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संगीत अच्छा है या नहीं, इसको ‘जज’ करने वाला मैं कौन होता हूं- लेजली लेविस

बौलीवुड के मशहूर गायक व संगीतकार लेजली लेविस ने संगीत जगत में अपनी एक अलग उपस्थिति दर्ज करा रखी है. मशहूर संगीतकार ए आर रहमान की तर्ज पर लेज़ली लुइस ने आज तक एक ही तरह का संगीत नहीं परोसा. लेज़ली ने पौप संगीत से शुरूआत कर मैलोडी, जैज सहित हर तरह का संगीत परोसा. उन्हे एमटीवी के ‘एसिया व्यूवर्स च्वाइस अवार्ड’ के अलावा ‘कोलोनियल कंजिन्स’’ के लिए ‘‘यू.एस. बिलबोर्ड व्यूवर्स च्वाइस अवार्ड’ से नवाजा जा चुका है.

लेजली लेविस ने ए हरिहरण के साथ ‘कोलोनियल कंजिस’ पेश कर जबरदस्त शोहरत बटोरी. उसके बाद वह ‘कोक स्टूडियो’ से जुड़े. फिर कुछ अलग तरह का संगीत बनाने लगे. उन्होने जिंगल्स बनाए. फिल्मों के अलावा प्रायवेट अलबमों के लिए संगीत गढ़ा व कुछ गाया भी. उनका दावा है कि अभी तक उन्होंने अपना संगीत बनाया ही नहीं है. इतना ही नहीं लेज़ली लुइस पहले भारतीय संगीतकार हैं, जिन्होने एक हॉलीवुड फिल्म के लिए अंग्रेजी गीत गाया है.

मजेदार बात यह है कि लेजली लेविस के पिता स्व. पी. एल राज अपने वक्त में बौलीवुड के मशहूर नृत्य निर्देशक थे. मगर लेज़ली ने संगीत को अपनाया. उनकी गिनती बेहतरीन गिटार वादकों में भी होती है.

फिलहाल वह अपने नए गाने ‘‘तू है मेरा’’ को लेकर सुर्खियों में हैं. इस गीत को लिखने के साथ ही इसे संगीत से भी संवारा है. जबकि इस गीत को स्वरबद्ध किया है काव्या जोन्स ने.

प्रस्तुत है उनसे हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश…

आपके पिता पी.एल राज मशहूर नृत्य निर्देशक थे.पर आपने संगीत को कैरियर बनाया?

-आपने एकदम सही फरमाया. वास्तव में मुझे बचपन से ही अलग अलग तरह का संगीत सुनने का शौक रहा है. मैं बचपन से ही ‘द बीटल्स’,‘जिमी हेंड्रिक्स’ और ‘एरिक क्लैप्टनली’ से बहुत प्रभावित रहा हूं. इसके अलावा मुझे गिटार बजाने का भी शौक रहा है. इस तरह मेरा रूझान संगीत की तरफ ही हमेशा रहा. मैने कैफे रॉयल, ओबेरॉय टावर्स, मुंबई में गिटार बजाया और कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत -प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन और लुइस बैंक्स के साथ गाने रिकॉर्ड किए.

वैसे बतौर गायक व संगीतकार मैने कैरियर की षुरूआत 1987 में जिंगल्स से की थी. और कई पुरस्कार अपनी झोली में डाल लिए. मैने दूध-दूध-दूध (पियो फुल ग्लास), मैंगो फ्रूटी फ्रेश एंड जूसी, थम्स अप टेस्ट द थंडर, संतूर संतूर, आदि जैसे कुछ प्रसिद्ध जिंगल बनाए. मैने आशा भोंसले के अलबम ‘राहुल एंड आई’ को रीमिक्स किया और जानम समझा करो, ओ मेरे सोना, पिया तू-अब तो आजा जैसे कई गाने तैयार किए.

मैंने ‘परी हॅूं मैं’ में सुनीता राव,‘‘बॉबे गर्ल’ में अलीशा चिनाय, ‘पल’ में के के का गवाया. मैने ही आशा भोसले से पौप सांग ‘जानम समझा करो’ गवाया. इसके अलावा ‘मेरी नींद’,‘गोरी’ और ‘आ जा मेरी जान’ जैसे कई सफल गीतों को संगीत से संवारा.

मैंने हिंदी फिल्मों ‘मेला’ व ‘जाहद’ और तमिल फिल्मों मोधी विलायडु और चिक्कू बुक्कू को संगीत से संवारा. फिर 1992 में मैने ए हरिहरन के साथ ‘‘कोलोनियल कजिंस’’ में जोड़ी बनाकर जबरदस्त सफलता हासिल की. फिर मैने ‘कोक स्टूडियो’ में नया प्रयोग किया.

जब कोलोनियल कजिंससे आपकी अच्छी पहचान बन गयी थी, तो फिर कोक स्टूडियोके पीछे आपकी क्या सोच थी?

-मैने किसी के घर पर गिटार नही देखा. मगर ‘कोक स्टूडियो’ के बाद मैने एक दिन ओलेक्स पर एक युवा लड़के का विज्ञापन देखा-‘‘मैने अपनी गिटार बेच दी.’’ इससे समझ में आया कि उसके घर पर गिटार आयी थी. इसका अर्थ यह हुआ कि हमने ‘काक स्टूडियो’ से ऐसा संगीत बनाया, जिससे युवा पीढ़ी जुड़ी. उसने वाद्य यंत्रों की कद्र करना सीखा.

सच मानिए ‘कोक स्टूडियो’ से युवा पीढ़ी और खासकर कालेज में पढ़ने वाले लड़के व लड़कियां जुड़े. उन्होने गिटार, ड्म्स,बांसुरी,तबला आदि बजाना सीखने लगे. लोगों ने कई तरह के वाद्ययंत्र खरीदे. तो युवा पीढ़ी ने फिर से अपने भारतीय संगीत को समझा व अपनाया,. जबकि कोक स्टूडियो में भी विदेषी संगीत का मिश्रण है. तो लोगों को ‘कोक स्टूडियो’ में इंटरनेशनल के बहाने भारतीयपना भी मिला.

इसमें हमने भारतीय व वेस्टर्न गायकों को एक साथ गंवाया. जब कोक स्टूडियो भारत में आया,तो उसने नई पीढ़ी को नया जोश दिया. नया संगीत दिया.

कोक स्टूडियोसे आपको किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली थी?

-जब कोक स्टूडियो पहले वर्ष रिलीज हुआ,तो सोनी म्यूजिक पर इसकी सीडी प्लेटिनम डिस्क थी.यह सिर्फ आडियो सीडी थी,वीडियो नहीं. सिर्फ आडियो ने बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़े थे. हमने पहले सीजन में एक भी गाना डब नहीं किया था. हमने स्टार्ट टू फिनिश हर गाने को लाइव रिर्काड किया था. उस वक्त अगर किसी ने गलती की, तो कट करके पुनः शुरूआत से उस गाने को रिकार्ड किया था. इस तरह मैने चालिस दिन के अंदर 51 गाने रिकार्ड किए थे.

पहले किसी भी गाने को लाइव रिकार्ड किया जाता था.अब उसकी जगह की बोर्ड/मशीन पर काम होने लगा है. इसका संगीत पर किस तरह का असर पड़ा?

-देखिए, दुनिया बदल रही है. ऐसे में संगीत में, तकनीक में बदलाव आना स्वाभाविक है. पहले हम कपड़ा खरीदकर दर्जी के पास जाते थे, दर्जी हमारी नाप लेने के बाद कपड़ा काटकर सिलाइ करता था. अब बाजार में रेडीमेड यानी कि सिले सिलाए कपड़े धड़ल्ले से बिक रहे हैं. अब हम दुकान पर जाते हैं. सिली सिलाई शर्त खुद पर फिट बैठने वाली लार्ज या एक्स्टृा लार्ज की नाप वाली ले लेते हैं. फिटिंग सौ प्रतिशत सही नहीं होगी.

लोगों की राय में की बोर्डके प्रचलन से संगीत का स्तर गिर गया है?

-ऐसा होना स्वाभाविक है. क्योंकि संगीत का जो बेंचमार्क या स्तर अब आया है, उसे अंग्रेजी में कहते हैं- ‘ऑसम’. ऑसम तो ऑसम ही है. इस ऑसम ने संगीत का स्तर गिरा दिया. ‘ऑसम’ शब्द का इस्तेमाल ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया. क्योंकि जब हमने इंडियन आयडल शुरू किया था, तब इसके विजेता को कहा गया था इंडिया का नंबर वन सिंगर.

आप लता मंगेशकर को भी इंडिया का नंबर वन सिंगर कहते हो. इसी से समझ लेना चाहिए कि संगीत में कितनी गिरावट आ गयी है. वह नया गायक भी ऑसम और लता जी भी ऑसम.

अब कैसेट,प्लेटिनम डिस्क,सीडी वगैरह की जगह सिंगल गानो ने ले लिया है. इस बदलाव को आप किस तरह से देखते हैं?

-पूरा विश्व बदल रहा है.तकनीक बदल रही है. अब डिजिटल का जमाना आ गया है. आपके पास अब कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा. अब तो सीडी प्लेअर भी नहीं मिलते. सीडी भी ढूढ़नी पड़ेगी. कैसेट भी शायद किसी के पास मिल जाए. ऐसे हालात में आगे जाने के लिए आपके पास समझौता करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा.

आपके घर पर सीडी प्लेअर और पुरानी सीडी पड़ी है, तो आप उसे सुनकर उसका आनंद ले सकते हैं. मगर नई सीडी या सी प्लेअर बाजार में नहीं मिलेगी. यदि आपको नया संगीत बनाना है, नए लोगों से मिलना है, नए लोगों के साथ काम करना है, तो नई तकनिक को अपनाना ही पड़ेगा.

अब संगीत अच्छा है या नहीं, इसको ‘जज’ करने वाला मैं कौन होता हूं?आपको अपना संगीत अच्छा लगता है तो उसे मैं खराब कहने वाला कौन?

तो इन दिनों सभी अपना अपना अच्छा संगीत परोस रहे हैं. अपने नए गीत ‘‘तू है मेरा’’ को लेकर क्या कहेंगें?

-यह गाना काव्या के लिए ही बनाया है. मैं हमेशा जिसके लिए गाना बनाता हूं, उसके टाइप का गाना बनाता हॅूं. जब मैने ‘तू है मेरा’ गाने पर काम षुरू किया, तो मैने ऐसा गाना लिखा व उसे सगीत से सजाया, जो काव्या के निजी जीवन जैसा फंकी है. काव्या दावा करती है कि वह चार वर्ष से मेरे साथ काम करते हुए मुझे जानती है. जबकि मैं कहता हूं कि मैं भी उसे चार वर्ष से अच्छी तरह से जानता हूं. वह सोलफुल है. उसमें पागलपन भी है. उसकी सुरीली आवाज है. मैलोडी के पीछे भागने वाली कलाकार है. उसकी आवाज में ही नाटकीयता है.

काव्या के लिए आपने पहले जिन गीतों को संगीत से संवारा था, उनसे यह गाना अलग कैसे है?

-मैने सबसे पहले काव्या को ‘‘आजा मेरी बाहों में’’ गीत में गवाया था. इस गाने में उसके चेहरे व शरीर की सुंदरता के अलावा सेंसुआलिटी को उभारा था. जबकि अब जो गाना ‘‘तू है मेरा’’ आ रहा है, इसमें काव्या का व्यक्तित्व और फैंकीनेस की बात है. यह बहुत ही अलग तरह का गाना है.

आपने आशा भोसले से लेकर काव्या जोन्स तक कई गायकों के साथ काम किया है. मेरा सवाल यह है कि आप गायक को ध्यान में रखकर गाना या संगीत की धुन बनाते हैं अथवा गाना व संगीत की धुन बनाने के बाद उसके योग्य गायक की तलाश करते हैं?

-पहले के जमाने में यह देखा जाता था कि इस गाने को कौन गाने वाला है? उसी हिसाब से गाना बनता था. लता जी गाएंगी,तो ताली दो में गाना बनेगा. यह उनकी रेंज थी. लता जी के लिए उससे उपर की रेंज का गाना नहीं बनता था. अब हो यह रहाहै कि गाना बना लेते हैं, फिर सोचते हैं कि किससे गंवाएं.

किसी ने कहा इस वक्त यह गायक चल रहा है, तो ठीक है, इसे बुला लो, इससे गवा लिया. पता चला कि गायक तो अच्छा है, मगर जो गाना उससे गवाया, वह गाना उसके साथ मैच नहीं करता. तब हम दोबारा किसी अन्य से उसी गाने को गवाकर उसे डब करते हैं अथवा वह गाना लोगों को अच्छा नहीं लगता.

आज कल तो एक ही स्केल में सारे गाने बन रहे हैं. फिर उसे ‘की बोर्ड’पर ठीक करने का प्रयास किया जाता है. अब आप कहते हैं कि ‘फीमेल सिंगर’. पर सभी का स्केल हो गया. जबकि आशा भोसले के लिए अलग स्केल होना चाहिए. और उशा जी के लिए अलग स्केल होना चाहिए. इस हिसाब से तो बहुत कुछ गड़बड़ है. मैने तो अपनी तरफ से हर गायक के लिए अलग अलग स्केल के गाने बनाने का ही प्रयास किया है.

आशा भोसले से काव्या तक मैने गायक के अंदर की खूबियों को उभारने व कमजेारी को दबाते हुए ही संगीत की धुने बनाता रहा हॅूं. मेरी सोच यही है कि गायक की कलात्मक कमियों को छिपाते हुए ही काम करना है. मैं सामने वाले गायक को यह बात बता भी देता हॅूं. गायक की जो ताकत है, उसे बाहर लाकर लोगों तक पहुंचाना ही मेरा काम है.

पहले एक फिल्म में एक ही संगीतकार हुआ करता था. अब एक ही फिल्म में चार चार संगीतकार होते हैं. क्या इससे संगीतकारों को काम करने में सहूलियत होती है?

-नहीं..मुझे नही लगता कि बतौर संगीतकार किसी को इस तरह से काम करना अच्छा लगता है.एक फिल्म में चार निर्देशक नहीं होता.मगर संगीतकार चार होते हैं. ऐसा इस सोच के साथ किया जाता है कि किसी का तो गाना हिट हो जाएगा.ऐसे मे हर संगीतकार अपने अपने अंदाज का गाना बना रहा है.मगर पूरी फिल्म की जो एक पहचान होनी चाहिए, वह नही बनती.

मनोहर कहानियां: ट्रेनी सीओ की 4 महीने की दुल्हन

लखीमपुर खीरी में गोकर्णनाथ बाजार में शाम की भीड़भाड़ थी. लोगों की आवाजाही की परवाह किए बगैर मोनिका अपनी स्कूटी का हौर्न बजाती फर्राटा भरती जा रही थी. तभी सामने एक युवक आ गया. वह टकरातेटकराते बचा. उस युवक ने दोनों हाथों से स्कूटी का हैंडल पकड़ लिया.

नाराजगी दिखाते हुए बोला, ‘‘स्कूटी इतनी तेज क्यों चला रही हो?’’

‘‘तुम कौन हो मुझे रोकनेटोकने वाले?’’ मोनिका भी उसी लहजे में तपाक से बोली.

‘‘मुझे चोट लग जाती तो..? वैसे मैं पुलिस वाला हूं,’’ युवक बोला.

‘‘लगी तो नहीं न…हुंह बगैर वरदी के ड्यूटी कर रहे हैं. चलो, सामने से हटो.’’ मोनिका बोली.

‘‘गलती करती हो फिर भी इतनी ऐंठ रही हो. तुम हो कौन, जो इतने तेवर दिखा रही हो?’’ युवक बोला.

‘‘अगर कहूं कि मैं भी पुलिस वाली हूं तो…’’

‘‘झूठ, तुम पुलिस वाली हो ही नहीं. देखो, तुम्हारा आला नीचे गिरा हुआ है,’’ युवक बोला.

मोनिका ने नीचे देखा, सड़क पर उस का स्टेथेस्कोप (आला) गिरा हुआ था. तब तक सड़क पर उन के आगेपीछे कई गाडि़यां खड़ी हो गई थीं. जाम हटाने के लिए एक सिपाही वहां आया. आते ही उस ने उस युवक को सैल्यूट मारा.

इस के बाद वह युवक वहां से चला गया. तब तक मोनिका अपनी स्कूटी दोबारा स्टार्ट कर चुकी थी. युवक के जाते ही उस ने सिपाही से पूछा, ‘‘तुम ने उसे सैल्यूट क्यों मारा? कौन था वह?’’

‘‘मैडम, आप नहीं जानतीं, वह पुलिस अफसर हैं.’’ यह कहते हुए सिपाही वहां से चला गया.

मोनिका कुछ पल के लिए सिपाही की बात सुन कर स्तब्ध रह गई. गलती उस की थी, भीड़ में स्कूटी तेज नहीं चलानी चाहिए थी. स्कूटी के सामने युवक की जगह कोई बुजुर्ग, बच्चा या महिला होती तो… यह सोच कर वह सिहर गई.

…उसे एक अच्छी डाक्टर बनना है. उस के प्रोफेशन के लिए तेज स्कूटी दौड़ाना या बगैर आगेपीछे सोचेसमझे स्टूडेंट वाला तेवर दिखाना ठीक नहीं है.

मोनिका ऐसा ही कुछ सोचतेसोचते बाजार के भीड़भाड़ वाले इलाके से बाहर निकल आई थी. सड़क पर उसे वही युवक बाइक पर सामने जाता दिखा. उस ने सोचा चल कर अपनी गलती के लिए उसे सौरी बोल दे. और फिर उस ने स्कूटी की रफ्तार बढ़ा दी.

कुछ मिनटों में ही वह उस की बाइक के पीछे थी. हौर्न बजाया. बाइक पर सवार युवक ने साइड मिरर में मोनिका को देख लिया था. उस ने बाइक रोक दी.

उस के साथ मोनिका ने भी अपनी स्कूटी रोक कर बाएं पैर को जमीन पर टिका लिया.

मोनिका सौरी से पहुंची दिल तक

‘‘फिर टक्कर मारने का इरादा है क्या?’’ युवक ने मजाक किया.

‘‘नहीं सर, ऐसा बोल कर आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मैं अपनी गलती के लिए सौरी बोलने आई हूं. मैं आप को पहचान नहीं पाई.’’ मोनिका बोली.

‘‘कोई बात नहीं, अनजाने में ऐसी गलतियां हो जाती हैं. तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है?’’

‘‘सर, आप का नाम क्या है? किस थाने में हैं?’’ मोनिका ने जिज्ञासावश पूछ लिया.

‘‘मैं शिवम मिश्रा हूं. मेरी अभी डिप्टी एसपी की ट्रेनिंग चल रही है. सुलतानपुर जिले की पुलिस लाइन में हूं…और आप किस अस्पताल में डाक्टर हैं?’’ युवक ने पूछा.

‘‘सर, मैं अभी मैडिकल स्टूडेंट हूं. लखनऊ  के प्रबुद्ध मैडिकल कालेज में बीएमएस थर्ड ईयर पूरा होने वाला है. अगले साल अप्रैल से इंटर्नशिप शुरू हो जाएगा, लेकिन कोरोना की वजह से अभी से ही सीनियर को असिस्ट करने के लिए ड्यूटी पर लगा दिया गया है.’’ मोनिका बोली.

‘‘नाम क्या है आप का?’’

‘‘सर, मोनिका पांडेय.’’

‘‘मुझे सर मत बोलो, हम लोग एक ही उम्र के हैं.’’

‘‘क्या हम लोग कहीं चाय या कौफी पी सकते हैं?’’ मोनिका झिझकते हुए बोली.

‘‘क्यों नहीं, इसी के साथ हमारी कड़वाहट मिठास में बदल जाएगी. लेकिन हां, पैसे मैं खर्च करूंगा,’’ शिवम बोले.

‘‘तो फिर चलें, पास में ही एक छोटी सी दुकान है. वहां अच्छी चाय और कौफी मिलती है. बैठने की भी जगह है.’’

मोनिका और शिवम की यह मुलाकात जनवरी 2021 की थी. उस रोज दोनों ने कौफी पीते हुए कुछ मुश्किल से 15-20 मिनट ही गुजारे होंगे, लेकिन इस बीच उन्होंने काफी बातें कीं. उन्होंने अपनेअपने प्रोफेशन से ले कर देशदुनिया तक की बातें कीं. एकदूसरे के प्रति लगाव महसूस किया. विदा होने से पहले एकदूसरे का मोबाइल नंबर भी एक्सचेंज कर लिया.

उस के बाद मोनिका और शिवम कई बार मिले. कभी कौफी पीने के लिए तो कभी लंच और डिनर के टेबल पर. इस बीच वे एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. क्योंकि उन के विचार मिल गए थे.

संयोग कहें या दोनों का सौभाग्य कि दोनों सजातीय ब्राह्मण परिवार भी थे. एक साल तेजी से निकल गया. दिसंबर 2021 आतेआते मोनिका ने महसूस किया कि शिवम ही उस का जीवनसाथी बनने लायक है. कुछ इसी तरह की भावना शिवम की भी बन गई थी. एक दिन दोनों ने अपनेअपने दिल की बात जाहिर भी कर डाली.

शिवम मिश्रा उत्तर प्रदेश में प्रयागराज के रहने वाले थे, जबकि मोनिका पांडेय लखीमपुर खीरी, गोला, गोकर्णनाथ की रहने वाली थी. उस के परिवार में मां और भाई हैं. भाई अभिषेक पांडेय शादीशुदा है, जबकि पिता राकेश पांडेय के बारे में कई तरह की संदिग्ध बातें हैं. कोई कहता है कि वे जीवित नहीं है, तो कोई कहता है कि वह किसी दूसरे शहर में रह रहे हैं.

दरअसल, राकेश पांडेय फार्मासिस्ट थे और वे 2016 से रहस्यमय ढंग से लापता हो गए. मोनिका की मां राकेश पांडेय की दूसरी पत्नी हैं. वह एएनएम (सहायक नर्स) हैं. परिवार में 3 बच्चे हैं. 2 बेटियां अंजलि और मोनिका और बेटा अभिषेक. अंजलि राकेश पांडेय की पहली पत्नी की बेटी है, जो बाराबंकी में ब्याही हुई है.

राकेश पांडेय के बारे में पासपड़ोस एवं उन के दोस्तों का कहना है कि वह हद से ज्यादा शराब पीते थे. वर्ष 2016 में अचानक गायब हो गए. 6 साल से उन का कुछ पता नहीं चल पाया है.

वर्ष 2018 में उन के बेटे अभिषेक ने अपने फेसबुक पेज पर पिता की फोटो डाल कर तलाश करने की कोशिश की थी. उस ने एक मैसेज लिखा था..

‘ये मेरे पापा हैं, कुछ टाइम से मिसिंग हैं, प्लीज शेयर इट. जिस को भी पता चले, वह इस नंबर पर काल कर के इनफौर्म कर दें. आप सब की बहुत मेहरबानी होगी. प्लीज, मेरी रिक्वेस्ट है, आप सभी से. मेरे परिवार को पूरा करने में हमारी हेल्प करें…’

इसी के साथ 2 मोबाइल नंबर दिए गए थे.

दोनों ने की थी कोर्टमैरिज

मोनिका और शिवम की चैटिंग, कालिंग और डेटिंग तीनों जोरों पर थीं. इसी के साथ उन के दिलों में अंकुरित हुआ प्रेम का बीज धीरेधीरे पौधा बन चुका था. उस में फूल की कली भी निकल आई थी. उस के फूल खिलने को थे.

मोनिका का पढ़ाई के सिलसिले में लखनऊ आनाजाना लगा रहता था. वह जब भी लखीमपुरखीरी आती, शिवम से जरूर मिलती. दोनों अच्छाखासा समय साथसाथ गुजारते थे. उन का प्रेम परवान चढ़ चुका था और उस की खूशबू भी फैलने लगी थी.

शिवम के दोस्त और रिश्तेदारों ने उस के प्रेम को महत्त्व दिया, जबकि मोनिका के घर परिवार वाले भी उस के प्रेम के बारे में सब कुछ जानने के लिए उत्सुक हो गए.

खासकर उस की मां शिवम से मिलने को उत्साहित थीं. वह यह जान कर खुश हो गई थीं कि उन की बेटी ने अपनी पसंद से बहुत ही अच्छा वर चुन लिया है.

पति के नहीं होने पर वह शायद ही शिवम की तरह दामाद तलाश पातीं. बेहद खूबसूरत मोनिका डाक्टर की पढ़ाई करने वाली एक तेजतर्रार युवती थी. उस का यही स्वभाव शिवम को पसंद आ गया था.

कहने को तो पहली नजर में ही दोनों एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, लेकिन सच यह भी था कि शिवम को मोनिका जैसी जीवनसाथी चाहिए थी. उच्चशिक्षा प्राप्त कर रही मोनिका से शादी करने में शिवम मिश्रा ने और देर करनी उचित नहीं समझी.

उन्होंने 7 दिसंबर, 2021 को लखीमपुर खीरी में कोर्टमैरिज कर ली. करीब 30 वर्षीया मोनिका पांडेय और लगभग उसी उम्र के शिवम मिश्रा दंपति बन गए थे. हालांकि इस पर दोनों के परिवार वालों ने कुछ सवाल भी उठाए, किंतु उन्होंने सभी को अपनेअपने तर्क से संतुष्ट कर दिया.

उन्होंने सगेसंबंधियों को यह कह कर चुप करा दिया कि आपस में विचार मिलने चाहिए, दिल मिलना चाहिए. शादी पारंपरिक हो या फिर कानूनी तरीके से कोर्टमैरिज, इस में कोई फर्क नहीं पड़ता है.

शादी के बाद शिवम मिश्रा अपनी पत्नी मोनिका पांडेय को ले कर सुलतानपुर की पुलिस लाइन स्थित अपने सरकारी आवास में आ गए. वहां शिवम अकेले रहते थे.

उन के दिन अच्छे गुजरने लगे. जल्द ही वे अपनीअपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आ गए. मोनिका अपनी डाक्टरी की पढ़ाई में जुट गई, जबकि शिवम मिश्रा अपनी ट्रेनिंग पूरी कर रहे थे.

मोनिका अपनी मां और भाई से फोन पर बातें कर लेती थी. मां से वह अकसर वीडियो काल पर बातें करती थी. उन्हें अपनी बदली हुई जिंदगी के बारे में बताती रहती थी. मां भी अपनी बेटी की नई जिंदगी से बेहद खुश थी.

जब कभी मोनिका कोई गहना खरीदती थी, तब अपनी मां को उस बारे में जरूर बताती थी. इतना ही नहीं, वीडियो काल में पहन कर दिखाती थी.

दोनों के परिवार में सब कुछ ठीकठाक था, यदि कुछ खलबली थी तो मोनिका और शिवम के दिमाग में थी. कारण साफ था. दोनों की अपनीअपनी प्रोफेशनल लाइफ थी.

मोनिका के करीबी दोस्तों की मानें तो वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए लखनऊ आने को बेचैन हो गई थी, जबकि शिवम के घर वालों पर शादी के पारंपरिक समारोह के आयोजन का दबाव था.

दोनों इस बात को ले कर आए दिन तनाव में आ जाते थे. कई बार बातबात पर तकरार भी हो जाती थी.

बातें छोटीछोटी होती थीं, लेकिन उन को समझने और समझाने वाला घर में उन के अलावा और कोई नहीं था. नतीजा घरेलू बातों का सकारात्मक पक्ष सामने नहीं आ पाता था. बताते हैं कि उन का दांपत्य जीवन पटरी पर आने को बेचैन था, लेकिन कई तरह की विरोधी बातें सामने आ जाती थीं.

बात 31 मार्च, 2022 की रात साढ़े 9 बजे की है. मोनिका बहुत खुश थी. उस ने अपनी मां को वीडियो काल की थी. हंसहंस कर बातें कर रही थी. जब मां ने पूछा कि क्या बात है जो इतनी खुश नजर आ रही है?

पति का गिफ्ट पा कर बहुत खुश थी मोनिका

जवाब में मोनिका ने सोने का हार दिखा दिया, ‘‘देखो, यह सुंदर लगा रहा है न. शिवम ने भेंट किया है. 75 हजार रुपए का है. पहन कर दिखाती हूं.’’

‘‘बहुत सुंदर है, शिवम तुम को बहुत प्यार करता है बेटी, पति के इस प्यार का मान रखना.’’

मांबेटी के बीच कुछ मिनट तक वीडियो कालिंग चलती रही. उन की बातें तब रुकीं, जब शिवम का काल वेटिंग में आने लगा. मोनिका तुरंत बोली, ‘‘शिवम काल कर रहे हैं, बाद में बात करती हूं.’’

वीडियो काल काटने के बाद उस ने तुरंत पति शिवम की काल रिसीव की, लेकिन तब तक काल कट गई थी. मोनिका ने तुरंत शिवम का नंबर मिला दिया. लेकिन व्यस्त आ रहा था. तब मोनिका दोबारा मां से बातें करने लगी.

मां से मोनिका की 2 बार बात शुरू ही हुई थी कि फिर से वेटिंग में शिवम की काल आने लगी. मोनिका ने देरी किए बगैर मां की काल डिसकनेक्ट कर पति की काल रिसीव की.

‘हैलो’ बोलते ही शिवम ने गुस्से में कहा, ‘‘किस से फोन पर लगी रहती हो, कब से काल कर रहा हूं.’’

उसी लहजे में मोनिका भी बोल पड़ी. उन के बीच काम की बातें होने के बजाय तकरार होने लगी. ऐसा क्यों हुआ, किसी को नहीं मालूम. लेकिन उन की गरमागरम आधीअधूरी बातें कमरे से बाहर भी जाने लगी थीं.

उस पर किसी ने ध्यान दिया या नहीं, पता नहीं चल पाया. उन की आवाजों के साथसाथ कभी गाड़ी की तो कभी बाइक की आवाजें शामिल हो जाती थीं. उन में कुत्तों के भौकने की भी आवाजें थीं.

पिता से बहुत लगाव था मोनिका को

पहली अप्रैल, 2022 की सुबह पुलिस लाइन स्थित आवासीय इलाके के लिए मनहूस खबर के साथ शुरू हुई. जिस ने भी वह खबर सुनी, भागाभागा शिवम मिश्रा के आवास की ओर दौड़ पड़ा.

दरअसल, उन की 4 माह पहले ब्याही पत्नी मोनिका की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी. वह घर के एक कमरे में पंखे से झूलती नजर आ रही थी. उस वक्त शिवम मिश्रा रात की ड्यूटी से अपने आवास पर आए ही थे.

वह खिड़की का दरवाजा तोड़ कर कमरे में दाखिल हुए और पंखे से लटकी पत्नी की लाश नीचे उतारी. हालांकि मोनिका की मौत और लाश की स्थिति को ले कर भी मीडिया में तरहतरह की बातें सामने आने लगीं कि वहां मीडिया को फटकने तक नहीं दिया गया था.

सूचना पा कर डीआईजी/एसपी डा. विपिन कुमार मिश्रा, एएसपी विपुल श्रीवास्तव, सीओ (कादीपुर) भी मौके पर पहुंच गए.

डीआईजी डा. विपिन मिश्रा ने मोनिका की संदिग्ध मौत से परदा हटाने की कोशिश की. उन्होंने बताया कि मोनिका संभवत: अवसाद में थी. उस के लिए दवाएं लेती थी. उस के पिता का कुछ साल पहले देहांत हो गया था. पिता से उस का काफी जुड़ाव था. शायद इसलिए उस ने आत्महत्या कर ली.

उस की मौत पर जांच को ले कर किए गए सवाल पर उन्होंने बताया कि मोनिका के परिजनों की तरफ से कोई तहरीर नहीं दी गई है. इसलिए अभी आगे की जांच शुरू नहीं हुई है.

मीडियाकर्मियों ने अपने स्तर से मोनिका और शिवम के प्रेम संबंध और सवा सौ दिनों की विवाहित जिंदगी के बारे पता किया. मालूम हुआ कि शिवम पहले से शादीशुदा हैं.

उन की पहली पत्नी प्रयागराज में उन के पैतृक घर पर रहती है. मोनिका से दूसरी शादी थी, जो घर वालों से छिपा कर की गई थी. इस कारण उन की कोर्टमैरिज हुई थी और उस मौके पर शिवम के परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं था.

शायद इसे ले कर ही मोनिका और शिवम के बीच तनाव बना रहता था. मोनिका को भी इस की जानकारी शादी के बाद हुई थी.

हालांकि मोनिका की मां ने बाद में इन तमाम बातों को अफवाह और बेबुनियाद बताया. उन का कहना था कि शिवम मोनिका से बहुत प्यार करते थे और उस की देखभाल और सुरक्षा के लिए हमेशा चिंतित रहते थे. वह लखीमपुर आती थी तो साथ में ड्राइवर को भेजते थे.

मोनिका की मां ने घटना के दिन हुई वीडियो कालिंग की बात भी बताई. उन्होंने कहा कि उस दिन शिवम का दिया हुआ सोने का कीमती हार पा कर मोनिका बहुत खुश थी. घटनास्थल से पोस्टमार्टम हाउस तक और फिर श्मशान तक मोनिका के पति शिवम मिश्रा और अन्य परिजनों के साथ पुलिस की मौजूदगी बनी रही.

बहरहाल, मोनिका ने आत्महत्या से पहले कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा था, यह मीडिया में उठने वाला एक सवाल बन गया. कारण आमतौर पर आत्महत्या करने वाला पढ़ालिखा व्यक्ति यह लिख कर जाता है कि वह किन कारणों से मौत को गले लगा रहा है.

डा. विपिन मिश्रा ने एक वीडियो की बात भी की है, जिस में मोनिका कह रही है कि वह अपने पिता से बहुत अटैच्ड है और अपनी जिंदगी से परेशान है. मगर वह वीडियो मीडियाकर्मियों को नहीं दिखाया गया.

कथा लिखने तक मोनिका के आत्महत्या करने की वजह सामने नहीं आ सकी थी. लोग तरहतरह की चर्चाएं कर रहे थे.

—कथा जनचर्चा और मीडिया की खबरों पर आधारित. कथा का नाटकीय रूपांतरण किया गया है.

पाकिस्तान: इमरान खान भी हुए ट्रिपल ए के शिकार

बीती 28 मार्च तक पाकिस्तान के तब के प्रधानमंत्री इमरान खान और उन की गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की स्क्रिप्ट जब सेना और संयुक्त विपक्ष लगभग पूरी तरह लिख चुके थे, तब इसी दिन पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले में कहा गया था कि अल्पसंख्यकों के प्रति कट्टर व्यवहार से पाकिस्तान की गलत छवि पेश हो रही है. कट्टर व्यवहार ने पाकिस्तानियों पर असहिष्णु, हठधर्मी और कठोर होने का लेबल चिपका दिया है.

मामला पाकिस्तान के लिहाज से नया नहीं था. अल्पसंख्यकों में शुमार होने वाले अहमदिया समुदाय के लोगों ने लाहौर हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी जिस में उन में से कुछ को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था क्योंकि उन्होंने अपने उपासना स्थल की डिजाइन की थी और उस की भीतरी दीवारों पर इसलामिक प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल किया था.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सैयद मंसूरी अली शाह ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि देश के गैरमुसलमानों यानी अल्पसंख्यकों को उन के अधिकारों से वंचित करना और उन्हें उन के उपासना स्थलों की चारदीवारी में कैद करना लोकतांत्रिक संविधान के खिलाफ और हमारे इसलामिक गणराज्य की भावनाओं के प्रतिकूल है.

गौरतलब है कि साल 1984 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जियाउल हक की हुकूमत के दौरान सरकार ने अहमदिया समुदाय के उपासना स्थलों को मसजिद कहने और अनाज देने को अपराध करार दिया था जिस की सजा 3 साल की कैद और जुर्माना था. इसी आधार पर अहमदिया मुसलमानों को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था.

अहमदिया समुदाय का इतिहास और धार्मिक आंदोलन एक दिलचस्प और अलग बात है लेकिन संक्षेप में यह सम?ा लेना ही काफी है कि वे हजरत मुहम्मद को आखिरी पैगंबर नहीं मानते. इसलिए बाकी मुसलमान उन्हें मुसलमान होने की मान्यता नहीं देते बल्कि उन्हें काफिर करार देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पाकिस्तान से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी. इसलिए नहीं कि जिन की प्रतिक्रियाओं पर गौर किया जाता वे सब के सब सियासी उठापटक, गुणाभाग और जोड़तोड़ में व्यस्त थे बल्कि इसलिए कि यह धर्म से जुड़ा एक संवेदनशील मामला था जिस पर कुछ कहना वक्ती तौर पर एक तरह का दुस्साहस ही होता और गरमागरमी के माहौल में जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता था. इमरान खान को सत्ता बचाए रखने और विपक्षियों को सत्ता हथियाने की पड़ी थी, लिहाजा, सिरे से सब खामोश रहे.

लेकिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने 7 अप्रैल के अपने फैसले में यह कहा कि अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होना ही चाहिए क्योंकि संविधान के तहत नैशनल असैंबली के डिप्टी स्पीकर को यह अधिकार नहीं था तो विपक्ष जश्न मनाता नजर आया.

गौरतलब है कि संयुक्त विपक्ष ने इमरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए 342 में से 199 सांसद अपने साथ होने का दावा किया था और इमरान खान के साथ 141 सांसद होने की बात कही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान के 3 अप्रैल तक लिए गए फैसलों को रद्द करते हुए यह भी कहा कि प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति को विधानसभा भंग करने की सलाह देने का अधिकार नहीं है तो विपक्षियों के चेहरे और खिल उठे और वे लोकतंत्र व संविधान की दुहाई देते नजर आए.

पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी ने फैसले के तुरंत बाद कहा, ‘‘यह संविधान और लोकतंत्र की जीत है. इस जीत से हम लोकतंत्र की बहाली, मीडिया की आजादी की बहाली और लोगों के सशक्तीकरण की तरफ बढ़ेंगे.’’

प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार पीएमएल-एन (पाकिस्तान मुसलिम लीग – नवाज) के मुखिया नैशनल असैंबली में विपक्ष के नेता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ ने कहा, ‘‘पाकिस्तान का जो संविधान है, न सिर्फ वह बल्कि पूरा देश ही इस फैसले की वजह से बच गया है.’’ उन की तेजतर्रार भतीजी नेत्री मरियम नवाज ने कहा, ‘‘संविधान की सर्वोच्चता बहाल होने के साथ ही पूरे देश को बधाई, जिन लोगों ने भी संविधान का उल्लंघन किया उन का हिसाब बाकी है.’’

इन दिग्गजों को अहमदिया समुदाय से ताल्लुक रखते फैसले पर लोकतंत्र और संविधान की याद क्यों नहीं आई, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि न केवल ये खुद, बल्कि इमरान खान भी शुद्ध दक्षिणपंथी हैं जिन्हें न तो पाकिस्तान की जनता की परेशानियों से कोई लेनादेना है न महंगाई, गिरती अर्थव्यवस्था की कोई चिंता है, न जीडीपी से कोई सरोकार है, न बढ़ती बेरोजगारी से कोई लेनादेना है और फिर युवाओं और महिलाओं की बदहाली व धार्मिक असहिष्णुता की तो बात करना ही बेकार है.

कट्टरवाद इन सभी के संस्कारों में है. ये और इन के पूर्वज भी मुल्लामौलवियों व इमामों के इशारों पर नाचते रहे हैं. पाकिस्तान में जो सत्ता परिवर्तन की अफरातफरी मची उस में ये लोग यानी विपक्ष भी इमरान खान से कम गुनाहगार नहीं जिन्हें लोकतंत्र और संविधान तभी याद आते हैं जब सत्ता चाहिए होती है.

पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में वहां न लोकतंत्र कभी था, न अभी है और न आगे कभी होगा, लोकतंत्र का खयाल ही बचकाना है जिसे सम?ाने के लिए पीछे चलें तो साफ दिखता है कि-

कौन सा लोकतंत्र…

पाकिस्तान का जन्म जिन हालात में हुआ था वे कतई उस के अनुकूल नहीं थे. आजादी के 9 वर्षों बाद तक तो वहां कोई संविधान ही नहीं था. 1956 में पाकिस्तान गणतंत्र बना और राष्ट्रपति पद निर्मित हुआ. रिपब्लिकन पार्टी के मुखिया इस्कंदर मिर्जा पहले राष्ट्रपति बने जिन्होंने अय्यूब खान को आर्मी का चीफ नियुक्त किया. तब बंटवारे के जख्म ताजा थे लेकिन साथ में आजाद होने का जश्न भी मन रहा था.

प्रथम ग्रासे मच्छिका वाली कहावत सटीक बैठी और नएनवेले पाकिस्तान में तख्तापलट का खेल शुरू हो गया जिस का हालिया एपिसोड 10 अप्रैल को भी देखने में आया. अपनी नियुक्ति के तेरहवें ही दिन अय्यूब खान ने इस्कंदर मिर्जा सरकार का तख्ता पलट दिया और देश में मार्शल लौ लागू कर दिया. यह आजाद पाकिस्तान का पहला सैन्य विद्रोह था जिस में तब के युवा व चर्चित नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने अय्यूब खान का दिल से साथ दिया था. कहा यह गया था कि इंसाफ हो गया क्योंकि इस्कंदर मिर्जा ने प्रधानमंत्री फिरोज खान नून को गद्दी से उतारा था.

बतौर इनाम, जुल्फिकार अली भुट्टो को विदेश मंत्री बनाया गया, लेकिन इस महत्त्वाकांक्षी नेता की पटरी अय्यूब खान से बैठी नहीं और उन्होंने 1966 में इस्तीफा दे दिया. बेलगाम अय्यूब खान ने 9 साल में अवाम के लिए तो कुछ नहीं किया लेकिन सेना को इतना ताकतवर बना दिया कि गणराज्य और लोकतंत्र मजाक बन कर रह गए. सेना ने पाकिस्तान को जब चाहा, जहां चाहा, जैसे चाहा तबीयत से रौंदा तो लोग हाहाकार कर उठे. जिस सीढ़ी और जिस तरीके से अय्यूब खान ने पाकिस्तान का तख्त हासिल किया था वह उन्हें भारी पड़ा. उन के चहेते याह्या खान ने उसी तर्ज पर उन का तख्ता पलट दिया और राष्ट्रपति बन बैठे.

याह्या खान अव्वल दर्जे के शराबी और ऐयाश नेता थे. शराब की लत उन्हें कुछ इस कदर थी कि तत्कालीन चीफ औफ स्टाफ जनरल अब्दुल हमीद खान ने सेना के आला अफसरों को हिदायत दे रखी थी कि रात 10 बजे के बाद याह्या खान का कोई हुक्म न माना जाए.

1971 के युद्ध के 10 दिनों पहले शराब के नशे में धुत याह्या खान ने एक अमेरिकी मैगजीन ‘न्यू यौर्कर’ के पत्रकार बौब शेपली को बता दिया था कि पाकिस्तान भारत पर हमला करेगा. इस लड़ाई में पाकिस्तान को करारी शिकस्त मिली और उस के 2 टुकड़े हो गए. नए देश को बंगलादेश के नाम से जाना गया जो पहले पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था.

इस वक्त तक पाकिस्तान में गृहयुद्ध और जातीय संघर्ष ही होते रहे थे और सेना बेरहमी से इन्हें कुचलती रही, जिस में लाखों बेगुनाह मारे गए. अब तक पाकिस्तान के आम लोग भी यह सम?ाने लगे थे कि सेना सिर्फ संहार कर सकती है जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, इसलिए मांग यह उठने लगी कि एक चुनी गई सरकार ही देश चलाए जो कि पाकिस्तान में आसान काम नहीं रह गया था.

इसी दबाव के चलते साल 1973 में एक कानून के तहत पाकिस्तान एक संसदीय गणतंत्र बना. जुल्फिकार अली भुट्टो ने प्रधानमंत्री बनने के लिए राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया. उन की बनाई पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने 1970 के चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल किया था. पीपीपी का यह फलसफा खूब पसंद किया गया था कि इसलाम हमारा विश्वास है, लोकतंत्र हमारी नीति है और समाजवाद हमारी अर्थव्यवस्था है.

जिया ने भी ढाया कहर

सिंधी समुदाय के जुल्फिकार अली भुट्टो ने पूरी कोशिश की कि पाकिस्तान के बारे में दुनिया की राय और नजरिया बदले. एक हद तक ऐसा होने भी लगा था लेकिन उन की उदारवादी इमेज कट्टर सेना से बरदाश्त नहीं हो रही थी. वे खुद को पूरी तरह साबित कर पाते, इस के पहले ही सेनाध्यक्ष जियाउल हक ने न केवल उन का तख्ता पलट दिया बल्कि मार्शल लौ लागू करते उन्हें फांसी पर भी चढ़ा दिया. तब उन की बेटी बेनजीर भुट्टो 26 साल की थीं. ये वही जिया थे जिन्हें सेना प्रमुख बनाने के लिए भुट्टो ने तमाम कायदेकानून और नियम दरकिनार कर दिए थे क्योंकि वे उन की खुशामद करते रहते थे.

जियाउल हक अय्यूब खान के भी उस्ताद निकले. उन्होंने मीडिया के साथसाथ नागरिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा दिया. और तो और, 1979 में सभी राजनीतिक दलों को भी प्रतिबंधित कर दिया. पाकिस्तान को पूरी तरह कट्टर इसलामिक देश बनाने के लिए उन्होंने शरिया कानून भी लागू कर दिया.

उन का मानना था कि अगर पाकिस्तान इसलामिक देश नहीं है तो उस के बनने के माने क्या. इसी वक्त में पाकिस्तान में तालिबानियों का उदय हुआ. पूरी तरह अमेरिकी इशारे पर नाचते इस सैन्य तानाशाह ने सोवियत रूस और अफगानिस्तान के युद्ध में रूस को बाहर खदेड़ा. इस काम में अमेरिका ने उन की भरपूर मदद की. मीडिया घरानों को हुक्म था कि वे कोई भी खबर या रिपोर्ट पहले सेना के अफसरों को पढ़ाएंदिखाएं फिर छापें या दिखाएं. इस दौरान टीवी और रेडियो प्रसारण भी सेना के नियंत्रण में था तो जिस लोकतंत्र की बात भुट्टो करते रहे थे, महज 3 साल में ही उस की अर्थी निकाल दी गई.

पूरे 11 साल अल्पसंख्यकों पर बेहताशा जुल्म सेना और कट्टरवादियों ने ढाए. राजनीतिक दलों के नेता नजरबंद कर लिए गए थे या फिर खुद ही घरों में कैद हो गए थे. जो भी सैन्य शासन की मुखालफत करता था उसे जेल में ठूंस दिया जाता था. जिया के शासनकाल के दौरान सब से ज्यादा कहर अल्पसंख्यकों पर ढाए गए. इन में अहमदियों के अलावा हिंदू, पंजाबी, ईसाई और बंगाली व सिंधी भी शामिल हैं. धर्म परिवर्तन भी बड़ी तादाद में हुआ.

जियाउल हक ने ईशनिंदा कानून को और कड़ा कर दिया था, इसलिए अल्पसंख्यकों का पाकिस्तान में रहना दुश्वार हो गया था. एक तरह से यह उन के लिए इसलाम कुबूल कर लेने का फरमान था. नहीं तो उन्हें भी जेल में ठूंस दिया जाता था. 28 मार्च के फैसले में सुप्रीम कोर्ट दरअसल, जियाउल हक को ही ?ांक रहा था.

जिया का हश्र भी वही हुआ जो आमतौर पर निरंकुश तानाशाहों का होता आया है.

17 अगस्त, 1988 को एक विमान हादसे में वे कई साथियों सहित मारे गए. यह हादसा और मौत दोनों रहस्मय थे और किसी साजिश की देन थे जिस का खुलासा अभी तक कोई जांच नहीं कर पाई.

बेनजीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा ‘द डौटर औफ ईस्ट’ में लिखा है कि जिया की मौत एक ईश्वरीय कारनामा था. यह और बात है कि आईएसआई के तत्कालीन प्रमुख हमीद गुल इसे अमेरिकी साजिश करार देते रहे थे. हकीकत कुछ भी हो लेकिन तब तक पूरी दुनिया जियाउल हक से आजिज आ चुकी थी और खुद पाकिस्तान भी इस का अपवाद नहीं था. वहां भी उन्हें लोकतंत्र का विलेन कहा जाने लगा था.

ये भी रहे फ्लौप

लंबे वक्त के तानाशाही शासन से मुक्त हुए पाकिस्तान में 1988 में आम चुनाव हुए जिस में पीपीपी विजयी हुई और बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं. उन्हें अपने पिता की फांसी से उपजी हमदर्दी का भी फायदा मिला था. वे किसी भी इसलामिक देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं. बेनजीर ने भी समाजवाद और उदारवाद का राग अलापा, लेकिन परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. फिर 1990 के आम चुनाव में पहली बार उभरते राजनेता पीपल्स मुसलिम लीग के मुखिया मियां मोहम्मद नवाज शरीफ प्रधानमंत्री चुने गए. लेकिन 1993 में गुलाम इशाक खान ने फिर नैशनल असैंबली को भंग कर दिया.

1993 के चुनाव में एक बार फिर बेनजीर भुट्टो की वापसी हुई लेकिन हुआ वही जो अब तक होता आ रहा था. 1996 में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते एक बार फिर उन्हें पद से हाथ धोना पड़ा. लेकिन इस दौरान दुनियाभर में उन की पूछपरख बढ़ी और उन्हें एक लोकप्रिय नेता मान लिया गया था. उन के पति आसिफ अली जरदारी की इमेज काफी खराब हो चुकी थी, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी थी. 1999 में उन्होंने पाकिस्तान छोड़ दिया और दुबई जा कर रहने लगीं, जिस का फायदा नवाज शरीफ को मिला और वे फिर प्रधानमंत्री चुने गए पर अपना यह कार्यकाल भी वे पूरा नहीं कर पाए.

नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो के बीच ‘आया राम गया राम’ का खेल चलता रहा. एक तरह से यह कट्टरवाद और सीमित उदारवाद की लड़ाई थी, जिस में नवाज शरीफ भारी पड़ते रहे क्योंकि वे भी जियाउल हक के छोड़े कामों को अंजाम देते रहे थे. इसलाम को थोपने में कोई कसर उन्होंने भी नहीं छोड़ी. अब तक भी पाकिस्तान की कोई पहचान नहीं बन पाई थी (न अभी है). आजादी के 75 साल बाद भी पाकिस्तान यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह दक्षिण एशिया का हिस्सा है या मध्यपूर्व का. पाकिस्तानी अभी भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पहचान उन के लिए मुफीद होगी सऊदी अरब और ईरान जैसी कट्टरवादी या फिर मिस्र और जौर्डन जैसी उदारवादी.

इसी असमंजस का शिकार पाकिस्तान के तमाम शासक रहे. इमरान खान इस का अपवाद साबित नहीं हुए जो उन की विदाई की वजह भी बना. बहरहाल, नवाज शरीफ ने वही गलती दोहराई थी जो याह्या खान ने की थी. उन्होंने भी कई काबिल अफसरों को दरकिनार करते परवेज मुशर्रफ को सेना की कमान सौंप दी थी. कारगिल युद्ध की आड़ ले कर मुशर्रफ ने भी नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल कर दिया था. इन दोनों के बीच भी शह और मात का खेल चलता रहा था जिस में परवेज ने नवाज की बाजी उलट दी थी.

2008 तक पाकिस्तान की बागडोर उन के हाथ में रही. इस के बाद पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता का शिकार होता रहा. यूसुफ रजा गिलानी ने 2008 में प्रधानमंत्री पद संभाला लेकिन कार्यकाल वे भी पूरा नहीं कर सके. भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद से हटा दिया था.

2013 के आम चुनाव में नवाज शरीफ तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और तीसरी बार भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. साल 2017 में पनामा पेपर्स मामले में नाम आने पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद से हटा दिया और आरोपी पाए जाने पर 10 साल जेल की सजा भी सुना दी. जमानत पर रिहा हो कर इलाज के लिए लंदन चले गए नवाज शरीफ को 10 अप्रैल की तारीख शुभ संदेश ले कर आई क्योंकि इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव में हार गए थे और उन के भाई शाहबाज शरीफ नए प्रधानमंत्री चुन लिए गए थे. इस तरह उन की वतन वापसी की राह भी आसान हो गई.

धार्मिक पाखंड ले डूबे

2 दशकों तक शानदार क्रिकेट खेलने वाले इमरान खान की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी यानी पीटीआई ने 2018 के आम चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन स्पष्ट बहुमत उसे भी नहीं मिला था, इसलिए उसे सरकार बनाने के लिए छोटे दलों का सहारा लेना पड़ा था. अब तक जनता भुट्टो और शरीफ परिवारों से नाउम्मीद भी हो चुकी थी. जनता के गुस्से को भुनाने के लिए इमरान ने धर्म और तंत्रमंत्र का सहारा लिया.

उन की तीसरी पत्नी बुशरा बीबी खान पाकिस्तान की मशहूर ज्योतिषी और तांत्रिक हैं. इमरान उन के संपर्क में आए और प्रधानमंत्री बन जाने की ख्वाहिश जताई तो बुशरा ने कुछ दिन चक्कर कटवाने के बाद कहा कि आप मु?ा से शादी कर लो तो यह इच्छा पूरी हो जाएगी. आम और खास दोनों तरह के पाकिस्तानी यह मानते हैं कि बुशरा रूहानी ताकतों से लैस हैं और उन के पास 2 जिन्न हैं.

बात या शर्त, अंधा क्या चाहे, फिर यहां तो जन्नत सी हूर मिल रही थी. बुशरा की खूबसूरती की मिसाल ढूंढे़ से नहीं मिलनी. किशोर उम्र में शर्मीले नौजवानों की जमात में शुमार किए जाने वाले इमरान को क्रिकेट के वक्त से ही रोमांस और शादियों का चस्का लग गया था. सो, तुरंत उन्होंने हां कर दी.

बुशरा से शादी के पहले उन्होंने ब्रिटेन की सामाजिक कार्यकर्ता जेमिमा गोल्ड स्मिथ से शादी की थी. 9 साल बाद दोनों में तलाक हो गया था. जेमिमा को इसलामिक प्रतिबंध रास नहीं आ रहे थे. हालांकि इमरान के कहने पर उन्होंने इसलाम कुबूल लिया था और अपना नाम भी बदल लिया था. इमरान ने दूसरी शादी पेशे से पत्रकार रहम खान से की थी जो सिर्फ 9 महीने चल पाई थी. सैक्सी कहे जाने वाले खूबसूरत शख्सियत के मालिक इमरान उन मर्दों में से हैं जो औरत को पांव की जूती और उपभोग की चीज सम?ाते रहे हैं, इसलिए इन दोनों से उन का तलाक भी हो गया था.

स्त्री विरोधी मानसिकता वाले इमरान ने पिछले साल जून में महिलाओं के पहनावे को ले कर एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘अगर कोई महिला बहुत कम कपड़े पहन रही है तो इस का क्या असर होगा, इस का पुरुषों पर असर होगा जब तक कि वे रोबोट नहीं हैं.’’ इस चर्चित और विवादास्पद इंटरव्यू में उन्होंने इसलामिक संस्कृति की दुहाई दी थी. तब साफ हो गया था कि उन की नजर भी देश के बिगड़ते हालात पर कम, महिलाओं के कपड़ों पर ज्यादा है.

प्रधानमंत्री बनने के 2 साल बाद बुशरा से भी उन की खटपट होने लगी और दोनों अलग रहने लगे. अपने प्रधानमंत्री बनने का श्रेय बुशरा के काले जादू को देने वाले इमरान ने चुनाव प्रचार में अपनी सरकार को ‘रियासत ए मदीना’ यानी मदीने की सरकार की तरह चलाने का वादा जनता से किया था. यह वादा भारत के उन नेताओं जैसा था जो रामराज्य का लौलीपौप दिखा कर सत्ता पर काबिज हो बैठे हैं. उन्होंने पाकिस्तान को कर्जमुक्त बनाने की बात भी कही थी. लेकिन कट्टरवाद उन के कार्यकाल में भी खूब फलाफूला. इस मसले पर वे नवाज शरीफ पर भी भारी पड़े. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भी बुशरा के काले जादू की खबरें उड़ी थीं.

गड्ढे में गया पाकिस्तान

इमरान खान भी जनता की उम्मीदों व जरूरतों पर खरे नहीं उतर पाए. वे धर्म की संकीर्ण सोच में उल?ो नेता थे, इसलिए भी खुद को पहले के प्रधानमंत्रियों से बेहतर साबित नहीं कर पाए. उन के कार्यकाल में पाकिस्तान की हालत दिनोंदिन खस्ता होती गई. बढ़ती महंगाई ने जनता को रुला दिया जिस से यह भी साफ हो गया था कि इमरान खान की न तो कोई अर्थनीति है और न ही विदेश नीति. वे अल्लाह ताला के भरोसे रहने वाले नेता हैं.

इस की गवाही आंकड़ों की जबानी देखें तो साल 2020 में पाकिस्तान एशिया के 13 गरीब देशों में 8वें नंबर पर था. भारत सब से नीचे यानी 13वें नंबर पर था. बंगलादेश इस लिस्ट में नहीं था. विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, पाकिस्तान में प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 1,193.73 डौलर थी जबकि भारत में यह 1,900 डौलर थी.

बंगलादेश ने इस मामले में भी इन दोनों पड़ोसियों को पछाड़ दिया था. जहां प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 1,968 डौलर थी. यही नहीं, जीडीपी के मामले में भी बंगलादेश बाजी मार ले गया. 1971 में उस के बनते वक्त वहां की जीडीपी महज 8.75 करोड़ डौलर थी जो 2020 में 324 अरब डौलर की हो गई थी. यानी 1971 के मुकाबले 23 गुना ज्यादा, जिस की औसत वृद्धि दर 6.68 फीसदी रही.

भारत की जीडीपी 1971 में 67.35 अरब डौलर थी जो 2020 में 2,620 अरब डौलर रही. उस की औसत वृद्धि दर 7.7 फीसदी रही. पाकिस्तान यहां भी फिसड्डी साबित हुआ. उस की जीडीपी की औसत वृद्धि दर 6.68 फीसदी रही. 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.6 अरब डौलर थी जो 2020 में 314 अरब डौलर रही.

पाकिस्तान में नया कुछ हुआ है तो वह इतना है कि सत्ता परिवर्तन के साथसाथ भीख का कटोरा हस्तांतरित हुआ है. कल तक जो शाहबाज खान इमरान को कर्ज के बाबत कोसा करते थे, आज वे खुद अब भिक्षा के लिए चीन और सऊदी अरब के मुहताज हो चले हैं. आंकड़े बहुत भयावह हैं कि पाकिस्तान को इसी जून तक 2.5 अरब डौलर का और 2023 के आखिर तक 20 अरब डौलर का कर्ज चुकाना है. कंगाल हो चुके पाकिस्तान पर अब दिवालिया होने का खतरा मंडरा रहा है. भारीभरकम कर्ज के अलावा दिक्कत पाकिस्तानी रुपए की लगातार गिरती कीमत है जो 180 रुपए प्रति डौलर तक जा पहुंची है. इस के जल्द ही 200 रुपए तक जाने की आशंका है.

पाकिस्तान के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ पाकिस्तान का लिक्विड फौरेन एक्सचेंज रिजर्व गिर कर 11.3 डौलर का हो गया है जो फरवरी में 5.1 अरब डौलर था. आईएमएफ के एक अंदाजे के मुताबिक पाकिस्तान की औसत मुद्रास्फीति दर इस साल 11.2 फीसदी तक पहुंच सकती है. इमरान खान ने जो भिक्षापात्र शाहबाज शरीफ को ट्रौफी की तरह थमाया है उसे ले कर उन के वित्त मंत्री डाक्टर मिफ्चा इस्माइल अब चीन और सऊदी अरब के साथसाथ आईएमएफ का भी मुंह ताक रहे हैं. आईएमएफ रहम करेगा, ऐसा लगता नहीं, क्योंकि सब्सिडी को ले कर इमरान खान उस के साथ हुए करार को तोड़ चुके हैं यानी जातेजाते भीख मिलने के रास्ते भी बंद कर गए हैं.

इमरान खान के दौर में पाकिस्तान लगातार बदहाली का शिकार होता गया. बढ़ती महंगाई और घटती आमदनी से वहां के लोग हाहाकार करने लगे थे. ऐसे में 14 मार्च को दिए गए उन के इस बयान ने तो आग में घी डालने का काम किया कि मैं आलूप्याज के दामों की राजनीति करने नहीं आया हूं. इमरान चाहते यह थे कि लोग उन की कट्टरवादी इमेज के लिए महंगाई की मार ?ोलते रहें. लेकिन जब लोगों का गुस्सा बढ़ गया तो विपक्ष ने तुरंत इसे लपक लिया.

शाहबाज शरीफ ने इमरान से इस्तीफे की मांग कर डाली तो बिलावल भुट्टो ने उन्हें महंगाई न रोक पाने पर जम कर कोसा. मार्च के महीने में ही पाकिस्तान में खानेपीने के आइटमों में 12.7 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी थी. जून 2018 यानी इमरान के प्रधानमंत्री बनने के बाद से 3 गुना ज्यादा थी.

आर्थिक संकट को ले कर इमरान चारों तरफ से घिर गए थे. पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार भी 7.6 अरब के सब से निचले स्तर तक पहुंचा और पाकिस्तानी रुपया भी डौलर के मुकाबले 160 तक गिर गया. 29 फीसदी की इस गिरावट का असर आम लोगों की जेबों पर पड़ा तो वे कराह उठे. कुछ नहीं सू?ा तो इमरान ने आईएमएफ यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 6 अरब डौलर का भारीभरकम कर्ज और ले डाला, जो बढ़ कर 283 अरब डौलर का हो गया. यानी हरेक पाकिस्तानी पर 1,230.50 डौलर कर्ज हो गया जबकि प्रतिव्यक्ति आमदनी 1,193.73 डौलर पर सिमट गई. 5 अप्रैल को जब इमरान अपनी सरकार बचाने के लिए भागादौड़ी कर रहे थे तब पाकिस्तानी रुपए की कीमत डौलर के मुकाबले 189.37 रुपए पहुंच गई थी.

ट्रिपल ए के भी शिकार हुए

परेशानी के इस दौर में न तो अल्लाह किसी काम आया और न ही बुशरा के काले जादू ने कोई कारनामा किया. इमरान खान ने अपने तरकश के आखिरी तीर निकाले जो नाकाम रहे. गलत नहीं कहा जाता कि पाकिस्तान की कमान ‘ट्रिपल ए’ के हाथ में रहती है. पहला ए अल्लाह दूसरा ए आर्मी और तीसरा ए अमेरिका है.

इन सभी ने इमरान से मुंह मोड़ रखा था. पिछले आम चुनाव में जिस आर्मी ने खुलेतौर पर इमरान का साथ दिया था वही उन से खफा हो चली थी. इमरान अभी तक आर्मी के हाथ के मोहरे थे लेकिन उन्होंने भी जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह खुद को सैन्य चंगुल से आजाद कराने की कोशिश की तो औंधेमुंह गिरे. आईएसआई के पूर्व चीफ फैज हमीद को हटाने में देरी करने पर भी सेना की भौंहें तिरछी हुई थीं.

जैसे ही इमरान ने जनरल कमर बाजवा को नजरअंदाज करना शुरू किया और अमेरिका की आलोचना शुरू की तो कहने को तो मिलिट्री तटस्थ रही पर उस के रुख ने जता दिया था कि अब कुछ नहीं हो सकता.

इमरान बहुत से ड्रामे कर के जाएं या शराफत से पद छोड़ दें, यह उन की मरजी पर निर्भर है. रूस-यूक्रेन जंग के ठीक पहले उन की रूस यात्रा भी अमेरिका सहित बाजवा को रास नहीं आई थी, जिन्होंने रूसी हमले को तुरंत रोकने की मांग की थी. सेना का मूड देखते पीटीआई के सहयोगियों ने उस से किनारा कर लिया जिस से विपक्ष और मजबूत हुआ.

पहली बार किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भारत की तारीफ करते उसे खुद्दार देश कहा. इमरान की मंशा, दरअसल अपनी सेना को भड़काने और कट्टरों को यह जताने की थी कि देखो, अवाम साथ हो तो ही धर्म का राज्य फलताफूलता है. उन्होंने बारबार लोगों से सड़कों पर उतरने की अपील भी की जिस का कोई असर नहीं हुआ.

मुमकिन है उन की मंशा इतना गदर मचवा देने की रही हो कि सेना देश की बागडोर अपने हाथ में लेने को मजबूर हो जाए और वे नैशनल असैंबली में वोटिंग के बाद की फजीहत से बच जाएं. लेकिन ऐसा होना भी उसी सूरत में मुमकिन था जब सेना चाहती जो इमरान की हरकतों से आशंकित हो चली थी. इस पर भी बात नहीं बनी तो उन्होंने जज्बाती हो कर विपक्षियों के बिक जाने की बात कही और देश को बचाने की अपील की लेकिन लोगों ने उन का यकीन नहीं किया.

शाहबाज शरीफ और बिलावल भुट्टो बेहतर जानते हैं कि इमरान की विदाई की पटकथा सेना कभी की लिख चुकी थी. उन का काम तो भाषण देना, नैशनल असैंबली में हल्ला मचाना और आरोप लगाना भर था. इस के एवज में उन्हें कुरसी मिल रही थी. जो होना था वह सेना तय कर चुकी थी.

इमरान खान भी भूल गए थे कि वे कहने को ही इलैक्टेड प्रधानमंत्री हैं, नहीं तो हर कोई जानता है कि वे सेना द्वारा सलैक्टेड थे. पाकिस्तान की राजनीति में सब से कमजोर कड़ी प्रधानमंत्री होता है. चुनी हुई 4 सरकारों को मिलिट्री ने गिराया है जिस के चलते कोई भी प्रधानमंत्री बेचारा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.

दरअसल, लोकतंत्र के असल माने कभी पाकिस्तानी शासकों ने सम?ो ही नहीं. इमरान खान को दोष इस बात पर दिया जा सकता है कि उन्होंने भी लोगों की बोलने की आजादी और न्यायपालिका को मजबूत नहीं किया यानी राइट टू लाइफ पर यकीन नहीं किया जबकि उन के पास सुनहरा मौका था कि वे कट्टरता की बेडि़यां तोड़ सचमुच में ‘नया पाकिस्तान’ गढ़ सकते थे लेकिन कठमुल्लाओं से टकराने की हिम्मत वे भी नहीं जुटा पाए और पौने चार साल तक उन के इशारों पर नाचते हुए महज वक्त काटते रहे. अब कुरसी खोने के बाद भी वे इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं. इमरान कब तक बयानबाजी कर जनता का ध्यान बंटा पाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि बेमेल गठबंधन वाली नई सरकार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. शाहबाज खान भी नहीं सम?ा पा रहे हैं कि इमरान का फैलाया रायता कहां से समेटना शुरू करें फिलवक्त तो आर्थिक संकट उन के सामने किसी आपदा की तरह खड़ा है.

इमरान खान के जाने और शाहबाज शरीफ के आने से बदलना कुछ नहीं है क्योंकि पाकिस्तानी लोकतंत्र की जड़ें बेहद खोखली हैं. शाहबाज शरीफ के पास न तो जिन्न हैं और न ही चिराग जो वे रातोंरात चमत्कार कर महंगाई को काबू कर लेंगे और न ही आर्मी की अनदेखी वे कर पाएंगे जिस के रहमोकरम से वे प्रधानमंत्री बने हैं.

पद संभालते ही कश्मीर राग अलाप कर उन्होंने भी जता दिया कि उन की नीति भी आम लोगों को इसलाम के नाम पर बहकाने और भड़काने की ही होगी. महज 33 साल के बिलावल भुट्टो भी पुराने पाकिस्तान की बात कर रहे हैं जहां कट्टरवाद और धार्मिक संकीर्णता दिनचर्या में शामिल हैं. ऐसे में उन से भी ज्यादा उम्मीदें अपनी मां और नाना की तरह नहीं की जा सकतीं. जाहिर है पाकिस्तान की कट्टरवादी इमेज को सुधारने वे और शाहबाज शरीफ कोई पहल नहीं करेंगे.

तलाक से परहेज नहीं

नरेंद्र मोदी की सरकार ने मुसलिम समाज को खुश कर या भ्रमित कर उस पर हिंदू वोटों का प्रभुत्व जताने के लिए 2019 में मुसलिम वीमन (प्रोटैक्शन औफ राइट्स औफ मैरिज) एक्ट बनाया था और उस में तुरंत दिए गए तलाक को न केवल अवैध ठहराया था, बल्कि इस तरह के तलाक देने वाले पति को 3 साल की सजा भी देने का प्रावधान रखा.

यह सामाजिक सुधारों के लिए किया गया होता तो कानून में तलाकशुदा हर औरत के लिए कुछ न कुछ होता, पर इस का लक्ष्य केवल राजनीतिक लाभ उठाना था. यह कानून बना कर न भाजपा को कोई वाहवाही मिली न मोदी को.

मुसलिम औरतें सिर्फ 3 तलाक की मारी नहीं हैं. वे तलाक की त्रासदी वैसे ही भुगत रही हैं जैसे हिंदू औरतें भुगत रही हैं. मुसलिम कानून में तलाक का प्रावधान सदियों से है, इसलिए समाज का गठन उसी तरह हुआ, पर फिर भी हिंदू विधवा, परित्यक्ता और तलाकशुदा औरत की तरह आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग जहां आज बहुत सी सौगात लाया है वहीं इस ने सामाजिक तानबाने को भी प्रभावित किया है. यही कारण है कि एक ओर जहां आदमी चांद पर जा रहा है, वहीं दूसरी ओर जमीन पर पतिपत्नी के संबंधों में दरार पड़ रही है.

एक सर्वे के आधार पर बताया गया है कि भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है. अकेले दिल्ली में एक साल में तलाक के लगभग 19 हजार मामले सामने आए. यहां एक दशक पहले तलाक की जितनी घटनाएं होती थीं उस में अब 20 फीसदी की वृद्धि हुई है.

समाज में जिस तरह मांबाप को नजरअंदाज कर अपनी इच्छा से शादी करने का रु?ान बढ़ा है, उसी रफ्तार से इन शादियों के टूटने के मामले में भी वृद्धि हुई है. बड़े शहरों में युवा मांबाप की इजाजत के बिना अपनी पसंद की शादी करते हैं जो आमतौर पर पंडालों के बजाय अदालत के कमरे में होती हैं. शादी के लिए जिस तरह अदालतों की सेवाएं ली जाती हैं उसी तरह उन्हें तोड़ने के लिए भी अदालतों का सहारा लिया जाता है. इस के चलते अदालतों पर बो?ा बढ़ गया है.

इस तरह के मामले निबटाने के लिए अकेले दिल्ली में विशेष वैवाहिक अदालतें बनाई गई हैं जिन की निगरानी एक अतिरिक्त सैशन जज के सुपुर्द है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1960 के दशक में इस तरह की घटनाएं कभीकभार ही हुआ करती थीं अर्थात साल में 1-2 घटनाएं ही सुनने को मिलती थीं, लेकिन 1980 के दशक में यह संख्या एक साल में 100-200 तक पहुंच गई. 1990 के दशक में यह संख्या एक हजार थी तो आजकल हर रोज तलाक के 20-25 मामले आ ही जाते हैं, पर मुसलिम तलाक अभी भी सुविधाजनक होते हुए भी कम हो रहे हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार, मुसलिम तलाक दर 0.56 फीसदी है जबकि हिंदुओं में यह दर 0.70 फीसदी है. स्थिति यह थी कि हर साल वैवाहिक संबंधों को तोड़ने के 4 से साढ़े 4 हजार घटनाएं होने लगीं, जिन की संख्या अब बढ़ कर हर साल 9 हजार तक पहुंच गई है.

वैवाहिक संबंधों को तोड़ने में जहां बहुत छोटीछोटी बातों को इस का कारण बताया गया है वहीं इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि अतीत में जहां यह पहल पुरुषों की ओर से होती थी वहां अब इस मामले में महिलाएं भी आगे बढ़ गई हैं. एक और रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि भारतीय मुसलमानों में तलाक के लिए मुसलिम लड़कियां एक बड़ी संख्या में पहल कर रही हैं.

कोलकाता और दिल्ली से एकसाथ एक उर्दू दैनिक में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मुसलिम समाज की पढ़ीलिखी लड़कियां अपनी जिंदगी के फैसले खुद करना चाहती हैं. 29 साल की नगमा की शादी मुंबई में एक होटल मालिक के साथ हुई थी लेकिन 8 महीने के बाद उस ने अपने शौहर से तलाक ले लिया, क्योंकि उस के शौहर को उस का लोगों के बीच उठनाबैठना पसंद नहीं था.

कुछ ऐसा ही हाल असमा का है. उस ने अपने शौहर से वैवाहिक संबंध सिर्फ इसलिए खत्म कर दिया कि वह अलग रहना चाहती थी जबकि उस के शौहर इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि वे अपने मांबाप से अलग हों. फातिमा की कहानी भी इस से अछूती नहीं है. उस ने घर से बाहर निकल कर काम करने का फैसला किया और अपने शौहर से अलग हो गई, क्योंकि उस के शौहर को उस का बाहर जा कर नौकरी करना पसंद नहीं था.

मुसलिम समाज में होने वाली इन घटनाओं पर मिलीजुली प्रतिक्रिया हो रही है. सामाजिक जानकारों का मानना है कि ऐसा लड़के व लड़कियों में शैक्षिक फर्क का नतीजा है, क्योंकि जब किसी पढ़ीलिखी लड़की की शादी एक ऐसे लड़के से हो जाती है जो शिक्षा के लिहाज से उस के बराबर नहीं होता तो इस तरह की पेचीदगियां पैदा होती हैं.

बुद्धिजीवी मानते हैं कि मुसलमानों में एक बड़ी संख्या ऐसे लड़कों की है जो स्कूल के दिनों में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, जबकि मुसलमान लड़कियां शिक्षा के मैदान में काफी बेहतर हैं. उलेमा और दूसरे धार्मिक नेता इस के लिए फिल्म और टीवी को जिम्मेदार मानते हैं और उस से जोड़ कर देखते हैं. इस के विपरीत अधिकतर लड़कियां इस बात से सहमत नहीं हैं कि उन के फैसले किसी फिल्म अथवा टीवी धारावाहिक से प्रभावित होते हैं.

स्नातक कर रही नाजिया तर्क देती है कि कोई खुशी से ऐसे फैसले नहीं करता और जब पानी सिर से ऊंचा हो जाता है तो लड़कियों को अलग होने का फैसला करना ही पड़ता है. वैसे कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि इस तरह के मामलों में केवल लड़कियों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

लेखिका शेफता फरहत भी मानती हैं कि मुसलमान लड़कियां चाहे उच्चवर्ग की हों या पिछड़े वर्ग की, सब की हालत एकजैसी है. उन के अनुसार, कई बार देखा गया है कि लड़के, लड़कियों की जिंदगी इस कदर अजीब बना देते हैं कि उन्हें आपस में अलग होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता.

लड़कियों के बाहर काम करने की वकालत करती हुई बुशरा इकबाल कहती हैं, ‘‘अगर वे अपने दायरे में रह कर काम करती हैं तो इस में बुराई क्या है. वैसे भी जब लड़कियों ने शिक्षा हासिल की है तो उस का कहीं न कहीं इस्तेमाल तो होना ही चाहिए.’’ इंग्लिश की शिक्षिका शाहीन मानती हैं कि जब पुरुषों के दिमाग में लड़कियों के काम करने से खतरा महसूस होता है तभी मामलात बिगड़ते हैं और रिश्तों में दरार पैदा होती है.

3 तलाक कानून का असर क्या पड़ा है, यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि इस का हल्ला ज्यादा मचाया गया, जबकि हकीकत कुछ और थी. दरअसल हिंदू समाज को लुभाने के लिए यह कानून लाया गया. हकीकत यह है कि भगवाई पार्टी की सरकार हिंदूमुसलिम विवाद और हिंदुओं व मुसलिमों के मध्य नफरत को जिंदा रखना चाहती है.

राजनीति से परे होगा ‘‘मुंबा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’’

सिनेमा महज मनोरंजन का साधन मात्र नहीं है. सिनेमा मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा का भी माध्यम है. सिनेमा जन जागृति का भी माध्यम है. तो वहीं सिनेमा अपने देश का सांस्कृतिक राजदूत भी है. इसी के चलते पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिल्म फेस्टिवल आयोजित करने का सिलसिला शुरू हुआ था. इसके पीछे मंशा यह थी कि एक जगह विश्व के हर देश की फिल्मों, उनके कलाकारों और फिल्मकारों से लोग परिचित हो सकेंगे. इसी सोच के चलते कॉन्स फिल्म फेस्टिवल सहित कई अंतरराष्ट्ीय फिल्म फेस्टिवल ने पूरे विश्व में अपनी धाक जमा रखी है.

मगर समय के साथ हर देश में कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के फिल्म फेस्टिवल आयोजित होने लगे. धीरे धीरे भारत जैसे देश में कुछ राज्यों में भी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल आयोजित होने लगे. लेकिन हर फिल्म फेस्टिवल में कहीं न कहीं पॉलिटिक्स भी हावी होने लगी. यह पॉलिटिक्स कई स्तर पर होने लगी. इतना ही नहीं फिल्मकार की रचनात्मकता पर कुठाराघात करने के लिए कई फिल्म फेस्टिवल उनकी फिल्मों को पॉलिटिक्स का शिकार बनाने लगे.

पिछले दिनों भारत देश के एक राज्य में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के आयोजकों ने एक फिल्मकार की बेहतरीन फिल्म के साथ ऐसी पॉलिटिक्स की कि अब कुछ फिल्मकारों ने हर तरह की पॉलिटिक्स दूर रहने का निर्णय करते हुए एकदम अलग तरह का अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरू करने की योजना बनाई.

जी हां! इस नए अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का नाम ‘‘मुंबा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल‘‘ रखा गया है. हाल ही में इसके ‘‘लोगो‘‘ का अनावरण मुंबई के सिनेपोलिस मल्टीप्लेक्स में किया गया. इस अवसर पर कई सिनेमा कर्मी मौजूद थे. मुंबा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत 2023 में जनवरी माह के दूसरे सप्ताह से होगा. इसके संस्थापक सदस्य हैं-शेरोन प्रभाकर, सुधीर अत्तावर, त्रिविक्रम बेलथंगड़ी, संदीप सोपारकर और चैताली चटर्जी.

इस फेस्टिवल के ‘लोगो’ के अनवारण समारोह में अभिनेता स्व. ओमपुरी की पत्नी व लेखिका नंदिता पुरी,बॉलीवुड अदाकारा व शेरोन प्रभाकर की बेटी शाजान पद्मसी, कृष्णा भारद्वाज, रत्न प्रताप और विद्याधर शेट्टी भी मौजूद थे.

‘‘मुंबा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ मूलतः सुधीर अत्तावर और शेरान प्रभाकर की दीमागी उपज है. इस अवसर पर इस नए फिल्म समारोह को शुरू करने की चर्चा चलने पर शैरोन प्रभाकर ने कहा-‘‘देखिए,लोग क्या कहेंगे? अरे इतने सारे फिल्म फेस्टिवल हो रहे हैं, ऐसे में यह नया फेस्टिवल कराने की जरूरत क्या है? जैसे सवालांे की मैं फिक्र नहीं करती. सच कह रही हॅूं कि मैं यह सब नहीं सोचती. आपको अपने सपने को पूरा करने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए. मुझे अपने जीवन में चुनौतियां पसंद रही हैं. मैं हमेशा रूटीन काम के खिलाफ जाकर मैं करती हूं।यह एक ऐसा ही फेस्टिवल है, जो सभी फिल्म फेस्टिवल से अलग, यूनिक, एक्साइटिंग होगा.हम महिलाएं मल्टी टास्कर होती हैं, सुबह उठने से लेकर रात तक हम दौड़ते रहते हैं. तो इस फेस्टिवल को नया रंग रूप देने में हम अपनी पूरी ताकत झांेक रहे हैं.’’

शेरान प्रभाकर ने आगे कहा-‘‘सिनेमा मेकिंग का पैशन रखने वालों ने घर बेचकर सिनेमा बनाया है. यह फेस्टिवल ऐसे ही जुनूनी फिल्म सर्जकों के लिए है. मैं कसम खाकर कहती हूँ कि हम इसके जरिए कुछ बेहतर, नया और अलग करने की कोशिश करेंगे.’’

जबकि सुधीर अत्तावर ने कहा- ‘‘इस फिल्म फेस्टिवल में हमने छह सेक्शन रखे हैं. पहली कैटगरी विश्व सिनेमा की है. दूसरी कैटगरी एलजीबीटी कम्युनिटी की है. एक कैटगरी महिला फिल्म सर्जकों की है. एक कैटगरी फिल्म इंस्टिट्यूट के लिए है. पांचवी कैटगरी में विज्ञापन फिल्में होगी और छठी कैटगरी मराठी सिनेमा के लिए होगा. एक सेक्शन डांस और म्यूजिक बेस्ड मूवीज का भी होगा.

जनवरी 2023 में मुम्बई में ही हमारे इस फेस्टिवल का आगाज होगा, जिसके लिए जुलाई 2022 से रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया शुरू होगी. हम यहां स्पट करना चाहते है कि यह फेस्टिवल पैसे कमाने के लिए नहीं किया जा रहा है. यह फेस्टिवल पूरी तरह से शेरोन प्रभाकर के दिमाग की उपज है. इसमें कहीं कोई किसी भी प्रकार की पोलीटिक्स नहीं होगी.’’

मशहूर नृत्य निर्देशक संदीप सोपारकर ने इस अवसर पर कहा-‘‘ मुझे इस फेस्टिवल का हिस्सा बनाने के लिए मैं शेरान और सुधीर का तहेदिल से आभार व्यक्त करता हूं. 22 साल पहले जब मैं मुम्बई आया था, तो दूसरे दिन मैं मुंबा देवी के मंदिर का दर्शन करने गया और मैंने उनसे कहा कि आपके नाम पर इस शहर का नाम रखा गया है,ऐसा दिन कब आएगा जब मैं आपके नाम से जुड़ पाऊंगा. आज 22 साल बाद मैं ‘मुंबा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ से जुड़कर काफी खुश हूं. इस महोत्सव में कई तरह के सेक्शन हमने रखे हैं. हमारा मकसद इस फेस्टिवल व सिनेमा के जरिए कल्चर को प्रमोट करना ही है.’’

त्रिविक्रम बेलथंगड़ी ने कहा-‘‘ जब सुधीर जी और शेरोन ने मुझसे इस फेस्टिवल के साथ जुड़ने के लिए कहा, तो मैंने तुरंत हामी भर दी. क्योंकि इसमें भी एक क्रिएटिव पॉसिबिलिटी है. इस फेस्टिवल के जरिए ऐसी फिल्मों को दिखाया जाएगा जिन्हें दर्शक कभी नहीं देख पाते. यह फेस्टिवल नए फिल्म मेकर्स के लिए भी द्वार खोलेगा.’’

अभिनेता स्व. ओमपुरी की पत्नी व लेखिका नंदिता पुरी ने कहा -‘‘इस फेस्टिवल के आयोजन के लिए पूरी टीम को दिल से ढेर सारी बधाई. शेरोन मेरी बड़ी अच्छी दोस्त हैं, मैं उनकी फैन भी हूँ, फेवरेट और अमेजिंग महिला है. सुधीर जी ने बड़ी अच्छी नियत के साथ इस फेस्टिवल की शुरुआत की है, उन्हें जब भी मेरी किसी बात के लिए जरूरत पड़ेगी मैं हाजिर रहूंगी. मैंने कई फिल्म फेस्टिवल के पीछे की गंदी राजनीति देखी है. हम ‘मुम्बा इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ को राजनीति से दूर रखेंगे.’’

हिंदी फिल्मों के साथ साथ तमिल और तेलुगु फिल्मों में भी अभिनय का जौहर दिखाने वाली शाजान पद्मसी ने कहा,‘इस फेस्टिवल के लिए सभी ने खूब मेहनत की है.मेरी मम्मी शेरोन इस फेस्टिवल के लिए अपना दिल और जान लगा रही हैं. सभी को बधाई और शुभकामनाएं.’’

आइसोलेशन या आजादी

मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

“बेटा, अपने शहर में भी तो अच्छे कॉलेज हैं. क्या दूसरे शहर जा कर हॉस्टल में रह कर ही पढ़ना जरूरी है ?” मां ने उदास स्वर में कहा था.

तब मां को पापा ने समझाया था ,” देखो प्रतिभा पढ़ाई तो हर जगह हो सकती है मगर तेरे बेटे के सपने बाहर जा कर ही पूरे होंगे क्यों कि वहां ए ग्रेड की पढ़ाई होती है.”

“पता नहीं नए लोगों के बीच अनजान शहर में कौन सा सपना पूरा हो जाएगा जो यहां नहीं होगा? मेरे बच्चे को ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा और कोई पूछने वाला भी नहीं होगा कि किसी चीज की कमी तो नहीं.”

मां मुझे आजादी देना नहीं चाहती थी मगर मैं हर बंधन से आजाद हो कर दूर उड़ जाना चाहता था.

तब मैं ने मां के हाथों को अपने हाथ में ले कर कहा था,” मान जाओ न मां मेरे लिए…”

और मां ने भीगी पलकों के साथ मुझे वह आजादी दे दी थी. मैं हॉस्टल चला गया था. यह पहली आजादी थी मेरी. अपनी जिंदगी का बेहद खूबसूरत वक्त बिताया था मैं ने हॉस्टल में. पढ़ाई के बाद जल्द ही मुझे नौकरी भी मिल गई थी. नौकरी मिली तो शादी की बातें होने लगीं.

इधर अपने ऑफिस की एक लड़की प्रिया मुझे पसंद आ गई थी. वह दिखने में जितनी खूबसूरत थी दिमाग की भी उतनी ही तेज थी. बातें भी मजेदार किया करती. उस के कपड़े काफी स्टाइलिश और स्मार्ट होते जिन में उस का लुक निखर कर सामने आता. मैं उस पर से नजरें हटा ही नहीं पाता था.

एक दिन मैं ने उसे प्रपोज कर दिया. वह थोड़ा अचकचाई फिर उस ने भी मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. यह बात मैं ने घर में बताई तो मेरे दादाजी और पिताजी भड़क उठे.

दादाजी ने स्पष्ट कहा,” ऐसा नहीं हो सकता. तू गैर जाति की लड़की से शादी करेगा तो हमारे नातेरिश्तेदार क्या बोलेंगे?”

मां ने दबी जबान से मेरा पक्ष लिया तो उन लोगों ने मम्मी को चुप करा दिया. तब मैं ने मां के आगे अपनी भड़ास निकालते हुए कहा था,” मां आप एक बात सुन लो. मुझे शादी इसी लड़की से करनी है चाहे कुछ भी हो जाए. आप ही बताओ आज के जमाने में भला जात धर्म की बात कौन देखता है? मैं नहीं मानता इन बंधनों को. अगर मुझे यह शादी नहीं करने दी गई तो मैं कभी भी खुश नहीं रह पाऊंगा.”

मां बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं. फिर मेरी खुशी की खातिर मां ने पिताजी और दादा जी को मना लिया. उन्होंने पता नहीं दादा जी को ऐसा क्या समझाया कि वे शादी के लिए तुरंत मान गए. पिताजी ने भी फिर विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा. इस तरह मां ने मुझे जातपांत और ऊंचनीच के उन बंधनों से आजादी दे कर प्रिया के साथ एक खूबसूरत जिंदगी की सौगात दी थी.

प्रिया दुल्हन बन कर मेरे घर आ गई थी. मां बहुत खुश थीं कि उन्हें अब एक बेटे के साथ बेटी भी मिल गई है मगर प्रिया के तो तेवर ही अलग निकले. उसे किसी भी काम में मां की थोड़ी सी भी दखलंदाजी बर्दाश्त के बाहर थी. मां कोई काम अपने तरीके से करने लगतीं तो तुरंत प्रिया वहां पहुंच जाती और मां को बिठा देती. मां धीरेधीरे खुद ही चुपचाप बैठी रहने लगी. वह काफी खामोश हो गई थीं.

इस बीच हमारे बेटे का जन्म हुआ तो पहली दफा मैं ने मां के चेहरे पर वह खुशी देखी जो आज तक नहीं देखी थी. अब तो मां पोते को गोद में लिए ही बैठी रहतीं. शुरू में तो प्रिया ने कुछ भी नहीं कहा क्यों कि उसे बच्चे को संभालने में मदद मिल जाती थी. बेटे के बाद हमारी बिटिया ने भी जन्म ले लिया. मां ने दोनों बच्चों की बहुत सेवा की थी. दोनों को एक साथ संभालना प्रिया के वश की बात नहीं थी. मां के कारण दोनों बच्चे अच्छे से पल रहे थे.

इधर एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से पिताजी चल बसे. मां अकेली रह गई थीं मगर बच्चों के साथ अपना दिल लगाए रखतीं. अब बेटा 6 साल का और बेटी 4 साल की हो गई थी. सब ठीक चल रहा था. मगर इधर कुछ समय से प्रिया फिर से मां के कारण झुंझलाई सी रहने लगी थी. वह अक्सर मुझ से मां की शिकायतें करती और मैं मां को बात सुनाता. मां खामोशी से सब सुनती रहतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई जब प्रिया अपनी फेवरिट ड्रैस लिए मेरे पास आई और चिल्लाती हुई बोली,” यह देखो अपनी मां की करतूत. जानते हो न यह ड्रैस मुझे मेरी बहन ने कितने प्यार से दी थी. 5 हजार की ड्रैस है यह. पर तुम्हारी मां ने इसे जलाने में 5 सेकंड का समय भी नहीं लगाया.”

“यह क्या कह रही हो प्रिया? मां ने इसे जला दिया?”

“हां सुरेश, मां ने इसे जानबूझ कर जला दिया. मैं इसे पहन कर अपनी सहेली की एनिवर्सरी में जो जा रही थी. मेरी खुशी कहां देख सकती हैं वह? उन्हें तो बहाने चाहिए मुझे परेशान करने के.”

“ऐसा नहीं हैं प्रिया. हुआ क्या ठीक से बताओ. जल कैसे गई यह ड्रैस ?”

” देखो सुरेश, मैं ने इसे प्रेस कर के बेड पर पसार कर रखा था. वहीं पर मां तुम्हारे और अपने कपड़े प्रेस करने लगीं. मौका देख कर गर्म प्रेस इस तरह रखी कि मेरी ड्रैस का एक हिस्सा जल गया,” प्रिया ने इल्जाम लगाते हुए कहा.

“मां यह क्या किया आप ने? थोड़ी तो सावधानी रखनी चाहिए न,” सारी बात जाने बिना मैं मां पर ही बरस पड़ा था.

मां सहमी सी आवाज में बताने लगीं,” बेटा मैं जब प्रेस कर रही थी उसी समय गोलू खेलताखेलता उधर आया और गिर पड़ा. प्रेस किनारे खड़ी कर के मैं उसे उठाने के लिए दौड़ी कि इस बीच नेहा ने हाथ मारा होगा तभी प्रेस पास रखी ड्रैस पर गिर गई और कपड़ा जल गया. ”

मैं समझ समझ रहा था कि गलती मां की नहीं थी मगर प्रिया ने इस मामले को काफी तूल दिया. इसी तरह की और 2 -3 घटनाएं होने के बाद मैं ने प्रिया के कहने पर मां को घर के कोने में स्थित एक अलग छोटा सा कमरा दे दिया और समझा दिया कि आप अपने सारे काम यहीं किया करो. उस दिन के बाद से मां उसी छोटे से कमरे में अपना दिन गुजारने लगीं. मैं कभीकभी उन से मिलने जाता मगर मां पहले की तरह खुल कर बात नहीं करतीं. उन की खामोश आंखों में बहुत उदासी नजर आती मगर मैं इस का कारण नहीं समझ पाता था.

शायद समझना चाहता ही नहीं था. मैं घर की शांति का वास्ता दे कर उन्हें उसी कमरे में रहे आने की सिफारिश करता क्यों कि मुझे लगता था कि मां अपने कमरे में रह कर जब प्रिया से दूर रहेंगी तो दोनों के बीच लड़ाई होने का खतरा भी कम हो जाएगा. वैसे मैं समझता था कि लड़ती तो प्रिया ही है पर इस की वजह कहीं न कहीं मां की कोई चूक हुआ करती थी.

अपने कमरे में बंद हो कर धीरेधीरे मां प्रिया से ही नहीं बल्कि मुझ से और दोनों बच्चों से भी दूर होने लगी थीं. बच्चे शुरूशुरू में दादी के कमरे में जाते थे मगर धीरेधीरे प्रिया ने उन के वहां जाने पर बंदिशें लगानी शुरू कर दी थीं. वैसे भी बच्चे बड़े हो रहे थे और उन पर पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता जा रहा था. इसलिए दादी उन के जीवन में कहीं नहीं रह गई थीं.

प्रिया मां को उन के कमरे में ही खाना दे आती. मां पूरे दिन उसी कमरे में चुपचाप बैठी रहतीं. कभी सो जातीं तो कभी टहलने लगतीं. उन के चेहरे की उदासी बढ़ती जा रही थी. मैं यह सब देखता था पर पर कभी भी इस उदासी का अर्थ समझ नहीं पाया था. यह नहीं सोच सका था कि मां के लिए यह एकांतवास कितना कठिन होगा.

पर आज जब मुझे 10 दिनों के एकांतवास से आजादी मिली तो समझ में आया कि हमेशा से मुझे हर तरह की आजादी देने वाली मां को मैं ने किस कदर कैद कर के रखा है. आज मैं समझ सकता हूं कि मां जब अकेली कमरे में बैठी खाना खाती होंगी तो दिल में कैसी हूक उठती होगी. कैसे निबाला गले में अटक जाता होगा. उस समय कोई उन की पीठ पर थपकी देने वाला भी नहीं होता होगा. खाना आधा पेट खा कर ही बिस्तर पर लुढ़क जाती होंगी. कभी आंखें नम होती होंगी तो कोई पूछने वाला नहीं होता होगा. बच्चों के साथ हंसने वाली मां हंसने को तरस जाती होंगी और पुराने दिनों की भूलभुलैया में खुद को मशगूल रखने की कोशिश में लग जाती होंगी. सुबह से शाम तक अपनी खिड़की के बाहर उछलकूद मचाते पक्षियों के झुंड में अपने दुखदर्द का भी कोई साथी ढूंढती रह जाती होंगी.

अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद मैं ने गाड़ी बुक की और घर के लिए निकल पड़ा. अचानक घर पहुंच कर मैं सब को सरप्राइज करना चाहता था खासकर अपनी मां को. आइसोलेशन के इन 10 दिनों में मैं ने बीती जिंदगी का हर अध्याय फिर से पढ़ा और समझा था. मुझे एहसास हो चुका था कि एकांतवास का दंश कितना भयानक होता है. मैं ने मन ही मन एक ठोस फैसला लिया और मेरा चेहरा संतोष से खिल उठा.

घर पहुंचा तो स्वागत में प्रिया और दोनों बच्चे आ कर खड़े हो गए. सब के चेहरे खुशी और उत्साह से खिले हुए थे. मगर हमेशा की तरह एक चेहरा गायब था. प्रिया और बच्चों को छोड़ मैं सीधा घर के उसी उपेक्षित से कोने वाले कमरे में गया. मां मुझे देख कर खुशी से चीख पड़ीं. वह दौड़ कर आईं और रोती हुई मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखें भी भीग गई थीं. मैं झुका और उन के पांवों में पड़ कर देर तक रोता रहा. फिर उन्हें ले कर बाहर आया.

मैं ने पिछले कई सालों से आइसोलेशन का दर्द भोगती अपनी बूढ़ी मां से कहा,” मां आज से आप हम सबों के साथ एक ही जगह रहेंगी. आप अकेली एक कमरे में बंध कर नहीं रहेंगी. मां पूरा घर आप का है.”

मां विस्मित सी मेरी तरफ प्यार से देख रही थीं. आज प्रिया ने भी कुछ नहीं कहा. शायद मेरी अनुपस्थिति में दूर रहने का गम उस ने भी महसूस किया था. बच्चे खुशी से तालियां बजा रहे थे और मेरा दिल यह सोच कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था कि आज पहली बार मैं ने मां को एकांतवास से आजादी दिलाई है. उधर मां को लग रहा था जैसे बेटे की नेगेटिव रिपोर्ट से उन की जिंदगी पॉजिटिव हो गई है.

पशुओं में खनिज लवण की महत्ता

हमारे देश में कोरोना की दूसरी लहर से स्थिति बदतर बनती जा रही थी, लेकिन सरकार भी टीकाकरण व अन्य संसाधनों के माध्यम से इस पर लगाम लगाने के लिए दृढ़ संकल्प दिखी. ऐसे में हम लोगों की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि अफवाहों पर ध्यान न देते हुए कोविड प्रोटोकाल का पालन करते हुए कृषि और पशुपालन का काम सुचारु रूप से करें. साथ ही, पशुओं में खनिज लवण के महत्त्व के बारे में जानें.

पशुओं के लिए खनिज लवण का महत्त्व

पशुओं के लिए खनिज लवणों का उन के प्रजनन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है. शरीर में इन की कमी से तमाम तरह के रोग व समस्याएं पैदा हो जाती हैं. खनिज लवणों की कमी से पशुओं का प्रजनन तंत्र भी प्रभावित होता है, जिस से पशुओं में प्रजनन संबंधित विकार पैदा हो जाते हैं. जैसे, पशुओं का बारबार मद में आना, अधिक आयु हो जाने के बाद भी मद में न आना, ब्याने के बाद भी मद में न आना या देर से मद में आना या मद में आने के बाद मद का न रुकना वगैरह. इन विकारों के लिए उत्तरदायी कारणों में एक कारण खनिज लवणों की कमी भी है.

खनिज लवण हैं क्या?

किसी भी वस्तु के जलने पर जो राख बचती है, उसे भस्म या खनिज कहते हैं. यह बहुत ही थोड़ी मात्रा में प्रत्येक प्रकार के चारेदाने और शरीर के अकसर सभी अंगों में पाए जाते हैं.

प्राकृतिक रूप से तकरीबन 40 प्रकार के खनिज जीवजंतुओं के शरीर में पाए जाते हैं, लेकिन इस में से कुछ बहुत ही उपयोगी हैं, जिन की आवश्यकता पशु के आहार में होती है. शरीर की आवश्यकता के अनुसार खनिजों को

2 भागों में बांटते हैं. एक, जो खनिज लवण पशुओं के लिए अधिक मात्रा में आवश्यक है, जिन की मात्रा को हम ग्राम या प्रतिशत में जाहिर करते हैं, इन को प्रमुख खनिज कहते हैं. जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, सल्फर, मैगनीशियम और क्लोरीन.

दूसरे खनिज लवण वे होते हैं, जो पशु शरीर के लिए बहुत सूक्ष्म मात्रा में आवश्यक होते हैं, जिस को हम पीपीएम में जाहिर करते हैं, ऐसे खनिजों को सूक्ष्म या विरल खनिज कहते हैं, जैसे लोहा, जिंक, कोबाल्ट, कौपर, आयोडीन, मैगनीज, मौलीब्डेनम, सेलेनियम, निकल, सिलिकौन, टिन, वेनडियम.

यद्यपि दूसरे सूक्ष्म खनिज जैसे एल्यूमीनियम, आर्सेनिक, बेरियम, बोरोन, ग्रोमीन, कैडमियम भी शरीर में पाए जाते हैं, लेकिन शरीर में इस की भूमिका के बारे में अभी तक स्पष्ट जानकारी नहीं है.

इस प्रकार कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, सल्फर, मैगनीशियम, क्लोरीन, लोहा, तांबा, कोबाल्ट, मैगनीज, जिंक, आयोडीन आदि पशुओं के लिए आवश्यक खनिज लवण हैं, जो जीवन व स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक हैं.

शरीर में पशुओं के लिए खनिज लवण के सामान्य काम की बात की जाए, तो कैल्शियम व फास्फोरस दांत व हड्डियों के बनने में आवश्यक हैं. दुधारू पशुओं के खून में कैल्शियम की कमी से दुग्ध ज्वर हो जाता है. सोडियम, पोटैशियम व क्लोरीन शरीर के द्रवों में परिसारक दबाव को ठीक बनाए रखते हैं और उन में अन्य गुणों का संतुलन स्थापित करते हैं.

खून में पोटैशियम, कैल्शियम और सोडियम का समुचित अनुपात हृदय की गति और अन्य चिकनी मांसपेशियों को उत्तेजित करने व उन में संकुचन की क्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक है.

लौह लवण लाल रक्त कणों में हीमोग्लोबिन बनाने में आवश्यक होता है, जिस के कारण खून में औक्सीजन लेने की शक्ति पैदा होती है. इस के अलावा पशुओं के लिए खनिज लवण या तो शरीर के कुछ आवश्यक भाग को बनाते हैं या एंजाइम पद्धति के आवश्यक तत्त्व बनाते हैं. इस के अतिरिक्त इन के कुछ विशेष काम भी होते हैं.

प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने वाले पशुओं के लिए खनिज लवण की बात की जाए, तो बाजार में कई तरह के उत्पाद उपलब्ध हैं. ये मुख्यत: कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, तांबा, कोबाल्ट, मैगनीज, आयोडीन और जिंक हैं. इन तत्त्वों की कमी से पशुओं में मदहीनता अथवा बारबार मद में आना व गर्भधारण न करने की समस्याएं आती हैं.

आहार में कैल्शियम की कमी के कारण अंडाणु का निषेचन कठिन होता है और गर्भाशय पीला व शिथिल हो जाता है.

पशुओं के आहार में फास्फोरस की कमी से पशुओं में अंडोत्सर्ग कम होता है, इसलिए पशु का गर्भपात हो जाता है. अन्य सूक्ष्म खनिज लवण भी पशुओं में अंडोत्पादन, शुक्राणु उत्पादन, निषेचन, भ्रूण के विकास व बच्चा पैदा होने तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

मुरगियों में अंडा उत्पादन के लिए कैल्शियम सहित अन्य खनिज लवण बहुत आवश्यक हैं. इन के आहार में कैल्शियम की कमी से अच्छी गुणवत्ता वाले अंडे का उत्पादन प्रभावित होता है.

चारे में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, मिनरल्स और विटामिनों की क्षमता बढ़ाने और कमी पूरी करने के लिए भी खनिजों को नियमित रूप से देने पर उत्पादकता में कम से कम 25 फीसदी की बढ़ोतरी होती है, वजन तेजी से बढ़ता है, रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है और चारे पर भी खर्च कम आता है.

पशुपालकों को चाहिए कि इस तरह की समस्याओं को दूर रखने के लिए पशुओं को संतुलित आहार दें अर्थात पशुओं के दाने व चारे में शर्करा या कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण और विटामिनों का संतुलित मात्रा में होना बहुत जरूरी होता है. इन पोषक तत्त्वों के असंतुलित होने के कारण ही कुपोषण से जुड़े रोग पैदा होते हैं.

पशुओं के आहार में सूखे चारे के साथसाथ हरे चारे का होना आवश्यक है. केवल हरा चारा या केवल सूखा चारा नहीं देना चाहिए, कम से कम दोतिहाई सूखा चारा और एकतिहाई हरा चारा होना चाहिए.

जहां तक दाना देने की बात है, तो कोई एक प्रकार का दाना या खली नहीं देनी चाहिए, बल्कि इन का मिश्रण होना चाहिए.

यदि एक क्विंटल दाना तैयार करना है, तो 25 किलोग्राम खली, 35 किलोग्राम चोकर, 35 किलोग्राम मोटे अनाज का दलिया, 3 किलोग्राम खनिज लवण व 2 किलोग्राम नमक ले कर अच्छी तरह से मिला लेना चाहिए.

प्रौढ़ पशुओं को निर्वाह के लिए ऐसे मिश्रित दाने की एक नियमित मात्रा व अन्य कामों जैसे प्रजनन व गर्भ के लिए 1.5 किलोग्राम और दूध उत्पादन के लिए ढाई से 3 किलोग्राम दूध पर 1 किलोग्राम दाना निर्वाहक आहार के अतिरिक्त देना चाहिए.

इस प्रकार से दिए गए आहार से पशुओं में खनिज लवणों की कमी की अधिकांशत: पूर्ति हो जाती है, लेकिन फिर भी इन में से कुछ सूक्ष्म खनिज लवणों की कमी की पूर्ति नहीं हो पाती है, जिस के लिए पशुओं को अलग से खनिज लवण देने की आवश्यकता होती है, जो कि काफी लाभदायक और तेजी से नतीजा  देने वाला है, जिस को 60-70 ग्राम प्रतिदिन प्रति प्रौढ़ पशु को देना चाहिए.

डा. नगेंद्र कुमार त्रिपाठी

ज्योति- भाग 3: क्या सही था उसका भरोसा

लगभग 45 वर्ष का सुरेश नेकदिल इंसान था. सुमित ने उसे सदा हंसतेमुसकराते ही देखा था. मगर वह अपनी जिंदगी में एकदम अकेला है, इस बात का इल्म उसे आज ही हुआ.

इधर कुछ दिनों से रोहन बहुत परेशान था. औफिस में उस के साथ हो रहे भेदभाव ने उस की नींद उड़ा रखी थी. रोहन के वरिष्ठ मैनेजर ने रोहन के पद पर अपने किसी रिश्तेदार को रख लिया था और रोहन को दूसरा काम दे दिया गया जिस का न तो उसे खास अनुभव था न ही उस का मन उस काम में लग रहा था. अपने साथ हुई इस नाइंसाफी की शिकायत उस ने बड़े अधिकारियों से की, लेकिन उस की बातों को अनसुना कर दिया गया. नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उस की शिकायतें दब कर रह गई थीं. आखिरकार, तंग आ कर उस ने नौकरी छोड़ दी.

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

जानकारी: मौड्यूलर किचन कब जरूरी

कई सालों से मौड्यूलर किचन का प्रचलन बढ़ा है. इस की मांग धीरेधीरे बढ़ती ही जा रही है. आज की महिलाएं इसे मौडर्न और स्टाइलिश सम?ाती हैं, इसलिए गृहणियां इसे अधिक चुनती हैं. इस की खासीयत यह है कि इस में कम जगह पर अधिक सामान सही तरीके से रखा जा सकता है. इस से कई सुविधाएं होती हैं जिन्हें बजट के अनुसार निर्धारित किया जा सकता है.

मुंबई जैसे शहर में जहां बहुत कम जगह में एक नहीं, दो परिवार साथ रहते हैं, किचन बहुत छोटा होता है. किचन के सामान को रखने में समस्या आती है. ऐसे में मौड्यूलर किचन बनाना जरूरी होता है. इस से सामान एक निश्चित स्थान पर रखे जा सकते हैं और फिर स्मार्ट कुकिंग की जा सकती है.

तकनीक का विकास जितनी तेजी से हो रहा है, उस का असर केवल बाहर ही नहीं, घर पर भी मौड्यूलर किचन के रूप में दिखाई पड़ रहा है. यह कौन्सैप्ट विदेशी है, लेकिन इस का प्रयोग भारत में भी खूब होने लगा है.

क्या है मौड्यूलर किचन

असल में मौड्यूलर किचन को कस्टोमाइज्ड किचन कहा जाता है. इस में व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार वस्तुओं को सैट कर सकता है. इस से कम समय में सामान रखा जा सकता है और काम जल्दी हो जाता है, लेकिन समयसमय पर इस की देखभाल न करने पर इस का असर विपरीत भी हो सकता है.

इस के अलावा मौड्यूलर किचन में नमी और गंध को सोखने की क्षमता होती है, जो चिमनी के सहारे होता है. इस में कैबिनेट और ड्रायर हलके होने की वजह से आसानी से संचालित किए जा सकते हैं.

चुनाव सही औप्शन का

  1. सिंथैटिक प्लास्टिक पौलीमर के रूप में होने की वजह से यह बहुत ज्यादा मजबूत होता है. मौड्यूलर किचन कैबिनेट बनाने के लिए यह बैस्ट मैटीरियल माना जाता है. इस के अलावा इन में कई आकर्षक रंग मिलते हैं जिसे इच्छानुसार चुना जा सकता है. मौड्यूलर किचन कई प्रकार के होते हैं.
  2. नैचुरल वुड, जो देखने में सुंदर पर समय के साथ नमी सोखती है और खराब हो जाती है, साथ ही महंगी होती है.
  3. कैबिनेट में लकड़ी के ऊपर प्लास्टिक शीट लगी होती है. यह लंबे समय तक चलती है. यह नमी नहीं सोख सकती और सस्ती होती है.
  4. नैचुरल लकड़ी के पतलेपतले टुकड़ों को जोड़ कर बनाई गई शीट विनियर्स कहलाता है. इस में सौलिड वुड के टुकड़े होने की वजह से यह रियल वुड की तरह दिखता और टिकाऊ होता है. धूप से रंग फीका हो जाता है, लकड़ी से सस्ता होता है.
  5. पीवीसी यानी पौलिविनाइल क्लोराइड टिकाऊ और कई रंगों में मिलता है. यह बहुत ज्यादा मजबूत होता है, इसलिए मौड्यूलर किचन कैबिनेट बनाने के लिए इस का प्रयोग अधिक किया जाता है.
  6. स्टेनलैस स्टील के प्रयोग मौड्यूलर किचन में करने से जंग और दाग नहीं लगता. इसे आसानी से साफ किया जा सकता है.
  7. एक्रेलिक का प्रयोग आजकल अधिक हो रहा है. यह नौन-टौक्सिक होती है, इस की चमक अधिक होने से किचन बड़ा दिखता है.

प्रभाव जलवायु का

आशापुरा इंटीरियर्स के आर्किटैक्ट विजय पिथाडिया कहते हैं, ‘‘मौड्यूलर किचन का यह कौन्सैप्ट विदेशों से आया है जो इंडिया की जलवायु में कई बार ठीक नहीं होता और जल्दी खराब हो जाता है. मौड्यूलर किचन देखने में सुंदर और स्टाइलिश लग सकता है पर इस की सही देखभाल करना बहुत जरूरी होता है. खासकर, रसोई में खाना बनाने वाला कोई दूसरा व्यक्ति हो तो समस्या बढ़ती है, क्योंकि विदेशी मैटीरियल से बने मौड्यूलर किचन में पानी लगने या सही देखभाल न करने से वह जल्दी खराब हो जाता है.’’

मौड्यूलर किचन का होना जरूरी

  1. अगर किचन छोटा हो तो चारों तरफ सामान फैला रहता है. ऐसे में मौड्यूलर किचन से सभी सामान को सही जगह रखा जा सकता है, जिस से खाना बनाने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाती है.
  2. बाजार में आजकल कई प्रकार के मौड्यूलर किचन मिलते हैं, जिसे व्यक्ति अपने बजट के अनुसार चुन सकते हैं और समयसमय पर इसे बदल कर नया लुक दिया जा सकता है.
  3. मौड्यूलर किचन को इंस्टौल करने में समय कम लगता है, बारबार शिफ्ट करने वालों के लिए यह आसान औप्शन है, क्योंकि इसे कहीं भी ले जाना आसान होता है और इसे फिर से एसेम्बल करना भी मुश्किल नहीं होता.
  4.  इस तरह के किचन में बजट कम होता है और भिन्नभिन्न प्रकार के औप्शन होने की वजह से व्यक्ति अपने बजट के अनुसार किचन को सजा सकता है. कम बजट में मौड्यूलर किचन के लिए व्यक्ति खुद इंस्ट्रक्शन को फौलो कर सामान को उचित स्थान पर इंस्टौल भी कर सकता है.
  5. इस का रखरखाव बहुत आसान होता है, लेकिन समयसमय पर इस की साफसफाई अच्छी तरह करने की आवश्यकता होती है.
  6. मौड्यूलर किचन को सही तरह से बनाने पर एलिगेंट, स्टाइलिस्ट और मौडर्न लुक आता है, जो व्यक्ति को सुकून देता है. इस में समयसमय पर फेरबदल भी किया जा सकता है.
  7. इसे रिपेयर करना आसान होता है. साथ ही, कम पैसे में इसे फिर से ठीक किया जा सकता है.

विजय कहते हैं, ‘‘जो लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर शिफ्ट होते रहते हैं उन के लिए मौड्यूलर किचन सही रहता है, क्योंकि कम लागत में केवल कुछ दिनों में ही इसे फिट कर लिया जा सकता है. एक स्थान पर रहने वाले व्यक्ति इसे लो डैंसिटी वाला मानते हैं. इंडियन प्रोडक्ट अधिकतर पीतल के होते हैं जबकि विदेशी प्रोडक्ट स्प्रिंग और गैल्वनाइज शीट के होते हैं. इंडियन प्रोडक्ट्स ?को प्रयोग कर बनाया गया मौड्यूलर किचन महंगा होने के बावजूद सब से अधिक टिकाऊ होता है.’’

वेटिंग रूम- भाग 3: सिद्धार्थ और जानकी की जिंदगी में क्या नया मोड़ आया

जानकी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मेरे चेहरे पर तो सब लिखा नहीं था, और आप तो मुझ से आज पहली बार मिले हैं, सब कैसे जानते भला? फिर भी एक बात अच्छी हुई है, इस बहाने कम से कम आप मेरा नाम तो जान गए.’’ सिद्धार्थ ने थोड़ा ?मुसकराते हुए अचरजभरे अंदाज में बोला, ‘‘या दैट्स राइट.’’ ‘‘तब से मैममैम कर रहे थे आप और हां, ये ‘डैड’ क्या होता है, अच्छेखासे जिंदा आदमी को डैड क्यों कहते हैं,’’ कहते हुए पहली बार जानकी खिलखिलाई. सिद्धार्थ अब थोड़ा सहज हो गया था. उसे जानकी से और विस्तार से पूछने में हिचक हो रही थी, लेकिन जिज्ञासा बढ़ रही थी, इसलिए उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आप को देख कर लगता नहीं है कि आप अनाथालय में पलीबढ़ी हैं, आय मीन आप की एजुकेशन वगैरा?’’ ‘‘सब मानसी चाची ने ही करवाई. जब मैं छोटी थी तब लगभग 19-20 लड़कियां थीं ‘वात्सल्य’ में, सब अलगअलग उम्र की. सामान्यतया अनाथालय के बच्चों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें. हमारे यहां भी सभी लड़कियों को स्कूल तो भेजा गया. कोई 5वीं, कोई 8वीं तक पढ़ी, पर कोई भी 10वीं से ज्यादा पढ़ नहीं सकी. फिर उन्हें सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, अचारपापड़ बनाना जैसे छोटेछोटे काम सिखाए गए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें. सिर्फ मैं ही थी जिस ने 12वीं तक पढ़ाई की. मेरी रुचि पढ़ाई में थी और मेरे मार्क्स व लगन देख कर मानसी चाची ने मुझे आगे पढ़ने दिया. अनाथालय में जो कुटीर उद्योग चलते थे उस से अनाथालय की थोड़ीबहुत कमाई भी होती थी. अनाथालय की सारी लड़कियां मेरी पढ़ाई के पक्ष में थीं और इस कमाई में से कुछ हिस्सा मेरी पढ़ाई के लिए मिलने लगा. मेरी भी जिम्मेदारी बढ़ गई. सब को मुझ से बहुत उम्मीदें हैं. मुझे उन लोगों के सपने पूरे करने हैं जिन्होंने न तो मुझे जन्म दिया है और न ही उन से कोई रिश्ता है. अपनों के लिए तो सभी करते हैं, जो परायों के लिए करे वही महान होता है. चूंकि साइंस की पढ़ाई काफी खर्चीली थी, सो मैं ने आर्ट्स का चुनाव किया, बीए किया, फिर इतिहास में एमए किया. फिर एक दिन अचानक इस लैक्चरर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू कौल आई. वही इंटरव्यू देने पुणे गई थी.’’

‘‘फिर सैलेक्शन हो गया आप का?’’ अधीरता से सिद्धार्थ ने पूछा. जानकी ने बताया, ‘‘हां, 15 दिन में जौइन करना है.’’  इसी तरह से राजनीति, फिल्मों, बाजार आदि पर बातचीत करते समय कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला. लगभग 2:30 बजे जानकी की गाड़ी की घोषणा हुई. इन 5-6 घंटों की मुलाकात में दोनों ने एकदूसरे को इतना जान लिया था जैसे बरसों की पहचान हो. जानकी के जाने का समय हो चुका था लेकिन सिद्धार्थ उस का फोन नंबर लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. बस, इतना ही बोल पाया, ‘‘जानकीजी, पता नहीं लाइफ में फिर कभी हम मिलें न मिलें, लेकिन आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा. आप के साथ बिताए ये 5-6 घंटे मेरे लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगे. मैं ने आज आप से बहुत कुछ सीखा है.’’

‘‘अरे भई, मैं इतनी भी महान नहीं हूं कि किसी की प्रेरणास्रोत बन सकूं. हो सकता है कि दुनिया में ऐसे भी लोग होंगे जो मुझ से भी खराब स्थिति में हों. मैं तो खुद अच्छा महसूस करती हूं कि जिन से मेरा कोई खून का रिश्ता नहीं है, उन्होंने मेरे जीवन को संवारा है. आप सर्वसाधन संपन्न हो कर भी अपनेआप को इतना बेचारा समझते हैं. मैं आप से यही कहना चाहूंगी कि जो हम से बेहतर हालात में रहते हैं, उन से प्रेरणा लो और जो हम से बेहतर हालात में रहते हैं, उन तक पहुंचने की कोशिश करो. यह मान कर चलना चाहिए कि जो हो रहा है, सब किसी एक की मरजी से हो रहा है और वह कभी किसी का गलत नहीं कर सकता. बस, हम ही ये बात समझ नहीं पाते. एनी वे, मैं चलती हूं, गुड बाय,’’ कह कर जानकी ने अपना बैग उठाया और जाने लगी. सिद्धार्थ ने सोचा ट्रेन तक ही सही कुछ समय और मिल जाएगा जानकी के साथ. और वह उस के पीछेपीछे दौड़ा. बोला, ‘‘जानकीजी, मैं आप को ट्रेन तक छोड़ देता हूं.’’

जानकी ने थोड़ी नानुकुर की लेकिन सिद्धार्थ की जिद पर उस ने अपना बैग उस के हाथ में दे दिया. जल्द ही ट्रेन प्लेटफौर्म पर आ गई और जानकी चली गई. सिद्धार्थ के लिए वक्त जैसे थम सा गया. जानकी से कोई जानपहचान नहीं, कोई दोस्ती नहीं, लेकिन एक अजीब सा रिश्ता बन गया था. पिछले 5-6 घंटों में उस ने अपने ?अंदर जितनी ऊर्जा महसूस की थी, अब उतना ही कमजोर महसूस कर रहाथा. भारी मन से वह वापस प्रतीक्षालय लौट आया. अब उस के लिए समय काटना बहुत मुश्किल हो गया था. जानकी का खयाल उस के दिमाग से एक मिनट के लिए भी जा नहीं रहा था. रहरह कर उसे जानकी की बातें याद आ रही थीं. अब उसे एहसास हो रहा था कि वह आज तक कितना गलत था. इतना साधन संपन्न होने के बाद भी वह कितना गरीब था. आज अचानक ही वह खुद को काफी शांत और सुलझा हुआ महसूस कर रहा था. उस के मातापिता ने आज तक जो कुछ उस के लिए किया था उस का महत्त्व उसे अब समझ में आ रहा था. उसे लगा, सच ही तो है कि पिता के व्यवसाय को बेटा आगे नहीं बढ़ाएगा तो उस के पिता की सारी मेहनत बरबाद हो जाएगी. लोग पहली सीढ़ी से शुरू करते हैं, उसे तो सीधे मंजिल ही मिल गई है. कितनी मुश्किलें हैं दुनिया में और वह खुद को बेचारा समझता था. वह आत्मग्लानि के सागर में गोते लगा रहा था. बारबार मन स्वयं को धिक्कार रहा था कि आज तक मैं ने क्याक्या खो दिया. मन विचारमग्न था तभी अगली गाड़ी की घोषणा हुई, जिस से सिद्धार्थ को पुणे जाना था.

अगले दिन सिद्धार्थ पुणे पहुंच गया. रात जाग कर काटी थी. अब काफी थकान महसूस हो रही थी और नींद न होने से भारीपन भी. जब घर पहुंचा तो पिताजी औफिस जा चुके थे. मां ने ही थोड़े हालचाल पूछे. नहाधो कर सिद्धार्थ ने खाना खाया और सो गया. जब जागा तो डैड, जो अब उस के लिए पापा हो गए थे, वापस आ चुके थे. नींद खुलते ही सिद्धार्थ के दिमाग में वही प्रतीक्षालय और जानकी घूमने लगे. रात को तीनों साथ बैठे. सिद्धार्थ के हावभाव बदले हुए थे. मातापिता को लगा सफर की थकान है. जो सैंपल सिद्धार्थ लाया था उस ने वह पापा को दिखाए और काफी लगन से उन की गुणवत्ता पर चर्चा करने लगा. वह क्या बोल रहा था, इस पर पापा का ध्यान ही नहीं था, वे तो विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि ये सब बातें सिद्धार्थ बोल रहा है जिसे उन के व्यवसाय में रत्ती भर भी रुचि नहीं है.

सिद्धार्थ बातों में इतना तल्लीन था कि समझ नहीं पाया कि पापा उसे निहार रहे हैं. रात का खाना खा कर वह फिर सोने चला गया. मातापिता दोनों ने इतने कम समय में सिद्धार्थ में बदलाव महसूस किया लेकिन कारण समझ नहीं सके. सिद्धार्थ के स्वभाव को जानते हुए उन के लिए इसे बदलाव समझना असंभव था.     

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