भारतीय राजनीति में मायावती जैसी फायरब्रांड नेता हो या कभी सियासी दांवपेच से बंगाल के पूर्व सीएम ज्योतिबसु की सत्ता हिला देनेवाली ममता बनर्जी या फिर सोनिया गांधी, इनके सामने जब बात उत्तराधिकारी चुनने की आई तो सबने पुरुषों को ही चुना.
शायद यही वजह है कि साल 1996 में एचडी देवगौड़ा की गर्वन्मेंट ने जिस वुमन रिजर्वेशन बिल को संसद में पेश किया था, उसे केंद्रीय कैबिनेट को मंजूरी देने में सालों लग गए, बिल को 18 सितंबर 2023 को मंजूरी दी गई. इसके पास होने के बाद संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा.
आकाश आनंद और अखिलेश यादव में कोई फर्क नहीं
बहुजन समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मायावती अनौपचारिक रूप से साल 2017 में भतीजे आकाश आनंद को पार्टी के नेताओं के साथ यह कहकर मिलाने लगी थीं कि वह लंदन से एमबीए कर चुके हैं और अब पार्टी की गतिविधियों में शामिल होंगे. साल 2019 में ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाई को पार्टी का वाइस प्रेसिडेंट बनाया और भाई के बेटे आकाश आनंद को राष्ट्रीय संयोजक घोषित किया था. कुछ समय पहले मायावती ने अभिषेक को पार्टी संयोजक और उत्तराधिकारी के पद से यह कहकर हटा दिया था कि वे अभी इम्मैच्योर हैं. लेकिन हाल में बसपा की एक बैठक में उन्हें दोबारा उनसे छीने गए पद पर बिठा दिया गया, आनंद ने भी बुआ के पांव छूए और बुआ ने उसके सिर पर हाथ फेरा. ऐसा करके यूपी की राजनीति में दिवंगत सीएम मुलायम सिंह यादव के बाद मायावती ने भी नेपोटिज्म को सलाम ठोक दिया.
ममता दीदी को भी पुरुषों पर भरोसा
ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी साल 2014 में पहली बार डायमंड हार्बर से सांसद बने. ममता के इस उत्तराधिकारी का दमखम तृणमूल कांग्रेस पार्टी के अंदर कुछ इस तरह से बढ़ गया कि साल 2019 में एक के बाद कई नेताओं ने इस पार्टी को टाटाबायबाय कह दिया, तब ममता दीदी ने अहम फैसले अपनी तरफ से लेने शुरू किए. लेकिन अब दोबारा पार्टी पर अभिषेक की पकड़ मजबूत हो गई है, एक समय लालू और मुलायम के परिवारवाद पर कटाक्ष करने वाली ममता अब अपने ही परिवार को आगे करने में लगी हैं. पार्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ के लोगों को यह पता है कि जौइंट फैमिली में पलीबढ़ी ममता के मन में भतीजे अभिषेक के लिए सदा ही सौफ्ट कौर्नर रहा है.
जहां तक अभिषेक को उत्तराधिकारी बनाने की बात है, तो ममता दीदी के 6 भाइयों के परिवार में से कोई भी लड़की सामने नहीं आई, संंभव है कि घर में लड़कियां हो ही नहीं. अगर घर में लड़कियां नहीं भी है, तो पार्टी में से किसी महिला को उत्तराधिकारी तो बनाया ही जा सकता था. ममता बनर्जी ने टीएमसी में नुसरत जहां, मिमी चटर्जी जैसी खूबसूरत एक्ट्रैसेस को शामिल तो कर लिया लेकिन केवल उनकी सुंदरता को वोट बैंक के रूप में कैश करने के लिए. महुआ मोइत्रा को संसद का रास्ता तो दिखाया लेकिन केवल चिल्लाचिल्ला कर बोलने के लिए, बात जब उत्तराधिकारी की आई, तो दीदी ने पार्टी की महिलाओं की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखा, भतीजे को चुनना केवल यह नहीं बताता की वह नेपोटिज्म को बढ़ावा दे रही हैं बल्कि यह भी बताता है कि वह महिलाओं के हाथों में पार्टी की बागडोर नहीं सौंपना चाहती इसका मतलब तो यही निकलता है कि महिलाओं की कार्यक्षमता पर उनको भरोसा नहीं है.
पुरानी कथा का नया रूपान्तरण
बुआ का प्यार भतीजे के लिए सदियों पुराना है. होलिका और प्रह्लाद से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है. पौराणिक कथाओं को ही देखें, तो कृष्ण और रानी कुन्ती भी इसका उदाहरण है शायद पांडवों की तरफ कृष्ण के झुकाव की यही वजह रहेगी होगी. लेकिन इसमें भी दो राय नहीं होनी चाहिए कि बुआ को भतीजे से ही नहीं भतीजियों से भी लाड़ होता है. इसकी वजह है कि वे दोनों एक ही परिवार की अलगअलग पीढ़ी की महिलाएं होती हैं और दोनों की भावनाएं और नियति लगभग समान ही होती है. इसके बावजूद राजनीतिक बुआओं ने किसी भी भतीजी को राजनीति की पकीपकाई थाली नहीं परोसी. चलिए भतीजाभतीजी की बात ही छोड़ दें, लेकिन महिला राजनीतिज्ञ होने के नाते उन्होंने परिवार से बाहर की किसी महिला को तवज्जो क्यों नहीं दी. मायावती और ममता दोनों ने जब राजनीति में जाने की सोची, तो उनका कोई राजनैतिक बैकग्राउंड नहीं था लेकिन दोनों के अटल इरादे और सूझबूझ ने उन्हें पुरुष राजनेताओं के बीच में अलग पहचान दी, ऐसे में महिला होकर भी महिलाओं से मुंह फेर लिया, और तो और आम औरतों की तरह परिवार को ही आगे रखा. इसका मतलब तो यही है कि महिलाएं सोच में परिवार और पुरुष से आगे बढ़ ही नहीं पाती. उनकी सोच आज भी पुरुषवादी मानसिकता की गुलाम है
बेटी की काबलियत पर आज भी प्रश्नचिह्न क्यों
बुआ की बात छोड़ दीजिए, जब नेहरू जी की एकमात्र औलाद मिसेज इंदिरा गांधी थी, ऐसे में उनके उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा को सहर्ष स्वीकार लिया गया लेकिन दशकों बीतने के बाद उसी पार्टी की पहचान बन चुके परिवार के दो लोगों की उत्तराधिकार की बात उठती है, तो प्रियंका गांधी की बजाय राहुल गांधी को आगे बढ़ा दिया जाता है, लड़की हूं लड़ सकती हूं की वकालत करने वाली कांग्रेस पार्टी में भी लड़कियों के लेकर वही पुरानी रूढिवादी सोच काम कर रही है कि जब तक पुरुष घर में है, तो सत्ता पर महिला का हक नहीं हो सकता.