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स्किन टोन से मैच न करता हुआ फाउंडेशन लगाने से मेकअप खराब होता है ?

सवाल

मेरी उम्र 26 साल है. मेरी शादी होने वाली है. मैं जानना चाहती हूं कि क्या स्किन टोन से मैच न करता फाउंडेशन लगाने से मेकअप खराब हो सकता है?

जवाब
केवल मेकअप करना ही एक कला नहीं, बल्कि मेकअप के लिए प्रोडक्ट्स चुनना भी एक कला है. इस कला में जरा सी चूक मेकअप के जादू को खराब कर देती है. चेहरे से मेकअप के लिए स्किन टोन से मैच न करता फाउंडेशन लगा देना एक बहुत बड़ी मिस्टेक है, जिस के कारण चेहरे पर लुक चौकी या ग्रे सा नजर आता है. हमारी नैचुरल स्किन टोन ज्यादातर 4 रंगों में होती है- यलो, पिंक, औलिव या पीच कलर. इसलिए यह जरूरी है कि बेस भी स्किन टोन से मैच करता ही हो.

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‘वेडिंग डे’ पर जब करना पड़े खुद से मेकअप

शादी के दिन कई बार ऐसा भी होता है कि सब कुछ पहले से ठीक करने के बावजूद कुछ समस्या आ जाती है. इसमें मुख्य होता है सही मेकअप आर्टिस्ट का मिलना, जिसे खोजकर निकलना मुश्किल होता है. ऐसे में अगर आप अपनी शादी पर खुद ही मेकअप करने के बारें में सोचें, तो कोई गलत बात नहीं, क्योंकि आप अपने चेहरे को जानती हैं और अगर आप थोड़ी सी भी मेकअप में रूचि रखती हैं तो क्या कहने. आप अपने अनुसार अपने आप को खूबसूरत बना सकती है

इस बारें में मेकअप आर्टिस्ट अन्नपूर्णा गोकन कहती हैं कि मेकअप करना कोई कठिन काम नहीं, अगर किसी को रंगों की पहचान, रूचि और अपना स्किन टोन पता है, तो आसानी से वह शादी में अपना मेकअप खुद कर सकती है. ‘वेडिंग डे’ पर अगर आप खुद ही मेकअप करना चाहती हैं तो निम्न बातों का ध्यान अवश्य रखें.

चेहरा

हर प्रकार के चेहरे को खुबसूरत बनाने में त्वचा की खास अहमियत होती है. मेकअप से एक रात पहले त्वचा पर एक सौफ्ट एक्सफोलिएटर और हाईड्रेटिंग मास्क की सहायता से मोइस्चराइज करें, त्वचा में जितनी नमी होगी, उस पर किया गया मेकअप उतना ही सुंदर होगा. अगर आपके चेहरे पर किसी प्रकार के दाग धब्बे हैं, तो ‘वेडिंग डे’ से एक दिन पहले अपनी स्किन के अनुसार ब्लीच कर लें. ये ध्यान रखें कि ब्लीच और मोइस्चराइजिंग में एक दिन का अंतर होना बहुत जरूरी है. वेडिंग में मेकअप करने के लिए सबसे पहले फाउंडेशन का प्रयोग अपनी रंगत के अनुसार करें, ये आपको हर उत्पाद में अच्छी तरह लिखा हुआ होता है. दाग-धब्बे होने पर उसे कंसीलर की लेयर से पैक कर फाउंडेशन लगाएं. आजकल वेलवेट मैट फाउंडेशन ट्रेंड में है. फाउंडेशन को चेहरे पर सही तरह से मिलाने के लिए स्पंज का प्रयोग करें, खासकर आंखों के नीचे इसे अच्छी तरह से फैलायें और इसे अच्छी तरह त्वचा में मिलने के लिए थोड़ी समय दें.

आंखें

‘वेडिंग ड्रेस’ के अनुसार आइ शैडो लगायें, डबल शेड आजकल काफी पौप्युलर है, लेकिन अगर आपको इसका सही पता नहीं चल रहा है, तो आप यूनिवर्सल रंग, गोल्डन या कापर आइ शैडो का प्रयोग कर सकती हैं, जो किसी भी रंग के परिधान पर सही बैठता है. इसके बाद वाटर प्रूफ आइलाइनर ब्लैक या ब्राउन अपने वेडिंग ड्रेस के अनुसार लगायें, बाद में मस्कारा लगाकर फिनिशिंग टच दें. कुछ अलग करने की इच्छा होने पर ड्रेस में प्रयोग किये गए रंगों के आधार पर भी आइलाइनर का प्रयोग कर सकती हैं. अगर आपके आंखों के नीचे काले घेरे हों, तो काजल का प्रयोग न करें.

होंठ

होठों पर लिपस्टिक वेडिंग परिधान के अनुसार ही लगाना सही होता है, इसमें मरून, पिंक, रेड आदि ट्रेंड में है. लिपस्टिक दो तरह के मिलते है ‘ग्लिटर’ और ‘मैट’. आजकल अधिकतर दुल्हने मैट वाली लिपस्टिक लगाती है, क्योंकि इससे नेचुरल लुक मिलता है और लिपस्टिक काफी समय तक टिका रहता है. अपने स्किन टोन से एक डार्क शेड लगाना सही रहता है. लिपस्टिक लगाने से पहले लिप लाइनर अवश्य लगायें. अगर लिप्स चौड़े हैं, तो उन्हें आप लिप लाइनर की सहायता से पतला बना सकती हैं और अगर पतले हैं, तो उन्हें अपने चेहरे के अनुसार शेप दे सकती हैं.

अंत में ब्लशर लगाना न भूलें, अपनी स्किन टोन के हिसाब से इसे लेकर ‘स्माइली फेस’ बनाकर ब्रश की सहायता से नीचे से ऊपर ब्लशर गालों और ठुड्डी पर लगायें.

खुद से मेकअप करना आसान है, पर कुछ बातों पर गौर करें, जो निम्न हैं.

– खुद से मेकअप करने के लिए तकरीबन एक घंटा एक्स्ट्रा समय अपने पास रखें, ताकि किसी काम में अधिक हड़बड़ी न हो.

– मेकअप में प्रयोग किया जाने वाला कोई भी ब्यूटी प्रोडक्ट हमेशा ब्रांडेड और वाटर प्रूफ ही लें, ताकि उसकी फिनिशिंग अच्छी हो और त्वचा पर किसी प्रकार का प्रभाव बाद में न दिखे.

– अपने रंगत के अनुसार उत्पाद लें और वेडिंग डे से पहले एक बार उसे लगाकर देख लें कि आपके मन मुताबिक रंग है या नहीं.

– वेडिंग डे पर रोशनी की व्यवस्था को अवश्य परख लें, ताकि आप सबसे अलग और शानदार दिखें.

– दोस्तों को भी अपने साथ तैयार होने को कहें, ताकि आपको उनका सहयोग बीच-बीच में मिलता रहे.

YRKKH: आरोही-अभिमन्यु की होगी शादी, क्या होगा अक्षरा का

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इन दिनों काफी ज्यादा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है, सीरियल में इन दिनों खूब ड्रामा देखने को मिल रहा है. जिस वजह से सीरियल के दर्शक भी काफी ज्यादा एक्साइटेड नजर आ रहे हैं.

अक्षरा अभिमन्यु से अलग हो गई है इन दिनों वह अपनी जिंदगी पठानकोट में बीता रही है. अक्षरा अभिमन्यु अलग हो चुके हैं, लेकिन आने वाले समय में काफी ज्यादा मसाला देखने को मिलेगा. अक्षरा को पठानकोट में अभिनव मिल गया है जिसके साथ वह काफी ज्यादा सय बीता रही है.

 

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बॉस अक्षरा से बतमीजी करने की कोशिश करता  है , तो अभिनव वहां पहुचकर उसे बचा लेता है, अक्षरा और अभिनव की दोस्ती काफी ज्यादा बढ़ती हुई नजर आ रही है.अक्षरा को चोट लगती  है तो डॉक्टर उसे ध्यान देने को कहता है. वही अक्षरा भी अभिनव को अफना अच्छा दोस्त मानने लगी है.

वहीं बिरला हाउस में सभी को आरोही की टेंशन होती है क्योंकि आरोही अपने बच्चे को लेकर काफी ज्यादा परेशान हैं, आरोही की शादी अभिमन्यु से कराने की सोच रहे हैं. अक्षरा और अभिमन्यु भी इधर दिल से एक दूसरे को भूल नहीं पाएं हैं. इन दोनों की जोड़ी भी फैंस को अच्छी लगती है आखिर क्या वापस अक्षरा अभिमन्यु एक हो पाएंगे.

एक्स हसबैंड अरबाज के साथ दिखी मलाइका, फोटोज हुईं वायरल

मलाइका अरोड़ा अक्सर अपने बॉयफ्रेंड अर्जुन कपूर के साथ दिखती हैं लेकिन इस बार मलाइका की अलग तस्वीर वायरल हो रही है, जिसमें वह अपने एक्स हसबैंड अरबाज खान के साथ नजर आ रही हैं.

फैंस मलाइका की इस तस्वीर को खूब वायरल हो रही है जिसमें उनके लुक की जमकर तारीफ हो रही है. मलाइका की इस तस्वीर पर जमकर तारीफ कर रहे हैं. मलाइका अरबाज की यह तस्वीर खूब वायरल हो रही है. मलाइका वायरल हो रही तस्वीर में काफी ज्यादा हसीन लग रही हैं.

 

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इस तस्वीर को देखने के बाद लोग मलाइका के दीवाने हो गए हैं, मलाइका अरोड़ा अपने हाथ में बैग लिए नजर आ रही हैं , जिसमें उनकी खूब तारीफ हो रही है. वहीं अरबाज खान ब्लैक पैंट और शर्ट पहने नजर आ रहे हैं. अरबाज का यह लुक खूब वायरल हो रहा है.

वायरल हो रही तस्वीर में मलाइका अपना टोन्ड लेग्स फ्लॉन्ट कर रही हैं. वायरल हो रही तस्वीर में मलाइका अपनी स्माइल से लोगों का दिल जीत ले रही हैं. मलाइका हमेशा की तरह इस बार भी काफी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी.

अरहान खान ब्लैक कलर की टी शर्ट पहने हुए हैं, जिसमें वह काफी ज्यादा कुल नजर आ रहे हैं. मलाइका अरबाज को साथ देखकर फैंस काफी ज्यादा उनपर प्यार लुटाते नजर आ रहे हैं. फैंस को उनकी जोड़ी एकबार फिस से अच्छी लगने लगी है.

कैंपस पौलिटिक्स जरूरी है

‘ब्राह्मण बनिया भारत छोड़ो, ब्राह्मण बनियो हम आ रहे हैं’, जैसे नारे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की दीवारों पर बीती 3 दिसंबर को लिखे देखे गए तो भक्तों के पेट में मरोड़ें उठना स्वभाविक बात थी क्योंकि ये नारे उन की बादशाहत को धता बताते हुए थे.

यह वह वक्त था जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह गुजरात में चुनावप्रचार के दौरान खुलेआम मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल को इस बाबत बधाई दे चुके थे कि उन्होंने द्वारका में कथित अवैध मजारें तुड़वा दीं. इसी वक्त में मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र सहित तमाम छुटभैये नेता अभिनेत्री स्वरा भास्कर के राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने पर तिलमिलाते कह रहे थे कि यह भारत तोड़ो यात्रा है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैमाने पर देखा जाए तो जेएनयू के छात्रों को भी अपनी बात कहने का हक है जिन के बारे में भाजपाई गिरिराज सिंह सहित तमाम छोटेबड़े भाजपा के नेताओं ने कहा कि यह भारत को इसलामिक राष्ट्र बनाने की वामपंथी साजिश है. तुरंत ही जेएनयू की दीवारों पर हिंदूवादी संगठन- हिंदू रक्षा दल- द्वारा रचित नए नारे लिखाई दिए कि ‘कम्यूनिस्टो भारत छोड़ो, हम चार वर्ण वाले सनातनी हैं.’ लड़ाई वैचारिक है, जिस का नाम दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ, लेफ्ट बनाम राइट या जनेऊ बनाम टाई है. यह आज की नहीं, बल्कि सदियों पुरानी लड़ाई है.

एक वर्ग कहता है कि देश उन्हीं का है जो राम और कृष्ण के भक्त हैं जबकि दूसरा पक्ष कहता है कि देश सभी का है. और भी पौइंट्स हैं जो इस लड़ाई की तह में हैं. लेकिन एतराज इस बात पर क्यों कि ऐसे नारे और आवाजें कालेज कैंपसों से नहीं आनी चाहिए. वक्त तो यह सोचने का है कि ऐसी बातें कैंपसों से क्यों नहीं आनी चाहिए जहां से युवा समाज और देश के बारे में सोचते अपनी भूमिका तय करता है और इसी वक्त में उस की अपनी विचारधारा आकार ले रही होती है.

अगर कुछ युवाओं को लगता है कि ब्राह्मणबनिया गठजोड़ ने देश को बरबाद किया है और अब यह बात दीवारों पर नारे लिख कर ही जताई जा सकती है तो इस पर एतराज क्यों और इस से देश कैसे इसलामिक हो जाएगा. शायद ही गिरिराज सिंह जैसे नेता बता पाएं कि यह तो हिंदुओं का जाति और जातिगत मसला है जिस में मुसलमानों को घसीटने से सदियों पुरानी समस्या असल में त्रुटि और दरअसल मनुवादी साजिश हल नहीं होने वाली. ऐसी और हर तरह की राजनीति को हर मंच से प्रोत्साहन मिलना चाहिए जिस से युवा आक्त्रोश, कुंठा और हिंसा में तबदील न हो.

संबंध: पार्टनर झूठ बोले तो भी उससे अलग न हों

हर व्यक्ति कहीं न कहीं  का सहारा लेता ही है. ?ाठ एक यूनिवर्सल सच है, लेकिन  बोलने की सीमा क्या हो, किस परिस्थिति में ? बोला गया, यह ज्यादा मैटर करता है. अब सवाल यह कि अगर पार्टनर ही ? निकले तो उसे डील कैसे किया जाए, क्या उसे छोड़ दिया जाए? चंदन छाबड़ा के दोस्त उस की किसी बात को सीरियसली नहीं लेते हैं. उस के मुंह पर ही बोल देते हैं कि ‘यार, तू तो अपनी जबान बंद ही रख.’ दूसरों से भी कहते हैं, ‘छाबड़ा ने बताया है तो ?होगा. वह कभी सच तो बोलता ही नहीं है.’ चंदन छाबड़ा अपने परिवार और पड़ोस से ले कर औफिस तक में ‘लायर’ के नाम से जाना जाता है. जो लोग उस को नहीं जानते हैं वे शुरू में उस की बात पर विश्वास कर बैठते हैं क्योंकि ? वह बड़े सलीके से बोलता है. जहां जरूरत नहीं, वहां भी ?

जैसे उस के खून में घुला हुआ है. बड़ीबड़ी बातें हांकता है. बड़ेबड़े लोगों से अपनी जानपहचान बताता है. रेवती भी उस के इसी ? के जाल में फंस गई और उस के मातापिता ने भी चंदन छाबड़ा की जलेबी जैसी बातों में उल कर बेटी की शादी आननफानन उस से कर दी. शादी के बाद रेवती को पता चला कि वह एक निहायत ही ?ठे आदमी के प्रेम में फंस चुकी है. शादी के 2 महीने बाद रेवती के हाथ चंदन का आईकार्ड लग गया, जिस से उसे पता चला कि वह औफिस में महज एक कंप्यूटर औपरेटर है, न कि कोई अधिकारी.

उस की तनख्वाह भी 80 हजार रुपए महीना नहीं, मात्र 15 हजार रुपए है. वह कोई डबल एमए नहीं. बस, 12वीं पास है. उस के घर में कोई दोदो नौकर नहीं हैं बल्कि घर का सारा काम उस की मां संभालती आई है. घर के आगे खड़ी रहने वाली कार चंदन के दोस्त की है जिस को पार्किंग की प्रौब्लम है तो उस को चंदन ने अपने घर के सामने की जगह दी हुई है और बदले में उस से हर महीने 400 रुपए लेता है. कार की चाबी चंदन के पास ही रहती है ताकि जरूरत पड़ने पर गाड़ी आगेपीछे की जा सके. दोस्तीयारी में वह कभीकभी दोस्त की गाड़ी चला लेता है. रेवती को इंप्रैस करने में इस गाड़ी की बड़ी भूमिका रही. शादी से पहले वह कई बार उस के साथ इसी गाड़ी में घूमी. इस गाड़ी में बैठ कर उस ने चंदन के अमीर रिश्तेदारों के किस्से सुने.

औफिस में होने वाली हाई लैवल मीटिंग में वह कितना बिजी रहता है, कैसे बड़ेबड़े क्लाइंट्स से डील करता है, ऐसी तमाम कहानियां सुन कर रेवती के कोमल मन में होने वाले पति के लिए सम्मान और प्रेम ऐसा बढ़ा कि चंदन के बारे में कोई छानबीन न तो उस ने की और न उस के परिवार ने. रेवती को तो समय पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि एक साधारण से परिवार की साधारण शक्लसूरत वाली लड़की को ऐसा हाईफाई पति मिलने जा रहा है. घर वालों ने भी इस डर से कि कहीं इतना अच्छा लड़का हाथ से न निकल जाए, चटपट पहला मुहूर्त देख कर शादी कर दी. हफ्तेदस दिन में जब शादी के लिए जमा हुए नातेरिश्तेदार अपनेअपने घर चले गए तो सब के खानेपीने का इंतजाम करने वाले किराए के नौकरों को भी छुट्टी दे दी गई. अब चंदन छाबड़ा के सारे ?ाठ एकएक कर खुलने लगे.

रेवती पति से नाराज हुई तो उस ने यह कह कर उसे बहला दिया कि ?ाठ न बोलता तो तुम्हारा प्यार कैसे पाता? तुम न मिलतीं तो मर नहीं जाता? इसी ?ाठ और मनुहारभरी बातों को सुनतेसुनते रेवती सालभर में एक बच्चे की मां बन गई. जैसेजैसे समय बीता, वह अपने पति के बारे में यह अच्छी तरह सम?ा गई कि वह एक महा?ाठे के पल्ले बंध गई है जो एक तरफ ?ाठ भी बोलता है और दूसरी तरफ उस से और बच्चे से प्यार भी करता है और उन का ध्यान भी रखता है. लेकिन शादी से पहले जो सम्मान और प्रेम रेवती के मन में होने वाले पति के लिए उमड़ा था, वह पूरी तरह खत्म हो चुका था. वह अब भी रोज चंदन के किस्से सुनती थी, मगर उसे अब चंदन की किसी बात पर विश्वास नहीं होता था. वह उस की बातें सुन कर सिर हिलाती और मन ही मन उस को एक मोटी सी गाली देती,

‘साला ?ाठा.’ रेवती का सारा प्रेम और आकर्षण अब उस के नन्हे बेटे पर केंद्रित हो चुका था. ?ाठ बोलना गलत बात होती है, लेकिन हकीकत यह है कि लगभग हर कोई अपनी लाइफ में ?ाठ बोलता है. लोग रोजाना ही एकदो ?ाठ बोल जाते हैं. वैसे तो सुनने वाले को ?ाठ कभी पसंद नहीं होता लेकिन बोलने वाला किसी न किसी कारण से ?ाठ बोल देता है. वहीं जब ?ाठ पकड़ा जाता है तो खासा विवाद खड़ा हो जाता है. ऐसे में कई सारे रिश्तों में ?ाठ को जगह देना भविष्य में खतरनाक हो सकता है. बात करें रिलेशनशिप की तो यहां पार्टनर का ?ाठ उस के साथी के लिए किसी धोखे से कम नहीं होता. कई पार्टनर तो अकसर ही अपने साथी से ?ाठ बोलते हैं. विश्वास और प्यार के कारण उन का पार्टनर बोले गए ?ाठ को भी सच मान लेता है लेकिन जब ?

परदाफाश होता है तो उसे लगने लगता है कि पार्टनर ने उस के साथ धोखा किया. ऐसे में उस का दिल टूट जाता है और प्यार काफूर हो जाता है. पैथोलौजिकल लायर से ऐसे करें डील हमें अपने आसपास ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो गाहेबगाहे ?ाठ बोलते हैं. हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि ?ाठ बोलना गलत है लेकिन फिर भी कई लोग अकसर सफेद ?ाठ बोल देते हैं. कुछ लोग बहुत सोचसम?ा कर तो कुछ बिना कारण ही ?ाठ का सहारा लेते हैं, जबकि सच बोलने में कोई नुकसान नहीं है. दरअसल थोड़ाबहुत ?ाठ तो हर इंसान बोलता है. अकसर लोग ?ाठ का सहारा तब लेते हैं जब कोई और चारा न रहे पर आप का पाला अगर ऐसे व्यक्ति से पड़ जाए जो हर बात में ?ाठ बोलता हो तो यह सम?ा लें कि आप एक पैथोलौजिकल लायर से डील कर रहे हैं.

इसे मायथोमेनिया और स्यूडोलोगिया फैंटेसी के नाम से भी जाना जाता है. यह एक मानसिक विकार है जिस में व्यक्ति आदतन ?ाठ बोलता है. यह पर्सनैलिटी डिसऔर्डर या एंटीसोशल पर्सनैलिटी डिसऔर्डर का परिणाम होता है. यदि किसी पैथोलौजिकल ?ाठे व्यक्ति को उस की इस आदत के लिए चुनौती दी जाती है तो वह कभी स्वीकार नहीं करेगा कि उस ने कोई ?ाठ बोला, बल्कि उलटा वह बुरी तरह क्रोधित भी हो सकता है. इस तरह के डिसऔर्डर का शिकार व्यक्ति कभीकभी क्रोध में बहुत आक्रामक भी हो जाता है. अगर आप एक पैथोलौजिकल लायर को डेट कर रहे हैं या आप की उस से शादी हो गई है और आप धीरेधीरे उस की इस आदत से तंग होने लगे हैं तो उस से अलग होने, तलाक लेने या उस पर आक्रामक होने के बजाय कुछ तरीकों की मदद से हालात से निबट सकते हैं.

एक बार जब आप को अपने पार्टनर की आदत पता चल ही गई है तो उस से अलग हो कर अपनी जिंदगी को और दुश्वार बनाने से बेहतर है उस की आदत के साथ सामंजस्य बिठा लें और उस को इस बीमारी से बाहर निकलने का प्रयत्न करें. अपना आपा न खोएं यह सच है कि बारबार ?ाठ सुनने से चिड़चिड़ाहट होने लगती है लेकिन अपना आपा खोने से कोई हल नहीं निकलेगा. अगर आप सामने से उन से सच पूछेंगे तो एक और ?ाठ सुनाई देने की संभावना ज्यादा है. आप को सब से पहली बातचीत खुद से करनी चाहिए. अपने दिल से पूछें कि क्या आप इस रिश्ते में रहना चाहते हैं या नहीं? क्या पार्टनर का ?ाठ आप को कोई शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हानि पहुंचा रहा है?

क्या ?ाठ बोलने की आदत के बावजूद आप का पार्टनर आप से प्रेम करता है, आप का खयाल रखता है, दुखबीमारी में आप का सहारा है और आप की जरूरतों को सम?ाता है और पूरी करता है? अगर इन सवालों के जवाब ‘हां’ हैं तो ऐसे पार्टनर से दूर जाना बेवकूफी ही होगी. पति या पत्नी के ?ाठ के साथ रहना उस से तलाक ले कर अलग रहने से कहीं आसान है. तलाक के बाद जीवन स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ज्यादा कष्टमय होता है. स्त्री अगर आर्थिक रूप से पति पर निर्भर है तो तलाक के बाद वह अपने मायके पर एक बो?ा की तरह ही सम?ा जाएगी. ऐसे ही पुरुष के लिए अकेला जीवन ज्यादा जटिल और उबाऊ होता है. जो अब तक रोजमर्रा के कामों के लिए अपनी पत्नी पर आश्रित था वह अकेला पड़ने पर घबरा जाता है. इसी के साथ अगर बीच में बच्चे हों तो उन का भविष्य खराब होता है और वे पेरैंट्स के बीच फुटबौल बन जाते हैं. भारत में तलाक लेने की प्रक्रिया भी आसान नहीं है और इस में लंबा वक्त व पैसा लगता है. इन सब बातों पर गहनता से चिंतन के बाद ही कोई कदम उठाना उपयुक्त है.

बोलने की आदत का कारण जानें जानने की कोशिश करें कि किन कारणों से वे इस आदत का शिकार हुए. साइकोलौजिकल कंडीशन, कम आत्मसम्मान, कम आत्मविश्वास आदि इस के कारण हो सकते हैं. जिन बच्चों को हमेशा मांबाप से डांटफटकार मिलती है, बातबात पर उन्हें अपमानित किया जाता रहा है, उन के आत्मसम्मान को रौंदा जाता है, दूसरों से उन की बेवजह तुलना की जाती है, उन की पिटाई की जाती है तो ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास की बेतरह कमी हो जाती है. वे डरेसहमे रहते हैं और धीरेधीरे ?ाठ का सहारा लेने लगते हैं. कल्पनालोक में जीते हुए खुद को उस जगह देखने लगते हैं जहां वे पहुंच नहीं पाए. यही बच्चे जवान होने पर पैथोलौजिकल डिसऔर्डर का शिकार हो जाते हैं. ?ाठ उन के जीवन में ऐसा घुल जाता है कि उन को एहसास ही नहीं होता कि वे कुछ गलत कर रहे हैं. वे इस को बिलकुल नौर्मल सम?ाते हैं. ऐसे मरीज को डांटफटकार, ताने या तिरस्कार से नहीं सुधारा जा सकता.

उन के आत्मविश्वास को जगाना होगा. उन के अंदर यह विश्वास पैदा करना होगा कि वे जैसे भी हैं, आप के लिए बहुत अच्छे हैं. वे जो भी काम कर रहे हैं वह बेहतर है. जब वे आप पर भरोसा करने लगेंगे तब उन का आत्मविश्वास सुदृढ़ होगा और फिर आप के सामने वे सच बातें भी रखने लगेंगे. आरोप न लगाएं बेशक वे ?ाठ बोलते हैं लेकिन लड़ना?ागड़ना या आरोप लगाना इस समस्या का हल नहीं है, बल्कि इस की जगह आप शांति से उन्हें यह बता सकते हैं कि उन के ?ाठ बोलने से आप के दिल को ठेस पहुंचती है. इस से उन्हें अपनी गलती का एहसास होगा और हो सकता है कुछ देर बाद वे आप से माफी मांग लें. पार्टनर के ?ाठ को कैसे पकड़ें द्य पार्टनर जब आप से बात करें तो उन की आवाज की पिच पर ध्यान दें. सच बोलने वाले आराम से बात करते हैं लेकिन जब लोग ?ाठ बोलते हैं तो उन की आवाज सामान्य से ऊंची हो जाती है. हालांकि यकीन से नहीं कहा जा सकता कि वे ?ाठ ही बोल रहे होंगे लेकिन अंदाजा लगाया जा सकता है. द्य ?ाठ बोलने वाला अपनी बात को साबित करने के लिए बात करते समय शरीर का मूवमैंट ज्यादा नहीं करता है. शरीर को स्थिर रख कर वह अपनी बातों पर अधिक जोर दे कर कुछ बताता है.

आप के किसी सवाल पर अगर पार्टनर गुस्सा होने लगे या सवाल को टालने की कोशिश करे तो समय लीजिए कि वे आप से बात छिपा रहे हैं याठ बोल रहे हैं. अकसर लोग ?ाठ बोल कर इधरउधर की बातें करने लगते हैं. द्य ?ाठ बोलने वाला शख्स आंख मिला कर नहीं, बल्कि नजरें चुरा कर बात करता है. जबकि सच बोलने वाला शख्स शांत हो कर आत्मविश्वास के साथ आप की आंखों में देख कर बात करता है. द्य ?ाठ बोलने वाला अपनी बातों को दोहराता है, ताकि आप उस के पर विश्वास कर लें. द्य ?ाठ बोलने पर बौडी लैंग्वेज बदल जाती है. कई बार लोग ?ाठ बोलते समय ऐसी हरकतें करते हैं जहां उन की बातें और उन की हरकतें मैच नहीं करती हैं.

उदाहरण के तौर पर किसी गंभीर विषय में भी कैजुअल बौडी लैंग्वेज रखना. रोजाना जिस तरह का व्यवहार किया जाता है उसे पूरी तरह से बदल देना. द्य जहां तक पार्टनर का सवाल है तो जरूरी काम टालना आलस हो सकता है, लेकिन अगर कोई बहुत जरूरी बात को टाल रहा है तो इस के 2 मतलब हो सकते हैं. पहला तो यह कि वह उस बात में इंटरैस्टेड नहीं है और दूसरा यह कि वह उस बात से जुड़ा कोई ?ाठ बोल रहा है.

बोलने वाला सीधा जवाब देने से बचता है : कई बार किसी सवाल का सीधा सा जवाब होते हुए भी पार्टनर उस के बारे में सीधी बात नहीं करता और बहुत ही उलटा या फिर अजीब जवाब दे कर बात को घुमाने की कोशिश करता है. यानी आप के सवाल को अवौइड करने की कोशिश करता है और ऐसे में ?ाठ पकड़ना काफी आसान हो सकता है.

वक्त निकालने या सामना करने से बचना भी ?ाठ को उघाड़ देता है. इस समस्या से अधिकतर महिलाएं परेशान होती हैं कि पार्टनर उन के लिए वक्त नहीं निकालता, लेकिन अगर कोई अचानक से बिजी हो जाए और एक खास बात को ले कर ही वक्त न निकाल पाए तो ऐसे में भी यह मुमकिन है कि वह  बोल रहा हो.

डिफैंसिव बातें करना : आप के किसी सवाल पर अगर आप का पार्टनर डिफैंसिव हो जाता है और उलटे सवाल करना शुरू कर देता है, जैसे ‘क्या तुम्हें  पर शक है, क्या तुम भरोसा नहीं करतीं आदि’ तो साइंस के हिसाब से यह बोलने का एक लक्षण है.

फोन शेयर करने से बचना : हालांकि इसे पूरी तरह से ?ाठ से जोड़ कर नहीं देख सकते क्योंकि अधिकतर लोग अपने फोन में काफीकुछ प्राइवेट रखते हैं और रिलेशनशिप में थोड़ी प्राइवेसी रखना जरूरी भी है. लेकिन अगर आप का पार्टनर इसे ले कर बहुत ज्यादा सैंसिटिव है और आप को कभी अपना फोन हाथ भी नहीं लगाने देता तो थोड़ा शक हो सकता है.

कई बार पार्टनर किसी एक घटना को ले कर बारबार अलग कहानी बनाता है. ऐसे में यह समाजा सकता है कि वह उस घटना को ले कर  बोल रहा है. ऐसा अधिकतर तब होता है जब उस घटना से जुड़ी कोई न कोई सचाई छिपाई जा रही है.

अधिकतर चीजों में न कहना : साइंस कहती है कि  बोलने वाला पार्टनर कई चीजों को ले कर मना कर सकता है, जैसे डेट पर जाना, कोई बात करना, फिल्म देखना आदि हर चीज के लिए मना कर देना.

बिना बोले भी कई इशारे ऐसे होते हैं जो  को प्रदर्शित कर देते हैं, जैसे जरूरत से ज्यादा पलकें ?ापकना, बारबार थूक गटकना, घबराना, हाथ और पैरों को शेक करना, नर्वस दिखना आदि. जरूरी नहीं कि कोई पार्टनर सिर्फ गलत अंदाजे से ही ?ाठ बोल रहा हो,

इसलिए हर रिश्ते में आप को थोड़ा भरोसा जरूर करना चाहिए. वैसे तो पतिपत्नी के रिश्ते में ?ाठ और चीटिंग की कोई जगह नहीं होती है, लेकिन गूगल पर परोसा गया साहित्य हमें बताता है कि कई बार पतिपत्नी के रिश्ते में ?ाठ की भी जरूरत पड़ जाती है. आप को यकीन नहीं आता तो गूगल सर्च कर के देखें. आप को एक नहीं, एक हजार ऐसे केस मिल जाएंगे जहां पतिपत्नी के रिश्ते में ?ाठ के साथसाथ जुड़ाव भी है.

अग्रलेख: टैक्नौलोजी बराबरी का मौका देती है लेकिन

टैक्नौलोजी ने जिंदगी कितनी आसान और सुविधाजनक कर दी है, यह चारों तरफ दिखता है लेकिन अफसोस तब होता है जब टैक्नोलौजी को भी भगवान की देन मानते हुए इस का श्रेय भी उसे ही दिए जाने की साजिश धर्म के ठेकेदार करते हैं. क्या है यह षड्यंत्रकारी मानसिकता? ज्यादा नहीं 200 साल पहले तक जीवन ज्यादा महंगा और दुष्कर था.

बिजली, पानी और आज जैसी चमचमाती पक्की सड़कें सपने जैसी बातें हुआ करती थीं. कहने को तो चारों तरफ पानी था लेकिन उसे लेने नदी, कुओं और तालाबों तक जाना पड़ता था. आम लोगों के दिन का 8वां हिस्सा तो पानी ढोने में ही निकल जाता था. सहूलियत और सम्मानजनक तरीके से पेट भर पाना मुश्किल काम था जिस की अपनी वजहें भी थीं. तब मौजूदा साधन भी कुछ सीमित लोगों के लिए हुआ करते थे. चूंकि टैक्नोलौजी यानी तकनीकी न के बराबर थी, इसलिए समाज पर रसूखदारों का कब्जा और दबदबा था. इस तथ्य को अब सम?ाना आसान नहीं तो आज बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है जिसे मध्य प्रदेश के शहर सागर के आलोक की बातों से सम?ा जा सकता है. 65 वर्षीय आलोक सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हैं और पढ़नेलिखने के खासे शौकीन हैं. उन के दादाजी की बरात अब से कोई 110-115 साल पहले सागर से विदिशा गई थी जिस की चर्चा सालोंसाल चली थी और उन्होंने भी सुनी थी. संपन्न कायस्थ होने के नाते उस दौर के हिसाब से यह शादी धूमधाम से हुई थी.

उस वक्त में धूमधाम का एक बड़ा मतलब होता था बरात का बैलगाडि़यों से जाना. 6 बैलगाडि़यों में कोई 36 लोग सवार हो कर विदिशा के लिए रवाना हुए थे. यह बरात 5 दिन में 160 किलोमीटर का सफर तय कर मंजिल तक पहुंची थी. एक बैलगाड़ी में बरातियों के रास्तेभर का राशन, चूल्हाचक्की, बरतन, कपड़े, बिस्तर सहित अन्य सामान रखा गया था. उस वक्त में बैलगाड़ी भी गांव या शहरों में हर किसी के पास नहीं होती थी बल्कि संपन्न किसानों के पास हुआ करती थी जो ऊंची जाति वाले ही हुआ करते थे. इस बरात के लिए 2 बैलगाडि़यां रिश्तेदारों से ली गई थीं और 2 जमींदार साहब से अनाज के बदले किराए पर ली गई थीं.

बैलगाडि़यां एक दिन में औसतन 40 किलोमीटर की दूरी तय कर पाती थीं क्योंकि हर 12-15 किलोमीटर चलने के बाद सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था. इस में भी दिन के खाने के लिए कोई 2 घंटे का ब्रेक होता था. सुस्ताने की जरूरत आदमियों से ज्यादा बैलों को होती थी जो कच्चे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर 6 लोगों का वजन ढोते हांफने लगते थे. बीचबीच के ये पड़ाव किसी भी खेत में डाले जाते थे जबकि रात के विश्राम के लिए किसी बड़े से गांव के बाहर मंदिर में या खुले मैदान में डाले जाते थे जहां से नदी, तालाब या कुआं नजदीक होते थे. नहानेधोने और शौचादि की सहूलियत के लिए खुले मैदान की अनिवार्यता होती थी. महंगा था वह पिछड़ापन इस तरह का सफर कहनेसुनने में रोमांचक लग सकता है लेकिन वास्तव में परेशानियों और जोखिमों से भरा होता था.

लुटेरे, उचक्कों के साथसाथ हिंसक जानवरों का खतरा बना रहता था जिन से हिफाजत के लिए कुल्हाड़ी, लठ और फरसा, तलवार जैसे परंपरागत हथियार ले जाए जाते थे. रास्ते में कोई बीमार पड़ जाए तो मुसीबत और बढ़ जाती थी. 2 बैल एक्स्ट्रा रखे जाते थे ठीक वैसे ही जैसे आजकल कारों में स्टैपनी होती है या लंबी दूरी की बसों में 2 ड्राइवर रखे जाते हैं. यह या इस तरह की यात्राएं सस्ती होती थीं, यह सोचना बेमानी है. हकीकत में ये बहुत महंगी होती थीं. एक आदमी के 10-12 दिन के खानेपीने का खर्च आज के 500 रुपए रोज से कम नहीं आंका जा सकता. इस से आधा बैलों के चारे वगैरह पर खर्च होता था. यानी सिर्फ खानेपीने पर ही एक लाख रुपए के लगभग खर्च हो जाते थे. ऊपर से 12 दिन आनेजाने के जाया होते थे जिन में कोई कुछ काम नहीं करता था. काम करने के लिए छोटी जाति के दोचार लोग साथ रखे जाते थे जो वास्तव में मजदूर होते थे. इन लोगों को बैलगाड़ी के अंदर बराबरी से बैठने की इजाजत नहीं होती थी बल्कि ये लोग उस पर बाहर की तरफ निकले पटिए पर बैठते थे. इन के काम कपड़े धोना, बरतन साफ करना, मालिश करना, बिस्तर लगाना व समेटना और कई बार बैलगाड़ी के आगे जा कर फावड़े से रास्ता ठीक करने जैसे होते थे.

यात्रा खत्म होने के बाद कुछ नकद अनाज और कपड़े वगैरह बतौर मजदूरी और बख्शिश दिए जाते थे. अब सागर से विदिशा इत्मीनान से 5 घंटे से भी कम वक्त में ट्रेन या सड़क रास्ते से पहुंचा जा सकता है वह भी बिना किसी असुविधा या सांपबिच्छुओं के डर के. आलोक खुद यकीन नहीं कर पाते दादाजी की बरात यात्रा उन्हें सपना सी लगती है. हालांकि वे खुद भी बदलते वक्त और टैक्नोलौजी से सरल हुई जिंदगी और वक्त के गवाह हैं. अब बड़ी व चौड़ी सड़कें हैं, ट्रेनें हैं, बिजली है और वह सबकुछ है जो अब से डेढ़दोसौ साल पहले होने की कल्पना भी कोई नहीं करता था. लेकिन हैरानी की एक और बात खर्च की है. आज ट्रेन से 40 लोग उस से बहुत कम पैसों में 200 किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं जितने में 200 साल पहले करते थे. सागर से विदिशा का स्लीपर से किराया महज 150 रुपए और थर्ड एसी में 500 रुपए है. यह सिर्फ टैक्नोलौजी के चलते मुमकिन हुआ है कि लोगों की 5 दिन की यात्रा महज 5 घंटे में संपन्न हो पा रही है, वह भी इतनी सहूलियत से कि इस के और ज्यादा आसान होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन जिस तेजी से तेज गति की ट्रेनें, बसें और 6 या 8 लेन वाली सड़कें बन रही हैं उन्हें देख लगता है कि आने वाले कल में यह दूरी 2 घंटे में भी तय की जा सकती है. ऐसे बदली जिंदगी 18वीं सदी से विज्ञान ने पैर पसारने शुरू किए थे. यह सिलसिला अभी तक जारी है.

इस सदी की शुरुआत में स्टीम इंजिन का, सार्वजनिक कह लें या व्यावसायिक, इस्तेमाल शुरू हुआ तो देखते ही देखते दुनिया के रंगढंग बदलने लगे. कुछ सालों बाद ही एल्युमिनियम चलन में आया. साल 1829 में पहली इलैक्ट्रिक मोटर बनी और फिर 1844 में टैलीग्राफ के चलन ने आदमी के पैरों में मानो पंख लगा दिए. 1878 में पहले टैलीफोन एक्सचेंज के वजूद में आने के बाद तो कुछ भी मुश्किल नहीं रहा. यह सदी पूरी तरह वैज्ञानिक क्रांति वाली साबित हुई. रेल की पटरियां दुनियाभर में बिछने लगीं, सड़कें इफरात से बनने लगीं जिस से आवागमन आसान हो गया. संचार माध्यमों ने भी दूरियों को कम किया. इसी दौरान व्यापार भी आसान हुआ और लोग एक से दूसरे देश आनेजाने लगे जिस से आयातनिर्यात बढ़ा. बिजली की उपलब्धता आम जिंदगी की एक बड़ी जरूरत बन गई. इस के बगैर जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती. इस टैक्नोलौजी ने लोगों का रहनसहन बदला, बातचीत करने का तरीका भी बदला. और तो और सोचने का भी तरीका बदल डाला. हर घर में बिजली पहुंच गई है, पानी पहुंच गया है, फिर चाहे वह अमीर का हो या गरीब का. हालत तो यह है कि हर चीज एक क्लिक पर मौजूद है, खानापीना, बैंकिंग और तमाम तरह की बुकिंग भी घरबैठे मुमकिन हैं.

बोतल बंद पानी और पैकेट वाले दूध के आदी होते जा रहे लोगों का सामना अब घर से बाहर निकलते ही मवेशियों द्वारा फैलाई दुर्गंध से नहीं होता. जाहिर है टैक्नोलौजी ने हर तरह की गंद से भी बचाने में अहम रोल निभाया है. नएनए आविष्कार, मशीनें और उपकरण रोज जिंदगी को बदलते रहे, यह बात दूसरी है. लेकिन भारत में अभी भी बदलने को बहुतकुछ बाकी है. अगड़ों से पिछड़े 18वीं सदी में टैक्नोलौजी को अमेरिका और यूरोप ने इफरात से अपनाया और उस का इस्तेमाल भी किया जिस से आज वे आधुनिक और विकसित देशों में शुमार होते हैं लेकिन भारत इस से 100 साल कतराता रहा. नतीजतन, उस की आज भी गिनती विकासशील और पिछड़े देशों में ही होती है. पूरे देश में धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं हावी थीं. मध्यवर्ग था ही नहीं, केवल उच्चवर्ग और निम्नवर्ग थे.

कुछ लोगों के पास बेतहाशा पैसा था और बाकी कई खानेपीने तक के मुहताज रहते थे. दोनों तरह के लोग धार्मिक गुलामी को ही आखिरी सच मान और स्वीकार बैठे थे. पैसे वाले मालिक भी और गरीब वर्ग के दास या सेवक भी जो किसी भी नई चीज या टैक्नोलौजी को अपनाने से कतराते थे. देशभर के लोग धर्म, जाति, भाषा, गोत्र और रीतिरिवाजों की जकड़न में थे. उन्हें लगता था कि अगर टैक्नोलौजी को अपनाया तो उन का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. वह दौर पूरी तरह से सवर्णों और पंडेपुरोहितों का था जिन के निर्देश भगवान की आवाज सम?ो जाते थे. दीगर ऊंची जाति वालों को भी एहसास था कि अगर टैक्नोलौजी को अपना लिया तो शूद्र यानी छोटी जाति वाले, जो मुफ्त के गुलाम होते थे,

हाथ से निकल जाएंगे. धर्म के ठेकेदार यह कहते लोगों को डराते थे कि जो सात समंदर पार विदेश जाएगा उस का परलोक बिगड़ जाएगा और वह नरक में जाएगा. ऐसे कई खौफ आम लोगों के दिलोदिमाग में बैठाने में इस श्रेष्ठि और पुरोहित वर्ग ने कोई कसर नहीं छोड़ी. एक जमाने में उन का फरमान यह भी था कि नल का पानी मत पियो, रेलगाड़ी में मत बैठो क्योंकि उस में सभी जातियों के लोग सफर करते हैं जिस से छूतअछूत दोनों का धर्म भ्रष्ट होता है. बैलगाड़ी युग और उस की मानसिकता से निकलने में रेलें और बसें आने के बाद भी सालों लग गए.

कहने को भले ही राज अंगरेजों का था लेकिन असल हुकूमत हिंदू पंडेपुजारियों और मुसलिम मौलवियों की ही चलती थी जिन की हर मुमकिन कोशिश, जिसे साजिश कहना बेहतर होगा, यह रहती थी कि अब लोग जातिगत धर्मग्रंथों के हिसाब से व्यवसाय करें और मनुस्मृति व दूसरे धर्मग्रंथों के हुक्म के मुताबिक ही खानपान के तौरतरीके, शादीविवाह और रीतिरिवाजों को मानें और जो ऐसा नहीं करता था उसे तरहतरह से तंग किया जाता था. जुर्माना और सामाजिक बहिष्कार यानी हुक्कापानी बंद कर देना जब आज भी सब से बड़ी सजा मानी जाती है तो उस दौर की तो बात ही कुछ और थी.

टैक्नोलौजी चूंकि इस में बड़ा अड़ंगा साबित हो रही थी, इसलिए उस की बड़े पैमाने पर जानबू?ा कर अनदेखी की जाती रही. आज जो भगवा गैंग भारत के विश्वगुरु बनने का राग आलापा करती है उस का जरिया भी, आधार भी टैक्नोलौजी है जिस के सहारे धर्म और तथाकथित उन्नत आध्यात्म का प्रचार किया जाता है. ये तब भी धर्म और समाज के ठेकेदार थे और आज भी खुद ही टैंडर भरते रहते हैं. इन्होंने सोशल मीडिया को धर्मप्रचार और अंधविश्वास फैलाने का जरिया बना लिया है. जो ठेकेदार हवाई जहाज और रेलों में सफर करने पर प्रवचनों के जरिए दहशत फैलाते थे वही धड़ल्ले से अपनी दुकानें चलाने के लिए इन का इस्तेमाल कर रहे हैं. 18वीं सदी में जब यूरोप में धड़ल्ले से वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे थे, टैक्नोलौजी रफ्तार पकड़ रही थी तब भारत में यही हवन, पूजापाठ और अनुष्ठान हो रहे थे.

आम लोगों को मालूम ही नहीं होने दिया जा रहा था कि यूरोप और अमेरिका टैक्नोलौजी के दम पर कहां से कहां जा पहुंचे हैं और हम कुएं के मेंढक की तरह मेज पर ही बैठे सनातनी पाठ दोहरा रहे हैं. इस पर भी बात न बनी और टैक्नोलौजी देश में दाखिल होने लगी तो आजादी के पहले से ही नया राग हिंदूमुसलिम का छेड़ दिया गया जो दूसरी वजहों से आज नई शक्ल में सामने है. लोग जाति और धर्म की लड़ाई में उल?ो धर्म, संस्कृति और संस्कारों को ही सबकुछ सम?ाते रहे. यह कोशिश नई नहीं है बल्कि बहुत पुराना फार्मूला भगवा गैंग का है. आज विनायक दामोदर सावरकर और गांधीजी की जो चिट्ठियां सार्वजनिक की जा रहीं हैं उन का मकसद पुराने विवादों का नवीनीकरण ही है. लेकिन ये दोनों ही टैक्नोलौजी के विरोधी थे जो वर्णव्यवस्था पर टैक्नोलौजी नाम के मंडराते खतरे को देख और सम?ा रहे थे. वे अंगरेज ही थे जो देश में टैक्नोलौजी लाए, सड़कें बनाईं, रेल की पटरियां बिछाईं,

बिजली के खंबे लगाए और भी जो कुछ किया वह किसी सुबूत का मुहताज नहीं. सावरकर और गांधीजी दोनों वाकई में ब्रिटिश राज से आजादी चाहते थे या नहीं, यह अलग बहस का मुद्दा है लेकिन यह तय है कि वे यह तो सम?ाते थे कि टैक्नोलौजी भारतीय यानी सनातनी सिद्धांतों के चिथड़े उड़ा देगी और ऐसा एक हद तक रुकरुक कर हुआ भी लेकिन एक मुकाम पर आ कर फिर रुक गया है. सियासी तौर पर देखें तो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इस मानसिकता के अपवाद निकले जो टैक्नोलौजी के घनघोर समर्थक थे और उन्होंने हर स्तर पर टैक्नोलौजी को प्रोत्साहन भी दिया था. जो कुछ भी सुधार हुए और लोग आधुनिक हुए उस का श्रेय नेहरू को देना कतई पूर्वाग्रह और अतिशयोक्ति की बात नहीं जो कभी सनातनी धर्मगुरुओं के दबाव में नहीं आए. नेहरू ने बिना किसी विरोध की परवा किए कारखाने लगाए, बांध बनवाए, फैक्ट्रियां स्थापित करवाईं और वैज्ञानिक अनुसंधानों को बढ़ावा दिया जिस से आधुनिक भारत की नींव पड़ी और लोग टैक्नोलौजी को अपनाने लगे. घरघर बिजली पहुंचने लगी, पानी पहुंचने लगा, बसें चलने लगीं, ट्रेनें ज्यादा बढ़ गईं, सैकड़ों नए कारखाने लगे. सभी के लिए टैक्नोलौजी टैक्नोलौजी की यह खूबी थी कि यह बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए होती है जो यह नहीं कहती कि शूद्र सड़कों पर नहीं चल सकता, नल का पानी नहीं पी सकता, बिजली का कनैक्शन नहीं लगवा सकता या फिर रेलों में सफर नहीं कर सकता. हालांकि इस से सनातनी रूढि़वादी और अंधविश्वासी मानसिकता में कोई गौरतलब बदलाव नहीं आया लेकिन वह दरकी जरूर.

जो काम दक्षिण के दलित आंदोलन और सुधारवादी नहीं कर पाए थे वह दूसरे तरीके से टैक्नोलौजी ने कर दिखाया. वंचित कहे जाने वाले दलितों ने पहली बार महसूस किया कि वे जानवर नहीं, आदमी हैं जिन्हें, कहींकहीं ही सही, सवर्णों के बराबर अधिकार मिले हुए हैं. इस के बाद भी आज दलित, आदिवासी और औरतें अगर पिछड़े हुए हैं तो यह उन की ही गलती है जो या तो टैक्नौलोजी का इस्तेमाल नहीं करते या फिर इस का बेजा इस्तेमाल करते वक्त बरबाद करते हैं. वंचितों और शोषितों के बाद टैक्नोलौजी का बड़ा फायदा औरतों का हुआ जिन की जिंदगी धार्मिक बंदिशों ने मुश्किल कर रखी थी, वह खासतौर से व्यक्तिगत तौर पर आसान हुई. 18वीं सदी की औरतें जो मिट्टी के चूल्हे पर लकडि़यां जला कर खाना पकाती थीं वे स्टोव और सिगड़ी से होते हुए रसोईगैस का इस्तेमाल करने लगीं. अब घरघर में एलपीजी है, मिक्सर ग्राइंडर है. चटनी पीसने वाले सिलबट्टे बैलगाड़ी की तरह अतीत की बात हो गए हैं. किचन गैजेट्स की लंबी लिस्ट है जिस के इस्तेमाल पर कोई धार्मिक रोक नहीं है.

पीरियड्स के दिनों में महिलाओं को रसोई में काम नहीं करने दिया जाता था, बरतन नहीं छूने दिया जाता था क्योंकि धर्मग्रंथों के मुताबिक वे इन दिनों अपवित्र और अशुद्ध मानी जाती हैं लेकिन वे इन दिनों मोबाइल फोन चलाएं तो यह नियम उन पर लागू नहीं होता क्योंकि यह टैक्नोलौजी की देन है. वे कभी भी बत्ती, पंखा, एसी, टीवी इस्तेमाल कर सकती हैं. सोच कर ही सिहरन होती है कि 18वीं सदी की महिलाएं हाड़ कंपा देने वाली ठंड में मुंहअंधेरे उठ कर खेतों में और नदी किनारे शौच व स्नान के लिए जाती थीं, नदी या कुएं से पानी भर कर लाती थीं और लौट कर धुएं वाले चूल्हे पर खाना बनाने बैठ जाती थीं, चक्की पर आटा पीसती थीं, मसाले कूटती थीं. कुल जमा वे एक गुलामनुमा मजदूर थीं जिस का एक दूसरा काम हर दूसरे साल एक बच्चा पैदा करना भी होता था. टैक्नोलौजी ने महिलाओं को ऐसी कई दुश्वारियों से नजात दिलाई है, यह ठीक है कि अभी भी बहुतकुछ कमियां हैं जिन में से अधिकतर धार्मिक ही हैं जिन के चलते हालत पूरी तरह उस के हक में नहीं है लेकिन कुछ तो है, यही कम नहीं. इन सहूलियतों से महिलाओं में जो आत्मविश्वास आया उस से वे शिक्षित हुईं,

आत्मनिर्भर बनीं और हर क्षेत्र में पुरुषों को बराबरी से टक्कर दे रही हैं. जाहिर है टैक्नोलौजी से जो मौके उन्हें मिले उन का पूरा फायदा उन्होंने उठाया. टैक्नोलौजी पर सवार पाखंड बहुतकुछ होने के बाद भी कट्टरवादी और परंपरावादी अपनी बेजा हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं. जो अब फिर टैक्नोलौजी के नुकसान और धर्म के फायदे गिनाते रहते हैं. जब यह कहते हैं कि धर्म और संस्कृति का पतन हो रहा है तो वे दरअसल उस टैक्नोलौजी को ही कोस रहे होते हैं जिस के वे खुद आदी हो गए हैं. इन सनातनियों को तय है, अफसोस इस बात का है कि टैक्नोलौजी धर्म की तरह सिर्फ ऊंचे लोगों के लिए क्यों नहीं है, सभी के लिए क्यों है. यह भेदभाव क्यों नहीं करती. जाहिर है इसलिए कि टैक्नोलौजी ऋषिमुनियों की वाणी, यज्ञहवनों और तपस्या से नहीं निकली बल्कि यह प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की मेहनत से उपजी और विकसित हुई है. इस पर किसी का कौपीराइट नहीं है. चालाक ठेकेदारों को टैक्नोलौजी खतरा लगने लगी तो उन्होंने इसे ही पूजना शुरू कर दिया ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध को विष्णु अवतार घोषित किया था. घरघर में देखते ही देखते नई मशीनों और गैजेट्स का पूजापाठ होने लगा, नया टू या फोर व्हीलर घर आने से पहले नजदीक के मंदिर में ले जाया जाने लगा, दशहरे के दिन घरघर वाहन पूजन ने जोर पकड़ा. अब तो हाल यह है कि शोरूम वाले ही पंडे का इंतजाम करने लगे हैं.

टू या फोर व्हीलर की टैक्नोलौजी तो आम लोगों ने कभी सम?ा नहीं पर उस से भी पैसा कमाने का तरीका पुरोहितों ने निकाल कर टैक्नोलौजी को भी धता बता दिया. सरकारी तौर पर टैक्नोलौजी के साथ सब से क्रूर और फूहड़ मजाक 8 अक्तूबर, 2019 को भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने फ्रांस में किया था जब लड़ाकू विमान राफेल की रिसीविंग के वक्त उन्होंने स्वास्तिक और ॐ का निशान बनाते उस के पहियों के नीचे नीबू रखे थे. दुनियाभर में इस टोटके का मजाक बना था लेकिन सनातनियों को इस में फख्र महसूस हो रहा था. यही दिमागी दिवालियापन उस वक्त भी दिखता है जब हमारे मंत्री रेल इंजनों की पूजा करते नजर आते हैं. इस पर मुट्ठीभर सवर्ण ताली पीट देते हैं. दुनिया के वैज्ञानिकों ने चांद और मंगल जैसे ग्रहों के रहस्य सुल?ा दिए हैं लेकिन हम अभी भी उन्हें देवता मान पूज रहे हैं. इन सवर्णों को इकलौती सुकून देने वाली बात यह भी है कि हिंदू राष्ट्र के मुद्दे पर सरकार इन के साथ है जो वर्णव्यवस्था को थोपने और धर्म आधारित राष्ट्र बनाने को आमादा है. इस के लिए भी टैक्नोलौजी को ही हथियार बनाया जा रहा है. सोशल मीडिया पर अलसुबह से राम, कृष्ण और शंकर की तसवीरों के साथ भविष्यफल, वैदिक और दैनिक पंचांग प्रवाहित होना शुरू हो जाते हैं जिस से लोगों की मानसिकता 200 साल पहले की सी ही रहे. इस तबके को यह सम?ाने की न तो फुरसत है और न ही जरूरत कि अफगानिस्तान का हश्र क्या हो रहा है जहां हर कोई मजहबी दहशत के साए में जी रहा है. औरतें फिर बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हैं और गरीबी आम लोगों की नियति बन चुकी है.

तमाम पैसा तालिबानी समेटते जा रहे हैं. यानी धर्म आधारित राष्ट्र की परिकल्पना ‘आ बैल मु?ो मार’ वाली कहावत को चरितार्थ करती हुई है. हमारे देश का पैसा चंद मुट्ठियों में सिमटता जा रहा है. फर्क इतना है कि यहां खुलेआम लूटखसोट नहीं है बल्कि इस के लिए भी टैक्नोलौजी का ही सहारा लिया जा रहा है. जिन 8-10 फीसदी लोगों के धर्म के नाम पर दोनों हाथों में लड्डू थे, जो कंबल ओढ़ कर घी पीते थे उन के हाथ से बहुतकुछ छूट गया है और जो बच गया है उसे बढ़ाने के लिए ये लोग दुनियाभर के टोटके किया करते हैं. जरूरत तो इस बात की है कि लोग इन षड्यंत्रों को सम?ाते टैक्नोलौजी का उपयोग ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने व अपना जीवन स्तर सुधारने में करें. खुशहाली का इकलौता रास्ता यही है, कोई दूसरा नहीं.

क्षतिपूर्ति : शरद बाबू को किस बात की चिंता सता रही थी

हरनाम सिंह की जलती हुई चिता देख कर शरद बाबू का कलेजा मुंह को आ रहा था. शरद बाबू को हरनाम के मरने का दुख इस बात से नहीं हो रहा था कि उन का प्यारा दोस्त अब इस दुनिया में नहीं था बल्कि इस बात की चिंता उन्हें खाए जा रही थी कि हरनाम को 2 लाख रुपए शरद बाबू ने अपने बैंक के खाते से निकाल कर दिए थे और जिस की भनक न तो शरद बाबू की पत्नी को थी और न ही हरनाम के घरपरिवार वालों को, उन रुपयों की वापसी के सारे दरवाजे अब बंद हो चुके थे.

हरनाम का एक ही बेटा था और वह भी 10-12 साल का. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे, और प्रीतो भाभी, हरनाम की जवान पत्नी, वह तो गश खा कर मूर्छित पड़ी थी. शरद बाबू ने सोचा कि उन्हें तो अपने 2 लाख रुपयों की पड़ी है, इस बेचारी का तो सारा जहान ही लुट गया है.

मन ही मन शरद बाबू हिसाब लगाने लगे कि 2 लाख रुपयों की भरपाई कैसे कर पाएंगे. चोर खाते से साल में 30-40 हजार रुपए भी एक तरफ रख पाए तो भी कहीं 7-8 साल में 2 लाख रुपए वापस उसी खाते में जमा हो पाएंगे. हरनाम को अगर उन्होंने दुकान के खाते से रुपए दिए होते तो आज उन्हें इतना संताप न झेलना पड़ता. उस समय वे हरनाम की बातों में आ गए थे.

हरनाम ने कहा था कि बस, एकाध साल का चक्कर है. कारोबार तनिक डांवांडोल है. अगले साल तक यह ठीकठाक हो जाएगा. जब सरकार बदलेगी और अफसरों के हाथों में और पैसा खर्च करने के अधिकार आ जाएंगे तब नया माल भी उठेगा और साथ में पुराने डूबे हुए पैसे भी वसूल हो जाएंगे.

शरद बाबू अच्छीभली लगीलगाई 10 साल की सरकारी नौकरी छोड़ कर पुस्तक प्रकाशन के इस संघर्षपूर्ण धंधे में कूद पड़े थे. उन की पत्नी का मायका काफी समृद्ध था. पत्नी के भाई मर्चेंट नेवी में कप्तान थे. बहुत मोटी तनख्वाह पाते थे. बस शरद बाबू आ गए अपनी पत्नी की बातों में. नौकरी छोड़ने के एवज में 10 लाख रुपए मिले और 5 लाख रुपए उन के सालेश्री ने दे दिए यह कह कर कि वे खुद कभी वापस नहीं मांगेंगे. अगर कभी 10-20 साल में शरद बाबू संपन्न हों तो लौटा दें, यह उन पर निर्भर करता है.

शरद बाबू को पुस्तक प्रकाशन का अच्छा अनुभव था. राज्य साहित्य अकादमी का उन का दफ्तर हर साल हजारों किताबें छापता था. जहां दूसरे लोग अपनी सीट पर बैठेबैठे ही लाखों रुपए की हेराफेरी कर लेते वहां शरद बाबू एकदम अनाड़ी थे. दूसरे लोग कागज की खरीद में घपला कर लेते तो कहीं दुकानों को कमीशन देने के मामले में हेरफेर कर लेते, कहीं किताबें लिखवाने के लिए ठेका देने के घालमेल में लंबा हाथ मार लेते. सौ तरीके थे दो नंबर का पैसा बनाने के, मगर शरद बाबू के बस में नहीं था कि किसी को रिश्वत के लिए हुक कर सकें. बकौल उन की पत्नी, शरद बाबू शुरू से ही मूर्ख रहे इस मामले में. पैसा बनाने के बजाय उन्होंने लोगों को अपना दुश्मन बना लिया था. वे अनजाने में ही दफ्तर के भ्रष्टाचार विरोधी खेमे के अगुआ बन बैठे और अब रिश्वत मिलने के सारे दरवाजे उन्होंने खुद ही बंद कर लिए थे.

मन ही मन शरद बाबू चाहते थे कि गुप्त तरीके से दो नंबर का पैसा उन्हें भी मिल जाए मगर सब के सामने उन्होंने अपनी साख ही ऐसी बना ली थी कि अब ठेकेदार व होलसेल वाले उन्हें कुछ औफर करते हुए डरते थे कि कहीं वे शरद बाबू को खुश करतेकरते रिश्वत देने के जुर्म में ही न धर लिए जाएं या आगे का धंधा ही चौपट कर बैठें.

पत्नी बिजनैस माइंडैड थी. शरद बाबू दफ्तर की हरेक बात उस से आ कर डिस्कस करते थे. पत्नी ने शरद बाबू को रिश्वत ऐंठने के हजार टोटके समझाए मगर शरद बाबू जब भी किसी से दो नंबर का पैसा मांगने के लिए मुंह खोलते, उन के अंदर का यूनियनिस्ट जाग उठता और वे इधरउधर की झक मारने लगते. अब यह सब छोड़ कर सलाह की गई कि शरद बाबू अपना धंधा खोलें. 10-12 लाख रुपए की पूंजी से उन दिनों कोई भी गधा आंखें मींच कर यह काम कर सकता था. 5 लाख रुपए उन की पत्नी ने भाई से दिलवा दिए. इन 5 लाख रुपयों को शरद बाबू ने बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करवा दिए. ब्याज दर ही इतनी ज्यादा थी कि 5 साल में रकम डबल हो जाती थी.

शरद बाबू के अनुभव और लगन से किताबें छापने का धंधा खूब चल निकला. हर जगह उन की ईमानदारी के झंडे तो पहले ही गड़े हुए थे. घर की आर्थिक हालत भी अच्छी थी. 5 सालों में ही शरद बाबू ने 10 लाख को 50 लाख में बदल दिया था. पूरे शहर में उन का नाम था. अब हर प्रकार की किताबें छापने लगे थे वे. प्रैस व राजनीतिक सर्कल में खूब नाम होने लगा था.

हरनाम शरद बाबू का लंगोटिया यार था. दरअसल, उसे भी इस धंधे में शरद बाबू ने ही घसीटा था. हरनाम की अच्छीभली मोटर पार्ट्स की दुकान थी. शरद बाबू की गिनती जब से शहर के इज्जतदार लोगों में होने लगी थी, बहुत से पुराने दोस्त, जो शरद बाबू की सरकारी नौकरी के वक्त उन से कन्नी काट गए थे, अब फिर से उन के हमनिवाला व हमखयाल बन गए थे.

हरनाम का मोटर पार्ट्स का धंधा डांवांडोल था. बिजनैस में आदमी एक ही काम से आजिज आ जाता है. दूर के ढोल उसे बहुत सुहावने लगते हैं. इधर, मोटर मार्केट में अनेक दुकानें खुल गई थीं, कंपीटिशन बढ़ गया था और लाभ का मार्जिन कम रह गया था. हरनाम के दिमाग में साहित्यिक कीड़ा हलचल करता रहता था. शरद बाबू से फिर मेलजोल बढ़ा तो इस नामुराद कीड़े ने अपनी हरकत और जोरों से करनी शुरू कर दी थी.

हरनाम ने अपनी मोटर पार्ट्स की दुकान औनेपौने दामों में अगलबगल की और अपनी रिहायशी कोठी में ही एक आधुनिक प्रैस लगवा ली. शुरू में शरद बाबू के कारण उसे काम अच्छा मिला मगर फिर धीरेधीरे उस की पूंजी उधारी में फंसने लगी. सरकारी अफसरों ने रिश्वत ले कर खूब मोटे और्डर तो दिला दिए मगर सरकारी दफ्तरों से बिलों का समय पर भुगतान न होने के कारण हरनाम मुश्किलों में फंसता चला गया.

हरनाम पिछले महीने शरद बाबू से क्लब में मिला तो उन से 2 लाख रुपयों की मांग कर बैठा. शरद बाबू ने कहा कि उन के पैसों का सारा हिसाबकिताब उन की पत्नी देखती है. हरनाम तो गिड़गिड़ाने लगा कि उसे कागज की बिल्टी छुड़ानी है वरना 50 हजार रुपए का और भी नुकसान हो जाएगा. खैर, किसी तरह शरद बाबू ने अपने व्यक्तिगत खाते से रकम निकाल कर दे दी.

किसे पता था कि हरनाम इतनी जल्दी इस दुनिया से चला जाएगा. सोएसोए ही चल बसा. शायद दिल का दौरा था या ब्रेन हैमरेज. आज श्मशान में खड़े लोग हरनाम की तारीफ कर रहे थे कि वह बहुत ही भला आदमी था. इतनी आसान और सुगम मौत तो कम ही लोगों को नसीब होती है.

शरद बाबू सोच रहे थे कि यह नेक बंदा तो अब नहीं रहा मगर उस के साथ नेकी कर के जो 2 लाख रुपए उन्होंने लगभग गंवा दिए हैं, उन की भरपाई कैसे होगी. हरनाम की विधवा तो पहले ही कर्ज के बोझ से दबी होगी.

हरनाम की चिता की लपटें अब और भी तेज हो गई थीं. जब सब लोगों के वहां से जाने का समय आया तो चिता के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए हरेक को एकएक चंदन की लकड़ी का टुकड़ा पकड़ा दिया गया. मंत्रों के उच्चारण के साथ सब को वह टुकड़ा चिता का चक्कर लगाते हुए जलती हुई अग्नि में फेंकना था. शरद बाबू जब चंदन की लकड़ी का टुकड़ा जलती हुई चिता में फेंकने के लिए आगे बढ़े तो एक अनोखा दृश्य उन के सामने आया.

उन्होंने देखा कि चिता में जलती हुई एक मोटी सी लकड़ी के अंतिम सिरे पर सैकड़ों मोटीमोटी काली चींटियां अपनी जान बचाने के लिए प्रयासरत थीं और चिता की प्रचंड आग से बाहर आने के लिए भागमभाग वाली स्थिति में थीं.

एक ठंडी आह शरद बाबू के सीने से निकली. क्या उन के दोस्त हरनाम ने इतने अधिक पाप किए थे कि चिता जलाने के लिए घुन लगी लकड़ी ही नसीब हुई. उन्होंने सोचा कि शायद वह आदमी ही खोटा था जो मरतेमरते उन्हें भी 2 लाख रुपए का चूना लगा गया.

घर आ कर सारी रात सो नहीं पाए शरद बाबू. सुबह अपनी दुकान पर न जा कर वे टिंबर बाजार पहुंच गए. वहां से 3 क्ंिवटल सूखी चंदन की लकड़ी तुलवा कर उन्होंने दुकान के बेसमैंट में रखवा दी और वसीयत करवा दी कि उन के मरने के बाद उन्हें इन्हीं लकडि़यों की चिता दी जाए.

शरद बाबू की पत्नी ने यह सब सुना तो आपे से बाहर हो गईं कि मरें आप के दुश्मन. और ये 3 लाख रुपए की चंदन की लकड़ी खरीदने का हक उन्हें किस ने दिया. शरद बाबू ने हरनाम की चिता में जलती लकड़ी से लिपटती चींटियों का सारा किस्सा पत्नी को सुना दिया और हरनाम द्वारा लिया गया उधार भी बता दिया. पत्नी थोड़ी नाराज हुईं मगर अब क्या किया जा सकता है.

हरनाम को मरे 5 साल हो गए. शरद बाबू अब शहर के मेयर हो गए थे. प्रकाशन का धंधा बहुत अच्छा चल रहा था. स्टोर में रखी चंदन की लकड़ी कब की भूल चुके थे. अब तो उन की नजर सांसद के चुनावों पर थी. एमपी की सीट के लिए पार्टी का टिकट मिलना लगभग तय हो चुका था. होता भी कैसे न, टिकट खरीदने के लिए 2 करोड़ रुपए की राशि पार्टी कार्यालय में पहुंच चुकी थी. कोई दूसरा इतनी बड़ी रकम देने वाला नहीं था.

चुनाव प्रचार के दौरान शरद बाबू एक शाम अपने चुनाव क्षेत्र से लौट रहे थे कि उन का मोबाइल बज उठा. पत्नी का फोन था.

पत्नी ने बताया कि सुबह ही नगर के बड़े सेठ घनश्याम दास की मौत हो गई है. टिंबर बाजार से रामा वुड्स कंपनी का फोन आया था कि सेठ के अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी कम पड़ रही है. वैसे भी जब से चंदन की तस्करी पर प्रतिबंध लगा है तब से यह महंगी और दुर्लभ होती जा रही है.

शरद बाबू की पत्नी ने उन्हें बताया कि मैं ने दुकान के स्टोर में पड़ी चंदन की लकड़ी बहुत अच्छे दामों में निकाल दी है.

पहले तो शरद बाबू को याद ही नहीं आया कि गोदाम में चंदन की लकड़ी पड़ी है. फिर उन्हें अपने दोस्त हरनाम की मौत याद आ गई और उन की चिता की लकड़ी पर रेंगती चींटियां देख कर भावुक हो कर अपने लिए चंदन की लकड़ी खरीदने का सारा मामला याद आ गया.

उधर, शरद बाबू की पत्नी कह रही थीं, ‘‘10 लाख का मुनाफा दे गई है यह चंदन की लकड़ी. यह समझ लो कि आप के दोस्त हरनाम ने अपने सारे पैसे सूद समेत लौटा दिए हैं.’’

शरद बाबू की आंखें पहली बार अपने दोस्त हरनाम की याद में छलछला उठीं.

YRKKH: अभिनव से शादी से रचाएगी अक्षरा, अभिमन्यु को लगेगा झटका

टीवी के पॉपुलर सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इन दिनों काफी ज्यादा विवाद चल रहा है. शो के मेकर्स ने अक्षरा अभिमन्यु को अळग करके फैंस का दिल तोड़ दिया है. तो वहीं नील की मौत के बाद से आरोही बिल्कुल अकेली हो गई है.

लेकिन इस सीरियल का ट्विस्ट यहीं खत्म नहीं होता है, इस सीरियल में ढ़ेर सारे ट्विस्ट आने वाले हैं. ये रिश्ता क्या कहलाता है सीरियल में अक्षरा अभिमन्यु से अलग होने के बाद से पठानकोट चली जाती है. जहां पर जाकर वह नए सीरे से जीने की कोशिश करती है.

यहां जाने के बाद से अक्षरा की मुलाकात अभिनव से होती है, अभिनव अक्षरा की खूब मदद करता है और अभिनव अक्षरा को नया जॉब दिलवाता है. इन सभी के बीच अक्षरा की मुलाकात उसके दोस्त से होती है. गोयनका हाउस आकर बडे पापा बताते हैं कि अक्षु घर नहीं आई है उसने घर आने से मना कर दिया है.

बड़े पापा की यह बात सुनकर अभिमन्यु एकदम से टूट जाता है, आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि अक्षरा घर वालों को जोरदार झटका देती है. अक्षरा अपने परिवार वालों को कहेगी कि मैं शादी कर ली हूं. जिसके बाद से सभी लोग हैरान हो जाते हैं कि ये क्या कर लिया. अभिमन्यु के होश उड़ जाते हैं इस खबर को जानने के बाद से.

वहीं नील की मौत के बाद से अक्षरा को काफी ज्यादा टर्चर किया गया था.

Bigg Boss 16 : अब्दु रोजिक बने घर के नए कैप्टन, साजिद और प्रियंका में हुई लड़ाई

बिग बॉस 16 में इन दिनों लगातार कुछ न कुछ नया हो रहा है. इस सीजन के 13 हफ्ते हो चुके हैं और हर दिन कुछ न कुछ नया हो रहा है. अब हर किसी कि नजर फिनाले पर हैं. सबलोग बस ट्रॉफी लेने की चाहत में लगे हुए हैं.

इसी वजह से हर कंटेस्टेंट लड़ता झगड़ता नजर आ रहा है, वहीं मेकर्स भी शो में नई- नई चीजों को एडकर रहे हैं. ताकी दर्शक भी लगातार इस शो को देखते रहेें. बीते हफ्ते एमसी स्टेन को कैप्टन बनाया गया था. अब उनकी कैप्टेंसी खत् हो गई है. अब्दु रोजिक को नया कैप्टन बनाया गया है.

अब इस हफ्ते अब्दु रोजिक नए कैप्टन बने हुए हैं, दरअसल घर में एक कैप्टेंसी टॉस्क हुआ है जिसमें साजिद खान कैप्टन बने हुए थें. इस बार अब्दु रोजिक को पूरी प्लानिंग के साथ साजिद खान ने कैप्टन बनाया है. प्रियंका और साजिद भीड़ जाते हैं, जिसके बाद से साजिद खान एक गेम करते हैं, और उसमें प्रियंका हार जाती हैं और अब्दु रोजिक जीत जाते हैं.

शो में दिखाया गया है कि खूब चिल्लम चिला हो रही है. अब प्रियंका , साजिद और टीना आपस में खूब लड़ रहे हैं. खैर देखते हैं कि अब्दु रोजिक अफनी कैप्टेंसी के टॉस्क को कैसे पूरा करते हैं.

मनचला-भाग 1 : किस वजह से हुआ कपिल का मन बेकाबू

इंद्राणी की मुसकान पर मुसकराते हुए कपिल जब लालबत्ती पर रुका तो वह कुछ गुनगुना रहा था. उम्र 50 भी हो तो क्या हुआ, मर्द हमेशा खुद को जवान महसूस करता है. कुछ सप्ताह पहले ही उस की पदोन्नति भी हुई थी. सबकुछ रंगीन था. ‘‘सर,’’ सहसा एक मीठे स्वर ने उस का ध्यान आकर्षित किया.

कपिल ने देखा, बिंदास और एक स्मार्ट लड़की उसे देख रही है. उस की छवि और अदा में अच्छा आकर्षण था, अंदाजन वह 20-22 वर्ष की होगी. ‘‘सर, क्या आप मुझे लिफ्ट देंगे?’’ लड़की ने पूछा.

लड़की अच्छी लगी और फिर कपिल का मूड भी अच्छा था, क्योंकि चलते समय ही उस का मन खुश हो गया था. उस समय वह अच्छे मूड में था क्योंकि इंद्राणी की मुसकान ने उस की मुसकान को दोहरा कर दिया था. मनपसंद नाश्ता हो और घर की मुरगी मादक मुसकान फेंक कर विदा करे तो हर मौसम रोमानी लगता है. 45 वर्ष की उम्र में भी इंद्राणी उर्फ नूमा खुद को इतना चुस्तदुरुस्त रखती कि कोई आसानी से

भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि वह 2 जवान बच्चों की मां है. जब वह अपनी बेटी के साथ होती तो अकसर लोग दोनों को किसी सौंदर्य साबुन के विज्ञापन का मौडल कहते.

अत: उस ने पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’ ‘‘वैसे तो मैं साऊथ दिल्ली जा रही हूं,’’ लड़की ने अपनी मीठी मुसकान का लाभ उठाते हुए कहा, ‘‘आप मुझे रास्ते में कहीं भी उतार दीजिए.’’

‘‘बैठो,’’ कपिल हंसा, ‘‘पर मुझे ब्लैकमेल तो नहीं करोगी?’’ लड़की हंस पड़ी. उस की हंसी में मधुर खनखनाहट थी. उस ने ध्यान से कपिल को देखा, मानो उस के चरित्र का मूल्यांकन कर रही हो. फिर बैठने के लिए पीछे का दरवाजा खोलने लगी.

 

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