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बिखरे हुए रिश्तों में: अपनी गृहस्थी नहीं बचा पाए हीरालाल और डौली

1 दिसंबर, 2017 की रात को एक युवक बदहवास हालत में दिल्ली के करावलनगर थाने पहुंचा. उसके हाथों से खून टपक रहा था. उस ने ड्यूटी अफसर के सामने पहुंच कर कहा, ‘‘साहब, मुझे गिरफ्तार कर लो, मैं ने अपनी बीवी का कत्ल कर दिया है.’’

युवक की बातें सुन कर ड्यूटी पर तैनात एएसआई सतीश पाल चौंके. उन्होंने हैरत से उस की ओर ध्यान से देखते हुए पूछा, ‘‘लाश कहां है?’’

‘‘मेरे घर में.’’

युवक ने अपना नाम हीरालाल और पता शिव विहार, गली नंबर-6, मकान नंबर 846 बताया. साथ ही यह भी बताया कि उस ने पत्नी को मारने के बाद आत्महत्या करने की कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया और थाने आ गया.

हीरालाल की बात सुन कर एएसआई सतीश पाल ने थाने के डीडी नंबर 20ए में सूचना दर्ज कर दी. पुलिस ने पहले हीरालाल के घायल हाथ की मरहमपट्टी कराई. फिर थाने में मौजूद सबइंसपेक्टर इंद्रवीर कांस्टेबल अनुज को साथ ले कर घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. हीरालाल उन के साथ था.

सबइंसपेक्टर इंद्रवीर शिवविहार स्थित हीरालाल के घर पहुंचे. वहां बैडरूम में डबलबैड पर एक औरत की लाश पड़ी थी. लाश के पास 3 बच्चे गुमशुम बैठे थे. बच्चों को वहां से उठा कर दूसरी जगह बिठा दिया गया. इस के बाद एसआई इंद्रवीर ने लाश का मुआयना शुरू किया. मृतका के चेहरे और कंधों पर ताजा खरोंचों के निशान थे. लाश को देखने के बाद उन्होंने थानाप्रभारी रविकांत के मोबाइल पर फोन कर के हत्या की सूचना दे दी.

थोड़ी देर में थानाप्रभारी रविकांत, अतिरिक्त थानाप्रभारी नरेंद्र कुमार और पुलिस टीम के साथ वहां पहुंच गए. लाश का बारीकी से मुआयना करने पर उन्होंने देखा कि मृतका के गले पर गहरे रंग के निशान थे. कमरे की हालत देख कर ऐसा लग रहा था जैसे मारने के पहले मृतक के साथ बड़ी बेदर्दी से मारपीट की गई हो.

मृतका का पति हीरालाल सिर झुकाए खड़ा था. थानाप्रभारी ने उसे गिरफ्तार करने का आदेश दिया. इस के तुरंत बाद उसे हिरासत में ले लिया गया. घटनास्थल की तलाशी के दौरान वहां पर 6 शेविंग ब्लेड और मच्छर मारने वाली दवा मोर्टिन की 3 खाली शीशी मिलीं. हीरालाल ने बताया कि उस ने मोर्टिन पी कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी.

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थानाप्रभारी रविकांत ने क्राइम टीम को भी घटनास्थल पर बुला लिया. क्राइम टीम ने घटनास्थल के फोटो लिए और जरूरी साक्ष्य एकत्र किए. प्राथमिक काररवाई के बाद लाश को पोस्टमार्टम के लिए जीटीबी अस्पताल भेज दिया गया.

थाने लौट कर थानाप्रभारी ने इस घटना की सूचना मृतका के उत्तर प्रदेश स्थित मायके को दी और उन से जल्दी दिल्ली पहुंचने के लिए कहा. चूंकि आरोपी हीरालाल की कलाई कुछ ज्यादा घायल थी, इसलिए उसे इलाज के लिए शाहदरा के जीटीबी अस्पताल में एडमिट करा दिया गया.

उसी दिन डौली की हत्या का केस भादंवि की धारा 302 के तहत दर्ज कर लिया गया. केस में हीरालाल को नामजद अभियुक्त बनाया गया. जांच की जिम्मेदारी थानाप्रभारी रविकांत ने खुद संभाली.

रविकांत को मृतका डौली के मायके वालों के आने का इंतजार था. वे लोग जिला अलीगढ़, उत्तर प्रदेश के गांव बरौली के रहने वाले थे और दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे. अगले दिन मृतका डौली के पिता राकेश कुमार और मां कुसुमा देवी करावलनगर थाने पहुंच कर इंसपेक्टर रविकांत से मिले.

उन्होंने अपने दामाद हीरालाल पर आरोप लगाया कि वह उन की बेटी से पहले भी मारपीट करता था. मार्च, 2017 में भी एक बार उस ने डौली की हत्या करने की कोशिश की थी, लेकिन सही समय पर उपचार मिल जाने से उस की जान बच गई थी.

थानाप्रभारी रविकांत ने उन्हें एक कांस्टेबल के साथ जीटीबी अस्पताल की मोर्चरी भेज दिया, जहां डौली की लाश रखी थी. शिनाख्त की औपचारिक काररवाई के बाद लाश का पोस्टमार्टम किया गया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डौली की हत्या की वजह दम घुटना बताया गया. पोस्टमार्टम के बाद डौली की लाश उस के पिता राकेश कुमार को सौंप दी गई. राकेश कुमार ने उसी दिन कुछ रिश्तेदारों की मदद से डौली का अंतिम संस्कार कर दिया.

एक दिन बाद हीरालाल जब अस्पताल से डिस्चार्ज हुआ तो उसे डौली की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. थानाप्रभारी रविकांत ने हीरालाल से डौली की हत्या का कारण जानने के लिए काफी देर तक पूछताछ की. हीरालाल ने पुलिस को डौली की हत्या के पीछे की जो कहानी बताई, वह कुछ इस तरह थी—

हीरालाल और डौली की शादी जनवरी 2007 में हुई थी. बाद में दोनों के 3 बच्चे हुए, जिन में 2 लड़के थे और एक लड़की.

हीरालाल भजनपुरा की चार्जर बनाने वाली एक फैक्ट्री में प्लंबर का काम करता था. उस की पगार बस इतनी थी कि जैसेतैसे गुजारा हो जाए. जबकि डौली चाहती थी कि उस का पति उसे सुखसुविधा के वे सारे साधन खरीद कर दे, जो घरगृहस्थी के लिए जरूरी होते हैं. जबकि उस की थोड़ी सी पगार में यह संभव नहीं था.

अभावों को ले कर पति-पत्नी के बीच आए दिन कलह होने लगी. दोनों के बीच जब संबंध ज्यादा तल्ख हुए तो डौली आंतरिक संबंधों में हीरालाल से दूरी बनाने लगी. डौली की इस हरकत से वह परेशान रहता था. फलस्वरूप दोनों के बीच खटास बढ़ती गई.

काफी प्रयासों के बाद भी हीरालाल डौली को नहीं मना सका. अब डौली बिना बताए घर से गायब भी रहने लगी थी. इस से हीरालाल को लगने लगा कि उस ने किसी के साथ अवैध संबंध बना लिए हैं. वह सोचता था कि उस के फैक्ट्री चले जाने के बाद वह किसी से मिलने बाहर जाती है. ऐसा इसलिए कि घंटों बाद जब वह घर लौटती थी तो नशे में होती थी. लेकिन डौली उस के इन आरोपों को गलत बताती थी.

18 मार्च, 2017 को भी डौली काफी देर से घर लौटी थी. हीरालाल पहले से ही परेशान था. उसे डौली का रोजरोज देर से घर लौटना पसंद नहीं था. वह आपे से बाहर हो कर उस के साथ मारपीट करने लगा. डौली ने विरोध किया तो उस ने उसे गालियां देते हुए फर्श पर पटक दिया.

लात और घूंसे बरसाने के बाद हीरालाल ने जबरन डौली को मच्छर मारने वाली दवा मोर्टिन की 2 शीशियां पिला दीं. डौली ने किसी तरह खुद को हीरालाल के चंगुल से छुड़ाया और अपने मोबाइल से 100 नंबर पर फोन कर दिया.

फलस्वरूप पुलिस आ गई और डौली की शिकायत पर थाना करावलनगर में हीरालाल के खिलाफ भादंवि की धारा 323, 341, 352, 328 के तहत मामला दर्ज कर लिया गया. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया.

कोर्ट ने उसे 18 दिन के लिए जेल भेज दिया. डौली का अस्पताल में इलाज कराया गया. ठीक होने के बाद उस के पिता राकेश कुमार उसे अपने साथ गांव ले गए. बच्चे कुछ दिनों तक हीरालाल के रिश्तेदारों के पास रहे. जब हीरालाल जेल से छूटा तो वह बच्चों को अपने घर ले आया.

डौली अपने मायके में रह रही थी. हीरालाल के खिलाफ उस का केस महिला अपराध शाखा में चलने लगा. पति के व्यवहार से उस का दिल टूट चुका था. अब वह उस से तलाक ले कर अलग हो जाना चाहती थी.

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लेकिन हीरालाल ने डौली के मायके जा कर उस से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी. उस ने तीनों बच्चों को पालने की दुहाई दे कर डौली के ऊपर कभी हाथ न उठाने की कसम भी खाई. इस से डौली को उस पर दया आ गई.

वैसे भी डौली के लिए अकेले जीवन गुजारना मुमकिन नहीं था. मांबाप भी आखिर कब तक उस का साथ दे सकते थे. आखिर उस ने हीरालाल को माफ कर दिया. हीरालाल ने अपने सासससुर से भी अपने किए के लिए माफी मांगी और बरेली से दिल्ली लौट आया.

दिल्ली की महिला अपराध शाखा में 7 महीने तक केस चलने के बाद दोनों के बीच सुलह हो गई.

कुछ दिनों तक दोनों की जिंदगी सामान्य गति से चलती रही. लेकिन जल्द ही डौली का मन हीरालाल से भर गया. एक बार फिर हीरालाल और उस में आए दिन झगड़ों का सिलसिला शुरू हो गया.

1 दिसंबर, 2017 की सुबह हीरालाल काम पर चला गया था. दोपहर 2 बजे जब वह घर लौटा तो उसे जोरों की भूख लगी थी. उस ने डौली को जल्दी से खाना निकालने के लिए कहा. डौली ने दूसरी तरफ देखते हुए बेरुखी से बताया कि उस ने तबियत खराब होने की वजह से खाना नहीं बनाया है.

उस के खाना न बनाने की बात सुन हीरालाल गुस्से से लालपीला हो गया. उस ने डौली के ऊपर आरोप लगाया कि उसे मोबाइल पर यारों से बात करने से फुरसत मिले तो खाना बनाए. डौली ने भी अपनी गलती मानने की जगह कहा कि वह खाना नहीं बनाएगी, उसे जो करना हो कर ले.

यह सुन कर वह आपे से बाहर हो कर डौली पर टूट पड़ा. डौली ने खुद को बचाने की काफी कोशिश की पर हीरालाल के सिर पर जैसे खून सवार था. उस ने तीनों बच्चों को कमरे में बंद कर दिया, फिर डौली की बुरी तरह पिटाई करने के बाद उस का गला घोंटने लगा.

डौली ने उस का विरोध कर के खुद को बचाने का पूरा प्रयास किया, लेकिन आखिर में वह हार गई. उस की हत्या करने के बाद हीरालाल ने उस की लाश को बैड पर लिटा दिया. इस के बाद उस ने कमरा खोल कर बच्चों को बाहर निकाला तो तीनों बच्चे मम्मी की लाश के पास जा कर बैठ गए. बच्चे समझ रहे थे कि पिटाई की वजह से उन की मम्मी बेहोश हो गई है.

डौली की हत्या करने के बाद हीरालाल ने पुलिस के डर से पहले तो मच्छर मारने की दवा पी कर जान देने की कोशिश की. जब इस से उस की मौत नहीं हुई तो उस ने शेविंग ब्लेड से कलाई की नस काट ली. कलाई में ज्यादा दर्द हुआ तो उस के सिर से सुसाइड करने का भूत उतर गया.

काफी सोचविचार के बाद उस ने सरेंडर करने का मन बनाया और थाना करावलनगर जा कर अपना अपराध स्वीकार कर लिया. 4 जनवरी को उसे डौली की हत्या के आरोप में कड़कड़डूमा अदालत में पेश किया गया, जहां से उसे 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया.

बरबाद हो गया श्रीलंका

श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रवाद की आंधी पैदा की, बहुसंख्यक समुदाय में उन्माद जगाया, अच्छे दिनों के सब्जबाग दिखाए और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत को हवा दी. नतीजा बरबादी. आखिरकार वहां की जनता ने अपने देश के किंग को कुरसी से खींच कर जमीन पर दे पटका. मगर तब तक महिंदा राजपक्षे के परिवार ने देश का जो नुकसान कर दिया उस की भरपाई करने में देश को 10-15 साल लगेंगे.

श्रीलंका बहुत बड़ा नहीं है. बेहद छोटा सा देश है, जिस में 9 राज्य और 25 जिले ही हैं. श्रीलंका की आबादी मात्र 2 करोड़ है और यह आबादी बिलकुल वैसी ही बंटी हुई है जैसे भारत में आज हिंदू और मुसलमान बंटे हैं. 75 प्रतिशत सिंहली संप्रदाय, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी है, यहां का बहुसंख्यक वर्ग है और 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक तमिल हैं जो हिंदू धर्म को मानते हैं.

दोनों संप्रदायों की आपस में बनती नहीं है. दरअसल राजनीति इन्हें अलग रख कर अपना गेम खेलती है. अब तक सत्ता पर काबिज राजपक्षे परिवार ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई, बिलकुल वैसी ही जैसी भारत के राजनीतिबाज करते हैं. कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति श्रीलंका में खूब हुई मगर बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत पैदा कर के श्रीलंका में अपनी राजनीति चमकाने वालों का हश्र आज सारी दुनिया देख रही है.

श्रीलंका में पिछले दिनों जो हुआ वह संपूर्ण एशिया के लिए एक चेतावनी है. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने देश को गंभीर आर्थिक संकट के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया और फिर हालात न संभाल पाने व देश को अराजकता के गर्त में डुबोने के बाद आखिरकार जनता ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. वहां हालात इतने बिगड़ गए कि उन्हें परिवार सहित जान बचा कर छिपना पड़ा.

राजपक्षे के इस्तीफे से पहले और बाद में उन के समर्थकों व विरोधियों के बीच जम कर हिंसा हुई, जिस में महिंदा राजपक्षे सहित 13 मंत्रियों के घर फूंक दिए गए और एक सांसद सहित कई लोग मार डाले गए. राजपक्षे की पुश्तैनी संपत्तियां भी प्रदर्शनकारियों ने फूंक डालीं. महिंदा राजपक्षे अपने परिवार को ले कर नेवी के किसी बेस में जा छिपे और अब यह खबर है कि परिवार के सदस्यों को चुपचाप सिंगापुर भेज दिया गया है.

राष्ट्रवाद का उन्माद

ये वही महिंदा राजपक्षे हैं जो श्रीलंका में बहुसंख्यकों को राष्ट्रवाद की चटनी चटा कर 2019 में सत्ता पर काबिज हुए थे. उन की सत्ता हासिल करने की कहानी दिलचस्प है और कुछ हद तक भारत से मिलतीजुलती है. महिंदा राजपक्षे ने बहुसंख्यक सिंहलियों को एकजुट कर उन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का जहर भरा. जगहजगह अल्पसंख्यकों पर हमले करवाए. तमिलों को आतंकवादी घोषित करवाने में महिंदा राजपक्षे ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

महिंदा को प्रधानमंत्री की कुरसी भी इसलिए मिली क्योंकि उन की अगुआई में लिट्टे के चीफ वेलुपिल्लई प्रभाकरन को 2009 में खत्म किया गया था. प्रभाकरन तमिलियन्स का जांबाज नेता था जिस ने श्रीलंका में सताए जा रहे अल्पसंख्यक तमिल हिंदुओं के लिए अलग तमिल राष्ट्र की मांग की थी. अपने लिए अलग देश की मांग करने वाले लिट्टे के इस आंदोलन या खूनी संघर्ष में तब तक एक लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे.

खैर, प्रभाकरन की मौत के बाद वह आंदोलन खत्म हो गया और अधिकांश तमिल अपनी जान बचा कर भारत आ गए और यहां शरणार्थियों के तौर पर बस गए. अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढाने वाले महिंदा राजपक्षे ने खुद को बहुत बड़ा राष्ट्रवादी घोषित कर लिया और 2010 में राष्ट्रपति चुनाव भारी बहुमत से जीत कर कानून की तमाम शक्तियों को संविधान संशोधन कर के अपने हाथ में ले लिया. लेकिन कट्टरता और ध्रुवीकरण का खेल ज्यादा समय तक चल नहीं पाया और अपनी गलत नीतियों के कारण महिंदा राजपक्षे 2015 में चुनाव हार गए.

राजपक्षे की नीतियों के खिलाफ 2014 में बड़ी संख्या में लोगों ने यूनाइटेड नैशन कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. तब पश्चिमी देशों और मानवाधिकार संगठनों ने भी राजपक्षे को तमिल कम्युनिटी के खिलाफ बताते हुए उन की नीतियों की कड़ी निंदा की थी. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे का सितारा एक बार फिर चमका जब उन के भाई गोयबाटा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति नियुक्त हुए. उन्होंने तुरंत ही महिंदा राजपक्षे को एक बार फिर प्रधानमंत्री बना दिया. राजपक्षे परिवार का एक भाई राष्ट्रपति, दूसरा भाई प्रधानमंत्री और परिवार के अन्य सदस्यों ने सारे मलाईदार महकमे आपस में बांट लिए. इस तरह राजकोष के 70 फीसदी पर राजपक्षे परिवार ने अपना कब्जा जमा लिया.

बीते 3 सालों के दौरान महिंदा राजपक्षे ने अपने फरेबी बयानों और बड़ेबड़े वादों से राष्ट्रवाद की ऐसी आंधी पैदा की जिस में देश का बहुसंख्यक समुदाय एक बार फिर उन्मादी हो उठा. राजपक्षे ने उन्हें ‘अच्छे दिनों’ के सब्जबाग दिखाए और अल्पसंख्यक तमिलों तथा मुसलमानों के प्रति नफरत को हवा दी. लेकिन खुद को बड़ा राष्ट्रवादी बताना और राष्ट्र को सफलतापूर्वक चलाना दो अलग बातें हैं.

अगर राष्ट्र को चलाने की सही नीति योजना आप नहीं बना पाए तो आप के राष्ट्रवादी होने का कोई फायदा नहीं है और यही हुआ है श्रीलंका में. लोग कहते हैं कोरोना ने श्रीलंका को डुबो दिया है, मगर सचाई यह है कि कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति ने श्रीलंका को बरबाद कर दिया. राजपक्षे कर्ज ले कर घी पीते रहे और खुद को राष्ट्रवादी दिखाने के चक्कर में देश की जनता को आपस में लड़ाते रहे.

राष्ट्रवाद की चटनी बहुत समय से चाटचाट कर श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी जब भीतर से खोखली हो गई और जब श्रीलंका दानेदाने को मुहताज हो गया तो ‘राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री’ को गद्दी से उखाड़ फेंकने के लिए वही बहुसंख्यक समाज अपने घरों से बाहर निकल पड़ा. सड़कों पर राजपक्षे सरकार के खिलाफ प्रदर्शन और हिंसा की घटनाएं होने लगीं. राष्ट्रवाद की सारी बातें हवा हो गईं और जनता ने गुस्से में आ कर जगहजगह आगजनी व तोड़फोड़ करना शुरू कर दिया.

पेट की आग के आगे राष्ट्रवाद, धर्म, संप्रदाय सब बौने पड़ गए. सड़कों पर बहुसंख्यक सिंहली ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक तमिल, मुसलिम, ईसाई सब एकसाथ आ जुटे इस ‘राष्ट्रवादी’ को सिंहासन से खींच कर जमीन पर पटकने के लिए. सब ने मिल कर अपने उसी प्रधानमंत्री का घर घेर लिया, जिसे वे ‘किंग’ कहते थे. जिस के राष्ट्रवादी गीत वहां के टैलीविजन पर बजते थे. जिस ने देश की संसद में नहीं, बल्कि बौद्ध मंदिर में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. दरअसल कट्टरता वह कोढ़ है जो किसी भी देश को भीतर ही भीतर बरबाद कर देता है. इस में कोई शक नहीं कि श्रीलंका बरबाद हो चुका है.

महिंदा राजपक्षे के गलत फैसले

श्रीलंका 1948 में ब्रिटेन से आजाद हुआ. वहां आर्थिक संकट समयसमय पर मुंह उठाते रहे मगर पर्यटन उद्योग और चायमसालों की बेहतरीन खेती ने उस को संभाले रखा. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद कृषि और पर्यटन दोनों ही उद्योग तेजी से गर्त में जाने लगे. राजपक्षे सरकार ने तमिल हिंदुओं की मेहनत पर तो कभी भरोसा किया ही नहीं, जबकि मछली और चाय के उद्योग में वे ही सब से ज्यादा मेहनत कर रहे थे.

मछली उद्योग तो तमिलियन ही करते थे और तमिलियन हिंदुओं को राजपक्षे सरकार आतंकी घोषित करने पर तुली हुई थी. अल्पसंख्यकों के प्रति इस नफरती व्यवहार को देख कर मानवाधिकार आयोग तक को यह कहना पड़ गया था कि पीटीए यानी प्रिवैंशन औफ टेररिज्म एक्ट का गलत इस्तेमाल तमिल हिंदुओं और मुसलमानों के खिलाफ हो रहा है. मगर महिंदा राजपक्षे पर इन बातों का कोई असर नहीं था. चाय, मछली और टूरिस्ट जिन 3 पहियों पर श्रीलंका चल रहा था, इन तीनों के लिए ही राजपक्षे ने कई गलत फैसले ले लिए.

महिंदा राजपक्षे के अदूरदर्शी फैसलों के चलते किसानों को जैविक खेती के लिए मजबूर किया जाने लगा और उन को यूरिया, रासायनिक खाद व कीटाणुनाशक पदार्थों की सप्लाई पूरी तरह रोक दी गई. जैविक खेती की जिद से उत्पादन औंधे मुंह गिरा, किसानों को उन की फसल की लागत भी नहीं मिली और अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ गई.

दरअसल महिंदा राजपक्षे सरकार ने देश के किसानों से बात किए बगैर अत्यंत गैरजिम्मेदाराना तरीके से अचानक पूरी तरह से जैविक खेती की ओर आगे बढ़ने का फैसला ले लिया और रासायनिक खाद पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. देश को आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर में यूरिया का आयात बंद कर दिया गया. कीटाणुनाशकों के आयात पर भी रोक लगा दी गई, जिस के चलते कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ. किसानों की कमर टूट गई और खाद्यान्न की कीमतें बेतहाशा बढ़ने लगीं. इस तरह अनाज, दालें, सब्जी और चाय की पैदावार और निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ. लोगों के पास खाने तक का अनाज नहीं बचा. हालांकि जैविक खेती में कोई बुराई नहीं है लेकिन इसे अचानक अंजाम देना और किसानों को इस के लिए मजबूर करना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती.

उधर कोरोना महामारी के कारण देश का पर्यटन उद्योग चौपट हो गया और विदेशी मुद्रा के स्रोत ठप हो गए. गौरतलब है कि श्रीलंका, जो चारों तरफ समुद्र से घिरा एक सुंदर देश है, की पर्यटन से सब से ज्यादा कमाई होती है. मगर गर्त हो चुकी अर्थव्यवस्था और कोरोना के कारण अब हालत इतनी जर्जर हो गई है कि लगता नहीं कि आने वाले कई सालों तक सैलानी अब उधर का रुख भी करेंगे.

साल 2018 में श्रीलंका में 23 लाख पर्यटक आए थे. वर्ष 2019 में 19 लाख मगर 2020 में जब कोविड शुरू हुआ तो यह संख्या घट कर 1.94 लाख रह गई. सैलानी नहीं आए तो लोगों की कमाई भी ठप हो गई. सरकारी नीतियां ठीक होतीं तो इस स्थिति से श्रीलंका 2021 के अंत तक उबर आता, मगर देश की गिरती अर्थव्यवस्था को राजपक्षे सरकार संभाल ही नहीं पाई. महान बनने के चक्कर में महिंदा राजपक्षे ने टैक्स भी आधा कर दिया जिस से देश का खजाना खाली हो गया.

अब श्रीलंका की यह हालत है कि उस के लिए अंतर्राट्रीय ऋण चुकाना भी मुश्किल हो गया है. राजपक्षे सरकार ने मजबूर हो कर कई चीजों के आयात पर बैन लगा दिया. इस वजह से देश में कई आवश्यक चीजों की भारी कमी हो गई, महंगाई दर बहुत ऊपर चली गई और देशभर में भयानक बिजली संकट भी पैदा हो गया. श्रीलंका में तेल की खपत 1.30 लाख बैरल प्रतिदिन है, मगर आ रहा था मात्र 0.30 लाख बैरल. इन्ही वजहों के चलते जरूरी चीजों की कीमतों में आग लग गई. गेहूं 200 रुपए किलो, चावल 220 रुपए किलो, चीनी 7,240 रुपए किलो, नारियल का तेल 850 रुपए लिटर. एलपीजी का सिलैंडर 4,200 रुपए का. एक अंडे की कीमत 30 रुपए और 100 रुपए में चाय की एक प्याली लोगों को बमुश्किल नसीब हो रही थी.

आखिर लोग जाएं तो कहां जाएं, खाएं तो क्या खाएं. दुकानों पर लंबीलंबी कतारें, जरूरी चीजों की बेतरह किल्लत, लोगों के आय के स्रोत बंद. पर्यटन जो श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत था, गरम मसाले और चाय जो निर्यात की प्रमुख वस्तुएं थीं, महिंदा राजपक्षे सरकार की गलत नीतियों के चलते सब पर भारी गाज गिरी. चारों तरफ हाहाकार मच गया, जो सत्ता परिवर्तन के बाद भी अभी थमा नहीं है.

राजपक्षे सरकार की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि उस ने चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया. चीन ने श्रीलंका को बढ़बढ़ कर कर्ज दिया और फिर धीरेधीरे उस के बंदरगाहों को हथिया लिया. यों तो श्रीलंका को भारत समेत कई अन्य देशों ने भी कर्ज दिया है मगर उन की नीतियां साम्राज्यवादी नहीं हैं.

श्रीलंका को दिए कर्ज में करीब 15 फीसदी कर्ज चीन का है. वर्ल्ड बैंक और एडीबी व अन्य देशों का 9-9 फीसदी तथा मार्केट का 47 फीसदी. भारत का अंश मात्र 2 प्रतिशत है. बता दें कि श्रीलंका के ऊपर 56 अरब डौलर का विदेशी कर्ज है. इस भारीभरकम कर्ज के कारण ही श्रीलंका का मुद्रा भंडार 3 सालों में 8,884 मिलियन डौलर से घट कर 2,311 मिलियन डौलर पर आ गया. करीब 2 अरब डौलर तो श्रीलंका को केवल ऋण का ब्याज चुकाने के लिए ही चाहिए.

यदि समय पर ब्याज अदायगी न हुई तो जुलाई में उस को डिफौल्टर घोषित किया जा सकता है और यदि ऐसा हुआ तो श्रीलंका के लिए स्थिति बेहद नाजुक हो जाएगी. वहीं श्रीलंका ने अब आईएमएफ से करीब 4 अरब डौलर के कर्ज को ले कर बातचीत की है, जो कुछ सार्थक भी रही है, लेकिन श्रीलंका की समस्या केवल इस से ठीक होने वाली नहीं है.

नए प्रधानमंत्री के आगे चुनौतियां

इस में शक नहीं कि श्रीलंका इन दिनों बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा है. वर्ष 2018-19 में प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे ने देश की कमान अपने हाथों में तो ले ली है मगर सच पूछें तो इस बार उन्होंने कांटों का ताज पहना है. महिंदा राजपक्षे की गलतियों के अंबार के कारण उन के सामने कई बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं. उन्होंने ऐसे समय में देश की बागडोर संभाली है जब देश में चारों तरफ अराजकता व्याप्त है.

राजपक्षे सरकार को ले कर लोगों में गुस्सा अभी भी उफान पर है. राष्ट्रपति पद पर अभी भी राजपक्षे परिवार का व्यक्ति ही आसीन है जो जनता को खटक रहा है. वहीं देश की माली हालत इस कदर खराब हो चुकी है कि इस का कुछ समय के अंदर ही समाधान हो जाएगा, ऐसा कह पाना काफी मुश्किल है. यह दौर कब खत्म होगा, आमजन के लिए स्थितियां कब तक सामान्य होंगी, चीजों के दाम कब कम होंगे, इस सब को ले कर असमंजस बना हुआ है और उम्मीद की किरण अभी दूरदूर तक नजर नहीं आ रही है.

परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. आर्थिक संकट, प्रशासकीय विफलता, व्यापक भ्रष्टाचार, जनअसंतोष और गलत नेतृत्व ने एक सुंदर प्रायद्वीप के सामने अभूतपूर्व विषम संकट पैदा कर दिया है. राजपक्षे बंधुओं द्वारा पैदा की गई आर्थिक बरबादी, अशांति, अदूरदर्शी नीतियां, जरूरी चीजों की किल्लत, परिवारवाद, नफरत और भ्रष्टाचार ने श्रीलंका को ऐसे गर्त में धकेल दिया है जिस से उबरने में कई बरस लग जाएंगे.

नए प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के सामने सब से बड़ी चुनौती घरेलू समस्या को हल करना है. यदि श्रीलंका को विदेशी संस्थानों से कर्ज मिल भी जाता है तो भविष्य में उस को चुकाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. जनता पर कई नए कर लगाए जा सकते हैं या मौजूदा करों को ही बढ़ाया जा सकता है. इस के अलावा कई ऐसे कदम भी उठाने पड़ सकते हैं जो लोगों को नागवार गुजरेंगे. ऐसे में विक्रमसिंघे को देशवासियों की तरफ से आने वाली विपरीत प्रतिक्रिया का सामना भी करना पड़ेगा.

इस में शक नहीं कि चुनौतियां कठिन हैं और समय प्रतिकूल है. हालांकि विक्रमसिंघे श्रीलंका में बड़े कद के नेता होने के साथ पहले भी प्रधानमंत्री पद संभाल चुके हैं. जानकार मानते हैं कि वे एक ऐसा चेहरा हैं जो फौरीतौर पर राहत दिलाने में कामयाब हो सकते हैं. रनिल को प्रधानमंत्री बनाने का राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे का फैसला निहायत ही चतुराईभरा सियासी फैसला है.

73 वर्षीय विक्रमसिंघे अनुभवी और सर्वस्वीकार्य नेता हैं. उन की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय छवि भी काफी अच्छी है. वे इस डूबते जहाज को तूफान से बाहर निकाल सकते हैं. औब्जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफैसर हर्ष वी पंत का कहना है, ‘‘राष्ट्रपति गोटबाया के सामने विक्रमसिंघे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था. विक्रमसिंघे पश्चिमी देशों के समर्थक माने जाते हैं. इसलिए वे आईएमएफ से कर्ज को ले कर चल रही बातचीत में भी एक बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं.’’

देश में मौजूदा समय में एक स्थिर सरकार के अलावा एक ऐसा व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर होना जरूरी है कि जिस से वित्तीय संस्थान बात कर कर्ज के नियमों को तय कर सकें. इस के अलावा विक्रमसिंघे भारत को ले कर भी सकारात्मक रवैया रखते हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रपति गोटबाया ने बड़ी सोचसम?ा के साथ शतरंजी चाल चली है. विक्रमसिंघे को सत्ता सौंप कर उन्होंने अपने परिवार और अपने प्रति जनता के रोष पर भी ठंडे पानी के छींटे मारने की कोशिश की है. साथ ही, यह चालाकी भी साफ नजर आती है कि स्थितियां नहीं सुधरीं तो सारा ठीकरा विक्रमसिंघे के सिर पर फोड़ा जा सकेगा.

हालांकि श्रीलंका की इस बरबादी से एक खुशखबरी भी जरूर निकल कर आई है जिस से अन्य देशों को भी सबक ले लेना चाहिए, खासतौर से भारत को. खुशखबरी यह है कि श्रीलंका में दशकों से एकदूसरे से लड़ रहे बौद्ध बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक हिंदू तमिल और मुसलमान सब आज एक हो गए हैं. जो काम सदियां नहीं कर पाईं वह काम भूख के कारण घरघर से उठती सिसकियों ने कर दिया है.

श्रीलंका में जिस महिंदा राजपक्षे का कोई विकल्प नहीं दिखता था, आज उसी को वहां की जनता फूटी आंख नहीं देखना चाहती. राजपक्षे ने राष्ट्रवाद की घुट्टी पिला कर श्रीलंका को बरबाद कर दिया, दानेदाने को मुहताज किया और एक खुशहाल देश को दुनिया के सामने डिफौल्टर बना कर खड़ा कर दिया, हाथ में कटोरा पकड़ा दिया.

एक ऐसा देश जिस के पास उधार का ब्याज चुकाने तक को पैसे नहीं हैं, जिस के पास अपने नागरिकों को खिलाने के लिए अन्न नहीं है. अन्न छोडि़ए, एक कप चाय भी वहां दो वक्त के भोजन से ज्यादा महंगी है. देश बरबाद होने के बाद श्रीलंका के लोगों को अब यह अक्ल आई है कि ‘राष्ट्र्रवादी’ या ‘धर्मवादी’ देश व देशवासियों के लिए हितकारी नहीं होता, बल्कि जो देश को चलाने में सक्षम हो, जो प्यारमोहब्बत का माहौल बनाए, जो हकीकत में सब को साथ ले कर चले, वही देश का नेतृत्व करने के लायक होता है, वही लीडर होता है.

अंधेर नगरी का इंसाफ: अंबिका और यशोधर के बीच क्या हुआ

मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, साधारण से भी कम कह सकते हो. मेरे पिता बढ़ई थे, वह भी गांवनुमा छोटे से एक कसबे में. बड़ी मुश्किल से रोजीरोटी का जुगाड़ हो पाता था. मां और बाबा दोनों का एक ही सपना था कि बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपना जीवन स्तर सुधार लें. अत: वे अपना पैतृक मकान छोड़ महानगर में आ बसे. नगर के इस हिस्से में एक नई कालोनी बन रही थी और बड़े जोरशोर से निर्माण कार्य चल रहा था. अनेक बहुमंजिला इमारतें बन चुकी थीं व कुछ बननी बाकी थीं. बाबा को रहने के लिए एक ऐसा प्लौट मिल गया, जो किसी ने निवेश के विचार से खरीद कर उस पर एक कमरा बनवा रखा था ताकि चौकीदारी हो सके.

इस तरह रहने का ठिकाना तो मिला ही, खाली पड़ी जमीन की सफाई कर मां ने मौसमी सब्जियां उगा लीं. कुछ पेड़ भी लगा दिए. बाबा देर से घर लौटते और कभी ठेके का काम मिलने पर देर तक काम कर वहीं सो भी जाते. हमारे परिवार में स्त्रियों को बाहर जा कर काम करने की इजाजत नहीं थी. अत: मां घर पर ही रहतीं. घर पर रह कर ही कड़ा परिश्रम करतीं ताकि बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का उन का सपना पूरा हो सके. हालांकि कई बार इस के लिए मां को परिवार वालों के कटुवचन भी सुनने पड़ते थे.

मुझे याद है, ताऊजी गांव से आए हुए थे. बाबा तो दिन भर काम में व्यस्त रहते अत: वे मां को ही समझाया करते, ‘‘बहुत हो चुकी देवाशीष की पढ़ाई, अब उस से कहो, बाप के साथ काम में हाथ बंटाए ताकि उसे भी कुछ आराम मिल सके. कब तक वह अकेला सब को बैठा कर खिलाता रहेगा. आगे तुम्हें 3 बच्चों की शादी भी करनी है. पता है कितना खर्च होता है बेटी के ब्याह में?’’

मां ताऊजी के सामने ज्यादा बात नहीं करती थीं. वे दबी जबान से मेरा पक्ष लेते हुए बोलीं, ‘‘पर देवाशीष तो अभी आगे और पढ़ना चाहता है… बहुत शौक है उसे पढ़ने का…’’

‘‘ज्यादा पढ़ कर उसे कौन सा इंजीनियर बन जाना है,’’ ताऊजी क्रोध और व्यंग्य मिश्रित स्वर में बोले, ‘‘उलटे अभी बाप के साथ काम में लगेगा तो काम भी सीख लेगा.’’

ताऊजी के शब्द मेरे कानों में कई दिन तक प्रतिध्वनित होते रहे. ‘पढ़लिख कर कौन सा उसे इंजीनियर बन जाना है… पढ़लिख कर…’ और मन ही मन मैं ने इंजीनियर बन जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया. मैं हमेशा ही ताऊजी का बहुत सम्मान करता आया हूं. अपनी तरफ से तो वह परिवार के हित की ही सोच रहे थे लेकिन उन की सोच बहुत सीमित थी.

मुझ से छोटी एक बहन और एक भाई था. बड़ा होने के नाते बाबा का हाथ बंटाने की मुझ पर विशेष जिम्मेदारी थी, पर पढ़नेलिखने का मुझे ही सब से अधिक शौक था. अत: मांबाबा का सपना भी मैं ही पूरा कर सकता था और मांबाबा का विश्वास कायम रखने के लिए मैं दृढ़ संकल्प के साथ शिक्षा की साधना में लग गया.

सब पुस्तकें नहीं खरीद पाता था. कुछ तो पुरानी मिल जातीं, बाकी लाइबे्ररी में बैठ कर नोट्स तैयार कर लेता. क्लास में कुछ समझ न आता तो स्कूल के बाद टीचर के पास जा कर पूछता. ताऊजी की बात का बुरा मानने के बजाय उसे मैं ने अपना प्रेरणास्रोत बना लिया और 12वीं पास कर प्रवेश परीक्षा की तैयारी में जुट गया.

वह दिन मेरे जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण दिन था, जिस दिन परिणाम  घोषित हुए और पता चला कि एक नामी इंजीनियरिंग कालेज में मेरा चयन हो गया है. मांबाबा का सिर तो ऊंचा हुआ ही, ताऊजी जिन्होंने इस विचार पर ही मां को ताना मारा था, अब अपने हर मिलने वाले को गर्व के साथ बताते कि उन का सगा भतीजा इंजीनियरिंग की बड़ी पढ़ाई कर रहा है.

जीवन एक हर्डल रेस यानी बाधा दौड़ है, एक बाधा पार करते ही दूसरी सामने आ जाती है. इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिला तो मैं ने सोचा किला फतह हो गया. सोचा ही नहीं था कि साथियों की उपहास भरी निगाहें मुझे इस कदर परेशान करेंगी और जो खुला मजाक न भी उड़ाते वे भी नजरअंदाज तो करते ही. स्कूल में कमोवेश सब अपने जैसे ही थे.

कालेज में छात्र ब्रैंडेड कपड़े पहनते, कई तो अपनी बाइक पर ही कालेज आते. मेरे पास 5 जोड़ी साधारण कपडे़ और एक जोड़ी जूते थे, जिन में ही मुझे पूरा साल निकालना था.

मैं जानता था कि फीस और अन्य खर्चे मिला कर यही बाबा के सामर्थ्य से ऊपर था, जो वे मेरे लिए कर रहे थे. अत: मुझे अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर ही यह बाधा पार करनी थी. मैं ने अपने मस्तिष्क में गहरे से बैठा रखा था कि इन बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर आगे मुझे हर हाल में बढ़ना ही है.

वर्ष के अंत तक मैं ने अपनी मेहनत और लगन से अपने टीचरों को खुश कर दिया था. अन्य छात्र भी कड़ी मेहनत कर यहां प्रवेश पा सके थे और मेहनत का अर्थ समझते थे. हालांकि मैत्री का हाथ कम ने ही बढ़ाया लेकिन उन की नजरों से उपहास कम होने लगा था.

नया सत्र शुरू हुआ. हमारे बैच में 5 छात्राएं थीं. नए बैच में 10 ने प्रवेश लिया था. अब तक कुछ सीमित क्षेत्रों में ही लड़कियां जाती थीं पर अब मातापिता उन क्षेत्रों में भी जाने की इजाजत देने लगे थे जो पहले उन के लिए वर्जित थे. एक दिन मैं लाइबे्ररी से पुस्तक ले कर बाहर निकला तो देखा कि प्रिंसिपल साहब की सख्त चेतावनी के बावजूद हमारे ही बैच के 4 लड़के रैगिंग करने के इरादे से एक नई छात्रा को घेरे खड़े थे और लड़की बहुत घबराई हुई थी. मैं जानता था कि उन लड़कों में से 2 तो बहुत दबंग किस्म के हैं और किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. मेरे मन में फौरन एक विचार कौंधा. मैं तुरंत उस लड़की की ओर यों बढ़ा जैसे वह मेरी पूर्व परिचित हो और बोला, ‘अरे, मनु, पहुंच गई तुम.’ और उसे बांह से पकड़ कर सीधे लड़कियों के कौमन रूम में ले गया. मैं ने रास्ते में उसे समझा भी दिया कि अभी 15-20 दिन अकेले बाहर बिलकुल मत निकलना. जब भी बाहर जाएं 3-4 के ग्रुप में जाएं. एक बार रैगिंग का ज्वार उतर जाने पर फिर सब सुरक्षित है.

उस समय तो मेरी उस लड़की से खास बात नहीं हुई. यहां तक कि उस का असली नाम भी बाद में पता चला, अंबिका, पर वह मेरा आभार मानने लगी थी. रास्ते में मिल जाने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ करती. उस की मुसकराहट में ऐसा उजास था कि उस का पूरा चेहरा ही दीप्त हो उठता, बच्चे की मुसकराहट जैसी मासूम और पावन. मेरे लिए यह एक नया अनुभव था. मैं ने तो लड़कों के सरकारी स्कूल में ही तमाम शिक्षा पाई थी. संभ्रांत घर की युवतियों से तो कभी मेरा वास्ता पड़ा ही नहीं था. अपने बैच की लड़कियों की उपस्थिति में भी मैं अब तक सहज नहीं हो पाया था और उन से मित्रवत बात नहीं कर पाता था.

अंबिका कभी लाइब्रेरी में मुझे देखती तो खुद ही चली आती किसी विषय की पुस्तक के लिए पूछने. वह मेरे सीनियर होने की हैसियत से मेरा सम्मान करती थी और महज एक मित्र की तरह मेरी तरफ हाथ बढ़ा रही थी. उस के लिए यह बात स्वाभाविक हो सकती है, पर स्त्रीपुरुष मैत्री मेरे लिए नई बात थी.

मेरे मन में उस के लिए प्यार का अंकुर फूट रहा था, धीरेधीरे मैं उस की ओर बढ़ रहा था. मैं अपनी औकात भूला नहीं था, पर क्या मन सुनतासमझता है इन बातों को? सुनता है बुद्धि के तर्क? और प्यार तो मन से किया जाता है न. उस में धनदौलत, धनीनिर्धन का सवाल कहां से आ जाता है? फिर मैं उस से बदले में कुछ मांग भी तो नहीं रहा था.

यह तो नहीं कह रहा था कि वह भी मुझे प्यार करे ही. सब सपने किस के सच हुए हैं? पर उस से हम सपने देखना तो नहीं छोड़ देते न. मेरा सपना तब टूटा जब मैं ने उसे अनेक बार यशोधर के साथ देखा. यशोधर अंतिम वर्ष का छात्र था. छुट्टी होने पर मैं ने उसे अंबिका का इंतजार करते देखा और फिर वह उसे बाइक पर पीछे बैठा ले जाता. जैसेजैसे वे समीप आते गए मैं स्वयं को उन से दूर करता गया जैसे दूर बैठा मैं कोई रोमानी फिल्म देख रहा हूं, जिस के पात्रों से मेरा कोई सरोकार ही न हो.

कोर्स खत्म हुआ. मेरी मेहनत रंग लाई. मैं इंजीनियर भी बन गया और कैंपस इंटरव्यू में मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई. मैं ने एक बाजी तो जीत ली थी, पर मैं हारा भी तो था. मैं ने चांद को छूने का ख्वाब देखा था बिना यह सोचे कि चांदतारों में ख्वाब ढूंढ़ने से गिरने का डर तो रहेगा ही.

यशोधर की तो मुझ से पहले ही नौकरी लग चुकी थी. अंबिका का अभी एक वर्ष बाकी था और दोनों की बड़ी धूमधाम से सगाई हुई. एक बड़ा सा तोहफा ले कर मैं तहेदिल से उन दोनों को भावी जीवन की ढेर सारी शुभकामनाएं दे आया. प्रेम और वासना में यही तो अंतर है. वासना में आप प्रिय का साथ तलाशते हैं, शुद्ध निर्मल प्रेम में प्रिय की खुशी सर्वप्रिय होती है, जिस के लिए आप निजी खुशियां तक कुरबान कर सकते हैं और मैं देख रहा था कि वह यशोधर के साथ बहुत खुश रहती है.

यों कहना कि मैं ने अपने प्रेम को दफना दिया था, सही नहीं होगा. दफन तो उस चीज को किया जाता है, जिस का अंत हो चुका हो. मेरा प्यार तो पूरी शिद्दत के साथ जीवित था. मैं चुपचाप उन के रास्ते से हट गया था.

सगाई के बाद तो उन दोनों को साथसाथ घूमने की पूरी छूट मिल गई थी. ऐसे ही एक शनिवार को वे रात का शो देख कर लौट रहे थे कि एक सुनसान सड़क पर 4 गुंडों ने उन का रास्ता रोक कर उन्हें बाइक से उतार लिया. यश के सिर पर डंडे से प्रहार कर उसे वहीं बेहोश कर दिया और अंबिका को किनारे घसीट कर ले गए. यश को जब तक होश आया तब तक दरिंदे अंबिका के शरीर पर वहशीपन की पूरी दास्तान लिख कर जा चुके थे. यशोधर ने उस के कपड़े ठीक कर मोबाइल पर उस के घर फोन किया. अंबिका के पिता और भाई तुरंत वहां पहुंच गए और यश को अपने घर छोड़ते हुए अंबिका को ले गए.

अंबिका अस्पताल में थी और किसी से मिलने के मूड में नहीं थी. मैं ने अस्पताल के कई चक्कर लगाए लेकिन सिर्फ उस की मां से ही मुलाकात हो पाई. मैं चाहता था कि वह अपने मन के गुबार को भीतर दबाने के बजाय बाहर निकाल दे तो बेहतर होगा. चाहे क्रोध कर के, चाहे रोधो कर. यही बात मैं उस की मां से भी कह आया था.

मां के समझाने पर वह मान गई और करीब एक सप्ताह बाद मुझ से मिलने के लिए खुद को तैयार कर पाई और वही सब हुआ. उन दुष्टों के प्रति क्रोध से शुरू हो कर अपनी असहाय स्थिति को महसूस कर वह बहुत देर तक रोती रही. मैं ने उस के आंसुओं को बह जाने दिया और उन का वेग थमने पर ही बातचीत शुरू की. उस का दुख देख समस्त पुरुष जाति की ओर से मैं खुद को अपराधी महसूस कर रहा था. न सिर्फ हम इन की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए इन पर जुल्म ढहाते हैं विडंबना तो यह है कि अपने अपराध के लिए ताउम्र उन्हें अभिशप्त भी कर देते हैं और उस पर तुर्रा यह कि हम स्वयं को इन से उच्च मानते हैं.

अंबिका आ गई थी और अवसर मिलते ही मैं उस से मिलने चला जाता. उस की मां भी मेरा स्वागत करती थीं, उन्हें लगता था कि मेरे जाने से अंबिका कुछ देर हंसबोल लेती है.

बातोंबातों में मैं अंबिका के मन में यह बात बैठाने का प्रयत्न करता रहता, ‘तुम्हें मुंह छिपा कर जीने की जरूरत नहीं है. तुम बाहर निकलोगी और पहले की ही तरह सिर उठा कर जीओगी. बहुत हो चुका अन्याय, अपराधियों को दंडित करने में अक्षम हमारा समाज अपना क्रोध असहाय लड़कियों पर न उतार पाए, यह देखना हम सब की जिम्मेदारी है. यदि हम युवकों को संस्कारी नहीं बना पा रहे हैं, तो इस का यह हल भी नहीं कि युवतियों को घर की चारदीवारी में कैद कर लें.’

एक महीना बीत चुका था इस हादसे को, अंबिका के शरीर के घाव तो भरने लगे थे लेकिन एक बड़ा घाव उस के मन पर भी लगा था. यशोधर एक महीने में एक बार भी उस से मिलने नहीं आया था. तसल्ली देना तो दूर यश व उस के मातापिता का कभी  टैलीफोन तक नहीं आया. एक सांझ मैं अंबिका के घर पर ही था जब यशोधर के घर से एक व्यक्ति आ कर उन की मंगनी की अंगूठी, कपड़े व जेवर लौटा गया. अंबिका के हरे घावों पर एक और चोट हुई थी. अंबिका की मां को लगा कि वह निराशा में कोई सख्त कदम न उठा ले. अत: उन्होंने मुझ से विनती की कि मैं जितना हो सके उन के घर आ जाया करूं. कालेज का सत्र समाप्त होने में कुछ ही माह बाकी थे पर 2 महीने तक तो वह किसी भी तरह कालेज जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई.

मेरे बहुत समझाने पर उस ने कालेज जाना शुरू तो किया पर उसे हर किसी की निगाह का सामना करना मुश्किल लगता. मुश्किल से कालेज तो जाती रही लेकिन पढ़ाई ठीक से न हो पाने के कारण परीक्षा पास न कर सकी और उस का साल बरबाद हो गया. अंबिका से मेरे विवाह की 5वीं वर्षगांठ है और हमारी एक प्यारी सी बिटिया भी है. मैं ने उस पर कोई दया कर के विवाह नहीं किया. आप तो जानते ही हैं कि मैं उसे हमेशा से ही चाहता आया हूं, मैत्री भाव उस के मन में भी था. हर रोज मिलते रहने से, कष्ट के समय उस का साथ देने से उस का झुकाव मेरी ओर बढ़ने लगा था.

2 वर्ष बाद विवाह हुआ था हमारा, लेकिन उस के बाद भी लगभग 3 वर्ष लग गए मुझे उस के मन से उस रात का भय भगाने में. रात को चीख कर उठ बैठती थी वह. उस दौरान उस का बदन पसीने से तरबतर होता. क्या उन दरिंदों को कभी यह सोच कर अपराधबोध होता होगा कि पल भर की अपनी यौन तृप्ति के लिए उन्होंने एक लड़की को सिर्फ तन से ही नहीं मन से भी विक्षिप्त कर दिया है. पर मैं ने भी धीरज बनाए रखा और उस दिन का इंतजार किया जिस दिन तक अंबिका के मन में स्वयं ही मेरे लिए नैसर्गिक इच्छा नहीं जागी.

एक बात का उत्तर नहीं मिला आज तक, अपराध तो पुरुष करता है पर उसे दंडित करने के बजाय समाज एक निरपराध लड़की की पीठ पर मजबूती से सलीब ठोंक देता है, जिसे वह उम्र भर ढोने को मजबूर हो जाती है. अपराधी खुला घूमता है और पीडि़ता दंड भोगती है. इसे अंधेर नगरी का इंसाफ कहा जाए या सभ्य समाज का? कौन देगा इस का उत्तर?

Yeh Rishta Kya Kehlata Hai के सेट पर अक्षरा के साथ हुआ हादसा, पढ़ें खबर

टीवी सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  इन दिनों  अपनी कहानी के ट्विस्ट कारण चर्चे में छाये हुए है. शो में जल्द ही दिखाया जाएगा कि अक्षरा (Pranali Rathod), अभिमन्यु (Harshad Chopda) को मनाने के लिए उसे अपने साथ बुलेट राइड पर लेकर जाती है. इस सीन की शूटिंग भी शुरू हो चुकी है. लेकिन शूटिंग के दौरान प्रणाली राठौड़ के साथ हादसा हो गया. आइए बताते है, क्या है पूरा मामला.

शो में बाइक राइड की शूटिंग के दौरान प्रणाली राठौड़ गिर गईं. और उन्हें चोंट भी आई. हालांकि इस हादसे को नजर अंदाज करते हुए प्रणाली दोबारा खड़ी होकर बाइक राइड करने लगीं.

 

इससे पहले भी उन्होंने दुल्हन का जोड़ा पहनकर भी बुलेट चलाई थी। उनके इस अंदाज को दर्शकों ने खूब पसंद किया था.

 

शो में दिखाया जाएगा कि अक्षरा, अभिमन्यु को मनाने की कोशिश करेगी. वह उसे समझाएगी कि वह अपना फैसला किसी पर थोप नहीं सकता है. अक्षरा ये भी कहेगी कि अभिमन्यु अपने पापा की तरह व्यवहार कर रहा है.

 

आपको बता दें कि प्रणाली राठौड़ से पहले नायरा यानी शिवांगी जोशी ने भी शो में बुलेट चलाई थी. ऐसे में उनकी ऑनस्क्रीन बेटी यानी प्रणाली राठौड़ भी अपनी मां के नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश कर रही है.शो में अक्षरा के किरदार को खूब पसंद किया जाता है.

 

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बापूजी का मजाक बनाएगी बरखा की दोस्त, अनुपमा का चढ़ेगा पारा

रूपाली गांगुली  और सुधांशु पांडे स्टारर सीरियल अनुपमा में  इन दिनों बड़ा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुज-अनुपमा के घर में पूजा के दौरान खूब तमाशा हो रहा है. बरखा अनुपमा के साथ-साथ शाह परिवार को भी खूब सुना रही है. लेकिन अनुपमा बराखा भाभी की हर बात काटती हुई नजर आ रही है. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं, शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि गृह प्रवेश के बाद सभी लोग पार्टी में हिस्सा लेंगे और इस दौरान बरखा भाभी की एक दोस्त बापूजी की बेज्जती करती हुई दिखेगी. ये सब देखकर अनुपमा का खून खौल उठेगा.

 

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तो दूसरी तरफ पार्टी में अंकुश वनराज से बात करने की कोशिश करेगा. अंकुश जानना चाहेगा कि आखिर तलाक के बाद भी अनुपमा और वनराज के बीच इतनी अच्छी दोस्ती कैसे है? वनराज भी अंकुश को अपने अंदाज में जवाब देगा.

 

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शो में आप देखेंगे कि बरखा भाभी की दोस्त बापूजी की उम्र का मजाक बनाएगी. वह सबके सामने बापूजी की बेइज्जती करेगी. बरखा यह सब देखकर चुप रहेगी और अपनी दोस्त का ही साथ देगी. तो दूसरी तरफ वनराज बरखा और उसकी दोस्त को खूब सुनाएगा.

 

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तो दूसरी तरफ अनुज और अनुपमा वहां पहुंच जाएंगे. अनुपमा बापूजी की हालत देखकर समझ जाएगी कि उनके साथ क्या-क्या हुआ है. ऐसे में वह बरखा की दोस्त से माफी मांगने के लिए कहेगी. और उसे खूब सुनाएगी.

शो में ये भी दिखाया जाएगा कि शाह परिवार पार्टी से बिना खाना खाए ही घर वापस लौट जाएगा. अनुपमा इस बात से टूट जाएगी. शो में अब . देखाना होगा कि अनुपमा शाह परिवार को कैसे मनाती है?

कठिनाइयां- भाग 2: लड़ाकू फौज के जवान ने उसके साथ क्या किया?

लेखाबाली से अपने गांव छटी जाने के लिए 2 रास्ते थे. एक सिलापत्थर से नयूरंगापाड़ा और रंगिया होते हुए नयूबंगाई गांव से नई दिल्ली. नयूबंगाई गांव तक मीटरगेज थी, फिर वहीं से ब्रौडगेज से नई दिल्ली के लिए गाड़ी मिलती थी. इस में ज्यादा समय लगना था और गाड़ी भी 2 जगह बदलनी पड़ती थी. दूसरा रास्ता सुनहरी घाट से ब्रह्मपुत्र दरिया पार कर के डीब्रूगढ़ से सीधे नयूबंगाई गांव की ट्रेन पकड़ना. 2 जगह ट्रेन बदने के बजाय डीब्रूगढ़ से छटी जाना ठीक समझा. बारिश के दिनों में दरिया पार करना रिस्क था पर उस समय मैं ने यही ठीक समझा. वैसे भी, हम सैनिक हमेशा अपनी जान हथेली पर ले कर चलते हैं. अभी भी मौत के मुंह से बच कर आया था.

समय पर यूनिट की गाड़ी ने मुझे घाट पर पहुंचा दिया था. डीब्रूगढ़ से अभी फैरी नहीं आई थी. धारा के करंट के विपरीत चलने से आमतौर पर फैरी लेट हो जाती है. और लोग भी खड़े थे. बरसात शुरू हो गई थी. मैं ने बरसाती पहन कर छाता खोल लिया था. वहां खड़े लोगों ने भी छाते खोल लिए थे. फैरी वाले जवानों से पैसे नहीं लिया करते थे. इस के लिए असम और अरुणाचल प्रदेश की सरकारों के बीच कोई समझौता था.

फैरी आई और हम सब उस में बैठ गए. फैरी ने आधे घंटे में ही डीब्रूगढ़ घाट पहुंचा दिया था. वहां से रिकशा कर के स्टेशन. 2 बज गए थे. 4 बजे की ट्रेन थी. यूनिट से लाए लंच से पहले रेलवे वारंट तुड़वा कर रिजर्वेशन करवाना जरूरी था. रिजर्वेशन खिड़की पर गया तो बाबू ने कहा, ‘बर्थ नहीं है.’ ऐसे समय के लिए मैं हमेशा रम की 2.3 बोतलें ले कर चलता हूं. मैं ने बाबू को रम की बोतल दिखाई और रिजर्वेशन हो गई. रम की बोतल बहुत कारगर सिद्ध होती है. बड़ोंबड़ों के दिल डोल जाते हैं.

गाड़ी प्लेटफौर्म पर आई तो मैं अपनी बर्थ पर बिस्तर लगा कर लेट गया. नीचे की साइड बर्थ थी. लंच मैं ने प्लेटफौर्म पर ही कर लिया था. नयूबंगाई गांव तक कोई फिक्र नहीं थी. यह गाड़ी लिंक ट्रेन थी. जब तक यह गाड़ी नहीं पहुंचेगी तब नई दिल्ली की गाड़ी नहीं चलेगी. वहां से नई दिल्ली के लिए बर्थ मिलना बहुत मुश्किल होता है. मिलिटरी की मूवमैंट हमेशा रहती है. फिर भी आशा थी कि रम की बोतल दिखाने से शायद बर्थ मिल जाए.

दूसरे दिन 11 बजे गाड़ी नयूबंगाई गांव पहुंची. मैं ने बहुत कोशिश की कि मुझे नई दिल्ली के लिए बर्थ मिल जाए. रम की बातल भी दिखाई पर बर्थ न थी और न मिली. मेरे पास मिलिटरी कंपार्टमैंट में सफर करने के अलावा चारा नहीं था. मिलिटरी कंपार्टमैंट के बाहर 2 जवान मिलिटरी पुलिस के खड़े थे जो जवानों का आईकार्ड और लीव सर्टिफिकेट या मूवमैंट और्डर देख कर कंपार्टमैंट के भीतर जाने दे रहे थे. कंपार्टमैंट में जवान भेड़बकरियों की तरह भरे हुए थे. उस से भी बुरी हालत थी. यहां तक कि जवान वाशरूम के आगे भी बैठे हुए थे. आज की तरह औनलाइन रिजर्वेशन करने की व्यवस्था नहीं थी. कई बार प्लैंड छुट्टी में भी रिजर्वेशन नहीं मिलता था. एमसीओ को बहुत समय पहले लिखने पर भी. हां, जवान अधिक हों तो एक अलग बोगी लगाने की व्यवस्था हो जाती थी.

कुछ जवान डोगरा रैजिमैंट से थे. उन्होंने मुझे पहचान लिया. आलौंग में वे  मुझ से सामान लेने आया करते थे. मैं रैजिमैंट में कंडेमनेशन बोर्ड में कंडम करने के लिए भी जाया करता था. ‘मेजर आगे आ जाओ’. सेना में एक हवलदार को सम्मान में मेजर कहने का रिवाज है. उन का क्वार्टरमास्टर भी सफर कर रहा था जो कंडेमनेशन बोर्ड में हमेशा मेरे साथ रहता था. उन्होंने मेरा सामान पकड़ कर ऊपरनीचे एडजस्ट कर दिया. मेरे लिए जहां सामान रखा जाता है, वह पूरी बर्थ खाली कर दी थी. मैं आराम से ऊपर बिस्तर लगा कर लेट गया.

एक जवान की पत्नी जो गर्भवती थी और पूरे दिनों पर थी. लगता था कहीं रास्ते में ही बच्चा न हो जाए. उस को 2 बर्थों के बीच जगह बना कर लेटा दिया गया था. वह जवान और उन की पत्नी बड़ी मजबूरी में सफर कर रहे थे. उन के पिता की डैथ हो गई थी. पीछे पत्नी को अकेले छोड़ कर घर नहीं जा सकता था. कुछ जवानों की औरतें उस का ख़याल रखने में व्यस्त थीं. देख कर बहुत अच्छा लगा कि जवानों की औरतें भी जवानों की तरह मोरचे पर हैं.

गाड़ी चलने तक जवान आते रहे. भीड़ के चलते वाशरूम जाना मुश्किल था. मुझे शूशू जोर से आ रहा था. लगता था, अभी निकल जाएगा. मैं ने नीचे बैठे क्वार्टरमास्टर से बात की. लड़ाकू फौज के जवान बहुत दिमागदार होते हैं. उन के पास हर समस्या का फौरी इलाज होता है. उन्होंने थोड़ी देर सोचा, फिर एक पुराना बड़ा बूट मेरी ओर बढ़ा दिया. कहा, ‘ मेजर, इस में कर लो, खिड़की से बाहर फेंक देंगे.’ मेरे चेहरे से उस ने समझ लिया था कि ऐसा करने में मैं झिझक रहा हूं. कहा, ‘मैं भी ऐसा ही करूंगा. सुबह अपने जवानों के साथ मिल कर वाशरूम जाने तक का रास्ता बनवा देंगे. वाशरूम तो सब को जाना है. पर इस समय बूट में शूशू करने के अलावा कोई चारा नहीं है.’ ये कह कर वे मुसकराए, फिर आगे बोले, ‘अगली बार जब कंडेमनेशन के लिए आओ तो बिना देखे मेरा बूट कंडेम कर देना.’

उस की बात पर मैं भी मुसकराया. मैं ने वैसा ही किया जैसे उन्होंने कहा था. मैं ने शूशू किया और उन्होंने बूट से शूशू खिड़की से फेंक कर बूट फिर मुझे पकड़ा दिया. रात को काम आएगा. रात में मैं ने ऐसा ही किया पर शूशू खिड़की के बाहर खुद फेंकता रहा लेकिन इतना ख़याल रखा कि किसी पर एक बूंद शशू की न पड़े.

सुबह मैं उठा तो सच में सबकुछ व्यवस्थित था. बोगी का एक दरवाजा पूरी तरह बंद कर के सारे बड़ेबड़े बक्से और रास्ते में पड़ा भारी सामान वहां लगवा दिया गया था. जो जवान वाशरूम के आगे बैठे थे, उन को सीटों पर एडजस्ट कर लिया गया था. गर्भवती महिला के लिए पूरी बर्थ खाली करवा कर वहां लिटा दिया था. वह आराम से सो रही थी. सबकुछ देख कर बहुत अच्छा लगा. हम सैनिक किस तरह हमेशा युद्धस्तर पर काम करते हैं.

मुझे क्वार्टरमास्टर ने सुबह 9 बजे उठाया, ‘मेजर, उठो, फ्रेश हो लो, फिर नाश्ता करते हैं.’

फ्रैश हो कर आया तो क्वार्टरमास्टर ने रैजीमैंट से लाया ब्रेकफास्ट दिया. मैं लेने में झिझक रहा था. सोचा था, कोई स्टेशन आएगा तो ब्रेकफास्ट कर लूंगा. ‘आप चिंता न करें, खाना कल सुबह तक का है.’

अपना घर- भाग 3: आखिर विजय के घर में अंधेरा क्यों था?

‘‘चाचा के पास थोड़ी सी जमीन है जिस में सालभर के गुजारे लायक ही अनाज होता है. कभीकभार चाचा मुझे यहां ले कर आ जाता है.’

‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘जब चाचा ने इस काम में तुम्हें धकेला तो तुम ने विरोध नहीं किया?’

‘‘वह बोली थी, ‘किया था विरोध. बहुत किया था. एक दिन तो मैं ने यमुना में डूब जाना चाहा था. तब किसी ने मुझे बचा लिया था. मैं क्या करती? अकेली कहां जाती? कटी पतंग को लूटने को हजारों हाथ होते हैं. बस, मजबूर हो गई थी चाचा के सामने.’

‘‘फिर मैं ने उस से पूछा था, ‘इस दलदल में धकेलने के बजाय चाचा ने तुम्हारी शादी क्यों नहीं की?’

‘‘वह बोली, ‘मुझे नहीं मालूम…’

‘‘यह सुन कर मैं कुछ सोचने लगा था. तब उस ने पूछा था, ‘क्या सोचने लगे? आप मेरी चिंता मत करो और…’

‘‘कुछ सोच कर मैं ने कहा था, ‘सीमा, मैं तुम्हें इस दलदल से निकाल लूंगा.’

‘‘तो वह बोली थी, ‘रहने दो आप बाबूजी, क्यों मजाक करते हो?’

‘‘लेकिन मैं ने ठान लिया था. मैं ने उस से कहा था, ‘यह मजाक नहीं है. मैं तुम्हें यह सब नहीं करने दूंगा. मैं तुम से शादी करूंगा.’

‘‘सीमा के चेहरे पर अविश्वास भरी मुसकान थी. एक दिन मैं ने सीमा के चाचा से बात की. एक मंदिर में हम दोनों की शादी हो गई.

‘‘मैं ने कभी सीमा को उस की पिछली जिंदगी की याद नहीं दिलाई. वह मेरा कितना उपकार मानती है कि मैं ने उसे ऐसे दलदल से बाहर निकाला जिस की उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी.’’

यह सुन कर विजय हैरान रह गया. वह अनिल की ओर एकटक देख रहा था. न जाने कितने लोग सीमा के जिस्म से खेले होंगे? आखिर यह सब कैसे सहन कर गया अनिल? क्या अनिल के सीने में दिल नहीं है? अनिल के सामने कोई मजबूरी नहीं थी, फिर भी उस ने सीमा को अपनाया.

अनिल ने कहा, ‘‘यार, भूल तो सभी से होती है. कभी किसी को माफ भी कर के देखो. भूल की सजा तो कोई भी दे सकता है, पर माफ करने वाला कोईकोई होता है. किसी गिरे हुए को ठोकर तो सभी मार सकते हैं, पर उसे उठाने वाले दो हाथ किसीकिसी के होते हैं.’’

तभी सीमा एक ट्रे में चाय के कप व कुछ खाने का सामान ले कर आई और बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

विजय सकपका गया. वह सीमा से आंखें नहीं मिला पा रहा था. वह खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. उसे लग रहा था कि सचमुच उस ने सुरेखा को घर से निकाल कर बहुत बड़ी भूल की है. शक के जाल में वह बुरी तरह उलझ गया था. आज उस जाल से बाहर निकलने के लिए छटपटाहट होने लगी. उसे खुद से ही नफरत हो रही थी.

विजय चुपचाप चाय पी रहा था. अनिल ने कहा, ‘‘अब ज्यादा न सोचो. कल ही जा कर तुम भाभीजी को ले आओ. सब से पहले यह शराब उठा कर बाहर फेंक देना. भाभीजी के आने के बाद तुम्हें इस की जरूरत नहीं पड़ेगी.

‘‘शराब तुम्हें खोखला और बरबाद कर देगी. भाभीजी की याद में जलने से जिंदगी दूभर हो जाएगी. जिस का हाथ थामा है, उसे शक के अंधेरे में इस तरह भटकने के लिए न छोड़ो.

‘‘कुछ त्याग भी कर के देखो यार. वैसे भी इस में भाभीजी की जरा भी गलती नहीं है.’’

विजय को लग रहा था कि अनिल ठीक ही कह रहा है. वह एक भूल तो कर चुका है सुरेखा को घर से निकाल कर, अब तलाक लेने की दूसरी भूल नहीं करेगा. कुछ दिनों में ही उस की और घर की क्या हालत हो गई है. अभी तो जिंदगी का सफर बहुत लंबा है.

‘‘हम 4 दिन बाद लौटेंगे तो भाभीजी से मिल कर जाएंगे,’’ अनिल ने कहा.

विजय ने मोबाइल फोन का स्विच औन किया और दूसरे कमरे में जाता हुआ बोला, ‘‘मैं सुरेखा को फोन कर के आता हूं.’’

अनिल और सीमा ने मुसकुरा कर एकदूसरे की ओर देखा.

विजय ने सुरेखा को फोन मिलाया. उधर से सुरेखा बोली, ‘हैलो.’

‘‘कैसी हो सुरेखा?’’ विजय ने पूछा.

‘मैं ठीक हूं. कब भेज रहे हो तलाक के कागज?’

‘‘सुरेखा, तलाक की बात न करो. मुझे दुख है कि उस दिन मैं ने तुम्हें घर से निकाल दिया था. फिर फोन पर न जाने क्याक्या कहा था. मुझे उस भूल का बहुत पछतावा है.’’

‘पी कर नशे में बोल रहे हो क्या? मुझे पता है कि अब तुम रोज शराब पीने लगे हो.’

‘‘नहीं सुरेखा, अब मैं नशे में नहीं हूं. मैं ने आज नहीं पी है. तुम्हारे बिना यह घर अधूरा है. अब अपना घर संभाल लो. मैं तुम्हें लेने कल आ रहा हूं.’’

उधर से सुरेखा का कोई जवाब

नहीं मिला.

‘‘सुरेखा, तुम चुप क्यों हो?’’

सुरेखा के रोने की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, सुरेखा नहीं, अब मैं तुम्हें रोने नहीं दूंगा. मैं कल ही आ कर मम्मीपापा से भी माफी मांग लूंगा. बस, एक रात की बात है. मैं कल शाम तक तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा.’’

‘मैं इंतजार करूंगी,’ उधर से सुरेखा की आवाज सुनाई दी.

विजय ने फोन बंद किया और अनिल व सीमा को यह सूचना देने के लिए मुसकराता हुआ उन के पास आ गया.

एक टूटाफूटा समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता?

‘‘हमारे मंदिरों को तोड़ कर मसजिदें बना कर आज भी हम पर गुर्राते हैं’’ जैसे शब्दों से आज का भारत का सोशल मीडिया लदा पड़ा है. वोटों की खातिर गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं, तरहतरह की कहानियों को फैलाया जा रहहा है, हर फूलपत्ती, तराशे हुए पत्थर को किसी भगवान का नाम दे कर नया इतिहास लिखा जा रहा है. जैसा हर समाज में होता है, धर्म के दुकानदार किसी भी आंधी, बिजली की चमक, बाढ़, बारिश, बर्फ गिरने को चमत्कार कह कर साबित कर डालते हैं कि देखो भगवान है, यह भगवान का किया है. आज का हिंदू समाज इस बात को ले कर खुश हो रहा है कि वह 500 या 700 साल पहले हुए वाकेया को ले कर अपनी जीत मना सकता है.

ङ्क्षहदू समाज की ताॢकक शक्ति इतनी कुंद हो गई कि वह अपनी कमजोरी को अपना बदला लेने का हक मानता है. सदियों पहले क्या हुआ था, इस का आज कोई सुबूत भी नहीं है और जरूरत भी नहीं है. सदियों तक ङ्क्षहदू समाज विदेशी राजाओं के राज का हिस्सा रहा है पर दुनिया के राजाओं का इतिहास परखें तो पता चलेगा लगभग सभी समाज कभी न कभी लंबे समय तक किसी तरह के विदेशी आक्रांताओं के अधीन रहे और जब विदेशी आक्रांता उन में घुलमिल गया वे और कोई दूसरा नया विदेशी आक्रांता सिर पर आ चढ़ा तो ही आधी पैनी मुक्ति पिछले आक्रांता से मिली.

मुसलिम राज से पहले कब कौन से विशुद्ध भारतीयों ने अपनी इच्छा से चुने हुए राजा के आधीन रह कर जीवन जिया है, इतिहास इस बारे में कम ही बताता है. इतिहास तो जीतने वाले आक्रांता ही लिखवाते हैं और वे तरहतरह के निशान छोड़ जाते हैं. वे कैसे राजा बने यह इस इतिहास में स्पष्ट नहीं होता. उस समय की जनता बाहरी व्यक्ति के खिलाफ  उठ खड़ी क्यों नहीं हुई. यह तो पता ही नहीं चलता.

इतिहास के सहारे वर्तमान में वोट पाने की कला अब भारतीयों ने सीख ली है क्योंकि जब आॢथक या सामाजिक मोर्चों पर कुछ उपलब्धि न हो तो इतिहास का ढोल बजाना बहुत आसान है. जो ज्यादा शोर मचा सकता है, वह सारी बातचीत का मुंह मोढ़ सकता है. आज देश में बात ही एक हो रही हो, कौन सा मंदिर कब तोड़ा गया. अभी 2-3 जगहों की बात हो रही हैं, कल को और दृढ़ निकाले जा सकते हैं.

इस नई कहानी से होगा क्या? क्या किसान का अन्न ज्यादा पैदा हो जाएगा? क्या अस्पतालों के बैड बढ़ जाएंगे? क्या फ्लाईओवरों के नीचे रह रहे भूखों के लिए मकान उग जाएंगे? क्या क्लासों में ज्यादा अच्छी पढ़ाई जाएगी? उलटे इन सब जगह जो भी हो रहा है, वह और धीमे हो जाएगा. देश में खुदती खाइयां चौड़ी हो जाएंगी. एकदूसरे के प्रति भेदभाव बढ़ जाएगा और भेदभाव का यह वायरस धर्म से जाति और जाति में आया, आपस के क्षेत्र और फिर घरघर में घुस जाएगा.

एक टूटाफूटा समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता. एक विशाल पत्थर को उठाने के लिए हजारों हाथों का जोर एक साथ चाहिए, अलगअलग नहीं. देश की जनता को इतिहास, परंपरा, पूजापाठ की विधि के नाम पर बांट कर जो विनाश किया जा रहा है. वह देश को दशकों पीछे ले जाएगा. इस का अर्थ है हर घर का अपना अच्छे कल का सपना धूमिल हो जाएगा. जीते तो हम रहेंगे क्योंकि उत्तर कोरिया वाले भी जी रहे हैं, सोमानिया वाले भी और हेती वाले भी.

जब नई बहू घर आए तो क्या करे ससुर

घर में नई बहू आती है तो शुरूशुरू में परिवार में एक असहजता दिखने लगती है. खासकर ससुर, जो पहले ठसक के रहता था, को संयमित रहना पड़ता है. इस नए बदलाव से उखड़ें नहीं, ऐसा होता ही है, बल्कि सामंजस्य बैठाने की कोशिश करें.

सामान्य हिंदी मीडियम स्कूलों में पढ़लिख कर बड़े हुए परिवार आज भी तमाम तरह के घरेलू हालात से रूबरू होते हैं. गांव छोड़ कर शहरों में रह रहे ऐसे परिवार अपने सीमित सदस्यों के साथ रहते हैं. गांव से शहर आने के बाद जो छोटा सा घर बनाते हैं उसी को बनाने व तैयार करने में उन की आर्थिक स्थिति बिखर जाती है. इस के बाद बच्चों की पढ़ाई और कैरियर को बनाने की जद्दोजहेद में बड़े घर का सपना पूरा नहीं हो पाता.

गांव में बड़ेबड़े संयुक्त परिवारों को छोड़ कर शहर आए ये परिवार अपने छोटे से परिवार में ही खुश रहते हैं. उन को कभी इस बात की परवा भी नहीं होती कि घर के हर सदस्य को रहने के लिए अलग कमरा क्यों नहीं है? जाड़ा, गरमी, बरसात कई बार सब एक ही कमरे में रह लेते हैं. वे इसे ही अपना प्यारा सा, छोटा सा संसार सम?ा लेते हैं.

इस में परेशानी तब आती है जब घर में नई बहू का आगमन होता है. आमतौर पर आज के समय में शहरों में होने वाली शादियां मैरिज हौल में होती हैं. लगभग सभी मेहमान वहीं आते हैं और वहीं से वापस अपने घर चले जाते हैं. घर केवल नई बहू ही आती है. नई बहू के लिए घर का सब से अच्छा कमरा तैयार कर दिया जाता है. उस का अपना सामान उस में रख दिया जाता है. शहरों के ज्यादातर घर छोटे होते हैं.

माहौल में अनुशासन आ जाता है

4-5 कमरे होने के बाद भी वे पासपास ही होते हैं. अधिकतर में कमरे से जुड़ा बाथरूम नहीं होता. जिस घर में परिवार 3-4 सदस्यों के साथ बेधड़क रहता था. उसे अब इस बात का खयाल रखना पड़ता है कि घर में नई बहू है. कई बार बातचीत करतेकरते इस बात का खयाल नहीं रहता है. फोन पर तेजतेज आवाज में बात करतेकरते याद आता है तो टोका जाता है कि धीरे बोलो, बहू सुन लेगी. घरों में रहने वाले आदमी, खासकर ससुर को यह सावधानी अधिक बरतनी पड़ जाती है. पहले बाथरूम से नहा कर निकलने का काई नियम नहीं होता था. बाद में यह देखना पड़ता है कि क्या और कैसे करें.

घर में नाराज होने पर भी किसी पर गुस्सा नहीं निकाल सकते. डर लगता है बहू क्या सोचेगी. खाने में नमक कम हो या तेज, उस के बारे में कहने से पहले सोचना पड़ता है. घर में आने के बाद सही तरह से कपड़े पहन कर बैठना पड़ता है. एक तरह से देखें तो आजादी एक बंधन में बंध जाती है. यह सही है कि धीरेधीरे बहू खुद सामंजस्य बैठा लेती है. बहू के घर में आने के बाद स्वभाव में एक बदलाव लाना ही पड़ता है. यह बात केवल बहू की ही नहीं होती. किसी औफिस में 4 लड़के एकसाथ काम कर रहे हों तो अलग माहौल होता है. वहीं अगर एक लड़की और 3 लड़के काम कर रहे हों तो माहौल में अनुशासन बन ही जाता है.

एहतियात बढ़ जाता है

हिंदी स्कूलों में पढ़े, गांव छोड़ कर शहरों में आए लोग भले ही बहू को पहले जैसा परदा करने को न कहते हों लेकिन अभी भी वे अंगरेजियत वाला व्यवहार अपना नहीं पाते हैं. गांव में पहले आदमियों को घर के अंदर जाने की जरूरत तभी पड़ती थी जब उन को खाना खाने जाना हो या रात को सोने जाना हो. ज्यादातर लोग रात को घर के बाहर ही सोते थे. जब आदमी घर के अंदर जाते थे तब नई बहुएं या छोटबड़े भाई की पत्नियां अंदर अपने कमरों में चली जाती थीं. आदमी को घर के अंदर अगर अचानक प्रवेश करना हो तो घर में घुसने से पहले उसे ऐसी आवाज करनी पड़ती थी जिस से घर के अंदर की महिलाओं को लगे कि आदमी घर में आ रहा है.

भले ही गांव से शहर आ कर बहुतकुछ बदल गया हो पर वह सोचने वाली मानसिकता कायम है. शहरों में छोटे घरों में आदमी को रहना पड़ता है. ऐसे में बहू और उसे खुद को सतर्क रहना पड़ता है, जिस की वजह से एहतियात बरतनी पड़ती है. ससुर को अपनी कई आदतें बदलनी पड़ती हैं. उस के जीवन में अनुशासन आ जाता है. गीला तौलिया बैड पर नहीं रख सकते. खाने के बरतन इधरउधर नहीं रख सकते. घर वालों से नाराज होने पर भी तेज आवाज में बात नहीं कर सकते. फोन पर बात करते समय बोलने में शब्दों का चयन सावधानी से करना पड़ता है. कई बार अपनी घरेलू परेशानियों के बारे में बोलने से पहले सोचना पड़ता है.

सामंजस्य बैठाएं

असल में नई बहू के आने के बाद घर के माहौल में बदलाव होता है. बहू भी परिवार का एक सदस्य होती है. ऐसे में उस के साथ सामंजस्य भी बैठाना चाहिए. ज्यादातर समस्याएं मानसिक होती हैं. समय के साथसाथ तालमेल बन जाता है. बेटी बचपन से साथ रहती है तो उस के साथ तालमेल पहले से बना होता है. बहू शादी के बाद घर का सदस्य बनती है, ऐसे में उस के साथ तालमेल बैठाने में समय लगता है. बात केवल ससुर की ही नहीं होती, बहू को भी परिवार के दूसरे कई सदस्यों के साथ तालमेल बैठाना पड़ता है.

महिलाओं में यह स्वाभाविक गुण होता है कि वह अपने व्यवहार से जल्द ही तालमेल करने में सफल हो जाती है. पहले के समय में केवल बहू से अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने व्यवहार को बदल ले. लेकिन आज के बदलते दौर में बहू के साथ ही साथ पूरे परिवार को ही अपने व्यवहार में बदलाव लाना पड़ता है. एकदूसरे के साथ तालमेल बैठा कर ही परिवार खुशहाली से चल सकता है. रातोंरात आदतें नहीं बदलतीं, ऐसे में कई बातें नजरअंदाज करनी चाहिए.

ससुर और बहू दोनों को ही एकदूसरे की आजादी और स्वभाव को सम?ाते हुए बदलाव की उम्मीद करनी चाहिए. तभी परिवार में खुशी का माहौल बनता है. बहू को बहू ही सम?ाना चाहिए, कई बार लोग पहले अतिउत्साह में बहू को बेटी की तरह देखने व व्यवहार करने लगते हैं जो बाद में अखरने लगता है. ससुर और बहू का एक स्वाभाविक रिश्ता होता है, उस पर ही दोनों को चलते हुए एकदूसरे का सम्मान करना चाहिए.

सख्त निर्णय: सुधा ने अपने बेटों के साथ क्या किया?

दादा बनवारी लाल बरनवाल भी जब कोरोनाग्रस्त हुए, तो घर में जैसे सब की नींद खुली. सुधा अपने दोनों बेटों को बहुत पहले से चेतावनी दे रही थी कि घर की हालत ठीक नहीं चल रही, व्यवसाय चौपट हो गया है और उन्हें काहिली से फुरसत नहीं. यही हाल रहा, तो और बुरे दिन देखने को मिलेंगे. साराकुछ कर्ज में डूबा हुआ है, यह बैंकवालों और महाजनों के तगादों से समझ आ रहा था. मगर उन के कानों पर जू तक न रेंग रही थी.

विगत दिनों ही घर के मुखिया रामनाथ बरनवाल कोरोना से लड़तेलड़ते चल बसे थे. उन पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी वे बच न पाए. शहर के प्रसिद्ध पारस अस्पताल में उन का इलाज चला था. यह वह समय था  जब औक्सीजन से ले कर दुर्लभ दवाओं तक की मारामारी थी. वह सब किसी प्रकार सिर्फ पैसों के बल पर ही तो उपलब्ध हुआ था. जब वहां भी स्थिति नहीं संभली,  तो उन्हें एयर एम्बुलैंस द्वारा बेंगलुरु के प्रतिष्ठित अस्पताल में भी भिजवाया गया था.

पैसे की किल्लत को सुधा तभी समझ पाई जब एकाउंटैंट सुधीर ने बताया कि बैंकों के खाते खाली हैं. तब उस ने तुरंत अपने आभूषण निकाल उन्हें बैंक में जमा करा कर 10 लाख रुपए लोन ले उन के इलाज में खर्च किया था. उस के लिए पति का जीवन महत्त्वपूर्ण था. वहां से वे ठीक हो कर आए ही तो थे कि ब्लैक फंगस नामक रोग ने जकड़ लिया. इस के इलाज के लिए भी  पानी की तरह पैसा बहाया गया. मगर वे बच नहीं पाए.

एक साल से कामधाम, बिजनैस-व्यापार सबकुछ बंद ही तो था. शहर के एक मशहूँर मार्केट में उन की दुकान ‘ द साड़ी शौप’ में कभी 28 स्टाफ काम करते थे और एक समय ऐसा था कि वहां कभी किसी को फुरसत न मिलती थी. मगर लौकडाउन के चक्कर में साराकुछ चौपट होता चला गया. तिस पर रामनाथ बरनवाल की जिद कि दुकान बंद हो या चले, स्टाफ को पूरा वेतन दिया ही जाना चाहिए. सभी को समय से नियमित वेतन दिया जाता रहा था. दादाजी ने दबे स्वरों में इस का विरोध किया था, मगर वे कहां मानने वाले थे. और यही कारण था कि घर तो घर, बैंक से भी सारी नकदी निकल चुकी थी. एक उम्मीद थी कि त्योहारों और लगन के बाद स्थिति संभल जाएगी. मगर दूसरी बार का लौकडाउन रहीसही कसर पूरी कर कंगाल कर गया था.

और ऐसी विषम परिस्थिति में वे कोरोना से ऐसे ग्रस्त हुए कि बाकी बचीखुची संपत्ति भी उन के इलाज में खर्च हो गई.

सुधा की मुसीबतों का अंत नहीं था. दादाजी ने इलाज के लिए अलग से बैंक से और महाजनों से भी पैसों का इंतजाम किया था. मगर पिताजी बच नहीं पाए थे. उलटे, भारीभरकम देनदारी छोड़ गए थे.

घर के दोनों बेटों को जैसे इस से कोई मतलब न था कि घर का खर्च चल कैसे रहा है. उन्होंने कभी पैतृक व्यवसाय में रुचि नहीं ली. बड़े बेटे राजेश का अपना एक साहित्यिक संसार था जिस में वह अपनी कविताओं के माध्यम से रचताबसता था. साहित्य सेतु नामक एक संस्था का वह संस्थापक सदस्य था और उसी बहाने वह अपनी रूमानी कविताओं में उलझा, डूबा रहता था. उस की अपनी एक मित्रमंडली थी जो उस के लिए अपने परिवार से बढ़ कर थी. इतना कि अपनी पत्नी और 2 छोटे बच्चों का भी ख़याल नहीं रखता था.

छोटे बेटे राकेश का अपना नाटकों का संसार था. अभिनय और नाटकों के प्रति गहरी रुचि ने उसे भी अपने पैतृक व्यावसायिक कार्यों से दूर कर दिया था. उस की संस्था ‘रसरंग’   पटना के अलावा अन्य शहरों में भी नाटकों के प्रदर्शन के लिए जानी जाती थी. और उस के लिए भी अपने परिवार की अपेक्षा अपना एनजीओ और कलाकार-परिवार ही सबकुछ था. उस की पत्नी  ने तो अब उसे कुछ कहनासुनना ही छोड़ दिया था और अपने नन्हें बेटे के साथ मगन रहती थी.

पिता और दादा जी ने अपने स्तर पर भरपूर प्रयास तो किया ही कि वे दोनों अपनी विशाल पैतृक व्यवसाय में थोड़ी रुचि लें, मगर उन दोनों में जैसे कारोबारी रक्त थे ही नहीं. और इसलिए वे दोनों इस दायित्व से भागे रहते थे. उन लोगों की बदौलत उन की शहर में मशहूर कपड़े की दुकान चल तो रही थी मगर वे चिंतित रहते थे कि उन के बाद क्या होगा. और इस समय यही विकट परिस्थिति आ गई थी. पिता के गुजरने के बाद जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो सुधा ने अपने उन दोनों बेटों को चेतावनी भी दी कि सारा बिजनैस ठप पड़ा है. और आगे भी लौकडाउन खुलने के आसार नहीं  हैं. ऐसे में वे कुछ तो देखें. मगर जब शुरू से ही वे कुछ नहीं देखे, तो अब क्या देखते. अभी हाल ही में पिता का श्राद्धकर्म भी नहींनहीं करते धूमधाम से किया गया, तो उस के भोजभात और दानदक्षिणा में लाखों खर्च हो गए थे. और यह सब दादाजी के क्रैडिट पर संपन्न हुआ था.

मगर इस के बाद ही दादाजी भी कोरोनाग्रस्त हो गए थे. दुकान और गोदाम को गिरवी रख कर उन्होंने बैंक और महाजनों से कर्ज लिया था. व्यवसाय तो वैसे भी लेनदेन और क्रैडिट पर ही चलता है. चिंतित सुधा को वे बुला कर सारी वस्तुस्थिति से अवगत करा बोले- ‘अब मैं यह भार और नहीं उठा सकता, सुधा. वैसे भी, 82 साल का वृद्ध हूं. रामनाथ के जाने के बाद मैं टूट चुका हूं. तुम्हारे बेटों को शुरू से समझाते आया. मगर उन्होंने कभी रुचि नहीं ली कि साड़ी शौप के इस विशाल व्यापार को देखेंसमझें. अब आगे का तुम ही देख सको, तो देखना.’

‘ऐसा न कहिए,’ वह फूट पड़ी, ‘मैं क्या देख सकती हूं, मेरा तो सारा समय इस विशाल आलीशान घर को ही देखनेसंभालने में चला  गया. बाहर का काम मैं क्या जानूं. आप को कुछ नहीं होगा. मैं आप का अच्छे डाक्टर से इलाज कराऊंगी.’

‘इस का कोई फायदा नहीं होगा. एक तो इस समय सारे डाक्टर्स खुद परेशान हैं, व्यस्त हैं. अपने स्तर पर तो वे बेहतर ही काम करते हैं. मगर मुझे इस का एहसास हो रहा है कि अब मैं ज्यादा दिन चल नहीं सकता. वैसे भी, रामनाथ के जाने के बाद मेरे जीने की इच्छा भी नहीं है. तुम वकील अजयेंद्र को बुला कर सबकुछ समझ लेना.’

‘नहीं, ऐसा मत कहिए. मैं अकेले झेल नहीं पाऊंगी,’ वह एकदम से घबरा कर बोली, ‘मैं अभी बेटों को बुलाती हूं, शायद अब वे कुछ समझें.’

उस ने तुरंत अपने बेटों को आवाज दी. सभी उन के कमरे में भागेभागे आए. मगर तब तक देर हो चुकी थी. पक्षी पिंजरा छोड़ अनंत आकाश में उड़ चला था.

सुधा को होश नहीं था. वह समझ नहीं पाती थी कि वह करे तो क्या करे.

उस के सामने उस का अतीत साकार होने लगा था. श्वसुर बनवारी लाल कोई 40 साल पहले एक छोटे से गांव से इस शहर में आऐ थे. वे कपड़ों की गठरी बांधे गलीमहल्लों में फेरी लगा कर कपड़े बेचा करते थे. बाद में स्थिति सुधरी तो एक दुकान को किराए पर ले लिया. रामनाथ बरनवाल से तकरीबन 30 साल पूर्व जब उस की शादी हुई थी, तो वे एक गंदी गली के एक छोटे से 2 कमरों के किराए के घर में रहते थे.

विवाह के बाद ही अचानक व्यवसाय में तेजी आई, तो एक भव्य मार्केट में भाड़े पर दुकान ले ली. कमाई बढ़ी, तो रहनसहन का स्तर भी बढ़ा. फिर इस पौश कालोनी में 800 गज  जमीन ले यह आलीशान मकान बना, तो उसे परम संतोष का एहसास हुआ था.  कितने उतारचढ़ावों को वह देख चुकी है. काश, उस के बेटे इस व्यवसाय को समय रहते संभाल पाते.

दादाजी की अंत्येष्टि के बाद वह थोड़ी स्थिर हुई. आगे का काम कैसे चले, यही सोच रही थी. मगर उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. अचानक उसे वकील अजयेंद्र की याद आई. उस ने उन्हें तुरंत बुलवा भेजा. साथ ही, अकाउंटैंट सुधीर और उस के सहयोगी को भी बुला लिया. इसी बीच दोनों बेटों को भी उस ने अपने पास आने को कह खुद को मानसिक स्तर पर तैयार करने में लग गई कि उसे करना क्या  है.

दोनों बेटों के चेहरे से साफ झलक रहा था कि वे परिस्थितियों की गंभीरता का आकलन कर रहे हैं. अकाउंटैंट सुधीर अपने सहयोगी कंप्यूटर औपरेटर अजीत के साथ फाइलों का गट्ठर थामे हाजिर हो चुका था. अजयेंद्रजी फाइलों पर सरसरी निगाह से अवलोकन कर सुधीर से पूछ बैठे- “लेनदारी तो कहीं है नहीं. तो देनदारी की ही बात की जाए.”

“विगत वर्ष से ही इस घर की स्थिति डांवांडोल चल रही थी,” सुधीर बोला, “कोई 10 करोड़ रुपए के कर्ज पहले से ही बैंक के थे. बाद में  रमानाथजी ने अपनी दुकान के लिए एक करोड़ रुपए के कपड़े क्रैडिट पर और मंगवा लिए थे कि त्योहारों के मौसम में अनुकूल स्थिति हो जाएगी. मगर उस समय भी लौकडाउन खुला नहीं और सारा माल गोदाम में पड़ा रह गया. खर्च तो कम हुए नहीं. उलटे, स्टाफ को भी वेतन का नियमित भुगतान चलता  रहा. और इस प्रकार डेढ़ करोड़ रुपए का कर्ज और बढ़ा है.”

“बेटे, तुम बताओ, तुम इस परिस्थिति में क्या कर सकते हो?” सुधा ने अपने बेटों की ओर देखते हुए उन की तरफ सवाल उछाल दिया, “मैं सारा कर्ज खत्म करना चाहूंगी. मुझे अपने घर की कुर्की, जब्ती, नीलामी कर बदनामी नहीं करवानी.”

“कुल कितने का कर्ज बकाया है?” राजेश ने सहज भाव से कहा. तो, सुधीर ने तुरंत जवाब दिया- “यही कोई 20 करोड़ रुपया का बकाया है.”

“अरे बाप रे, इतनी बड़ी रकम!” राकेश चिहुंक कर बोला- “कहां से आएगी इतनी बड़ी रकम?”

“देखो मां, हमारी दुकान चलाने में न पहले रुचि थी और न अब है,” राजेश तटस्थ भाव से बोल रहा था- “उस दुकान और गोदाम को बेच कर यह कर्ज चुकाया जा सकता है.”

“और कोई रास्ता भी नहीं बचा है,” अजयेंद्रजी बोले, “सुधीरजी शायद इस का भी लेखाजोखा कर रखे होंगे. वही बेहतर बता सकते हैं.”

“काफी खराब लग रहा है यह स्थिति देख कर,” सुधीर सकुचाते हुए बोले, “एक वे दिन देखे थे हम ने कि इस घर में रुपयों की बरसात होती थी. और मुझे उस का हिसाबकिताब रखते रात के ग्यारह-बारह बज जाते थे. और एक आज का दिन है कि मुझ से इस प्रौपर्टी के बेचने के लिए हिसाब लगाने को कहा जा रहा है.”

“तो हमें ही अच्छा लग रहा है क्या,” राकेश आगे बढ़ कर बोला, “हम इसे संभाल नहीं सकते. तिस पर इतनी बड़ी देनदारी है, तो कोई क्या करे.”

“अब आप लोग दबाव दे रहे हैं, तो बताना ही पड़ेगा मुझे. तो सुन लीजिए, वह सब बेचने के बाद लगभग 15 करोड़ रुपए ही आएंगे. बाकी के 5 करोड़ रुपए कहां से आएंगे, यह विचार कर लीजिए.”

“फिलहाल इतना तो व्यवस्था कर लीजिए,” राजेश उठता हुआ बोला, “आगे की आगे देखी जाएगी.”

राकेश भी अपने बड़े भाई का अनुसरण करते वहां से चला गया था.

सुधा  वकील अजयेंद्र और अकाउंटैंट सुधीर का मुंह देखते हुए स्तब्ध बैठी रह गई. उस का माथा तनाव और दर्द से फटा जा रहा था. तो, ये बेटे हैं, जिन्हें अपनी पैतृक संपत्ति से जरा भी मोह नहीं. अपने भविष्य का भी ख़याल नहीं आया इन्हें कि कल क्या होगा!

“800 गज में बने इस मकान की कीमत क्या होगी,” वह सुधीर जी से मुखातिब थी, “इस पौश एरिया के इस आलीशान मकान के  अच्छे दाम तो मिलने ही चाहिए.”

“यह आप क्या कह रही हैं,” अजयेंद्र जी अवाक् हो बोल पड़े, “फिर आप कहां रहेंगी? आप के बेटे कहां जाएंगे?”

“बीसेक साल पहले गंगा किनारे एक अपार्टमैंट बन रहा था, तो मैं ने वहां वन बीएचके का एक फ्लैट खरीद लिया था कि कभीकभी वहां जा कर गंगादर्शन का आनंद लूंगी. अभी वह भाड़े पर है. उसे खली करा कर मैं उसी में जा कर रहने लगूंगी. और बेटों का क्या है, वे अभी युवा हैं, कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. यह भी हो सकता है कि वे अपनी ससुराल में ही रह-बस जाएं. मगर मुझे क्या, मैं ने तो गरीबी देखी है, अभाव झेला है. मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला.”

“फिर भी भाभीजी, इस मकान को कितने शौक से बनवाया आप लोगों ने, इस का गवाह मैं खुद हूं,” अजयेंद्र जी बोले, “आप को इस घर को छोड़ते कैसा लगेगा?”

“मुझे मालूम है, बहुत खराब लगेगा. इस घर में तीसेक साल पहले मैं बहू बन कर आई और यहीं की हो कर रह गई. इस घर से मेरी अनेक यादें जुड़ी हैं. मेरे दोनों बेटों का जन्म भी यहीं हुआ,” सुधा उदास  होती हुई बोली, “मगर जब हमारे पितासमान श्वसुर और पति ही नहीं रहे, तो मतलब रह क्या जाता है. मेरी पहली प्राथमिकता तो यही है कि उन के नाम कोई देनदारी न रहे, उन पर कोई कलंक न लगे.”

“मगर इस पैतृक संपत्ति पर उन का भी हक  है.”

“मैं कहां कह रही हूं कि नहीं है भाईसाहब,” वह तैश में आ कर बोली, “मैं पहले उन्हीं से कहूंगी कि वे चाहें तो इसे मिल कर या अलगअलग हिस्सों के रूप में  ही खरीद लें, ताकि सभी कर्जों और देनदारियों को खत्म किया जा सके. उन के इनकार करने के बाद ही इस का कोई अन्य ग्राहक तलाशेंगे.”

“वे कहां से व्यवस्था कर पाएंगे, मैडम?”

“क्यों, उन के खाते में थोड़ेबहुत पैसे अवश्य होंगे. अपनी गाड़ी बेचेंगे, और क्या… उन की बीवियों के पास लाखों के आभूषण हैं. वे अपने एनजीओ अथवा ससुराल वालों से भी सहयोग ले सकते हैं. अपने क्रैडिट पर बैंक से लोन ले सकते हैं. करना चाहें, तो बहुतकुछ कर सकते हैं.”

“जब पहले कुछ नहीं किया तो अब क्या कर लेंगे,” अजयेंद्र जी बोले, “मगर सवाल यह भी तो है कि आप अकेले वहां कैसे रहेंगी?”

“और कोई रास्ता भी तो नहीं है,” वह उदास स्वर में बोलते और उठते हुए बोली, “और क्या… इन बेटों से पहले ही कोई उम्मीद नहीं थी और अब तो इन से कुछ कहना ही बेकार है. अब वे जानें और उन का काम जाने. मुझे जो निर्णय लेना था, ले लिया. इस से ज्यादा मैं कुछ कर नहीं सकती.”

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