कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी बेबात की बयानबाजी में टाइम बेकार कर रहे हैं कि विधानसभा  चुनावों से पहले किसने कैसे साथ चलने की बात की थी और किस ने इंकार कर दिया था. कांग्रेस अगर कह रही कि उस ने मायावती के जीवन पर मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया भी था तो भी यह बेकार की बात है. यह तो एक 10 करोड़ की लौटरी के टिकट को 10 रुपए में खरीद कर 10 करोड़ को बांटने की लड़ाई जैसा है. न लौटरी निकलनी थी, न निकली तो लड़ाई किस बात की.

यह पक्का है कि  कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी दोनों के नेता अपना रास्ता भटक गए हैं और अब अपने भक्तों के मझदार में डूबने को छोड़ कर किसी विरान टापू पर सन्यास लेने की तैयारी में है. ऐसा नहीं कि उन के भक्तों के उन की जरूरत नहीं है या फिर उन के भक्तों को अपनी पाॢटयों नीतियों से नाराजगी हो.

कांग्रेस और बहुजन पार्टी को चाहने वालों की कमी नहीं है. सीधीसादी, बिखराव से बचाने वाली पार्टी कांग्रेस राज चलाने में खासी ठीकठाक है. बहुजन पार्टी हजारों सालों गुलामी झेल रहे दलितों को नई उम्मीद देती है. दिक्कत यह है कि दोनों नेता अब आरामतलब है. राहुल और प्रियंका गांधी भी पकीपकाई खीर चाहते हैं और मायावती ऐश की ङ्क्षजदगी चाहती हैं. इन दोनों को घरघर जा कर यह भरोसा दिलाना आता ही नहीं है कि वे उन के हकों को बचा कर रखेंगे या उन के लिए लड़ेंगे. वे तो कहते है कि राज दिला दो फिर सब ठीक कर देंगे. लेकिन राज मिलने के लिए जो करना होता है वह कांग्रेस 50 साल ब्रिटीश शासन में किया ओर मायावती ने कांशीराम के साथ 10-15 साल किया.

1947 के बाद कांग्रेस ने कभी लोगों के नाम पर लड़ाई नहीं लड़ी. सरकार मं होते हुए भी उस ने  चाहा जनता की नहीं सोची. कांग्रेस के जमाने में सरकारी अफसरों की चांदी हो गई. सरकारी कंपनियां अफसरों व कर्मचारियों की सैरगाह हो गईं. जहां जमीन पर पड़े सोने के टुकड़ों को जो चाहे बटोर ले. मायावती सत्ता में आने पर या तो अंबेडकर और खुद के महल मूॢतयां बनाने में लग गई या हीरों के हार पहनने में.

अब वे एकदूसरे को दोष दे रहे हैं पर फायदा क्या है? जनता आज खुश है यह नहीं कहा जा सकता या आज की जनता को इतना धर्मभीरू बना दिया गलत है कि वह धर्म ेे नाम पर पहले वोट देती है,  काम पर बाद में जनता के जाति का अहसास भी दिला दिया गया है और जनता अपने कपड़े बेच कर भी जाति को ओडऩा बचाने में लगी हुई है. कांग्रेस की जाति और धर्म के बिना की और बसपा की केवल दलित जाति की नीति किसी को नहीं भा रही. इन नेताओं का कार्य था कि ये सत्ता में आई पार्टी की छिपी लूट की पोल खोलते. आज हर मंदिर फैल रहा है, रामनवमी हो या जन्माष्टमी, लाखों नहीं करोड़ों एकएक जगह फूंके जा रहे हैं जो जनता से जबरन या उसे बहका कर लूटे जा रहे है, इस की कीमत मेहनतकश लोग दे रहे हैं जो या तो धर्म और जाति में क्या और काम पर भरोसा रखते है यवे जो नीची जाति का होने की वजह से बरसों से आजादी फायदे का इंतजार कर रहे है.

ये दोनों पाॢटयां जनता के बड़े हिस्से को ज्यादा हक ज्यादा मौके, ज्यादा पैसा, ज्यादा बराबरी दिला सकती हैं पर इन के नेताओं को खुद से ही फुरसत नहीं है.

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