‘ब्राह्मण बनिया भारत छोड़ो, ब्राह्मण बनियो हम आ रहे हैं’, जैसे नारे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की दीवारों पर बीती 3 दिसंबर को लिखे देखे गए तो भक्तों के पेट में मरोड़ें उठना स्वभाविक बात थी क्योंकि ये नारे उन की बादशाहत को धता बताते हुए थे.

यह वह वक्त था जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह गुजरात में चुनावप्रचार के दौरान खुलेआम मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल को इस बाबत बधाई दे चुके थे कि उन्होंने द्वारका में कथित अवैध मजारें तुड़वा दीं. इसी वक्त में मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र सहित तमाम छुटभैये नेता अभिनेत्री स्वरा भास्कर के राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने पर तिलमिलाते कह रहे थे कि यह भारत तोड़ो यात्रा है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैमाने पर देखा जाए तो जेएनयू के छात्रों को भी अपनी बात कहने का हक है जिन के बारे में भाजपाई गिरिराज सिंह सहित तमाम छोटेबड़े भाजपा के नेताओं ने कहा कि यह भारत को इसलामिक राष्ट्र बनाने की वामपंथी साजिश है. तुरंत ही जेएनयू की दीवारों पर हिंदूवादी संगठन- हिंदू रक्षा दल- द्वारा रचित नए नारे लिखाई दिए कि ‘कम्यूनिस्टो भारत छोड़ो, हम चार वर्ण वाले सनातनी हैं.’ लड़ाई वैचारिक है, जिस का नाम दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ, लेफ्ट बनाम राइट या जनेऊ बनाम टाई है. यह आज की नहीं, बल्कि सदियों पुरानी लड़ाई है.

एक वर्ग कहता है कि देश उन्हीं का है जो राम और कृष्ण के भक्त हैं जबकि दूसरा पक्ष कहता है कि देश सभी का है. और भी पौइंट्स हैं जो इस लड़ाई की तह में हैं. लेकिन एतराज इस बात पर क्यों कि ऐसे नारे और आवाजें कालेज कैंपसों से नहीं आनी चाहिए. वक्त तो यह सोचने का है कि ऐसी बातें कैंपसों से क्यों नहीं आनी चाहिए जहां से युवा समाज और देश के बारे में सोचते अपनी भूमिका तय करता है और इसी वक्त में उस की अपनी विचारधारा आकार ले रही होती है.

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