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बड़ी लकीर छोटी लकीर- भाग 2: सुमित को अपनी पत्नी से क्यों समस्या होने लगी?

दिन बीतते गए और हफ्तों और महीनों में परिवर्तित होते गए. दोस्तो आप सोच रहे होंगे, गलती मेरी ही है, क्योंकि मैं इस तुलनात्मक खेल को खेल कर अपने और अपने परिवार को दुख दे रहा था. आप शायद सही बोल रहे होंगे पर तब कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शिखा बहुत अच्छी पत्नी थी, कभी कुछ नहीं मांगती. मेरे परिवार के साथ घुलमिल कर रहती, पर उस का कोई भी शिकायत न करना मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता. ऐसा लगता मैं इस काबिल भी हूं…

आज मैं जब दफ्तर से आया तो शिखा बहुत खुश लग रही थी. आते ही उस ने मेरे हाथ में एक बच्चे की तसवीर पकड़ा दी. समझ आ गया, हम 2 से 3 होने वाले हैं. अनिल का फोन आया मेरे पास बधाई देने के लिए पर फोन रखते हुए मेरा मन कसैला हो उठा था. वह तमाम चीजें बता रहा था जो मेरी औकात के परे थीं. वह वास्तव में इतना भोला था या फिर हर बार मुझे नीचा दिखाता था, नहीं मालूम, मगर मैं जितनी भी अपनी लकीर को बड़ा करने की कोशिश करता वह उतनी ही छोटी रहती.

अनिल के पास शायद कोई पारस का पत्थर था. वह जो भी करता उस में सफल ही होता और मैं चाह कर भी सफल नहीं हो पा रहा था. जैसेजैसे शिखा का प्रसवकाल नजदीक आ रहा था मेरी भी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मेरी मां तो हमारे साथ रहती ही थीं पर मैं ने खुद ही पहल कर के शिखा की मां को भी बुला लिया. मुझे लगा शिखा बिना झिझक के अपनी मां को सबकुछ बता सकेगी पर मुझे नहीं पता था यह उस के और मेरे रिश्ते के लिए ठीक नहीं है.

शिखा अपनी मां के आने से बहुत खुश थी. 1 हफ्ते बाद की डाक्टर ने डेट दी थी. शिखा की मां उस के साथ ही सोती थीं. पता नहीं वे रातभर मेरी शिखा से क्या बोलती रहती थीं कि सुबह शिखा का चेहरा लटका रहता. मैं गुस्से और हीनभावना का शिकार होता गया.

मुझे आज भी याद है अन्वी के जन्म से 2 रोज पहले शिखा बोली, ‘‘सुमित, हम भी एक नौकर रख लेंगे न बच्चे के लिए.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्यों शिखा, हमारे घर में तो इतने सारे लोग हैं.’’

शिखा मासूमियत से बोली, ‘‘अनिल जीजाजी ने भी रखा था, करिश्मा के जन्म के बाद.’’

खुद को नियंत्रित करते हुए मैं ने कहा, ‘‘शिखा वे अकेले रहते हैं पर हमारा पूरा परिवार है. तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा.’’

मगर अनिल का जिक्र मुझे बुरी तरह खल गया. शिखा कुछ और बोलती उस से पहले ही मैं बुरी तरह चिल्ला पड़ा. उस की मां दौड़ी चली आईं. शिखा की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. मैं उसे कैसे मनाता, क्योंकि उस की मां ने उसे पूरी तरह घेर लिया था. मुझे बस यह सुनाई पड़ रहा था, ‘‘हमारे अनिल ने आज तक नीतू से ऊंची आवाज में बात नहीं करी.’’

मैं बिना कुछ खाएपीए दफ्तर चला गया. पूरा दिन मन शिखा में ही अटका रहा. घर आ कर जब तक उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी तब तक चैन नहीं आया.

10 मई को शिखा और मेरे यहां एक प्यारी सी बेटी अन्वी हुई. शिखा का इमरजैंसी में औपरेशन हुआ था, इसलिए मैं चिंतित था पर शिखा की मां ने शिखा के आगे कुछ ऐसा बोला जैसे मुझे बेटी होने का दुख हुआ हो. कौन उन्हें समझाए अन्वी तो बाद में है, पहले तो शिखा ही मेरे लिए बहुत जरूरी है.

मैं हौस्पिटल में कमरे के बाहर ही बैठा था. तभी मेरे कानों में गरम सीसा डालती हुई एक आवाज आई, ‘‘हमारे अनिल ने तो करिश्मा के होने पर पूरे हौस्पिटल में मिठाई बांटी थी.’’

मैं खिड़की से साफ देख रहा था. शिखा के चेहरे पर एक ऐसी ही हीनभावना थी जो मुझे घेरे रहती थी. शिखा घर आ गई पर अब ऐसा लगने लगा था कि वह मेरी बीवी नहीं है, बस एक बेटी है. रातदिन अनिल का बखान और गुणगान, मेरे साथसाथ मेरे घर वाले भी पक गए और उन को भी लगने लगा शायद मैं नकारा ही हूं. घर के लोन की किस्तें और घर के खर्च, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. फिर मैं ने कुछ ऐसा किया जहां से शुरू हुई मेरे पतन की कहानी…

मैं ने इधरउधर से क्व1 लाख उधार लिए और बहुत बड़ा जश्न किया. शिखा के लिए भी एक बहुत प्यारी नारंगी रंग की रेशम के काम की साड़ी ली. उस में शिखा का गेहुआं रंग और निखर रहा था. उस की आंखों में सितारे चमक रहे थे और मुझे अपने पर गर्व हो रहा था.

फिर किसी और से उधार ले कर मैं ने पहले व्यक्ति का उधार चुकाया और फिर यह धीरेधीरे मेरी आदत में शुमार हो गया.

मेरी देनदारी कभी मेरी मां तो कभी भाई चुका देते. शिखा और अन्वी से सब प्यार करते थे, इसलिए उन तक बात नहीं पहुंचती थी.

ऐसा नहीं था कि मैं इस जाल से बाहर नहीं निकलना चाहता था पर जब सब खाक हो जाता है तब लगता है काश मैं पहले शर्म न करता या शिखा से पहले बोल पाता. मैं एक काम कर के अपनी लकीर को थोड़ा बढ़ाता पर अनिल फिर उस लकीर को बढ़ा देता.

यह खेल चलता रहा और फिर धीरेधीरे मेरे और शिखा के रिश्ते में खटास आने लगी.

शिखा को खुश करने की कोशिश में मैं कुछ भी करता पर उस के चेहरे पर हंसी न ला पाता. शिखा के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था. उसे लगने लगा था मैं कभी कुछ भी ठीक नहीं कर सकता या मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिखा मेरे बारे में ऐसा सोचती है.

अन्वी 2 साल की हुई और शिखा ने एक दफ्तर में नौकरी आरंभ कर दी. मुझे काफी मदद मिल गई. मैं ने नौकरी छोड़ कर व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए. शिखा ने अपनी सारी बचत से और मेरी मां ने भी मेरी मदद करी.

Father’s Day Special: वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

मुझे रात को जल्दी सोने की आदत है. बेटेबहू की तरह मैं देररात तक जागना पसंद नहीं करता. शाम का खाना जल्दी खा कर थोड़ी देर टहलने जाना और फिर गहरी नींद का मजा लेने के लिए बिस्तर पर लेट जाना मेरी रोज की दिनचर्या है. इस में मैं थोड़ा सा भी बदलाव नहीं करता.

उस दिन भी मैं अपनी इसी दिनचर्या के अनुसार अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया. किंतु जाने क्या हुआ मुझे नींद ही नहीं आ रही थी. बिस्तर पर करवटें बदलतेबदलते जब मैं उकता गया तो सोचा क्यों न कुछ देर पोतापोती के साथ खेल कर मन बहला लूं.

मैं जब पोतापोती के कमरे में पहुंचा तो देखा वे लोग कुछ काम कर रहे थे. पहले तो मुझे लगा कि शायद वे पढ़ाई कर रहे हैं और उन की पढ़ाई में खलल डालना उचित नहीं होगा, मगर फिर ध्यान से देखने पर पता चला कि वे दोनों तो चित्रकारी कर रहे थे. मैं उन के पीछे जा कर खड़ा हो गया और उन की चित्रकारी देखने लगा. जल्द ही उन दोनों को एहसास हो गया कि मैं उन के पीछे खड़ा हूं. उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ कुछ ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, ‘आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

‘‘क्या कर रहे हो बच्चो, किस का चित्र बना रहे हो, जरा मुझे भी तो दिखाओ.’’

आंखों ही आंखों में दोनों में कुछ इशारेबाजी हुई और फिर दोनों लगभग एकसाथ बोले, ‘‘कुछ खास नहीं दादाजी, हमें स्कूल में एक प्रोजैक्ट मिला है, वही कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा. लाओ मुझे दिखाओ, क्या प्रोजैक्ट मिला है. मैं मदद कर देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं दादाजी, मुश्किल नहीं है, हम कर लेंगे. वैसे भी थोड़ा सा ही काम बचा है. आप अभी तक सोए नहीं, काफी देर हो गई है?’’ मेरी पोती ने पूछा.

‘‘मैं पानी पीने के लिए उठा था. तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी, इसलिए तुम से मिलने आ गया.’’

‘‘मैं आप के लिए पानी लाती हूं,’’ पोती ने उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, रहने दो, मैं पानी पी चुका हूं.’’

‘‘मैं आप को कमरे तक छोड़ आऊं दादाजी.’’ मेरे पोते ने बड़ी मासूमियत से यह कहा तो मुझे उन दोनों पर बड़ा प्यार आया. मैं उन दोनों के सिर पर हाथ फेर कर अपने कमरे में चला आया. यों तो मेरे पोतापोती बड़े अच्छे बच्चे हैं, दोनों मेरा हमेशा ही आदर करते हैं और मेरी परवा भी, किंतु उन का आज का व्यवहार मेरे प्रति कतई सम्मानजनक नहीं था बल्कि वे दोनों मुझे जल्दी से जल्दी अपने कमरे से बाहर करना चाहते थे.

खैर, मैं वापस अपने कमरे में आ गया. हालांकि बच्चों ने तो छिपाने की पूरी कोशिश की थी पर मुझे पता चल ही गया कि वे दोनों क्या कर रहे थे. वे फादर्स डे के मौके पर अपने पापा के लिए कार्ड बना रहे थे और कहीं मैं उन के इस सरप्राइज के बारे में जान न जाऊं, इसीलिए उन्होंने जल्द से जल्द मुझे अपने कमरे से टालने की कोशिश की.

फादर्स डे पर न जाने क्यों मेरे कदम अपनेआप ही अपनी अलमारी की तरफ उठ गए. मैं ने अलमारी खोली और उस में से एक डब्बा निकाला. यह डब्बा टाई का था. मैं ने डब्बे में से टाई निकाली और उसे प्यार से सहला दिया. यह टाई मेरे बेटे वरुण ने तोहफे में दी थी. वह फादर्स डे के मौके पर इसे मेरे लिए अपनी पहली तनख्वाह से खरीद कर लाया था. हालांकि मुझे इसे कभी पहनने का मौका नहीं मिला, लेकिन यह मेरे दिल के बेहद करीब है. मैं ने इसे संभाल कर रखा है.

सुबह नाश्ते की मेज पर दोनों बच्चों  ने अपने पापा को कार्ड भेंट  किया. मेरा बेटा कार्ड देख कर अपने बच्चों पर निहाल हो गया. उस ने दोनों को अपनी गोद में बैठा लिया और उन्हें अपने हाथों से नाश्ता करवाने लगा. बच्चों द्वारा बनाया गया कार्ड देखने को मुझे भी मिला. उन के द्वारा बनाई गई अपने बेटे की कार्टून जैसी सूरत देख कर मेरे होंठों पर मुसकान आ गई जिसे मैं बहुत कोशिश कर के भी अपने बेटे से छिपा नहीं पाया.

‘‘बच्चों की कोशिश बहुत अच्छी थी. हमें उन का हौसला बढ़ाना चाहिए. प्यार से दिया गया  हर तोहफा अनमोल होता है, हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए. मगर कुछ लोग दूसरों की भावनाओं को समझते ही नहीं या तो तोहफा देने वाले को डांट देते हैं या उस का मजाक उड़ाने लगते हैं,’’ वरुण ने सख्त शब्दों में अपनी नाराजगी व्यक्त की.

उस की यह नाराजगी उस के बच्चों के कार्ड का मजाक उड़ाने के लिए नहीं थी, बल्कि उस की इस नाराजगी की असली वजह वह टाई थी जिसे खरीदने पर मैं ने उसे डांटा था. वह पुराना वाकेआ हम पितापुत्र के बीच आज भी मौजूद है. न उस वाकए को कभी मैं भुला पाया और न ही कभी वो. यह बात उस के दिल में ऐसी घर कर गईर् कि उस के बाद मेरा बेटा मुझ से दूर हो गया.

हालांकि कोई भी यह कह सकता है कि मुझ से तब बहुत बड़ी गलती हो गई. मैं खुद भी कभी इस बात के लिए खुद को माफ नहीं कर सका. सफाई भी क्या दूं, जब यह हुआ उस समय मेरे हालात से वह बिलकुल अनजान तो नहीं था. एक तो उस समय मेरी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी, उस पर पत्नी का स्वास्थ्य दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था और वह हमारा साथ छोड़ने की तैयारी में थी. ऐसे में इन औपचारिकताओं के लिए जिंदगी में जगह ही कहां थी.

मैं कुछ कहता तो बात और बढ़ती, उस से पहले मेरी बहू सुमी हमेशा की तरह आगे आई, ‘‘अच्छा अब छोड़ो पुरानी बातें और जल्दी से नाश्ता खत्म करो. फिर बाजार भी जाना है. आज बच्चे अपने पापा के लिए दोपहर के खाने में कुछ खास बनाना चाहते हैं.’’ वह बातें करतेकरते सब के लिए नाश्ता भी परोसती जा रही थी. सब पनीरसैंडविच खा रहे थे जबकि मुझे उस ने दूध व कौर्नफ्लैक्स खाने को दिए. यह भेदभाव देख कर मुझे बुरा लगा.

वरुण ने बाजार जाने से मना कर दिया. उसे दफ्तर की कोई जरूरी फाइल देखनी थी. सुमी भी इतवार की सुबह काफी व्यस्त रहती है. सो, बाजार जाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली. सुमी ने सामान की सूची और झोले के साथ यह हिदायत भी दे डाली कि मैं अधिक दूर न जा कर पास की मार्केट से ही सामान ले आऊं.

सुमी की हिदायत के बावजूद मैं दूर  सब्जी मंडी चला गया. शायद  सुबह की खीझ मिटाने और रास्ते में अपने मित्र रामलाल हलवाई की दुकान तक पहुंच कर मेरा सब्र टूट गया और वहां मैं ने डट कर कचौरी व जलेबी का नाश्ता किया. नाश्ता करते समय मैं ने ‘फादर्स डे’ के मौके पर बड़े ही भावपूर्ण तरीके से अपने पिताजी को याद किया और बेटे के लिए उस की सलामती की कामना की.

‘‘बड़ी देर लगा दी पापाजी, कहां चले गए थे?’’ घर पहुंचते ही सुमी ने इस सवाल के साथ मेरा स्वागत किया.

‘‘मैं मंडी चला गया था. वहां सब्जी सस्ती और अच्छी मिलती है न.’’ अपनी इस समझदारी पर दाद मिलने की उम्मीद से मैं ने उस की ओर देखा पर उस ने मेरा दिल तोड़ दिया.

‘‘सब्जी लेने ही गए थे न या फिर कुछ और भी?’’ उस के इस आधेअधूरे सवाल का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और जवाब में उसे घूर कर भी देखना चाहता था मगर चोरी पकड़ी जाने के डर से ऐसा कर न सका. थकान का बहाना बना कर मैं अपने कमरे में चला आया.

रसोई में हंगामा सा मचा हुआ था. बच्चे खाना बना रहे थे और उन के मातापिता उन की मदद कर रहे थे. पता नहीं खाना ही बना रहे थे या कोई खेल खेल रहे थे, मुझे समझ नहीं आया. अच्छा ही हुआ जो मैं बाहर से खा कर आ गया, पता नहीं घर में तो आज खाना बनेगा भी या नहीं.

मेज पर खाना लग चुका था. मेरा पोता मुझे बुलाने आया. मेरा पेट जरा भारी सा हो रहा था. इस समय भोजन करने का बिलकुल भी मन नहीं था. पर मना करने का तो सवाल ही नहीं उठता, कमजोरी मेरी ही थी. मैं मन ही मन अपनी मधुमेह आदि बीमारियों को कोसते हुए, जो मुझे अपने बच्चों से झूठ बोलने को मजबूर कर देती हैं, बाहर चला आया.

यों तो आज भी मेरे लिए लौकी की सब्जी और चपाती बनी थी पर शायद आज बच्चों को मुझ पर थोड़ा ज्यादा प्यार आ गया, इसलिए उन्होंने अपने खाने में से भी थोड़ा सा चखने के लिए दे दिया. खाना बेहद स्वादिष्ठ बना था, शायद इसलिए कि उस में बच्चों का प्यार भी मिला था, पर मजा नहीं आ रहा था. इस का कारण भी मैं जानता था.

‘‘क्या बात है पापाजी, आप खाना नहीं खा रहे? अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’ बहू ने मुझे प्लेट में चम्मच घुमाते देख पूछा. वह खोजी नजरों से मुझे देख रही थी. मुझे उस की इस अदा से बड़ा डर लगता है, लगता है मानो अंदर झांक कर सारे राज मालूम कर लेगी.

‘‘नहीं बेटे, ऐसी कोई बात नहीं है. खाना बहुत अच्छा बना है,’’ मैं ने जल्दीजल्दी निवाले निगलते हुए कहा. उस समय मुझे अपनी पोल खुलने से अधिक फिक्र अपने बच्चों की भावनाओं की थी. मैं ने सब के साथ भरपेट भोजन किया और दिल खोल कर भोजन की तारीफ भी की.

शाम को बच्चों का बाहर जाने का प्लान था. जब वे लोग मुझ से इजाजत लेने आए तब मेरे पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा था, लेकिन मैं ने उन्हें इस बाबत बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वे लोग अपना प्लान रद्द कर देते. मेरे पोतापोती मुझे बाय कर रहे थे और मैं किसी तरह अपने दर्द को दबाए हुए मुसकराने की कोशिश कर रहा था. सुमी अब भी मेरे लिए खाना बना कर गई थी. मुझे बड़ी खुशी हुई यह देख कर कि वह मेरी हर छोटीबड़ी जरूरत का हर तरह से ध्यान रखती है. मन तो किया कि उस के लिए ही सही, दो निवाले खा लूं, मगर मुझ से नहीं हुआ. हार कर मैं अपने बिस्तर पर पड़ गया.

मैं इतनी तकलीफ में था कि बच्चे कब घर वापस आए, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे सोया जान उन्होंने मुझे नहीं जगाया. मैं रातभर दर्द से तड़पता रहा. सुबह खाई कचौरियां मेरे पेट में कुहराम मचाए हुए थीं. ऐसे में ठीक तो यही रहता कि मैं अपने बेटाबहू को जगा देता पर सब थके हुए थे और मुझे उस समय उन्हें परेशान करना ठीक नहीं लगा. मगर परेशान तो वे लोग फिर भी हो गए. मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें मेरी तकलीफ के बारे में पता चल गया. मेरे वाशरूम से बारबार आती फ्लश की आवाज ने चुगली जो कर दी थी.

वरुण और सुमी मेरे कमरे में चले आए. मेरी हालत देख कर वे घबरा गए. वे तो उसी समय डाक्टर को बुलाना चाहते थे मगर इतनी रात डाक्टर का आना मुश्किल था. सो, खुद ही मेरी तीमारदारी में जुट गए. मुझे उस समय अपने बच्चों पर प्यार आ रहा था और शायद उन्हें गुस्सा, तभी तो वरुण मुझे घूर कर देख रहा था. वरुण के इस तरह घूरने से मुझे डर लगता था. उस के गुस्से से खुद को बचाने के लिए मैं आंखें बंद कर के लेट गया. थोड़ी देर में मुझे दवा के कारण नींद आ गई.

10 बजे के करीब मेरी नींद टूटी. मैं चौंक कर उठ बैठा. सुमी का दफ्तर जाने का समय हो रहा था. आज मैं अपनी आदत के उलट बहुत देर तक सोता रहा. मैं ने उठने की कोशिश की, पर उठ नहीं पाया. बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी. कुछ ही देर में सुमी मुझे देखने आई. मुझे जगा हुआ देख कर वह चाय बना लाई. तब तक वरुण ने मुझे सहारा दे कर बैठा दिया. दोनों को उस समय घर के कपड़ों में देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम दोनों अब तक तैयार नहीं हुए. आज औफिस नहीं जाना है क्या?’’

‘‘आप को ऐसी हालत में छोड़ कर औफिस कैसे जाएं. आज हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी ले ली है,’’ वरुण ने जवाब दिया.

‘‘नहीं बेटा, इस की कोई जरूरत नहीं है. मैं अब ठीक महसूस कर रहा हूं. तुम लोग आराम से दफ्तर जाओ,’’ जाने मैं बच्चों से झूठ बोल रहा था या फिर खुद से, मुझे समझ नहीं आया.

‘‘हां, पता है हमें कितना ठीक महसूस कर रहे हैं आप. आप का चेहरा देख कर ही पता चल रहा है. अब आप कुछ नहीं बोलेंगे, सिर्फ आराम करेंगे. आज हम आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. पूरा दिन आप पर नजर रखेंगे और आप वो करेंगे जो हम कहेंगे. चलिए, लेट जाइए.’’ बहू की यह मीठी झिड़की मुझे अच्छी लगी. इस के बाद दोनों पूरा दिन मेरी इस तरह देखभाल करते रहे जैसे कि मैं एक छोटा बच्चा हूं और वे दोनों मेरे अभिभावक, मैं भी उन की हर आज्ञा का पालन करता रहा.

शाम तक मेरी हालत में काफी सुधार हो चुका था. मैं अपने कमरे में बैठेबैठे बोर हो गया था. सो, उठ कर हौल में चला आया. मुझे देख कर सुमी ने चाय का कप और एक प्लेट में बिस्कुट परोस कर मेरे सामने रख दिए. मुझे बड़ी हसरत से पैस्ट्री और समोसों की ओर ताकते देख उस के होंठों पर शरारती मुसकान आ गई जिसे देख कर मैं शरमा गया.

‘‘कल आप कहां गए थे पापा?’’ वरुण ने मेरी ओर सवाल दागा.

उस के इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था, इसलिए कुछ पलों के लिए तो हड़बड़ा गया लेकिन फिर विरोध करने वाले अंदाज में बोला. ‘‘तुम्हारी याददाश्त अभी से कमजोर हो गई है क्या? याद नहीं तुम्हें, सब्जी लेने गया था, बहू ने ही तो भेजा था.’’

‘‘मेरी याददाश्त बिलकुल ठीक है. आप की बहू ने तो आप को पास वाली मार्केट भेजा था, पर आप रामलाल चाचा की दुकान पर पहुंच गए. पूछ सकता हूं क्यों?’’

‘‘मैं रामलाल की दुकान पर नहीं, मंडी गया था, अच्छी और सस्ती सब्जी लेने.’’ मैं जानता था अब मेरा झूठ ज्यादा देर तक नहीं चलेगा, पर फिर भी मैं ने एक आखिरी कोशिश की.

‘‘मेरे दोस्त दिनेश ने आप को रामलाल चाचा की दुकान पर देखा था वह भी जलेबी और कचौरी खाते हुए.’’मेरे बेटे के बिगड़े तेवरों ने मुझे सीधा कर दिया. दिनेश को तो मैं ने भी देखा था उस दिन पर यह नहीं सोचा था कि वह मेरे बेटे से मेरी चुगली कर देगा, चुगलखोर कहीं का. आजकल के लड़कों में बड़ों के लिए आदरसम्मान रहा ही नहीं. मैं ने अपने बेटे की ओर देखा. वह सच सुनने के इंतजार में लगातार मुझे घूर रहा था. अब और किसी झूठ के लिए जगह नहीं थी, बहाने भी लगभग खत्म हो चुके थे. सो, अब सच बोलने में ही भलाई थी.

‘‘कल तुम लोगों को फादर्स डे मनाते देख मेरा भी मन कर गया. मैं वहां फादर्स डे मनाने गया था.’’ मेरा यह मासूमियत भरा जवाब सुन कर मेरी बहू की हंसी छूट गई. जाने उस की हंसी में क्या था कि पहले मैं, फिर मेरा बेटा भी उस के साथ खुल कर हंस दिए. हम हंसे जा रहे थे और दोनों बच्चे हमारी ओर आश्चर्यभरी नजरों से देख रहे थे.

Manohar Kahaniya: टूट गया दिव्या के प्यार का सुर और ताल- भाग 2

एक दिन उस ने अपने दिल की बात दोस्त अनिल को बताई. उस से अपनी योजना में शामिल होने के लिए मदद मांगी. अनिल भी   रवि के साथ ही फाइनैंस कंपनी में काम करता था. फिर क्या था रवि ने सिरे से वीडियो शूट करने की योजना बनाई. अनिल के जरिए दिव्या को फोन करवाया. दिव्या भी काफी समय से काम की कमी होने से परेशान चल रही थी.

वह काम की तलाश में कई बार दूरदूर तक जाने लगी थी. स्टेज शो भी करने लगी थी. ऐसे में जब अनिल ने उस को फोन कर एक एलबम रिकौर्ड करने की बात बताई तो वह तुरंत तैयार हो गई. अनिल ने बदले में उसे एक गाने के 5 हजार रुपए मिलने का आश्वासन भी दिया.

अनिल ने उसे घर से ही रिसीव करने और हरियाणा के एक स्टूडियो में गाने की रिकौर्डिंग की बता कही. दिव्या पहले भी अनिल से मिल चुकी थी, इसलिए बगैर कोई सवाल किए उस के साथ जाने के लिए तैयार हो गई. इस सिलसिले में वह पहले भी दिल्ली से हरियाणा जा चुकी थी.

यही कारण था कि 11 मई, 2022 की सुबह जब अनिल कार से उसे लेने घर पहुंचा तब उस के मन कोई आशंका नहीं थी, बल्कि नया काम मिलने की खुशी थी. परिवार के सभी सदस्य खुश थे कि वह काम पर जा रही थी. उन्होंने खुशीखुशी उसे विदा किया था.

गन्ने के जूस में मिला दी नशे की दवा

घर से निकलने से पहले उस ने अनिल का फोन नंबर अपनी छोटी बहन को दिया और कहा कि वह एक गाने की रिकौर्डिंग करने भिवानी जा रही है. शाम तक गाना रिकौर्ड कर के वापस आ जाएगी. उस के गाने की रिकौर्डिंग अनिल के गाने के साथ होनी है.

अनिल दिव्या को ले कर हरियाणा की तरफ निकल गया था. रोहतक के मेहम में पहुंच कर उस ने दिव्या के साथ कलानौर गांव में स्थित गुलाटी ढाबे पर खाना खाया. ढाबे पर ही दोनों ने गन्ने का जूस पिया. उस के बाद जब वे दोनों वहां से निकले, तब रास्ते में खड़ा रवि भी उस गाड़ी में सवार हो गया.

रवि के साथ दिव्या की सुलह हो चुकी थी. रवि ने दिव्या को पुरानी रंजिश भूलने और नई जिंदगी जीने का आश्वासन दिया. रवि कार में बैठने पर कुछ समय तक चुपचाप रहा. कार में चुप्पी छाई हुई थी. अनिल ने दिव्या का गाना चला कर उसे छेड़ा. फिर वे इधरउधर की बातें करने लगे और गाने गुनगुनाने लगे.

थोड़े समय बाद दिव्या की आंखें बंद होने लगी थीं. असल में अनिल ने उस के गन्ने के जूस के गिलास में नींद की 10 गोलियों का पाउडर मिला दिया था.

दिव्या ने नींद में सीट से अपना सिर टिका दिया था. थोड़ी देर में अनिल और रवि जब एकांत इलाके में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दिव्या पूरी तरह से बेहोशी की हालत में है.

अर्द्धनग्न अवस्था में दफना दिया दिव्या को

रवि ने एक नजर अनिल पर डाली और दूसरी निगाह बेहोश दिव्या पर. अनिल ने भी दिव्या की हालत को देखा और रवि को इशारा कर दिया. सब कुछ उन की योजना के मुताबिक हो रहा था. रवि ने बेहोश दिव्या के सिर पर कार में रखे छोटे डंडे से जोरदार वार कर उसे एक झटके में निढाल कर दिया. फिर उस का गला दबा कर हत्या कर दी.

दिव्या को दोनों ने बड़ी आसानी से मौत की नींद सुला दिया था. आगे की योजना के अनुसार उस की लाश को इस तरह से ठिकाने लगाना था, जिस से उस की पहचान न हो सके और वे कभी पकड़ में न आएं.

उन्होंने कार में ही मृत दिव्या के सारे कपड़े उतार लिए. उसे सिर्फ अंडरगारमेंट में छोड़ा. उस का मोबाइल, पर्स, बैग और दूसरे सामान अपने कब्जे में ले लिए. फिर भैरो भैणी गांव में बरसाती नाले के पास हाईवे के फ्लाईओवर के पास सुनसान स्थान पर गाड़ी रोकी और झाडि़यों के बीच दिव्या की लाश को जमीन में दफना दिया.

पुलिस को अब लाश बरामद करनी थी, इसलिए पुलिस दोनों की निशानदेही पर उस जगह गई, जहां दिव्या की लाश को जमीन में दफनाया गया था. लेकिन वहां पुलिस को लाश नहीं मिली. वह लाश मेहम पुलिस पहले ही बरामद कर चुकी थी.

दरअसल, फ्लाईओवर के पास लघुशंका करने गए एक व्यक्ति को जमीन से निकला हुआ हाथ दिखाई दिया था. उस ने यह जानकारी नजदीक के चौकी इंचार्ज नफे सिंह को दी. नफे सिंह इस के बाद मौके पर पहुंचे तो हाथ देख कर उन्हें भी मामला संदिग्ध लगा.

हमारी बहू इवाना- भाग 2: क्या शैलजा इवाना को अपनी बहू बना पाई?

इवाना द्वारा पिता का पूरा नाम लिए जाने पर शैलजा को सांप सूंघ गया. सब के बीच चल रही बातचीत उस के कानों से टकरा कर लौट रही थी. मन में तूफान उठ रहा था, ‘सरनेम तो यही बता रहा है कि इवाना के पिता एक दलित हैं. मां विदेशी हैं, लेकिन पिता तो भारतीय हैं और यदि वे नीची जाति के हैं, तो इवाना भी…’

शैलजा के हृदय में अकस्मात भूकंप आ गया. कुछ देर पहले बनी सपनों की इमारतें पलभर में ढह गईं. बोलीं, ‘विशाल ने यह क्या किया? जिस का डर था वही हो गया.’

वीडियो काल समाप्त होने के बाद इस विषय में वह कुछ कहती, इस से पहले ही दिनेश बोल उठा, “एक ही बेटा है हमारा, वह भी नाम डुबोएगा खानदान का. विदेश जा कर सब भुला दिया. क्या इसलिए ही बाहर भेजा था कि इतने उच्च कुल का हो कर नीचे लोगों से रिश्ता जोड़े?”

“वही तो… गोरी ढूंढ़ी भी, लेकिन किएकराए पर पानी फेर दिया. जल्द ही कुछ करना पड़ेगा. याद है, लखनऊ वाली दीदी ने जो लड़की बताई थी, उस के कामकाजी न होने और केवल बीए पास होने के कारण हम चुप थे. सोच रहे थे कि विशाल न जाने ऐसी पत्नी चाहेगा या नहीं? दीदी कई बार पूछ चुकी हैं. गोरीचिट्टी, सुंदर नैननक्श वाली है वह लड़की. दीदी को फोन कर आज ही बात करती हूं. विशाल को रात में फोन कर के कह देंगे कि इवाना बहू नहीं बन सकती हमारी. कुछ दिन नानुकुर करने के बाद मान ही जाएगा वह. अभी कुछ नहीं किया तो खूब जगहंसाई होगी हमारी.”

‘न जाने इवाना और विशाल का रिश्ता कितना आगे बढ़ चुका होगा? एकदूसरे के साथ कितना समय बिताते होंगे? यदि भावनात्मक रूप से पूरी तरह जुड़ चुके होंगे, तो विशाल उन के मना करने पर मानेगा भी या नहीं?’ इन बातों पर विचार करने लगे दोनों.

शैलजा को अचानक याद आया कि कुछ दिन पहले जब वह अपने भाई के घर गई थी तो एक ज्योतिषी से भेंट हुई थी. उन्होंने विशाल की जन्मतिथि पूछ कर कुंडली बनाई थी और उसे देख कर बताया था कि ग्रह दशा के अनुसार इस के विवाह में थोड़ी बाधा आएगी. कुछ दिनों के पूजापाठ द्वारा यह बाधा दूर हो सकती है और अति उत्तम पत्नी मिलने का योग बन सकता है. आज भाई के घर जा कर ज्योतिषी से मिलना तो संभव नहीं है, किंतु पास वाले मंदिर के पंडितजी से सलाह तो ली जा सकती है.

इस विचार ने शैलजा को कुछ राहत दी. दिनेश को भी बात जंच गई.

शाम को तैयार हो कर दिनेश पार्क में इवनिंग वौक करने और शैलजा उस मंदिर की ओर चल दी, जहां वह कोविड से पहले प्रायः जाती रहती थी. कोरोना के बाद मंदिर खुले बहुत समय नहीं हुआ था. इस बार कई दिनों बाद जा रही थी वहां.

मंदिर में इन दिनों भीड़भाड़ पहले की तरह ही होने लगी थी, लेकिन इस समय ज्यादा लोग नहीं थे. दोपहर को 4 घंटे बंद रहने के बाद संध्याकाल में खुला ही था मंदिर.अहाते के बाहर लगी दुकानों से पुष्प व मिठाई खरीद वह भीतर चली गई.

मूर्ति के पास खड़े पुजारी को जैसे ही उस ने फूलों का दोना थमाया, वह बुरी तरह चौंक गई. पुजारी वह नहीं था, जो पहले हुआ करता था, लेकिन उस पुजारी का चेहरा जानापहचाना सा था. ‘यह तो माधव की तरह दिख रहा है, जो मेरे औफिस में सफाई कर्मचारी है.’

शैलजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

“आप को पहले कभी इस मंदिर में नहीं देखा था. सुखीराम पंडितजी हुआ करते थे यहां तो. वे दिख नहीं रहे,” शैलजा शंकित स्वर में बोली.

“हां, मैं पहले नहीं था यहां. सुखीरामजी कुछ दिनों के लिए अपने गांव गए हैं,” नए पुजारी ने बताया, तो आवाज सुन शैलजा का संदेह पुख्ता हो गया. ‘यह तो वास्तव में माधव है. क्या माधव उसे पहचान गया होगा? क्या वह चुपचाप चली जाए या और पूछताछ करे?’ एक सफाई करने वाले को पुजारी के स्थान पर देख उसे बहुत अटपटा लग रहा था. माधव मिठाई का भोग लगाकर डिब्बा उसे लौटाने आया तो हाथ आगे बढ़ाने के साथ ही एक प्रश्न भी शैलजा ने आगे कर दिया. “माधव ही हो न तुम? पहचाना मुझे?”

माधव पहचान तो गया था शैलजा को, लेकिन बिना कुछ बोले सिर झुकाए खड़ा रहा.

“मैं फोर्थ फ्लोर पर बैठती हूं. अकसर तुम्हारी ड्यूटी उसी फ्लोर पर लगती है. सुबह जब तुम मेरी टेबल से धूल झाड़ते हो तो मैं आई हुई होती हूं. रोज देखती हूं तुम्हें. मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं.”

“जी मैडम, मैं माधव हूं. आप को पहचानता हूं. मुझे तो यह भी याद है कि एक बार मेरी बेटी की बीमारी के दौरान दवाओं का बिल लंबा हो गया था. सब कह रहे थे कि मुझे पूरा पैसा वापस नहीं मिलेगा. आप ने फाइनेंस सैक्शन को सख़्ती से लिखा था कि मेरा एकएक पैसा रिइम्बर्स हो.”

“माधव, जब तुम सही थे, तो मैं ने साथ दिया था तुम्हारा, लेकिन यह क्या किया तुम ने? मुझे बेहद अफसोस हुआ देख कर कि तुम मंदिर में पुजारी बन कर धोखा दे रहे हो सब को.”

अंत भला तो सब भला- भाग 4: ग्रीष्मा की जिंदगी में कैसे मची हलचल

सासससुर की यह मनोदशा देख ग्रीष्मा का मन जारजार रोने को हो चला. वह सोचने लगी कि यह क्या तूफान ला दिया सर ने उस की जिंदगी में. सासससुर शायद अपने भविष्य को ले कर चिंतित हो उठे थे. सच भी है वृद्धावस्था में असुरक्षा की भावना के कारण इंसान अपनी वास्तविक उम्र से अधिक का दिखने लगता है. वहीं बेटेबहू और नातीपोतों के भरेपूरे परिवार में रहने वाला इंसान अपनी उम्र से कम का ही लगता है.

किसी तरह रात काट कर वह स्कूल पहुंची. बिना कुछ सोचे सीधी सर के कैबिन

में पहुंची और बोली, ‘‘कभीकभी इंसान अच्छा करने चलता है और कर उस का बुरा देता है. वही आप ने मेरे साथ किया है.’’

‘‘क्या हुआ?’’ सर ने उत्सुकतावश पूछा.

‘‘सब गड़गड़ हो गया है. शाम को आप कौफी हाउस में मिलिए. वहां बताती हूं.’’

स्कूल की छुट्टी के बाद कौफी हाउस में उस ने सारी बात सर को बता दी.

सर कुछ देर गंभीरतापूर्वक सोचते रहे फिर बोले, ‘‘मैं शाम को घर आता हूं.’’

‘‘आप आएंगे तो वे और अधिक क्रोधित हो जाएंगे…उन्हें आप की जाति से भी तो समस्या है…’’

‘‘अरे कुछ नहीं होगा, मुझ पर भरोसा रखो, अभी तुम जाओ.’’

लगभग 7 बजे विनय सर घर आए तो हमेशा हंस कर उन का स्वागतसत्कार करने वाले सासससुर आज उन के साथ अजनबियों सा व्यवहार कर रहे थे जैसे वे कोई बहुत बड़े अपराधी हों. पर विनय सर ने सदा की भांति उन के पांव छुए और कुछ औपचारिक बातचीत के बाद बाबूजी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘‘बाबूजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं बन सकता? यदि आप अपनी बहू को बेटी बना कर इतना प्यार दे सकते हो कि वह अपने से पहले आप के बारे में सोचे, तो क्या मैं जिंदगी भर के लिए आप की बेटी का सहयोगी नहीं बन सकता? मैं मानता हूं कि मेरी जाति आप की जाति से भिन्न है, परंतु क्या जाति ही सब कुछ है बाबूजी? मैं और आप की बहू मिल कर इस घर की सारी जिम्मेदारियां उठाएंगे.’’

‘‘वह अपनी मरजी की मालिक है. हम ने उसे कब रोका है? उस की जिंदगी उसे कैसे बितानी है, इस का निर्णय लेने के लिए वह पूरी तरह स्वतंत्र है,’’ ससुर ने अपनी बात रखते हुए कठोर स्वर में कहा और कमरे में चल गए.

‘‘बहू और कुणाल के जाने से हम तो बिलकुल अकेले हो जाएंगे. इस बुढ़ापे में हमारा क्या होगा? बेटा तो पहले ही साथ छोड़ गया और अब बहू भी…’’  कह कर सासूमां तो सर के सामने ही फूटफूट कर रोने लगीं.

विनय सर मां के पास जा कर बोले, ‘‘मां आप ने यह कैसे सोच लिया कि मैं आप की बहू और पोते को ले कर अलग रहूंगा. मैं तो यहीं आप सब के साथ इसी घर में रहूंगा. आप की बहू ने तो सर्वप्रथम यही शर्त रखी थी कि मांबाबूजी उस की जिम्मेदारी हैं और वह उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकती. मैं तो आप सब के जीवन का हिस्सा भर बनना चाहता हूं.

‘‘मैं सिर्फ आप की बेटी की जिम्मेदारियों में उस का हाथ बंटाना चाहता हूं. मुझ पर भरोसा रखिए. आजीवन आप को निराश नहीं करूंगा. यदि आप मुझे अपनाते हैं तो मुझे एकसाथ कई रिश्ते जीने को मिलेंगे. मेरा भी एक भरापूरा पूरिवार होगा. मेरा इस संसार में कोई नहीं है. कभीकभी अकेलापन काटने को दौड़ता है. मैं तो आप का बेटा बन कर रहना चाहता हूं. आप के जीवन की समस्त परेशानियों को अपने ऊपर ले कर आप का जीवन खुशियों से भर देना चाहता हूं. परंतु यह सब होगा तभी जब आप और बाबूजी की अनुमति होगी,’’ कह कर विनय सर बाहर चले गए.

कुछ विचार करते हुए ससुर विश्वनाथ अपनी पत्नी से बोले, ‘‘मुझे लगता है हमें इन दोनों की शादी करा देनी चाहिए.’’

‘‘कैसी बातें करते हो? हम ब्राह्मण और वह नीची जाति का… नहीं, मुझे तो कुछ ठीक नहीं लग रहा,’’ सास कुछ उत्तेजित स्वर में बोलीं.

‘‘जाति को खुद से चिपका कर क्या मिलेगा हमें? ऊंचीनीची जाति से क्या फर्क पड़ता है हमें? हमारा तो बुढ़ापा अच्छा कटना चाहिए. बेचारी बहू कब तक दे पाएगी हमारा साथ. दोनों कमाएंगे और मिल कर जिम्मेदारियां उठाएंगे तभी तो हम चैन से रह पाएंगे.’’

‘‘यह बात तो आप की सही है… हमें जाति से क्या करना. इंसान तो विनय अच्छा ही है. हमें मातापिता सा मान भी देता है,’’ सास ने भी अपने पति के सुर में सुर मिलाते हुए कहा.

अगले दिन रविवार था, सुबहसुबह ही विश्वनाथ ने विनय को फोन कर के बुला लिया. जैसे ही विनय आए औपचारिक वार्त्तालाप के बाद वे बोले, ‘‘बेटा, हम ने तुम्हें गलत समझा. शायद हम स्वार्थी हो गए थे. क्या करें बेटा बुढ़ापा ऐसी चीज है जो आदमी को स्वार्थी बना देती है.

‘‘वृद्ध सब से पहले अपनी सुरक्षा और हितों के बारे में सोचने लगते हैं. हम ने भी अपनी बेटे जैसी बहू के भविष्य के बारे में न सोच कर सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में ही सोचा, जबकि उस ने सदा पहले हमारे बारे में सोचा. कौन कहता है कि बहू कभी बेटी नहीं हो सकती? मेरी बहू तो मिसाल है उन लोगों के लिए जो बहू और बेटी में फर्क करते हैं.

‘‘इस घर की बहू होने के बाद भी उस ने सदा बेटे की ही भांति सारे फर्ज निभाए हैं.

आज तक उस ने बस दुख ही दुख देखा है

और आज जब तुम उस की झोली में खुशियां डालना चाहते हो, उस की जिम्मेदारियां बांटना चाहते हो, तो हम उस के मातापिता ही उस के बैरी हो गए. बस मेरी बेटी को सदा खुश रखना,’’ कह कर विश्वनाथ जी ने विनय सर के आगे हाथ जोड़ दिए.

परदे की ओट में खड़ी ग्रीष्मा सासससुर का यह बदला रूप देख कर हैरान थी. पर अंत भला तो सब भला सोच दौड़ कर अपने सासससुर के गले लग गई.

‘‘हम आप को कभी निराश नहीं करेंगे,’’ कह कर विनय सर और ग्रीष्मा ने झुक कर दोनों के जब पैर छुए तो विश्वनाथ और उन की पत्नी ने खुश हो कर अपने आशीष भरे हाथ उन की पीठ पर रख दिए.

Review- ‘एक बदनाम आश्रम’: सीजन तीन

रेटिंगः दो स्टार

निर्माता: प्रकाश झा प्रोडक्शन

निर्देशकः प्रकाश झा

कलाकार: बौबी देओल,चंदन रॉय

सान्याल, दर्शन कुमार, अदिति पोंनकर, त्रिधा चौधरी, अनुप्रिया गोयंका, तुशार पांडेय, ईशा गुप्ता, कनुप्रिया गुप्ता, जहांगीर खान, अध्ययन सुमन, विक्रम कोचर,सचिन श्राफ,परिणीता सेठ, तनमय रंजन व अन्य.

अवधिः लगभग सात घंटे 40 मिनट, दस एपीसोड

37 से 50 मिनट के मिनट के ओटीटी प्लेटफार्म:एम एक्स प्लेअर

हमारे देश में सजयोंगी बाबाओं की कोई कमी नही है, जो कि खुद को जनता के सामने भगवान के रूप में पेशकर उन्हे मूर्ख बनाते रहते हैं. ऐसे ही कई बाबाओं की कहानियों को मिलाकर एक काल्पनिक कथा पर वेब सीरीज ‘‘आश्रम’’ की शुरूआत हुई थी, जिसका पहला और दूसरा सीजन काफी लोकप्रिय हुआ था.उसी वेब सीरीज का अब तीसरा सीजन तीन जून से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘एम एक्स प्लेअर’’ स्ट्ीम हो रहा है.इस बार इसे ‘‘एक बदनाम आश्रम 3’ नाम दे दिया गया है.

इसे ‘एमएक्स प्लेअर पर मुफ्त में देखा जा सकता है. सीजन दो जहां खत्म हुआ था, वही से सीजन 3 की षुरूआत हुई है.मगर इस बार कहानी में कुछ नए ट्रैक जोड़ने के साथ ही टीवी समाचार चैनलों की भी पोल खोली गयी है.

कहानी:

पहले दो सीजन की संक्षिप्त कहानीः

आश्रम वेब सीरीज की -रु39याुरुआत दलित परिवार की लड़की पम्मी से हुई थी, जो समाज की कुंठा और कुरीतियों के चलते बाबा निराला के दर पर पहुंची थी. शुरूआत में पम्मी को लगा था कि बाबा निराला का धाम दुनिया में इकलौती ऐसी जगह है जहां पिछड़ा, ऊंचा और नीचा कुछ नहीं है. यहां सब कुछ एक समान है. तथा पम्मी को यकीन था कि निराला बाबा की वजह से वह पहलवान के रूप में कई पुरस्कार अर्जित कर लेगी. लेकिन धीरे धीरे पम्मी को पता चलता है कि निराला बाबा भ्रष्ट  ही नहीं बल्कि आश्रम की साधवियों का यौन शोषण भी करता है.

एक दिन निराला बाबा,पम्मी के साथ भी जबरन बलात्कार करतसा है. तब पम्मी (अदिति पोहानकर) ठान लेती है कि वह हवस के पुजारी बाबा की सच्चाई सभी के सामने लाकर रहेगी.दूसरे सीजन में वह पत्रकार अक्की की मदद से आश्रम से भागने में सफल रहती है.

आश्रम 3 की कहानी

तीसरे सीजन की कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां दूसरे सीजन की कहानी खत्म हुई थी. अब बाबा निराला का साम्राज्य पिछली बार से भी ज्यादा फैल चुका है. उन्हें भ्रष्ट पुलिस तंत्र भ्रष्ट व राजनेताओं का भरपूर साथ मिल रहा है.अब राज्य के मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने एक पूर्व राजा की हवेली का अधिग्रहण कर उसे काशीपुर वाले बाबा का आश्रम ‘निराला धाम’ बनाकर 999 वर्ष  के लिए लीज पर दे दिया है.सरकार बाबा के इशारे पर नाच रही है, तो स्वाभाविक तौर पर बाबा निराला ज्यादा शक्तिशाली और चतुर बन गए हैं.बाबा निराला और भोपा सिंह ने पाखंड और काली करतूतों से अपना साम्राज्य कई गुना सजा लिया है.

-रु39याहर का बच्चा बच्चा उसकी -हजयूठी आस्था में फंस चुका है.सांस्कृतिक और आस्था की आड़ में बाबा बड़े-बड़े बिजनेसमैन और नेताओं को अपनी मुठ्ठी में ले लेते हैं. तो दूसरी तरफ बाबा निराला के अपने गुंडों के अलावा राज्य सरकार का पुलिस तंत्र पम्मी व अक्की की तलाश में है. एपीसोड दर एपीसोड कहानी में कुछ दूसरी कहानियां भी जुड़ती हैं. मसलन कांट्रैक्टर विपुल दहिया की सोलह व साल की बेटी के साथ निराला बाबा गलत काम करते हैं.

अंततः पूरे परिवार को आत्महत्या करना पड़ता है.उधर हुकुम सिंह का मंत्रिमंडल नही बन पा रहा है, उसके लिए आश्रम ने हर मंत्रालय के लिए अलग अलग रकम की मांग रखी है.बबिता अपनी चालें चल रही है,जिससे वह निराला बाबा के ज्यादा करीब हो जाए, इससे भोपा स्वामी भी परेशान है.निराला बाबा की पत्नी आरम पहुंचकर बेटे को मंत्री बनवाने की बात करती हैं. और चाल चलकर खुद ही मंत्री बन जाती हैं.बाबा से मुख्यमंत्री भी परेशान है. तभी वह अपनी मित्र सोनिया को अमरीका से बुलाते हैं.एक नया खेल षुरू होता है.उजागर सिंह अब आई बी आ गए हैं.वह भी बाबा के खिलाफ लगे हुए हैं.घटनाक्रम कुछ इस तरह बदलते हैं कि दसवें एपीसोड में पम्मी 14 दिन की न्याायिक हिरासत में जेल के अंदर पहुंच जाती हैं.

लेखन व निर्देशनः

तीसरे सीजन में भी कहानी काफी कसी हुई है. यूं तो बाबा के कई कारनामों यानी कि कहानी में दोहराव है,मगर किरदार व प्रस्तुति करण में कुछ नवीनता है. इस बार प्रकाश झा का निर्देशन कमजोर पड़ गया. जिसके चलते कुछ एपीसोड काफी शिथिल हो गए हैं.यदि यह कहा जाए कि पिछले दो सीजन के मुकाबल तीसरा सीजन कुछ नीरस हो गया है,तो गलत नहीं होगा.वह कई बार अतीत के कुछ दृश्य लाकर कहानी में मिर्च मसाला भरने का प्रयास जरुर करते हैं. आस्था, राजनीति-पुलिस की गठजोड़ अभी भी कहानी पर हावी है. इस बार रोमांचक तत्वों का घोर अभाव है. सरकार समर्थित भूमि हड़पने, वनवासियों के विस्थापन से लेकर समाचार चैनलों की भी कलई खोली गयी है.पर इस बार रोमांचक तत्वों का घोरस अभाव है.कई दृश्य बेवजह लंबे खींचे गए हैं. वह ईशा गुप्ता के किरदार सोनिया संग भी ठीक से खेल नहीं पाए. इस बार प्रकाश झा ने बोल्ड और अश्लील दृश्यों से बचने का प्रयास किया है. यूं तो अंतिम एपीसोड में 2023 में चैथे सीजन लाने की बात कही गयी है, मगर प्रकाश झा दोहराव से कैसे बचेंगें? तीसरे सीजन में भी उन्हे दोहराव के साथ कुछ गड़े मुर्दे फिर से उखाड़ने पड़े हैं.वैसे निराला बाबा से सबसे ज्यादा नुकसान तो बबिता को ही पहुंचाया, फिर भी बबिता किस नीयत से आश्रम की सेवा में रत है, कहना मुश्किल है. शायद इसी छोर को पकड़कर प्रकाश झा चौथे सीजन की कहानी गढ़ेंगे.

अभिनयः

निराला बाबा के किरदार में बॉबी देओल व भोपा स्वामी के किरदार में चंदन रॉय सान्याल का अभिनय निखरा हुआ नजर आता है.मगर पम्मी के किरदार में अदिति पोहानकर के हिस्से इस सीजन में करने को कुछ खास आया नही. वैसे भी तीसरे सीजन में महिला किरदार काफी कमजोर हो गए हैं..इस सीजन के कुछ एपीसोड में जब निराला बाबा को फंसने या गिरफ्तार होने का डर सताता है,उस वक्त एक डरपोक इंसान के भावों को भी चेहरे पर लाने में बौबी देओल कामयाब रहे हैं.तो वहीं स्त्री त्रिया चरित्र कर अपनी धाक जमाती जा रही बबिता के किरदार में त्रिधा चैधरी सबसे ज्यादा दिल जीतती हैं. त्रिधा चैधरी के किरदार में अब तक कई शेड्स आ चुके हैं. और हर शेड्स में उनका अभिनय कमाल का है. बबिता के बढ़ते प्रभाव को देखकर निराला बाबा की नजरों में अपना प्रभाव कम होने का डर कई बार भोपा स्वामी के चेहरे पर आते हैं, जिसे उन्होंने बहुत ही बेहतरीन तरीके से निभाया है. लेकिन उजागर सिंह के किरदार में दर्शन कुमार और डाक्टर के किरदार में अनुप्रिया गोयंका इस बार कमाल नहीं दिखा पायीं.

मेरे अपने- भाग 2: उसके अपनों ने क्यों धोखा दिया?

उसे याद आया, एक बार वह और महेन बैठे बातचीत कर रहे थे. उस ने महेन के कंधे पर सिर रखते हुए कहा था, ‘महेन, सचसच बताना, तुम मु?ा से शादी किसलिए कर रहे हो?’

महेन ने उस की आंखों में आंखें डालते हुए कहा था, ‘अब बता ही दूं?’

‘हां, हां, बताओ न?’

‘तुम कौफी बहुत अच्छी बनाती हो,’ और अंबिका ने उसे प्यार से एक धौल जमाई थी.

अंबिका को अब भी विश्वास नहीं होता था कि महेन जैसा व्यक्ति उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाह रहा था. एक तरफ मन पुलकित हो रहा था, दूसरी तरफ एक अनजाने भविष्य की कल्पना से उस का दिल बैठा जा रहा था. क्या सचमुच उस के दिन पलटेंगे? 40 वर्ष एकाकी जीवन बिताने के बाद क्या उस की आशाएं फलीभूत होंगी? क्या उसे भी वह सबकुछ मिलेगा जो हर औरत चाहती है यानी घर, पति और बच्चे.

अंबिका को अपना सहमा बचपन याद आ गया. बीमार मां की तसवीर आंखों में तैर गई, उन का पीला चेहरा, दमे से जर्जर शरीर, आएदिन वे खाट पकड़ लेतीं और घर का भार नन्ही अंबिका के अपरिपक्व कंधों पर आ पड़ता.

मां के निधन के बाद अंबिका ने घर का भार संभाल लिया. गुडि़यों से खेलने की उम्र में नूनतेल की चिंता में डूब गई. कब बचपन बीता और कब जवानी में कदम रखा, इस का उसे पता ही न चला.

कभीकभी मातंगी बूआ गांव से महीनेभर के लिए आ जातीं और हर बार पिताजी से एक ही राग अलापतीं, ‘रघुनाथ, बिना औरत के तेरी गृहस्थी चौपट हो रही है, तू दूसरा ब्याह क्यों नहीं कर लेता?’

‘इस उम्र में दूसरा ब्याह? नहींनहीं अक्का.’

‘अरे, तो फिर कम से कम अंबिका का ही विवाह कर दे. ताड़ जैसी लंबी होती जा रही है. एक तो ठिकाने से लगे.’

अंबिका ने मुंह बनाया, ‘बूआ, मैं अभी शादी नहीं करूंगी.’

बूआ जब भी आतीं अंबिका को सम?ाने की कोशिश करतीं, ‘अरी बिटिया, शादी के बिना लड़की जात का निस्तार नहीं है. कुंआरी लड़की पिता के घर में बैठी रहे तो लोग क्या कहेंगे? मेरी मान, एक औरत का सच्चा जीवनसाथी उस का पति ही होता है. वह अपनी ससुराल में ही शोभा देती है. एक अकेली औरत को यह समाज चैन से जीने नहीं देता, मेरी बात गांठ बांध ले.’

‘अकेली क्यों? पिताजी हैं, राजू व राधिका है.’

‘लो सुनो, अरे, पिताजी का साया सिर पर कितने दिन रहेगा और भाईबहन, वे जवान होते ही अपनी राह पकड़ेंगे.’

लेकिन अंबिका ने उन की एक न सुनी.

अंबिका कालेज गई तो पहले ही दिन प्रकाश से उस का साक्षात्कार हुआ. प्रतिभावान, सुदर्शन, प्रकाश पहली नजर में ही उस की नजरों में समा गया.

विवाह के नाम से चिढ़ने वाली अंबिका मादक स्वप्नों में खो गई. प्रकाश भी दिलोजान से उसे चाहने लगा. अब दोनों आतुरता से एकदूसरे की राह देखते और परस्पर मिलने के बहाने ढूंढ़ते. धीरेधीरे दोनों ने यह तय कर लिया कि वे कालेज की पढ़ाई पूरी होते ही विवाह करेंगे और फिर उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाएंगे.

अचानक छोटी बहन राधिका घर से भाग गई. रघुनाथ यह आघात बरदाश्त न कर सके, उन्हें दिल का दौरा पड़ा. परिवार के लोग उन्हें अस्पताल

ले गए.

भागने के 4 दिनों बाद राधिका बीमार पिता को देखने अस्पताल आई. उस के साथ पड़ोस का आवारा लड़का दिनेश था.

अंबिका ने बहन को आड़े हाथों लिया, ‘अरे, यों भाग कर चोरीछिपे शादी करने की क्या जरूरत थी. मु?ो बताती तो मैं किसी तरह पिताजी को राजी कर लेती.’

‘दीदी, पिताजी तो शायद मान जाते पर दिनेश के मातापिता उस की शादी किसी मालदार लड़की से करना चाहते थे.’

फिर उस ने तनिक लजाते हुए बताया कि उस का दिनेश के साथ प्रेम प्रसंग कई महीनों से चल रहा था और अब उसे गर्भ ठहर गया था.

बहन की दिलेरी देख अंबिका स्तब्ध रह गई. इधर अचानक प्रकाश ने ऐलान किया कि उसे एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया है और वह जल्दी से अमेरिका के लिए रवाना होना चाहता है.

‘अंबिका, तुम भी साथ चली चलो, हम लोग वहीं शादी कर लेंगे,’ प्रकाश ने कहा था.

‘ऐसे कैसे चली चलूं, प्रकाश?’ वह आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘तुम तो देख ही रहे हो, मेरे पिता अस्पताल में मौत से जू?ा रहे हैं और मेरी बहन आसान्न प्रसवा है…’

‘वह सब मैं कुछ नहीं जानता,’ प्रकाश ने उस की बात काटी, ‘तुम पारिवारिक ?ामेलों में फंसी रहीं तो तुम्हारी जिंदगी मिट्टी हो जाएगी. मेरा कहा मानो, सब जिम्मेदारियां ?ाटक दो, सब बंधन तोड़ दो और अपना भविष्य बनाओ.’

पर अंबिका ऐसा न कर सकी. प्रकाश चला गया और धीरेधीरे उस ने अंबिका से अपने सारे संपर्क तोड़ दिए. अंबिका महीनों रोती रही. जब थोड़ा संयत हुई तो उस ने शोधकार्य करने का निश्चय किया. इस सिलसिले में उस का अपने विषय के प्रोफैसर श्री सेठी के यहां आनाजाना होने लगा.

समय धीरेधीरे सरकता रहा. छोटा भाई राजू एक संगीत ग्रुप में जा मिला था और गिटार बजाते देशविदेश घूम रहा था. राधिका पति व बच्चों समेत पिता के घर रहने आ गई थी.

रघुनाथ को दोबारा दिल का दौरा पड़ा और इस बार उन्होंने सदा के लिए आंखें मूंद लीं. मरने से पहले वे अपना घर अंबिका के नाम कर गए और अंबिका से वादा ले लिया कि इस घर को किसी को दान नहीं करेगी,

न बेचेगी.

अंबिका एक मशीनी जिंदगी जिए जा रही थी. उस ने असमय ही प्रौढ़ता का आवरण ओढ़ लिया था. एक दिन दर्पण में ?ांका तो कांप गई. यह बालों में सफेदी, चेहरे पर लकीरें, बु?ा आंखें, भिंचे होंठ, यौवन उतार पर था. मन तो शायद कभी का बूढ़ा हो

चुका था.

जब अविनाश के घरवालों से शादी का प्रस्ताव आया तो एक बार फिर मन में दबी आकांक्षाएं करवट लेने लगीं. मन के तार ?ान?ाना उठे. अविनाश को देख कर फिर जीने की ललक हुई.

शादी की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं कि अचानक लड़के वालों ने मंगनी तोड़ दी. कारण पूछने पर वे टाल गए. अंबिका मर्माहत हुई, उस के आत्मसम्मान को बड़ी ठेस लगी. अविनाश से सवालजवाब करने के बदले वह मन ही मन सुलगती रही. उस ने तय कर लिया कि अब वह एकाकी जिंदगी जिएगी.

क्या पुरुषनामी जीव के बिना जीवन काटा नहीं जा सकता? क्या उस के नाम के साथ एक पुरुष के नाम का पुछल्ला जुड़ने पर ही उसे समाज में मानसम्मान मिलेगा? सबकुछ तो था उस के पास, प्राध्यापिका की नौकरी, सिर छिपाने का अपना घर, प्यार लुटाने को उस की बहन के बच्चे, और क्या चाहिए था उसे?

लेकिन महेन से मिलने के बाद उसे लगा था कि वह इतने दिनों एक अर्थहीन जिंदगी जी रही थी. उस के हिस्से की खुशियां अपनी ?ाली में बटोरने के लिए वह लालायित हो उठी. मन में नई आशाएं, नई अभिलाषाएं अंकुरित हुईं.

‘‘दीदी,’’ राधिका ने आवाज दी, ‘‘अरे, तुम यहां बैठी हुई हो? बूआ और मैं ने सारी खरीदारी कर ली, चल कर देखो.’’

अंबिका जड़वत बैठी रही.

‘‘यह क्या? ऐसे क्यों बैठी हो? क्या हुआ?’’

‘‘राधिका, मु?ो बड़ा डर लग रहा है.’’

बिन शादी के मां बनीं Karan Kundrra की एक्स गर्लफ्रेंड अनुषा, देखें Photos

मां बनना दुनिया का सबसे खूबसूरत अहसास है. हर महिला इस खूबसूरत अहसास को जीना चाहती है. जानी-मानी वीजे अनुषा दांडेकर ने एक बच्ची को एडॉप्ट किया है.  जी हां, एक्ट्रेस ने इस प्यारी सी बच्ची की फोटोज सोशल मीडिया पर शेयर की है.

एक्ट्रेस ने फोटो शेयर कर बताया है कि उन्होंने इस बच्ची को गोद लिया है.  उनकी बेटी का नाम सहारा है. अनुषा दांडेकर ने ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर लिखा, ‘आखिरकार, मेरे पास एक छोटी बच्ची है. जिसे मैं अपना कह सकती हूं.

 

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मैं अपनी एंजेल से मिलवाती हूं. जिसका नाम है सहारा, मेरी जिंदगी का प्यार. मोन्सटर और गैंग्सटर और मैं तुम्हारा ध्यान रखेंगे. तुम्हें बिगाड़ेंगे और तुम्हें सुरक्षित रखेंगे हमेशा और हमेशा… आई लव यू बेबी गर्ल, तुम्हारी मां.’

 

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बता दें कि अनुषा दांडेकर करन कुंद्रा की एक्स गर्लफ्रेंड रह चुकी है. उन्होंने शादी नहीं किया है. अनुषा दांडेकर ने बिना शादी के ही बेटी सहारा को गोद लिया है. बता दें कि अदाकारा अनुषा दांडेकर ने 40 साल की उम्र में मां बनने का फैसला किया है.

 

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इन तस्वीरों में अनुषा दांडेकर अपनी बेटी के साथ बेहद खुश नजर आ रही हैं. ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है.  फैंस और सेलिब्रिटी लगातार बधाईयां और शुभकामनाएं दे रहे हैं. इन दिनों अनुषा निर्देशक जैसन शाह को डेट कर रही है.

क्या शादी तुड़वाना आसान है

पुलिस वालों से शादी तुड़वाना का काम तो बहुत आसान और आम दिखता है पर अब पुलिस बढ़ते युवाओं के आत्महत्याओं के मामलों से ङ्क्षचतित होकर अपनी तरह जांच पड़ताल कर के उन की शादी करा रही है. आमतौर पर प्रेमी जोड़ों को शादी न करने की इजाजत जाति, उपजाति, धर्म, पैसे धर्म, रसूख, औकात के कारणों में से एक या ज्यादा रहे कारणों से नहीं की जाती.

पुलिस वाले अगर व्यस्क जोड़े को सुरक्षा दे दें तो वे अपनेआप शादी कर लें. होता क्या है जैसे ही लडक़ी शादी के लिए भागी नहीं कि मातापिता लडक़े पर अपहरण जैसा गंभीर आरोप लगा देते हैं. पुलिस वाले लडक़े के मांबाप, दोस्तों को गिरफ्तार कर लेते हैं कि वे अपहरण के अपराध में साझीदार हैं.

जेल में बंद न होने के डर से बहुत से जोड़े मातापिता की ओर से इंकार मिलने पर भागना नहीं. आत्महत्या करने का फैसला कर लेते हैं. वे जानते है कि न पुलिस उन्हें सुरक्षा देगी और न समाज अपनाएगा.

आजकल प्रेमी जोड़ों को व्यावहारिकता की भी समझ आ गई है. प्रेम कर लेना तो आसान है पर जब तक लडक़े या लडक़ी के पिता के घर में रहने को जगह न मिले, नए जोड़े के पास इतने पैसे भी नहीं होंगे कि वे किराए पर अपना घर बसा सकें. वैसे भी मकान मालिक अब पुलिस के चक्करों में फंसने के डर से भागे हुए, चाहे शादीशुदा ही क्यों न हों, जोड़ों को कर देने से हिचकिचाते है. इसलिए पुलिस अगर शादियां करवानी शुरू की तो यह अच्छा रहेगा, हो, फिर पंडित बेचैन ही उठेंगे कि उन की रोजीरोटी का क्या होगा?

बास्केटबाल खिलाड़ी ने मलयालम में लिखा मौत का पैगाम

सौजन्य: सत्यकथा

तारीख थी 26 अप्रैल 2022. पटना में राजीव नगर थाना के तहत गांधी नगर के रोड नंबर-6 के मकान में एक युवती की लाश मिली थी. लाश पंखे से झूल रही थी. लाश की स्थिति से साफ लग रहा था कि लड़की ने आत्महत्या की है. कमरे में बेड के पास ही एक छोटे से टेबल पर सुसाइड नोट भी मिल गया. पहली नजर में उस की भाषा पटना पुलिस नहीं समझ पाई.

शुरुआती जांच में पुलिस ने उस के बारे में पता किया तब मालूम हुआ कि नोट मलयालम भाषा में लिखा है. कमरे के माहौल से मालूम हुआ कि लड़की केरल की रहने वाली थी और रेलवे में नौकरी कर रही थी. वह उस कमरे में किराए पर रहती थी. उस का नाम लिथारा केसी था. साथ ही कमरे से उस के खिलाड़ी होने के भी प्रमाण मिले. सुसाइड नोट को पढ़वाया गया. उस में लिखा था—

‘डीयर मी

तुम पहले जैसी नहीं रही, तुम कितनी बदल गई हो. तुम कितना हंसती और बोलती थी. किसी के मिलने पर उस से बात करने पर खुश होती थी. तुम्हें मालूम है मैं उस ‘पुरानी तुम’ से कितना प्यार करती हूं…

‘लेकिन आज तुम ने खुद को समेट लिया है. तुम ने बात करनी बंद कर दी है जैसे तुम ने खुद को कहीं खो दिया है. तुम वापस आओगी. मैं चाहती हूं कि तुम वापस लौटो कुछ यादें बनाने के लिए.’

यह नोट लिथारा ने खुद को संबोधित करते हुए लिखा था, जिस से उस की विचलित मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था.

पटना पुलिस ने इस की सूचना तत्काल लिथारा के घर वालों को दे दी. परिवार के सदस्यों में उस के मामा राजीवन अपने पड़ोसी निशांथ के साथ भागेभागे पटना आए. आते ही उन्होंने बास्केटबाल कोच रवि सिंह पर भांजी को प्रताडि़त करने का आरोप लगा दिया. उन्होंने पुलिस को बताया कि लिथारा ने फोन पर कोच रवि के बारे में उन से शिकायत की थी.

राजीवन की शिकायत पर पटना पुलिस ने कोच रवि पर आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का मुकदमा दर्ज कर लिया. रवि पूर्व मध्य रेलवे में बास्केटबाल कोच था, उसे इस शिकायत के बाद हटा दिया गया.

दरअसल, लिथारा के मातापिता ने 26 अप्रैल 2022 की रात में लिथारा को फोन किया था, लेकिन बात नहीं होने पर वह परेशान हो गए थे. उन्होंने अपने जानपहचान वाले व्यक्ति से संपर्क किया. उस का फोन भी लिथारा ने नहीं उठाया. वह पास में ही रहता था और इसलिए वह लिथारा के कमरे पर ही चला गया. वहीं उसे लिथारा के आत्महत्या की बात पता चली. पहले उस ने पुलिस को सूचना दी. बाद में इस घटना की सूचना लिथारा के घर वालों को भी दे दी.

इस के बाद लिथारा के मामा राजीवन निशांथ के साथ पटना आए. लिथारा की लाश का पोस्टमार्टम कर शव उन्हें सौंप दिया गया.

लिथारा के मामा ने बताया कि वह बेहद ही खुशमिजाज थी. उस के आत्महत्या करने का जरा भी विश्वास नहीं होता है. वह जरूर किसी मानसिक दबाव में आ गई होगी, तभी उस ने ऐसा कदम उठाया.

लिथारा केरल में कोझीकोड के कक्काटिल की रहने वाली थी. उस के पिता करूनान केसी दैनिक मजदूर हैं. उन की पत्नी यानी लिथारा की मां कैंसर की मरीज हैं.

करूनान के 3 बच्चे हैं. लिथारा 2 बहनों में सब से छोटी थी. दोनों बहनों की शादी हो चुकी है और अपनीअपनी ससुराल में रहती हैं. इस तरह से लिथारा पर ही मातापिता के देखभाल की जिम्मेदारी थी.

लिथारा बास्केटबाल की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थी, इसलिए उसे रेलवे में खेल कोटे से नौकरी तो मिल गई थी, फिर भी उस के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. परिवार की इकलौती सदस्य सरकारी नौकरी में थी. इसलिए परिवार को कई उम्मीदें थीं. उस के मामा से यह भी मालूम हुआ कि उस ने परिवार की जरूरतों की पूर्ति के लिए कुछ लाख का लोन भी ले रखा था. घटना के कुछ दिन पहले ही 11 अप्रैल को वह घर गई थी. परिवार के साथ 3 दिन रहने के बाद ड्यूटी पर पटना लौट गई थी.

मामला एक खिलाड़ी की आत्महत्या का था. उस में भी मरने वाली दक्षिण भारत के अंतिम छोर के राज्य की प्रवासी थी. इस कारण यह मामला राज्य सरकारों तक जा पहुंचा. इस बाबत केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने 28 अप्रैल को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिख कर इस मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की. बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से भी आश्वासन भरा जवाब उन्हें भेज दिया गया.

लिथारा साल 2018 में राष्ट्रीय स्तर पर बास्केटबाल फेडरेशन कप जीतने वाली केरल टीम की सदस्य रह चुकी थी. स्पोर्ट्स कोटे से रेलवे में उसे नौकरी मिली थी और उन की पोस्टिंग पूर्व मध्य रेलवे के दानापुर डिवीजन के पर्सनल डिपार्टमेंट (कार्मिक विभाग) में बतौर जूनियर क्लर्क की थी.

उस की नौकरी 15 नवंबर, 2019 से शुरू हुई थी और नौकरी के साथसाथ खेल की प्रैक्टिस भी करती थी. उन के कोच रवि सिंह थे.

बीते 8 मार्च को पूर्व मध्य रेलवे के हाजीपुर मुख्यालय में खेलकूद के क्षेत्र में नाम रोशन करने वाली महिला खिलाडि़यों को सम्मानित किया गया था, जिस में से लिथारा भी एक थी.

लिथारा के घर वालों के मुताबिक वह पटना में रहते हुए 2 समस्याओं को झेल रही थी. एक समस्या भाषा की थी. वह न तो हिंदी बोल पाती थी और न ही समझ पाती थी. ऊपर से पटना में 2 क्षेत्रीय भाषाएं भोजपुरी और मगही भी बोली जाती हैं. उन के साथ तालमेल बिठाने में उसे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था. उस ने अपने मातापिता से कहा था कि उस को बहुत समस्या महसूस होती है, उस को हिंदी नहीं आती है.

दुर्भाग्य से नौकरी जौइन करने के कुछ महीने बाद ही पूरा देश कोरोना की चपेट में आ गया था. लौकडाउन लग गया था. आवागमन ठप हो गया था. ऐसे में लिथारा एकदम अकेली पड़ गई.

वह दूसरी अचानक आई समस्या से भी परेशान रहने लगी थी. कोरोना से बचाव भी करना था. इसे ले कर मातापिता की हिदायतों पर भी ध्यान देना था. उस ने औफिस के सहकर्मियों से हिंदी सीखने का प्रयास किया. साथ ही उस पर खेल की प्रैक्टिस जारी रखने का भी दबाव था.

लौकडाउन का उस पर भी गहरा असर हुआ. रोजमर्रा की जरूरतें जुटाने से ले कर ड्यूटी पर आनेजाने की तक मुश्किलों का सामना करना पड़ा.

इस बारे में लिथारा के परिजनों ने बताया कि वह नए शहर में हजारों किलोमीटर दूर रहते हुए समस्याओं के बारे में फोन पर बताती रहती थी. इसी सिलसिले में कोच की ओर से भी परेशानियों के बारे में भी बताया था. लिथारा ने उन्हें बताया था कि वह कोच के व्यवहार से बहुत परेशान थी. दूसरी तरफ दानापुर रेलवे का एक पुराना जोन होने के कारण वहां के कर्मचारियों पर काम का भी बोझ बना रहता था.

लिथारा के मामा राजीवन ने पटना के राजीव नगर थाने में 27 अप्रैल, 2022 को दर्ज कराई गई रिपोर्ट में लिखा कि   लिथारा ने मुझे पूर्व में फोन पर बताया था कि मेरे बास्केटबाल कोच के द्वारा शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है. मेरे ऊपर भी वो दबाव बना रहे हैं. उन की ऊपर तक पहुंच होने के चलते मैं उन के विरुद्ध शिकायत नहीं कर पा रही हूं. मुझे (राजीवन) को पूर्ण विश्वास है कि लिथारा ने अपने कोच रवि सिंह के उकसाने और प्रताडि़त करने के कारण ही मानसिक रूप से परेशान हो कर आत्महत्या कर ली है.

इस मामले की जांच राजीव नगर थानाप्रभारी नीरज कुमार सिंह को सौंपी गई है. उन्होंने राजीवन की शिकायत के आधार पर कोच से भी पूछताछ की. कोच ने  कुछ लडकेलड़कियों के खेलने के लिए मैदान में नहीं आने की शिकायत की.

उन्होंने बताया कि इस बारे में वे 19 अप्रैल को अपने वरिष्ठ अधिकारियों से लिखित तौर पर शिकायत  कर चुके थे. कोच ने तर्क दिया कि अगर उन्हें (लिथारा) को किसी तरह की शिकायत थी तो वरिष्ठ अधिकारियों से इस बात की शिकायत करनी चाहिए थी, लेकिन उन के खिलाफ ऐसी कोई शिकायत नहीं की गई.

पुलिस के मुताबिक हालांकि लिथारा के अत्महत्या के पीछे की एक वजह और भी सामने आई है. वह है अविनाश कुमार उर्फ सोनू और लिथारा के बीच काफी गहरी दोस्ती.

बताते हैं कि अविनाश अपनी पत्नी, बेटी और मां पिता के साथ द्वारिकापुरी स्थित अपने घर में रहता था. उस ने भी  उसी दिन शाम ड्यूटी से लौटने के बाद अपने कमरे में बंद कर फांसी लगा ली थी.

जबकि लिथारा के चाचा ने कोच पर ही सवाल उठाए हैं. उन्होंने पुलिस को बताया कि मृत्यु से एक दिन पहले लिथारा ने अपने मातापिता से बात की थी. तब उस ने बताया था कि उस के कोच रवि सिंह ने उस के साथ मारपीट करने की कोशिश की थी.

फिलहाल पुलिस ने रवि सिंह पर भादंवि की धारा 306 के तहत सुसाइड के लिए उकसाने का केस दर्ज कर लिया है कथा लिखे जाने तक पुलिस कोच रवि सिंह के खिलाफ जांच कर रही थी.

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