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Online Hindi Story : प से पप्पू, प से पनौती

Online Hindi Story : माधवजी शायद गलती से ही अध्यापन के व्यवसाय में आ गए होंगे, वरना उन की हरकतों से लगता है कि उन्हें राजनीति में होना चाहिए. घरबाहर, क्लास में भी वे हर बात में राजनीति के रंग में डूबे रहते. उन की कक्षा के स्टूडैंट मनोज का घर का नाम पप्पू है, इस बात पर उन्हें बहुत मजा आता है.

पप्पू मेधावी छात्र है, मेहनती बच्चा है पर उन के लिए पप्पू का एक ही मतलब है, मूर्ख इंसान. टीचर हो कर भी वे रोज इस नाम पर अपना मनोरंजन करते हैं. ‘पप्पू’ शब्द सुनने में ही उन्हें आनंद आता है और वे जोरजोर से हंसते हैं. मनोज सब समझ रहा है पर क्या कर सकता है. भला, टीचर से पंगा ले कर भी कभी किसी स्टूडैंट का भला हुआ है?

हिंदी का पीरियड चल रहा था. पढ़ाने में उन का मन खास लगता नहीं. उन्हें मस्ती सूझी. माधव सर ने गाते हुए पूछा, “बोलो बच्चो, प से…”

बच्चों को भी शरारत सूझी. शरारत करना हर बच्चे का मौलिक हक जो है. उन्होंने भी गाते हुए कहा, “पप्पू…” माधव सर का मन गदगद हो गया. वे हा हा हा हा… कर के हंस पड़े. शाबाशी दी, बोले, “बढ़िया बच्चो, सही बोला…” अब पप्पू का मुंह लटक गया. उस का मुंह लटका देख बच्चे जोरजोर से हंसने लगे.

कसबे के इस स्कूल में सब को पता था कि मनोज का घर का नाम पप्पू है. माधव सरजी में बचपना कहां कम था, “देखो, पप्पू बेटा, अब तो मुंह लटकाने से कुछ न होगा, अब तो तुम्हारा नाम बदनाम हो चुका है.” पप्पू चुप रहा, सब समझ रहा था पर किसकिस से पंगा ले पप्पू.

माधव सर ने दोबारा मस्ती से कहा, “चलो, बच्चो, एक बार और बोलो, प से…”

पप्पू ने इस बार बहुत दिलेरी से मौका लपक लिया. जोर से बोला, “पनौती…”

कक्षा में सन्नाटा छा गया. माधव सर का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. मगर उन के चेहरे पर एक संतोष का भाव आया. मन में सोचा, ‘वाह, पप्पू, करवा दिया सब को चुप. सौ सुनार की, एक लुहार की…’

माधव सर ने कहा, “पप्पू, खड़े हो जाओ. इस तरह का जवाब क्यों दिया? यह क्या शब्द हुआ? ऐसे नहीं बोलते.”

“सर, प से पप्पू हो सकता है, तो प से पनौती क्यों नहीं?”

“मैं सब समझ रहा हूं, तुम मुझे चिढ़ा रहे हो?”

“सर, आप का अपमान कैसे कर सकता हूं. आजकल तो हर तरफ ‘पनौती’ शब्द छाया है. और पनौती बोल कर आप को क्यों चिढ़ाऊंगा भला? सर, मुझे समझ नहीं आ रहा. मैं आजतक पप्पू सुन कर नहीं चिढ़ा, आप पनौती सुन कर मुझे क्यों घूर रहे हैं?”

“पनौती एक बुरा शब्द है.”

“पर मेरी मां को भी सब पनौती कहते हैं, मुझे भी कहते हैं, दादी को भी दादा पनौती कहते थे. पिताजी कितनी बार मां को पनौती कह देते हैं. कल ही दादा मां को बोल रहे थे कि पनौती आई है घर में.”

मनोज का दोस्त सचिन उसे गर्व से देख रहा था. वह जानता है कि उस के काबिल दोस्त को माधव सर जानबूझ कर चिढ़ाते हैं और वह मन ही मन कलपता रह जाता है. उस के बाद मनोज ने बहुत उखड़े मूड में क्लास में अपना बाकी का समय बिताया. छुट्टी के बाद मनोज और सचिन हंसते हुए एकदूसरे के गले में बांहें डाल स्कूल से निकले. आज काफी बच्चे मनोज को देख कर हंस रहे थे.

घर जाते हुए एक खुली जगह में दोनों बैठ कर सुस्ताने लगे. आम घरों के बच्चे थे. अकसर क्लास में चुप ही रहते थे. मनोज अपने काम से काम रखने वाला बच्चा था. सचिन ने दोस्त को शाबाशी दी, “आज तो मजा आ गया. पप्पूपप्पू… करते रहते हैं, आज एक बार ‘पनौती’ बोला. देखा, कैसे सब चुप हो गए. रोजरोज प से क्या, प से क्या…” लगाए रखते हैं.”

“अरे यार, मैं तो अपने नाम से परेशान हो गया हूं. कोई मनोज बुलाता ही नहीं. एक तो हर गली में पता नहीं कितने लड़कों के घर का नाम पप्पू है. पहले बुरा नहीं लगता था, अब तो अच्छेभले नाम का मजाक बना कर रख दिया है और माधव सर का तो यह प्रिय खेल है, बोलो बच्चो, प से…आज बता दिया, प से क्याक्या हो सकता है. सब को पता है, वे जानबूझ कर पप्पूपप्पू… करते हैं.”

दोनों दोस्त बातें करते अपनेअपने घर चले गए. पप्पू घर में घुसा तो चुपचुप सा था. मां सुशीला ने सिर पर हाथ फेरा, “क्या हुआ, पप्पू?”

“मां, मेरा नाम पप्पू क्यों रखा?”

“हम ने कहां रखा? पता ही नहीं चला सब कब तुझे पप्पू कहने लगे. हम ने तो मनोज ही रखा था. प्यारा सा तो लगता है पप्पू.”

“मुझे बहुत गुस्सा आता है इस नाम से.”

“अरे, गांवदेहात में ऐसे ही बुलाने लगते हैं.”

“और पनौती?”

मां हंस पड़ी, “यह क्याक्या बात करता है, बच्चे?” मां की भोली सी हंसी पर अब मनोज भी हंसने लगा और आज का पनौती वाला कांड मां को सुनाया, सुशीला हंस पड़ी, “वाह, आज तो मजा आ गया होगा. मास्टरजी तो तेरा मुंह देखते रह गए होंगे. मुझे पता है, मेरा बच्चा लाखों में एक है, क्लास में सब से होशियार है. वह तो मास्टरजी जरा घमंडी हैं, उन का रौब चलता है और मेरा बेटा छोटा है अभी. कभी अपने पर आ जाए तो सब को चुप करवा सकता है. देख बेटा, किसी से डर कर चुप मत बैठना, किसी की इज्जत में चुप बैठे रहो तब तक तो ठीक है, पर जब बात अपने सम्मान की हो तो बोलना पड़ता है. बात हमेशा सच्ची करना.”

मां की बात और दुलार से मनोज को बड़ा संबल मिला. मां के साथ खाना खाते हुए मुसकरा दिया, “मां, वैसे आज क्लास में बहुत मजा आया. टीचर का चेहरा देखने लायक था. अब मैं हर बार पनौती बोलने वाला हूं, पप्पूपप्पू… सुन कर थक गया हूं और कुछ कहते नहीं. प से… प से… करते रहते हैं और मुझे देख कर हंसते रहते हैं.

“कुछ दिन पहले कह रहे थे कि पप्पू तुम्हें देख कर लगता तो नहीं कि तुम पढ़ाई में इतने होशियार हो.

“मैं ने कहा, “सर, मेरा रिजल्ट आप अपने पास ही रख लीजिए तो डांट दिया कि तुम बदतमीज होते जा रहे हो. तुम्हें अपने टीचर से बात करने की तमीज नहीं.”

सुशीला बेटे की बातों पर हंसती रही. थोड़ा आराम कर के मनोज ने अपना सारा होमवर्क किया. पिता शाम को दुकान से आए तो उन्हें भी आज क्लास का किस्सा बताया. वे भी बेटे के इस दुस्साहस पर हंस दिए. मनोज को मजा आया.

अब वह अगले दिन भी प से पनौती कहने के लिए तैयार था. क्या होगा, डांट पड़ जाएगी, बस. काम वह पूरा कर के रखता है. अब वह हर बार पप्पू का जवाब ‘पनौती’ से देगा. रात बड़ेबड़े सपनों में बीती.

अगले दिन उसे क्या, सभी बच्चों को, मनोज के सभी दोस्तों को हिंदी के पीरियड का इंतजार था. माधव सर आए, आते ही मनोज को देखा. ‘मेरे प्रिय नेता’ पर निबंध लिखवाने की तैयारी करने लगे. फिर मनोज को देख कर कुटिल हंसी हंसे. पप्पू भी पूरे दांत दिखा कर हंसा. पप्पू की हंसी से माधव सर गंभीर हो गए, आदतन मुंह से निकला,“बोलो बच्चो, प से…”

पप्पू को 1 सैकंड की मोहलत दिए बिना आगे बोले, “पाठशाला…” सब एकदूसरे का मुंह देखने लगे. मनोज ने सचिन को देखा, वह हंस दिया.

माधव सर ने मीठे स्वर में कहा, “हंसीमजाक एक तरफ है बच्चो, नएनए शब्द बनाने भी तो सीखने हैं न और यह तो मैं तुम लोगों को खेल सिखाते रहता हूं, वरना अब शब्द बनाना तो तुम लोग सीख ही चुके हो. अब यह खेल यहीं खत्म. चलो, मनोज, बताओ, किस नेता पर निबंध लिखोगे?”

“नेहरू पर.”

माधव सर ने उसे घूरा, मनोज हंस दिया, “मैं ने तो लिख भी लिया.”

‘इस पप्पू से निबटना थोड़ा मुश्किल लग रहा है. यह तो मुझे सुई सी चुभोता रहता है. इस का कुछ तो करना पड़ेगा. पर क्या करूं इस का. यही मेरी लाइफ की पनौती बनता जा रहा है,’ इधर माधव सर सोच में थे और उधर मनोज सचिन को देख कर हंस रहा था.

Love Story : एक दिन का बौयफ्रैंड – कैसे बदली मयंक की जिंदगी ?

Love Story : ‘‘क्या तुम मेरे एक दिन के बौयफ्रैंड बनोगे?’’ उस लड़की के कहे ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे. मैं हक्काबक्का सा उस की तरफ देखने लगा. काली, लंबी जुल्फों और मुसकराते चेहरे के बीच चमकती उस की 2 आंखें मेरे दिल को धड़का गईं. एक अजनबी लड़की के मुंह से इस तरह का प्रस्ताव सुन कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मुझ पर क्या बीत रही होगी.

मैं अच्छे घर का होनहार लड़का हूं. प्यार और शादी को ले कर मेरे विचार बिलकुल स्पष्ट हैं. बहुत पहले एक बार प्यार में पड़ा था पर हमारी लव स्टोरी अधिक दिनों तक नहीं चल सकी. लड़की बेवफा निकली. वह न सिर्फ मुझे, बल्कि दुनिया छोड़ कर गई और मैं अकेला रह गया.

लाख चाह कर भी मैं उसे भुला नहीं सका. सोच लिया था कि अब अरेंज्ड मैरिज करूंगा. घर वाले जिसे पसंद करेंगे, उसे ही अपना जीवनसाथी मान लूंगा.

अगले महीने मेरी सगाई है. लड़की को मैं ने देखा नहीं है पर घर वालों को वह बहुत पसंद आई है. फिलहाल मैं अपने मामा के घर छुट्टियां बिताने आया हूं. मेरे घर पहुंचते ही सगाई की तैयारियां शुरू हो जाएंगी.

‘‘बोलो न, क्या तुम मेरे साथ..,’’ उस ने फिर अपना सवाल दोहराया.

‘‘मैं तो आप को जानता भी नहीं, फिर कैसे…’’ में उलझन में था.

‘‘जानते नहीं तभी तो एक दिन के लिए बना रही हूं, हमेशा के लिए नहीं,’’ लड़की ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को नचाया. ‘‘दरअसल,

2-4 महीनों में मेरी शादी हो जाएगी. मेरे घर

वाले बहुत रूढि़वादी हैं. बौयफ्रैंड तो दूर कभी मुझे किसी लड़के से दोस्ती भी नहीं करने दी. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है. घर

वाले मेरे लिए जिसे ढूंढ़ेंगे उस से आंखें बंद कर शादी कर लूंगी. मगर मेरी सहेलियां कहती हैं कि शादी का मजा तो लव मैरिज में है, किसी को बौयफ्रैंड बना कर जिंदगी ऐंजौय करने में है. मेरी सभी सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं. केवल मेरा ही कोई नहीं है.

‘‘यह भी सच है कि मैं बहुत संवेदनशील लड़की हूं. किसी से प्यार करूंगी तो बहुत गहराई से करूंगी. इसी वजह से इन मामलों में फंसने से डर लगता है. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें आजकल की लड़कियों जैसी बिलकुल नहीं लग रही होऊंगी. बट बिलीव मी, ऐसी ही हूं मैं. फिलहाल मुझे यह महसूस करना है कि बौयफ्रैंड के होने से जिंदगी कैसा रुख बदलती है, कैसा लगता है सब कुछ, बस यही देखना है मुझे. क्या तुम इस में मेरी मदद नहीं कर सकते?’’

‘‘ओके, पर कहीं मेरे मन में तुम्हारे लिए फीलिंग्स आ गईं तो?’’

‘‘तो क्या है, वन नाइट स्टैंड की तरह हमें एक दिन के इस अफेयर को भूल जाना है. यह सोच कर ही मेरे साथ आना. बस एक दिन खूब मस्ती करेंगे, घूमेंगेफिरेंगे. बोलो क्या कहते हो? वैसे भी मैं तुम से 5 साल बड़ी हूं. मैं ने तुम्हारे ड्राइविंग लाइसैंस में तुम्हारी उम्र देख ली है. यह लो. रास्ते में तुम से गिर गया था. यही लौटाने आई थी. तुम्हें देखा तो लगा कि तुम एक शरीफ लड़के हो. मेरा गलत फायदा नहीं उठाओगे, इसीलिए यह प्रस्ताव रखा है.’’

मैं मुसकराया. एक अजीब सा उत्साह था मेरे मन में. चेहरे पर मुसकराहट की रेखा गहरी होती गई. मैं इनकार नहीं कर सका. तुरंत हामी भरता हुआ बोला, ‘‘ठीक है, परसों सुबह 8 बजे इसी जगह आ जाना. उस दिन मैं पूरी तरह तुम्हारा बौयफ्रैंड हूं.’’

‘‘ओके थैंक्यू,’’ कह कर मुसकराती हुई वह चली गई.

घर आ कर भी मैं सारा समय उस के बारे में सोचता रहा.

2 दिन बाद तय समय पर उसी जगह पहुंचा तो देखा वह बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थी.

‘‘हाय डियर,’’ कहते हुए वह करीब आ गई.

‘‘हाय,’’ मैं थोड़ा सकुचाया.

मगर उस लड़की ने झट से मेरा हाथ थाम लिया और बोली, ‘‘चलो, अब से तुम मेरे बौयफ्रैंड हुए. कोई हिचकिचाहट नहीं, खुल कर मिलो यार.’’

मैं ने खुद को समझाया, बस एक दिन. फिर कहां मैं, कहां यह. फिर हम 2 अजनबियों ने हमसफर बन कर उस एक दिन के खूबसूरत सफर की शुरुआत की. प्रिया नाम था उस का. मैं गाड़ी ड्राइव कर रहा था और वह मेरी बगल में बैठी थी. उस की जुल्फें हौलेहौले उस के कंधों पर लहरा रही थीं. भीनीभीनी सी उस की खुशबू मुझे आगोश में लेने लगी थी. एक अजीब सा एहसास था, जो मेरे जिस्म को महका रहा था. मैं एक गीत गुनगुनाने लगा. वह एकटक मुझे निहारती हुई बोली, ‘‘तुम तो बहुत अच्छा गाते हो.’’

‘‘हां थोड़ाबहुत गा लेता हूं… जब दिल को कोई अच्छा लगता है तो गीत खुद ब खुद होंठों पर आ जाता है.’’

मैं ने डायलौग मारा तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी. दूधिया चांदनी सी छिटक कर उस की हंसी मेरी सांसों को छूने लगी. यह क्या हो रहा है मुझे. मैं मन ही मन सोचने लगा.

तभी उस ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया, ‘‘माई प्रिंस चार्मिंग, हम जा कहां रहे हैं?’’

‘‘जहां तुम कहो. वैसे मैं यहां की सब से रोमांटिक जगह जानता हूं, शायद तुम भी जाना चाहोगी,’’ मेरी आवाज में भी शोखी उतर आई थी.

‘‘श्योर, जहां तुम चाहो ले चलो. मैं ने तुम पर शतप्रतिशत विश्वास किया है.’’

‘‘पर इतने विश्वास की वजह?’’

‘‘किसीकिसी की आंखों में लिखा होता है कि वह शतप्रतिशत विश्वास के योग्य है. तभी तो पूरी दुनिया में एक तुम्हें ही चुना मैं ने अपना बौयफ्रैंड बनाने को.’’

‘‘देखो तुम मुझ से इमोशनली जुड़ने की कोशिश मत करो. बाद में दर्द होगा.’’

‘‘किसे? तुम्हें या मुझे?’’

‘‘शायद दोनों को.’’

‘‘नहीं, मैं प्रैक्टिकल हूं. मैं बस 1 दिन के लिए ही तुम से जुड़ रही हूं, क्योंकि मैं जानती हूं हमारे रिश्ते को सिर्फ इतने समय की ही मंजूरी मिली है.’’

‘‘हां, वह तो है. मैं अपने घर वालों के खिलाफ नहीं जा सकता.’’

‘‘अरे यार, खिलाफ जाने को किस ने कहा? मैं तो खुद पापा के वचन में बंधी हूं. उन के दोस्त के बेटे से शादी करने वाली हूं. 6-7 महीनों में वह इंडिया आ जाएगा और फिर चट मंगनी पट विवाह. हो सकता है मैं हमेशा के लिए पैरिस चली जाऊं,’’ उस ने सहजता से कहा.

‘‘तो क्या तुम भी ‘कुछकुछ होता है’ मूवी की सिमरन की तरह किसी अजनबी से शादी करने वाली हो, जिसे तुम ने कभी देखा भी नहीं है?’’ कहते हुए मैं ने उस की आंखों में झांका. वह हंसती हुई बोली, ‘‘हां, ऐसा ही कुछ है. पर चिंता न करो. मैं तुम्हें शाहरुख यानी राज की तरह अपनी जिंदगी में नहीं आने दूंगी. शादी तो मैं उसी से करूंगी जिस से पापा चाहते हैं.’’

‘‘तो फिर यह सब क्यों? मेरे इमोशंस के साथ क्यों खेल रही हो?’’

‘‘अरे यार, मैं कहां खेल रही हूं? फर्स्ट मीटिंग में ही मैं ने साफ कह दिया था कि हम केवल 1 दिन के रिश्ते में हैं.’’

‘‘हां वह तो है. ओके बाबा, आई ऐम सौरी. चलो आ गई हमारी मंजिल.’’

‘‘वैरी नाइस. बहुत सुंदर व्यू है,’’ कहते हुए उस के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

थोड़ा घूमने के बाद वह मेरे पास आती हुई बोली, ‘‘लो अब मुझे अपनी बांहों में भरो जैसे फिल्मों में करते हैं.’’

वह मेरे और करीब आ गई. उस की जुल्फें मेरे कंधों पर लहराने लगीं. लग रहा था जैसे मेरी पुरानी गर्लफ्रैंड बिंदु ही मेरे पास खड़ी है. अजीब सा आकर्षण महसूस होने लगा. मैं अलग हो गया, ‘‘नहीं, यह नहीं होगा मुझ से. किसी गैर लड़की को मैं करीब क्यों आने दूं?’’

‘‘क्यों, तुम्हें डर लग रहा है कि मैं यह वीडियो बना कर वायरल न कर दूं?’’ वह शरारत से खिलखिलाई. मैं ने मुंह बनाया, ‘‘बना लो. मुझे क्या करना है? वैसे भी मैं लड़का हूं. मेरी इज्जत थोड़े ही जा रही है.’’

‘‘वही तो मैं तुम्हें समझा रही हूं. तुम्हें क्या फर्क पड़ता है, तुम तो लड़के हो,’’ वह फिर से मुसकराई, ‘‘वैसे तुम आजकल के लड़कों जैसे बिलकुल नहीं.’’

‘‘आजकल के लड़कों से क्या मतलब है? सब एकजैसे नहीं होते.’’

‘‘वही तो बात है. इसीलिए तो तुम्हें चुना है मैं ने, क्योंकि मुझे पता था तुम मेरा गलत फायदा नहीं उठाओगे वरना किसी और लड़के को ऐसा मौका मिलता तो उसे लगता जैसे लौटरी लग गई हो.’’

‘‘तुम मेरे बारे में इतनी श्योर कैसे हो कि वाकई मैं शरीफ ही हूं? तुम कैसे जानती हो कि मैं कैसा हूं और कैसा नहीं हूं?’’

‘‘तुम्हारी आंखों ने सब बता दिया मेरी जान, शराफत आंखों पर लिखी होती है. तुम नहीं जानते?’’

इस लड़की की बातें पलपल मेरे दिल को धड़काने लगी थीं. बहुत अलग सी थी वह. काफी देर तक हम इधरउधर घूमते रहे. बातें करते रहे.

एक बार फिर वह मेरे करीब आती हुई बोली, ‘‘अपनी गर्लफ्रैंड को हग भी नहीं करोगे?’’ वह मेरे सीने से लग गई. लगा जैसे वह पल वहीं ठहर गया हो. कुछ देर तक हम ऐसे ही खड़े रहे. मेरी बढ़ी हुई धड़कनें शायद वह भी महसूस कर रही थी. मैं ने भी उसे आगोश में ले लिया. उस पल को ऐसा लगा जैसे आकाश और धरती एकदूसरे से मिल गए हों. कुछ पल बाद उस ने खुद को अलग किया और दूर जा कर खड़ी हो गई.

‘‘बस, कुछ और हुआ तो हमारे कदम बहक जाएंगे. चलो वापस चलते हैं,’’ वह बोली. मैं अपनेआप को संभालता हुआ बिना कुछ कहे उस के पीछेपीछे चलने लगा. मेरी सांसें रुक रही थीं. गला सूख रहा था. गाड़ी में बैठ कर मैं ने पानी की पूरी बोतल खाली कर दी.

सहसा वह हंस पड़ी, ‘‘जनाब, ऐसा लग रहा था जैसे शराब की बोतल एक बार में ही हलक के नीचे उतार रहे हो.’’

उस के बोलने का अंदाज कुछ ऐसा था कि मुझे हंसी आ गई. ‘‘सच, बहुत अच्छी हो तुम. मुझे डर है कहीं तुम से प्यार न हो जाए,’’ मैं ने कहा.

‘‘छोड़ो भी यार. मैं बड़ी हूं तुम से, इस तरह की बातें सोचना भी मत.’’

‘‘मगर मैं क्या करूं? मेरा दिल कुछ और कह रहा है और दिमाग कुछ और.’’

‘‘चलता है. तुम बस आज की सोचो और यह बताओ कि हम लंच कहां करने वाले हैं?’’

‘‘एक बेहतरीन जगह है मेरे दिमाग में. बिंदु के साथ आया था एक बार. चलो वहीं चलते हैं,’’ मैं ने वृंदावन रैस्टोरैंट की तरफ गाड़ी मोड़ते हुए कहा, ‘‘घर के खाने जैसा बढि़या स्वाद होता है यहां के खाने का और अरेंजमैंट देखो तो लगेगा ही नहीं कि रैस्टोरैंट आए हैं. गार्डन में बेंत की टेबलकुरसियां रखी हुई हैं.’’

रैस्टोरैंट पहुंच कर उत्साहित होती हुई प्रिया बोली, ‘‘सच कह रहे थे तुम. वाकई लग रहा है जैसे पार्क में बैठ कर खाना खाने वाले हैं हम… हर तरफ ग्रीनरी. सो नाइस. सजावटी पौधों के बीच बेंत की बनी डिजाइनर टेबलकुरसियों पर स्वादिष्ठ खाना, मन को बहुत सुकून देता होगा.

है न?’’

मैं खामोशी से उस का चेहरा निहारता रहा. लंच के बाद हम 2-1 जगह और गए. जी भर कर मस्ती की. अब तक हम दोनों एकदूसरे से खुल गए थे. बातें करने में भी मजा आ रहा था. दोनों ने ही एकदूसरे की कंपनी बहुत ऐंजौय की थी, एकदूसरे की पसंदनापसंद, घरपरिवार, स्कूलकालेज की कितनी ही बातें हुईं.

थोड़ीबहुत प्यार भरी बातें भी हुईं. धीरेधीरे शाम हो गई और उस के जाने का समय आ गया. मुझे लगा जैसे मेरी रूह मुझ से जुदा हो रही है, हमेशा के लिए.

‘‘कैसे रह पाऊंगा मैं तुम से मिले बिना? नहीं प्रिया, तुम्हें अपना नंबर देना होगा मुझे,’’ मैं ने व्यथित स्वर में कहा.

‘‘आर यू सीरियस?’’

‘‘यस आई ऐम सीरियस,’’ मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘मुझे नहीं लगता कि अब मैं तुम्हें भूल सकूंगा. नो प्रिया, आई थिंक आई लाइक यू वैरी मच.’’

‘‘वह डील न भूलो मयंक,’’ प्रिया ने याद दिलाया.

‘‘मगर दोस्त बन कर तो रह सकते हैं न?’’

‘‘नो, मैं कमजोर पड़ गई तो? यह रिस्क मैं नहीं उठा सकती.’’

‘‘तो ठीक है. आई विल मैरी यू,’’ मैं ने जल्दी से कहा. उस से जुदा होने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. एक दिन में ही जाने कैसा बंधन जोड़ लिया था उस ने कि दिल कर रहा था हमेशा के लिए वह मेरी जिंदगी में आ जाए.

वह मुझ से दूर जाती हुई बोली, ‘‘गुडबाय मयंक, मैं शादी वहीं करूंगी जहां पापा चाहते हैं. तुम्हारा कोई चांस नहीं. भूल जाना मुझे.’’ वह चली गई और मैं पत्थर की मूर्त बना उसे जाते देखता रहा. दिल भर आया था मेरा. ड्राइविंग सीट पर अकेला बैठा अचानक फफकफफक कर रो पड़ा. लगा जैसे एक बार फिर से बिंदु मुझे अकेला छोड़ कर चली गई है. जाना ही था तो फिर जरूरत क्या थी मेरी जिंदगी में आने की. किसी तरह खुद को संभालता हुआ घर लौटा. दिन का चैन, रात की नींद सब लुट चुकी थी. जाने कहां से आई थी वह और कहां चली गई थी? पर एक दिन में मेरी दुनिया पूरी तरह बदल गई थी. देवदास बन गया था मैं. इधर घर वाले मेरी सगाई की तैयारियों में लगे थे. वे मुझे उस लड़की से मिलवाने ले जाना चाहते थे, जिसे उन्होंने पसंद किया था. पर मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मैं शादी नहीं करूंगा,’’ मेरा इतना कहना था कि घर में कुहराम मच गया.

‘‘क्यों, कोई और पसंद आ गई?’’ मां ने अलग ले जा कर पूछा.

‘‘हां.’’ मैं ने सीधा जवाब दिया.

‘‘तो ठीक है, उसी से बात करते हैं. पता और फोन नंबर दो.’’

‘‘मेरे पास कुछ नहीं है.’’

‘‘कुछ नहीं, यह कैसा प्यार है?’’ मां ने कहा.

‘‘क्या पता मां, वह क्या चाहती थी? अपना दीवाना बना लिया और अपना कोई अतापता भी नहीं दिया.’’

फिर मैं ने उन्हें सारी कहानी सुनाई तो वे खामोश रह गईं. 6 माह बीत गए. आखिर घर वालों की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा. लड़की वाले हमारे घर आए. मुझे जबरन लड़की के पास भेजा गया. उस कमरे में कोई और नहीं था. लड़की दूसरी तरफ चेहरा किए बैठी थी. मैं बहुत अजीब महसूस कर रहा था.

लड़की की तरफ देखे बगैर मैं ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं आप को किसी भ्रम में नहीं रखना चाहता. दरअसल मैं किसी और से प्यार करने लगा हूं और अब उस के अलावा किसी से शादी का खयाल भी मुझे रास नहीं आ रहा. आई एम सौरी. आप इस रिश्ते के लिए न कह दीजिए.’’

‘‘सच में न कह दूं?’’ लड़की के स्वर मेरे कानों से टकराए तो मैं हैरान रह गया. यह तो प्रिया के स्वर थे. मैं ने लड़की की तरफ देखा तो दिल खुशी से झूम उठा. यह वाकई प्रिया ही थी.

‘‘तुम?’’

‘‘हां मैं, कोई शक?’’ वह मुसकराई.

‘‘पर वह सब क्या था प्रिया?’’

‘‘दरअसल, मैं अरेंज्ड नहीं, लव मैरिज करना चाहती थी. अत: पहले तुम से प्यार का इजहार कराया, फिर इस शादी के लिए रजामंदी दी. बताओ कैसा लगा मेरा सरप्राइज.’’

‘‘बहुत खूबसूरत,’’ मैं ने पल भर भी देर नहीं की कहने में और फिर उसे बांहों में भर लिया.

Family Story : चौराहा – विवाह के सुख से वंचित पति की कहानी

Family Story : अचानक आश्विनी की मौत की खबर सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, यही कोई 50 के आसपास. पता चला कि उसे लो ब्लड प्रैशर की शिकायत थी. साथ में पेट की भी समस्या थी. दिल्ली गया था डाक्टर को दिखाने. लौट कर आया तो जौनपुर एक शादी में सम्मिलित होने चला गया. भागदोैङ के कारण उस का ब्लड प्रैशर कुछ ज्यादा ही लो हो गया. इस से पहले लोग कुछ समझ पाते उस के प्राणप्रखेरू उङ चुके थे. मं कुछ पल के लिए अतीत से जुङ गया. अश्वनि ने अनुराधा से प्रेमविवाह किया था. अनुराधा के मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. उसे उस की नानी ने पाला.

सजातीय होने के कारण उस की शादी से किसी को ऐतराज नहीं था. नानी का खुद का बङा सा मकान था. साथ में नानी के पास जितने गहने व पैसे थे उस ने सब अनुराधा को दे दिए. उन को कोई औलाद नहीं थी, एकमात्र अनुराधा के मां के. पति का पेंशन ही उनके लिए काफी था.लिहाजा, सब रख कर करेगी क्या? अश्विनी कुछ ज्यादा खुश था. मनपसंद लङकी के अलावा करोडों की चलअचल संपति भी मिल गई. उस ने अनुराधा का मानसम्मान रखने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी.

अनुराधा ससुराल में सब की लाङली बन गई. सब उसे मान देते. उस का एक बहुत बड़ा कारण था उस का स्वभाव. भले ही मैं उस का मित्र था तो भी जब कभी उस के घर जाता वह पूरी आत्मीयता के साथ पेश आती. क्लर्क होने के बावजूद अश्विनी ने अपनी सरकारी नौकरी के अल्पकाल में ही अच्छाखासा दौलत कमाया.

अचानक वक्त ने करवट बदली. अनुराधा एक ऐसी रहस्यमयी बीमारी से ग्रस्त हो गई जिस का कोई इलाज नहीं था. उस के जिस्म का सारा खून सूखने लगा. साथ में हड्डियां अंदर ही अंदर गलने लगीं. लाखों खर्च करने के बावजूद उसे बचाया न जा सका. अश्विनी अंदर ही अंदर टूट गया. दोनों बच्चे महज 10 और 12 साल के थे. इस उम्र में मां के साए से मरहूम होना अपनेआप में एक बड़ी त्रासदी थी, जो बच्चों से ज्यादा और कौन महसूस कर सकता था.

अश्विनी सुबकते हुए बोला,‘‘मैं अनाथ हो गया. अनुराधा के बगैर जी पाना मेरे लिए अंसभव होगा.’’

‘‘तुम्हारे पास 2 बच्चे हैं. इन्हें अनुराधा का अस्क मान कर पालोपोसो. सब ठीक हो जाएगा,’’ मेरे आश्वासन पर उसे बल मिला. वक्त हर घाव भर देता है. अश्विनी तो खैर संभल गया मगर उस के दोनों बच्चे जबतब मां को याद कर के रो पङते. अश्विनी ने घर संभालने के लिए कुछ दिनों के लिए अपनी बहन को बुला लिया था. बङी बहन का एक पैर अश्विनी के यहां तो दूसरा ससुराल में रहता.

एक दिन बहन से रहा न गया,‘‘तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ मन तो अश्विनी का भी था मगर संकोचवश नहीं कह पाता था.

‘‘मैं कब तब तुम लोगों का साथ दूंगी. न रही तो हजार समस्याएं तुम्हारे सामने खड़ी हो जाएंगी,’’ बङी बहन बोली.

‘‘बात तो ठीक कह रही हो मगर डर लगता है कि पता नहीं सौतेली मां मेरे बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करे?’’ अश्विनी का मन विचलित था.

‘‘दूसरी शादी तुम्हारी जरूरत है. अभी तुम्हारी उम्र 42 के आसपास है. घर संभालने के लिए यहां किसी को होना ही चाहिए,’’ बहन की बात में दम था.

आखिर कोई कब तक अपने परिवार को संकट में डाल कर अश्विनी का घर संभालते रहेगा. पति, बच्चे अलग शिकायत करते रहते हैं. अश्विनी ने बहन की बात मानी. दूसरी शादी के लिए जोरशोर से लङकी तलाशनी शुरू हो गई. अश्वनि की 2 और बहनें थीं. सब से छोटी वाली चाहती थी कि अश्विनी के लिए सुंदर लड़की मिले क्योंकि अनुराधा सुंदर थी, भले ही तलाकशुदा या विधवा हो. एक बच्ची की मां भी हो तो उसे ऐतराज नहीं था. वह थोङी तेज स्वभाव की थी. मगर बङी बहन का इरादा कुछ और था. वह चाहती थी कि ऐसी लड़की हो जो भले ही गरीब घर की हो मगर संस्कारी हो और अश्वनि के बच्चों को अपना मान कर पाले.

संयोग से एक लङकी मिल गई. वह एक कंपनी में नोैकरी करती थी. उस का पति किसी प्राइवेट कंपनी में अधिकारी था. एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में उस की मौत हो गई थी. उसे एक लङकी भी थी, जिस की उम्र 7 साल थी.

‘‘क्या फर्क पडता है, जैसे 2 पल रहे हैं वैसे ही 3,’’ छोटी बहन बोली.

अश्विनी ने लङकी देखी. वह मोहासक्त हो गया. गौर वर्णीय अच्छे नाकनक्श वाली उस लडकी को काटने का सवाल ही नहीं उठता था. लिहाजा, मन पक्का कर लिया.

आहिस्ताआहिस्ता अश्विनी के जेहन से अनुराधा का अस्क धूमिल पङता गया. उस की जगह श्रेया ने लेना शुरू कर दिया. शादी में 2 महीने की देरी थी. मगर आश्विनी उसे जल्द से जल्द पा लेने को आतुर था. एकाध बार समय निकाल कर उस के साथ घूमने भी गया. इस बीच बच्चों का मोह पीछे छूटता गया. आखिरकार वह घङी भी आ गई जब दोनों ने एक सादे समारोह में शादी कर ली. कुछ दिन बङी बहन आती रही बाद में उस ने आना बंद कर दिया. बीचबीच में आ कर खबर लेती रहती थी. इस बार 2 महीने बाद आई. दोनों बच्चे काफी उदास थे. कहने लगे,‘‘पापा हमारी तरफ बिलकुल ध्यान नहीं देते. रोज शाम को नई मम्मी के साथ घूमने निकल जाते हैं. उन को बेटी की फ्रिक है मगर हमारी नहीं.’’

जिस का डर था वही हुआ. वह एक सीधीसाधी सामान्य घर की लङकी से शादी के पक्ष में थी. मगर छोटी के बङे ख्वाब ने सारे किएधरे पर पानी
फेर दिया. ऐसा नहीं कि अश्विनी को समझाया नहीं जा सकता था. उसे सिर्फ संभालने वाली लड़की चाहिए थी. वह सुंदर हो या नहीं. मगर जिस तरह से छोटी बहन ने उस के मन में सुंदर स्त्री की चाहत भरी वह पूरी तरह से जीवन की हकीकत से बेखबर हो गया. आज उस का कुफल उस के दोनों बच्चे झेलने के लिए विवश थे.

एक दिन मौका पा कर उस की बङी बहन ने अश्विनी से पूछा तो वह भडक गया,’’दीदी, तुम इस पचड़े में मत पङो. बच्चों का बाप है मगर श्रेया की बेटी, वह तो पिता के साए से मरहूम हो चुकी है. क्या मेरा फर्ज नहीं बनता कि उसे पिता का स्नेह दूं?’’ बिना कोई जवाब दिए वह जाने लगी. अश्विनी को कुछ अटपटा लगा.

‘‘खाना खा कर जाओ,’’ अश्विनी बोला.

‘‘किस हैसियत से रुकूं. अब मैं तुम्हारे लिए गैर हो चुकी हूं,‘‘ वह बाहर की ओर निकली.

‘‘ऐसा नहीं है, दीदी. अश्विनी ने रोका. तुम्हारी जिंदगी अब सिर्फ तुम्हारी हो कर रह चुकी है. हमें बोलने का कोई हक नहीं. बेहतर होगा मुझे जाने दो,’’ बङी दीदी का मन खिन्न हो चुका था. जैसे ही बाहर आई सामने छोटी बहन भी आती दिखी. वह रुक गई.

‘‘दीदी, तुम कब आईं?” छोटी बहन के सवाल पर वह उबल पङी,”क्या यहां आने का हक सिर्फ तुम्हें ही है?’’ बङी बहन के तेवर देख कर वह कुछ नहीं बोली. अश्विनी की तरफ देखा. वह भी सामान्य नहीं दिखा. उसे विश्वास हो गया कि कुछ हुआ है.

‘‘अश्विनी भैया, तुम्हीं कुछ बताओ?’’ छोटी बहन का चेहरा उतर चुका था.

“बनारस आई थी अपनी ननद के पास. सोची तुम से भी मिलती चलूं. मगर यहां का माहौल तो कुछ और बयां कर रहा है.”

“ठीक समझी हो तुम. अश्विनी कहता है कि तुम मेरे पचङों में मत पङो. अब मेरा इतना भी हक नहीं रह गया है कि उस के घरेलू मामले में अगर कुछ गलत होता है तो उसे सही रास्ता दिखा सकूं?” बङी बहन का स्वर तल्ख था.

“दीदी, मुझे बताओ मेैं अश्विनी भैया को समझाने की कोशिश करूंगी,’’ छोटी बहन बोली.

‘‘तुम क्या समझाओगी? सारे झगङे की जङ तुम ही हो. इसलिए कहती हूं कि आदमी को जिंदगी का तजरबा होना बहुत जरूरी है. कम से कम शादीब्याह के मामले में तो बेहद जरूरी. आज तुम्हारी नादानी के चलते अनुराधा के दोनों बच्चे अनाथों की तरह पल रहे हैं,’’ बङी बहन के कथन पर छोटी का मुंह बन गया. क्या जवाब दे.

‘‘दीदी, कमरे में चलो. अश्विनी आप से छोटा है. उस की गलती के लिए मैं तुम से माफी मांगती हूं,’’ छोटी के कहने पर वह कमरे में आई.

‘‘दोनों बच्चे कह रहे थे कि अश्विनी अब उन का वैसा खयाल नहीं रखता जो श्रेया के आने से पहले था,’’ बङी बहन बोली.

‘‘ऐसा नहीं है दीदी. उन की हर सुखसुविधा का खयाल है मुझे. अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाता हूं,’’ अश्विनी बोला.

‘‘यह मत भूलो कि तुम्हारा उन से खून का रिश्ता है. उन के लिए तुम ही सबकुछ हो. श्रेया चाहे जैसी भी हो वह तुम्हारी जगह नहीं ले सकती,’’ श्रेया यह सब सुन रही थी. उस से रहा न गया.

‘‘दीदी, आप मेरा अपमान कर रही हैं,’’ वह बोली.

‘‘इतना ही था तो क्यों मेरी शादी की?’’ अश्विनी ने बातचीत का रूख बदलना चाहा.

‘‘फुजूल की बात मत करो. शादी का मतलब यह नहीं कि तुम बंट जाओ. अनुराधा के बच्चे शिकायत करते हैं कि तुम उस की बेटी को ले कर अकेले घूमने निकल जाते हो. वे दोनों घर में अकेलापन महसूस करते हेैं.’’

‘‘मैं नहीं चाहता कि उन की पढ़ाई का हरज हो,’’ अश्विनी बोला.

‘‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी निजता भंग होगी. क्या अनुराधा होती तब भी तुम यही कहते?’’ अश्विनी
को जवाब देते नहीं बना. छोटी बहन ने बात संभालना चाहा. मगर बात बनी नहीं.

‘‘आप को जो समझना हो समझिए. श्रेया मेरी बीवी है. उस का खयाल रखना फर्ज है,” अश्विनी उस के
रूपरंग पर इस कदर फिदा हो चुका था कि आज उसे हरकोई दुश्मन नजर आ रहा था. जब दोनों बहनें चली गईं तो दोनों बच्चों के कमरे में आए.

“क्या कहा था तुम दोनों ने?’’ अश्विनी के तेवर देख कर दोनों सहम गए. श्रेया भी उन्हें सबक सिखाने के मूड में थी.

‘‘बहुत घूमने का शौक है तो पढ़नालिखना छोड दो,‘‘ तेज कदमों से चल कर अश्विनी अपने कमरे में आया. बच्चे उस के जाने के बाद सुबकने लगे.

‘‘इतनी छोटी उम्र में यह हाल है, जाने बङे हो कर क्या करेंगे?” श्रेया दूध का गिलास अश्विनी की तरफ बढ़ाते हुए बोली.

‘‘सब अनुराधा का कियाधरा है. उसी ने बच्चों को बिगाङ रखा था,’’ अश्विनी के कथन पर श्रेया ने कोई जवाब नहीं दिया. यह उस की चालबाजी थी.

‘‘मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी लगती है. तुम्हारा मन साफ है,’’ कह कर अश्विनी ने श्रेया को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘दरवाजा तो बंद कर लेने दीजिए,’’ श्रेया लजाई.

सुबह श्रेया ने अश्वनि के दोनों बच्चों को हमेशा की तरह परांठे और सब्जियां दीं.

‘‘मम्मी, आज मैं भी मैगी ले जाऊंगी,’’ अश्विनी की बङी बेटी कविता बोली.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बेकार की चीजें ले जाने की,’’ श्रेया ने मना कर दिया.

‘‘आप शालू को देती हेैं मुझे नहीं,’’ शालू, श्रेया की पहले पति की बेटी थी.

“नहीं देती हूं,” श्रेया रूष्ट स्वर में बोली.

‘‘मैं ने आप को बनाते हुए देखा है,’’ दोनों के संवाद अश्विनी के कानों पर पङे.

‘‘कविता, क्यों जिद कर रही हो?’’

‘‘पापा, आज मेरा मन मैगी ले जाने का कर रहा है. वहां सब बदलबदल कर टिफिन लाते हैं. एक मैं हूं जो एक ही तरह की टिफिन ले जाती हूं,’’ उचित होने के बावजूद अश्विनी ने श्रेया का ही पक्ष लिया. इस पर कविता रोने लगी. जो अश्विनी को नागवार लगा. उस ने कविता को डांट भी दिया.

तभी उस का बडा भाई विशू दूसरे कमरे से आया. कविता को समझाने का प्रयास किया तब जा कर वह
शांत हुई. विशू समझदार लङका था, वहीं कविता में बालसुलभ नादानी थी.

‘‘पापा, कितने बदल गए हैं. हमारी बात तक नहीं समझते,’’ स्कूल में टिफिन के वक्त कविता विशू से
बोली.

‘‘सब नई मम्मी की करतूत है,’’ विशू बोला. अचानक मां की याद ने उसे भावविभोर कर दिया. इसे विडंबना ही कहेंगे कि श्रेया को अपनी जन्मी बेटी से लगाव है, वहीं अश्विनी ने मुंह फेर लिया. सच में मां की जगह पिता नहीं ले सकता. इस के बावजूद अश्विनी के दिमाग में कोई बात नहीं समा रही थी.

‘‘यह मकान किस का है?’’ एक रोज हमबिस्तर थे दोनों जब श्रेया ने यह प्रश्न पूछा.

‘‘अनुराधा की मां का,’’ अश्विनी उस के बालों पर उंगलियां फेरते हुए बोला.

‘‘नाम किस का चढ़ा है?’’ अश्विनी को श्रेया की यह बात अच्छी न लगी.

“जान कर करोगी क्या?’’

‘’ऐसी ही पूछ रही हूं,’’ जैसे ही श्रेया ने प्यार से उस के बदन को सहलाया वह पिघल गया.

‘‘मेरे नाम पर है.”

“क्या आप ने अपने सरकारी दस्तावजों पर बतौर पत्नी मेरा नाम चढ़वाया है?’’ श्रेया से उसे यह उम्मीद
नहीं थी.

‘‘अचानक तुम्हारे दिमाग में यह सब क्यों आ रहा है?’’

“आप तो जानते हैं कि मेरा आप के सिवाय इस दुनिया में कोई नहीं है,’’ श्रेया भावुक होने का नाटक
करने लगी.

‘‘मैं चाहती हूं कि हरकोई जानें कि मैं आप की पत्नी हूं,” वह बोली.

‘‘इस में कोई शक है?’’

‘‘आप को मजाक सूझ रहा है. मेरा दिल बैठा जा रहा है,’’ कह कर श्रेया ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया.

अश्विनी को उस की बेरूखी एक क्षण के लिए बरदाश्त नहीं था. उस ने समर्पण कर दिया.

‘‘नाराज मत हो. तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा,’’ श्रेया का मूड ठीक हो गया.

अगले रोज श्रेया का नाम दर्ज कराने के लिए अश्विनी ने आवेदन कर दिया. कुछ दिन बाद अनुराधा का नाम हट कर श्रेया दर्ज हो गया. श्रेया खुश थी. स्कूल में उस की बेटी के पिता का नाम पहले से ही अश्विनी लिखा था. इतना सबकुछ होने के बावजूद उसे इस बात का डर हमेशा बना रहता था कि कहीं अश्विनी बदल न जाए क्योंकि उन दोनों के बीच ऐसी कोई कङी नहीं थी जिस से वे हर हाल में जुङे रहें. कल का क्या पता, अश्विनी अगर अपनी पहली पत्नी के बच्चों की तरफ झुक गया तो वह कहीं की नहीं रहेगी. उसे अपना बुढ़ापा सताने लगा. लङकी शादी कर के अपने घर चली जाएगी. फिर उस की देखभाल कौन करेगा?

यही सब सोच कर उस ने मौका देखा और छेङ दी अपने मन की बात. अश्विनी को कोई ऐतराज नहीं हुआ. वह तो हर हाल में श्रेया को खुश देखना चाहता था. संयोग से लङका हुआ. सब से ज्यादा खुशी अश्विनी को हुई. मानो पहली बार पिता बन रहा हो. बड़ी बहन को छोड़ कर बाकी दोनों बहनें खुश थीं. अश्वनि ने उन को सोने की अंगूठी दी.

बङी बहन ने बेमन से स्वीकार किया. उसे अनुराधा के दोनों बच्चों की फ्रिक थी. अब तो वे दोनों और भी उपेक्षा के शिकार हो जाएंगे. उसे अश्वनि की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. शादी की थी ताकि उस की गृहस्थी की गाड़ी जो बपेटरी हो गई थी वह रास्ते पर आ जाए. मगर यहां तो वह नए सिरे से गृहस्थी जुटा रहा था यानि जितना चला था वह सब बेकार हो गया श्रेया के आने से. अब फिर से वही यात्रा नए सिरे से कर रहा था.

‘ऐसा तो कोई मूर्ख ही कर सकता था,’ सोच कर उस का मन उचाट हो गया. अनुराधा के दोनों बच्चों को अपने पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी. अश्विनी से उन को हर सुखसुविधा मिलती मगर नहीं मिलता तो प्यार के दो बोल जिस के लिए वे तरस जाते. अश्विनी औफिस से आता तो सीधे अपने नवजात बच्चे को पुचकारने चला जाता. दोनों बच्चे लावारिस की तरह अपने कमरे में पङे रहते.

आहिस्ताआहिस्ता समय सरकता रहा. विशू बीटेक करने दिल्ली चला गया. कविता इंटर में पढ़ रही थी. अचानक एक दिन सबकुछ बदल गया. अश्विनी की मोैत की खबर पा कर मैं उस के घर मातम पुरसी के लिए गया. बङी बहन ने मौका पा कर मुझे सारी बात बताई. सुन कर मुझे अच्छा नहीं लगा. अब सवाल उठा कि अश्विनी की जगह सरकारी नौकरी कौन करेगा? सुनने में आया कि श्रेया ही नौकरी के लिए आवेदन देगी.

अश्विनी के दिवंगत होने के बाद श्रेया के मांबाप, भाईबहन सब वहीं जमे रहे. जाहिर है, वे हरगिज नहीं चाहेंगे कि उन की बेटी का अमंगल हो. 2 बार विधवा का अभिशाप झेलने वाली श्रेया के लिए यह क्षण बेहद कष्टकारी थे. उस पर 2 बच्चों के पालने का बोझ भी था.

श्रेया ने साफसाफ कह दिया कि वह नौकरी करेगी. अब सवाल उठा कि कैसे श्रेया को समझाया जाए
कि उसे तो अश्विनी का पेंशन भी मिलेगा. क्या वह दोनों का फायदा उठाएगी? काफी मशक्कत के बाद
भी जब कोई रास्ता नहीं निकला तो सब अश्विनी को कोसने लगे.

‘‘कानून से ही कोई रास्ता निकलेगा,’’ मैं ने कहा.

कहने को तो कह दिया मगर क्या यह रास्ता आसान था? अश्विनी की मूर्खता ने उस के दोनों बच्चों को चोैराहे पर ला कर खड़ा कर दिया.

Romantic Story : गुलमोहर – दो प्रेमियों की अधूरी कहानी

Romantic Story : आज सवेरे जब कामायनी दिल्ली से कालेज के लैक्चरर (वनस्पति विज्ञान) के पद का साक्षात्कार दे कर घर लौटी तो उत्साह के अतिरेक में अपने पिता के प्रौढ़ कंधों पर झूल गई,”पापा, “मेरा इंटरव्यू बहुत बहुत अच्छा हुआ. अब मुझे दिल्ली के किसी कालेज में अवसर मिलने की पूरी संभावना है, जो मेरा एक सपना भी है.”

पापा उस के सपनों को मीठी थपकियां देते बोले,”अरे बेटी, यह तो बड़ी उपलब्धि होगी पर यह तो बताओ कि आखिर तुम से क्या प्रश्न पूछे और तुम ने उत्तर क्या दिए?” कामायनी संयत हो कर सोफे पर बैठते हुए बताने लगी तो उस की आंखों में उम्मीद का एक आसमान पसरने लगा.

विचारमग्न होते पापा उस आसमान का एक छोर पकडना चाहते हैं कि आखिर उन की बेटी इतनी कड़ी प्रतिस्पर्धा में अपना चयन होने की उम्मीद कैसे कर रही है, न कोई सिफारिश, न कोई जरिया.

कामायनी,”पापा, मेरे इंटरव्यू बोर्ड में 3 सदस्य थे, एक प्रौढ़ महिला जो संभवतया बोर्ड की चेयरपर्सन थीं जिस की आंखों पर गोल, सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ा हुआ था. दाएंबाएं पुरुष सदस्य बैठे थे. एक सदस्य ने कुरसी पर बैठने का इशारा किया. दूसरे सदस्य ने पूछना शुरू किया,’क्या नाम है आप का? कहां से आई हैं आप?'”

“जी, मैं कामायनी हूं, बांसवाड़ा से हूं.”

पहला सदस्य,”आप के शहर के इस नाम का क्या लौजिक हो सकता है?”

सर,”बांसिया राजा के नाम पर यह नाम पङा है.”

चेयरपर्सन महिला जो कोई कागज पढ़ने में व्यस्त थीं, उन की चेयर थोङी घूम कर सीधी हुई. उन के प्रतिक्रियाहीन चेहरे पर कोई तरंग प्रकट होने लगी,”आप के शहर के नाम का कोई दूसरा लौजिक भी हो सकता है क्या?”

“जी मैम, बांसवनों की बहुतायत के कारण भी, बांसवाड़ा नाम पङा.”

चेयरपर्सन दूसरे सदस्य से मुखातिब हुई,”देखिए, कितना बोटैनिकल नेम है इस शहर का. राजस्थान का नाम आते ही लोगों के मन पर मरुधरा का वह चित्र साकार होने लगता है, जिस में रेगिस्तान में डग भरते ऊंट दिखाई देते हैं पर यह शहर इस के उलट राजस्थान का चेरापूंजी कहा जाता है, सिटी औफ हंड्रैड आई लैंड, फिर बांस से बनी बांसुरी इस बोटैनिकल नेम को नाद तत्त्व से भर देती हैं, वंडरफुल.”

फिर आंखों से चश्मा उतार कर प्रतिप्रश्न किया,”एम आई करैक्ट?”

कामायनी ने चहक कर सहमति में सिर हिलाया, “जी मैम.”

वह देख रही थी कि मैम की प्रतिक्रियाहीन चेहरे की महानदी में अचानक अनेक द्वीपों के बिंब उतर आए थे. उन्होंने दूसरे सदस्य की ओर प्रश्न पूछने का इशारा किया और मौन हो गईं जैसे कामायनी के चेहरे को पढ़ रही हों.

दूसरे सदस्य ने पूछा,”आप गुलमोहर के बारे में क्या जानती हैं?”

कामायनी,”सर, गुलमोहर का वानस्पतिक नाम है डेलोनिक्स रेजिया रौयल पांइसियाना.”

फिर तो दोनों सदस्यों ने गुलमोहर पर प्रश्नों की बौछार कर दी. चेयरपर्सन मैम मौन थीं पर कामायनी के चेहरे को लगातार पढ़ रही थीं.

कामायनी के उत्तर थे,”सर, संस्कृत में इसे कृष्णचूड़, राजआभूषण भी कहते हैं. भरी गरमियों में गुलमोहर के पेड़ पर पत्तियां तो नाममात्र की होती हैं पर फूल इतने अधिक होते हैं कि गिनना कठिन. गुलमोहर के फूल मकरंद का अच्छा स्त्रोत हैं, शहद की मक्खियां फूलों पर खूब मंडराती हैं.गुलमोहर का पहला फूल खिलते ही 1 सप्ताह के भीतर पूरा वृक्ष गाढ़े लाल रंग के अंगारों से भर जाता है. ये फूल लाल के अलावा नारंगी और पीले रंग के भी होते हैं.

“गुलमोहर को आग का पेड़ भी कहते हैं, क्योंकि जंगल में यह एक लौ की तरह दिखता है.”

मैम के भीतर जैसे कतारबद्ध गुलमोहर के पेड़ खड़े हों जिस की रोशनी की लौ बाहर आ रही हो. अचानक अपना मौन तोड़ते हुए पूछ बैठीं,”कामायनी, आप के छोटे शहर में अंगरेजों के जमाने का एक प्राइमरी स्कूल भी है, जिस पर किसी अंगरेज का नाम लिखा है और उस के सामने खेल के बडे मैदान में एक गुलमोहर का पेड़ भी है.

कामायनी,”जी हां, मैम यह स्कूल अभी भी है पर गुलमोहर तो वहां कहीं नहीं है.”

असहज हुई थी मैम,”क्या हुआ उस पेड़ को? किसी ने बचाने का प्रयास नहीं किया? पेड़ काटना तो कानूनी अपराध है.” मैम के स्वर में आक्रोश उभर रहा था.

“काटने वाले तो काट कर भाग गए होंगे पर उन्हें पता कितने पक्षी बेघर हो गए होंगे. कितने बच्चे जो उन घोसलों में थे यकायक बिना किसी अपराध के काल कवलित हो गए.लौट कर आए पक्षियों के शोकगीत से पेड़ पर बचे हुए इक्कादुक्का गुलमोहर के फूल भी मुरझा गए होंगे.”

कामायनी ने देखा, मैम थोडा अपसेट लग रही हैं. जैसे ही स्कूल और गुलमोहर का जिक्र आया उस के पापा भी स्मृतियों की महीन डोर से दूसरे छोर पर टंगे व्यतीत के कोठार में चले गए. उन को लगा, फूलों की लौ में हर चीज साफसाफ दिखाई दे रही है.

कभीकभी तेज हवा के प्रवाह में किताब के पन्ने पक्षियों के पंख की तरह फड़फड़ाते हैं और नई उड़ान पर निकल जाते हैं, ठीक उसी तरह कामायनी के पापा भी 50 वर्ष पूर्व की स्मृतियों की चौखट पर पहुंच गए. उन दरवाजों से निकल कर एक किशोर अपना बस्ता लटकाए अंगरेजों के नाम वाले उसी प्राइमरी स्कूल में जा रहा था.

उस कसबे में केवल एक ही स्कूल था जिस में उस की कक्षा में 30 छात्रों का रोल रहा होगा. चूंकि उस कसबे में बहुत कम लड़कियां पढ़ने जाती थीं, जो पढ़ती थीं उन के लिए भी कोई अलग से स्कूल नहीं था. उस की कक्षा में 29 छात्र थे, केवल एक लड़की पढ़ती थी. वह भी यहां की स्थानीय नहीं थी, उस के पापा यहां कोई सरकारी नौकरी करते थे. उन की हैसीयत का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन के पास साइकिल भी थी और साइकिल उस कसबे में स्टेटस सिंबल हुआ करती थी.

चूंकि वह एक अकेली लड़की थी इसलिए अध्यापक भी उसे वीआईपी ट्रीटमैंट देते थे. लड़कों के लिए तो आकर्षण का केंद्र थी ही, उस का बस्ता, उस के रंगबिरंगे मंहगे कपङे, जूते, बोलने का ढंग, गुलमोहर के फूल की तरह खिला हुआ चेहरा, सबकुछ कौतुहल…

अपनी कक्षा में वह अकेली लड़की पढ़ती थी. वैसे स्कूल में कुल जमा 7-8 लड़कियां थीं जो छोटी कक्षाओं में थीं. स्कूल तो उस के बैच के साथ प्राथमिक से माध्यमिक की और बढ़ रहा था. ठीक उसी तरह उस लड़की की लंबाई भी बढ़ रही थी. स्कूल के सामने पसरे मैदान पर एक अकेला गुलमोहर का पेड़ था जिस पर लालपीले गुलमोहर खिल रहे थे. बाद में उसे आश्चर्य हुआ कि अरे, इस लड़की का नाम तो अपनेआप में यूनिक है. उस ने आज से पहले किसी लड़की का नाम गुलमोहर नहीं सुना था और यह गुलमोहर थी भी फूलों की तरह खिली हुई. उन दोनों में परस्पर कोई संवाद नहीं था. शाही प्रकृति थी, किसी के साथ अनावश्यक बातचीत नहीं करती थी.

एक दिन एक घटना ऐसी घटी की उन की मैत्री का कारण बन गई. छुट्टी से पहले वाला घंटा बागवानी विषय का था जो उस को फूटी आंख नहीं सुहाता. बागवानी के अध्यापक ने जांचने के लिए उन की कौपी मांगी, जो एकदम खाली देख कर मास्टरजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

खाली कौपी उस के मुंह पर मारी और फटकार कर बोले,”नहीं पढ़ना है तो मांबाप का पैसा क्यों बरबाद कर रहे हो, स्कूल छोड़ कोई और धंधा तलाश कर लो. तभी छुट्टी की घंटी बजी. जाते हुए सहपाठी उसे घूर रहे थे. वह अपनेआप को अपमानित महसूस कर रहा था. उस का घर जाने का भी मन नहीं था. घर वालों को पता लगेगा तो वह अलग मिट्टी पलीद करेंगे. स्कूल बंद होने वाला था. वह कहां जाए. उसे लगा अपमानित होने की इस घड़ी में दूर खड़ा गुलमोहर का पेड़ उसे बुला रहा है, सांत्वना दे रहा है.

अनमने से वह पेड़ के नीचे खड़े हो कर सामान्य होने का प्रयास कर रहा था. तभी गुलमोहर भी उधर आने लगी. वह घबरा गया,’अब यह जले पर नमक छिडकने आ रही है क्या?’ लेकिन हुआ सोच के विपरीत.

गुलमोहर,”देखो, अध्यापकजी ने ठीक नहीं किया पर निराश क्यों होते हो, कल बागवानी का होमवर्क पूरा कर के ले आना.”

“अरे, तू क्या जाने… मुझे तो कुछ विषयों से चिढ़ है और बागवानी उन में से एक है.”

गुलमोहर,”सब से पहले तो मुझे ‘तू’ नहीं ‘तुम’ कह कर बुलाना. मेरी मां कहती हैं कि हर किसी से हमें सलीके और अदब के साथ बात करनी चाहिए. जैसे मैं तुम्हें ‘तुम’ कहती हूं.” उस का अवसाद कुछ घुलने लगा.

गुलमोहर,”दूसरी बात, हर बच्चे को हर विषय पसंद हो यह जरूरी भी नहीं है. जैसे मेरी समझ में हिंदी नहीं आती है. तुम को तो सारी कविताएं और दोहे कंठस्थ हैं, मैं नहीं समझ पाती. देखो, वे किस कवि का कौन सा दोहा,’छाछ के लिए नाच हो रहे हैं…'”

“वे कौन से कवि हैं जो कामरी, लकङी के लिए राज्य को ठोकर मार रहे हैं,” उस की हंसी छूट गई.

वह थोङा सहज हो कर समझाने लगा,”या लकुटी अरु कामरिया की, ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरी छाछ पे नाच नचावे…”

गुलमोहर भी उस हंसी में सम्मिलित हो गई. पूछने लगी,”तुम ने गंगारंगा की कहानी सुनी है. एक के पांव नहीं हैं, दूसरे के हाथ नहीं हैं. दोनों मिल कर काम करते हैं और गाङी चल पङी.”

लाओ, तुम्हारी बागवानी की कौपी लाओ. घर के बगीचे में मां ने कई गमले रखे हैं, उन की पत्तियां इस में टांक कर ले आऊंगी. शुरुआत तुम करो. गुलमोहर के फूल तोड़ कर मुझे दो. इस को सब से पहले टांक दूं.

उस ने जब एक गुलमोहर का फूल, गुलमोहर की हथेली पर रखा तब लगा कि बागवानी नीरस विषय नहीं है.

“जाओ, अब सीधे घर जाओ, चाचीजी तुम्हारी चिंता कर रही होंगी.” वह एक आज्ञाकारी बालक की तरह घर की ओर चल पङा.

आगे कुछ ऐसा ही क्रम बन गया. जब भी कुछ समझ में नहीं आता, तो वह कभी रेसस में या छुट्टी के बाद गुलमोहर के पेड़ तले बैठ कर एकदूसरे से समझ लेते. इन का गुलमोहर तले जा कर बैठना, दूसरे सहपाठियों को अटपटा लगता. एक दिन किसी सहपाठी ने उस को टोक भी दिया,”क्या लड़का हो कर लड़कियों से दोस्ती करता हो.” नतीजा यह हुआ कि 2-4 दिनों तक वह गुलमोहर से कन्नी काटता रहा.

दूर से देखता कि गुलमोहर बराबर वहां जाती है, कुछ देर रुकती है. लगता है, जैसे किसी की प्रतीक्षा में खड़ी हो, फिर पेड़ पर लगे हुए फूलों को निहारती है और आहिस्ताआहिस्ता अपने गंतव्य को लौटने लगती है. उसे लगता है कि अभी पीछे से आ कर कोई कहेगा कि रुको गुलमोहर, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं.

5वें दिन उस के कदम बडी व्यग्रता के साथ रेसस के कुछ समय पहले ही गुलमोहर के पेड़ की तरफ बढ़ गए. वह पेड़ तले प्रतीक्षा में खड़ी थी. गुलमोहर ने कुछ नजदीक से जब उसे देखा तो यकायक पीछे घूमने की कोशिश करने लगी. कल रात को ही उस ने कहीं पढ़ा था कि जब उदास गोपियों को उद्धव सारा ज्ञान बघार चुके और फिर भी नहीं समझीं तो उन्होंने कहा कि मथुरा से गोकुल की दूरी सिर्फ 5 कोस है. तुम सभी वहां जा कर कन्हैया से मिल लो. उन्हें उलाहना दो.

तब गोपियों ने कहा,”मथुरा से गोकुल की दूरी सिर्फ 5 कोस है फिर भी प्रश्न यह स्वाभिमान का है.” तब उद्धव निरुत्तर हो गए थे.

वह समझ गया कि गुलमोहर रुष्ट हो गई है, इसलिए आगे बढ़ कर उस ने आवाज लगाई,”रुको, गुलमोहर…”

“हम नहीं रुकते, हमारी कुट्टी हो गई,” उस की आवाज में तल्खी थी.

“हमारी तो बुच्ची ही है,” उस ने हकलाते हुए सफाई दी.

“तुम विवशता समझो, गुलमोहर. सहपाठी हंसते हैं कि क्या लड़की से दोस्ती करता है…”

अनायास ही उस की हंसी छूट जाती है. एकदम उन्मुक्त, ऊपर डाल पर खिल रहे सुर्ख लाल गुलमोहर की तरह.

वैसे तो उस के रंगबिरंगे कपड़ों को ले कर स्कूल के बच्चों में सदैव उत्सुकता बनी रहती पर ऋतु परिवर्तन के साथ ही यह उत्सुकता चरम पर पहुंच जाती. वर्षा ऋतु में भी यह विभिन्न प्रकार के रेनकोट से ले कर रंगबिरंगी, सतरंगी छतरियों में दृष्टिगोचर होती.

चेरापूंजी नाम को सार्थक करते कसबे में जब मेह की झड़ी लग गई, आसमान ने कुहासे की चादर ओढ़ ली, तब उस दिन स्कूल में समय से पहले ही छुट्टी की घंटी बजा दी गई.
स्कूल तो बंद हो रहा था, मगर उस के पास छतरी थी नहीं, इसलिए बरसात के रुकने की प्रतीक्षा में पेड़ के नीचे खड़ा हो गया. सतरंगी छतरी में आ रही गुलमोहर ने पास आ कर कहा,”चलो, आओ…”

“एक छतरी में दोनों भीगेंगे, इस से अच्छा है तुम चली जाओ.”

“और तुम यहां पूरे भीग कर बीमार हो जाओगे, इस से अच्छा है थोड़ाथोड़ा भीग कर दोनों चले जाएंगे. मैं कोई मोम की तो नहीं हूं जो गल जाऊंगी.”

“नहीं, यह बात नहीं है, तुम्हारी मां तुम्हें डांटेंगी.”

“मेरी मां ऐसी नहीं है.”

“चल़ो, आओ…”

अब वह इस आदेश को टालने की स्थिति में नहीं था. छतरी में उस ने दोनों के बस्ते संभाले, वह छतरी संभाल रही थी. उस का घर पहले आता था, जहां पहुंच कर उस ने छतरी देते हुए कहा,”यह ले कर जाओ.”

उस ने कहा,”इस की जरूरत नहीं है, अब बरसात भी कम हो रही है.” उस ने छतरी हाथ में थमा दी.

वह घर लौटते हुए सोच रहा था कि क्या जीवन भी सतरंगी छतरी की तरह खुल कर आकाश के वक्ष का इंद्रधनुष हो जाता है…

शरद ऋतु में उस की झलक उस के गरम कपडों से मिलने लगी. अलगअलग रंग के कार्डिगन, हाथ से बुने हुए रंगबिरंगे गरम ऊनी बनियान, आधी बांह, पूरी बांह, चित्ताकर्षक कढ़ाई, बुनाई किए हुए शौल, दुशाले… उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस ने बताया कि मां को कढ़ाईबुनाई का बहुत शौक है. वे अपने खाली वक्त में बुनती रहती हैं.

एक दिन उस ने गुलाबी रंग की गरम ऊनी बनियान पहन रखी थी जिस पर कलात्मक ढंग से बुना हुआ श्वेत खरगोश शावक का चित्र बहुत सुंदर लग रहा था. उस ने कहा था,”ओहो, इतना सुंदर सजीव दिखता खरगोश, हाथ से छू कर सहलाने को जी करता है.”

उस ने तपाक से उस का हाथ अपने हाथों में लिए और कहा,”तो छू लो.”

दिन, महीने, साल किश्त दर किश्त गुजरते गए. सांसों की गंध जीवन की पोथी के अभिलेखागार में सुरक्षित होती चली गई. पर जीवन तो एक महासागर है, शांत, धीर समंदर एक सरीखा तो नहीं रहता. ज्वारभाटों के घातप्रतिघात से उठे चक्रवात न जाने कब वज्रपात से उस के सीने को छलनी कर देते हैं.

कक्षा 5वीं से 7वीं तक की पढ़ाई का 3 वर्ष का यह सफर अपने चौथे वर्ष में प्रवेश करने ही जा रहा था कि तभी समाचार आया की उस के पापा का यहां से बहुत दूर द्वारका में ट्रांसफर हो गया है. गुलमोहर के पेड़ के साए में इस सफर की कोई आखिरी शाम रही होगी, जब शब्द अपना सामर्थ्य खो चुके थे, भाषा उस विस्तार को छूने में अक्षम थी और कुछ बोल पाना सहज नहीं था. उस धुंधलके में यह भी नहीं दिखाई दे रहा था कि पलकों के लिए कितना कठिन होता है आंखों के मुहानों पर ठहरी हुई नदियों को रोक पाना.

गुलमोहर का पेड़ अब भी वहीं खड़ा था मजबूती से, अटल… मगर गुलमोहर चली गई थी बहुत दूर. जीवन से तथागत होने का अर्थ जीवन का शून्य हो जाना तो नहीं होता है.

बाद के जीवन में जब एक बार वह द्वारिका की यात्रा पर निकल पङा तो उस ने कल्पना की थी कि कहीं कान्हा की मुरली की तान सुनाई दे.चारों तरफ पसरे हुए सन्नाटे में वह खोज रहा था द्वारका, जो कब का समुंदर में समा चुका था.

कामायनी,”अरे पापा, आप कहां खो गए? मैं ने अपना पूरा इंटरव्यू बता दिया और आप सो गए. आप ने कुछ सुना ही नहीं, क्या पापा…आप भी न…”

पापा,”मैं सुन तो रहा था.”

कामायनी,”नहीं सुना हो तो सुनो, मुझे लगता है कि वे मैम इस शहर से किसी न किसी रुप में परिचित हैं और यही मुझे अपना सिलैक्शन होने की संभावना लगती है. और पता है, पापा जब मैं इंटरव्यू दे कर खड़ी हुई तो उन्होंने अचानक पूछ लिया,”कामायनी, आप के पापा का नाम क्या है?”

मैं ने कहा,”प्रसाद… एक क्षण के लिए वे हतप्रभ रह गईं, कुछ सोचने लगीं फिर संयत हो कर कहा कि अच्छा तुम्हें पता है कि जयशंकर प्रसाद की सुप्रसिद्ध कृति का नाम भी कामायनी है?”

मैं ने स्वीकृति में सिर हिलाया,”जी मैम…”

पापा भी एक क्षण के लिए कुछ सोचते हैं,” बेटी, तुम ने उस मैम का नाम नहीं पूछा?”

“पापा, मैं उस मैम का नाम कैसे पूछ सकती थी. क्या यह आउट औफ कर्टसी नहीं होता?”

तभी उस की मम्मी प्यालों में कौफी ले कर आ गई,”आखिर मुझे भी तो पता चले कि बापबेटी के मन में किस बात के लड्डू फूट रहे हैं, रिजल्ट तो अभी आया नहीं है.

Online Hindi Story : मैंने कोई जादू नहीं किया

Online Hindi Story : नविता शुभांगी को मांबाबूजी समझासमझा कर हार गए लेकिन शादी के मामले में उस ने किसी की न सुनी. कोई न कोई कमी उसे हर लड़के में नजर आ जाती और झट उसे नापसंद कर देती. लेकिन भाभी ने शुभांगी को आत्ममंथन के लिए ऐसा प्रेरित किया कि… आज घड़ी की सूइयां कुछ ज्यादा ही तेज रफ्तार से भाग रही थीं. काम निबटाते हुए पता ही नहीं चला कि कब 5 बज गए. मां, बाबूजी और शुभांगी आने वाले थे. अनिकेत उन्हें लेने स्टेशन गए थे. बच्चे भी दादी, बाबा और बूआ के आने को ले कर उत्साहित थे. ‘‘रोहित, रुचि, कोई चीज इधरउधर मत फैलाना, मैं ने अभी सब ठीक किया है,’’ मैं किचन से ही उन्हें निर्देश दे रही थी. ‘‘मम्मी, हम तो स्टडी रूम में हैं, कंप्यूटर के पास,’’ रोहित ने आश्वस्त किया. तभी गाड़ी के रुकने की आवाज आई. ‘लगता है वे लोग आ गए,’ मैं ने सोचा और जल्दी से साड़ी ठीक कर पल्लू सिर पर लिया और दरवाजा खोला. बहुत दिनों बाद उन का आना हुआ था.

मैं ने सब के पैर छुए. ‘‘खुश रहो, बेटी,’’ बाबूजी ने सदा की तरह अपना स्नेहभरा आशीर्वाद दिया और बोले, ‘‘बच्चे कहां हैं, दिखाई नहीं दे रहे?’’ ‘‘अभी बुलाती हूं, बाबूजी. कंप्यूटर गेम खेल रहे हैं. कब से आप सब का इंतजार कर रहे थे,’’ कहते हुए मैं ने बच्चों को पुकारा, ‘‘रोहित, रुचि, जल्दी आओ, दादी, बाबा और बूआ आ गए.’’ बच्चे दौड़ कर आए और दादीबाबा से लिपट गए. रोहित बोला, ‘‘कैसे हैं आप, बाबा?’’ ‘‘आप जानते हैं, हमारा नया कंप्यूटर आया है,’’ रुचि आंखें मटकाती बोली. उत्साह से भरे दोनों बच्चे अपनीअपनी बातें बताने की होड़ में लगे थे, ‘‘चलो, बूआ आओ तो, आप को दिखाते हैं.’’ ‘‘अरेअरे… रुको तो, अभी सांस तो लेने दो. अभीअभी तो आए हैं. चायनाश्ते के बाद आराम से दिखाना,’’ शुभांगी बोली. लेकिन बच्चों को सब्र कहां था, बूआ को अपने साथ ले जा कर ही माने. ‘‘भाभी, मेरी चाय स्टडी रूम में ही भिजवा दीजिएगा,’’ कहती शुभांगी स्टडी रूम में चली गई.

‘‘और बहू, सब ठीक तो है?’’ मांजी ने स्नेहिल शब्दों में पूछा. ‘‘हां, मांजी, सब ठीक है, लेकिन आप पहले बताइए कि आप का बीपी अब कैसा है? बाबूजी का मोतियाबिंद का औपरेशन कब होना है?’’ ‘‘हमारा क्या है, बहू, बुढ़ापा है, कुछ न कुछ रोग लगा ही रहता है. पिछले हफ्ते बीपी फिर लो हो गया था. दवाइयां ले रही हूं. इन का मोतियाबिंद अभी पूरी तरह पका नहीं है. औपरेशन में समय लगेगा. फिर हम ठहरे सूखे पत्ते, कब टूट जाएं, क्या भरोसा.’’ ‘‘ऐसा क्यों कहती हैं, मांजी, सब ठीक हो जाएगा. अरे हां, शुभांगी के रिश्ते की बात कहीं तय हुई या नहीं?’’ मैं ने बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ते हुए पूछा. ‘‘अरे कहां, इस लड़की से तो मैं तंग आ गई हूं. कोई लड़का इसे पसंद ही नहीं आता. किसी में कोई कमी बताती है तो किसी में कोई. न जाने कौन सा राजकुमार चाहती है. क्या होगा इस लड़की का,’’ कहती मांजी के स्वर में बेबसी और आंखों में तैरते लाचारी के आंसू एक मां की अपनी बेटी को विदा करने की आकुलता की कहानी कह रहे थे. अपनी लाड़ली के भविष्य को ले कर उन की चिंता तर्कसंगत भी थी.

वे फिर बोलीं, ‘‘हम लोग तो हार मान चुके हैं, बहू. परसों ही रामगोपालजी रीतेश को ले कर इसे देखने आए थे. तुम तो जानती हो, नील की शादी में उन से तुम्हें भी मिलवाया था. अब तो रीतेश इंजीनियर हो गया है. अच्छेखासे खातेपीते लोग हैं. नेचर भी अच्छा है. बस, लड़के के बाल पीछे से कुछ सफेद हैं, इतनी सी बात को ले कर तुनक गई, बोली, ‘मुझे उस से शादी नहीं करनी है. मैं जानबूझ कर मक्खी नहीं निगल सकती.’ ‘‘अब तुम्हीं बताओ, बहू, किस मुंह से उन से मना करें. उन्हें तो शुभांगी पसंद भी आ गई है. अभी तो हम ने कह दिया कि शुभांगी के भैयाभाभी से राय ले कर सगाई की तारीख बताएंगे, लेकिन इस लड़की ने तो हमें दुविधा में डाल दिया है.’’ ‘‘आप परेशान न हों, मांजी, सब ठीक हो जाएगा. जो काम जब होना है, तभी होगा,’’ मैं ने धीरज बंधाते कहा. ‘‘क्या बहू, कब तक इंतजार करें.

26 साल की हो गई है. उम्र निकलते देर थोड़े ही लगती है. उम्र ढलने के साथ ही चेहरे की चमक भी चली जाती है. वक्त तो रेत की तरह मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. अब तुम ही इसे समझाओ.’’ ‘‘आप बेफिक्र रहिए, मांजी. मैं कोशिश करूंगी,’’ मैं बोली. मैं ने कह तो दिया, लेकिन मन आशंकाओं से भरा था, जिन्हें मैं ने पूरी कुशलता से विश्वास की चादर से ढक लिया था. आज मांबाबूजी वापस जा रहे थे. मेरे आग्रह और बच्चों की जिद पर शुभांगी को यहीं छोड़ दिया. शुभांगी भी किचन में मेरे साथ हाथ बंटा रही थी, ‘‘लाइए भाभी, पूरी मैं तलती हूं.’’ ‘‘अरे, रहने दो शुभांगी, ससुराल में जा कर काम करना, अभी तो आराम करो.’’ ‘‘भाभी… आप ने भी वही टौपिक शुरू कर दिया. वहां भी घर पर दिनरात यही सुनतेसुनते मैं बोर हो गई हूं.’’ ‘‘अच्छा, सौरी बाबा, लो तलो,’’ मैं बोली. मांबाबूजी का खाना पैक किया और सब लोग उन्हें स्टेशन छोड़ने गए. हमेशा की तरह मांजी की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी.

उन का ममतामयी चेहरा सब के दिलों को बरबस बांधे रखता था. ‘‘अच्छा, चलते हैं, बहू,’’ रुंधे कंठ से मांजी ने कहा. ‘‘हां, मांजी. घर पहुंचते ही फोन कीजिएगा,’’ मैं बोली और गाड़ी चल पड़ी. जब तक दादीबाबा का चेहरा आंखों से ओझल नहीं हो गया, बच्चे उन्हें लगातार टाटा करते रहे. बच्चे अब अपनी बूआ के साथ मस्त हो गए थे. अगले दिन बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद घर के काम निबटाए ही थे कि शालिनी आ गई. ‘‘भाभीजी, चल रही हैं क्या मालतीजी के यहां? उन्होंने बहुत अच्छी बुनाई डाली है. देख आएं, मुझे भी साक्षी का स्वेटर बनाना है,’’ शालिनी बोली. ‘‘चलते हैं, बस, 2 मिनट रुकिए,’’ कहती मैं शुभांगी से बोली, ‘‘शुभांगी, चलो जरा, तुम्हें अपनी फ्रैंड से मिलवाती हूं.’’ मालतीजी के यहां तो मानो महफिल जमी थी. नयना और सपना भी वहीं थीं. सभी घर के कामों से निबट कर सर्दी की कुनकुनी धूप में बैठ कर स्वेटर बुनने में व्यस्त थीं. उन का मिलबैठ कर बुनना, सीखनासिखाना काबिलेतारीफ था. मैं ने शुभांगी को सब से परिचित करवाया. ‘‘और नयनाजी, शादी में जाने की आप की तैयारियां पूरी हो गईं?’’

मैं ने उत्सुकतावश पूछा. ‘‘हां भई, हो गईं. जिस की शादी है, उसे तो तैयारियां करनी ही होती हैं, पर शादी में जाने वालों की भी तैयारियां करने में बैंड बज जाते हैं,’’ नयना के इतना कहते ही सब खिलखिला कर हंस पड़ीं. वे फिर बोलीं, ‘‘बच्चों की शौपिंग तो लगता है वहां पहुंचने तक भी चलती रहेगी. मुझे बस, फेशियल करवाना है और बालों में मेहंदी.’’ ‘‘आप कौन सी मेहंदी लगाती हैं?’’ शालिनी ने उत्सुकतावश पूछा. ‘‘मैं तो शहनाज की ही मेहंदी इस्तेमाल करती हूं.’’ ‘‘लेकिन वह तो बहुत महंगी होती है,’’ मालती बोल उठीं. ‘‘महंगी तो होती है, लेकिन उस में इनग्रीडिएंट्स बहुत स्टैंडर्ड के होते हैं,’’ नयना ने उत्तर दिया तो नमिता बोलीं, ‘‘आजकल तो कितनी ही तरह की हेयरडाई मार्केट में आ गई हैं जिन्हें लगाने के बाद इंतजार ज्यादा नहीं करना पड़ता. मेहंदी में तो बहुत झंझट है.’’ हेयरडाई पर वादविवाद प्रतियोगिता का अच्छाखासा माहौल बन गया. एकएक कर के सब अपनेअपने राज के परदे उठाने लगीं कि कौनकौन किस तरह क्या इस्तेमाल करती हैं, यहां तक कि हसबैंड भी क्याक्या लगाते हैं. कोई रीठा, आंवला, शिकाकाई पाउडर के पक्ष में था तो कोई हर्बल हेयरडाई के.

कोई बालों को केवल न्यूट्रीशन देने के लिए मेहंदी, अंडा, दही, नीबू आदि आजमा रहा था तो कोई खिचड़ी बालों को रंगने के लिए कैमिकल हेयरडाई का इस्तेमाल करता था. बातोंबातों में पता यह चला कि अधिकांश लोगों के बाल खिचड़ी थे. जिन की जोडि़यां देख कर लगता था इन में कोई कमी नहीं है, वे एकदूजे के लिए परफैक्ट हैं, उन के वैल मैंटेंड रहने के पीछे भी राज छिपा था, जिस का मुझे भी आज ही पता लगा था. क्योंकि ये लोग बालों की सफेदी दिखने से पहले ही दोबारा रैग्यूलरली हेयरडाई का इस्तेमाल कर लेते थे. इन रहस्यों से परदा हटने पर मेरे विचारों में जो मंथन चल रहा था, उस से मेरी तंद्रा टूटी तो मैं ने बातें करते सुना, ‘भई, यहां का तो पानी ही खराब है. जब हम यहां ट्रांसफर हो कर आए थे तो बिलकुल काले बाल थे. अब बालों का यह हाल हो गया है.’ मैं ने घड़ी देखी तो घड़ी की सूइयां इशारा कर रही थीं कि बच्चों के स्कूल से लौटने का समय हो गया है. ‘‘अच्छा, अब चलते हैं, मालतीजी. बच्चों की बस आती ही होगी. अच्छा, सब को नमस्कार, आइएगा,’’ कहते हुए हम वहां से चल पड़े. हम लोग घर आ गए. उस दिन मैं ने देखा, शुभांगी दोपहर से ही गुमसुम सी थी. मुझे समझते देर न लगी कि शुभांगी के मन में भी विचारों का सैलाब उछाल मार रहा है. रात को सोने का समय हुआ तो मेरी नजर शुभांगी पर पड़ी.

‘‘क्यों शुभांगी, नींद नहीं आ रही है? क्या सोच रही हो?’’ मैं ने कुरेदना चाहा. ‘‘भाभी, मैं बहुत ही असमंजस में हूं. आज आप की फ्रैंड्स की बातों ने मुझे बहुत ही असमंजस में डाल दिया है. मैं सोच रही हूं कहीं मैं ही तो गलत नहीं. कहीं रीतेश को ले कर मेरा डिसिजन…’’ ‘‘मैं समझ गई शुभांगी कि तुम क्यों परेशान हो. देखो शुभांगी, हरेक इंसान में कुछ न कुछ कमी होती ही है. कुछ कमियां खुद में होती हैं, जिन्हें दूर किया जा सकता है. कुछ कमियां नैचुरल होती हैं, जिन्हें छिपाना भी पड़ता है, तभी तो लोग पर्सनैलिटी इंप्रूव कर पाते हैं. अब तुम बताओ कि रीतेश तुम्हें कैसे लगे?’’ ‘‘सच कहूं, भाभी, पहली बार देखते ही मुझे बहुत अच्छे लगे. नेचर भी बहुत अच्छा है. बस, उन के बाल कुछ…’’ ‘‘देखो शुभांगी, अगर वे हेयरडाई लगा कर तुम्हें देखने आते तो क्या तुम उन्हें रिजैक्ट कर पातीं?’’ ‘‘नहीं, भाभी.’’ ‘‘देखो शुभांगी, तुम यह मत समझना कि मैं तुम्हें लैक्चर दे रही हूं, तुम तो मेरी दोस्त जैसी हो, इसलिए इसे दोस्त की सलाह समझो. लड़कों का चरित्र और उन के संस्कार उन के घरबार, उन की सूरत व बाहरी दिखावे से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं. सविता दीदी को ही देखो, उन के लिए एक हीरो पंसद किया था अजय भैया ने, लेकिन वही दीदी आज इतना दुख और शराबी पति की प्रताड़नाएं सहन कर रही हैं.’’ ‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, भाभी. अब मैं समझ गई हूं. भाभी, आप कल ही मां को फोन कर दीजिएगा, मुझे रिश्ता मंजूर है.’’

इतना सुनते ही मैं ने शुभांगी के हाथ अपने हाथों में समेट लिए. मेरी आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. मैं ने जब यह खुशखबरी मांजी को फोन पर सुनाई तो मांजी खुशी से गद्गद हो उठीं, बोलीं, ‘‘अरे बहू, तुम ने शुभांगी पर ऐसा क्या जादू कर दिया? हम तो हार मान चुके थे.’’ मैं सोच रही थी, यह तो स्वत:घटित घटना थी जिस ने शुभांगी को यथार्थ से परिचित करवा कर आत्ममंथन के लिए प्रेरित किया. मैं बोली, ‘‘मांजी, मैं ने कोई जादू नहीं किया, वह तो…’’ और मांजी के ढेरों आशीर्वाद मेरी झोली में आ गए, जिन्हें मैं सुखद अनुभूति के साथ सहेज रही थी.

Romantic Story : पार्टनर – कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है

Romantic Story : आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

लेखक : अमिताभ 

Hindi Story : अब्दुल मामा – कैसा रिश्ता बन गया था तीनों बहनों का अब्दुल से?

Hindi Story : भारतीय सैन्य अकादमी में आज ‘पासिंग आउट परेड’ थी. सभी कैडेट्स के चेहरों पर खुशी झलक रही थी. 2 वर्ष के कठिन परिश्रम का प्रतिफल आज उन्हें मिलने वाला था. लेफ्टिनेंट जनरल जेरथ खुद परेड के निरीक्षण के लिए आए थे. अधिकांश कैडेट्स के मातापिता, भाईबहन भी अपने बच्चों की खुशी में सम्मिलित होने के लिए देहरादून आए हुए थे. चारों ओर खुशी का माहौल था.

नमिता आज बहुत गर्व महसूस कर रही थी. उस की खुशी का पारावार न था. वर्षों पूर्व संजोया उस का सपना आज साकार होने जा रहा था. वह ‘बैस्ट कैडेट’ चुनी गई थी. जैसे ही उसे ‘सोवार्ड औफ औनर’ प्रदान किया गया, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा ग्राउंड गूंज उठा.

परेड की समाप्ति के बाद टोपियां उछालउछाल कर नए अफसर खुशी जाहिर कर रहे थे. महिला अफसरों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था. उन्होंने दिखा दिया था कि वे भी किसी से कम नहीं हैं. नमिता की नजरें भी अपनों को तलाश रही थीं. परिवारजनों की भीड़ में उस की नजरें अपने प्यारे अब्दुल मामा और अपनी दोनों छोटी बहनों नव्या व शमा को खोजने लगीं. जैसे ही उस की नजर दूर खड़े अब्दुल मामा व अपनी बहनों पर पड़ी वह बेतहाशा उन की ओर दौड़ पड़ी.

अब्दुल मामा ने नमिता के सिर पर हाथ रखा और फिर उसे गले लगा लिया. आशीर्वाद के शब्द रुंधे गले से बाहर न निकल पाए. खुशी के आंसुओं से ही उन की भावनाएं व्यक्त हो गई थीं. नमिता भी अब्दुल मामा की ऊष्णता पा कर फफक पड़ी थी.

‘अब्दुल मामा, यह सब आप ही की तो बदौलत हुआ है, आप न होते तो हम तीनों बहनें न तो पढ़लिख पातीं और न ही इस योग्य बन पातीं. आप ही हमारे मातापिता, दादादादी और भैया सबकुछ हैं. सचमुच महान हैं आप,’ कहतेकहते नमिता की आंखों  से एक बार फिर अश्रुधारा बह निकली. उस की पलकें कुछ देर के लिए मुंद गईं और वह अतीत में डूबनेउतराने लगी.

मास्टर रामलगन दुबे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. नमिता, नव्या व शमा उन की 3 प्यारीप्यारी बेटियां थीं. पढ़ने में एक से बढ़ कर एक. मास्टरजी को उन पर बहुत गर्व था. मास्टरजी की पत्नी रामदुलारी पढ़ीलिखी तो न थी, पर बेटियों को पढ़ने के लिए अकसर प्रेरित करती रहती. बेटियों की परवरिश में वह कभी कमी न छोड़ती. मास्टरजी का यहांवहां तबादला होता रहता, पर रामदुलारी मास्टरजी के पुश्तैनी कसबाई मकान में ही बेटियों के साथ रहती. मास्टरजी बस, छुट्टियों में ही घर आते थे.

पासपड़ोस के सभी लोग मास्टरजी और उन के परिवार की बहुत इज्जत करते थे. पूरा परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में जाना जाता था. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. मास्टरजी की तीनों बेटियां मनोयोग से अपनीअपनी पढ़ाई कर रही थीं.

एक दिन मास्टरजी को अपनी पत्नी के साथ किसी रिश्तेदार की शादी में जाना पड़ा. पढ़ाई के कारण तीनोें बेटियां घर पर ही रहीं. शादी से लौटते समय जिस बस में मास्टरजी आ रहे थे, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई. नहर के पुल पर ड्राइवर नियंत्रण खो बैठा. बस रेलिंग तोड़ती हुई नहर में जा गिरी. मास्टरजी, उन की पत्नी व कई अन्य लोगों की दुर्घटनास्थल पर ही मौत हो गई.

जैसे ही दुर्घटना की खबर मास्टरजी के घर पहुंची, तीनों बेटियां तो मानो जड़वत हो गईं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. जैसे ही उन की तंद्रा लौटी तो तीनों के सब्र का बांध टूट गया. रोरो कर उन का बुरा हाल हो गया.

जब नमिता ने अपने मातापिता की चिता को मुखाग्नि दी तो वहां मौजूद लोगों की आंखें भी नम हो गईं. सभी सोच रहे थे कि कैसे ये तीनों लड़कियां इस भारी मुश्किल से पार पाएंगी. सभी की जबान पर एक ही बात थी कि इतने भले परिवार को पता नहीं किस की नजर लग गई. सभी लोग तीनों बहनों को दिलासा दे रहे थे.

नमिता ने जैसेतैसे खुद पर नियंत्रण किया. वह सब से बड़ी जो थी. दोनों छोटी बहनों को ढाढ़स बंधाया. तीनों ने मुसीबत का बहादुरी से सामना करने की ठान ली.

तेरहवीं की रस्मक्रिया के बाद तीनों बहनें दोगुने उत्साह से पढ़ाई करने में जुट गईं. उन्होंने अपने मातापिता के सपने को साकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. उन्हें आर्थिक चिंता तो नहीं थी, पर मातापिता का अभाव उन्हेें सालता रहता.

अगले वर्ष नमिता ने कालेज में प्रवेश ले लिया था. अपनी प्रतिभा के बल पर वह जल्दी ही सभी शिक्षकों की चहेती बन गई. पढ़ाई के साथसाथ वह अन्य कार्यक्रमों में भी  भाग लेती थी. उस की हार्दिक इच्छा सेना में अफसर बनने की थी. इसी के वशीभूत नमिता ने एनसीसी ले ली. अपने समर्पण के बल पर उस ने शीघ्र ही अपनेआप को श्रेष्ठ कैडेट के रूप में स्थापित कर लिया.

परेड के बाद अकसर नमिता को घर पहुंचने में देर हो जाती. उस दिन भी परेड समाप्त होते ही वह चलने की तैयारी करने लगी. शाम हो गई थी. कालेज के गेट के बाहर वह देर तक खड़ी रही, पर कोई रिकशा नहीं दिखाई दिया. आकाश में बादल घिर आए थे. बूंदाबांदी के आसार बढ़ गए थे. वह चिंतित हो गई थी, तभी एक रिकशा उस के पास आ कर रुका. चेकदार लुंगी पहने, सफेद कुरता, सिर पर टोपी लगाए रिकशा चालक ने अपनी रस घोलती आवाज में पूछा, ‘बिटिया, कहां जाना है?’

‘भैया, घंटाघर के पीछे मोतियों वाली गली तक जाना है, कितने पैसे लेंगे?’ नमिता ने पूछा.

‘बिटिया पहले बैठो तो, घर पहुंच जाएं, फिर पैसे भी ले लेंगे.’

नमिता चुपचाप रिकशे में बैठ गई.

बूंदाबांदी शुरू हो गई. हवा भी तेज गति से बहने लगी थी. अंधेरा घिरने लगा था.

‘भैया, तेजी से चलो,’ नमिता ने चिंतित स्वर में कहा.

‘भैया कहा न बिटिया, तनिक धीरज रखो और विश्वास भी. जल्दी ही आप को घर पहुंचा देंगे,’ रिकशे वाले भैया ने नमिता को आश्वस्त करते हुए कहा.

कुछ ही देर बाद बारिश तेज हो गई. नमिता तो रिकशे की छत की वजह से थोड़ाबहुत भीगने से बच रही थी, लेकिन रिकशे वाला भैया पूरी तरह भीग गया था. जल्दी ही नमिता का घर आ गया था. नव्या और शमा दरवाजे पर खड़ी उस का इंतजार कर रही थीं. रिकशे से उतरते ही भावावेश में दोनों बहनें नमिता से लिपट गईं. रिकशे वाला भैया भावविभोर हो कर उस दृश्य को देख रहा था.

‘भैया, कितने पैसे हुए… आज आप देवदूत बन कर आए. हां, आप भीग गए हो न, चाय पी कर जाइएगा,’ नमिता एक ही सांस में कह गई.

‘बिटवा, आज हम आप से किसी भी कीमत पर पैसे नहीं लेंगे. भाई कहती हो तो फिर आज हमारी बात भी रख लो. रही बात चाय की तो कभी मौका मिला तो जरूरी पीएंगे,’ कहते हुए रिकशे वाले भैया ने अपने कुरते से आंखें पोंछते हुए तीनों बहनों से विदा ली. तीनों बहनें आंखों से ओझल होने तक उस भले आदमी को जाते हुए देखती रहीं. वे सोच रही थीं कि आज के इस निष्ठुर समाज में क्या ऐसे व्यक्ति भी मौजूद हैं.

जब भी एनसीसी की परेड होती और नमिता को देर हो जाती तो उस की आंखें उसी रिकशे वाले भैया को तलाशतीं. एक बार अचानक फिर वह मिल गया. बस, उस के बाद तो नमिता को फिर कभी परेड वाले दिन किसी रिकशे का इंतजार ही नहीं करना पड़ा. वह नियमित रूप से नमिता को लेने कालेज पहुंच जाता.

नमिता को उस का नाम भी पता चल गया था, अब्दुल. हां, यही नाम था उस के रिकशे वाले भैया का. वह निसंतान था. पत्नी भी कई वर्ष पूर्व चल बसी थी. जब अब्दुल को नमिता के मातापिता के बारे में पता चला तो तीनों बहनों के प्रति उस का स्नेहबंधन और प्रगाढ़ हो गया था.

नमिता को तो मानो अब्दुल रूपी परिवार का सहारा मिल गया था. एक दिन अब्दुल के रिकशे से घर लौटते नमिता ने कहा, ‘अब्दुल भैया, अगर आप को मैं अब्दुल मामा कहूं तो आप को बुरा तो नहीं लगेगा?’

‘अरे पगली, मेरी लल्ली, तुम मुझे भैया, मामा, चाचा कुछ भी कह कर  पुकारो, मुझे अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा लगेगा,’ भावविह्वल हो कर अब्दुल बोला.

अब्दुल मामा नमिता, नव्या व शमा के परिवार के चौथे सदस्य बन गए थे. तीनों बहनों को कोई कठिनाई होती, कहीं भी जाना होता, अब्दुल मामा तैयार रहते. पैसे की बात वे हमेशा टाल दिया करते. एकदूसरे के धार्मिक उत्सवों व त्योहारों का वे खूब ध्यान रखते.

रक्षाबंधन का त्योहार नजदीक था. तीनों बहनें कुछ उदास थीं. अब्दुल मामा ने उन के मन की बात पढ़ ली थी. रक्षाबंधन वाले दिन नहाधो कर नमाज पढ़ी और फिर अब्दुल मामा जा पहुंचे सीधे नमिता के घर. रास्ते से थोड़ी सी मिठाई भी लेते गए.

‘नमिता थाली लाओ, तिलक की सामग्री भी लगाओ,’ अब्दुल मामा ने घर पहुंचते ही नमिता से आग्रह किया. नमिता आश्चर्यचकित मामा को देखती रही. वह झटपट थाली ले आई. अब्दुल मामा ने कुरते की जेब से 3 राखियां निकाल कर थाली में डाल दीं और साथ लाई मिठाई भी.

‘नमिता, नव्या, शमा तीनों बहनें बारीबारी से मुझे राखी बांधो,’ अब्दुल मामा ने तीनों बहनों को माधुर्यपूर्ण आदेश दिया.

‘मामा… लेकिन…’ नमिता कुछ सकुचाते हुए कहना चाहती थी, पर कह न पाई.

‘सोच क्या रही हो लल्ली, तुम्हीं ने तो एक दिन कहा था आप हमारे मामा, भैया, चाचा, मातापिता सभी कुछ हो. फिर आज राखी बांधने में सकुचाहट क्यों,’ अब्दुल मामा ने नमिता को याद दिलाया.

नमिता ने झट से अब्दुल मामा की कलाई पर राखी बांध उन्हें तिलक कर उन का मुंह मीठा कराया व आशीर्वाद लिया. नव्या व शमा ने भी नमिता का अनुसरण किया. तीनों बहनों ने मातापिता के चित्र को नमन किया और उन का अब्दुल मामा को भेजने के लिए धन्यवाद किया.

उस दिन ‘ईद-उल-फितर’ के त्योहार पर अब्दुल मामा बड़ा कटोरा भर मीठी सेंवइयां ले आए थे. तीनों बहनों ने उन्हें ईद की मुबारकबाद दी और ईदी भी मांगी, फिर भरपेट सेंवइयां खाईं.

अब्दुल मामा तीनों बहनों की जीवन नैया के खेवनहार बन गए थे. जब भी जरूरत पड़ती वे हाजिर हो जाते. तीनों बहनों की मदद करना उन्होंने अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. तीनों बहनों को अब्दुल मामा ने भी मातापिता की कमी का एहसास नहीं होने दिया. किसी की क्या मजाल जो तीनों बहनों के प्रति जरा भी गलत शब्द बोल दे.

अब्दुल मामा जातिधर्म की दीवारों से परे तीनों बहनों के लिए एक संबल बन गए थे. उन की जिंदगी के मुरझाए पुष्प एक बार फिर खिल उठे. तीनों बहनें अपनेअपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समर्पण भाव से पढ़ती रहीं व आगे बढ़ती रहीं.

नमिता ने बीएससी अंतिम वर्ष की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर भारतीय सैन्य अकादमी की परीक्षा दी. अपनी प्रतिभा, एनसीसी के प्रति समर्पण और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर उस का चयन भारतीय सेना के लिए हो गया. नव्या और शमा भी अब कालेज में आ गई थीं.

आज नमिता को देहरादून के लिए रवाना होना था. अब्दुल मामा के साथ नव्या और शमा भी स्टेशन पर नमिता को विदा करने आए थे. सभी की आंखें नम थीं. अव्यक्त पीड़ा चेहरों पर परिलक्षित हो रही थी.

‘अब्दुल मामा, नव्या और शमा का ध्यान रखना. दोनों आप ही के भरोसे हैं और हां, मैं भी तो आप के आशीर्वाद से ही ट्रेनिंग पर जा रही हूं,’ सजल नेत्रों से नमिता ने मामा से कहा.

‘तुम घबराना नहीं मेरी बच्ची, 2 वर्ष पलक झपकते ही बीत जाएंगे. आप को सद्बुद्धि प्राप्त हो और आगे बढ़ने की शक्ति मिले. छुटकी बहनों की चिंता मत करना. मैं जीतेजी इन्हें कष्ट नहीं होने दूंगा,’ नमिता को ढाढ़स बंधाते हुए अब्दुल मामा ने दोनों बहनों को गले लगा लिया.

गाड़ी धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. नमिता धीरेधीरे आंखों से ओझल हो गई. अब्दुल मामा ने जीजान से दोनों बहनों की देखभाल का मन ही मन संकल्प ले लिया था. 2 वर्ष तक वे उस संकल्प को मूर्त्तरूप देते रहे.

अचानक नमिता की तंद्रा टूटी तो उस ने पाया, अब्दुल मामा के आंसुओं से उस की फौजी वरदी भीग चुकी थी. मामा गर्व से नमिता को निहार रहे थे.

‘‘तुम ने अपने दिवंगत मातापिता और हम सभी का नाम रोशन कर दिया है नमिता. तुम बहुत तरक्की करोगी. मैं तुम्हारी उन्नति की कामना करता हूं. तुम्हारी छोटी बहनें भी एक दिन तुम्हारी ही तरह अफसर बनेंगी, मुझे पूरा यकीन है,’’ अब्दुल मामा रुंधे कंठ से बोले.

‘‘मामा… हम धन्य हैं, जो हमें आप जैसा मामा मिला,’’ तीनों बहनें एकसाथ बोल उठीं.

‘‘एक मामा के लिए या एक भाई के लिए इस से बढि़या सौगात क्या हो सकती है जो तुम जैसी होनहार बच्चियां मिलीं. तुम कहा करती थी न नमिता कि मुझ पर तुम्हारा उधार बाकी है. हां, बाकी है और उस दिन उतरेगा जब तुम तीनों अपनेअपने घरबार में चली जाओगी. मैं इन्हीं बूढ़े हाथों से तुम्हें डोली में बिठाऊंगा,’’ अब्दुल मामा कह कर एकाएक चुप हो गए.

तीनों बहनें एकटक मामा को देखे जा रही थीं और मन ही मन प्रार्थना कर रही थीं कि उन्हें अब्दुल मामा जैसा सज्जन पुरुष मिला. तीनों बहनें और अब्दुल मामा मौन थे. उन का मौन, मौन से कहीं अधिक मुखरित था. उन सभी के आंसू जमीन पर गिर कर एकाकार हो रहे थे. जातिधर्म की दीवारें भरभरा कर गिरती हुई प्रतीत हो रही थीं.

Best Hindi Story : जरीना – पैर की जूती से गले का हार

Best Hindi Story : होली के रंगों की तरह, वह ससुराल में यह उम्मीद ले कर आई थी कि उसे यहां अपने शौहर और सासससुर का प्यार मिलेगा, आने वाला समय इंद्रधनुषी रंगों की तरह आकर्षक और रंगबिरंगा होगा. लेकिन यहां आते ही उस की सारी आशाएं लुप्त हो गईं. हर वक्त ढेर सारा काम और ऊपर से मारपीट व गालियों की बौछार. इन यातनाओं से वह भयभीत हो उठी. न जाने कब ये कयामत के बादल बन कर उस पर टूट पड़ें. करीम से पहले उस के रिश्ते की बात उस के फुफेरे भाई अमजद से चली थी. पर अमजद ने इस रिश्ते को यह कह कर ठुकरा दिया कि वे भाईबहन हैं और वह भाईबहन के निकाह को ठीक नहीं समझता. करीम से उस के रिश्ते की बात जब महल्ले में उड़ी तो महल्ले के सभी बुजुर्ग खुश हो उठे और बोले, ‘‘वाह, लड़की हो जरीना जैसी. फौरन मांबाप का कहना मान गई. वैसे आजकल की लड़कियां तौबातौबा, कितनी नाफरमान हो गई हैं. सचमुच जरीना जैसी लड़की सब को नहीं मिलती.’’ बुजुर्गों की बातों से छुटकारा मिलता तो सहेलियां उस पर कटाक्ष करतीं, ‘‘वाह बन्नो, अपने हबीब से मिलने की इतनी जल्दी तैयारी कर ली? अरी, थोड़े दिन तो और सब्र किया होता. दीवाली व ईद तो मना ली, होली भी मना कर जाती तो क्या फर्क पड़ जाता? ’’

और वह गुस्से व शर्म से कसमसा कर रह जाती. कुछ दिनों बाद उस की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. शादी से पहले उस ने एक ख्वाब देखा था. ख्वाब यह था कि वह करीम को अपने मायके लाएगी और होली का त्योहार उल्लास से मनाएगी. पर उस का सपना, सपना ही रह गया. उस के मायके में मुसलिम त्योहारों को जितनी खुशी से मनाया जाता है उतनी ही हिंदू त्योहारों को भी. वहां त्योहार मनाते समय यह नहीं देखा जाता कि उस का ताल्लुक उन के अपने मजहब से है या किसी दूसरे धर्म से. वे तो इस देश में मनाए जाने वाले प्रत्येक त्योहार को अपना त्योहार मानते हैं पर उस की ससुराल में तो सब उलटा ही था. उसे ऐसा पति मिला, जो पत्नी की इज्जत करना भी नहीं जानता था. वह तो उसे अपने पैर की जूती समझता था. शादी के कुछ महीने बाद की बात है. उस दिन सब्जी में नमक कुछ ज्यादा हो गया था. करीम के निवाला उठाने से पहले सासससुर ने निवाला उठाया और मुंह में लुकमा डालते ही चीख पड़े, ‘‘यह सब्जी है या जहर? क्या करीम की शादी हम ने यही दिन देखने के लिए की थी?’’

यह सुनते ही करीम भड़क उठा था, ‘‘नालायक, खाना पकाना तक नहीं आता? क्या तेरे मांबाप ने तुझे यही सिखाया था? इस महंगाई के जमाने में इतनी बरबादी. चल, सारी सब्जी तू ही खा, नहीं तो मारमार कर खाल खींच लूंगा.’’ उसे विवश हो कर पतीली की पूरी सब्जी अपने गले से उतारनी पड़ी थी. इनकार करती तो करीम के हाथ में जो आता, उस से मारमार कर उस का भुकस निकाल देता.

इस घटना से भयभीत हो कर वह इतनी बीमार पड़ी कि उस के लिए दो कदम चलना भी मुश्किल हो गया. पर करीम के मांबाप यही कहते, ‘‘काम के डर से बहाना बना रही है. चल उठ, काम कर, हमारे घर में तेरे ये नखरे नहीं चलेंगे.’’ उसे लाचार हो कर बिस्तर से उठना पड़ता. कदमकदम पर चक्कर आता तो पूरा घर खिल्ली उड़ा कर कहता, ‘‘देखा, कुलच्छन कैसी नजाकत दिखा रही है.’’ अंत में हार कर उस ने करीम से कह दिया, ‘‘देखिए, मुझे कुछ दिनों के लिए मायके भिजवा दीजिए. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘वाह, क्या मैं तुझे इसलिए निकाह कर के लाया हूं कि तू अपने मांबाप के यहां अपनी हड्डियां गलाए? अगर फिर कभी जाने का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’ इन जानवरों के बीच में वह विवश सी हो गई. घर जाने का  नाम उस की जबान पर आते ही ये लोग भूखे गिद्ध की तरह उस के शरीर पर टूट पड़ते. अगर उस की पड़ोसिन निर्मला उस का ध्यान न रखती और उसे वक्त पर चोरीछिपे दवा ला कर न देती तो वह कभी की इस दुनिया से कूच कर गई होती.

करीम ने उस दिन फिर उसे बुरी तरह मारा था. इस स्थिति को सहतेसहते उसे करीब 3 साल हो गए थे. उस की स्थिति उस वहशी कसाई के हाथों में बंधी बकरी की तरह थी जिस का हलाल होना तय था. इस मुसीबत के समय उसे एक ही हमदर्द चेहरा नजर आता और वह था अमजद का. यह सही था कि उस ने ममेरी बहन होने की वजह से उस से शादी करने से इनकार कर दिया था, पर जब उसे यह पता चला कि जरीना का निकाह करीम से हो रहा है, तो वह दौड़ादौड़ा मामू के पास आया था और उन से बोला था, ‘अरे मामृ, जरीना बहन को कहां दे रहे हो? वह लड़का तो बिलकुल गधा है. अपनी समझ से तो काम ही लेना नहीं जानता. जो मांबाप कहते हैं, बस, आंख मींच कर वही करने लगता है, चाहे वह ठीक हो या गलत. जरीना वहां जा कर कभी खुश नहीं रह सकती. वे लोग उसे अपने पैर की जूती बना कर रखेंगे.’

पर अमजद की बात को किसी ने नहीं माना और जो होना था, वही हुआ. विदा के वक्त अमजद ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा था, ‘पगली, तू रोती क्यों है? अगर तुझे कभी जरूरत पड़े तो अपने इस भाई को याद कर लेना. तू फिक्र मत कर, मैं तेरे हर दुखदर्द में काम आऊंगा.’

जरीना ने किसी तरह जीवन के 3 साल बिता दिए पर अब उस से बरदाश्त नहीं होता था. उस ने सोचा, अब उसे उस शख्स का दामन थामना ही होगा, जो सही माने में उस का हमदर्द है. फरजाना भाभी यानी अमजद की बीवी भी कई बार उस के घर आईं. वे उस की खैरियत पूछतीं तो जरीना हमेशा हंस कर यही कहती, ‘ठीक हूं, भाभी.’ और कई बार तो ऐसा हुआ कि जब वह मार खा कर सिसक रही होती, ठीक उसी वक्त फरजाना वहां पहुंच जाती. ऐसे वक्त चेहरे पर मुसकराहट लाना बड़ा कठिन होता है. भाभी भी चेहरा देख कर समझ जाती थीं पर घर के अन्य लोगों की मौजूदगी में कुछ बोल नहीं पाती थीं. आखिर वे चुपचाप चली जातीं. कुछ अरसे बाद अमजद का दूसरे शहर में तबादला हो गया. एक रहासहा आसरा भी दूर हो गया. उस रोज घर में कोई नहीं था. मार और दर्द से उस का बदन टूट रहा था. गुस्से से उस का शरीर कांपने लगा. उस ने अपने वहशी पति के नाम एक लंबा खत लिखा और उसे मेज पर रख कर घर से निकल गई.

2 बजे की ट्रेन पकड़ कर शाम को वह अमजद के शहर पहुंची. रेलवेस्टेशन से टैक्सी ले कर घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो गया था. टैक्सी से उतर कर वह बुझे मन से घर की ड्योढ़ी की ओर बढ़ गई.सामने से आती फरजाना भाभी उसे देखते ही चौंकीं, ‘‘अरी जरीना, तू कब आई?’’

वह भाभी को सलाम कर सोफे पर बैठते हुए धीमे से बोली, ‘‘बस, सीधे  घर से चली आ रही हूं, भाभी.’’ फरजाना उस के मैले कुचैले कपड़ों और रूखे बालों को एकटक देखती रहीं. फिर क्षणभर बाद बोली, ‘‘यह अपनी क्या हालत बना रखी है, जरीना?’’

भाभी के शब्दों से उस के धैर्य का बांध टूट गया. जो आंसू अब तक जज्ब थे, वे फरात नदी की तरह बह निकले.

‘‘अरी, तू रो रही है,’’ भाभी ने दिलासा देते हुए उस की आंखों से आंसू पोंछ दिए, ‘‘चल जरीना, हाथमुंह धो, कपड़े बदल और जो कुछ हुआ उसे भूल जा.’’ भाभी के बहुत आग्रह करने पर वह उठी, बाथरूम गई, और हाथमुंह धोया. पर कपड़े तो वह सब वहीं छोड़ आई थी. मैले कपड़े पहन कर जब वह बाहर आईर् तो उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. भाभी अपनी उम्दा लाल साड़ी लिए उस के इंतजार में खड़ी थीं.

‘‘जरीना, यह लो. इसे पहन लो. मैं तब तक खाने का इंतजाम करती हूं.’’

‘‘मगर, भाभी…’’

‘‘मैं यह अगरमगर नहीं सुनने वाली. लो, इसे पहन लो.’’

भाभी के ये शब्द सुन कर उसे साड़ी लेनी पड़ी. भाभी साड़ी थमा कर रसोईघर में चली गईं और वह भी बुझे दिल से साड़ी पहन कर रसोईघर में जा पहुंची.

‘‘भैया कब आएंगे, भाभी?’’

‘‘अपने भैया की मत पूछो, जरीना. वरदी पहन ली तो सोचते हैं सारी जिम्मेदारी जैसे इन्हीं के कंधों पर है. मुहर्रम के दिनों में तो इस कदर मशगूल थे कि घर का होश ही नहीं रहा. एक दिन पहले सब को बुला कर चेतावनी दे दी कि ताजिए का जुलूस निकालना हो तो शांति से, नहीं तो सब इंस्पैक्टर अमजद खां सब को ठिकाने लगा देगा. नतीजा बड़ा खुशगवार रहा.

‘‘और अब होली का समय आ गया है. तुम तो जानती हो, इतने अच्छे त्योहार पर भी हिंदुओं, मुसलमानों में दंगाफसाद हो जाता है. वे यह नहीं समझते कि हम जो मुसलमान हुए हैं, वे अरब से नहीं आए बल्कि यहीं के हिंदू भाइयों से कट कर बने हैं. खैर छोड़ो, कहां की बातें ले बैठी हूं. बहुत दिनों के बाद आई हो. आराम से रहो. जब जी चाहे, अपने हबीब के पास चली जाना. हमारे हबीब तो अपनी बीवी से बात करने के बजाय थाने से ही प्यार किए बैठे हैं.’’

भाभी के अंतिम वाक्य पर वह हंस पड़ी, ‘‘अरे भाभी, फख्र करो आप को ऐसा शौहर मिला है जो अपनी ड्यूटी को तो समझता है.’’

‘‘अरी, तुम क्या जानो. अभी होली में उन का करिश्मा देखना. पूरे 20 घंटे की ड्यूटी कर रात को घर आएंगे. आते ही कहेंगे, ‘फरजाना, अरे होली के पेड़े तो खिलाओ जो कमला भाभी के यहां से आए हैं. तू तो कुछ बनाती नहीं.’ अब तुम ही सोचो, ऐसे खुश्क माहौल में किस का दम नहीं घुटेगा. कहने को तो कह देंगे, ‘अरी बेगम, पड़ोस में इतने लोग थे, डट कर खेल लेना था उन से. हम पुलिस वालों की होली तो दूसरे दिन होती है.’ और फिर दूसरे दिन, तौबातौबा, जरीना, तुम देखोगी तो घबरा जाओगी. इतना हिंदू भाई होली नहीं खेलते, जितना कि ये खेलते हैं. इन की देखादेखी महल्ले वाले भी इस जश्न में शामिल हो जाते हैं.’’

वह भाभी की बात टुकुरटुकुर सुनती रही.‘‘भाभी, यह सब सुन कर दिल को बड़ा सुकून मिलता है. मुसलमानों और हिंदुओं के  अनेक त्योहार हैं. अपने यहां जो महत्त्व ईद का है वही हिंदुओं के यहां होली का है. होली के रंगों में सारी दुश्मनी धुल जाती है. मुझे तो 3 साल से होली खेलने का मौका नहीं मिला. वह भी इत्तफाक था कि होली से 2 माह पहले ही शादी हो गई. इस दरम्यान, मैं ने न गृहस्थी का सुख जाना, न पति का. मैं तो एक तरह से पैर की जूती बन कर रह गई हूं, जो पैरों में पड़ी बस घिसती रहती है और तले के बिलकुल घिस जाने के बाद फेंक दी जाती है,’’ कहते हुए उस ने भाभी को अपनी पीठ दिखलाई, जिस पर मार के काले निशान पड़े थे. भाभी ने उन्हें देख कर अपनी आंखें मूंद लीं. फिर थरथराते लबों से बोलीं, ‘‘पगली, मैं तो उस दिन ही समझ गई थी जब तेरे घर आई थी. पर कह न सकी, तुम्हारे घर में लोग जो मौजूद थे. आने के बाद इन से कहा तो ये बुरी तरह तमतमा उठे थे. बोले कि उस करीम के बच्चे को अभी सबक सिखाता हूं. वह तो मैं ने बड़ी मुश्किल से समझाया, नहीं तो ये तो तुम्हारे करीम को हथकड़ी लगा कर थाने में बिठला देते.’’

‘‘अब तुम आ गई हो, तुम्हारे खयालात से हम वाकिफ हो गए हैं. चलो, अब कोई कार्यवाही करने से फायदा भी रहेगा. हां, अपने को अकेला मत समझना. हम सब तुम्हारे साथ हैं. तुम तो पढ़ीलिखी लड़की हो. अब तक तो तुम्हें बगावत कर देनी चाहिए थी. खैर, देर आयद दुरुस्त आयद.’’ जरीना और फरजाना आपस में बातें कर ही रही थीं कि अमजद भी आ पहुंचा. वरदी में उस का चेहरा रोब से दमक रहा था. आते ही वह सोफे पर बैठ कर चिल्लाया, ‘‘फरजाना.’’

‘‘आई.’’

फरजाना ने जातेजाते जरीना से धीमे से कहा, ‘‘देखा जरीना, हमारे मियां को हमारे बिना चैन नहीं. पर तुम यहीं रहना, मैं उन्हें हैरत में डालना चाहती हूं.’’ फरजाना तेजी से बाहर गई और जरीना अपनी जिंदगी की तुलना फरजाना भाभी से करने लगी. कितनी मुहब्बत है इन दोनों में और एक वह है, जिसे कभी भी प्यार के दो शब्द सुनने को नहीं मिले. बाहर से मुहब्बतभरा स्वर अंदर आ रहा था, ‘‘क्या बीवी के बिना चैन नहीं पड़ता?’’

‘‘यह बीवी चीज ही ऐसी होती है.’’

अमजद का जवाब सुन कर जरीना मुसकरा उठी.

‘‘अरे, छोडि़ए भी. लगता है आज आप ने कुछ पी रखी है.’’

‘‘अरी बेगम, जिस दिन से तुम से शादी हुई है, हम तो बिन पिए ही मतवाले हो गए हैं.’’

‘‘ओ जरीना बी, अपने भाई को समझाओ.’’

भाभी की आवाज सुन कर जरीना फौरन बाहर आ गई और अमजद को सलाम कर के मुसकराने लगी. अमजद जरीना को देख कर घबरा गया, फिर पसीना पोंछ कर सलाम का उत्तर देते हुए बोला, ‘‘कब आई, मुन्नी?’’

‘‘चंद लमहे हुए हैं, भाईजान.’’

‘‘फरो डार्लिंग, हमारी बहन को नाश्ता वगैरा दिया?’’

‘‘वह तो आप का इंतजार कर रही थी.’’

‘‘तो चलो. सब एकसाथ बैठ कर खाएं.’’

खाने के दौरान बातों का क्रम चला. तो अमजद बोला, ‘‘तेरे आने का कारण मैं समझ गया हूं, जरीना. मैं जानता हूं, करीम निहायत घटिया दरजे का इंसान है. उस पर बातों का नहीं, डंडे का असर होता है. मैं तो तेरा निकाह उस के साथ करने के सख्त खिलाफ था. मगर तुम तो जानती हो, अपने मांबाप का रवैया. खैर, तू फिक्र मत कर, उस साले को मैं ठिकाने लगाऊंगा. वैसे, साला तो मैं हूं उस का पर अब उलटा ही चक्कर चलाना पड़ेगा.’’

अमजद के शब्दों से फरजाना इतनी हंसी कि उसे उठ कर बाहर चले जाना पड़ा. फिर बाथरूम में उलटी करने की आवाज आई. जरीना इस आवाज से उठ कर फौरन उधर भागी. उस ने भाभी को पानी दे कर कुल्ला करने में मदद की और फिर उसे संभाल कर अंदर ले आई और बिस्तर पर लिटा दिया. फिर अमजद की ओर देखते हुए बोली, ‘‘भैया, ऐसा मजाक मत करिए, जिस से किसी की जान पर बन आए.’’ ‘‘अरी, इस का टाइम ही खराब है. मैं हमेशा कहता हूं ठूंसठूंस कर मत खा. वह अंदर वाला फेंक देगा. यह मानती नहीं है, अब इसे तू ही समझा.’’

‘‘यानी कुछ है.’’

‘‘बिलकुल.’’ अमजद कहने को कह गया. पर फिर तेजी से झेंप कर भाग खड़ा हुआ. इधर फरजाना भी शरमा गई थी.

‘‘भाभी, हमारा इनाम.’’

‘‘पूरा घर तुम्हारा है, जो चाहे ले लो.’’

‘‘वह तो ठीक है, भाभी, पर हम तो चाहते हैं कि वह होने वाला पहले हमारी गोद में खेले.’’ इस पर फरजाना ने प्यार से जरीना के गाल पर एक हलकी सी चपत लगा दी. जरीना जिस दिन से अमजद के घर में आई, उसी दिन से ही उस ने उस के घर का सारा काम संभाल लिया. इस पर भाभी कहतीं, ‘‘देखो जरीना, हमें आलसी मत बनाओ. बुजुर्गों का कहना है, काम करते रहो. इस से बच्चा होने के समय तकलीफ नहीं होती और तुम हमें बिठाए रखती हो.’’

‘‘अपनी ननद के रहते आप काम करेंगी, भाभी? आप चाहें तो पूरे घर की दौड़ लगाइए. कसरत होती रहेगी.’’

इस पर फरजाना हंस पड़ती. घर के कामों में व्यस्त रहने के कारण जरीना अपने उस अतीत को धीरेधीरे भूलने लगी जिस की आंच में उस का बदन 3 साल तक जलता रहा था. करीम ने भी उस की खोजखबर लेने की कोशिश नहीं की थी. होली से 5 रोज पहले, जरीना अमजद को चाय देने गई तो उस ने उसे अपने समीप बिठाते हुए पूछा, ‘‘यह करीम तुझे कितना चाहता है, मुन्नी?’’ इस पर जरीना ने सिर झुका कर कहा, ‘‘भाईजान, मैं ने तो आज तक उन की आंखों में प्यार जैसी चीज पाई ही नहीं.

3 साल में कई मुसलिम त्योहार आए और गए, मगर उन्होंने एक बार भी मुझे मायके नहीं भेजा. होली से हमारे घर का काफी लगाव है. एक दिन मैं ने उन से कहा कि हम लोग भी अपने हिंदू दोस्तों को बुला कर होली का जश्न मनाएं. इस पर वे भड़क उठे और लगे गालियां देने.’’

‘‘कुछ भी हो मुन्नी, मर्द के दिल के किसी कोने में उस की बीवी के लिए बेपनाह मुहब्बत का जज्बा जरूर होता है. सवाल है उसे जगाने का.’’

अमजद ने चाय पी कर जाने से पहले जरीना से मुसकराते हुए कहा, ‘‘देख मुन्नी, इस बार की होली में प्यार जैसी चीज ज्यादा उभरनी चाहिए, हम पूरे घर वाले एकसाथ इस होली को मनाएंगे. हां, मेरे स्टाफ के लोगों के लिए तुम लोग कुछ मिठाई बना लो, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘जैसी आप की मरजी, भाईजान.’’ उस रात को फरजाना और जरीना रातभर जाग कर मिठाई बनाने में मशगूल रहीं. पड़ोस की कमला भाभी भी उन्हें सहयोग देने आ गई थीं. सवेरा होने से पहले ही अमजद थाने से आ गया. फरजाना उसे देख कर हैरान रह गई.

‘‘जनाब, आज तो आप की होली थाने में होती है. यहां कैसे पहुंच गए?’’

‘‘देखो बेगम, हमारी बहन आई है और हम आज इसी खातिर थाने से छुट्टी ले कर आए हैं.’’ और अमजद ने आगे बढ़ कर फरजाना के चेहरे पर ढेर सारा गुलाल मल दिया. जरीना भैया और भाभी की इस कशमकश के दौरान हंसतीमुसकराती रही.

‘‘जरीना, यह ले, तू भी अपनी भाभी को लगा. मैं कमला भाभी और दूसरे लोगों से मिल कर आता हूं.’’ अमजद उसे गुलाल थमा कर बाहर चला गया और जरीना ने तेजी से आगे बढ़ कर फरजाना के मुंह पर गुलाल मल दिया.

फरजाना इस पर झींकती हुई बोली, ‘‘आज तो तुम दोनों मुल्लाओं के बीच मैं बेमोल मारी गई.’’ फिर फरजाना ने भी आगे बढ़ कर जरीना के चेहरे पर गुलाल मल दिया. इतने में महल्ले की और औरतें भी आ गईं. और सब ने खूब मिल कर एकदूसरे पर रंग डाला. 12 बजे के करीब अमजद लौट आया. उस के साथ करीम भी था. जरीना करीम को देख कर चौंकी. दोनों के चेहरे रंगों से पुते हुए थे. अपने बदन पर एक बूंद रंग का छींटा न लेने वाले करीम की गत देख कर जरीना आश्चर्य में डूब गई. अमजद के साथ करीम को आता देख कर फरजाना ने जरीना से कहा, ‘‘जरीना, हमारे मियां तुम्हारे मियां को भी लाइन पर ले आए हैं. रंग की बालटी तैयार करो.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं यह नहीं कर सकती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, दिल नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मैं समझ गई. मगर मैं क्यों चूकूं.’’

फरजाना ने उन लोगों के अंदर आतेआते रंग की बालटी तैयार कर ली और जैसे ही वे अंदर घुसे, उन दोनों पर रंगभरी बालटी उड़ेल दी.

‘‘अरे भाभीजान, यह क्या कर रही हैं?’’ करीम ने अपने चेहरे को बचाते हुए कहा. करीम के इस स्वर से जरीना चौंकी. करीम का इतना मधुर स्वर तो उस ने आज पहली बार सुना था. ‘‘अरे मियां, वह देखो, जरीना को पकड़ो और रंगों से सराबोर कर दो.’’ अमजद के ये शब्द सुनते ही जरीना अंदर को भागी. करीम ने आगे बढ़ कर उसे पकड़ लिया और उस पर रंग डालते हुए बोला, ‘‘माफ नहीं करोगी, जरीना? मैं ने तुम्हें बहुत सताया है. पर अमजद भाईजान ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मैं तुम्हारा कुसूरवार हूं. तुम मुझे जो चाहे सजा दो.’’ जरीना, करीम की बांहों में बंध कर सिसक उठी.

‘‘जरीना, खुशी के मौके पर रोते नहीं. फरजाना, मिठाई लाओ. ये दोनों एकदूसरे को मिठाई खिलाएंगे, जिस से इन दोनों के बीच की दूरी मिट जाए.’’ अमजद की इस बात से जरीना और करीम भी मुसकराए बिना रह न सके. फरजाना अंदर से रसगुल्ले उठा लाई और दोनों के हाथों में थमा कर बोली, ‘‘अब, शुरू हो जाओ.’’ जरीना ने कांपते हुए करीम के मुंह में रसगुल्ला ठूंस दिया और करीम ने जरीना के मुंह में. फिर अचानक ही करीम ने जरीना के हाथों को ले कर चूम लिया.

अमजद चिल्लाया, ‘‘वाह, क्या बात है. इसे कहते हैं ईद में बिछड़े और होली में मिले. फरजाना, देखो इन दोनों को.’’ फरजाना करीम को अंदर ले गई तो जरीना ने अमजद को अकेले पा कर उस से धीमे से पूछा, ‘‘भैया, ये आए कैसे?’’ ‘‘वाह, आता क्यों नहीं. अपना उदाहरण दिया. ठीक है मांबाप से प्यार करो. मगर इस के माने ये नहीं हैं कि बीवी से मुंह मोड़ लो. फिर शादी क्यों की थी? वैसे वह मुझ से काफी घबराता है, पहले तो वह मुझे सिर्फ तुम्हारा फुफेरा भाई और दूर का ही रिश्तेदार समझता रहा. पर संबंधों की घनिष्ठता और फिर थाने जा कर हथकड़ी पहन कर बैठने के बजाय सोचा, चलो अपनी बीवी से माफी मांगना ही अच्छा है. मैं ने उस का दिमाग पूरी तरह साफ कर दिया है. अब कहीं भी टूटफूट नहीं है. अब तो इस का ट्रांसफर भी इसी शहर में हो गया है.’’

‘‘सच भाईजान?’’

‘‘तो क्या मैं झूठ कह रहा हूं, जा कर खुद उसी से पूछ ले.’’

इस पर जरीना शरमा गई. वह रंगों के छितराए बादल से अपने सुंदर भविष्य को देख रही थी, पैर की जूती इस होली से गले का हार जो बन गई थी.

Online Hindi Story : ईद का चांद

Online Hindi Story : निकाह से पहले हिना ईद के चांद का बड़ा बेसब्री से इंतजार किया करती थी लेकिन निकाह के बाद तो ईद के चांद का दीदार मुश्किल हो गया था. ठीक उस के शौहर नदीम की तरह.

उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं?

बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’

‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई.

‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई.

हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे.

हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती.

एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का.

ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

अगले दिन उन की बीवी आसिया अपने बेटे नदीम का पैगाम ले कर हिना के घर जा पहुंची. घर और वर दोनों ही अच्छे थे. हिना के घर में खुशी की लहर दौड़ गई. हिना ने एक पार्टी में नदीम को देखा हुआ था. लंबाचौड़ा गबरू जवान, साथ ही शरीफ और मिलनसार. नदीम उसे पहली ही नजर में भा सा गया था. इसलिए जब आसिया ने उस की मरजी जाननी चाही तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गई.

हिना के मांबाप जल्दी शादी नहीं करना चाहते थे. मगर दूसरे पक्ष ने इतनी जल्दी मचाई कि उन्हें उसी महीने हिना की शादी कर देनी पड़ी.

हिना दुखतकलीफ से दूर प्यार- मुहब्बत भरे माहौल में पलीबढ़ी थी और उस की ससुराल का माहौल भी कुछ ऐसा ही था. सुखसुविधाओं से भरा खातापीता घराना, बिलकुल मांबाप की तरह जान छिड़कने वाले सासससुर, सलमा और नगमा जैसी प्यारीप्यारी चाहने वाली ननदें. सलमा उस की हमउम्र थी. वे दोनों बिलकुल सहेलियों जैसी घुलमिल कर रहती थीं.

उन सब से अच्छा था नदीम, बेहद प्यारा और टूट कर चाहने वाला, हिना की मामूली सी मामूली तकलीफ पर तड़प उठने वाला. हिना को लगता था कि दुनिया की तमाम खुशियां उस के दामन में सिमट आई थीं. उस ने अपनी जिंदगी के जितने सुहाने ख्वाब देखे थे, वे सब के सब पूरे हो रहे थे.

किस तरह 3 महीने गुजर गए, उसे पता ही नहीं चला. हिना अपनी नई जिंदगी से इतनी संतुष्ट थी कि मायके को लगभग भूल सी गई थी. उस बीच वह केवल एक ही बार मायके गई थी, वह भी कुछ घंटों के लिए. मांबाप और भाईबहन के लाख रोकने पर भी वह नहीं रुकी. उसे नदीम के बिना सबकुछ फीकाफीका सा लगता था.

एक दिन हिना बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि नदीम बाहर से ही खुशी से चहकता हुआ घर में दाखिल हुआ. उस के हाथ में एक मोटा सा लिफाफा था.

‘बड़े खुश नजर आ रहे हैं. कुछ हमें भी बताएं?’ हिना ने पूछा.

‘मुबारक हो जानेमन, तुम्हारे घर में आने से बहारें आ गईं. अब तो हर रोज रोजे ईद हैं, और हर शब है शबबरात.’

पति के मुंह से तारीफ सुन कर हिना का चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया. वह झेंप कर बोली, ‘मगर बात क्या हुई?’

‘मैं ने कोई साल भर पहले सऊदी अरब की एक बड़ी फर्म में मैनेजर के पद के लिए आवेदन किया था. मुझे नौकरी तो मिल गई थी, मगर कुछ कारणों से वीजा मिलने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मैं तो उम्मीद खो चुका था, लेकिन तुम्हारे आने पर अब यह वीजा भी आ गया है.’

‘वीजा आ गया है?’ हिना की आंखें हैरत से फैल गईं. वह समझ नहीं पाई थी कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी.

‘हां, हां, वीजा आया है और अगले ही महीने मुझे सऊदी अरब जाना है. सिर्फ 3 साल की तो बात है.’

‘आप 3 साल के लिए मुझे छोड़ कर चले जाएंगे?’ हिना ने पूछा.

‘हां, जाना तो पड़ेगा ही.’

‘मगर क्यों जाना चाहते हैं आप वहां? यहां भी तो आप की अच्छी नौकरी है. किस चीज की कमी है हमारे पास?’

‘कमी? यहां सारी जिंदगी कमा कर भी तुम्हारे लिए न तो कार खरीद सकता हूं और न ही बंगला. सिर्फ 3 साल की तो बात है, फिर सारी जिंदगी ऐश करना.’

‘नहीं चाहिए मुझे कार. हमारे लिए स्कूटर ही काफी है. मुझे बंगला भी नहीं बनवाना है. मेरे लिए यही मकान बंगला है. बस, तुम मेरे पास रहो. मुझे छोड़ कर मत जाओ, नदीम,’ हिना वियोग की कल्पना ही से छटपटा कर सिसकने लगी.

‘पगली,’ नदीम उसे मनाने लगा. और बड़ी मिन्नतखुशामद के बाद आखिर उस ने हिना को राजी कर ही लिया.

हिना ने रोती आंखों और मुसकराते होंठों से नदीम को अलविदा किया.

अब तक दिन कैसे गुजरते थे, हिना को पता ही नहीं चलता था. मगर अब एकएक पल, एकएक सदी जैसा लगता था. ‘उफ, 3 साल, कैसे कटेंगे सदियों जितने लंबे ये दिन,’ हिना सोचसोच कर बौरा जाती थी.

और फिर ईद आ गई, उस की शादीशुदा जिंदगी की पहली ईद. रिवाज के मुताबिक उसे पहली ईद ससुराल में जा कर मनानी पड़ी. मगर न तो वह पहले जैसी उमंग थी, न ही खुशी. सास के आग्रह पर उस ने लाल रंग की बनारसी साड़ी पहनी जरूर. जेवर भी सारे के सारे पहने. मगर दिल था कि बुझा जा रहा था.

हिना बारबार सोचने लगती थी, ‘जब मैं दुलहन नहीं थी तो लोग मुझे ‘दुलहन’ कह कर छेड़ते थे. मगर आज जब मैं सचमुच दुलहन हूं तो कोई भी छेड़ने वाला मेरे पास नहीं. न तो हंसी- मजाक करने वाले बहनोई और न ही वह, दिल्लगी करने वाला दिलबर, जिस की मैं दुलहन हूं.’

कहते हैं वक्त अच्छा कटे या बुरा, जैसेतैसे कट ही जाता है. हिना का भी 3 साल का दौर गुजर गया. उस की शादी के बाद तीसरी ईद आ गई. उस ईद के बाद ही नदीम को आना था. हिना नदीम से मिलने की कल्पना ही से पुलकित हो उठती थी. नदीम का यह वादा था कि वह उसे ईद वाले दिन जरूर याद करेगा, चाहे और दिन याद करे या न करे. अगर ईद के दिन वह खुद नहीं आएगा तो उस का पैगाम जरूर आएगा. ससुराल वालों ने नदीम के जाने के बाद हिना को पहली बार इतना खुश देखा था. उसे खुश देख कर उन की खुशियां भी दोगुनी हो गईं.

ईद के दिन हिना को नदीम के पैगाम का इंतजार था. इंतजार खत्म हुआ, शाम होतेहोते नदीम का तार आ गया. उस में लिखा था :

‘मैं ने आने की सारी तैयारी कर ली थी. मगर फर्म मेरे अच्छे काम से इतनी खुश है कि उस ने दूसरी बार भी मुझे ही चुना. भला ऐसे सुनहरे मौके कहां मिलते हैं. इसे यों ही गंवाना ठीक नहीं है. उम्मीद है तुम मेरे इस फैसले को खुशीखुशी कबूल करोगी. मेरी फर्म यहां से काम खत्म कर के कनाडा जा रही है. छुट्टियां ले कर कनाडा से भारत आने की कोशिश करूंगा. तुम्हें ईद की बहुतबहुत मुबारकबाद.’       -नदीम.

हिना की आंखों में खुशी के जगमगाते चिराग बुझ गए और दुख की गंगायमुना बहने लगी.

नदीम की चिट्ठियां अकसर आती रहती थीं, जिन में वह हिना को मनाता- फुसलाता और दिलासा देता रहता था. एक चिट्ठी में नदीम ने अपने न आने का कारण बताते हुए लिखा था, ‘बेशक मैं छुट््टियां ले कर फर्म के खर्च पर साल में एक बार तो हवाई जहाज से भारत आ सकता हूं. मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं पूरी वफादारी और निष्ठा से काम करूंगा, ताकि फर्म का विश्वासपात्र बना रहूं और ज्यादा से ज्यादा दौलत कमा सकूं. वह दौलत जिस से तुम वे खुशियां भी खरीद सको जो आज तुम्हारी नहीं हैं.’

नदीम के भेजे धन से हिना के ससुर ने नया बंगला खरीद लिया. कार भी आ गई. वे लोग पुराने घर से निकल कर नए बंगले में आ गए. हर साल घर आधुनिक सुखसुविधाओं और सजावट के सामान से भरता चला गया और हिना का दिल खुशियों और अरमानों से खाली होता गया.

वह कार, बंगले आदि को देखती तो उस का मन नफरत से भर उठता. उसे  वे चीजें अपनी सौतन लगतीं. उन्होंने ही तो उस से उस के महबूब शौहर को अलग कर दिया था.

उस दौरान हिना की बड़ी ननद सलमा की शादी तय हो गई थी. सलमा उस घर में थी तो उसे बड़ा सहारा मिलता था. वह उस के दर्द को समझती थी. उसे सांत्वना देती थी और कभीकभी भाई को जल्दी आने के लिए चिट्ठी लिख देती थी.

हिना जानती थी कि उन चिट्ठियों से कुछ नहीं होने वाला था, मगर फिर भी ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसी थी सलमा उस के लिए.

सलमा की शादी पर भी नदीम नहीं आ सका था. भाई की याद में रोती- कलपती सलमा हिना भाभी से ढेरों दुआएं लेती हुई अपनी ससुराल रुखसत हो गई थी.

शादी के साल भर बाद ही सलमा की गोद में गोलमटोल नन्ही सी बेटी आ गई. हिना को पहली बार अपनी महरूमी का एहसास सताने लगा था. उसे लगा था कि वह एक अधूरी औरत है.

नदीम को गए छठा साल होने वाला था. अगले दिन ईद थी. अभी हिना ने नदीम के ईद वाले पैगाम का इंतजार शुरू भी नहीं किया था कि डाकिया नदीम का पत्र दे गया. हिना ने धड़कते दिल से उस पत्र को खोला और बेसब्री से पढ़ने लगी. जैसेजैसे वह पत्र पढ़ती गई, उस का चेहरा दुख से स्याह होता चला गया. इस बार हिना का साथ उस के आंसुओं ने भी नहीं दिया. अभी वह पत्र पूरा भी नहीं कर पाई थी कि अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी को गई नगमा लौट आई.

हिना ने झट पत्र तह कर के ब्लाउज में छिपा लिया.

‘‘भाभी, भाभी,’’ नगमा बाहर ही से पुकारती हुई खुशी से चहकती आई, ‘‘भाभी, आप अभी तक यहीं बैठी हैं, मैं बाजार से भी घूम आई. देखिए तो क्या- क्या लाई हूं.’’

नगमा एकएक चीज हिना को बड़े शौक से दिखाने लगी.

शाम को 29वां रोजा खोलने का इंतजाम छत पर किया गया. यह हर साल का नियम था, ताकि लोगों को इफतारी (रोजा खोलने के व्यंजन व पेय) छोड़ कर चांद देखने के लिए छत पर न जाना पड़े.

अभी लोगों ने रोजा खोल कर रस के गिलास होंठों से लगाए ही थे कि पश्चिमी क्षितिज की तरफ देखते हुए नगमा खुशी से चीख पड़ी, ‘‘वह देखिए, ईद का चांद निकल आया.’’

सभी खानापीना भूल कर चांद देखने लगे. ईद का चांद रोजरोज कहां नजर आता है. उसे देखने का मौका तो साल में एक बार ही मिलता है.

हिना ने भी दुखते दिल और भीगी आंखों से देखा. पतला और बारीक सा झिलमिल चांद उसे भी नजर आया. चांद देख कर उस के दिल में हूक सी उठी और उस का मन हुआ कि वह फूटफूट कर रो पड़े मगर वह अपने आंसू छिपाने को दौड़ कर छत से नीचे उतर आई और अपने कमरे में बंद हो गई.

उस ने आंखों से छलक आए आंसुओं को पोंछ लिया, फिर उबल आने वाले आंसुओं को जबरदस्ती पीते हुए ब्लाउज से नदीम का खत निकाल लिया और उसे पढ़ने लगी. उस की निगाहें पूरी इबारत से फिसलती हुई इन पंक्तियों पर अटक गईं :

‘‘हिना, असल में शमा सऊदी अरब में ही मुझ से टकरा गई थी. वह वहां डाक्टर की हैसियत से काम कर रही थी. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. फिर ऐसा कुछ हुआ कि हम शादी पर मजबूर हो गए.

‘‘शमा के कहने पर ही मैं कनाडा आ गया. शमा और उस के मांबाप कनाडा के नागरिक हैं. अब मुझे भी यहां की नागरिकता मिल गई है और मैं शायद ही कभी भारत आऊं. वहां क्या रखा है धूल, गंदगी और गरीबी के सिवा.

‘‘तुम कहोगी तो मैं यहां से तुम्हें तलाकनामा भिजवा दूंगा. अगर तुम तलाक न लेना चाहो, जैसी तुम्हारे खानदान की रिवायत है तो मैं तुम्हें यहां से काफी दौलत भेजता रहूंगा. तुम मेरी पहली बीवी की हैसियत से उस दौलत से…’’

हिना उस से आगे न पढ़ सकी. वह ठंडी सांस ले कर खिड़की के पास आ गई और पश्चिमी क्षितिज पर ईद के चांद को तलाशने लगी. लेकिन वह तो झलक दिखा कर गायब हो चुका था, ठीक नदीम की तरह…

हिना की आंखों में बहुत देर से रुके आंसू दर्द बन कर उबले तो उबलते ही चले गए. इतने कि उन में हिना का अस्तित्व भी डूबता चला गया और उस का हर अरमान, हर सपना दर्द बन कर रह गया.

लेखिका : सुरैया जबीं 

Best Hindi Story : अहसास – प्रिया के आने के बाद कैसे बदली उनकी जिंदगी

Best Hindi Story : सुबह सुबह मैं लौन में व्यायाम कर रहा था. इस वक्त दिमाग में बस एक ही बात चल रही थी कि प्रिया को अपना कैसे बनाऊं. 7 साल की प्रिया जब से हमारे घर में आई है हम दोनों पतिपत्नी की यही मनोस्थिति है. हमारे दिलोदिमाग में बस प्रिया ही रहती है. साथ ही डर भी रहता है कि कोई उसे हम से छीन कर न ले जाए.

आज से 2 महीने पहले तक प्रिया हमारी जिंदगी में नहीं थी. कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन के शुरू होने के करीब 1 सप्ताह बाद की बात है. उस दिन रात में अचानक हमारे दरवाजे पर तेज दस्तक हुई. वैसे लॉकडाउन की वजह से लोगों का एकदूसरे के घर आनाजाना बंद था. रात के 11बजे थे. सड़कें सुनसान थीं. मोहल्ला वीरान था. ऐसे में तेज घंटी की आवाज सुन कर मेरी पत्नी निभा थोड़ी सहम गई. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने 2 पुलिस वाले खड़े थे. उन में से एक ने एक बच्ची का हाथ थामा हुआ था.

मासूम सी वह बच्ची बड़ीबड़ी आंखों से एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने सवालिया नजरों से पुलिस वाले की तरफ देखा,”जी कहिए?”

“कुछ दिनों के लिए इस बच्ची को अपने घर में पनाह दे दीजिए.  इस के मांबाप को कोरोना हो गया है. उन की हालत गंभीर है. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है. इस लड़की का कोई रिश्तेदार इधर नहीं रहता. अकेली है बिचारी.”

“पर हम क्यों रखें? मतलब मेरे बारे में किस ने बताया आप को ?””

“दरअसल इस के घर में एक डायरी थी. जिस में आप का पता लिखा हुआ था. जब किसी और परिचित का पता नहीं चला तो हम इसे आप के पास ले कर आ गए. इस मासूम की सूरत देखिए. इस की सुरक्षा का ख्याल रखना जरूरी है. इस के मांबाप कोरोना पौजिटिव हैं मगर इस की रिपोर्ट नेगेटिव आई है. इसलिए डरने की कोई बात नहीं. प्लीज रख लीजिए इसे.”

मैं ने निभा की तरफ देखा तो उस ने स्वीकृति में सिर हिलाया.

मैं ने कहा,” ओके रख लेता हूं. मुझे अपना नंबर दे दीजिए.”

“जरूर. यह मेरा कार्ड है और इस में नंबर है मेरा. कभी जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लीजिएगा.” पुलिस वाले ने कार्ड के साथ बच्ची का हाथ मेरे हाथों में दिया और चला गया.

निभा ने बच्ची को अंदर लाते हुए प्यार से पूछा,” बेटा आप का नाम क्या है?”

“प्रिया”

अच्छा घर कहां है आप का ?”

बच्ची ने इस सवाल सवाल का कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप एक कोने में खड़ी हो गई. निभा उस के लिए पानी ले आई और अपना एक पुराना टौप दे कर उसे नहाने को भेज दिया. फिर मेरी तरफ देख कर बोली,” हमारी कोई संतान नहीं. चलो कुछ दिन इस बच्ची के ही पेरेंट्स बन जाते हैं.”

मैं भी मुस्कुरा उठा. इस तरह प्रिया हमारी जिंदगी में शामिल हो गई. वह काफी शांत और गुमसुम सी रहती. हमारे सवालों का संक्षेप में जवाब दे कर अपनी दुनिया में खोई रहती. मगर एक खूबी थी उस में कि इतनी कम उम्र में भी काफी समझदार और काम में एक्टिव थी. अपना सारा काम बिना नखरे किए आराम से कर लेती. यही नहीं घर के कामों में निभा की मदद करने का भी पूरा प्रयास करती. वह स्टूल पर चढ़ कर गैस जला लेती और चाय बना देती. सब्जियां काट देती. काफी चीजें बनानी भी आती थीं उसे.

प्रिया को आए करीब चारपांच दिन बीत चुके थे. इस बीच हम जब भी प्रिया से उस के मांबाप के बारे में या गांव के बारे में पूछते तो वह खामोश रह जाती. ऐसा नहीं था कि उसे बोलना नहीं आता था या समझ की कमी थी. वह हर बात बखूबी समझती थी और निभा के आगे कभीकभी ऐसी बात भी बोल जाती जो उस की उम्र के देखे अधिक समझदारी वाली बात होती. उस ने अपनी नानी के गांव का नाम लिया मगर जब भी उस के मांबाप के बारे में पूछा जाता तो वह खामोश हो जाती.

एक दिन वह मेरे करीब आ कर बैठ गई और धीमे से बोली,” अंकल पुलिस वाले अंकल से मेरी मम्मी के बारे में पूछो न.”

“हां बेटा, अभी पूछता हूं.” मैं ने पुलिस वाले द्वारा दिया गया कार्ड निकाला और नंबर लगाने लगा. मगर कई दफा कोशिश करने के बावजूद नंबर नहीं लग सका. हर बार नौट रीचेबल आता रहा. फिर प्रिया ने अपनी फ्राक की जेब से निकाल कर एक कागज दिया जिस में एक नंबर लिखा था. मैं ने उस नंबर को भी ट्राई किया. मगर वह भी नौट रीचेबल आ रहा था.

मैं ने निभा की तरफ देखा. हम दोनों ही बहुत असमंजस की स्थिति में थे. अगले दिन फिर से प्रिया ने फोन करने को कहा. नंबर फिर से नौट रीचेबल आया. यह बात हमें बहुत अजीब सी लग रही थी. मैं ने सामने की पुलिस चौकी में जा कर पता करने का निश्चय किया.

मैं नजदीकी पुलिस चौकी पहुंच गया और थाना इंचार्ज से जा कर मिला. वह बिजी था. आधा घंटा इंतजार करने के बाद उस ने मुझे बुलाया. सारी कहानी सुनाई तो उस ने 2- 3 नंबर मिलाए, बात की. मगर कोई सही बात पता नहीं चल पाई. उस ने फिर आने को कह कर मुझे टरका दिया.

मैं ने घर जा कर प्रिया को समझाया,”देखो बेटा अभी आप के मम्मीपापा का पता नहीं चल रहा है. पर आप परेशान न हो. हम दोनों भी आप के मम्मीपापा की तरह ही हैं. हम आप का हमेशा ध्यान रखेंगे. हमें अपना मम्मीपापा समझो. ओके बेटा.”

प्रिया ने हां में सिर हिलाया और चली गई. इस के बाद उस ने कभी भी अपने मम्मीपापा के बारे में नहीं पूछा. अब वह हम दोनों से थोड़ाथोड़ा घुलनेमिलने लगी थी.

इधर मैं और निभा उसे पा कर काफी प्रसन्न थे. कुछ दिनों में ही वह हमें अपने घर की सदस्य लगने लगी. दरअसल हमें उस से प्यार हो गया था. उस की आदत सी हो गई थी. अब हम दिल से चाहने लगे थे कि उसे वापस लेने कोई न आए. उस के मांबाप भी नहीं.

एक दिन मैं सुबहसुबह एक्सरसाइज कर घर में घुसा तो प्रिया कहीं नजर नहीं आई. वरना वह रोज सुबह 5 बजे उठ जाती है और मेरे साथ एक्सरसाइज भी करती है. आज वह एक्सरसाइज के लिए भी नहीं आई थी.

मैं ने तीनों कमरों में देखा. वह कहीं नहीं थी. इस के बाद मैं ने किचन में झांका. वहां निभा नाश्ता बना रही थी. प्रिया वहां भी नहीं थी. मैं ने निभा से पूछा,”प्रिया को देखा है? कहीं दिख नहीं रही.”

“वह तो सुबह में आप के साथ ही होती है.”

“पर आज आई ही नहीं.” मैं घबड़ा गया था.

“देखो कहीं छत पर तो नहीं.” निभा ने कहा तो मैं दौड़ता हुआ छत पर पहुंचा.

प्रिया एक कोने में बैठी कागज पर चित्र उकेर रही थी. मैं दंग रह गया. उस ने बेहद खूबसूरत पेंटिंग बनाई थी. मैं ने उसे गोद में ले कर चूम लिया. आज उस की एक नई खूबी का पता चला था. मैं ने उसे अपने पास रखी पेंटिंग से जुड़ी चीजें जैसे कैनवस और कलर्स निकाल कर दिए तो वह हौले से मुस्कुरा उठी.

अब तो वह अक्सर ही पेंटिंग करने बैठ जाती. उस के चित्रों का विषय प्रकृति होती थी. साथ ही कई बार दर्द का चित्रांकन भी किया करती. उस की हर तस्वीर में एक अकेली लड़की भी जरूर होती.

एक दिन रात में 8 बजे के करीब फिर से घंटी बजी. हमारा दिल धड़क उठा. मुझे लगा कहीं पुलिस वाले तो नहीं आ गए प्रिया को लेने. निभा ने भी कस कर प्रिया का हाथ पकड़ लिया. हम दोनों ही अब प्रिया को वापस करने के पक्ष में नहीं थे. प्रिया जैसी बच्ची को पा कर हमें अपने जीवन का मकसद मिल गया था. मैं ने मन ही मन यह तय करते हुए दरवाजा खोला की पुलिस वालों को किसी भी तरह समझा-्बुझा कर वापस भेज दूंगा. दरवाजा खोला तो सामने पड़ोस के नीरज जी को देख कर मेरे दिमाग की सारी टेंशन काफूर हो गई. वह हमारे पास सिरका लेने आए थे. निभा ने एक छोटी शीशी में सिरका डाल कर उन्हें दे दिया और हम दोनों ने चैन की सांस ली.

वैसे जैसेजैसे हमारा प्यार प्रिया के लिए बढ़ रहा था हमारे दरवाजे पर होने वाली हर दस्तक हमें अंदर से हिला देती. हम सहम जाते. धड़कनें बढ़ जातीं. जब सायरन की आवाज आती तो भी हमारा दिल बैठ जाता. डर लगता की विदाई का समय तो नहीं आ गया है. पर शुक्र है कि इतने दिनों में प्रिया पर हक जताने कोई नहीं आया था.

कहीं न कहीं हम दिल ही दिल में यह तमन्ना भी करने लगे थे कि प्रिया के मांबाप न बचें ताकि प्रिया हमेशा के लिए हमारी हो जाए.

एक दिन निभा ने मुझ से कहा,” क्यों न हम प्रिया को प्रॉपर गोद ले लें. फिर हमारे मन का यह भय भी जाता रहेगा कि कोई उसे ले न जाए. हम प्रिया को एक बेहतर जिंदगी भी दे पाएंगे.”

निभा का यह सुझाव मुझे बेहद पसंद आया. अगले ही दिन मैं ने अपने एक वकील दोस्त अभिनव को फोन लगाया और उस से प्रिया के बारे में सब कुछ बताता हुआ बोला,” यार मैं प्रिया को गोद लेना चाहता हूं. तू बता, फॉर्मेलिटीज कैसे पूरी करें.”

मेरी बात सुन कर वह हंसता हुआ बोला,”यार यह सब इतना आसान नहीं. बहुत लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. बच्चा गोद लेने में दो-तीन साल तक लग जाते हैं.”

“पर यार प्रिया तो हमारे पास ही है. ”

“याद रखो वह तुम्हारे पास है पर तुम्हारी है नहीं. अभी तुम्हें यह भी नहीं पता कि उस के मांबाप कौन हैं, कहां हैं, जिंदा हैं या नहीं. उस के घर में और कौनकौन हैं, दादा, चाचा, मामा, बुआ आदि. वे लोग बच्ची को गोद देना चाहते भी हैं या नहीं. बिना किसी अप्रूवल तुम इस तरह किसी अनजान बच्ची को गोद नहीं ले सकते. तुम्हें पहले इस बच्ची को पुलिस वालों को सौंप देना चाहिए.”

“अच्छा सुन, निभा से बात कर के बताता हूं.” कह कर मैं ने फोन रख दिया.

अभिनव को सारी बात बता कर मैं पछता रहा था. उस ने मुझे और भी ज्यादा उलझन में डाल दिया था. मैं इस बात को ले कर कुछ सोचना नहीं चाहता था. बस प्रिया के साथ बीत रहे इस समय को महसूस करना चाहता था. यही हाल निभा का भी था.

भले ही प्रिया ने अपने चारों तरफ रहस्य का घेरा बना रखा था, भले ही प्रिया हमें मिलेगी या नहीं इस बात को ले कर अभी भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई थी मगर फिर भी उस का साथ हमें हर पल एक नए खूबसूरत और संतुष्ट जीवन का अहसास दे रहा था और हमें यह अहसास बहुत पसंद आ रहा था.

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