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बंगले वाली- भाग 4: नेहा को क्यों शर्मिंदगी झेलनी पड़ी?

नेहा सिर पकड़ कर धम्म से सोफे पर बैठ गई… उफ, ये क्या हो गया है मुझ को? सच ही तो कह रहे हैं, आज तीन दिन हो गए हैं… कहीं कांची न देख ले, इस डर से वह सब्जी लेने नीचे तक नहीं उतरी, सब्जी वाला रोज आवाज लगा कर चला जाता है. कांची तो हमेशा के लिए यहां रहने आई होगी, ऐसे कब तक घर में छिप कर बैठूंगी. उफ, इसे भी पूरी दुनिया में क्या यही जगह मिली थी रहने के लिए…? भगवान भी पता नहीं किस बात की सजा दे रहा है मुझे… पतिदेव का गुस्सा सुबह भी सातवें आसमान पर था. न कुछ खाया, न टिफिन ले गए, बिना बात करे ऐसे ही औफिस चले गए. दुखी और उदास मन से वह अपने को कोसती हुई सब्जी वाले का इंतजार करने लगी… पर, ये क्या, एक घंटा हो गया, लेकिन सब्जी वाला तो आया ही नहीं. लगता है, तीन दिन से सब्जी नहीं ली, तो आज उस ने आवाज ही नहीं लगाई. सारा जमाना मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है. वह उठने ही वाली थी कि दूसरे सब्जी वाले की आवाज सुनाई पड़ी, अमूमन इस से वो कभी सब्जी नहीं खरीदती थी, क्योंकि वो सब्जियों को हाथ लगाने पर झल्लाता था. जैसे किसी ने उस की नईनवेली दुलहन को छू लिया हो. पर मरती क्या न करती, थैला लिए सीढ़ियां उतर कर सब्जी लेने आ पहुंची.

सब्जी वाले ने भी ताना मारने का मौका नहीं गंवाया. वह मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद. मेरे ढेले से जो आज आप सब्जी खरीदने आईं. जी, मन में तो आया कि उस का मुंह  नोंच ले, पर हाय री किस्मत, क्याक्या दिन देखने पड़ रहे हैं. मन ही मन कुढ़ते हुए थैला ले कर वह मुड़ी ही थी कि नीचे के फ्लैट वाली मिसेज काटजू लगभग दौड़ती सी आई (उन्हें किसी से भी बात करने के लिए अब ऐसा ही करना पड़ता है. तब से, जब से उन्हें ये बात समझ में आई कि उन्हें देखते ही लोग ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. इस में गलती लोगों की नहीं है, उन की फितरत ही ऐसी है, हंसहंस के लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना उन का सब से प्यारा शगल था). पर उन्होंने नेहा को गायब होने का मौका नहीं दिया.

‘‘अरे नेहा, क्या हुआ? तबीयत खराब है क्या? 2-3 दिन से दिखाई नहीं पड़ी, चेहरा भी कैसा पीला पड़ा हुआ है.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, थोड़ा घर की साफसफाई में व्यस्त थी.’’

‘‘अरे भाई, इतना भी क्या काम करना कि आसपास की खबर ही न हो… पर, इस में तुम्हारा भी क्या दोष? तुम्हारे यहां बाई नहीं है न, सारा काम खुद ही करना पड़ता है, वक्त तो लगेगा ही…’’

नेहा को मिसेज काटजू की इसी आदत से सख्त चिढ़ थी, जब भी मिलती, ताना मारने से बाज नहीं आती.

‘‘खैर, छोड़ो ये सब, पता है… सामने वाले बंगले में जो आई है न, वो पहले वाली से बिलकुल अलग है. इतनी अमीर है, पर घंमड जरा सा भी नहीं. खुद भी बैंक में अफसर है. कल मैं शाम को इन के साथ घूमने के लिए निकली थी न, तब वह मिली थी, सारा दिन तो वह बैंक मे रहती हैं.

कभीकभी तुम भी कहीं घूम आया करो… अरे, मैं तो भूल ही गई, पुराने स्कूटर पर घूमने में क्या मजा आएगा? भाई साहब से बोल कर अब नई गाड़ी ले भी लो, इतनी भी क्या कंजूसी करना.’’

‘‘अच्छा, मिसेज काटजू, मैं चलती हूं, मुझे बहुत काम है,’’ खून का घूंट पीती हुई नेहा गुस्से के मारे, बिना जवाब सुने सीढ़ियां चढ़ गई.

नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि वह मिसेज काटजू के तानों से दुखी है या कांची के बैंक में अफसर होने पर… जो भी हो, एक बात अच्छी हो गई कि कांची दिनभर घर में नहीं रहती, उसे ज्यादा छिपने की जरूरत नहीं है. वैसे भी वो घर से निकलती ही कितना है, दो बच्चों के साथ खटारा स्कूटर पर कहीं जाने से तो उसे घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता है. बच्चे भी नहीं जाना चाहते, उन्हें भी शर्म आती है और पति भी कहां ले जाना चाहते हैं? ये सब सोचते हुए उस की आंखें भर आईं…

8-10 दिन ऐसे ही बीत गए, नेहा की दिनचर्या में एक बड़ा फर्क आया था. वह यह कि उस ने बालकनी में जाना लगभग बंद कर दिया था. वह चाहती थी कि जब तक हो सके, बस कांची का सामना न हो. रोज की तरह आज भी वह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थी, तभी मां का फोन आया, 3 दिन बाद छोटे भाई की सगाई थी, मां ने आने का आग्रह कर के फोन रख दिया.

कितने बदल गए हैं सब लोग… बदलें भी क्यों न, उस की तरह फालतू कोई नहीं हैं, दोनों छोटी बहनें सरकारी स्कूल में टीचर हैं, भाई भी सरकारी अफसर है. पिताजी को गुजरे तो 3 साल हो गए, याद आते ही उस की आंखें भर आईं.

मायके में मां के अलावा उसे याद करने की किसी के पास फुरसत नहीं है. बहनें और भाई जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन लगा लेते हैं बस… एक मां ही है, जो महीने में कम से कम एक बार फोन कर के हालचाल पूछ लेती हैं. पर इस में सारा दोष भाईबहनों का तो नहीं है, मैं मौन सा उन्हें फोन करती हूं, ताली दोनों हाथ से बजती है, एकतरफा रिश्ता कोई कब तक निभाएगा वो तो सिर्फ मां ही निभा सकती है.

अपनी मजबूरी पर उस का दिल जारजार रोने लगा. क्या, मेरा मन नहीं करता  अपनी मा, भाईबहनों से बात करने का, उन के अलावा और कौन है मायके में. फोन का बिल देख कर पतिदेव ऐसेऐसे विषवाण  छोड़ते थे कि कलेजा छलनी हो जाता. पर वह सब्र का घूंट पी लेती थी, क्योंकि इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी न था. सालसालभर मिलना नहीं होता था, कम से कम फोन पर बात कर के ही दिल को तसल्ली मिल जाती थी. पर उस दिन तो अति हो गई, जब पतिदेव बरसे थे, ‘‘अगर इतना ही शौक है फोन पर गप्पें लगाना का तो जरा घर से बाहर निकल कर चार पैसे कमा कर दिखाओ. तब पता चलेगा, पैसे कैसे कमाए जाते हैं, घर बैठ कर गुलछर्रे उठाना बहुत आसान है.’’

सुन कर, अपमान से तिलमिला उठी थी वह, सहने की भी कोई हद होती है. जी में तो आया कि चीखचीख कर कहे कि जब खुद यारदोस्तों से घंटों फोन पर बतियाते हो, तब बिल नहीं आता, मैं क्या अपनी मां से भी बात न करूं, पर कुछ कह न सकी थी, बस तभी बमुशिकल ही फोन को हाथ लगाती थी वह. काश, वो भी आत्मनिर्भर होती, उस के हाथ में भी चार पैसे होते, जिन्हें वह अपना इच्छा से खर्च कर सकती. लो, ऐसे खुशी के मौके पर मैं भी क्या सोचने बैठ गई. मायके जाने के खयाल से शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई. अरे, कितनी सारी तैयारी करनी है, आज 10 तारीख तो हो गई. 13 तारीख को सगाई है, तो 12 को निकलना पड़ेगा. सिर्फ कल का ही दिन तो बचा है.

पतिदेव का मूड न उखड़े, इसलिए नेहा उन की पंसद का खाना बनाने में जुट गई. ‘‘क्या बात है? आज इतने दिनों बाद घर में ऐसा लग रहा है, जैसे सचमुच खाना बना हो, बड़ी चहक रही हो, कोई लौटरी लग गई क्या?’’

‘‘आज मां का फोन आया था. राहुल का रिश्ता तय हो गया है. 13 को सगाई है, चलोगे न…?’’सुनते ही पतिदेव के चेहरे की हंसी गायब हो गई. ‘‘अरे, मैं नहीं जा पाऊंगा, औफिस में बहुत काम है, बच्चों की भी पढ़ाई का नुकसान होगा. शादी में सब लोग चलेंगे, अभी तुम अकेली ही चली जाओ.’’

नेहा के सारे उत्साह पर पानी फिर गया. पर उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है. मायके के किसी भी प्रोग्राम में हमेशा ऐसा ही तो होता है… खैर, एक तरह से अच्छा ही हुआ, बच्चों के पास ढंग के कपड़े भी नहीं हैं. खर्च करने से बजट गड़बड़ा जाएगा, शादी मैं तो खर्च करना ही पड़ेगा.

नेहा ने अपना सूटकेस खोल कर साड़ियां निकाली, कुलमिला कर 4-5 भारी साड़ियां हैं, जिन्हें वह कई बार पहन चुकी थी और एकमात्र शादी में चढ़ाया गया सोने का हार, जिसे  पहनने में भी अब उसे शर्म लगती थी, पर बिना पहने भी नहीं जाया जा सकता. कहीं नहीं हैं, पता नहीं घर के समारोहों में भी इतना दिखावा क्यों करना पड़ता है.

गुनाह के दाग: कैसे खुली पति की हत्या करने वाली पत्नी की पोल

एकएक पल उसे एकएक साल के बराबर लग रहा था. किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल कांप उठता था. सवेरा होते ही जयलक्ष्मी बेटे के पास पहुंची और उसे झकझोर कर उठाते हुए बोली, ‘‘तुम यहां आराम से सो रहे हो और तुम्हारे पापा रात से गायब हैं. वह रात में गए तो अभी तक लौट कर नहीं आए हैं. वह घर से गए थे तो उन के पास काफी पैसे थे, इसलिए मुझे डर लग रहा है कि कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई?’’

जयलक्ष्मी बेटे को जगा कर यह सब कह रही थी तो उस की बातें सुन कर उस की ननद भी जाग गई, जो बेटे के पास ही सोई थी. वह भी घबरा कर उठ गई. आंखें मलते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाभी, भैया कहां गए थे, जो अभी तक नहीं आए. लगता है, तुम रात में सोई भी नहीं हो?’’

‘‘मैं सोती कैसे, उन की चिंता में नींद ही नहीं आई. उन्हीं के इंतजार में जागती रही. मेरा दिल बहुत घबरा रहा है.’’ कह कर जयलक्ष्मी रोने लगी.

बेटा उठा और पिता की तलाश में जगहजगह फोन करने लगा. लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला. उस के पिता विजय कुमार गुरव के बारे में भले पता नहीं चला, लेकिन उन के गायब होने की जानकारी उन के सभी नातेरिश्तेदारों को हो गई. इस का नतीजा यह निकला कि ज्यादातर लोग उन के घर आ गए और सभी उन की तलाश में लग गए.

जब सभी को पता चला विजय कुमार के गायब होने के बारे में

विजय कुमार गुरव के गायब होने की खबर मोहल्ले में भी फैल गई थी. मोहल्ले वाले भी मदद के लिए आ गए थे. हर कोई इस बात को ले कर परेशान था कि आखिर विजय कुमार कहां चले गए? इसी के साथ इस बात की भी चिंता सता रही थी कि कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई. क्योंकि वह घर से गए थे तो उन के पास कुछ पैसे भी थे. किसी ने उन पैसों के लिए उन के साथ कुछ गलत न कर दिया हो.

38 साल के विजय कुमार महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले की तहसील सावंतवाड़ी के गांव भड़गांव के रहने वाले थे. उन का भरापूरा शिक्षित और संपन्न परिवार था. सीधेसादे और मिलनसार स्वभाव के विजय कुमार गडहिंग्लज के एक कालेज में अध्यापक थे. अध्यापक होने के नाते समाज में उन का काफी मानसम्मान था. गांव में उन का बहुत बड़ा मकान और काफी खेती की जमीन थी. लेकिन नौकरी की वजह से उन्होंने गडहिंग्लज में जमीन खरीद कर काफी बड़ा मकान बनवा कर उसी में परिवार के साथ रहने लगे थे.

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विजय कुमार के परिवार में पत्नी जयलक्ष्मी के अलावा एक बेटा था. पत्नी और बेटे के अलावा उन की एक मंदबुद्धि बहन भी उन्हीं के साथ रहती थी. मंदबुद्धि होने की वजह से उस की शादी नहीं हुई थी. बाकी का परिवार गांव में रहता था. विजय कुमार को सामाजिक कार्यों में तो रुचि थी ही, वह तबला और हारमोनियम बहुत अच्छी बजाते थे. इसी वजह से उन की भजनकीर्तन की अपनी एक मंडली थी. उन की यह मंडली गानेबजाने भी जाती थी.

दिन कालेज और रात गानेबजाने के कार्यक्रम में कटने की वजह से वह घरपरिवार को बहुत कम समय दे पाते थे. उन की कमाई ठीकठाक थी, इसलिए घर में सुखसुविधा का हर साधन मौजूद था. आनेजाने के लिए मोटरसाइकिलों के अलावा एक मारुति ओमनी वैन भी थी.

इस तरह के आदमी के अचानक गायब होने से घर वाले तो परेशान थे ही, नातेरिश्तेदारों के अलावा जानपहचान वाले भी परेशान थे. सभी उन की तलाश में लगे थे. काफी प्रयास के बाद भी जब उन के बारे में कुछ पता नहीं चला तो सभी ने एकराय हो कर कहा कि अब इस मामले में पुलिस की मदद लेनी चाहिए.

इस के बाद विजय कुमार का बेटा कुछ लोगों के साथ थाना गडहिंग्लज पहुंचा और थानाप्रभारी को पिता के गायब होने की जानकारी दे कर उन की गुमशुदगी दर्ज करा दी. यह 7 नवंबर, 2017 की बात है.

पुलिस ने भी अपने हिसाब से विजय कुमार की तलाश शुरू कर दी. लेकिन पुलिस की इस कोशिश का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. पुलिस ने लापता अध्यापक विजय कुमार की पत्नी जयलक्ष्मी से भी विस्तार से पूछताछ की.

पत्नी ने क्या बताया पुलिस को

जयलक्ष्मी ने पुलिस को जो बताया, उस के अनुसार रोज की तरह उस दिन कालेज बंद होने के बाद 7 बजे के आसपास वह घर आए तो नाश्तापानी कर के कमरे में बैठ कर पैसे गिनने लगे. वे पैसे शायद फीस के थे, जिन्हें अगले दिन कालेज में जमा कराने थे. पैसे गिन कर उन्होंने पैंट की जेब में वापस रख दिए और लेट की टीवी देखने लगे.

रात का खाना खा कर साढ़े 11 बजे के करीब विजय कुमार पत्नी के साथ सोने की तैयारी कर रहे थे, तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. जयलक्ष्मी ने सवालिया निगाहों से पति की ओर देखा तो उन्होंने कहा, ‘‘देखता हूं, कौन है?’’

विजय कुमार ने दरवाजा खोला तो शायद दस्तक देने वाला विजय कुमार का कोई परिचित था, इसलिए वह बाहर निकल गए. थोड़ी देर बाद अंदर आए और कपड़े पहनने लगे तो जयलक्ष्मी ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘हां, थोड़ा काम है. जल्दी ही लौट आऊंगा.’’ कह कर वह बाहर जाने लगे तो जयलक्ष्मी ने क हा, ‘‘गाड़ी की चाबी तो ले लो?’’

‘‘चाबी की जरूरत नहीं है. उन्हीं की गाड़ी से जा रहा हूं.’’ कह कर विजय कुमार चले गए. वह वही कपड़े पहन कर गए थे, जिस में पैसे रखे थे. इस तरह थोड़ी देर के लिए कह कर गए विजय कुमार गुरव लौट कर नहीं आए.

पुलिस ने विजय कुमार के बारे में पता करने के लिए अपने सारे हथकंडे अपना लिए, पर उन की कोई जानकारी नहीं मिली. 3 दिन बीत जाने के बाद भी थाना पुलिस कुछ नहीं कर पाई तो घर वाले कुछ प्रतिष्ठित लोगों को साथ ले कर एसएसपी दयानंद गवस और एसपी दीक्षित कुमार गेडाम से मिले. इस का नतीजा यह निकला कि थाना पुलिस पर दबाव तो पड़ा ही, इस मामले की जांच में सीआईडी के इंसपेक्टर सुनील धनावड़े को भी लगा दिया गया.

जब सीआईडी के इंसपेक्टर को सौंपी गई जांच

सुनील धनावड़े जांच की भूमिका बना रहे थे कि 11 नवंबर, 2017 को सावंतवाड़ी अंबोली स्थित सावलेसाद पिकनिक पौइंट पर एक लाश मिलने की सूचना मिली. सूचना मिलते ही एसपी दीक्षित कुमार गेडाम, एसएसपी दयानंद गवस इंसपेक्टर सुनील धनावड़े पुलिस बल के साथ उस जगह पहुंच गए, जहां लाश पड़ी होने की सूचना मिली थी.

यह पिकनिक पौइंट बहुत अच्छी जगह है, इसलिए यहां घूमने वालों की भीड़ लगी रहती है. यहां ऊंचीऊंची पहाडि़यां और हजारों फुट गहरी खाइयां हैं. किसी तरह की अनहोनी न हो, इस के लिए पहाडि़यों पर सुरक्षा के लिए लोहे की रेलिंग लगाई गई है.

दरअसल, यहां घूमने आए किसी आदमी ने रेलिंग के पास खून के धब्बे देखे तो उस ने यह बात एक दुकानदार को बताई. दुकानदार ने यह बात चौकीदार दशरथ कदम को बताई. उस ने उस जगह का निरीक्षण किया और मामले की जानकारी थाना पुलिस को दे दी.

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पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल के निरीक्षण में सैकड़ों फुट गहरी खाई में एक शव को पड़ा देखा. शव बिस्तर में लिपटा था. वहीं से थोड़ी दूरी पर एक लोहे की रौड पड़ी थी, जिस में खून लगा था. इस से पुलिस को लगा कि हत्या उसी रौड से की गई है. पुलिस ने ध्यान से घटनास्थल का निरीक्षण किया तो वहां से कुछ दूरी पर कार के टायर के निशान दिखाई दिए.

इस से साफ हो गया कि लाश को कहीं बाहर से ला कर यहां फेंका गया था. पुलिस ने रौड और बिस्तर को कब्जे में ले कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया.

सीआईडी इंसपेक्टर सुनील धनावड़े विजय कुमार गुरव की गुमशुदगी की जांच कर रहे थे, इसलिए उन्होंने लाश की शिनाख्त के लिए जयलक्ष्मी को सूचना दे कर अस्पताल बुला लिया.

लाश तो मिली पर नहीं हो सकी पुख्ता शिनाख्त

लाश की स्थिति ऐसी थी कि उस की शिनाख्त आसान नहीं थी. फिर भी कदकाठी से अंदाजा लगाया गया कि वह लाश विजय कुमार गुरव की हो सकती है. चूंकि उन के घर वालों ने संदेह व्यक्त किया था, इसलिए पुलिस ने लाश की पुख्ता शिनाख्त के लिए डीएनए का सहारा लिया. जिस बिस्तर में शव लिपटा था, उसे जयलक्ष्मी को दिखाया गया तो उस ने उसे अपना मानने से इनकार कर दिया.

भले ही लाश की पुख्ता शिनाख्त नहीं हुई थी, लेकिन पुलिस उसे विजय कुमार की ही लाश मान कर जांच में जुट गई. जिस तरह मृतक की हत्या हुई थी, उस से पुलिस ने अंदाजा लगाया कि यह हत्या प्रेमसंबंधों में हुई है. पुलिस ने विजय कुमार और उन की पत्नी जयलक्ष्मी के बारे में पता किया तो जानकारी मिली कि विजय कुमार और जयलक्ष्मी के बीच संबंध सामान्य नहीं थे.

इस की वजह यह थी कि जयलक्ष्मी का चरित्र संदिग्ध था, जिसे ले कर अकसर पतिपत्नी में झगड़ा हुआ करता था. जयलक्ष्मी का सामने वाले मकान में रहने वाले सुरेश चोथे से प्रेमसंबंध था, इसलिए घर वालों का मानना था कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे इन्हीं दोनों का हाथ हो सकता है.

यह जानकारी मिलने के बाद सुनील धनावड़े समझ गए कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे उन की पत्नी जयलक्ष्मी और उस के प्रेमी सुरेश का हाथ है. उन्होंने जयलक्ष्मी से एक बार फिर पूछताछ की. वह उस की बातों से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन कोई ठोस सबूत न होने की वजह से वह उसे गिरफ्तार नहीं कर सके. उन्होंने सुरेश चोथे को भी थाने बुला कर पूछताछ की. उस ने भी खुद को निर्दोष बताया. उस के भी जवाब से वह संतुष्ट नहीं थे, इस के बावजूद उन्होंने उसे जाने दिया.

उन्हें डीएनए रिपोर्ट का इंतजार था, क्योंकि उस से निश्चित हो जाता कि वह लाश विजय कुमार की ही थी. पुलिस डीएनए रिपोर्ट का इंतजार कर ही रही थी कि पुलिस की सरगर्मी देख कर जयलक्ष्मी अपने सारे गहने और घर में रखी नकदी ले कर सुरेश चोथे के साथ भाग गई. दोनों के इस तरह घर छोड़ कर भाग जाने से पुलिस को शक ही नहीं, बल्कि पूरा यकीन हो गया कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे इन्हीं दोनों का हाथ है.

शक के दायरे में आई पत्नी और उस का प्रेमी

पुलिस सुरेश चोथे और जयलक्ष्मी की तलाश में जुट गई. पुलिस उन की तलाश में जगहजगह छापे तो मार ही रही थी, उन के फोन भी सर्विलांस पर लगा दिए थे. इस से कभी उन के दिल्ली में होने का पता चलता तो कभी कोलकाता में. गुजरात और महाराष्ट्र के शहरों की भी उन की लोकेशन मिली थी. इस तरह लोकेशन मिलने की वजह से पुलिस कई टीमों में बंट कर उन का पीछा करती रही थी.

आखिर पुलिस ने मोबाइल फोन के लोकेशन के आधार पर जयलक्ष्मी और सुरेश को मुंबई के लोअर परेल लोकल रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया. उन्हें थाना गडहिंग्लज लाया गया, जहां एसएसपी दयानंद गवस की उपस्थिति में पूछताछ शुरू हुई. अब तक डीएनए रिपोर्ट भी आ गई थी, जिस से साफ हो गया था कि सावलेसाद पिकनिक पौइंट पर खाई में मिली लाश विजय कुमार की ही थी. पुलिस के पास सारे सबूत थे, इसलिए जयलक्ष्मी और सुरेश ने तुरंत अपना अपराध स्वीकार कर लिया. दोनों के बताए अनुसार, विजय कुमार की हत्या की कहानी इस प्रकार थी.

कैसे हुआ जयलक्ष्मी और सुरेश में प्यार

34 साल का सुरेश चोथे विजय कुमार गुरव के घर के ठीक सामने रहता था. उस के परिवार में पत्नी और 2 बच्चों के अलावा मातापिता, एक बड़ा भाई और भाभी थी. वह गांव की पंचसंस्था में मैनेजर के रूप में काम करता था. घर में पत्नी होने के बावजूद वह जब भी जयलक्ष्मी को देखता, उस के मन में उसे पाने की चाहत जाग उठती.

37 साल की जयलक्ष्मी थी ही ऐसी. वह जितनी सुंदर थी, उतनी ही वाचाल और मिलनसार भी थी. उस से बातचीत कर के हर कोई खुश हो जाता था, इस की वजह यह थी कि वह खुल कर बातें करती थी. ऐसे में हर कोई उस की ओर आकर्षित हो जाता था. पड़ोसी होने के नाते सुरेश से उस की अकसर बातचीत होती रहती थी.

बातचीत करतेकरते ही वह उस का दीवाना बन गया था. जयलक्ष्मी का बेटा 18 साल का था, लेकिन उस के रूपयौवन में जरा भी कमी नहीं आई थी. शरीर का कसाव और चेहरे के निखार से वह 25 साल से ज्यादा की नहीं लगती थी. उस के इसी यौवन और नशीली आंखों के जादू में सुरेश कुछ इस तरह खोया कि अपनी पत्नी और बच्चों को भूल गया.

कहा जाता है कि जहां चाह होती है, वहां राह मिल ही जाती है. जयलक्ष्मी तक पहुंचने की राह आखिर सुरेश ने खोज ही ली. विजय कुमार से दोस्ती कर के वह उस के घर के अंदर तक पहुंच गया था. इस के बाद धीरेधीरे उस ने जयलक्ष्मी से करीबी बना ली. भाभी का रिश्ता बना कर वह उस से हंसीमजाक करने लगा. हंसीमजाक में जयलक्ष्मी के रूपसौंदर्य की तारीफ करतेकरते उस ने उसे अपनी ओर इस तरह आकर्षित किया कि उस ने उसे अपना सब कुछ सौंप दिया.

विजय कुमार गुरव दिन भर नौकरी पर रहते और रात में गानेबजाने की वजह से अकसर बाहर ही रहते थे. इसी का फायदा जयलक्ष्मी और सुरेश उठा रहे थे. जयलक्ष्मी को अपनी बांहों में पा कर जहां सुरेश के मन की मुराद पूरी हो गई थी, वहीं जयलक्ष्मी भी खुश थी. दोनों विजय कुमार की अनुपस्थिति में मिलते थे, इसलिए उन्हें पता नहीं चल पाता था.

लेकिन आसपास वालों ने विजय कुमार के घर में न रहने पर सुरेश को अकसर उस के घर आतेजाते देखा तो उन्हें शंका हुई. उन्होंने विजय कुमार को यह बात बता कर शंका जाहिर की तो विजय कुमार हैरान रह गए. उन्हें तो पत्नी और पड़ोसी होने के नाते सुरेश पर पूरा भरोसा था.

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इस तरह दोनों विजय कुमार के भरोसे का खून कर रहे थे. उन्होंने पत्नी और सुरेश से इस विषय पर बात की तो दोनों कसमें खाने लगे. उन का कहना था कि उन के आपस में संबंध खराब करने के लिए लोग ऐसा कह रहे हैं.

भले ही जयलक्ष्मी और सुरेश ने कसमें खा कर सफाई दी थी, लेकिन विजय कुमार जानते थे कि बिना आग के धुआं नहीं उठ सकता. लोग उन से झूठ क्यों बोलेंगे? सच्चाई का पता लगाने के लिए वह पत्नी और सुरेश पर नजर रखने लगे. इस से जयलक्ष्मी और सुरेश को मिलने में परेशानी होने लगी, जिस से दोनों बौखला उठे. इस के अलावा सुरेश को ले कर विजय कुमार अकसर जयलक्ष्मी की पिटाई भी करने लगे थे.

इस तरह बनी विजय कुमार की हत्या की हत्या की योजना

इस से जयलक्ष्मी तो परेशान थी ही, प्रेमिका की पिटाई से सुरेश भी दुखी था. वह प्रेमिका की पिटाई सहन नहीं कर पा रहा था. जयलक्ष्मी की पिटाई की बात सुन कर उस का खून खौल उठता था. प्रेमी के इस व्यवहार से जयलक्ष्मी ने एक खतरनाक योजना बना डाली. उस में सुरेश ने उस का हर तरह से साथ देने का वादा किया.

योजना के अनुसार, घटना वाले दिन जयलक्ष्मी ने खाने में नींद की गोलियां मिला कर पति, ननद और बेटे को खिला दीं, जिस से सभी गहरी नींद सो गए. रात एक बजे के करीब सुरेश ने धीरे से दरवाजा खटखटाया तो जयलक्ष्मी ने दरवाजा खोल दिया. सुरेश लोहे की रौड ले कर आया था. उसी रौड से उस ने पूरी ताकत से विजय कुमार के सिर पर वार किया. उसी एक वार में उस का सिर फट गया और उस की मौत हो गई.

विजय कुमार की हत्या कर के लाश को दोनों ने बिस्तर में लपेट दिया. इस के बाद जयलक्ष्मी ने लाश को अपनी मारुति वैन में रख कर उसे सुरेश से सावंतवाड़ी के अंबोली सावलेसाद पिकनिक पौइंट की गहरी खाइयों में फेंक आने को कहा.

सुरेश लाश को ठिकाने लगाने चला गया तो जयलक्ष्मी कमरे की सफाई में लग गई. उस के बाद सुरेश लौटा तो जयलक्ष्मी ने वैन की भी ठीक से सफाई कर दी. इस के बाद उस ने विजय कुमार की गुमशुदगी की झूठी कहानी गढ़ डाली. लेकिन उस की झूठी कहानी जल्दी ही सब के सामने आ गई.

पूछताछ के बाद पुलिस ने जयलक्ष्मी के कमरे का बारीकी से निरीक्षण किया तो दीवारों पर भी खून के दाग नजर आए. पुलिस ने उन के नमूने उठवा लिए. इस तरह साक्ष्य एकत्र कर के पुलिस ने दोनों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

एक गलती- भाग 1: क्या उन समस्याओं का कोई समाधान निकला?

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं संकर्षण को क्या जवाब दूं कि उस का पिता कौन है? संकर्षण मेरा बेटा है, पर उस के जीवन की भी अजब कहानी रही. वह मेरी एक गलती का परिणाम है जो प्रकृति ने कराई थी. मेरे पति आशीष के लंदन प्रवास के दौरान उन के बपचन के मित्र गगन के साथ प्रकृति ने कुछ ऐसा चक्र चलाया कि संकर्षण का जन्म हो गया. कोई सोच भी नहीं सकता था कि गगन या मैं आशीष के साथ ऐसी बेवफाई करेंगे. हम ने बेवफाई की भी नहीं थी बस सब कुछ आवेग के हाथों घटित हो गया था.

मुझे आज भी अच्छा तरह याद है जब गगन की पत्नी को हर तरफ से निराश होने के बाद डाक्टर के इलाज से गर्भ ठहरा था. पर पूर्ण समय बाद एक विकृत शिशु का जन्म हुआ, जो अधिक देर तक जिंदा न रहा.

होटल के कमरे में थके, अवसादग्रस्त और निराश गगन को संभालतेसंभालते हम लोगों को झपकी आई और कब हम लोग प्रकृति के कू्रर हाथों के मजाक बन बैठे समझ ही नहीं पाए. फिर संकर्षण का जन्म हो गया. मैं ने उसे जन्म देते ही गगन और उन की पत्नी को उसे सौंप दिया ताकि यह राज आशीष और गगन की पत्नी को पता न चले. गगन की पत्नी अपनी सूनी गोद भरने के कारण मेरी महानता के गुण गाती और आशीष मेरे इस त्याग को कृतज्ञता की दृष्टि से देखते.

हां, मेरे मन में जरूर कभीकभी अपराधबोध होता. एक तो संकर्षण से अपने को दूर करने का और दूसरा आशीष से सब छिपाने का. पर इसी में सब की भलाई थी और सबकुछ ठीकठाक चल भी रहा था. गगन और उन की पत्नी संकर्षण को पा कर खुश थे. वह उन के जीवन की आशा था. मेरे 2 बच्चे और थे कि तभी वह घटना घटी.

संकर्षण तब 10 वर्ष का रहा होगा. वह, गगन और उन की पत्नी कार से कहीं से लौट रहे थे कि उन की कार का ऐक्सिडैंट हो गया. गगन की पत्नी की घटना स्थल पर ही मौत हो गई. गगन को भी काफी चोटें आईं. हां, संकर्षण को 1 खरोंच तक नहीं आई.

काफी दिन हौस्पिटल में रहने के बाद गगन स्वस्थ हो गए पर दुनिया से विरक्त. एक दिन उन्होंने मुझे और आशीष को बुला कर कहा, ‘‘मैं ने अपनी सारी संपत्ति संकर्षण के नाम कर दी है. अब मैं संन्यास लेने जा रहा हूं. मेरी खोजखबर लेने की कोशिश मत करना.’’

हम लोगों ने बहुत समझाने की कोशिश की पर संकर्षण को हमारे हवाले कर के एक दिन वे घर छोड़ कर न जाने कहां चले गए. आशीष को गगन के जाने का गम जरूर था, पर संकर्षण अब हमारे साथ रहेगा, यह जान कर वे बहुत खुश थे. उन के अनुसार हम दोनों ने इतने दिन पुत्रवियोग सहा. तब से आज तक 10 साल बीत गए थे, लेकिन संकर्षण हम लोगों के साथ था.

हालांकि जब से उसे पता चला था कि गगन और उन की पत्नी, जिन के साथ वह इतने वर्ष रहा, उस के मातापिता नहीं हैं, मातापिता हम लोग हैं, तो वह हम से नाराज रहता. कहता, ‘‘आप लोग कैसे मातापिता हैं, जो अपने बच्चे को इतनी आसानी से किसी दूसरे को दे दिया? अगर मैं इतना अवांछनीय था, तो मुझे जन्म क्यों दिया था?’’

अपने बड़े भाईबहन से भी संकर्षण का तालमेल न बैठ पाता. उस की रुचि, सोच सब कुछ उन से अलग थी. उस की शक्ल भी गगन से बहुत मिलती थी. कई बार अपने दोनों बच्चों से इतनी भिन्नता और गगन से इतनी समरूपता आशीष को आश्चर्य में डाल देती. वे कहते, ‘‘हैरत है, इस का सब कुछ गगन जैसा कैसे है?’’

मैं कहती, ‘‘बचपन से वहीं पला है… व्यक्ति अपने परिवेश से बहुत कुछ सीखता है.’’

आशीष को आश्चर्य ही होता, संदेह नहीं. मैं और गगन दोनों ही उन के संदेह की परिधि के बाहर थे. यह सब देख कर मुझे खुद पर और क्षोभ होता था और मन करता था आशीष को सबकुछ सचसच बता दूं. लेकिन आशीष क्या सच सुन पाएंगे? इस पर मुझे संदेह था.

वैसे संकर्षण आशीष की ही भांति बुद्धिमान था. केवल उस के एक इसी गुण से जो आशीष से मिलता था, आशीष का पितृत्व संतुष्ट हो जाता, पर संकर्षण उस ने तो अपने चारों तरफ हम लोगों से नाराजगी का जाल बुन लिया और अपने को एकाकी करता चला गया.

पता नहीं यह कारण था अथवा कोई और संकर्षण अब बीमार रहने लगा. अस्थमा जैसे लक्षण थे. मर्ज धीरेधीरे बढ़ता गया.

हम लोग अब तक कोचीन में सैटल हो गए थे, पर कोचीन में ही नहीं बाहर भी अच्छे डाक्टर फेल हो गए. हालत यह हो गई कि संकर्षण कईकई घंटे औक्सीजन पर रखा जाता. मैं और आशीष दोनों ही बड़े परेशान थे.

अंत में ऐक्सपर्ट डाक्टरों की टीम की एक मीटिंग हुई और तय किया गया कि यह अल्फा-1 ऐंटीट्राइप्सिन डिजीज नामक बीमारी से पीडि़त है, जोकि जेनेटिक होती है और इस के  लक्षण अस्थमा से मिलतेजुलते हैं. हालांकि यह बीमारी 30 साल की उम्र के बाद होती है पर शायद संकर्षण को समय से पहले हो गई हो और इस के लिए पिता का डीएनए टैस्ट होना है ताकि यह तय हो सके कि वह उसी बीमारी से पीडि़त है और उस का सही इलाज हो सके.

आशीष का डीएनए टैस्ट संकर्षण से मेल नहीं खाया. मेल खाता भी कैसे? आशीष अगर उस के पिता होते तब न.

आशीष तो डीएनए रिपोर्ट आते ही बिना मेरी ओर देखे और बिना संकर्षण की बीमारी की परवाह किए कार स्टार्ट कर घर चले गए. संकर्षण की आंखों में उठते मेरे लिए नफरत के भाव और उस का यह प्रश्न करना कि आखिर मेरे पिता कौन हैं, मुझे अंदर तक झकझोर गया. मैं तो अपराधी की तरह कटघरे में खड़ी ही थी, गगन को संकर्षण की नजरों से गिराने की इच्छा न हुई अत: मैं चुप रही.

संकर्षण बोला, ‘‘आज तक मैं अपने को अवांछनीय समझता रहा जिस के मातापिता उसे बड़ी आसानी से किसी और की गोद में ऐसे डाल देते हैं, जैसे वह कोई निर्जीव वस्तु हो. पर आज पता चला कि मैं अवांछनीय होने के साथसाथ नाजायज औलाद भी हूं, अपनी चरित्रहीन मां और पिता की ऐयाशी की निशानी. आप ने आशीष अंकल को भी इतने दिन तक अंधेरे में रखा, जबकि मैं ने देखा है कि वे आप पर कितना विश्वास करते हैं, आप को कितना चाहते हैं.’’

मैं ने विरोध करना चाहा, ‘‘बेटा ऐसा नहीं है.’’

‘‘मत कहिए मुझे बेटा. इस से अच्छा था मैं बिना यह सत्य जाने मर जाता. कम से कम कुछ भ्रम तो बना रहता. अब हो सके तो कृपा कर के मेरे पिता का नाम बता दीजिए ताकि मैं उन से पूछ सकूं कि अपने क्षणिक सुख के लिए मुझे इतनी बड़ी यातनाक्यों दे डाली, जिस से निकलने का भी मुझे कोई रास्ता नहीं दिख रहा है,’’ संकर्षण बोला.

बटर की जगह अब मार्जरिन अपनाएं

‘फैट मत खाइए, फैट बुरा है’, ‘खूब फैट खाइए, फैट अच्छा है’, ‘कुछ किस्म के फैट खाइए, लेकिन बुरे फैट से परहेज रखिए’. ये एक बहुत बड़ा कन्फ्यूजन है. जो हमारी नाश्ते की मेज से ले कर डिपार्टमेंटल स्टोर की रैक तक हमारे साथ रहती है. सुबह घर पर हम सोचते हैं कि टोस्ट पर बटर लगाएं या नहीं और दुकानों पर सोचते हैं कि बटर खरीदें कि नहीं. इतना भ्रम हर ओर होगा तो जाहिर है कि फैसला लेना कठिन हो जाएगा और साथ ही इस पहेली को सुलझाने के लिए हम नए स्रोतों की खेज करने लगते हैं.

फैट/वसा संबंधी कुछ तथ्यों पर नजर

फैट कई किस्म के होते हैं हमारा शरीर फालतू कैलोरीज के द्वारा खुद फैट बनाता है. वसा के बाहरी स्रोत पौधे और पशु हैं और इन से मिलने वाले फैट को डाइट्री फैट या आहारीय वसा कहते हैं. यह एक माइक्रोन्यूट्रीऐंट है जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है. जिन फैट्स को खुराक में सीमित करना चाहिए वे हैं सैचुरेटिड फैट्स और ट्रांस फैट्स. सब से खराब किस्म की आहारीय वसा होती है. सैचुरेटिड और ट्रांसफैट, इन्हें उच्च कोलेस्ट्रौल, मोटापे और हृदय रोगों की वजह माना जाता है. वास्तव में ऐसी बहुत सी बीमारियां और विकार है जिन का रिश्ता इन फैट्स से बाताया जाता है किंतु इस का मतलब ये नहीं कि हमारे शरीर को इन की जरूरत नहीं होती.

फोर्टिस ग्रुप औफ हौस्पिटल, नई दिल्ली में वैलनैस एंड न्यूट्रीशन कंसल्टेंट डा. सिमरन सैनी के अनुसार, ‘‘शरीर के कार्यों और ऊर्जा के लिए वसा अति आवश्यक है. पेलिअनसैचुरेटिड फैट बहुत जरूरी वसा है जो एलडीएल नामक हानिकारक कौलेस्ट्रोल को कम करती है, दिमागी विकास में मददगार है, इंफ्लेमेशन को काबू करती है और त्वचा एवं बालों को स्वस्थ बनाती है. जबकि दूसरी ओर सैचुरेटिड और ट्रांस फैट हमारे खून में एलडीएल को बढ़ा कर हृदय रोग का जोखिम बढ़ाते हैं.’’

बटर और मार्जरिन के बीच चुनाव

बटर डेयरी उत्पाद है. इस में 50% सैचुरेटिड फैट और 4% ट्रांस फैट होता है. दूसरी ओर बटर के विकल्प मार्जरिन में 28% सैचुरेटिड फैट और एक प्रतिशत से भी कम 0.1 से 0.2%) ट्रांस फैट होता है.

अब सवाल यह है कि बटर या मार्जरिन या बटर के किसी अन्य विकल्प से हमारी सेहत पर वास्तव में कोई फर्क पड़ेगा? अमेरिकन कालेज औफ कार्डियोलौजी की पत्रिका में प्रकाशित स्टडी के अनुसार इस का जवाब है ‘हां’.

हारवर्ड टी एच यान स्कूल औफ पब्लिक हैल्थ ने 30 सालों तक लोगों के आहार का अध्ययन किया. शोधकर्ताओां ने पाया कि बटर जैसे सैचुरेटिड फैट के साथ मार्जरिन जैसे अनसैचुरेटिड फैट ‘हृदय रोग का जोखिम कम करने पर सब से अधिक प्रभावशाली रहे. सैचुरेटिड फैट्स कैलोरीज से भरपूर होते हैं और उन के बहुत ज्यादा सेवन से रक्त में कोलेस्ट्रौल का स्तर बढ़ जाता है. शोधकर्ताओं ने पाया कि कुछ लोगों ने सैचुरेटिड फैटी ऐसिड के स्थान पर कार्बोहाइड्रेट से कैलोरी हासिल करनी शुरू की और कुछ ने ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक वसा को अपनाया.’

सैचुरेटिड फैट से मिलने वाली 5% ऊर्जा की जगह पर उतनी ही मात्रा में पोलिअन सैचुरेटिड फैट, मोनोअनसैचुरेटिड फैट या कार्बोहाइड्रेट (साबुत अनाज से) को अपनाने से हृदय धमनियों की बीमारी का खतरा क्रमशः 25%, 15% और 9% घट गया है.

डा. सैनी का कहना है, ‘‘मार्जरिन/बटर के विकल्प में ‘खराब’ सैचुरेटिड फैट कम होता है और दिल के लिए स्वास्थ्यकर फैट ज्यादा होता है. इस में कोलेस्ट्रोल नहीं होता. परंपरागत रूप से स्प्रैड व मार्जरिन या बटर विकल्प को हाइड्रोजिनेशन की प्रक्रिया के द्वारा बनाया जाता है. जिस के परिणामस्वरूप ट्रांस फैटी ऐसिड बनता है. यद्यपि, तकनीकी प्रगति के चलते उत्पाद को ठोस करने के लिए हाइड्रोजिनेशन की आवश्यकता नहीं पड़ती. जिस से ट्रांस फैटी ऐसिड की समस्या को खत्म करने में बड़ी मदद मिली है. गौरतलब है कि दुनिया में कुछ ही स्प्रैड ऐसे हैं जिन में हाइड्रोजिनेटिड फैट नहीं होते, इन में से कुछ भारत में उपलब्ध है.’’

इस के स्प्रैड्स की तुलना करते समय उस के पोषक तथ्यों के बारे में जरूर पढें और देखें कि उन में सैचुरेटिड व ट्रांस फैट्स कितने ग्राम है. कैलोरीज को सीमित करने के लिए उन की मात्रा को सीमित करें. मार्जरिन/बटर के विकल्प कोमल होते हैं और उन्हें फ्रिज से निकाल कर बिना परेशानी के इस्तेमाल किया जा सकता है जबकि बटर सख्त हो जाता है. इसलिए, चर्बी कम करने और दिल की सेहत के लिए यह सर्वोत्तम विकल्प है.

इस एक स्वास्थ्यकर बदलाव को अपना कर हम बटर को बायबाय बोल सकते हैं और मार्जरिन/बटर के विकल्प को जीवनशैली में स्वागत कर सकते हैं. जिन लोगों को उच्च कोलेस्ट्रोल है या जिन के परिवार में हृदय रोग की समस्याएं रही हैं उन के लिए यह बहुत बढि़या विकल्प है. स्वास्थ्य और वजन की बेहतर देखभाल के लिए ज्यादा स्वास्थ्यकार आहार योजना का पालन करें, आखिरकार आप के कदम ही आप को आगे ले जाएंगे.

Father’s Day 2022: आई लव यू पापा

उन दिनों मैं अपनी नई जौब को लेकर बड़ी खुश थी. ग्रेजुएशन करते ही एक बड़े स्कूल में मुझे ऑफिस असिस्टेंट के रूप में काम मिल गया था. छोटे शहर में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की के लिए यह उपलब्धि बहुत बड़ी थी. जहां आमतौर पर ग्रेजुएशन करते ही लड़कियों को शादी कर ससुराल भेजने की रवायत हो, वहां मुझे सुबह-सुबह तैयार होकर बैग लटका कर रिक्शे से नौकरी पर जाता देख मोहल्ले में कईयों के सीने पर सांप लोट जाता था. औरतें मेरी मां के कान भरतीं. लड़की हाथ से निकल जाएगी… बाहर की ज्यादा हवा लगी तो लड़का मिलना मुश्किल हो जाएगा, वगैरह, वगैरह. बहुतेरे थे जो मेरे पापा को ताना मारने से भी नहीं चूकते थे कि अब बेटी की कमाई खाओगे भइया…? मगर पापा ऐसे लोगों की बातों को हंसी में उड़ा देते थे.

पापा मुझसे बड़ा प्यार करते थे. मेरी हर बात में उनकी रजामंदी होती थी. मैं उनकी इकलौती दुलारी बेटी जो थी. मां मुझे डांट दें तो पापा उनको खूब सुनाते थे. बीए करने के बाद से ही मां को मेरी शादी की चिंता खाए जाती थी. हर वक्त पापा को टोकती रहतीं कि उम्र ज्यादा हो गयी तो ढंग का लड़का नहीं मिलेगा इसके लिए. यही नहीं, मां मुझे ससुराल में रहने के तौर-तरीके सिखाने की कोशिशें भी करती रहती थीं. आठ घंटे की नौकरी के बाद जब मैं शाम को थकी-हारी घर आती तो मां चाहती थीं कि मैं रसोई भी बनाऊं. इस बहाने से वे चाहती थीं कि मैं कुछ अच्छे पकवान बनाना सीख लूं. इतवार की छुट्टी होती तो वे सिलाई मशीन निकाल कर बैठ जातीं कि बिटिया जरा मेरे लिए एक ब्लाउज सिल दे, या पेटिकोट बना दे, या मेजपोश पर फूल काढ़ दे. और मैं इतवार की छुट्टी दिन भर सो कर गुजारना चाहती थी, ताकि हफ्ते भर की थकान उतर जाए. मुझे गृहस्थी के इन कामों से बड़ी चिढ़ मचती थी.

कामचलाऊ चीजें तो मुझे आती थीं. इससे ज्यादा सीख कर क्या करूंगी, ऐसा कहकर मैं मां से पीछा छुड़ाती थी. मगर मां की कवायतें चलती रहती थीं. वह किसी न किसी तरह मुझे गृहस्थी के काम में निपुण बनाना ही चाहती थीं. जब वे नहीं मानतीं तो मैं सिरदर्द या बुखार का बहाना मार कर सो जाती. इससे मां को बड़ी कोफ्त होती मगर पापा से शिकायत करने पर उन्हें उल्टे डांट ही खानी पड़ती थी. पापा कहते, ‘तुमने शादी से पहले दुनियाभर की मिठाइयां और केक बनाने सीखे थे क्या? यहां आकर कभी जरूरत पड़ी बनाने की? जब मीठा खाना होता है तो नुक्कड़ वाले हलवाई से ही मंगवाती हो न? कपड़े सारे दर्जी से सिलवाती हो. फिर हर वक्त उसके पीछे क्यों पड़ी रहती हो? उसको करने दो जो वो करना चाहती है.’

कई दफा दोनों में मुझे लेकर गम्भीर बहस भी छिड़ जाती थी. लेकिन मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि मुझे पता था कि पापा मेरी ही साइड लेंगे. उन दिनों आॅफिस में नए-नए कंप्यूटर लगे थे, जिन्हें सीखने और चलाने में मुझे बड़ा आनंद आ रहा था. जानकारी भी खूब बढ़ रही थी. अकाउंट्स का काफी काम मैंने सीख लिया था, टाइपिंग स्पीड तो पहले ही काफी तेज थी, अब कंप्यूटर पर भी हाथ आजमाने लगी थी. स्कूल के मालिक मुझ पर बड़ा भरोसा करते थे. वे जानते थे कि मैं आलराउंडर हूं. इसलिए मुझे अतिरिक्त काम भी देने लगे थे और इन कामों में मुझे मजा भी खूब आता था. स्कूल में होने वाले विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों की देखरेख भी मैं करने लगी थी. महज तीन सालों में मैं पूरे स्कूल की सुपरवाइजर हो गयी थी. धीरे-धीरे स्कूल के सारे काम मुझसे पूछ कर ही होने लगे थे.

दिन महीनों में और महीने सालों में बदलते चले गये. मेरे लिए कई रिश्ते आये, मगर कहीं बात नहीं बनी. कभी मैं लड़के में कोई खोट निकाल देती तो कभी लड़के वालों की ओर से मेरे में खोट निकाल दी जाती. कोई मुझे नौकरी छोड़ने को कहता तो मैं खड़े-खड़े मुंह पर रिश्ते के लिए ना बोल देती. जिस जगह मालिक के बाद सिर्फ मेरे आर्डर चलते हों, ऐसी नौकरी को छोड़ कर किसी चारदीवारी में बंद हो जाने को मैं बेवकूफी मानती थी.

आज बीस साल हो गये हैं. वो स्कूल जो सिर्फ बारहवीं तक था, मेरी मेहनत से अब कौलेज में तब्दील हो चुका है. कौलेज की नई बिल्डिंग में मेरा औफिस किसी बड़े अधिकारी के औफिस की तरह लकदख दिखता है. बड़ी सी गाड़ी में मैं कौलेज आती हूं. हेड मिस्ट्रेस के तौर पर शहर भर में मेरी खूब इज्जत है. बड़े-बड़े अधिकारी अपने बच्चों के एडमिशन के लिए मेरे पास नाक रगड़ने आते हैं. शहर के बड़े-बड़े फंक्शन्स में मैं चीफ गेस्ट बन कर जाती हूं. पापा अब नहीं रहे. अब घर में सिर्फ मां हैं और मैं. हम दोनों खुश हैं, आराम से हैं. किसी बात की कमी नहीं है.

मेरी शादी नहीं हुई तो क्या, अब हमारे पास अपना बड़ा सा घर है, दो नौकर, एक धोबी, रसोइया और ड्राइवर है. सोचती हूं अगर मां की जिद पर नौकरी छोड़ कर पकवान बनाना सीखती, कपड़े सीना और झाडृू-पोंछा लगाना आ जाता तो मैं किसी से शादी करके उसके घर में बस यही काम कर रही होती. न आजाद होती, न आर्थिक रूप से सम्पन्न, न मुझ में निर्णय लेने की क्षमता होती और न इज्जत और शोहरत मिलती. बस एक नौकरानी की तरह ससुराल वालों की सेवा करती रहती, बच्चे पालती, पति की डांट खाती, अकेले में अपनी किस्मत को कोसती और रोती रहती, जैसा कि मेरी कई सहेलियों के साथ होता रहा है. मां भी मेरे बिना किसके सहारे जीतीं? आज उनकी देखभाल के लिए मैं उनके साथ हूं. अगर ससुराल की जेल में होती तो कैसे हो पाती उनकी देखभाल? आज अपने पापा पर मुझे गर्व होता है. उनके कारण मैं इस काबिल बन पायी. उनकी वजह से मैं अपने पैरों पर खड़ी हो पायी. उनकी वजह से मुझे इतनी इज्जत और पद-प्रतिष्ठा मिली. पापा की जिद्द और लड़ाई का नतीजा है कि आज मां बुढ़ापे की दहलीज पर अकेली और लाचार नहीं हैं. दूरदृष्टि रखने वाले मेरे पापा आई लव यू…

शादी में खिचखिच सही, डायग्नोस जरूरी

नशे की हालत में शादी करने पहुंचे दूल्हे का नशा उस वक्त उड़ गया जब दुलहन ने शराबी के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया. लोगों ने दुलहन को बहुत सम?ाया लेकिन उस ने साफ कह दिया कि वह किसी शराबी से शादी नहीं कर सकती. दुलहन के इनकार के बाद दूल्हे को बरात वापस लौटानी पड़ी. यह घटना न कोई अजीब है और न अब इस पर आंखें उठती हैं. शादी तो 2 वयस्कों का फैसला है, चाहो तो करो.

इस तरह की घटना से एक बात तो साबित हो गई कि अब वे दिन लद गए जब मांबाप लड़कियों को बछिया समझ कर उन के पगहे किसी और के हाथ में सौंप दिया करते थे. खास बात तो यह है कि पहले की तरह अब पुलिस, अदालतें और समाज भी इन बहादुर बेटियों के पक्ष में खड़े रहते हैं.

लड़कियां दहेज लोभी दूल्हों से शादी करने से इनकार कर देती हैं. बदलाव की बयार जोर से बह रही है. लड़कियां अब समझने लगी हैं कि जो कुछ उन की नानी, दादी और मां ने सहा है वह वे नहीं सहेंगी और इज्जत की आड़ में किसी भी तरह के परिवर्तन से समझौता नहीं करेंगी. ज्यादातर लड़कियों को भरोसा रहता है कि वे अपने पैरों पर खड़ी रह सकती हैं.

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो महिलाओं ने अपने न करने के अधिकार को पहचान लिया है और इसीलिए अब पुरातनपंथी सोच की दीवार को तोड़ कर वे अपने सलीके व इच्छा से अपनी जिंदगी जीने का हौसला जुटा चुकी हैं. अपनी इस नई सोच और हौसले के चलते ही महिलाओं ने अब परिस्थितियों से सम?ाता करने के बजाय उन्हें सुल?ाना शुरू कर दिया है.

यह सच है कि एक शादी टूट जाना एक लड़की (या लड़के के लिए भी) के लिए सदमे से कम नहीं होता, क्योंकि समाज में आज भी कुछ लोग हैं जो शादी टूटने का दोष लड़की के ही सिर पर मढ़ देते हैं. लेकिन लड़की अब अपनी सैल्फरिस्पैक्ट के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ बरदाश्त नहीं कर सकती. राजधानी दिल्ली में एक महिला ने अपने पति को सिर्फ इसलिए तलाक दे दिया क्योंकि पति ने उस से उस की लास्ट सैलरी स्लिप मांग ली थी. पति उस के बैंक अकाउंट को पूरा कंट्रोल करना चाहता था.

ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं अपनी शादी बचाने की कोशिश नहीं करतीं, पर जब पानी सिर से ऊपर उठ जाता है तो बात तलाक तक पहुंच ही जाती है. बहुत सी मांएं शादी तोड़ कर बच्चों के साथ बहुत खुश हैं. अब तो दोनों के मांपिता इस फैसले की रिस्पैक्ट करते हैं और बच्चे व उन के दादादादी या नानानानी सोचते हैं कि रोज की खिचखिच से अलग रहना ज्यादा अच्छा है.

ऐसे वक्त में मातापिता का साथ लड़की के लिए बहुत बड़ा मोरल सपोर्ट होता है और इस के साथ ही लड़की कौन्फिडैंट हो कर अपनी लाइफ को आगे बढ़ा पाती है. अगर कोई सही दोस्त या सहेली साथ में हो तो जीवन को फिर पटरी पर चलाने में सुविधा रहती है.

कई बार शादी के बाद लड़कियों पर घर की सारी जिम्मेदारी सौंप दी जाती है. यह सोचा जाता है कि घर की देखभाल के साथ पति के मांबाप की देखभाल भी अकेले वही करेगी. ऐसे में लड़की अगर वर्किंग है तो औफिस और घर दोनों को संभालने की जद्दोजेहद में उसे या तो औफिस छोड़ना पड़ता है या फिर घर के कामकाज. बस, यहीं से शुरू हो जाती है अड़चनें. लड़कियां घर छोड़ सकती हैं, काम नहीं क्योंकि उन में आत्मसंतोष भी है और आत्मविश्वास भी.

ससुराल पक्ष के लोगों का दोहरा व्यवहार भी लड़की के लिए असहनीय होता है. जैसे, अगर घर में ननद के साथ अलग और बहू के साथ अलग व्यवहार हो तो यह बात भी परेशानी का सबब बन जाती है. आज भी मातापिता यह भेदभाव पाले रखते हैं.

शादी के बाद ससुराल वालों की लड़की से कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं हो जाती हैं. वे चाहते हैं कि लड़की हर चीज में निपुण हो. लेकिन यह संभव नहीं है.

अकसर देखने में आता है कि ससुराल पहुंचते ही लड़कियों के पल्लू में ढेर सारी रस्मों के ?ान?ाने बांध दिए जाते हैं. ऐसे में लड़कियां तनाव में आ जाती हैं और खुद को बंधन से छुड़ाने की कोशिश करने लगती हैं.

पूजापाठ भी नई लड़कियों पर बहुत बोझ है जबकि वे कुछ कह नहीं पातीं. तरहतरह के व्रत, तीर्थ मामले, मंदिरों में जाना बहुत समय लेता है. जो खाली हैं, उन के लिए ठीक है पर अब अंधाधुंध प्रचार के कारण हर औरत को उस में धकेला जा रहा है, जो थकाऊ भी है और खर्चीला भी.

लड़की पर बच्चा पैदा करने का प्रैशर डालना भी एक बड़ी समस्या है. अपनी इच्छा से जब पतिपत्नी की मरजी हो, वे संतान को जन्म दे सकते हैं. इस बात के लिए लड़कियों को ताने नहीं मारने चाहिए. पिछड़ी व निचली जातियों की कमाऊ, पढ़ीलिखी लड़कियों पर अनपढ़ सासें बहुत दबाव डालती हैं.

शादी के बाद लड़कियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने का रिवाज भी गलत है. बहू पर ज्यादा रोकटोक भी शादी टूटने का सबब बन सकती है. यह उन घरों में हो रहा है जिन के तार अभी भी गांवों और कसबों से जुड़े हैं. ये लड़कियां शादी को आजादी का लाइसैंस मानती हैं पर अकसर वह आजादी नहीं मिलती.

अब तो जो पिछड़ी व निचली जातियों की लड़कियों का काम पास के मंदिर से चल जाता था, उन्हें बड़े मंदिरों में मीलों दूर धकेला जा रहा है. मंदिर की राजनीति पतिपत्नी पर बोझ बन रही है, पर उस बारे में कोई लड़की शिकायत करने की हिम्मत नहीं पा रही और दोष पति, सास, ननद पर मढ़ दिया जा रहा है.

विलुप्त होने की कगार पर धान की देशी किस्में, शुरू की संरक्षण की कवायद

डा. आरएस सेंगर, शोध छात्र अभिषेक सिंह, कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग

वैज्ञानिकों का कहना है कि किसान अब देशी प्रजातियों की धान की खेती तकरीबन छोड़ चुके हैं और किसान बाजार में उपलब्ध बीज पर निर्भर हैं. धान की पुरानी प्रजातियां तेज सुगंध, स्वाद व पोषण से भरपूर हुआ करती थीं, जिस में आयरन व जिंक प्रचुर मात्रा में होता था.

धान की देशी किस्में सैकड़ों सालों से खुद की रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करते हुए जलवायु परिवर्तन के विपरीत हालात से लड़ते हुए तैयार हुई थीं. इस वजह से इन सभी धान की पुरानी प्रजातियों में बाढ़ और सूखा से लड़ने की क्षमता थी, परंतु जहां नई प्रजातियां 6-7 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती हैं, वहीं धान की पुरानी प्रजातियों की उपज केवल 3-4 क्विंटल प्रति एकड़ थी, जो कि बढ़ती हुई आबादी का पेट भरने के लिए काफी नहीं थी. धान की देशी किस्मों को उपजाने में खादपानी ज्यादा नहीं लगता था.

देशी प्रजातियों की धान की कुछ किस्में कम बारिश वाले क्षेत्र में किसान लगाते हैं, जो कि केवल 60 दिनों में ही तैयार हो जाती थीं. इस में सेलहा व साठी प्रमुख किस्में हैं. करगी, कुंआरी, अगहनी, बस्ती का काला नमक, काला जीरा, जूही बंगाल, कनक जीरा, धनिया और मोती बादाम, काला भात, नामचुनिया, दुबराज, बादशाह पसंद, शक्कर चीनी, विष्णु पराग, जिरिंग सांभा, लालमनी, सोना चूर्ण, तुलसी मंजरी, आदमचीनी, गोविंद भोग, विष्णु भोग, मोहन भोग, बादशाह भोग, साठी, कतरनी, मिर्चा, नगपुरिया, कनकजीर, सीता सुंदरी, कलमदान, जवा फूल, चिन्नावर आदि जैसी धान  की लुप्तप्राय: प्रजातियां हैं.

इन सभी किस्मों में से करगी धान की किस्म का संरक्षण अभी तक विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डा. आरएस सेंगर और शोध छात्र अभिषेक सिंह के द्वारा किया गया है. कृषि विश्वविद्यालय के शोध छात्र अभिषेक सिंह और

डा. आरएस सेंगर ने करगी धान की प्रजाति को जौनपुर जिले के मछलीशहरपौहा से संकलित कर उस के बीज को राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो, नई दिल्ली (एनबीपीजीआर) में संरक्षण के लिए बीज बैंक में संरक्षित करवाया है.

कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति आरके मित्तल का कहना है कि किसानों के हित में विलुप्त हो रही प्रजातियों का संरक्षण बहुत जरूरी है. इस से नई प्रजाति विकसित करने में सहायता मिलती है. देश में जर्मप्लाज्म को जीन बैंक में सुरक्षित एवं संरक्षित करने से भविष्य के लिए लाभकारी रहता है. कृषि विश्वविद्यालय का प्रयास है कि किसान हित में सराहनीय कदम उठाया जाए.

निदेशक अनुसंधान, कृषि विश्वविद्यालय  के डा. टीपी सिंह का कहना है कि विलुप्त

हो रही प्रजातियों को खोज कर कृषि विश्वविद्यालय जीन बैंक में संरक्षित करवाएगा.

भविष्य में विलुप्त हो रही इस प्रजाति को बीज बैंक में संरक्षित होने से इस को बचाया जा सकेगा. इस के जीन को ट्रांसफर कर वैज्ञानिक अच्छी गुणवत्ता वाली धान को विकसित करने का काम कर सकेंगे.         ठ्ठ

करगी धान की विशेषताएं

फसल की अवधि – 120 दिन

उत्पादन-अनुमानित उपज – 2.1 क्विंटल प्रति एकड़

* पौधे की ऊंचाई – 90-95 सैंटीमीटर

* पैनिकिल की लंबाई – 24 सैंटीमीटर

* झंडे के पत्ते की लंबाई – 34 सैंटीमीटर

* भूसी का रंग – हलका काला

* दाने का रंग – हलका लाल

* उच्च अंकुरण दर 2-5 दिन, 88 फीसदी अंकुरण दर

* कम मात्रा में आवश्यक उर्वरक, कीटनाशक

पोषक तत्त्वों की मात्रा

* कैल्शियम – 648.9 मिलीग्राम/किलोग्राम

* मैग्निसम – 1526 मिलीग्राम/किलोग्राम

* आयरन – 966 मिलीग्राम/किलोग्राम

* मैग्नीशियम – 21.78 मिलीग्राम/किलोग्राम

* कौपर – 19.45 मिलीग्राम/किलोग्राम

* एल्युमिनियम – 220.4 मिलीग्राम/किलोग्राम

वैज्ञानिकों ने क्या किया काम

देशी धान के संरक्षण को ले कर नैशनल ब्यूरो औफ प्लांट जैनेटिक रिसोर्सेज, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों ने देशी बासमती, जसवा, मंसूरी, बिरनफूल, साद सरना, कुकुर?ाली, काला नयना, फूल पकरी, काला बुधनी, देसी मंसूरी, सफेद सुंदरी, चनाचूर, कैमा समेत 18 प्रजाति के धान को नैशनल जीन बैंक में संरक्षित किया गया है.

मैं एक स्टूडेंट हूं, क्या अभी मुझे जॉब करना चाहिए?

सवाल 

इस वर्ष मैं अपनी बीबीए की पढ़ाई पूरी कर लूंगी. मेरा एक दोस्त अपना स्टार्टअप शुरू करने वाला है जिस में वह मु?ो एक अच्छी पोजिशन औफर कर रहा है. वह मु?ो सैलरी भी अच्छी देगा. मैं बीबीए की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उस के साथ कंपनी जौइन कर सकती हूं लेकिन एक उल?ान है, मैं एमबीए की पढ़ाई करना चाहती हूं. सम?ा नहीं आ रहा है कि नौकरी का यह सुनहरा मौका हाथ से जाने दूं या अपनी पढ़ाई जारी रखूं? आप ही कुछ राय दीजिए.

जवाब

आप ने बीबीए किया है तो उस के बाद वर्क एक्सपीरियंस चाहिए होता है. एमबीए की डिग्री जौब में कैरियर ग्रोथ के लिए चाहिए होती है. हमारी राय में यदि आप को नौकरी मिल रही है वह भी अच्छी सैलरी के साथ तो आप वर्क एक्सपीरियंस ले लें. एमबीए की पढ़ाई साथसाथ भी की जा सकती है. बीबीए के बाद वर्क एक्सपीरियंस काफी मैटर करता है.

लेकिन आप को लगता है कि एक बार पढ़ाई छोड़ कर आप पैसे कमाने लगे तो दोबारा पढ़ाई की तरफ जाना आप के लिए मुश्किल होगा तो आप एमबीए कर लें. पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

बेवफाई- भाग 1: प्रेमलता ने क्यों की आशा की हत्या

‘‘वैसे तो बाग और घर दोनों ही ठीक हैं, फिर भी अपने सामने धनीराम से पौधों की कटाईछंटाई करवा दूंगी. कारपेट और सोफे वगैरा भी वैक्यूम क्लीनर से साफ करवा देती हूं, पार्टी…’’

दया और नहीं सुन सकी और भागी हुई बगीचे में पानी देते अपने पति धनीराम के पास पहुंच कर बोली, ‘‘आज रविवार वाला धारावाहिक और फिल्म दोनों गए. मैडम के बाग की कटाईछंटाई, फिर वैक्यूम से घर की सफाई और फिर पार्टी का प्रोग्राम है…’’

‘‘तुझे कैसे पता? मैडम तो अभी बाहर आई ही नहीं,’’ धनीराम बोला.

‘‘फोन पर किसी को आज का प्रोग्राम बता रही थीं. तुम कमरे में जा कर जल्दी से नाश्ता कर आओ. एक बार मैडम ने काम शुरू करवा दिया तो पूरा होने के बाद ही सांस लेंगी और लेने देंगी.’’

तभी बंगले के सामने एक गाड़ी आ कर रुकी.

‘‘ले मिल गई पूरे दिन की छुट्टी. मैडम तो अब सब कुछ भूल कर सारा दिन कमरा बंद कर के प्रेमलता मैडम के साथ ही बतियाएंगी,’’ धनीराम चहकते हुए प्रेमलता के लिए गेट खोलने को लपका.

‘‘आशा कहां है?’’ प्रेमलता ने तेजी से अंदर आते हुए पूछा.

‘‘दया गई है बुलाने. आप बरामदे में बैठेंगी या लौन में?’’

प्रेमलता बगैर कुछ बोले तेजी से बरामदे की सीढि़यां चढ़ने लगी और सामने कमरे से निकलती आशा पर नजर पड़ते ही हाथ में पकड़े रिवौल्वर से आशा के सीने में 5-6 गोलियां दाग दीं और फिर उतनी ही तेजी से अपनी गाड़ी की ओर बढ़ते हुए बोली, ‘‘ड्राइवर, पुलिस स्टेशन चलो.’’

‘‘पुलिस यहीं आ रही है मैडम, मैं ने आप के हाथ में रिवौल्वर देखते ही 100 नंबर पर फोन कर दिया है. आप कहीं नहीं जा सकतीं,’’ हाथ में मोबाइल पकड़े दया का कालेज में पढ़ने वाला बेटा यश प्रेमलता का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया.

‘‘ठीक है, पुलिस स्टेशन जाने और शायद फिर वहां से यहां आने से तो यहीं रुकना बेहतर है,’’ कह कर प्रेमलता ने आशा पर झुकी बदहवास सी दया से कहा, ‘‘वह मर चुकी है, उसे मत छूना दया. तुम्हारे हाथ या कपड़ों पर लगा खून देख कर पुलिस तुम्हें भी हिरासत में ले सकती है.’’

‘‘लेकिन मैडम आप ने अपनी बहन सरीखी सहेली को गोली क्यों मार दी?’’ दया ने रुंधे स्वर में पूछा.

‘‘क्योंकि वह बेवफाई पर उतर आई थी,’’ प्रेमलता ने आवेश में कहा और फिर अपनी जीभ काट ली जैसे न बोलने वाली बात कह गई हो.

तभी पुलिस की जीप आ गई. महापौर प्रेमलता को देखते ही जीप से कूद कर उतरे एएसआई ने उसे सलाम किया.

‘‘संडे सैनसेशन की संपादिका आशालता को मैं ने अपने इसी रिवौल्वर से गोली मारी है. ये सब लोग इस के चश्मदीद गवाह हैं. आप मुझे गिरफ्तार कर लीजिए,’’ प्रेमलता ने रिवौल्वर लिए हाथ आगे बढ़ाए.

‘‘आप जैसी हस्ती को गिरफ्तार करने की मेरी औकात नहीं है, मैडम. मैं अपने सीनियर को फोन कर रहा हूं तब तक आप बैठिए,’’ कह एएसआई धनीराम की ओर मुड़ा, ‘‘कुरसी लाओ मैडम के लिए.’’

‘‘अपने सीनियर के बजाय सीधे एसएसपी अशोक का नंबर मिला कर मुझे दीजिए, मैं स्वयं उन से बात करती हूं,’’ प्रेमलता बोली.

एएसआई ने तुरंत नंबर मिला कर मोबाइल उसे पकड़ा दिया.

‘‘चौंकिए मत अशोक साहब. आप ने ठीक सुना है कि मैं ने आशालता का खून कर दिया है और मैं आत्मसमर्पण कर रही हूं… वजह बताने को मैं बाध्य नहीं हूं… व्यक्तिगत तो है ही… जानती हूं नगर निगम की महापौर ने जानीमानी संपादिका की हत्या की है, हंगामा तो होगा ही. खैर, आप अपने लोगों को कार्यवाही तेज करने को कहिए.’’

इस बीच यश ने आशा की सहायिका स्नेहा को फोन कर दिया था. शीघ्र ही लौन स्नेहा और

उस के सहयोगियों से भरने लगा. चूंकि दया, धनीराम और यश स्नेहा से पूर्वपरिचित थे उन्होंने फोन पर कही आशा की बात, प्रेमलता का आना, गोली मारना और कहना कि वह बेवफाई पर उतर आई थी सभी बातें स्नेहा को बताईं. सिवा उन्हें लाश के पास न जाने देने के एएसआई और कुछ नहीं कर सका. स्नेहा को एक सहयोगी से यह कहते सुन कर कि बेवफाई तो यही हो सकती है कि आशा मैडम प्रेमलता का कोई राज सार्वजनिक करने पर तुली हुई हों, एएसआई ने तुरंत यह बात अपने सीनियर को बताई और उस ने अपने सीनियर को.

प्रेमलता सब से अलग लौन में बैठी थी. उस के सपाट चेहरे पर अगर कोई भाव था तो झुंझलाहट का, क्षोभ या शोक का तो कतई नहीं.

‘‘मैं ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है और अब मैं किसी बात का कोई जवाब नहीं दूंगी स्नेहा, मेरे साथ समय बरबाद करने के बजाय तुम आशा के परिजनों को सूचित कर दो. अगर दिलीप का दुबई का नंबर तुम्हारे पास नहीं है तो मैं बता देती हूं,’’ प्रेमलता ने कहा.

‘‘बोलिए,’’ स्नेहा ने अपना मोबाइल चालू किया.

स्नेहा अभी फोन पर बात कर ही रही थी कि कुछ पुलिस अधिकारी आ गए. इंस्पैक्टर को अपने सहायक को यह कहते सुन कर कि उस नंबर का पता लगाओ जिस पर मरने से कुछ देर पहले आशा बात कर रही थी…

स्नेहा बीच में बोल पड़ी, ‘‘आशाजी दुबई में अपने पति दिलीप से बात कर रही थीं. ऐसा दिलीप सर ने मुझे बताया है और कहा है कि वह जैसे भी होगा शाम से पहले पहुंच जाएंगे.’’

‘‘और शाम को कौन सी पार्टी है?’’

‘‘मुझे तो नहीं पता, लेकिन प्रेमलता मैडम को जरूर मालूम होगा,’’ दया बोली.

प्रेमलता ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘मुझे तो न्योता नहीं मिला और अब जब पार्टी होगी ही नहीं तो क्यों थी या किस के लिए थी इस से अब क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘बहुत फर्क पड़ता है,’’ एसएसपी अशोक की आवाज पर प्रेमलता चौंक पड़ी.

‘‘चलिए, मान भी लिया कि आप ने ‘वह बेवफाई पर उतर आई थी’ जैसा कुछ नहीं कहा था, केवल किसी व्यक्तिगत कारण से हत्या की है कहने से भी काम नहीं चलेगा. हमें तो उस व्यक्तिगत कारण का पता लगा कर सरकार और जनता को सच बताना पड़ेगा. वैसे भी ऐसे हाई प्रोफाइल केस की जांच सीआईडी ही करती है. इसलिए मैं ने सीआईडी कमिश्नर को फोन कर दिया है, क्योंकि आप से कुछ कुबूल करवाने की काबिलीयत मुझ में नहीं है.’’

‘‘लेकिन सीआईडी के हाथों जलील करवाने की तो है ही,’’ प्रेमलता मुसकराई.

‘‘खैर, परवाह नहीं. अब जब नाम वाले हैं तो बदनाम भी जोरशोर से ही होंगे.’’

‘‘अगर अपनी इस बदनामी की वजह मुझे बता देतीं तो मेरा भी नाम हो जाता,’’ अशोक ने उसांस ले कर कहा.

प्रेमलता विद्रूप हंसी हंसी, ‘‘ब्रेफिक्र रहो अशोक, अगर तुम्हें नहीं तो तुम्हारे सीआईडी वालों को भी शोहरत नहीं दिलवाऊंगी.’’

तभी सीआईडी के कमिश्नर की गाड़ी आ गई. स्नेहा ने सभी मीडिया कर्मियों को उन्हें घेरने से रोका. दोनों उच्चाधिकारी आपस में बात कर रहे थे कि इंस्पैक्टर देव अपने सहायक वासुदेव के साथ आ गया. अशोक उसे देख कर चौंके.

‘‘ऐसे पेचीदा केस देव ही सुलझा सकता है अशोक. सो मैं ने तुरंत इसे बुलाना बेहतर समझा,’’ स्नेहा बोली.

‘‘राई का पहाड़ बनाने का शौक है आप लोगों को. 3 चश्मदीद गवाह हैं, रिवौल्वर और मेरा आत्मसमर्पण मिल तो गया है मुझ पर मुकदमा चलाने को… अब इस में पेचीदगी ढूंढ़ने के लिए अपने खास जासूस को लगाने की क्या जरूरत है?’’ प्रेमलता ने पूछा फिर आगे बोली, ‘‘वैसे एक बात बता दूं इंस्पैक्टर देव, मुझे जो कहना था कह दिया. इस से ज्यादा मुझ से तुम कुछ नहीं उगलवा पाओगे.’’

‘‘इंस्पैक्टर देव अपराधी से पूछताछ के बजाय उस से जुड़ी अन्य चीजों की सीढ़ी बना कर सफलता के शिखर पर पहुंचने के लिए जाने जाते हैं,’’ स्नेहा ने कहा.

इंस्पैक्टर देव ने चौंक कर उस की ओर देखा. लंबी, पतली, सांवलीसलोनी खोजी पत्रकार स्नेहा. हमेशा सीआईडी पर कटाक्ष करने वाली स्नेहा आज उस के पक्ष में बोल रही थी.

‘‘दिलीप की अनुपस्थिति में आशा की सब से करीबी तुम ही हो स्नेहा तो तुम्हीं से पूछताछ करनी पड़ेगी,’’ अशोक ने कहा, ‘‘आशा मेरी बीवी की फ्रैंड थी. सो उस के करीबी लोगों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं.’’

‘‘तब तो आप से भी पूछताछ करनी पड़ेगी सर,’’ देव बोला.

‘‘जरूर देव, कभी कहीं भी.’’

‘‘यह सब कर के तुम अपने दोस्त दिलीप को और भी दुखी करोगे अशोक,’’ प्रेमलता ने चुनौती भरे स्वर में कहा.

‘‘उस की जिंदगी का सब से बड़ा दुख तो तुम उसे दे ही चुकी हो. अब हमारे छोटेमोटे झटकों से क्या फर्क पड़ेगा उसे,’’ अशोक देव की ओर मुड़े, ‘‘तो अब तुम संभालो देव, हम चलते हैं. अपनी सहायिका स्नेहा की आशा बहुत तारीफ किया करती थी. निजी तौर पर स्नेहा उस के कितने करीब थी, मैं नहीं जानता पर आशा की इस अप्रत्याशित मृत्यु का रहस्य खोजने में स्नेहा से तुम्हें बहुत सहयोग मिलेगा. दया और धनीराम भी आशा के पास कई सालों से हैं, उन से भी मदद मिल सकती है. बैस्ट औफ लक देव.’’

‘‘थैंक यू सर,’’ देव ने सैल्यूट मारा.

सब के जाने के बाद देव स्नेहा की ओर मुड़ा. वह कुछ लोगों को निर्देश दे रही थी.

‘‘यह हमारे औफिस का स्टाफ है औफिसर, इन सब को औफिस जाने दूं या आप इन से कुछ पूछना चाहेंगे,’’ स्नेहा ने पूछा, ‘‘वैसे तो आज छुट्टी है, लेकिन कुछ लोग आज भी काम पर हैं.’’

‘‘आप की इस टिप्पणी के बाद कि आशा प्रेमलता का कोई राज फाश करने जा रही थीं, हमें आशाजी के औफिस के सभी कागजात चैक करने होंगे और सब से पूछताछ भी…’’

‘‘इस सब के लिए तो मैडम का लैपटौप और आई पैड चैक करना ही काफी होगा,’’ स्नेहा ने बात काटी, ‘‘ये दोनों तो घर पर ही मिल जाएंगे. इस मामले में जब सहायक संपादिका यानी मुझे ही कुछ मालूम नहीं है तो स्टाफ के जानने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘ठीक है, अभी इन लोगों को औफिस जाने दीजिए. जो पूछना होगा हम वहीं आ कर पूछेंगे. आप आशाजी का लैपटौप और आई पैड कहां रखा होगा जानती हैं?’’

‘‘मैं जानता हूं,’’ यश ने आगे आ कर कहा, ‘‘मैडम की स्टडी यानी औफिसरूम में. आप वहीं चलिए सर, आप को वहां बैठ कर अपना काम यानी हम सब से पूछताछ वगैरा करने में आसानी होगी.’’

‘‘यहां हमें क्या करना चाहिए यह दूसरों को हम से ज्यादा मालूम है,’’ देव ने वासुदेव ने कहा.

अपने स्टाफ को भेज कर स्नेहा भी उन के पीछे स्टडीरूम में आ गई.

‘‘मुझे मैडम के पासवर्ड मालूम हैं, क्योंकि कई बार किसी अन्य कार्य में व्यस्त होने पर वे मुझे अपने लैपटौप या आई पैड से कोई फाइल देखने को कहती थीं.’’

‘‘ठीक है, आप देखिए इस विषय में कुछ मिलता है,’’ देव ने कहा, ‘‘तब तक मैं दया के परिवार से पूछताछ करता हूं.’’

‘‘मैडम के भाईबहन वगैरा को हम ने फोन कर दिया है,’’ दया ने बगैर पूछे कहा, ‘‘ससुराल वालों के नंबर हमें मालूम नहीं हैं.’’

‘‘मैडम के मांबाप नहीं हैं?’’

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