टैक्नौलोजी ने जिंदगी कितनी आसान और सुविधाजनक कर दी है, यह चारों तरफ दिखता है लेकिन अफसोस तब होता है जब टैक्नोलौजी को भी भगवान की देन मानते हुए इस का श्रेय भी उसे ही दिए जाने की साजिश धर्म के ठेकेदार करते हैं. क्या है यह षड्यंत्रकारी मानसिकता? ज्यादा नहीं 200 साल पहले तक जीवन ज्यादा महंगा और दुष्कर था.
बिजली, पानी और आज जैसी चमचमाती पक्की सड़कें सपने जैसी बातें हुआ करती थीं. कहने को तो चारों तरफ पानी था लेकिन उसे लेने नदी, कुओं और तालाबों तक जाना पड़ता था. आम लोगों के दिन का 8वां हिस्सा तो पानी ढोने में ही निकल जाता था. सहूलियत और सम्मानजनक तरीके से पेट भर पाना मुश्किल काम था जिस की अपनी वजहें भी थीं. तब मौजूदा साधन भी कुछ सीमित लोगों के लिए हुआ करते थे. चूंकि टैक्नोलौजी यानी तकनीकी न के बराबर थी, इसलिए समाज पर रसूखदारों का कब्जा और दबदबा था. इस तथ्य को अब सम?ाना आसान नहीं तो आज बहुत ज्यादा मुश्किल भी नहीं है जिसे मध्य प्रदेश के शहर सागर के आलोक की बातों से सम?ा जा सकता है. 65 वर्षीय आलोक सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हैं और पढ़नेलिखने के खासे शौकीन हैं. उन के दादाजी की बरात अब से कोई 110-115 साल पहले सागर से विदिशा गई थी जिस की चर्चा सालोंसाल चली थी और उन्होंने भी सुनी थी. संपन्न कायस्थ होने के नाते उस दौर के हिसाब से यह शादी धूमधाम से हुई थी.
उस वक्त में धूमधाम का एक बड़ा मतलब होता था बरात का बैलगाडि़यों से जाना. 6 बैलगाडि़यों में कोई 36 लोग सवार हो कर विदिशा के लिए रवाना हुए थे. यह बरात 5 दिन में 160 किलोमीटर का सफर तय कर मंजिल तक पहुंची थी. एक बैलगाड़ी में बरातियों के रास्तेभर का राशन, चूल्हाचक्की, बरतन, कपड़े, बिस्तर सहित अन्य सामान रखा गया था. उस वक्त में बैलगाड़ी भी गांव या शहरों में हर किसी के पास नहीं होती थी बल्कि संपन्न किसानों के पास हुआ करती थी जो ऊंची जाति वाले ही हुआ करते थे. इस बरात के लिए 2 बैलगाडि़यां रिश्तेदारों से ली गई थीं और 2 जमींदार साहब से अनाज के बदले किराए पर ली गई थीं.
बैलगाडि़यां एक दिन में औसतन 40 किलोमीटर की दूरी तय कर पाती थीं क्योंकि हर 12-15 किलोमीटर चलने के बाद सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था. इस में भी दिन के खाने के लिए कोई 2 घंटे का ब्रेक होता था. सुस्ताने की जरूरत आदमियों से ज्यादा बैलों को होती थी जो कच्चे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर 6 लोगों का वजन ढोते हांफने लगते थे. बीचबीच के ये पड़ाव किसी भी खेत में डाले जाते थे जबकि रात के विश्राम के लिए किसी बड़े से गांव के बाहर मंदिर में या खुले मैदान में डाले जाते थे जहां से नदी, तालाब या कुआं नजदीक होते थे. नहानेधोने और शौचादि की सहूलियत के लिए खुले मैदान की अनिवार्यता होती थी. महंगा था वह पिछड़ापन इस तरह का सफर कहनेसुनने में रोमांचक लग सकता है लेकिन वास्तव में परेशानियों और जोखिमों से भरा होता था.
लुटेरे, उचक्कों के साथसाथ हिंसक जानवरों का खतरा बना रहता था जिन से हिफाजत के लिए कुल्हाड़ी, लठ और फरसा, तलवार जैसे परंपरागत हथियार ले जाए जाते थे. रास्ते में कोई बीमार पड़ जाए तो मुसीबत और बढ़ जाती थी. 2 बैल एक्स्ट्रा रखे जाते थे ठीक वैसे ही जैसे आजकल कारों में स्टैपनी होती है या लंबी दूरी की बसों में 2 ड्राइवर रखे जाते हैं. यह या इस तरह की यात्राएं सस्ती होती थीं, यह सोचना बेमानी है. हकीकत में ये बहुत महंगी होती थीं. एक आदमी के 10-12 दिन के खानेपीने का खर्च आज के 500 रुपए रोज से कम नहीं आंका जा सकता. इस से आधा बैलों के चारे वगैरह पर खर्च होता था. यानी सिर्फ खानेपीने पर ही एक लाख रुपए के लगभग खर्च हो जाते थे. ऊपर से 12 दिन आनेजाने के जाया होते थे जिन में कोई कुछ काम नहीं करता था. काम करने के लिए छोटी जाति के दोचार लोग साथ रखे जाते थे जो वास्तव में मजदूर होते थे. इन लोगों को बैलगाड़ी के अंदर बराबरी से बैठने की इजाजत नहीं होती थी बल्कि ये लोग उस पर बाहर की तरफ निकले पटिए पर बैठते थे. इन के काम कपड़े धोना, बरतन साफ करना, मालिश करना, बिस्तर लगाना व समेटना और कई बार बैलगाड़ी के आगे जा कर फावड़े से रास्ता ठीक करने जैसे होते थे.
यात्रा खत्म होने के बाद कुछ नकद अनाज और कपड़े वगैरह बतौर मजदूरी और बख्शिश दिए जाते थे. अब सागर से विदिशा इत्मीनान से 5 घंटे से भी कम वक्त में ट्रेन या सड़क रास्ते से पहुंचा जा सकता है वह भी बिना किसी असुविधा या सांपबिच्छुओं के डर के. आलोक खुद यकीन नहीं कर पाते दादाजी की बरात यात्रा उन्हें सपना सी लगती है. हालांकि वे खुद भी बदलते वक्त और टैक्नोलौजी से सरल हुई जिंदगी और वक्त के गवाह हैं. अब बड़ी व चौड़ी सड़कें हैं, ट्रेनें हैं, बिजली है और वह सबकुछ है जो अब से डेढ़दोसौ साल पहले होने की कल्पना भी कोई नहीं करता था. लेकिन हैरानी की एक और बात खर्च की है. आज ट्रेन से 40 लोग उस से बहुत कम पैसों में 200 किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं जितने में 200 साल पहले करते थे. सागर से विदिशा का स्लीपर से किराया महज 150 रुपए और थर्ड एसी में 500 रुपए है. यह सिर्फ टैक्नोलौजी के चलते मुमकिन हुआ है कि लोगों की 5 दिन की यात्रा महज 5 घंटे में संपन्न हो पा रही है, वह भी इतनी सहूलियत से कि इस के और ज्यादा आसान होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन जिस तेजी से तेज गति की ट्रेनें, बसें और 6 या 8 लेन वाली सड़कें बन रही हैं उन्हें देख लगता है कि आने वाले कल में यह दूरी 2 घंटे में भी तय की जा सकती है. ऐसे बदली जिंदगी 18वीं सदी से विज्ञान ने पैर पसारने शुरू किए थे. यह सिलसिला अभी तक जारी है.
इस सदी की शुरुआत में स्टीम इंजिन का, सार्वजनिक कह लें या व्यावसायिक, इस्तेमाल शुरू हुआ तो देखते ही देखते दुनिया के रंगढंग बदलने लगे. कुछ सालों बाद ही एल्युमिनियम चलन में आया. साल 1829 में पहली इलैक्ट्रिक मोटर बनी और फिर 1844 में टैलीग्राफ के चलन ने आदमी के पैरों में मानो पंख लगा दिए. 1878 में पहले टैलीफोन एक्सचेंज के वजूद में आने के बाद तो कुछ भी मुश्किल नहीं रहा. यह सदी पूरी तरह वैज्ञानिक क्रांति वाली साबित हुई. रेल की पटरियां दुनियाभर में बिछने लगीं, सड़कें इफरात से बनने लगीं जिस से आवागमन आसान हो गया. संचार माध्यमों ने भी दूरियों को कम किया. इसी दौरान व्यापार भी आसान हुआ और लोग एक से दूसरे देश आनेजाने लगे जिस से आयातनिर्यात बढ़ा. बिजली की उपलब्धता आम जिंदगी की एक बड़ी जरूरत बन गई. इस के बगैर जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती. इस टैक्नोलौजी ने लोगों का रहनसहन बदला, बातचीत करने का तरीका भी बदला. और तो और सोचने का भी तरीका बदल डाला. हर घर में बिजली पहुंच गई है, पानी पहुंच गया है, फिर चाहे वह अमीर का हो या गरीब का. हालत तो यह है कि हर चीज एक क्लिक पर मौजूद है, खानापीना, बैंकिंग और तमाम तरह की बुकिंग भी घरबैठे मुमकिन हैं.
बोतल बंद पानी और पैकेट वाले दूध के आदी होते जा रहे लोगों का सामना अब घर से बाहर निकलते ही मवेशियों द्वारा फैलाई दुर्गंध से नहीं होता. जाहिर है टैक्नोलौजी ने हर तरह की गंद से भी बचाने में अहम रोल निभाया है. नएनए आविष्कार, मशीनें और उपकरण रोज जिंदगी को बदलते रहे, यह बात दूसरी है. लेकिन भारत में अभी भी बदलने को बहुतकुछ बाकी है. अगड़ों से पिछड़े 18वीं सदी में टैक्नोलौजी को अमेरिका और यूरोप ने इफरात से अपनाया और उस का इस्तेमाल भी किया जिस से आज वे आधुनिक और विकसित देशों में शुमार होते हैं लेकिन भारत इस से 100 साल कतराता रहा. नतीजतन, उस की आज भी गिनती विकासशील और पिछड़े देशों में ही होती है. पूरे देश में धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं हावी थीं. मध्यवर्ग था ही नहीं, केवल उच्चवर्ग और निम्नवर्ग थे.
कुछ लोगों के पास बेतहाशा पैसा था और बाकी कई खानेपीने तक के मुहताज रहते थे. दोनों तरह के लोग धार्मिक गुलामी को ही आखिरी सच मान और स्वीकार बैठे थे. पैसे वाले मालिक भी और गरीब वर्ग के दास या सेवक भी जो किसी भी नई चीज या टैक्नोलौजी को अपनाने से कतराते थे. देशभर के लोग धर्म, जाति, भाषा, गोत्र और रीतिरिवाजों की जकड़न में थे. उन्हें लगता था कि अगर टैक्नोलौजी को अपनाया तो उन का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. वह दौर पूरी तरह से सवर्णों और पंडेपुरोहितों का था जिन के निर्देश भगवान की आवाज सम?ो जाते थे. दीगर ऊंची जाति वालों को भी एहसास था कि अगर टैक्नोलौजी को अपना लिया तो शूद्र यानी छोटी जाति वाले, जो मुफ्त के गुलाम होते थे,
हाथ से निकल जाएंगे. धर्म के ठेकेदार यह कहते लोगों को डराते थे कि जो सात समंदर पार विदेश जाएगा उस का परलोक बिगड़ जाएगा और वह नरक में जाएगा. ऐसे कई खौफ आम लोगों के दिलोदिमाग में बैठाने में इस श्रेष्ठि और पुरोहित वर्ग ने कोई कसर नहीं छोड़ी. एक जमाने में उन का फरमान यह भी था कि नल का पानी मत पियो, रेलगाड़ी में मत बैठो क्योंकि उस में सभी जातियों के लोग सफर करते हैं जिस से छूतअछूत दोनों का धर्म भ्रष्ट होता है. बैलगाड़ी युग और उस की मानसिकता से निकलने में रेलें और बसें आने के बाद भी सालों लग गए.
कहने को भले ही राज अंगरेजों का था लेकिन असल हुकूमत हिंदू पंडेपुजारियों और मुसलिम मौलवियों की ही चलती थी जिन की हर मुमकिन कोशिश, जिसे साजिश कहना बेहतर होगा, यह रहती थी कि अब लोग जातिगत धर्मग्रंथों के हिसाब से व्यवसाय करें और मनुस्मृति व दूसरे धर्मग्रंथों के हुक्म के मुताबिक ही खानपान के तौरतरीके, शादीविवाह और रीतिरिवाजों को मानें और जो ऐसा नहीं करता था उसे तरहतरह से तंग किया जाता था. जुर्माना और सामाजिक बहिष्कार यानी हुक्कापानी बंद कर देना जब आज भी सब से बड़ी सजा मानी जाती है तो उस दौर की तो बात ही कुछ और थी.
टैक्नोलौजी चूंकि इस में बड़ा अड़ंगा साबित हो रही थी, इसलिए उस की बड़े पैमाने पर जानबू?ा कर अनदेखी की जाती रही. आज जो भगवा गैंग भारत के विश्वगुरु बनने का राग आलापा करती है उस का जरिया भी, आधार भी टैक्नोलौजी है जिस के सहारे धर्म और तथाकथित उन्नत आध्यात्म का प्रचार किया जाता है. ये तब भी धर्म और समाज के ठेकेदार थे और आज भी खुद ही टैंडर भरते रहते हैं. इन्होंने सोशल मीडिया को धर्मप्रचार और अंधविश्वास फैलाने का जरिया बना लिया है. जो ठेकेदार हवाई जहाज और रेलों में सफर करने पर प्रवचनों के जरिए दहशत फैलाते थे वही धड़ल्ले से अपनी दुकानें चलाने के लिए इन का इस्तेमाल कर रहे हैं. 18वीं सदी में जब यूरोप में धड़ल्ले से वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे थे, टैक्नोलौजी रफ्तार पकड़ रही थी तब भारत में यही हवन, पूजापाठ और अनुष्ठान हो रहे थे.
आम लोगों को मालूम ही नहीं होने दिया जा रहा था कि यूरोप और अमेरिका टैक्नोलौजी के दम पर कहां से कहां जा पहुंचे हैं और हम कुएं के मेंढक की तरह मेज पर ही बैठे सनातनी पाठ दोहरा रहे हैं. इस पर भी बात न बनी और टैक्नोलौजी देश में दाखिल होने लगी तो आजादी के पहले से ही नया राग हिंदूमुसलिम का छेड़ दिया गया जो दूसरी वजहों से आज नई शक्ल में सामने है. लोग जाति और धर्म की लड़ाई में उल?ो धर्म, संस्कृति और संस्कारों को ही सबकुछ सम?ाते रहे. यह कोशिश नई नहीं है बल्कि बहुत पुराना फार्मूला भगवा गैंग का है. आज विनायक दामोदर सावरकर और गांधीजी की जो चिट्ठियां सार्वजनिक की जा रहीं हैं उन का मकसद पुराने विवादों का नवीनीकरण ही है. लेकिन ये दोनों ही टैक्नोलौजी के विरोधी थे जो वर्णव्यवस्था पर टैक्नोलौजी नाम के मंडराते खतरे को देख और सम?ा रहे थे. वे अंगरेज ही थे जो देश में टैक्नोलौजी लाए, सड़कें बनाईं, रेल की पटरियां बिछाईं,
बिजली के खंबे लगाए और भी जो कुछ किया वह किसी सुबूत का मुहताज नहीं. सावरकर और गांधीजी दोनों वाकई में ब्रिटिश राज से आजादी चाहते थे या नहीं, यह अलग बहस का मुद्दा है लेकिन यह तय है कि वे यह तो सम?ाते थे कि टैक्नोलौजी भारतीय यानी सनातनी सिद्धांतों के चिथड़े उड़ा देगी और ऐसा एक हद तक रुकरुक कर हुआ भी लेकिन एक मुकाम पर आ कर फिर रुक गया है. सियासी तौर पर देखें तो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इस मानसिकता के अपवाद निकले जो टैक्नोलौजी के घनघोर समर्थक थे और उन्होंने हर स्तर पर टैक्नोलौजी को प्रोत्साहन भी दिया था. जो कुछ भी सुधार हुए और लोग आधुनिक हुए उस का श्रेय नेहरू को देना कतई पूर्वाग्रह और अतिशयोक्ति की बात नहीं जो कभी सनातनी धर्मगुरुओं के दबाव में नहीं आए. नेहरू ने बिना किसी विरोध की परवा किए कारखाने लगाए, बांध बनवाए, फैक्ट्रियां स्थापित करवाईं और वैज्ञानिक अनुसंधानों को बढ़ावा दिया जिस से आधुनिक भारत की नींव पड़ी और लोग टैक्नोलौजी को अपनाने लगे. घरघर बिजली पहुंचने लगी, पानी पहुंचने लगा, बसें चलने लगीं, ट्रेनें ज्यादा बढ़ गईं, सैकड़ों नए कारखाने लगे. सभी के लिए टैक्नोलौजी टैक्नोलौजी की यह खूबी थी कि यह बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए होती है जो यह नहीं कहती कि शूद्र सड़कों पर नहीं चल सकता, नल का पानी नहीं पी सकता, बिजली का कनैक्शन नहीं लगवा सकता या फिर रेलों में सफर नहीं कर सकता. हालांकि इस से सनातनी रूढि़वादी और अंधविश्वासी मानसिकता में कोई गौरतलब बदलाव नहीं आया लेकिन वह दरकी जरूर.
जो काम दक्षिण के दलित आंदोलन और सुधारवादी नहीं कर पाए थे वह दूसरे तरीके से टैक्नोलौजी ने कर दिखाया. वंचित कहे जाने वाले दलितों ने पहली बार महसूस किया कि वे जानवर नहीं, आदमी हैं जिन्हें, कहींकहीं ही सही, सवर्णों के बराबर अधिकार मिले हुए हैं. इस के बाद भी आज दलित, आदिवासी और औरतें अगर पिछड़े हुए हैं तो यह उन की ही गलती है जो या तो टैक्नौलोजी का इस्तेमाल नहीं करते या फिर इस का बेजा इस्तेमाल करते वक्त बरबाद करते हैं. वंचितों और शोषितों के बाद टैक्नोलौजी का बड़ा फायदा औरतों का हुआ जिन की जिंदगी धार्मिक बंदिशों ने मुश्किल कर रखी थी, वह खासतौर से व्यक्तिगत तौर पर आसान हुई. 18वीं सदी की औरतें जो मिट्टी के चूल्हे पर लकडि़यां जला कर खाना पकाती थीं वे स्टोव और सिगड़ी से होते हुए रसोईगैस का इस्तेमाल करने लगीं. अब घरघर में एलपीजी है, मिक्सर ग्राइंडर है. चटनी पीसने वाले सिलबट्टे बैलगाड़ी की तरह अतीत की बात हो गए हैं. किचन गैजेट्स की लंबी लिस्ट है जिस के इस्तेमाल पर कोई धार्मिक रोक नहीं है.
पीरियड्स के दिनों में महिलाओं को रसोई में काम नहीं करने दिया जाता था, बरतन नहीं छूने दिया जाता था क्योंकि धर्मग्रंथों के मुताबिक वे इन दिनों अपवित्र और अशुद्ध मानी जाती हैं लेकिन वे इन दिनों मोबाइल फोन चलाएं तो यह नियम उन पर लागू नहीं होता क्योंकि यह टैक्नोलौजी की देन है. वे कभी भी बत्ती, पंखा, एसी, टीवी इस्तेमाल कर सकती हैं. सोच कर ही सिहरन होती है कि 18वीं सदी की महिलाएं हाड़ कंपा देने वाली ठंड में मुंहअंधेरे उठ कर खेतों में और नदी किनारे शौच व स्नान के लिए जाती थीं, नदी या कुएं से पानी भर कर लाती थीं और लौट कर धुएं वाले चूल्हे पर खाना बनाने बैठ जाती थीं, चक्की पर आटा पीसती थीं, मसाले कूटती थीं. कुल जमा वे एक गुलामनुमा मजदूर थीं जिस का एक दूसरा काम हर दूसरे साल एक बच्चा पैदा करना भी होता था. टैक्नोलौजी ने महिलाओं को ऐसी कई दुश्वारियों से नजात दिलाई है, यह ठीक है कि अभी भी बहुतकुछ कमियां हैं जिन में से अधिकतर धार्मिक ही हैं जिन के चलते हालत पूरी तरह उस के हक में नहीं है लेकिन कुछ तो है, यही कम नहीं. इन सहूलियतों से महिलाओं में जो आत्मविश्वास आया उस से वे शिक्षित हुईं,
आत्मनिर्भर बनीं और हर क्षेत्र में पुरुषों को बराबरी से टक्कर दे रही हैं. जाहिर है टैक्नोलौजी से जो मौके उन्हें मिले उन का पूरा फायदा उन्होंने उठाया. टैक्नोलौजी पर सवार पाखंड बहुतकुछ होने के बाद भी कट्टरवादी और परंपरावादी अपनी बेजा हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं. जो अब फिर टैक्नोलौजी के नुकसान और धर्म के फायदे गिनाते रहते हैं. जब यह कहते हैं कि धर्म और संस्कृति का पतन हो रहा है तो वे दरअसल उस टैक्नोलौजी को ही कोस रहे होते हैं जिस के वे खुद आदी हो गए हैं. इन सनातनियों को तय है, अफसोस इस बात का है कि टैक्नोलौजी धर्म की तरह सिर्फ ऊंचे लोगों के लिए क्यों नहीं है, सभी के लिए क्यों है. यह भेदभाव क्यों नहीं करती. जाहिर है इसलिए कि टैक्नोलौजी ऋषिमुनियों की वाणी, यज्ञहवनों और तपस्या से नहीं निकली बल्कि यह प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की मेहनत से उपजी और विकसित हुई है. इस पर किसी का कौपीराइट नहीं है. चालाक ठेकेदारों को टैक्नोलौजी खतरा लगने लगी तो उन्होंने इसे ही पूजना शुरू कर दिया ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध को विष्णु अवतार घोषित किया था. घरघर में देखते ही देखते नई मशीनों और गैजेट्स का पूजापाठ होने लगा, नया टू या फोर व्हीलर घर आने से पहले नजदीक के मंदिर में ले जाया जाने लगा, दशहरे के दिन घरघर वाहन पूजन ने जोर पकड़ा. अब तो हाल यह है कि शोरूम वाले ही पंडे का इंतजाम करने लगे हैं.
टू या फोर व्हीलर की टैक्नोलौजी तो आम लोगों ने कभी सम?ा नहीं पर उस से भी पैसा कमाने का तरीका पुरोहितों ने निकाल कर टैक्नोलौजी को भी धता बता दिया. सरकारी तौर पर टैक्नोलौजी के साथ सब से क्रूर और फूहड़ मजाक 8 अक्तूबर, 2019 को भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने फ्रांस में किया था जब लड़ाकू विमान राफेल की रिसीविंग के वक्त उन्होंने स्वास्तिक और ॐ का निशान बनाते उस के पहियों के नीचे नीबू रखे थे. दुनियाभर में इस टोटके का मजाक बना था लेकिन सनातनियों को इस में फख्र महसूस हो रहा था. यही दिमागी दिवालियापन उस वक्त भी दिखता है जब हमारे मंत्री रेल इंजनों की पूजा करते नजर आते हैं. इस पर मुट्ठीभर सवर्ण ताली पीट देते हैं. दुनिया के वैज्ञानिकों ने चांद और मंगल जैसे ग्रहों के रहस्य सुल?ा दिए हैं लेकिन हम अभी भी उन्हें देवता मान पूज रहे हैं. इन सवर्णों को इकलौती सुकून देने वाली बात यह भी है कि हिंदू राष्ट्र के मुद्दे पर सरकार इन के साथ है जो वर्णव्यवस्था को थोपने और धर्म आधारित राष्ट्र बनाने को आमादा है. इस के लिए भी टैक्नोलौजी को ही हथियार बनाया जा रहा है. सोशल मीडिया पर अलसुबह से राम, कृष्ण और शंकर की तसवीरों के साथ भविष्यफल, वैदिक और दैनिक पंचांग प्रवाहित होना शुरू हो जाते हैं जिस से लोगों की मानसिकता 200 साल पहले की सी ही रहे. इस तबके को यह सम?ाने की न तो फुरसत है और न ही जरूरत कि अफगानिस्तान का हश्र क्या हो रहा है जहां हर कोई मजहबी दहशत के साए में जी रहा है. औरतें फिर बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हैं और गरीबी आम लोगों की नियति बन चुकी है.
तमाम पैसा तालिबानी समेटते जा रहे हैं. यानी धर्म आधारित राष्ट्र की परिकल्पना ‘आ बैल मु?ो मार’ वाली कहावत को चरितार्थ करती हुई है. हमारे देश का पैसा चंद मुट्ठियों में सिमटता जा रहा है. फर्क इतना है कि यहां खुलेआम लूटखसोट नहीं है बल्कि इस के लिए भी टैक्नोलौजी का ही सहारा लिया जा रहा है. जिन 8-10 फीसदी लोगों के धर्म के नाम पर दोनों हाथों में लड्डू थे, जो कंबल ओढ़ कर घी पीते थे उन के हाथ से बहुतकुछ छूट गया है और जो बच गया है उसे बढ़ाने के लिए ये लोग दुनियाभर के टोटके किया करते हैं. जरूरत तो इस बात की है कि लोग इन षड्यंत्रों को सम?ाते टैक्नोलौजी का उपयोग ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने व अपना जीवन स्तर सुधारने में करें. खुशहाली का इकलौता रास्ता यही है, कोई दूसरा नहीं.