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अनुज-अनुपमा ने मनाया #maanday, देखें रोमांटिक VIDEO

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में रूपाली गांगुली (अनुपमा) और गौरव खन्ना (अनुज कपाड़िया) की जोड़ी को फैंस काफी पसंद करते हैं. फैंस को अनुज-अनुपमा की फोटोज और वीडियो का बेसब्री से इंतजार रहता है. शो में इन दिनों दिखाया जा रहा है कि शादी के बाद अनुपमा ने कपाड़िया हाउस में रहना शुरू कर दिया है.  तो वहीं अनुज की भाभी की भी एंट्री हो चुकी है. शो की कहानी में नए ट्विस्ट एंड टर्न आ रहे है. इसी बीच अनुपमा ने खास अंदाज में मानडे मनाया है. आइए बताते है पूरी खबर.

अनुज-अनुपमा का एक रोमांटिक वीडियो सामने आया है. इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि अनुज अपनी पत्नी के साथ आशिकों की तरह रोमांस करता नजर आ रहा है.

 

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अनुज-अनुपमा ने मानडे के मौके पर इस वीडियो को शेयर किया है. इस वीडियो में अनुपमा नई नवेली दुल्हन की तरह साड़ी पहने दिख रही है तो वहीं अनुज अनुपमा की तारीफ कर रहा है. अनुज को अपनी तारीफ करते देखकर अनुपमा शर्मा जाती है.

 

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अनुपमा ने इस वीडियो को शेयर करते हुए अपने फैंस को धन्यवाद कहा है. एक्ट्रेस ने वीडियो को शेयर करते हुए कैप्शन लिखा है, आखिरकार मानडे आ ही चुका है. मैं अपनी डिजिटल फैमिली को धन्यवाद कहना चाहती हूं. आप सब से इश्क करने की इजाजत हम रब से लाए हैं. लव यू ऑल…

 

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फैंस अनुज अनुपमा के इस वीडियो को जमकर लाइक कर रहे है. शो के आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि में बरखा अपने पति अंकुश को भड़काएगी और कहेगी कि वो अनुज से बिजनेस में अपना हिस्सा मांगे. बरखा बातों-बातों में यह भी बता देगी कि उसने अनुज को क्यों नहीं बताया कि उसका बिजनेस खत्म हो गया था. जिस पर अंकुश कहेगा कि वो आते ही अपने भाई से बिजनेस की बात नहीं कर सकता.

 

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बरखा अंकुश से कहेगी कि वो बिजनेस में अपना हक मांगे. बरखा कहेगी कि अगर उसने हेल्प मांगी तो अनुज उसे नौकरी देगा.

सौतेली- भाग 3: शेफाली के मन में क्यों भर गई थी नफरत

‘‘मैं इस के लिए तुम पर जोर भी नहीं डालूंगा, मगर तुम उस से एक बार मिल लो…शिष्टाचार के नाते. वह ऊपर कमरे में है,’’ पापा ने कहा.

‘‘मैं सफर की वजह से बहुत थकी हुई हूं, पापा. इस वक्त आराम करना चाहती हूं. इस बारे में बाद में बात करेंगे,’’ शेफाली ने अपने कमरे की तरफ बढ़ते हुए रूखी आवाज में कहा.

शेफाली कमरे में आई तो सबकुछ वैसे का वैसा ही था. किसी भी चीज को उस की जगह से हटाया नहीं गया था.

मानसी और अंकुर वहां उस के इंतजार में थे.

कोशिश करने पर भी शेफाली उन के चेहरों या आंखों में कोई मायूसी नहीं ढूंढ़ सकी. इस का अर्थ था कि उन्होंने मम्मी की जगह लेने वाली औरत को स्वीकार कर लिया था.

‘‘तुम दोनों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘एकदम फर्स्ट क्लास, दीदी,’’ मानसी ने जवाब दिया.

‘‘और तुम्हारी नई मम्मी कैसी हैं?’’ शेफाली ने टटोलने वाली नजरों से दोनों की ओर देख कर पूछा.

‘‘बहुत अच्छी. दीदी, तुम ने मां को नहीं देखा?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘नहीं, क्योंकि मैं देखना ही नहीं चाहती,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘ऐसी भी क्या बेरुखी, दीदी. नई मम्मी तो रोज ही तुम्हारी बातें करती हैं. उन का कहना है कि तुम बेहद मासूम और अच्छी हो.’’

‘‘जब मैं ने कभी उन को देखा नहीं, कभी उन से मिली नहीं, तब उन्होंने मेरे अच्छे और मासूम होने की बात कैसे कह दी? ऐसी मीठी और चिकनीचुपड़ी बातों से कोई पापा को और तुम को खुश कर सकता है, मुझे नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

शेफाली की बातें सुन कर मानसी और अंकुर एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

उन के चेहरे के भावों को देख कर शेफाली को ऐसा लगा था कि उन को उस की बातें ज्यादा अच्छी नहीं लगी थीं.

मानसी  से चाय और साथ में कुछ खाने के लिए लाने को कह कर शेफाली हाथमुंह धोने और कपडे़ बदलने के लिए बाथरूम में चली गई.

सौतेली मां को ले कर शेफाली के अंदर कशमकश जारी थी. आखिर तो उस का सामना सौतेली मां से होना ही था. एक ही घर में रहते हुए ऐसा संभव नहीं था कि उस का सामना न हो.

मानसी चाय के साथ नमकीन और डबलरोटी के पीस पर मक्खन लगा कर ले आई थी.

भूख के साथ सफर की थकान थी सो थोड़ा खाने और चाय पीने के बाद शेफाली थकान मिटाने के लिए बिस्तर पर लेट गई.

मस्तिष्क में विचारों के चक्रवात के चलते शेफाली कब सो गई उस को इस का पता भी नहीं चला.

शेफाली ने सपने में देखा कि मम्मी अपना हाथ उस के माथे पर फेर रही हैं. नींद टूट गई पर बंद आंखों में इस बात का एहसास होते हुए भी कि? मम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं, शेफाली ने उस स्पर्श का सुख लिया.

फिर अचानक ही शेफाली को लगा कि हाथ का वह कोमल स्पर्श सपना नहीं यथार्थ है. कोई वास्तव में ही उस के माथे पर धीरेधीरे अपना कोमल हाथ फेर रहा था.

चौंकते हुए शेफाली ने अपनी बंद आंखें खोल दीं.

आंखें खोलते ही उस को जो चेहरा नजर आया वह विश्वास करने वाला नहीं था. वह अपनी आंखों को बारबार मलने को विवश हो गई.

थोड़ी देर में शेफाली को जब लगा कि उस की आंखें जो देख रही हैं वह सच है तो वह बोली, ‘‘आप?’’

दरअसल, शेफाली की आंखों के सामने वंदना का सौम्य और शांत चेहरा था. गंभीर, गहरी नजरें और अधरों पर मुसकराहट.

‘‘हां, मैं. बहुत हैरानी हो रही है न मुझ को देख कर. होनी भी चाहिए. किस रिश्ते से तुम्हारे सामने हूं यह जानने के बाद शायद इस हैरानी की जगह नफरत ले ले, वंदना ने कहा.

‘‘मैं आप से कैसे नफरत कर सकती हूं?’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मुझ से नहीं, लेकिन अपनी मां की जगह लेने वाली एक बुरी औरत से तो नफरत कर सकती हो. वह बुरी औरत मैं ही हूं. मैं ही हूं तुम्हारी सौतेली मां जिस की शक्ल देखना भी तुम को गवारा नहीं. बिना देखे और जाने ही जिस से तुम नफरत करती रही हो. मैं आज वह नफरत तुम्हारी इन आंखों में देखना चाहती हूं.

‘‘हम जब पहले मिले थे उस समय तुम को मेरे साथ अपने रिश्ते की जानकारी नहीं थी. पर मैं सब जानती थी. तुम ने सौतेली मां के कारण घर आने से इनकार कर दिया था. किंतु सौतेली मां होने के बाद भी मैं अपनी इस रूठी हुई बेटी को देखे बिना नहीं रह सकती थी. इसलिए अपनी असली पहचान को छिपा कर मैं तुम को देखने चल पड़ी थी. तुम्हारे पापा, तुम्हारी बूआ ने भी मेरा पूरा साथ दिया. भाभी को सहेली के बेटी बता कर अपने घर में रखा. मैं अपनी बेटी के साथ रही, उस को यह बतलाए बगैर कि मैं ही उस की सौतेली मां हूं. वह मां जिस से वह नफरत करती है.

‘‘याद है तुम ने मुझ से कहा था कि मैं बहुत अच्छी हूं. तब तुम्हारी नजर में हमारा कोई रिश्ता नहीं था. रिश्ते तो प्यार के होते हैं. वह सगे और सौतेले कैसे हो सकते हैं? फिर भी इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं मां जरूर हूं, लेकिन सौतेली हूं. तुम को मुझ से नफरत करने का हक है. सौतेली मांएं होती ही हैं नफरत और बदनामी झेलने के लिए,’’ वंदना की आवाज में उस के दिल का दर्द था.

‘‘नहीं, सौतेली आप नहीं. सौतेली तो मैं हूं जिस ने आप को जाने बिना ही आप को बुरा समझा, आप से नफरत की. मुझ को अपनेआप पर शर्म आ रही है. क्या आप अपनी इस नादान बेटी को माफ नहीं करेंगी?’’ आंखों में आंसू लिए वंदना की तरफ देखती हुई शेफाली ने कहा.

‘‘धत, पगली कहीं की,’’ वंदना ने झिड़कने वाले अंदाज से कहा और शेफाली का सिर अपनी छाती से लगा लिया.

प्रेम के स्पर्श में सौतेलापन नहीं होता. यह शेफाली को अब महसूस हो रहा था. कोई भी रिश्ता हमेशा बुरा नहीं होता. बुरी होती है किसी रिश्ते को ले कर बनी परंपरागत भ्रांतियां.

अमेरिका में बढ़ता गन कल्चर

अमेरिका 231 वर्षों बाद भी अपने गन कल्चर को खत्म नहीं कर पाया है. इस की 2 प्रमुख वजहें हैं. पहली, कई अमेरिकी राष्ट्रपति से ले कर वहां के राज्यों के गवर्नर तक इस कल्चर को बनाए रखने की वकालत करते रहे हैं. दूसरी, गन बनाने वाली कंपनियां यानी गन लौबी भी इस कल्चर के बने रहने में अपना फायदा पाती हैं.

अमेरिका के टेक्सास शहर में हाईस्कूल के एक 18 वर्षीय छात्र ने पहले घर में अपनी दादी को गोली मारी, उस के बाद एक प्राइमरी स्कूल में घुस कर नन्हेनन्हे बच्चों पर दनादन गोलीबारी की. हत्यारे लड़के का नाम है साल्वाडोर रैमोस, जिस की अंधाधुंध फायरिंग में 19 मासूम बच्चों समेत 21 लोगों की जानें चली गईं. मारे गए तमाम बच्चे दूसरी, तीसरी और चौथी कक्षा के छात्र थे. उन को बचाने की कोशिश में स्कूल के 2 टीचर भी मारे गए.

कुछ दूसरे स्टाफ मैंबर्स, बच्चे और कुछ पुलिस वाले भी उन्मादी रैमोस की गोलियों से घायल हुए, जिन्हें अस्पतालों में भरती कराया गया है और जिन में से कुछ की हालत अभी भी काफी खराब है. इस घटना के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 4 दिनों के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की और तमाम संस्थानों एवं वाइट हाउस पर राष्ट्रीय ध्वज आधा झुका दिया गया. ये उन नन्हे मासूमों को श्रद्धांजलि थी जिन्होंने अभी दुनिया देखनी शुरू ही की थी.

हत्यारे छात्र साल्वाडोर रैमोस जब स्कूल के अंदर घुसा तो उस के एक हाथ में हैंडगन थी और दूसरे में राइफल झूल रही थी. एक दिन पहले रैमोस ने इन हथियारों की तसवीर अपने इंस्टाग्राम पोस्ट पर डाली थी. स्कूल में घुसते ही उस ने रायफल सीधी कर बच्चों पर अंधाधुंध गोलियां दागनी शुरू कर दीं. खून से लथपथ जमीन पर तड़पतड़प कर गिरते और मरते बच्चों को देख कर वह दरिंदा अट्हास करता रहा. हालांकि कुछ ही देर में पुलिस की गोलियों ने उस का जिस्म भी छलनी कर दिया मगर तब तक उस की गोलियां 21 जानें लील चुकी थीं.

हाईस्कूल के एक छात्र द्वारा टेक्सास के स्कूल में फायरिंग की यह घटना कनेक्टिकट में वर्ष 2012 में हुई फायरिंग से मिलती हुई है. कनेक्टिकट के न्यूटाउन में सैंडी हुक एलिमैंट्री हाईस्कूल में 14 दिसंबर, 2012 को 20 वर्षीय युवक ने ठीक इसी तरह फायरिंग की थी. उस हमले में 26 लोगों की जानें गई थीं, उन में 20 बच्चे थे. वह अमेरिका के इतिहास की सब से भयावह मास शूटिंग थी.

पिछले कुछ सालों में अमेरिका में हुई गोलीबारी की घटनाओं ने दुनिया को झकझोर कर रख दिया है. अमेरिका में गन कल्चर बेहद आम होता जा रहा है. यह देश के लिए बड़ी चुनौती है. अमेरिका में हथियार रखना आम आदमी के संवैधानिक अधिकारों में शुमार है और इस के लिए कोई कठिन नियम भी नहीं है. कपड़े और ग्रोसरी की तरह अमेरिका में हथियार खरीदेबेचे जाते हैं. खासतौर से युवा लड़कों द्वारा और इस गन कल्चर के कारण हुई मौतों का बोझ अब अमेरिका की संसद पर बढ़ रहा है.

पिछले महीने 14 मई को बफेलो शहर के एक सुपरमार्केट में फायरिंग हुई, जिस में 10 लोगों की मौत हो गई. अगले दिन रविवार को कैलिफोर्निया के चर्च में गोलीबारी की खबर आई, जिस में एक शख्स मारा गया. अप्रैल के महीने में न्यूयौर्क के एक रेलवे स्टेशन पर हुई गोलीबारी में 13 लोग घायल हुए. अमेरिका में वर्ष 2021 में भी फायरिंग की कई घटनाएं हुई थीं. कैलिफोर्निया के सैन जोस और कोलोराडो के बोल्डर में साल 2021 में भीषण गोलीबारी हुई थी. 22 मार्च, 2021 को बोल्डर की एक सुपरमार्केट में सामूहिक गोलीबारी की घटना में 10 लोगों की मौत हो गई थी. 2 महीने बाद 26 मई को सैन जोस में एक ट्रांसपोर्टेशन अथौरिटी कंट्रोल सैंटर में फायरिंग हुई और 9 लोग मारे गए. वहां गोलीबारी करने वाले शख्स ने भी खुदकुशी कर ली थी. निश्चित ही हत्यारा गहरे अवसाद व क्रोध में रहा होगा.

2019 के दौरान अमेरिका में हत्या के कुल 14,400 मामले सामने आए थे. इस से पहले 1993 में 18,253 लोगों की मौत बंदूक से जुड़े अपराधों की वजह से हुई थी. 2020 के दौरान अमेरिका में होने वाली 79 फीसदी हत्याएं बंदूक से की गईं. यह साल 1968 से अब तक का सब से बड़ा आंकड़ा है. पेव रिसर्च सैंटर के मुताबिक, 2020 में ऐसे मामलों में 34 फीसदी इजाफा हुआ. एक औनलाइन डेटा बेस ‘गन वौयलैंस आर्काइव’ के मुताबिक, 2020 में अमेरिका में सामूहिक गोलीबारियों में करीब 513 लोग मारे गए हैं. बीते 5 वर्षों में 49 फीसदी हथियारों से संबंधित घटनाएं अमेरिका में बढ़ी हैं.

अमेरिका में हर साल हत्या और फायरिंग की बड़ी घटनाएं सामने आती हैं. हर साल फायरिंग से जुड़े मामलों में हजारों लोगों की जान जाती है. इस की बड़ी वजह है अमेरिका का हथियारों के प्रति बेहद उदार रवैया, युवाओं और बच्चों में असुरक्षा की बढ़ती भावना, बिखरते परिवार और टूटता सामाजिक तानाबाना.

अमेरिका में हथियार रखने के कानून बेहद आसान हैं. किसी भी शख्स को हथियार रखने की इजाजत मिली हुई है. वहां बंदूक खरीदना आसान है. कोई भी व्यक्ति आसानी से जा कर बंदूक खरीद सकता है. साल 1791 में अमेरिका के संविधान में दूसरा संशोधन लागू किया गया था. उस के तहत अमेरिकी नागरिकों को हथियार रखने के अधिकार दिए गए थे. उस का असर यह हुआ कि अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोगों को पास बंदूकें हैं.

एक रिपोर्ट के अनुसार, वहां के राजनेताओं में हथियार रखने का चलन बहुत पुराना है. वर्तमान में 44 फीसदी रिपब्लिकन नेताओं के पास और 20 फीसदी डैमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं के पास बंदूकें हैं. समाज में भी हथियार एक स्टेटस सिंबल बना हुआ है. अमेरिका में 39 फीसदी पुरुषों और 29 फीसदी महिलाओं के पास बंदूकें हैं. इसी तरह ग्रामीण इलाकों में रहने वाले 41 फीसदी और शहरी इलाकों में 29 फीसदी लोगों के पास बंदूकें हैं. बंदूकें रखने की सब से बड़ी वजह असुरक्षा की भावना है.

पिछले एक दशक में अमेरिका में नस्लवाद के मामलों में भारी वृद्धि देखी गई है. काले लोगों के लिए गोरों के मन में बेइंतहा नफरत भरी हुई है. वहीं अमेरिका में 59 फीसदी लोग अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं. इस से उन में हिंसा पनपती है. अमेरिकी समाज में परिवार-संस्कृति नहीं है, लोग एकाकी जीवन अधिक जीते हैं. उन के पास दुखसुख बांटने वाले नहीं हैं, लिहाजा अकेलेपन में अवसाद पैदा होता है. कोढ़ में खाज यह कि ऐसी जर्जर मानसिक स्थिति के साथ रह रहे लोगों के हाथों में बंदूकें हैं. यह कौकटेल गोलाबारी जैसी भयावह घटनाओं के रूप में आएदिन सामने आता है और सैकड़ों निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाता है.

टूटा हुआ पारिवारिक तानाबाना

अमेरिका में 13-14 बरस का किशोर अपने मातापिता और परिवार के अन्य सदस्यों से दूर होस्टल में या घर से दूर अन्य शहरों में पढ़ाई के लिए निकल जाता है. 18 बरस का होतेहोते वह पूरी तरह पारिवारिक बंदिशों से मुक्त होता है. उन्मुक्त जीवनचर्या वाले अमेरिकी समाज में वैसे ही पारिवारिक बंधन न के बराबर हैं. कोई बच्चा तलाकशुदा पेरैंट्स में से किसी एक के साथ रह रहा है तो कोई परिवार के किसी अन्य सदस्य के साथ अथवा बिलकुल अकेला. जिन घरों में मातापिता के बीच तनाव और तकरार लगातार बना रहता है, वहां बच्चे कम उम्र में ही अवसाद का शिकार हो जाते हैं. प्रेम और लगाव की जगह मन में कुंठा और गुस्सा पनपता रहता है जो मौक़ा मिलने पर ज्वालामुखी की तरह फटता है, कभी अपनों पर तो कभी बाहरी लोगों पर.

उम्र के उस दौर में जब एक किशोर को सहीगलत की पहचान करवाने वाले मातापिता की दरकार होती है, अपनी भावनाएं साझा करने के लिए उन की जरूरत होती है, अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए किसी अपने की आवश्यकता होती है, क्रोध को संभालने और जब्त करने के लिए किसी बड़े द्वारा सही दिशानिर्देश चाहिए होता है, उस दौर में अमेरिकी किशोर और युवा बिलकुल अकेले होते हैं और सारे निर्णय खुद ही लेते हैं. निर्णय सही हैं या गलत, उन को यह बताने वाला कोई नहीं होता.

अधिकांश युवा और किशोर अकेलेपन के चलते अवसादग्रस्त भी होते हैं. प्रेम, धैर्य, सामंजस्य, भाईचारे जैसी भावनाओं के बजाय उच्श्रृंखलता, उन्माद, हीमैन जैसी फीलिंग उन के व्यक्तित्व पर ज़्यादा हावी रहती है. ऐसी स्थिति में अगर हाथ में बंदूक भी आ जाए तो सर्वनाश होना निश्चित है. अमेरिकी समाज धीरेधीरे इसी सर्वनाश की ओर बढ़ रहा है.

18 साल की उम्र से पहले बंदूक खरीदने की छूट

अमेरिका में भले ही 21 साल से पहले शराब खरीदना गैरकानूनी हो, लेकिन 18 साल की उम्र होने पर बंदूक और राइफल खरीदने की छूट है. यहां तक कि मिलिट्री वाली राइफल खरीदने के लिए भी कोई ठोस कानून नहीं है. इस से अमेरिका के युवा मनमाने ढंग से इन खतरनाक हथियारों को आसानी से खरीदते हैं और बाद में पर्सनल दुश्मनी या मानसिक अवसाद के चलते यही हथियार लोगों की जान ले लेते हैं.

कम उम्र में बच्चों को मनमानी करने की आजादी

विशेषज्ञों की मानें तो अमेरिका में बढ़ता गन कल्चर इस तरह की मास किलिंग का प्रमुख कारण है. लेकिन, सस्ते में और आसानी से मिल रहे जानलेवा हथियार ही इस की वजह नहीं हैं. अमेरिका में बढ़ता ओपन कल्चर भी इस की एक बड़ी वजह है. वहां बच्चे कम उम्र में ही मनमाने तरीके से जीने लगते हैं. फ्रीडम के नाम पर वे परिवार से अलग रहते हैं, अपने फैसले खुद करने लगते हैं. इस से कई बार मानसिक अवसाद बढ़ता है. उन्हें समझाने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में युवा कई बार इस तरह के कदम उठाते हैं.

स्टेटस सिंबल है गन रखना

अमेरिका में कभी ब्रिटिश सत्ता थी. अमेरिका के लोगों ने बंदूक के दम पर ब्रिटिश शासन से लड़ कर अपने देश को आजाद कराया. हालांकि, बंदूक से मिली आजादी को देखते हुए वहां की सरकारों ने लोगों को हथियार रखने की छूट दे दी. धीरेधीरे वक्त के साथ हथियार रखना अमेरिकी रहनसहन का हिस्सा बन गया. यहां तक कि इस के लिए कोई सख्त कानून भी नहीं है, जिस के चलते अब इस का दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है.

नागरिकों के बंदूक रखने के मामले में अमेरिका दुनिया में सब से आगे है. स्विट्जरलैंड के स्माल आर्म्स सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में मौजूद कुल 85.7 करोड़ सिविलियन गन यानी बंदूकों में से अकेले अमेरिका में ही करीब 40 करोड़ सिविलयन बंदूक मौजूद हैं. दुनिया की आबादी में अमेरिका का हिस्सा 5 फीसदी है लेकिन दुनिया की कुल सिविलियन गन में से 46 फीसदी अकेले अमेरिका में हैं. अक्टूबर 2020 में आए गैलप सर्वे के मुताबिक, 44 फीसदी अमेरिकी वयस्क उस घर में रहते हैं जहां बंदूकें हैं. इन में से एकतिहाई वयस्कों के पास बंदूकें हैं. अमेरिका की जनसंख्या से ज्यादा वहां नागरिकों के पास बंदूकें यानी सिविलियन गन हैं. अमेरिका की आबादी करीब 33 करोड़ है और वहां सिविलियन गन करीब 40 करोड़ हैं. यानी, अमेरिका में हर 100 लोगों पर 120 बंदूकें उपलब्ध हैं.

दुनिया में केवल 3 ही देश ऐसे हैं जहां बंदूक रखना संवैधानिक अधिकार है. अमेरिका, ग्वाटेमाला और मैक्सिको. हालांकि, अमेरिका की तुलना में ग्वाटेमाला और मैक्सिको में लोगों के पास काफी कम बंदूकें हैं. साथ ही, पूरे मैक्सिको में केवल एक ही गन स्टोर है जिस पर आर्मी का नियंत्रण है.

231 वर्षों बाद भी नहीं बदला कानून

बता दें कि 1783 में अमेरिका को ब्रिटेन से आजादी मिली. इस के बाद अमेरिका में संविधान बना और 1791 में उसी के तहत अमेरिका के लोगों को हथियार रखने का अधिकार मिला. जिस तरह भारत में लोग आसानी से मोबाइल और सिम खरीदते हैं, उसी तरह अमेरिका में लोग हथियार खरीद लेते हैं. लेकिन इस गल कल्चर की कीमत अमेरिका अब भुगत रहा है. अमेरिका अपनी आजादी के 231 वर्षों बाद भी इस कानून को नहीं बदल पाया है.

सार्वजनिक स्थल पर शूटिंग मामलों में 13 गुना का इजाफा

अमेरिका में मास शूटिंग को ले कर पीईडब्ल्यू की रिपोर्ट एक और अहम खुलासा करती है. रिपोर्ट एफबीआई के आंकड़ों के आधार पर बताती है कि साल 2000 से 2020 के दौरान भीड़भाड़ वाले इलाकों में शूटिंग के मामलों में 13 गुना इजाफा हुआ है. साल 2000 में जहां अमेरिका में 3 घटनाएं हुई थीं, वे 2020 में बढ़ कर 40 पहुंच गईं. इन आंकड़ों से साफ है कि अमेरिका में बंदूक संस्कृति बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है. और इस की एक प्रमुख वजह वहां का उदार कानून है. अमेरिका में बंदूक से लोगों की मौत में बहुत तेजी से इजाफा हो रहा है.

मर्डर ही नहीं, आत्महत्या के भी मामले बढ़े

गन कल्चर की वजह से अमेरिका में न केवल लोगों की हत्याओं के मामले बढ़े हैं, बल्कि इस से आत्महत्या करने के भी केस बढ़े हैं. 2019 में अमेरिका में बंदूक से 23 हजार से ज्यादा लोगों ने सुसाइड किया था. यह इस दौरान दुनिया में बंदूक से आत्महत्या के कुल मामलों का 44 फीसदी था. वहीं 2020 में यह आंकड़ा बढ़ कर 24,300 हो गया. यूएन के मुताबिक, 1990 से 2019 के बीच बंदूकों से सर्वाधिक आत्महत्या के केस अमेरिका में दर्ज हुए.

सस्ते हथियारों से बढ़ रहा गन कल्चर

5 वर्षों पहले अमेरिका में एक सर्वे हुआ था, जिस में सामने आया कि वहां के करीब 40 फीसदी लोगों के पास गन हैं. इस के अलावा अमेरिकी कानून के मुताबिक, वहां हथियार खरीदना दूसरे मुल्कों की तुलना में बेहद सस्ता है. अमेरिका की दुकानों में बंदूक उतनी ही आसानी से मिल जाती है, जितनी आसानी से भारत में इलैक्ट्रौनिक सामान और मोबाइल फोन मिलते हैं. अमेरिकी एक्सपर्ट्स का मानना है कि हथियार के लाइसैंस देने से पहले उसे रखने वाले की हिस्ट्री और बैकग्राउंड चैक करना बेहद जरूरी है. इस से काफी हद तक फायरिंग के मामलों को रोका जा सकता है.

अमेरिका में गन कल्चर भले ही वहां के युवाओं को प्रभावित करता हो लेकिन इस की कीमत भी समयसमय पर अमेरिकी लोगों को चुकानी पड़ती है. लाखों आम लोगों के साथसाथ अमेरिका के 4 पूर्व राष्ट्रपति की हत्याओं के पीछे भी कहीं न कहीं गन कल्चर का ही हाथ है. राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और राष्ट्रपति जेम्स ए गारफील्ड की हत्या भी बंदूक से ही की गई थी.

आज भले ही गन कल्चर अमेरिकी लाइफ का एक हिस्सा बन गया है लेकिन देश के अधिकांश लोग आज इस कल्चर के खुश नहीं हैं. इसी कड़ी में मेयर एरिक एडम ने ट्वीट कर कहा है कि क्यू ट्रेन में एक यात्री की हत्या, बुफेलो में खरीदारी करते लोगों की हत्या और अब टेक्सास में स्कूली बच्चे समेत लोगों की हत्या… ये तमाम घटनाएं अमेरिका की जहरीली बंदूक संस्कृति को रिफ्यूल करने का काम कर रही हैं.

अमेरिका में कई संगठन हैं जो विदेशों में मानवाधिकारों के लिए काम करते हैं. मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए अमेरिका दुनिया के दूसरे देशों को फंड भी देता है. अमेरिका अन्य देशों में मानवाधिकारों के लिए चिंता व्यक्त करता है लेकिन यह देश कभी अपनी नीतियों का निष्पक्ष विश्लेषण नहीं करता. यही वजह है कि अमेरिका की गन संस्कृति वहां के ‘जनगणमन’ पर भारी पड़ रही है. अमेरिका को अपने ही कानूनों पर दोबारा सोचने की जरूरत है. वरना अमेरिका विश्व मंच पर अपना प्रभुत्व खो देगा.

जिम जाएं तो रखें ध्यान

18साल की कालेज में पढ़ने वाली मुंबई की रूपल एक पौश बिल्ंिडग में रहती है. जिम उस बिल्ंिडग के अंदर ही है. लेकिन वह कालेज से आ कर इतना थक जाती है कि कहीं जाने की इच्छा नहीं होती.

एक दिन जब उस ने अपनी सहेली को हाथ में बैग लिए पसीनेपसीने आते हुए देखा, तो रूपल ने तुरंत पूछ लिया कि वह कहां से आ रही है और पसीने से इतनी भीगी क्यों है?

सहेली ने हंस कर जवाब दिया,

‘‘जिम से.’’

रूपल ने पूछा, ‘‘क्या तुम रोज जाती हो?’’

सहेली ने कहा, ‘‘रोज नहीं जा पाती कालेज की वजह से, सप्ताह में 3 या 4 दिन ही जा पाती हूं. कोविड के दौरान घर बैठ कर औनलाइन पढ़ाई करने की वजह से मेरी आदत खराब हो गई है. कालेज जाने के बाद मैं थकने लगी हूं. इस से मेरी पढ़ाई ढंग से नहीं हो पा रही है और मेरा वजन भी बढ़ चुका है. मेरे घुटनों में अभी से दर्द होने लगा है. डाक्टर ने जिम या वर्कआउट किसी भी प्रकार की करने के लिए सलाह दी है ताकि मेरा दर्द खत्म हो जाए. तुम्हें भी तो वर्कआउट करना चाहिए, रूपल. तुम्हारा वजन भी काफी बढ़ गया है.’’

रूपल को सहेली की बात अच्छी लगी और अगले दिन से वह अपनी सहेली के साथ जिम जाने लगी.

बचना है जंकफूड से

यह सही है कि छोटे शहरों और महानगरों में रहने वाले लड़केलड़कियों के वजन में कोविड के दौरान काफी बढ़ोतरी हुई है. कम समय में डायबिटीज या अन्य किसी रोग से इन बच्चों के आक्रांत होने की संभावना अधिक है, जिसे कम करना उन के लिए मुश्किल है.

वजन बढ़ने की वजह कम वर्कआउट और ज्यादा भोजन करना है. इस में जंकफूड सब से अधिक घातक सिद्ध होता है, क्योंकि इन्हें ट्रैडिशनल फूड पसंद नहीं होता. कुछ पेरैंट्स बच्चे के मोटापे को देख कर उसे हैल्दी बच्चा सम?ाते हैं. यही बच्चे बड़े हो कर बीमार होने लगते हैं.

एक सर्वे में 10 से 24 साल की उम्र वाले 10 से 30 प्रतिशत युवा किसी न किसी प्रकार की शारीरिक समस्या या बीमारी से पीडि़त पाए गए हैं. ऐसे में इस ओर ध्यान देना जरूरी है.

शहरों में भीड़भाड़ अधिक होने की वजह से कुछ शारीरिक एक्टिविटीज करना संभव नहीं होता, ऐसे में जिम में जाना ही एक विकल्प बचता है, जिसे नियमित करना आवश्यक है.

जिम करने यानी ऐक्सरसाइज करने का एक फायदा यह है कि इस से शरीर का स्टैमिना बढ़ता है और शरीर की कार्यक्षमता भी बढ़ती है. जब किसी काम को बिना थके ज्यादा देर तक किया जा सकता है तो यह शरीर में स्टैमिना बढ़ने का संकेत होता है.

सुनें बात ट्रेनर की

फिटनैस एक्सपर्ट योगेश भटेजा कहते हैं, ‘‘आज के यूथ फिल्मों में हीरों के 6 पैक या 8 पैक देख कर खुद उस की कोशिश करते हैं जो कई बार घातक हो जाता है. हमेशा ट्रेनर के अनुसार ही वर्कआउट करना अच्छा होता है. उम्र, शारीरिक बनावट, खानपान आदि के अनुसार ही व्यायाम करना सही होता है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘सब से पहले मैं वर्कआउट का एक चार्ट बनाता हूं और उसे फौलो करने की कोशिश करता हूं. मेरे यहां हर लड़कालड़की फिट रहने के लिए ही आते हैं. मेरा काम उन की मंशा के अनुसार बौडी देना है. जो आम इंसान फिट होना चाहते हैं, मैं उन से कहता हूं कि अगर आप में इच्छाशक्ति है तो मैं फिट रहने का रास्ता बता सकता हूं. फिटनैस को कायम रखना आसान है, मुश्किल नहीं.’’

जिम जाने की सही उम्र

जिम में जाने की उम्र को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है. 13 से 18 साल के बच्चे वयस्कों के बराबर व्यायाम नहीं कर सकते हैं. इस उम्र में जिम जाना शुरू कर सकते हैं. जिम में इस उम्र में जौगिंग, स्विमिंग, वेट लिफ्ंिटग जैसी ऐक्सरसाइज ट्रेनर के अनुसार कर सकते हैं. इस के अलावा फुटबौल, बास्केट बौल, कुश्ती जैसे खेल भी खेल सकते हैं. वर्कआउट नियमित करें, इस से फिट रहना आसान होता है.

बिना सोचे न जाएं जिम

कुछ यूथ को आजकल कम उम्र में मोटापा घेर लेता है. ट्रेनर योगेश आगे कहते हैं, ‘‘आइडियली देखा जाए तो 3 महीने में प्लस 3 या माइनस 3 किया जा सकता है. इस से अधिक करने पर बौडी सिस्टम पर गलत असर पड़ता है. एक सीमित दायरे में वजन घटाने पर किसी प्रकार की समस्या नहीं होती. बिना सोचेसम?ो कुछ भी करना गलत होता है, जिसे आज के यूथ करते हैं. वे ऐसा कहीं पढ़ कर या देख कर ओवरनाइट में वैसा शरीर बनाना चाहते है, जो ठीक नहीं. इस से नींद की समस्या, कई प्रकार की बीमारियां, हार्मोनल समस्याएं आदि हो सकती हैं. इस के अलावा नमक छोड़ देना या पानी कम पीने से वजन कभी नहीं घटता.’’

डाइट पर दें ध्यान

‘‘ट्रेनर योगेश कहते हैं, ‘‘बौडी की जरूरत और टाइप के अनुसार ही डाइट चार्ट होने पर व्यक्ति हमेशा फिट रहता है. प्रोटीन, फैट, फाइबर आदि को हमेशा अपनी डाइट में शामिल करें.’’ न्यूट्रीशनिस्ट से मिल कर सही डाइट प्लान बनाना जरूरी है ताकि वजन घटाना मुश्किल न हो. संतुलित भोजन और नियमित वर्कआउट से व्यक्ति फिट रह सकता है. आजकल मोटापे के शिकार बच्चे अधिक होते हैं. इस के कुछ कारण ये हैं-

बच्चों में मोटापा बढ़ने का मुख्य कारण, उन का बाहर जा कर न खेलना,

गैजेट्स का बच्चों के जीवन पर

अधिक प्रभाव,

जंकफूड का बहुत ज्यादा सेवन,

समय से न सोना आदि.

इस के अलावा शुगर, सौफ्ट ड्रिंक और जंकफूड को अवौयड करें, पत्तेदार सब्जियां और मौसमी फल खाएं, समय से खाने और समय से सोने के साथ बौडी को रोज सुबह डिटौक्स करना जरूरी है. याद रखें, कभी भी सुबह उठ कर खाली पेट वर्कआउट न करें.

स्ट्राबेरी की खेती: युवा किसानों को मिली नई राह

खेती में परंपरागत तरीकों से हट कर नएनए प्रयोग करना किसानों के लिए मददगार साबित हो रहा है और खेती मुनाफे का धंधा भी बन रही है. मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के 2 युवाओं ने अपनी पढ़ाई के साथसाथ खेतों में नवाचार कर दूसरे किसानों के लिए भी नई राह बनाई है.

नरसिंहपुर जिले के एक छोटे से गांव लोलरी के रहने वाले मुकुल लांघिया और अभिषेक लोधी ने एक एकड़ जमीन में स्ट्राबेरी की खेती कर 5 लाख रुपए तक का मुनाफा कमाया है.

लोलरी गांव के रहने वाले मुकुल लांघिया और अभिषेक लोधी ने यहां के किसानों को लाभदायक स्ट्राबेरी की खेती का एक नया रास्ता दिखाया है.

24 साल के लोलरी गांव के बाशिंदे मुकुल एमबीए के छात्र हैं, जबकि उन के सहयोगी अभिजीत फार्मेसी का कोर्स कर रहे हैं. इन दोनों युवाओं ने पढ़ाई के साथ ही कुछ नया करने की सोची और अपने खेतों में स्ट्राबेरी की खेती करने की योजना बनाई. दोनों ने इस की खेती की तकनीकी जानकारी के लिए हिमाचल प्रदेश के गांवों का दौरा कर वहां के किसानों से मिल कर खेती की तकनीकी की जानकरी प्राप्त की.

बातचीत के दौरान मुकुल बताते हैं कि पहले उन्होंने जबलपुर में मिट्टी प्रयोगशाला में अपने खेत की मिट्टी की जांच कराई और वहां से स्ट्राबेरी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी होने की रिपोर्ट मिलने पर खेती शुरू की.

वैसे, अक्तूबर महीने में स्ट्राबेरी की खेती शुरू की जाती है, लेकिन उन्होंने थोड़ी देर से नवंबर महीने में स्ट्राबेरी का प्लांटेशन किया. तकरीबन एक एकड़ यानी 80 डिसमिल क्षेत्रफल में स्ट्राबेरी के तकरीबन 12,000 पौधे लगाए, शेष बचे हुए हिस्से में ब्रोकली के 3,000 पौधे लगाए. अब यह फसल पक कर तैयार हो गई है और वह जबलपुर, बालाघाट, भोपाल, इंदौर, सागर, मंडला और दूसरे बड़े शहरों में सप्लाई कर रहे हैं.

मुकुल ने बताया कि इस में तकरीबन एक लाख, 70 हजार रुपए की लागत आई और स्ट्राबेरी की खेती से तकरीबन 5 लाख रुपए की आय प्राप्त होने की उम्मीद है.

मुकुल के सहयोगी अभिषेक लोधी बताते हैं कि स्ट्राबेरी की फसल अक्तूबर के महीने में लगती है और अप्रैल तक चलती है, जिस में 70 से 90 दिन में स्ट्राबेरी में फल आना चालू हो जाता है और अप्रैल तक फल निकलता रहता है. हम ने इस बार एक एकड़ में परीक्षण किया और सफलतापूर्वक स्ट्राबेरी का उत्पादन किया. चटक लाल रंग का दिखने वाला यह फल जितना स्वादिष्ठ होता है, उतना ही सेहतमंद भी है. इस का रसदार खट्टामीठा स्वाद लोगों को बेहद भाता है. साथ ही, इस की खुशबू भी इसे दूसरे फलों से अलग बनाती है.

वे बताते हैं कि इस फल की बाजार में कीमत तकरीबन 300 रुपए प्रति किलोग्राम है. हम ने अभी बालाघाट, जबलपुर, नरसिंहपुर, भोपाल आदि शहरी क्षेत्रों में भेजा है और लोकल बाजार में भी भेजा है.

स्ट्राबेरी की खेती करने के लिए मुकुल ने हिमाचल प्रदेश के अपने कुछ दोस्तों से बात की और फिर उद्यानिकी विभाग के अधिकारियों का सहयोग लिया. विभाग ने ड्रिप व मल्चिंग पद्धति से खेती करने की सलाह दी. अंचल में स्ट्राबेरी मिलने लगी है, तो आसपास से डिमांड शुरू हो गई है, जिस के बाद रोजाना लोकल में ही तकरीबन 4,000 रुपए की स्ट्राबेरी बिक रही है. जबलपुर, भोपाल, इंदौर, सागर, मंडला के साथ ही छतरपुर और टीकमगढ़ जिलों से भी डिमांड आ रही है.

स्ट्राबेरी का खाने योग्य भाग लगभग

98 फीसदी होता है. इन फलों में विटामिन सी और लौह तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं. यह अपने विशेष स्वाद और रंग के साथसाथ औषधीय गुणों के कारण भी एक महत्त्वपूर्ण फल है. इस का उपयोग कई मूल्य संवर्धित उत्पादों जैसे आइसक्रीम, जैम, जैली, कैंडी, केक आदि बनाने के लिए भी किया जाता है. इस की खेती अन्य फल वाली फसलों की तुलना में कम समय में ज्यादा मुनाफा दिला सकती है.

भारत में कुछ साल पहले तक स्ट्राबेरी की खेती केवल पहाड़ी क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर घाटी, महाराष्ट्र जैसी जगहों तक ही सीमित थी. वर्तमान में नई उन्नत प्रजातियों के विकास से इस को उष्णकटिबंधीय जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है. इस के कारण यह मैदानी भागों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार आदि राज्यों में अपनी अच्छी पहचान बना चुकी है. तकनीकी जानकारी की कमी में किसान इस की खेती करने में अपनेआप को असहज महसूस करते हैं, जबकि यदि स्ट्राबेरी की वैज्ञानिक तकनीक से खेती की जाए तो इस की फसल से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है.

इन दोनों नौजवान किसानों का मानना है कि खेती करने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है:

पलवार बिछाना

अपने खेत में बिछी प्लास्टिक मल्चिंग के बारे में बताते हुए मुकुल कहते हैं कि स्ट्राबेरी उत्पादन में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है. यह काम जमीन की ऊपरी सतह पर सूखे पत्तों, टहनियों या घासफूस से ढक कर किया जाता है, पर आजकल पलवार बिछाने के लिए ज्यादातर प्लास्टिक मल्च का प्रयोग किया जाता है.

स्ट्राबेरी में इस का प्रयोग करने से फल सीधे मिट्टी के संपर्क में नहीं आते हैं. इस से फलों को सड़ने से बचाया जा सकता है. साथ ही, यह खरपतवारों का नियंत्रण करने और सिंचाई की जरूरत को कम करने का काम करती है.

पलवार के लिए आमतौर पर काले रंग की तकरीबन 50 माइक्रोन मोटाई वाली प्लास्टिक की फिल्म का इस्तेमाल किया जाता है. जब पौधे अच्छी तरह स्थापित हो जाएं, तब प्लास्टिक फिल्म बिछाने का काम पौध रोपण के तकरीबन एक महीने बाद किया जाता है.

क्यारियों में प्लास्टिक पलवार बिछाते समय पौधे से पौधे व कतार से कतार की दूरी को ध्यान में रखते हुए छेद करते हैं, जिस से पौधे आसानी से ऊपर आ जाएं.

पलवार बिछाने से पहले ड्रिप (टपक) सिंचाई प्रणाली क्यारियों में व्यवस्थित कर दी जाती है.

निराईगुड़ाई और सिंचाई प्रबंधन

स्ट्राबेरी के पौधे लगाने के कुछ समय बाद उन के आसपास खरपतवार उग आते हैं. ये खरपतवार पौधों को मिलने वाले पोषक तत्त्वों को ग्रहण करने के साथ कई तरह के कीटपतंगों को सहारा देते हैं. रोपे गए पौधों से एक महीने बाद फुटाव शुरू हो जाता है. फुटाव शुरू होने पर खेत की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकाल देने चाहिए.

स्ट्राबेरी में पौधे की जड़ें जमीन में ज्यादा गहराई तक नहीं जाती हैं. यह सतह पर ही फैलने वाला पौधा होता है, इसलिए इस में कम समय के अंतराल पर नियमित सिंचाई की जरूरत होती है. पहली सिंचाई पौध रोपने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए, उस के बाद 2 से 3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना फायदेमंद रहता है.

सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली उत्तम रहती है. इस पद्धति द्वारा पौधों को उन की जरूरत के अनुसार पानी बूंदबूंद के रूप में  पौधों की जड़ों में सीधा और समान रूप से पहुंचाया जा सकता है. इस के साथ ही कम पानी का इस्तेमाल कर के अधिकतम पैदावार ली जा सकती है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में जल के साथसाथ उर्वरक, कीटनाशक और दूसरे घुलनशील रासायनिक तत्त्वों को भी सीधे पौधों तक पहुंचाया जा सकता है.

उन्होंने बताया कि यह पहाड़ी क्षेत्र का पौधा है और पौलीहाउस में ही उस की पैदावार सही होती है.

युवा किसान मुकुल लांघिया के मोबाइल नंबर 9424999078 और अभिषेक लोधी के मोबाइल नंबर 8770857962 से बात कर के स्ट्राबेरी की खेती से संबंधित जानकारी प्राप्त की जा सकती है.

मैं मां बनना चाहती हूं, क्या करूं?

सवाल

हम निसंतान दंपती हैं. शादी हुए 8 साल हो गए हैं. मेरा 2 बार गर्भपात हो गया है. अब हम आईवीएफ से बच्चा करने की सोच रहे हैं. मैं ने सुना है कि आईवीएफ के बाद महिला को 9 महीने बैड रैस्ट करना पड़ता है. क्या वाकई ऐसा है? और वे बच्चे क्या नौर्मल बच्चों जैसे ही होते हैं?

जवाब

अफसोस की बात है कि शादी के 8 वर्षों बाद भी आप संतान सुख से वंचित हैं. आईवीएफ ट्रीटमैंट को ले कर लोगों के मन में बहुत सारी आशंकाएं हैं जबकि आईवीएफ ऐसी प्रक्रिया है जिस से संतान सुख की प्राप्ति कराई जाती है. आईवीएफ टैक्नोलौजी से पैदा हुए बच्चे प्राकृतिक गर्भधारण द्वारा जन्म लेने वाले बच्चों के समान ही होते हैं.

भ्रूण को भले ही लैब में तैयार किया जाता है, परंतु इस भ्रूण का विकास मां के गर्भ में ही पूरी तरह से प्राकृतिक रूप से होता है और इस में नौर्मल प्रैग्नैंसी द्वारा ही बच्चे का जन्म होता है.

जहां तक 9 महीने बैड रैस्ट की बात है, तो बता दें कि आईवीएफ की प्रक्रिया केवल गर्भधारण करने के लिए होती है. इस के बाद शेष आगे की प्रक्रिया पूरी तरह से नैचुरल ही होती है. जैसे डाक्टर सामान्य प्रैग्नैंसी में नियम व शर्तें बताते हैं वैसे ही आईवीएफ ट्रीटमैंट द्वारा गर्भधारण करने वाली महिला को वही शर्तें व नियम बताए जाते हैं.

ऐसा बिलकुल नहीं है कि जो महिलाएं आईवीएफ ट्रीटमैंट द्वारा गर्भधारण करती हैं उन को 9 महीने तक बैड रैस्ट करना पड़ता है. यदि किसी कारणवश डाक्टर आप को परामर्श देते हैं कि कुछ समय बैड रैस्ट करना है तो आप जरूर करें. यह सलाह तो सामान्य गर्भधारण करने वाली महिला को भी डाक्टर देते हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

स्वस्थ किडनी सेहतमंद जिंदगी

वर्तमान समय में बदलती जीवन शैली के कारण किडनी की बीमारी तेजी से फैल रही है. किडनी की बीमारी रोजमर्रा के जीवन की रफ्तार को कम न कर दे, इस के लिए किडनी के रोगों के कारणों और बचाव से संबंधित जानकारी दे रही हैं सोमा घोष.
देश में गुरदे के मरीजों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है. मधुमेह और अधिक तनाव से पीडि़त व्यक्ति इस की चपेट में ज्यादा आते हैं. दर्दनिवारक दवाओं के अधिक सेवन और वैकल्पिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली विभिन्न धातुओं के सेवन से भी व्यक्ति गुरदे की बीमारी का शिकार हो जाता है. इस बीमारी का इलाज आज भी सीमित और महंगा है. प्रत्यारोपण द्वारा ही इस का इलाज संभव है. इलाज के बावजूद मरीजों की मृत्युदर अधिक है. लेकिन जो व्यक्ति इस रोग से पीडि़त हो जाते हैं उन की शुरू में जांच कर के इलाज करने से रोग अपनी अंतिम अवस्था तक नहीं पहुंच पाता.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए 1993 में नर्मदाबेन की याद में नर्मदा किडनी फाउंडेशन की स्थापना की गई. इस संस्था का उद्देश्य था, किडनी दान के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी को रोकना और जरूरतमंद मरीज तक किडनी का पहुंचना व उस का प्रत्यारोपण होना. इस संस्था के द्वारा लोगों को किडनी का महत्त्व, उस के कार्य और समस्याओं के बारे में भी बताया जाता है ताकि समय रहते लोगों का इलाज संभव हो सके.
मुंबई के लीलावती और नानावती अस्पताल के कंसल्टैंट नैफ्रौलोजिस्ट डा. भरत शाह का कहना है कि भारत में किडनी प्रत्यारोपण के औपरेशन का काम काफी कम है. 125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में लगभग 12 करोड़ लोग किडनी रोग से पीडि़त हैं. इन में से 3,500 हजार लोगों को ही किडनी के दानदाता मिलते हैं. ब्रेन डैथ वालों से किडनी बहुत कम मिल पाती है. ज्यादातर किडनी उन के सगेसंबंधियों द्वारा ही मिलती है. इसलिए प्रत्यारोपण के समय अवयवों की कमी खलती है. इस की संख्या में बढ़ोतरी किए जाने की जरूरत है.
डा. भरत शाह का मानना है कि पहले लोग किडनी प्रत्यारोपण से डरते थे. लोगों में चेतना लाने के  लिए डा. भरत शाह को बताना पड़ा कि यह बीमारी क्या है. समूह में बहस के बाद नर्मदा किडनी फाउंडेशन नाम की यह संस्था इस नतीजे पर पहुंची कि किडनी का प्रत्यारोपण कर मरीज को स्वस्थ किया जाए. इस के लिए लोग किडनी दान करें.
वर्ष 1994 में फाउंडेशन को मान्यता मिली, तब उस ने अपील की कि जिंदा व्यक्ति चाहे तो अपनी एक किडनी दान कर सकता है. इस के बाद ‘ब्रेन डैथ’ की बात चली और पाया गया कि ‘बे्रन डैथ’ के बाद कई घंटे तक व्यक्ति की किडनी ली जा सकती है. 1995 तक इस दिशा में जितना काम होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया पर डा. भरत शाह की लगातार कोशिश से इस कल्याणकारी काम में सुधार आ रहा है.
किडनी के कार्य
द्य मूत्र निर्माण एवं उत्सर्जन.
द्य शरीर के जलअंश का नियमन.
द्य ब्लडप्रैशर का नियमन.
द्य एरिथ्रोपोइटिन नामक पदार्थ का उत्पादन. यह पदार्थ लाल रक्त कणों के निर्माण एवं बाद में हीमोग्लोबिन बनाने में सहायता करता है.
द्य विटामिन डी को सक्रिय कर के अस्थि निर्माण करने में सहायता करता है.
किडनी निष्क्रियता के चरण
तत्काल किडनी निष्क्रियता : इस में किडनियां तात्कालिक रूप से अचानक बेकार हो जाती हैं.
तीव्र किडनी विफलता : इस में किडनी अचानक कुछ दिन या कुछ घंटे के लिए काम करना बंद कर देती है लेकिन कुछ घंटे बाद ही यह फिर सक्रिय हो जाती है.
दीर्घकालीन किडनी विफलता : इस स्थिति में व्यक्ति की किडनी धीरेधीरे क्षतिग्रस्त हो कर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाती है.
किडनी रोग की अंतिम अवस्था : इस का अर्थ यह है कि व्यक्ति की दोनों किडनियां अब किसी भी तरह काम करने की पहले जैसी अवस्था में नहीं लाई जा सकतीं. इसे किडनी की मृत्यु कहा जा सकता है. इस अवस्था में मरीज को किडनी प्रत्यारोपण द्वारा ही बचाया जा सकता है.
किडनी रोग के प्रमुख कारण
द्य मधुमेह.
द्य अति तनाव.
द्य दीर्घकालीन स्तबकवृक्कशोथ.
द्य पेशाब के मार्ग में पथरी.
द्य पेशाब की थैली में संक्रमण.
द्य दर्द निवारक दवाओं का अधिक सेवन.
किडनी विफलता के लक्षण
द्य शरीर के अंगों में सूजन.
द्य उच्च रक्तचाप.
द्य सतत कमजोरी का बढ़ना.
द्य हड्डियों में दर्द.
द्य झागदार एवं रक्तमय मूत्र.
द्य पेशाब की मात्रा व संख्या में बदलाव या बारबार पेशाब के लिए जाना.
द्य अनीमिया का बढ़ना.
शुरुआती लक्षणों के जाहिर होने पर सतर्क हो जाना चाहिए ताकि इलाज संभव हो सके. इस के इलाज का खर्च किडनी निकाल कर लगाने तक लगभग 3 लाख 50 हजार रुपए और इसे शरीर द्वारा नकारे न जाने पर पहले महीने 15 हजार रुपए की दवाइयां और बाद में 3 हजार रुपए तक दवाइयों पर खर्च करना पड़ता है. मरीज के स्वास्थ्य को देखते हुए खर्च में कमीबेशी हो सकती है.
डा. भरत शाह कहते हैं कि जब भी कोई किडनी मिलती है तो उसे लगाने से ले कर उस के बाद में आने वाले  खर्चे का पूरा विवरण व्यक्ति को दिया जाता है ताकि वह उस की जिम्मेदारी उठा सके.

अक्षय कुमार को ‘हिंदू सेंटीमेंट’ की जरूरत क्यों पड़ी?

राजेश खन्ना की फिल्म ‘‘आनंद ’’ का एंक संवाद है-‘‘यह भी एक दौर है, वह भी एक दौर था.’’ फिल्म में यह संवाद किसी दूसरे संदर्भ में था, मगर यह संवाद अक्षय कुमार पर भी एकदम सटीक बैठता है. 2014 तक धर्म व इतिहास को लेकर अक्षय कुमार की सोच कुछ अलग थी.लेकिन 2014 के बाद वह जितना ‘भाजपा’ के नजदीक आते गए,उनकी सोच व उनके ज्ञान में ऐसा बदलाव हुआ कि अब वह अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’’ को बाक्स आफिस पर सफलता दिलाने के लिए एक तरफ काशी में गंगा आरती से लेकर गुजरात के सोमनाथ मंदिर में माथा टेक रहे है. तो वहीं वह अब गलत बयानी कर इतिहास के पाठ्यक्रम पर भी उंगली उठा रहे हैं. वास्तव में ‘बेलबॉटम’ और ‘बच्चन पांडे’ के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल होने के बाद अब अक्षय कुमार अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’ को सफल बनाने के लिए ‘हिंदु सेटीमेंट’ का सहारा ले रहे है. इतना ही नहीं अब वह भी हिंदू मुस्लिम करने लगे हैं.

जी हां! शुक्रवार, तीन जून को अक्षय कुमार के अभिनय से सजी और डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित व ‘यशराज फिल्मस’ निर्मित ऐतिहासिक फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज ’ प्रदर्शित होने जा रही है. अक्षय कुमार,मानुशी छिल्लर और डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी इस फिल्म के प्रचार के लिए कई शहरों की यात्रा कर चुके हैं.वह वाराणसी में गंगा स्नान व गंगा आरती करते है तो वहीं सोमनाथ मंदिर जाकर भी आशिर्वाद ग्रहण करते हैं.

यूं तो अक्षय कुमार ने दावा किया है कि वह धर्म नहीं बल्कि कल्चर के लिए काशी व सोमनाथ गए. मगर जिस तरह की तस्वीरें सामने आयी हैं, उन तस्वीरो में डा.चंद्रकाश द्विवेदी और मानुशी छिल्लर के साथ अक्षय कुमार भी पूरी तरह से धर्म में सराबोर ही नजर आ रहे हैं.

यह वही अक्षय कुमार हैं,जिन्होने 28 सितंबर 2012 को प्रदर्शित अपनी फिल्म ‘‘ओह माय गॉड’’ के प्रमोशन के दौरान अक्षय कुमार ने भगवान शिव को दूध चढ़ाने से लेकर कई बातों का जमकर विरोध किया था. उन्होंने अपने बयानों में इन सभी कृत्यों की घोर आलोचना की थी. इस फिल्म में धर्म के नाम पर हो रहे आडंबर का पर्दाफाश किया गया था.पर दौर बदल चुका है. 2014 के बाद अचानक अक्षय कुमार कुछ ज्यादा ही आस्तिक हो गए हैं. अब वह ‘भाजपा’’के ज्यादा नजदीक हो गए हैं.इसलिए अब वह धर्म व हिंदू की भी अलग अंदाज में व्याखाएं करने लगे हैं.

इतिहास को लेकर अक्षय कुमार कर रहे हैं गलत बयानबाजी

इतना ही नहीं अब अक्षय कुमार कुछ ज्यादा ही ज्ञानी हो गए हैं.एक जून 2022 को अक्षय कुमार व डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने कई न्यूज चैनलों को इंटरव्यू दिए.एक चैनल को दिए इंटरव्यू में अक्षय कुमार ने कहा-‘‘बदनसीबी से हमारी इतिहास की किताबों में पृथ्वीराज चैहान के बारे में सिर्फ दो या तीन पंक्तियां हैं. हमारे देश पर जिन लोगों ने हमला किया, उन पर तो बहुत कुछ लिखा गया है.मगर हमारी संस्कृति,हमारे महाराजाओं के बारे में कुछ भी नही लिखा गया है.जबकि मुगल आक्रांताओं के बारे में काफी कुछ है. मैं हाथ जोड़कर सरकार से गुजारिष करता हॅूं कि पृथ्वीराज चैहान के बारे में हमारे बच्चों की इतिहास की किताबों में जानकारी डलवाइए.’’

अक्षय कुमार के इस इंटरव्यू के वायरल होते ही वह सोशल मीडिया पर ट्रोल हाने लगे हैं.लोग सवाल कर रहे हैं कि अगर इतिहास की किताबों में पृथ्वीराज चौहान के बारे में जानकारी ही नहीं है तो फिर उन्हें व फिल्म के निर्देशक डा. चंद्र प्रकाश को पृथ्वीराज चैहान के बारे में जानकारी कहां से मिली?

सोशल मीडिया पर एक शख्स अंबर ने लिखा है- ‘‘विदेशी आक्रांता तो आप भी हैं अक्षय पाजी, वह भी विदेशी थे और भारत से धन लूट के ले जाते थे और आप भी भारत से धन लूट कर ‘कनाडा’ ले जाते हैं.’’

वास्तव में अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’’ के लिए दर्शक जुटाने की नीयत से अक्षय कुमार ने सारी हदें पार कर दी.हमने तो बचपन में अमर चित्रकथा की मिक्स बुक्स काफी पढ़ी हैं. जिनमें पृथ्वीराज चैहान, शिवाजी सहित लगभग हर हिंदू राजा व मुस्लिम शासक पर कॉमिक्स उपलब्ध है.इतना ही नही एनसीईआरटी की सातवीं कक्षा की किताब में पृथ्वीराज चैहान पर दो तीन पंक्तियां ही नहीं बल्कि पूरा एक अध्याय है. यह चैप्टर नंबर 18 है.

एनसीईआरटी की किताबों में मुगल शासकों का जिक्र तो है, पर मुश्किल से दो तीन चैप्टर ही हैं. एनसीईआरटी की छठी कक्षा की इतिहास की किताब में ग्यारह अध्याय हैं.कक्षा सात में दस अध्याय है,कक्षा आठ में 12 अध्याय हैं.यानी कि कुल तेंतिस अध्याय हैं. इनमें से सिर्फ दो अध्याय मुगल शासकों के बारे में है. यह अध्याय हैं सातवीं कक्षा में अध्याय तीन व चार. इसके बावजूद अक्षय कुमार खोखला दावा करते हैं कि हमारे देश के बच्चों को पृथ्वीराज चैहान नहीं सिर्फ मुगल शासक पढ़ाए जाते हैं. महज अपनी फिल्म बेचने के लिए इस कदर झूठ बोलना कहां तक उचित है??

वास्तव में अक्षय कुमार 2014 के बाद से सिर्फ वही बातें करते है,जिससे ‘भाजपा’ को किसी भी तरह का फायदा पहुंच सके.2014 के पहले अक्षय कुमार ने देशभक्ति वाली फिल्मों में अभिनय नहीं किया, मगर 2014 के बाद ‘बेबी’,‘एअरलिफ्ट’, ‘रूस्तम’, ‘केसरी’,‘मिषन मंगल’जैसी फिल्में कर चुके हैं.

अब ‘सम्राट पृथ्वीराज’ तीन जून को आ रही है.इसके अलावा वह फिल्म ‘राम सेतु’भी कर रहे हैं. अक्षय कुमार और डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के झूठे दावे अक्षय कुमार और फिल्म लेखक व निर्देषक डां. चंद्र्रप्रकाश द्विवेदी दावा कर रहे हैं कि वह पहली बार देष के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज चैहान पर कोई फिल्म या सीरियल नहीं बना. जो कि सबसे बड़ा झूठ हैं.

पृथ्वीराज चैहान पर सबसे पहले 1924 में ‘पृथ्वीराज चौहान’ नामक फिल्म बनी थी.इसके बाद 1962 में पृथ्वीराज चैहान की प्रेम कहानी पर तमिल फिल्मॉ ‘रानी संयुक्ता’ बनी थी,जिसमें एम जी रामचंद्रन ने पृथ्वीराज का पद्मिनी ने संयोगिता का किरदार निभाया है.1959 में फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज चैहान’ बनी थी.इसका निर्देषन हरसुख भट्ट ने किया था.तथा इसमें जयराज, अनीता गुहा ने अभिनय किया था.

इतना ही नही 2006 में एक सीरियल ‘‘धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान’’ बना था, जो कि 12 मई 2006 से 15 मार्च 2009 तक ‘‘स्टार प्लस’’ पर प्रसारित हुआ था. कुल 790 एपीसोड बने थे. इसका निर्माण ‘‘सागर आर्ट्स’’ के बैनर तले रामानंद सागर के पुत्र मोती सागर ने किया था.

इसके अलावा ‘ज्ञान मंथन’, ‘एबीपी न्यूज’ आदि पर 2016 व 2017 में पृथ्वीराज चैहान पर काफी कुछ प्रसारित किया गया. क्या फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ बनाने से पहले डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने ठीक से शोधकार्य नहीं किया. यदि उन्होंने शोधकार्य किया होता, तो उन्हें पता होता कि अतीत में पृथ्वीराज चैहान पर कितना काम हुआ है और वह गलत बयानी न करते. पर शायद अक्षय कुमार और डा.चंद्र प्रकाश द्विवेदी इस कहावत में यकीन करते हैं कि- ‘‘प्यार, युद्ध और व्यापार में सब कुछ जायज है. ’वैसे भी अब इन लोगों के लिए सिनेमा, कला नहीं महज व्यापार बनकर रह गया है.

अक्षय कुमार व डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’ को देश के गृहमंत्री अमित शाह को दिखाकर उनसे प्रशंसा करवा चुके हैं. दो जून को वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व उनके मंत्रियों को भी दिखा रहे हैं. तो क्या अब इनकी प्रशंसा से फिल्म के दर्शकों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी.

मोहन भागवत का आशीर्वाद और “सम्राट पृथ्वीराज”

सत्ता में आने के बाद अपने ढंग से इतिहास लिखाने का काम भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं संघ बड़ी तेजी से कर रहे है सच एक बार फिर खिलाड़ी कुमार अक्षय कुमार की नई फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के प्रदर्शन होने के बाद राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रमुख मोहन भागवत और उनकी सेना के प्रदर्शन से सामने आ गया है.

ऐसा लगता है मानो कहीं सत्ता हाथ से निकल गई तो क्या होगा.

कश्मीर फाइल्स के बाद सम्राट पृथ्वीराज  फिल्म पूरी तरह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं संघ के आशीर्वाद से इन दिनों देश भर में सुर्खियां बटोर कर सुपरहिट करवाए जाने की कवायद में है.

मगर किसी भी फिल्म में सबसे पहली चीज होती है नायक का अपने दर्शकों के ऊपर यह प्रभाव की नायक तो वही है. जैसे दर्शकों को मुगले आजम में दिलीप कुमार का सलीम लगना पृथ्वीराज कपूर का बादशाह अकबर  महसूस होना. यहां अक्षय कुमार किसी भी दृष्टि से देश की आवाम के मन मस्तिष्क में बैठे पृथ्वीराज चौहान से कोसों दूर हैं. यह इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी है.

दरअसल,चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता उपर सुल्तान है,मत चूको चौहान।

इतिहास के विद्यार्थी के लिए पृथ्वी राज चौहान की क्लाइमेक्स स्टोरी में कवि चंद बरदाइ  की यह पंक्तियां क्या कभी भुलाई जा सकती हैं.

फिर फिल्म में सम्राट पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी की कैद में होते हैं और वहां चंद बरदई बने सोनू सूद  ये लाइनें बोलते हैं. सम्राट का शौर्य देखकर उपस्थित  आवाम भी कह उठती हैं.दिल्ली के बादशाह को सलाम!!. दिल्ली के बादशाह की वीरता को सलाम!!

वस्तुतः सम्राट पृथ्वीराज चौहान एक ऐसा ऐतिहासिक पात्र है जिनकी वीरता के किस्से कहानियां बचपन में ही रौंगटे खड़े कर देते थे. और इस फिल्म में सम्राट की कहानी को शानदार तरीके सेल्यूलाइट पर उतारने की अपेक्षा जल्दी बाजी में जो मेहनत की जानी चाहिए थी वह नहीं हो पाई.

अक्षय कुमार की अपील का सच

खिलाड़ी कुमार के नाम से देशभर में प्रसिद्ध अभिनेता सम्राट पृथ्वीराज अभिनय करने के बाद जब फिल्म रिलीज हुई है  तो इसीलिए अपना पक्ष रखा है.

अक्षय कुमार ने लोगों से अपील की है- कृपया, रंग में भंग न डालें.

यह भारत के सबसे बहादुर राजाओं में से एक सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जिंदगी को जल्दीबाजी में प्रस्तुत करने वाली फिल्म बन गई है, अक्षय कुमार ने अपील करते हुए कहा है कि इस फिल्म को देखने वाले सभी लोगों से हमारा नम्र निवेदन है कि दर्शकों के रंग में भंग डालने का प्रयास नहीं करें, क्योंकि हमारी फिल्म में कुछ पहलुओं को इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिसे देखकर दर्शक हैरत में पड़ जाएंगे. हमें उम्मीद है कि कल हम इस फिल्म के जरिए सिर्फ बड़े पर्दे पर आपका भरपूर मनोरंजन करेंगे.

मगर सच यह है कि इस फिल्म को देख कर के आम आदमी जब थिएटर से बाहर आता है तो उसे कुछ कमियां महसूस होती है जिसमें सबसे बड़ी चीज है फिल्मों में गीत संगीत का कमजोर होना. कोई भी गीत ऐसा नहीं जो लोगों के जुबां पर अपनी जगह बना सके।

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जो इस फिल्म के निर्देशक हैं ने कई महत्वपूर्ण सीरियल फिल्म की हैं उनकी योग्यता का सभी लोहा मानते हैं मगर जिस तरह सम्राट पृथ्वीराज फिल्म में उन्होंने हिंदूवादी मानसिकता को तरजीह दे कर के फिल्म निर्माण के पश्चात राष्ट्रीय स्वयं संघ और भारतीय जनता पार्टी के समक्ष शरणागत हुए हैं उससे यह सच सामने आ गया है कि फिल्म बहुत कमजोर है. वरना एक सशक्त फिल्म को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के टैक्स फ्री की कृपा की दरकार नहीं होती. राष्ट्रीय स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत से किसी सर्टिफिकेट की दरकार नहीं होती .

अनुज-अनुपमा के खिलाफ बरखा रचेगी साजिश, आएगा ये ट्विस्ट

टीवी शो ‘अनुपमा’ में  इन दिनों हाईवोल्टेज ड्रामा चल रहा है. जिससे दर्शकों को एंटेरटेनमेंट का डबल डोज मिल रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि अनुज के भाई भाभी की एंट्री हुई है. अनुज-अनुपमा उनदोनों से मिलकर बेहद खुश है. लेकिन अनुज की भाभी यानी बरखा को अनुपमा से जलन हो रही है. तो दूसरी तरफ पाखी की जिंदगी में एक लड़के की एंट्री हुई है. शो के आने वाले एपिसोड में कई ट्विस्ट एंड टर्न देखने को मिल रहा है. आइए बताते है शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में आप देखेंगे कि बरखा खाना बनाती है जो अनुपमा को खाने में  काफी अलग लगेगा. इतने में जीके काका आ जाएंगे और बरखा उन्हें देखकर अजीबोगरीब मुंह बनाने लगेगी. तो वहीं जीके खाना खाने से मना कर देंगे और वहां से चले जाएंगे.

 

बरखा घर के बारे में पूछेगी तो अनुज कहेगा कि उसका नया घर बन रहा है, जिस पर बरखा कहेगी कि नए घर का इंटीरियर वो करेगी नए स्टाइल से. इस पर अनुज कहेगा कि इसकी इजाजत वो अनुपमा से ले. अनुज की ये बात सुनकर बरखा को झटका लगेगा.

 

शो में ये भी दिखाया जाएगा कि पाखी जिस लड़के को पसंद करेगी, उस लड़के का तोषू कॉलर पकड़कर धमकी देगा. पाखी उस लड़के का पक्ष लेगी और फिर तोषू उस लड़के से माफी मांगेगा.

 

अनुज की भाभी बरखा कहेगी कि उसने और अंकुश ने अपना घर ढूंढ़ना शुरू कर दिया है. जिस पर अनुज-अनुपमा उन्हें साथ में रहने के लिए फोर्स करेगी. बरखा कहेगी कि साथ में रहने से लड़ाइयां होंगी इस पर अनुपमा और अनुज उन्हें परिवार की अहमियत समझाएंगे.

शो में आप ये भी देखेंगे कि बरखा अपने पति को बिजनेस में हक मांगने के लिए उकसाएगी. बरखा अनुज-अनुपमा के खिलाफ साजिश रचेगी जिससे अनुज की प्रॉपर्टी का  हिस्सा उसके पति को भी मिले.

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