रियों में झूठ बोलने की प्रवृति आम होती है. जिस से उन्हें बहुत बार मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं. स्त्रियां चुलबुले स्वभाव की होती हैं. उन के विचारों में समय के साथ परिवर्तन होता रहता है वह कभी एक धारा पर टिक नहीं पाती इसलिए वह बहुत बार सही निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं.

 

रावण मंदोदरी को कहता है स्त्रियां माया रचने में माहिर होती हैं. इस कला में पुरूष उन्हें कभी परास्त नहीं कर सकते. वह अपनी मायावी दुनियां में पुरुष को बांध कर उन से मनचाहे काम करवा सकती हैं. जैसे आज तूने राम का डर बताते हुए मुझे सीता को वापिस करने के लिए बाध्य करना चाहा. स्त्रियों का बाहरी आवरण बहुत पराक्रमी होता है लेकिन भीतर से वह बहुत डरपोक होती हैं इसलिए बहुत बार वह बनते काम भी बिगाड़ देती हैं. कुछ परिस्थितियों में स्त्रियां स्वयं को सिद्ध करने के लिए ऐसे मूढ़ता वाले काम कर जाती हैं जिस से भविष्य में उन्हें पछताना पड़ता है. यदि स्त्रियां प्रचंड हो जाएं तो वह कभी भी कोमलता नहीं दिखातीं. रावण के अनुसार स्त्रियों में 8वीं कमी होती है कि उन में साफसफाई का अभाव होता है.

 

बदले हुए हैं जमीनी आधार:

रामचरित मानस के जरीए रामराज्य और राममंदिर बनाने में लगी भाजपा अब महिलाओं के प्रति अपने विचार बदलने में लग गई है. आज सरकार लाड़ली बहन और मुफ्त राशन योजनाओ में महिलाओं को सामने रखा गया है. मुफ्त राशन की व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था के भेदभाव को खत्म कर दिया है. राशन पाने के लिए जो कार्ड बनता है उस में परिवार की मुखिया के रूप में महिला का नाम दर्ज होता है. यानि अब परिवार के प्रमुख के रूप में महिला का नाम दर्ज होता है. जिन को तुलसीदास ने ‘ताड़ना का अधिकारी’ कहा था वह आज परिवार की प्रमुख है.

मोहनलालगंज के गांव नन्दौली में राशन की दुकान केवला देवी चलाती है. जो महिला है. राशन तौलने और हिसाब किताब रखने के लिए एक लड़के को साथ रखा है. जब राशन आ जाता है गांव के लोगों को खबर हो जाती है. वह लोग सुबह से ही दुकान पर आ जाते हैं. इन में 80 फीसदी महिलाएं होती हैं. राशन लेने के लिए औनलाइन फिंगर प्रिंट की व्यवस्था है. राशन लेने वाले सभी बिना भेदभाव के साथ जमीन पर बैठे थे. किसी के बैठने की कोई अलग व्यवस्था नहीं होती है. राशन लेने वाली महिला को फिंगर प्रिंट मशीन पर अपना अंगूठा लगाना पड़ता है. अंगूठा लगाने के बाद ही राशन मिलता है.

 

दलित महिला के बाद ही सवर्ण महिला को भी बिना गंगा जल से धोए फिंगर प्रिंट पर अंगूठा लगाना पड़ता है. फिंगर प्रिंट मशीन को धोया भी नहीं जा सकता है. इस के खराब होने का चांस रहता है. यह केवल गांव का ही हाल नहीं है. लखनऊ के हुसैनगंज स्थित राममंदिर के पास कृपाषंकर की राशन की दुकान है. यहां भी राशन लेने वाली महिलाएं लाइन में खड़ी होती है. यह भी पहले फिंगर प्रिंट में अंगूठा लगाती है फिर राशन लेती है. रोशन की एक ही लाइन होती है. महिला पुरुष या जातिधर्म के नाम पर कोई अलग लाइन नहीं होती है.

 

लाड़ली बहना जैसे योजनाएं केवल महिलाओं को सामने रख कर तैयार किया गया है. जिस का कारण यह है कि उन को सरकारी लाभ दिया जा सके. बदले में उन से वोट लिया जा सके. हिंदू राष्ट्र के पैरोकार जिस तरह रामराज स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं उस में महिलाओं को हाशिए पर रखा जाता है. धर्म के नाम पर महिलाओं का शोषण किया जाता है. उन को पीली साड़ी पहना कर नंगे पैर कलश यात्रा निकालने के लिए उकसाया जाता है.

 

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कलश यात्रा कारगर नहीं हुई. इस के लिए लाड़ली बहना योजना चलानी पड़ी. महिलाओं ने वोट व्यवस्था के जरीए वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह से पीछे धकेल दिया है. जिस वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हिंदू राष्ट्र बनाया जा रहा था अब उस का क्या होगा ? वर्ण व्यवस्था में शुद्र और पशु की श्रेणी के खड़ी महिला के बिना चुनाव नहीं जीते जा सकते. ऐसे में उस को खुश करने के लिए मुफ्त राशन, लाड़ली बहना योजना और रक्षा बंधन पर मुफ्त बस का सफर जैसे काम करने पड़ रहे हैं.

 

आने वाले समय में जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव है वहां भी महिलाओं को केन्द्र में रख कर चुनावी योजनाएं बनानी पड़ेगी. महिलाओं ने वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह से नकार दिया है. अब देखना है कि बिना वर्णव्यवस्था के हिंदू राष्ट्र कैसे बन सकेगा और उस का औचित्य क्या रह गया है ?

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