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क्रीम पाउडर नहीं ड्रीम जरूरी

आजादी के लिए जरूरी है कि वे आत्मनिभर बनें, अपने फैसले लेने में जरा भी न ?ि?ाकें या न डरें, घर में बंधी न रहें, खुद को आर्थिक रूप से मजबूत बनाएं. एक जमाने में लड़कियों को घर की चारदीवारी में संपूर्ण जिंदगी खपा देनी पड़ती थी. ऐसी लड़कियां गुड्डेगुडि़यों के खेल से ले कर शादीविवाह के तमाम तरह के खेल खेला करती थीं जो होने वाले वैवाहिक जीवन की तैयारी के रूप में सम?ा जाता था. वे घर के अंदर ही रह कर साजसिंगार और अपने रंगरूप संवारने में ही ज्यादा ध्यान देती थीं. कुछ संपन्न घर की लड़कियां फैशन में पारंगत होने की भरपूर कोशिश भी करती थीं ताकि वे ससुराल जा कर पतियों और पतियों के परिवार को रि?ा सकें.

घर में उन की दादी, मां, चाची, भाभी और बूआ सब एक ही हिदायत देती रहती थीं कि यह सब सीखना जरूरी है क्योंकि तुम्हें दूसरों के घर जाना है. ससुराल के घरआंगन को संवारना है. यही सबकुछ सीखते हुए बचपन कब गुजर जाता था, पता नहीं चलता था और जवानी की दहलीज पर पहुंचने से पहले ही दूसरे घर में ब्याह दिए जाने की तैयारी जोरशोर से शुरू होने लगती थी या ब्याह दी जाती थी. तब उन्हें दूसरे घरपरिवार में एडजस्ट होने की जद्दोजेहद का सामना करना पड़ता था. अकसर लड़कियां नए और अनजान घर में घबराने भी लगती थीं. लेकिन देखतेदेखते वे कई बच्चों की मां बन जाती थीं और अपनी खुद की जिंदगी भूल जाती थीं. वे बच्चे पैदा करने की मशीन सी बन जाती थीं और धीरेधीरे उस घर, परिवार और अपने बच्चों की एकमात्र आया बन कर रह जाती थीं. इस प्रकार उन्हें लंबे संघर्षों से गुजरना पड़ता था. जिन लड़कियों का आत्मविश्वास थोड़ा मजबूत होता था वे संघर्ष कर खुद को एडजस्ट कर लेती थीं. वे अपनी जिंदगी जैसेतैसे गुजार देती थीं.

जो अपनेआप को उस माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाती थीं उन लड़कियों की जिंदगी ससुराल में नर्क बन जाती थी. समाज की यह परंपरा लगभग अभी भी कमोबेश नहीं बदली है. समाज में आज भी औरतों की स्थिति पहले जैसी ही है. आज आदमी के जीवन में तमाम तरह की सुविधाएं भले ही आ गई हों लेकिन पुरुषवादी समाज की सोच आज भी नहीं बदली है. आज भी वह लगभग जस की तस बनी है. द्य बिहार के औरंगाबाद जिले की रहने वाली पिंकी कुमारी साधारणतया बीए कर चुकी थी. तभी उस की शादी कर दी गई थी. वह देखने में काफी खूबसूरत थी. उस के मातापिता काफी संपन्न परिवार के हैं. उन के घर में पैसे की कमी नहीं है. उस के मातापिता ने काफी दहेज दे कर उस का विवाह नौकरी वाले लड़के से किया था. अब 2 साल के अंदर ही पतिपत्नी के बीच अनबन होने लगी है.

?ागड़े की वजह से पिंकी को अपनी ससुराल छोड़ना पड़ा और अपनी सुरक्षा के लिए उसे मायके में आ कर रहना पड़ रहा है. अब पतिपत्नी के बीच मुकदमे चल रहे हैं. लेकिन कुछ महीने बाद ही पिंकी को महसूस होने लगा कि वह शायद अपने पिता के घर में बो?ा बनी हुई है. इसलिए वह अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है. इस के लिए वह काफी हिम्मत जुटा कर फिर से अधूरी पढ़ाई पूरी कर रही है. उस का मानना है कि लड़कियों के लिए खूबसूरत और कमसिन जवानी ज्यादा दिन तक माने नहीं रखती है. आर्थिक रूप से मजबूत होना लड़कियों के लिए बेहद जरूरी है. अत्याचार की शिकार औरतें रोहतास जिले की रहने वाली अपर्णा राजस्थान के कोटा में रह कर मैडिकल शिक्षा की तैयारी कर रही है. उस का कहना है, ‘‘अब समय बदल गया है. अब लड़कियां क्रीम, पाउडर और फैशन के पीछे ज्यादा ध्यान नहीं देती हैं और जो सिर्फ इस ओर ही ध्यान दे रही हैं वे आज भी कहीं न कहीं पिछड़ रही हैं.

आज भी उन की जिंदगी वैसे ही गुजर रही है जैसे कल गुजर रही थी. आज भी वे अपने पतियों के अत्याचार की शिकार हो रही हैं. कहीं दहेज के लिए सताई जा रही हैं तो कहीं औरतों को पहले की तरह ही चारदीवारी में बंद कर जुल्म किया जा रहा है और पुरुषों द्वारा पहले की तरह ही आज भी औरतों को शिकार बनाया जा रहा है.’’ वह मुसकराते हुए आगे कहती है, ‘‘अगर खुद को मजबूत और शक्तिशाली बनाना है तो अपने खूबसूरत ड्रीम को ग्रो करिए, फिर उसे पूरी लगन व मेहनत से पूरा करिए. खुद की अलग पहचान बनाइए. आप की सुंदरता अपनेआप बढ़ जाएगी.

आप को क्रीम, पाउडर तो क्षणिक संतुष्टि दे सकते हैं लेकिन अपने भविष्य को सुरक्षित करना चाहती हैं तो अपना ड्रीम पहले पूरा कीजिए.’’ अब गांव की मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियां मुंह अंधेरे में साइकिल चला कर या औटोरिकशा से विभिन्न कोचिंग संस्थानों में पहुंच रही हैं. यह इस बात का सुबूत है कि अब लड़कियां क्रीम के पीछे नहीं, ड्रीम के पीछे भाग रही हैं. दूरदराज के गांवों से चल कर वे छोटेछोटे शहरों व कसबों के कोचिंग संस्थानों में भीड़ लगा रही हैं. अब छोटे शहरों और कसबों की लड़कियों का रहनसहन महानगरों की लड़कियों की तरह रफ एंड टफ हो चुका है. वे भी जींस के ऊपर टीशर्ट, टौप या कुरती डाल कर उतना ही आत्मविश्वास का अनुभव करती हैं जितना एक लड़का करता है. अब वे सब लड़कों की तरह ही क्विज टैस्ट, वादविवाद आदि में हिस्सा लेना पसंद करती हैं.

वे भी फर्राटेदार इंग्लिश बोलना चाहती हैं. वे भी विभिन्न प्रकार की नौकरी के लिए फौर्म भरना पसंद करती हैं, तभी तो फौर्म बिकने वाली दुकानों पर सब से ज्यादा ये लड़कियां उत्साहित दिखती हैं. यही कारण है कि अब लड़कियां नौकरी के लिए पहले की अपेक्षा ज्यादा मारामारी करने लगी हैं. इस का सब से बड़ा कारण समाज में बदलाव आना माना जा रहा है. आज सम?ादार परिवार पढ़ीलिखी बहू को तरजीह देने लगा है. दूसरी बात यह है कि पढ़ीलिखी और नौकरीपेशा लड़कियां ससुराल में अपने पतियों पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं. वे स्वतंत्र रहना चाहती हैं. वे खुद के लिए भी जीना चाहती हैं और यह तभी संभव है जब वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनेंगी, आर्थिक रूप से सक्षम होंगी. आज पढ़ीलिखी और सम?ादार लड़कियां यह जरूर सम?ा चुकी हैं कि पढ़नेलिखने से ही उन के सपने पूरे होंगे. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर योग्य विवाह में भी ज्यादा परेशानी नहीं होती है.

वहीं ससुराल में भी उचित सम्मान मिलता है. वरना वे पहले की तरह ही दुत्कारी जाती रहेंगी. उन पर पहले की तरह अत्याचार होता रहेगा और वे आज भी बेचारी कहलाती रहेंगी. आर्थिक रूप से सक्षम लड़कियां अपने जीवनसाथी के चयन का निर्णय मातापिता पर निर्भर न हो कर स्वयं भी ले रही हैं. कई बार जातबिरादरी से इतर भी जीवनसाथी बना कर अपना जीवन सुखमय बिता रही हैं. जहां कल तक लड़कियों के लिए शादीब्याह पहली प्राथमिकता के रूप में देखा जाता था, अब उन की पहली प्राथमिकता कैरियर बनाना हो गया है. कई बार कैरियर बनाने के चक्कर में शादीब्याह की उम्र भले ही बीती जा रही है लेकिन तो भी उन के लिए ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा है.

आज पढ़ीलिखी लड़कियां अपने पतियों के नाम से नहीं, खुद के नाम से पहचानी जाती हैं. तभी तो लड़कियां ओलिंपिक से ले कर अंतरिक्ष में भी अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रही हैं. वे आज कई मोरचों पर अपनी जगह बनाने में सफल हो रही हैं. आज लड़कियां राजनीति से ले कर सेना तक में अपनी जगह बनाने में सफल हो रही हैं. द्य भारतीय महिला हौकी खिलाडि़यों ने टोक्यो ओलिंपिक में बेहतर प्रदर्शन किया. यह उन की बेहतर मेहनत का नतीजा है. महिला हौकी टीम की रानी रामपाल हरियाणा के शाहबाद की रहने वाली एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उन के पिता तांगा चलाते हैं. उन की मां एक गृहिणी है. उन का एक भाई किसी दूसरों के किराने की दुकान पर सहायक के रूप में काम करता है जबकि एक भाई बढ़ईगीरी करता है. ऐसे में वह काफी मेहनत कर इस मुकाम तक पहुंची हैं. द्य महिला हौकी टीम की राष्ट्रीय खिलाड़ी सुशीला चानू मणिपुर के इंफाल की रहने वाली हैं. उन के पिता ट्रक ड्राइविंग का काम करते हैं. उन की मां घर के खर्चे के लिए चाय की दुकान चलाती थीं.

हालांकि उन के हालात सुधरने के बाद मां की चाय की दुकान अब बंद हो चुकी है. उन का शुरुआती रु?ान फुटबौल के प्रति था. बाद में उन्होंने काफी मेहनत कर हौकी खेलना शुरू किया. द्य टोक्यो ओलिंपिक के सैमीफाइनल में भारत के हारने के बाद ऊंची जाति वालों ने उत्तराखंड के होशंगाबाद की रहने वाली अनुसूचित जाति की वंदना कटारिया के घर के आगे पटाखे फोड़ कर जश्न मनाया, साथ ही उन्होंने यह टिप्पणी भी की कि यह खिलाड़ी छोटी जाति से होने के कारण टोक्यो ओलिंपिक के फाइनल में जगह नहीं बना सकी. इन लड़कियों को समाज से, गरीबी से, दकियानूसी परंपरा और व्यवस्था से काफी संघर्ष करना पड़ा है तब जा कर ये सफलता का स्वाद चख पाई हैं. द्य हरियाणा के किसान परिवार में जन्मी गुरजीत कौर का शुरू में हौकी खेल से दूरदूर का भी वास्ता नहीं था.

लेकिन एक बार वह हौकी खेल देख कर इतना प्रभावित हुई कि हौकी खेलने का मन बना लिया. वर्षों तक खेल के मैदान में पसीना बहाने के बाद टोक्यो ओलिंपिक में आस्ट्रेलिया के खिलाफ गोल कर सैमीफाइनल में जगह बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. द्य ?ारखंड राज्य की रहने वाली 19 वर्षीया सलीमा टेटे बेहद ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं. अभाव और गरीबी के कारण उन्हें खेतों में मजदूरी तक करनी पड़ी थी. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने टोक्यो ओलिंपिक में खेलने से मात्र कुछ साल पहले स्पोर्ट्स शूज पहली बार पहने थे. वे शुरुआती दिनों में पैसे के अभाव में बिना जूते के ही खेल प्रैक्टिस करती थीं. द्य दीपा ग्रेस एक्का का जन्म ओडिशा राज्य के सुंदरगढ़ जिले के लुलकीदिही गांव के एक साधारण आदिवासी परिवार में हुआ. यह अलग बात है कि वह अपने टैलेंट की बदौलत हौकी टीम में नहीं चुनी गई थी बल्कि वह कदकाठी के कारण हौकी टीम में जगह बनाने में कामयाब हो पाई थी. पहले वह गोलकीपर बनना चाहती थी लेकिन बाद में डिफैंडर के तौर पर खेलने लगी. उसे दूसरी बार टोक्यो ओलिंपिक में खेलने का मौका मिला और इस बार वह टीम के सैमीफाइनल तक पहुंचने में सफल हो पाई. द्य भारतीय महिला हौकी टीम की मजबूत खिलाड़ी शर्मिला देवी का जन्म हरियाणा राज्य के हिसार के कैमरी गांव के एक साधारण किसान परिवार में हुआ. उस में जोश,

हौसला और जनून कूटकूट कर भरा है. वह मैदान में करिश्माई अंदाज में खेलने वाली कम उम्र की श्रेष्ठ खिलाड़ी बन गई है. वह भारतीय टीम में जगह पा कर बेहद खुश थी. द्य ओडिशा के जिला राजगांगपूर के एक गांव जोरुमाल की रहने वाली नमिता टोप्पो छोटे से गांव से निकल कर अपने देश की महिला हौकी टीम की तरफ से टोक्यो ओलिंपिक में खेल कर सब के दिल में जगह बना चुकी है. वह जैसे ही खेल समाप्ति के बाद अपने छोटे से गांव में लौटी, पूरे इलाके के लोग उस के स्वागत में उमड़ पड़े थे. द्य ?ारखंड राज्य की महिला हौकी खिलाड़ी निक्की प्रधान के पिता सोमा प्रधान बिहार पुलिस में हैं और उन की मां जीतन देवी गृहिणी हैं. जब वह टोक्यो ओलिंपिक खेल के समय सुर्खियों में आई, तब उस के गांव के लोगों ने जाना कि वह एक हौकी की खिलाड़ी है. आज उस की वजह से अनेक लड़कियां हौकी खेल में जाना चाहती हैं. द्य हरियाणा में जन्मी नेहा गोयल का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है. उन के पिता शराबी थे. उन दिनों उन का परिवार आर्थिक रूप से काफी कमजोर था. उन की सहेली ने यह बताया था कि अगर तुम हौकी खेलोगी तो तुम्हें अच्छे जूतेकपड़े पहनने को मिलेंगे. बस,

इसी लालच के कारण वे हौकी खेलने लगी थीं. उन के पिता की 2017 में मृत्यु हो जाने के बाद मां को किसी फैक्ट्री में भी काम करना पड़ा था. कई लोगों ने उन की मां को सम?ाया था कि यह लड़की है, इसे खेलनेकूदने से मना करे पर मां ने ऐसा नहीं किया. इन साधारण दिखने वाली लड़कियों को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये लड़कियां समाज की परंपराओं से लड़ कर आगे बढ़ीं. अगर ये भी आम लड़कियों की तरह क्रीमपाउडर के पीछे रहतीं तो शायद इतने बड़े मुकाम पर नहीं पहुंच पातीं. ये सभी साधारण दिखने वाली लड़कियां क्रीम के पीछे नहीं, बल्कि एक हसीन ड्रीम के पीछे भागीं. तभी ये अपने जीवन में खूबसूरत मुकाम हासिल कर पाई हैं.

देह व्यापार: फलताफूलता सैक्स टूरिज्म

दुनिया के कई देश सैक्स टूरिज्म के लिए जाने जाते हैं जिन में थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, जरमनी, स्पेन शामिल हैं. भारत में भी सैक्स का कारोबार फलफूल रहा है पर इसे यहां नजरअंदाज किया जाता है. देहरादून के पास एक रिजौर्ट में अंकिता भंडारी की हत्या इस बात को जाहिर करती है कि रिजौर्टों में सैक्स किस तरह मिल सकता है. इस लड़की ने यह काम करने से मना किया तो इस की हत्या कर दी गई पर बहुत सी किसी लालच या मजबूरी में यह करने के लिए आसानी से तैयार हो जाती हैं. आज 10वीं, 12वीं पास लड़कियों के पास कोई काम नहीं है, कोई हुनर नहीं है,

कोई नौकरी नहीं है. वे छोटीमोटी नौकरी के बहाने इस तरह के काम के लिए तैयार हो जाती हैं. कुछ साल पहले पब्लिक तथा राजनीतिज्ञों के भारी दबाव के कारण महाराष्ट्र सरकार को मुंबई के तमाम डांसबारों को मजबूरन बंद करवाना पड़ा. लेकिन, पौंडिचेरी में इस का व्यापार आज भी तेजी से फलफूल रहा है. इस में दो मत नहीं कि पौंडिचेरी जैसे कई शहरों में कई दशक से देशीविदेशी टूरिस्टों को आकर्षित करने के लिए तरहतरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं जिन में सैक्स टूरिज्म का व्यापार भी शामिल है. यह कहने की जरूरत नहीं कि यहां के होटलों में हमेशा सैक्स टूरिस्टों का जमावड़ा लगा रहता है.

वीकैंड में तो इतनी भीड़ रहती है कि यहां के होटलों और गैस्टहाउसों में रूम तक मिलना असंभव रहता है. इस का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि यहां दक्षिण भारत से ही नहीं, मुंबई तक से बहुत बड़ी संख्या में सैक्स टूरिस्ट आते हैं और देहव्यापार में लिप्त होते हैं. यह भी एक कटु सत्य है कि देश के कितने ही होटलों में न्यूड डांस वर्षों से चल रहा है जो आम बात है. शाम घिरने के साथ ही होटलों में महफिलें घिरने लगती हैं. साढे़ छह, साढे़ आठ और रात साढे़ दस यानी 3 शिफ्टों में चलने वाले शो में ग्राहक उपस्थित होते हैं जिन से प्रति व्यक्ति ढाई से 3 हजार रुपए वसूले जाते हैं.

इस प्रकार प्रतिदिन लगभग डेढ़ लाख की कमाई हो जाती है. सैक्स वर्कर तथा डांसबार की लड़कियों के बीच काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था की कार्यकर्ता श्यामली के शब्दों में, ‘‘यहां काम करने वाली अधिकतर युवतियां केरल तथा आंध्र प्रदेश की होती हैं. जिन के लिए यह धंधा छोड़ना काफी मुश्किल होता है क्योंकि अधिकतर युवतियां होटल मालिकों से लोन लेती हैं जिसे लौटाना भी होता है. इसी दबाव में वे चाह कर भी इस धंधे को छोड़ नहीं पातीं.’’ महिलाओं द्वारा किसी सार्वजनिक स्थल पर न्यूड डांस करना भारत में पूरी तरह गैरकानूनी है. लेकिन यहां के होटलों तथा क्लबों में यह धड़ल्ले से चल रहा है. हजारों की संख्या में लड़कियां इस के लिए बेची भी जा रही हैं और इस के लिए लड़कियों की तस्करी भी की जा रही है.

प्रति वर्ष टूरिज्म से कितनी ही विदेशी मुद्रा भारत में आती है जिस में खासा सैक्स टूरिज्म की वजह से आती है. वुमन एंड चाइल्ड डैवलपमैंट के अध्ययन की रिपोर्ट के माध्यम से जब इस का खुलासा हुआ तो पूरे सरकारी महकमे में खलबली मच गई थी. केंद्र सरकार जब तक इस को ले कर गंभीर होती, उस बीच आंध्र प्रदेश की सरकार ने तिरुपति जैसे धार्मिक शहर में बढ़ते एचआईवी की संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भेज दी जिसे देख कर केंद्र सरकार की चिंता और बढ़ गई. सरकार तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों के बीच इस बात को भी ले कर चिंता होने लगी कि भारत में तेजी से टूरिस्ट इंडस्ट्रीज के ग्रोथ में देह व्यापार तथा वेश्यावृत्ति आग में घी का काम कर रहे हैं.

इस खतरनाक समस्या की गंभीरता तथा संवेदनशीलता को देखते हुए भारत सरकार ने दुरुस्त कदम उठाते हुए एक स्वंयसेवी संस्था को इस के कारणों की पड़ताल की जिम्मेदारी इस शर्त पर सौंपी कि इस की रिपोर्ट सार्वजनिक न की जाए. संस्था ने 18 राज्यों में विभिन्न टूरिस्ट सैंटरों तथा धार्मिक स्थलों में आजकल अध्ययन किया, जिस में अब तक एक हजार से भी अधिक पीडि़तों तथा भुक्तभोगियों से बातचीत की. उक्त संस्था से जुड़े एक व्यक्ति का कहना है, ‘‘मैं बस, इतना कहना चाहती हूं कि भारत में सैक्स इंडस्ट्री चिडि़या के पर की तरह अपना विस्तार कर रही है. डाटा इस ओर संकेत करता है कि मूल समस्या देश के अंदर के टूरिस्टों यानी डोमैस्टिक टूरिस्टों से है जो आग में घी का काम रहा है.’’ सीमापार से घुसपैठ यह कहने की अब जरूरत नहीं रही कि पिछले एकडेढ़ दशक से भारत गैरकानूनी रूप से सैक्स टूरिज्म का अभयारण्य बना हुआ है.

इस के लिए भौगोलिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक तंत्र जिम्मेदार माने जा सकते हैं. जगहजगह खुली सीमाएं तथा सुरक्षा व्यवस्था में तमाम तरह की खामियों के चलते नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से बहुत बड़ी संख्या में लड़कियों और महिलाओं की अवैध तरीकों से मानव तस्करों द्वारा भारतीय सीमाओं में घुसपैठ कराई जाती है. इस में कोई दोराय नहीं कि भारतीय सीमा से बंगलादेश के 28 जिले जुड़े हैं जिन का नाजायज फायदा तस्कर समयसमय पर उठाते रहते हैं. भौगोलिक स्थिति पर गौर करें तो इस के पश्चिमी सीमा पर पश्चिम बंगाल तथा उत्तरी सीमा पर असम राज्य हैं जिन्हें पार कर पड़ोसी देश नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान तथा श्रीलंका की सैक्स व्यापार से जुड़ी लड़कियां तथा महिलाएं भारत की यात्रा करती हैं या फिर इस से जुड़े तस्कर इन की भारत में घुसपैठ कराते हैं.

इस में दो मत नहीं कि पिछले कई सालों से बंगलादेश, नेपाल तथा श्रीलंका के मानव तस्करों के निशाने पर भारत रहा है. वहां से हजारों की संख्या में बच्चे, लड़कियां तथा महिलाओं की गैरकानूनी रूप से घुसपैठ कराई जा रही है जो यहां के बड़ेबड़े शहरों के होटलों, धार्मिक तथा पर्यटन स्थलों में सैक्स व्यापार का गैरकानूनी धंधा करती हैं. ये पर्यटकों की डिमांड पर एक शहर से दूसरे शहर की भी यात्रा करती हैं. इतना ही नहीं, ये जरूरत पड़ने पर विदेश तक की भी यात्रा करती हैं और कौलगर्ल के रूप में अपनी सेवा प्रदान करती हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 2 लाख नेपाली महिलाएं तथा लड़कियां भारत के बड़े शहरों, जैसे मुंबई, पुणे दिल्ली तथा कोलकाता के टूरिस्ट प्लेसों में धंधा कर रही हैं. इन में लगभग 20 फीसदी यानी 40 हजार की उम्र 16 साल से कम है.

एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन 50 बंगलादेशी लड़कियां सीमा पार कर भारत में बेची जाती हैं. ये भी देश के बड़े शहरों तथा मैट्रो सिटीज, धार्मिक, ऐतिहासिक तथा दूसरे पर्यटन स्थलों के देशीविदेशी टूरिस्टों को अपनी सेवाएं प्रदान करती हैं. एक अन्य आंकड़े के अनुसार लगभग 4 लाख बंगलादेशी औरतें भारत में सैक्स टूरिज्म के धंधे से जुड़ी हुई हैं. करीब 3 लाख प्रतिवर्ष यहां से दूसरी जगहों पर तस्करी द्वारा भेजी जाती हैं. जब किसी राज्य की पुलिस इन पर कानूनी शिकंजा कसने लगती है तो ये अपना ठिकाना बदलने में तनिक भी देर नहीं करतीं और सुरक्षित स्थानों पर चली जाती हैं. जैसे यदि गोवा या कर्नाटक के कोवाला में पुलिस छापेमारी करती है तो ये वारकाला, कोचीन या केरल में कुमिली या कर्नाटक के दूसरे समुद्रतटीय इलाकों में चली जाती हैं और वहां धंधा करने लगती हैं.

इतना ही नहीं, पड़ोसी देश के तस्कर भारत की जमीन को ट्रांजिट जोन के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं. बंगलादेश, नेपाल और श्रीलंका के तस्कर और सैक्स वर्कर भारत की जमीन को शरणस्थली यानी ठिकाना भी बनाते हैं. अर्थात, इन देशों की लड़कियों, बच्चों तथा महिलाओं को दक्षिणपूर्व एशिया, जैसे सिंगापुर, मलयेशिया, इंडोनेशिया, थाइलैंड, केन्या या फिर ईरान, इराक, संयुक्त अरब अमीरात आदि खाड़ी देशों या फिर दुनिया के किसी भी देश में भेजने के पहले बौर्डर क्रौस करा कर भारत लाते हैं और फिर समुद्री रास्ते या फिर दूसरे तरीके से जालसाजी कर इन देशों में भेजते हैं. एक अनुमान के अनुसार भारत के रास्ते प्रतिवर्ष करीब एक लाख नेपाली तथा 50 हजार बंगलादेशी लड़कियां गैरकानूनी रूप से भारतीय जमीन का इस्तेमाल कर दूसरे देशों के वेश्यालयों में भेजी जाती हैं. देश के अंदर भी नाबालिग लड़केलड़कियां तथा औरतें एक जगह से दूसरी जगह स्मगल किए जाते हैं. ग्रामीण, देहाती और पिछड़े इलाकों की महिलाएं तथा लड़कियां तस्करी के माध्यम से शहरी इलाकों में भेजी जाती हैं.

कोई भी देश अछूता नहीं कानून के अनुसार सामान्यतया वयस्क को किसी वेश्यालय में जाना अपराध नहीं माना जाता. लेकिन नाबालिग लड़का या लड़की का इस में संलग्न होना अपराध की श्रेणी में आता है. ऐसा स्वदेश में करें या विदेश में, दोनों ही स्थितियों में अपराध माना जाता है. जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि इस के लिए अपने देश के अंदर यात्रा करने को घरेलू सैक्स टूरिज्म तथा विदेश की यात्रा करने को इंटरनैशनल एडल्ट सैक्स टूरिज्म कहते हैं. यह कारोबार मल्टीबिलियन डौलर इंडस्ट्री के रूप में पूरी दुनिया में फैला हुआ है और लाखों लोग इस से जुड़े हैं. ऐसी बात नहीं कि इस से केवल सैक्स उद्योग को ही फायदा होता है, एयरलाइंस, टैक्सी, रैस्टोरैंट तथा होटल इंडस्ट्री को भी इस से फायदा होता है. लेकिन मानवाधिकार से जुड़े संगठन इस से इस बात को ले कर परेशान रहते हैं कि इस इंडस्ट्री से मानव तस्करी और बाल वेश्यावृति को प्रोत्साहन मिलता है.

इस में दो मत नहीं कि सैक्स टूरिज्म केवल भारत की ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए समस्या बना हुआ है. एक आंकड़े के अनुसार लगभग साढ़े 6 लाख पश्चिमी देशों की महिलाएं तथा पूरी दुनिया में लगभग 20 लाख बच्चे इस उद्योग से जुड़े हुए हैं. लैटिन अमेरिका तथा साउथईस्ट एशिया में सड़कों के आवारा बच्चे इस धंधे से जुड़े हुए हैं. थाईलैंड, ब्राजील, कंबोडिया, भारत तथा मैक्सिको जैसे देशों में नाबालिग लड़केलड़कियों के साथ यौनव्यभिचार की घटनाएं ज्यादा होती हैं. थाईलैंड में तो 40 फीसदी नाबालिग इस धंधे का हिस्सा हैं, कंबोडिया में एकतिहाई सैक्स वर्कर 18 वर्ष से कम उम्र की हैं और भारत में लगभग 20 लाख बच्चे इस धंधे में लगे हुए हैं. हर जगह इस को ले कर कड़े कानून बने हुए हैं. इस कानून के अनुसार कोई भी अमेरिकी इस धंधे में नहीं लिप्त हो सकता. जो भी हो, इस धंधे में लगे लड़केलड़कियों को कई तरह के शारीरिक तथा मानसिक शोषण के दौर से गुजरना पड़ता है,

जिस की वजह से एड्स, प्रैग्नैंसी, कुपोषण, नशीली दवाओं के आदी होने से ले कर इन की मौत तक हो जाती है. यूनाइटेड नैशंस की टूरिज्म एजेंसी के अनुसार, ‘‘किसी टूरिस्ट सैक्टर या फिर इस के बाहर के सैक्टर द्वारा ऐसी व्यवस्था करना जिस का पहला उद्देश्य स्थानीय लोगों को टूरिस्टों द्वारा व्यावसायिक यौन संबंध स्थापित करना होता है, सैक्स टूरिज्म कहलाता है. ये व्यावसायिक सैक्स एक्टिविटीज की पहचान के लिए कई तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जैसे एडल्ट सैक्स टूरिज्म, चाइल्ड सैक्स टूरिज्म तथा फीमेल सैक्स टूरिज्म. आज की तारीख में यह व्यवसाय पूरे विश्व में मल्टीबिलियन डौलर के रूप में फैला हुआ है.’’ जो देश सैक्स टूरिज्म के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं उन में थाईलैंड, ब्राजील, श्रीलंका, क्यूबा, कोस्टारिका, डोमीनिकल रिपब्लिक तथा केन्या आदि शामिल हैं.

इस के अतिरिक्त कई ऐसे देश हैं जिन का कोई खास क्षेत्र या शहर इस के लिए प्रसिद्ध है, जो मूलरूप से रैडलाइट डिस्ट्रिक्ट या एरिया के रूप में जाने जाते हैं, जैसे एम्सटर्डम (नीदरलैंड), जोना नोटी, टियूआना (मैक्सिको) तथा रियो डी जैनेरियो (ब्राजील) बैंकौक, पटाया तथा फुकेट (थाईलैंड) क्राइनिया (यूक्रेन) आदि. इस के अतिरिक्त और भी कई ऐसे एरिया हैं जो इस के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं. विदेशों में भी इस धंधे से जुड़ी महिलाएं धंधे के लिए एक देश से दूसरे देश की यात्रा करती हैं या फिर विशेष रूप से तस्करों द्वारा पहुंचाई जाती हैं. लगभग 80 हजार उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप की महिलाएं प्रतिवर्ष इस के लिए जमैका की यात्रा करती हैं.

नेपाल सरकार द्वारा सही दिशा में किए जा रहे प्रयास के बावजूद भारत से प्रतिवर्ष 10 से 15 हजार नेपाली महिलाएं तथा लड़कियां तस्करों द्वारा विदेशों में सैक्स व्यापार के लिए भेजी जा रही हैं. संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी 8वीं वार्षिक मानव तस्करी रिपोर्ट में ये बातें कही गई हैं. रिपोर्ट के अनुसार, सहीसही आंकड़ों के अभाव में यह संख्या बढ़ भी सकती है. वहां की स्वयंसेवी संस्था, जो मानव तस्करी पर शोध कर रही है, उस की रिपोर्ट के अनुसार घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय तस्करी में लगातार वृद्धि हो रही है. अधिकतर स्थितियों में सैक्स एक्सप्लौइटेशन की ही बात उभर कर सामने आ रही है. जिस में राजनीतिज्ञों, व्यवसायी, अधिकारी, पुलिस, कस्टम अधिकारी तथा सीमा पर तैनात पुलिस की मिलीभगत तथा सहमति जगजाहिर है. इन्हीं के इशारे पर मानव तस्करी का इतना व्यापक तथा विशाल रैकेट चल रहा है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता.

भारत के अतिरिक्त एशिया के दूसरे देशों, जैसे मलयेशिया, हौंगकौंग तथा साउथ कोरिया के देशों में भारत से लड़कियों, बच्चों तथा महिलाओं को यौनशोषण व मजदूरी के लिए जबरन भेजा जा रहा है. एक रिकौर्ड के अनुसार, करीब 10 लाख से भी अधिक नेपाली पुरुष तथा महिलाएं इसराईल, संयुक्त राज्य अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात तथा दूसरे खाड़ी देशों में मजदूरी और यौनशोषण के लिए तस्करों तथा मैन पावर एजेंसीज द्वारा भेजे जाते हैं. इन देशों में इन से कई तरह के काम लिए जाते हैं, जैसे घरेलू नौकर, बड़ेबड़े भवनों के निर्माण में मजदूर के रूप में या फिर छोटेछोटे धंधों में लगाए जाते हैं. इस के लिए इन्हें तरहतरह की प्रताड़नाएं भी दी जाती हैं जिन में पासपोर्ट जब्त कर लेना, घूमनेफिरने की मनाही, तनख्वाह का भुगतान नहीं करना तथा धमकी देने से ले कर यौनशोषण तक शामिल हैं.

अभी जुलाई में उज्बेक लड़कियों को नेपाल से भारत मोटरबाइक पर लाया गया क्योंकि उस पर चैकिंग कम होती है और उज्बेक लड़की अपने को नेपाली आसानी से कह सकती है. एंटी ह्यूमन ट्रैफिक यूनिट ने दिल्ली के मालवीय नगर में विदेशी युवतियों को पकड़ा जो सैक्स टूरिज्म के लिए लाई गई थीं. भारत के कोलकाता में सोनागाछी, लैकिंगटन रोड, दहिसर, बोरीविकी, कमाठीपुरा मुंबई में, बुधवार पेठ पूना का, मीरगंज इलाहाबाद का, दिल्ली की जीबी रोड, इतवारा इलाका नागपुर का, चतुर्भुज स्थान मुजफ्फरपुर, बिहार का, शिव की नगरी वाराणसी में शिवदासपुर उन कुछ जगहों के नाम हैं जहां सैक्स टूरिज्म फलफूल रहा है. बहुत से तीर्थस्थल जैसे उज्जैन, इलाहाबाद भी अपने वेश्याओं के इलाकों के लिए जाने जाते हैं. लोग पूजापाठ कर के वहां जाते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है.

भारत की स्थिति चिंताजनक इस में शक नहीं कि सैक्स टूरिज्म और मानव तस्करी के मामले में भारत की स्थिति विस्फोटक बनी हुई है. यहां इस का धंधा बहुत तेजी के साथ फलफूल रहा है जिस के लिए राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक कारण जिम्मेदार माने जा सकते हैं. एक तो यहां की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि पड़ोसी देशों से बहुत बड़ी संख्या में नाबालिग लड़केलड़कियों की तस्करी आसान है क्योंकि यहां की सीमाएं पूरी तरह से सुरक्षाप्रूफ नहीं हैं जिस का फायदा मानव तस्कर उठाने से बाज नहीं आ रहे. दूसरी बात यह है कि यहां के राजनीतिज्ञों तथा कानून नियंताओं में भी इच्छाशक्ति की घोर कमी है जिस के कारण इस को रोकने के लिए कोई कड़ा कानून बन ही नहीं पा रहा है. यदि बन भी रहा है तो उस का पालन ईमानदारीपूर्वक नहीं हो पा रहा है. तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यहां इतनी ज्यादा गरीबी है कि इस का भी फायदा तस्कर उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं. पैसे का प्रलोभन दे कर गरीब मांबाप से ये लोग इन की बेटियों को खरीद कर उन्हें जिस्मफरोशी के धंधे में ?ांकने से बाज नहीं आते.

एक युग-भाग 2 : सुषमा और पंकज की लव मैरिज में किसने घोला जहर?

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. मैं गैस्ट हाउस में ही तुम्हारे साथ रहूंगी.’’

‘‘सुमी, जिद नहीं करते. वहां सभी अकेले रहते हैं. तुम्हारा वहां साथ चलना ठीक नहीं है. बस, थोड़े ही दिनों की तो बात है. क्या मां और बहनें तुम्हें प्यार नहीं करतीं? बस, मैं यों गया और यों आया,’’ पंकज की गाड़ी का समय हो रहा था. वह सुषमा से विदा ले कर चला गया.

पंकज 4 बहनों का अकेला भाई था. आज छोटी का जन्मदिन था. पंकज को गए 3-4 दिन हो गए थे. पार्वती चौका समेट कर बिस्तर पर जो लेटीं तो लेटते ही उन्हें नींद आ गई.

लेकिन अभी उन की आंख लगी ही थी कि किसी के कराहने की आवाज से उन की नींद टूट गई. वे घबरा कर उठ बैठीं. तुरंत बच्चों के कमरे में पहुंचीं. वहां उन्होंने देखा कि उन की प्यारी बहू सुषमा कराह रही है. उन्होंने तुरंत कमरे की बत्ती जलाई तो देखा, सुषमा बेहोश सी बिस्तर पर पड़ी है.

उन्होंने बहू को बहुत हिलायाडुलाया पर उस ने आंखें न खोलीं. इस के बाद जो दृश्य उन्होंने देखा तो उन के तो पैरों के नीचे से जमीन ही सरक गई. बहू के बगल में बिस्तर पर एक खाली शीशी पड़ी हुई थी और उस पर लिखा था, ‘जहर’. देखते ही पार्वती के मुंह से चीख निकल गई.

उन्होंने तुरंत बेटी को जगाया और स्वयं लगभग दौड़ती हुई जा कर अपने पड़ोसी को बुला लाईं. पड़ोसी की सहायता से वे बहू को अस्पताल ले गईं, जहां आकस्मिक चिकित्सा कक्ष में उस का इलाज शुरू हो गया.

इधर पंकज को बुलाने के लिए भी सूचना भेज दी गई. कुछ घंटों में ही पंकज आ पहुंचा. पार्वती सोचसोच कर परेशान थीं कि आखिर बहू ने जहर क्यों खा लिया? पंकज भी सोच में पड़ गया कि सुषमा ने जहर क्यों खाया? क्या मां या बहनों ने कुछ कहा

लेकिन ये सब लोग तो उसे बहुत प्यार करते हैं. सुषमा को कुछ हो गया तो क्या उन पर दहेज का मामला नहीं चल जाएगा? आजकल आएदिन इस तरह के किस्से होते ही रहते हैं. कई प्रश्न पार्वती और उन के बेटे के दिलोदिमाग को मथने लगे.

डाक्टरों के उपचार के समय ही सुषमा ने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘मैं ने जहर नहीं खाया, मैं ने जहर नहीं खाया…’’

पर डाक्टरों ने उस की एक न सुनी. सुषमा के पेट का सारा पानी निकाल दिया गया. पेट से निकले हुए पानी का परीक्षण करने पर पता चला कि उस के पेट में जहर की एक बूंद भी नहीं है.

पार्वती ने बहू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, आखिर यह सब क्यों किया? मेरी तो जान ही निकल गई थी.’’

‘‘सुषमा, तुम ने हमें कहीं का न छोड़ा. पूरे महल्ले और मेरे दफ्तर में हमारी कितनी बदनामी हुई है. हम किसी से निगाहें मिलाने लायक नहीं रहे. आएदिन दहेज के किस्से होते हैं. डाक्टरी परीक्षण में तनिक भी कमी रह जाती तो हम सब तो जेल में पहुंच गए होते. हमारी कौन सुनता? तुम ने तो हम सब को जेल भेजने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी. अभी भी कितने लोगों को विश्वास आएगा कि तुम ने जहर नहीं खाया था?’’

पंकज के हृदय को सुषमा के इस नाटक से बहुत बड़ी ठेस लगी. उस का हृदय चूरचूर हो गया. पार्वती ने बेटे को समझाने का बहुत प्रयास किया, पर पंकज किसी तरह न माना.

पार्वती ने कहा, ‘‘बेटे, तुम बहू को अब अपने साथ ही ले जाओ.’’

उन्होंने सोचा, बेटा और बहू साथ रहेंगे तो सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा. उन का सोचना गलत था. पंकज सुषमा के इस घिनौने नाटक को भूल न सका.

इस अचानक हुए हादसे की सूचना सुषमा के पिता कन्हैया लाल को भी दी जा चुकी थी. उस की मां तो बेटी के जहर खाने का समाचार सुनते ही बेहोश हो गईं.

पिता कहने लगे, ‘‘मैं हमेशा समझाता था कि ये छोटे घर के लोग रुपएपैसे के बड़े लालची होते हैं. अरे, जब पूछा तो कहने लगे कि हमें कुछ भी नहीं चाहिए. अब अपनी फूल सी बेटी को जहर खा लेने पर मजबूर कर दिया न?’’

‘‘वह भी तो उस लड़के की दीवानी बनी हुई थी. आखिर उस लड़के में ऐसी क्या खास बात है?’’ मां ने आंसू बहाते हुए कहा.

‘‘अरे, यह सब उस पंकज की चालाकी है, जो उस ने सुषमा को अपने जाल में फंसा लिया. मैं भी एक जज हूं. छोड़ूंगा नहीं उस नालायक को. उसे हथकडि़यां न लगवाईं तो मेरा भी नाम नहीं.’’

जब कन्हैया लाल पत्नी के साथ सुषमा की ससुराल पहुंचे तो गुस्से में भर कर पंकज ने साफ कह दिया, ‘‘आप अपनी बेटी को अपने साथ ले जाइए. हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.’’

‘‘हांहां, बेटी को तो हम साथ ले ही जाएंगे पर तुम्हें भी जेल की हवा खिलाए बिना नहीं छोड़ेंगे. शुक्र है कि मेरी बेटी सहीसलामत है.’’

सुषमा ने भारी मन से अपनी प्रिय सहेली को पूरी कहानी बताते हुए कहा, ‘‘जया, इस हादसे के बाद मैं पिताजी के साथ ससुराल से यहां चली आई.’’

‘‘उस के बाद पंकज से तुम्हारी भेंट हुई या नहीं?’’

‘‘नहीं जया, इस घटना के एक सप्ताह बाद पंकज मेरे घर आए थे. पिताजी उन्हें बाहर बैठक में ही मिल गए. उन्होंने वहीं खूब उलटीसीधी सुना कर पंकज को अपमानित किया. कह दिया कि अब तुम सुषमा से कभी नहीं मिल सकते. अब तो तुम्हारे पास तलाक के कागज ही पहुंचेंगे.

‘‘तब पंकज ने मेरे पिताजी से कहा कि आप मुझ से बात नहीं करना चाहते तो न करें पर मुझे सुषमा से तो एक बार बात कर लेने का अवसर दें. पर पिताजी ने कहा कि मैं तुम्हारी कोई भी बात नहीं सुनना चाहता. अब तो तुम सुषमा से कचहरी में ही मिलोगे.

‘‘इस के बाद वे भारी मन से चले गए. बाद में एक दिन उन का टैलीफोन भी आया था तो मां ने कह दिया कि आगे से टैलीफोन करने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘यह सब तो तेरे मातापिता ने किया, पर तू ने इस बीच क्या किया, यह तो तू ने बताया ही नहीं?’’

‘‘जया, मैं क्या करती, मेरी तो कुछ समझ में आया ही नहीं कि कैसे यह सब कुछ हो गया. मैं तो बस एक मूकदर्शक ही बनी रही.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि तुम ने पंकज की ओर हाथ बढ़ाने का कोई प्रयास ही नहीं किया, जबकि पंकज ने 2 बार तुम से मिलने का प्रयास किया.’’

‘‘मैं क्या करती, पिताजी ने तो सारे रास्ते ही बंद कर दिए. उन्होंने निर्णय सुना दिया कि पंकज से मिलने या बात करने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘उन्होंने तो निर्णय कर लिया, पर क्या तू ने भी उन का निर्णय मान लिया? तेरी सूरत से तो ऐसा नहीं लगता?’’ जया ने सोचते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं? मेरे मातापिता हर समय उठतेबैठते यही कहते रहते हैं कि अपने मन से विवाह करने का परिणाम देख लिया. कितनी बेरहमी से उस ने तुझे अपने घर से निकाल दिया. समाज में हमारी कितनी थूथू हुई है. पहले तो तू ने अपने से इतने नीचे खानदान में शादी की और फिर उस के बाद यह बेइज्जती. दो कौड़ी के उस लड़के की हिम्मत तो देखो. हम बड़ी धूमधाम से तेरी दूसरी शादी करेंगे. अभी तेरी उम्र ही कितनी है?’’

‘‘मातापिता ने कह दिया और तू ने सब कुछ ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया. इसी दम पर पूरे परिवार का विरोध मोल ले कर पंकज का हाथ थामा था. क्या अब तुझे पंकज सचमुच पसंद नहीं?’’

‘‘मैं अपने वादे से कहां मुकरी. मैं ने कब कहा कि वे मुझे पसंद नहीं या मैं ने कभी कोई गलत चुनाव किया था. पर पिताजी की भावनाओं का क्या करूं? उन्हें मेरी ही चिंता रहती है. दिनरात वे मेरे ही बारे में सोचते रहते हैं. वे मेरे लिए बहुत परेशान हैं.’’

‘‘जब उन के विरोध के बावजूद तू ने पंकज का हाथ थामा था तब उन की भावनाओं का खयाल कहां चला गया था? फिर यह भी सोचा है कि तू ही तो उन्हें परेशान कर रही है?’’

‘‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं? मेरा तो दम घुटा जा रहा है. तू ही कुछ बता कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं ही सब की परेशानी का कारण हूं.’’

‘‘पहले तो यह समझ ले कि इस सारे झगड़े में गलती की पूरी जिम्मेदारी तेरी ही है,’’ जया ने समझाने के लहजे में कहा.

‘‘हां, मैं यह मानने को तैयार हूं, पर पंकज की भी तो गलती है कि उस ने मुझे क्षमा मांगने का मौका ही नहीं दिया. उस ने मुझे कितना अपमानित किया.’’

 

मिल गई मंजिल-भाग 1: सविता ने कौनसा रास्ता चुना?

हर रोज की तरह सविता सुबहसवेरे स्कूल जाने के लिए उठ गई, क्योंकि उस की 12वीं कक्षा की परीक्षाएं चल रही थीं. उस का सैंटर दूसरे स्कूल में पड़ा था, जो काफी दूर था. वह टूंडला में एक राजकीय गर्ल्स इंटर कालेज में पढ़ती थी.

सुबह 7 बजे के आसपास कमरे में तैयार हो रही सविता चिल्लाई, ‘‘मां, मेरा लंच तैयार हो गया क्या?’’

मां ने भी किचन में से ही जवाब दिया, ‘‘नहीं, अभी तो तैयार नहीं हुआ है. थोड़ा रुक, मैं तैयार किए देती हूं.’’

‘‘मां, मैं लेट हो रही हूं. बस स्टैंड पर मेरी सहेलियां मेरा इंतजार कर रही होती हैं. लंच तैयार करने के चक्कर में और भी देरी हो जाएगी,’’ झल्लाहट में सविता कह रही थी.

मां भी गुस्सा होते हुए बोलीं, ‘‘एक तो समय पर उठती नहीं है, फिर जल्दीजल्दी तैयार होती है.’’

सविता अपने को शांत करते हुए बोली, ‘‘कोई बात नहीं मां, तुम परेशान न हो. मैं वहीं कुछ खा लूंगी. आप जल्दी से चायनाश्ता करा दो.’’

मां ने जल्दीजल्दी चाय बनाई और नाश्ते में 2-3 टोस्ट दे दिए. जल्दीजल्दी मां ने पर्स से पैसे निकाल कर सविता को दिए और कहा, ‘‘वहीं कुछ खापी लेना.’’

‘‘ठीक है मां,’’ सविता मम्मी की ओर देखते हुए बोली.

स्कूल जाते समय जल्दीजल्दी सविता मां के गले लगी और मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा मां, मैं चलती हूं.’’

मां भी गुस्सा छिपाते हुए बोलीं, ‘‘अरे रुक, मुंह तो मीठा करती जा. और सुन, पेपर अच्छे से करना.’’

‘‘जी,’’ कह कर सविता घर से दौड़ लगाती निकल गई और मां घर के कामों में बिजी हो गई.

17-18 साल की सविता अपनेआप को किसी परी से कम नहीं समझती. गोरा रंग, तीखे नैननक्श, चंचल स्वभाव सहज ही हर किसी को अपनी ओर लुभाता. जब भी वह बाहर निकलती, मनचले फब्तियां कसते. वह इन को सबक सिखाना चाहती, पर फिर कुछ सोच कर चुप हो जाती.

12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा देने के लिए उसे शहर के दूसरे स्कूल में जाना पड़ता था. दूसरे स्कूल में परीक्षा देना उसे थोड़ा अजीब लगा. फिर भी उसे अपने स्कूल से तो बेहतर ही लगा. टीचर का बरताव, स्कूल की मैंटेनेंस, बिल्डिंग की बनावट, गेट पर सुरक्षागार्ड का रहना वगैरह. गेट पर ही सभी छात्राओं की सघन चैकिंग होती. पर्स को गेट पर ही रखवा लिया जाता. यहां तक कि पैसों को भी अंदर ले जाने की मनाही थी.

टूंडला जैसे कसबे से फिरोजाबाद शहर जाना उसे ऐसा लगता कि जैसे वह आजाद हो गई हो. वह अपने बालों में क्लिप लगा कर, गले में सफेद रंग की माला, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर स्कूल की ड्रेस में बहुत ही खूबसूरत लगती.

दौड़तीभागती वह बस स्टैंड पहुंची. वहां उस की सहेलियां उस का ही इंतजार कर रही थीं. उस के पहुंचते ही सभी सहेलियां उस पर गुस्सा करने लगीं.

‘‘आज फिर लेट हो गई तू. कल से हम तेरा इंतजार नहीं करेंगे, अभीअभी दूसरी बस भी निकल गई,’’ सहेली सुजाता गुस्से से बोल रही थी.

‘‘सौरी सुजाता… पर, तुम चिंता न करो. हम समय पर स्कूल पहुंचेंगे,’’ सविता ने बस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘लो, बस भी आ गई. जल्दी बैठो सभी.’’

बस के रुकते ही सभी सहेलियां बस में चढ़ गईं. साथ में दूसरी सवारी भी चढ़ीं. बस में बैठी सविता अपनी सहेलियों से कह रही थी, ‘‘तुम सब परेशान न हों. हम आटो से स्कूल चलेंगे और समय पर पहुंचेंगे. भाड़े का खर्चा मेरी तरफ से…’’

यह सुन कर सभी सहेलियों के मुरझाए चेहरे खिल उठे. बस में बैठी उस की सहेलियां आपस में तेजतेज आवाज में बातें करती जा रही थीं. सभी सवारियों का ध्यान उन की ओर ही था.

बस फिरोजाबाद बस स्टैंड पर पहुंची. सभी यात्री उतरे. सविता ने अपनी एक सहेली मीता का हाथ खींचा, ‘‘चल, आटो ले कर आते हैं.’’

सविता आटो ले आई और सभी सहेलियां उस आटो में सवार हो समय पर स्कूल पहुंच गईं.

स्कूल पहुंच कर सब से पहले रूम नंबर पता किया, क्योंकि हर दिन रूम बदल जाते थे. वहीं सीटों की भी अदलाबदली होती थी. लिस्ट देखी तो रूम नंबर 4 में सविता को पेपर देना था और बाकी सहेलियों को रूम नंबर 5 और 7 में.

‘‘ओह, मेरा रोल नंबर तुम सब के साथ नहीं आया,’’ सविता निराश होते हुए बोली.

‘‘कोई बात नहीं. जब पेपर हो जाए तो गेट के पास हम सब मिलते हैं. वहीं से हम सब साथ चल कर बस पकड़ेंगे,’’ एक सहेली नेहा कह रही थी.

‘‘ठीक है, हम सब अब अपनेअपने रूम की तरफ चलते हैं,’’ सविता बोली.

सभी सहेलियां पेपर देने के लिए अपनेअपने रूम नंबर की तरफ गईं. सविता के आगे वाली सीट पर रोहित बैठा था, जो बारबार पीछे मुड़ कर उसे देख रहा था.

पेपर दे रही सविता का अचानक पैन रुक गया तो वह घबरा कर रोने लगी. परीक्षक ने सविता के रोने की वजह पूछी तो उस ने सच बताया.

बुद्धू कहीं का : कुणाल ने पैसे कमाने के लिए क्या किया?

लव ऐट ट्रैफिक सिग्नल – भाग 1: ट्रैफिक सिग्नल पर मिली लड़की से क्या रिश्ता था?

आज फिर वही लड़की साइबर टावर के ट्रैफिक सिगनल पर मुझे मिली. हैदराबाद में माधापुर के पास फ्लाईओवर से दाहिने मुड़ने के ठीक पहले यह सिगनल पड़ता है. एक तरफ मशहूर शिल्पा रामम कलाभवन है. इधर लगातार 3 दिनों से सुबह साढ़े 9 बजे मेरी खटारा कार सिगनल पर रुकती, ठीक उसी समय उस की चमचमाती हुई नई कार बगल में रुकती है.

मेरी कार में तो एसी नहीं है, इसलिए खिड़की खुली रखता हूं. पर उस की कार में एसी है. फिर भी रेड सिगनल पर मेरे रुकते ही बगल में उस की कार रुकती है, और वह शीशा गिरा देती है. वह अपना रंगीन चश्मा आंखों से ऊपर उठा कर अपने बालों के बीच सिर पर ले जाती है, फिर मुसकरा कर मेरी तरफ देखती है. उस के डीवीडी प्लेयर से एब्बा का फेमस गीत ‘आई हैव अ ड्रीम…’ की सुरीली आवाज सुननेको मिलती है.

सिगनल ग्रीन होते ही वह शीशा चढ़ा कर भीड़ में किधर गुम हो जाती है, मैं ने भी जानने की कोशिश नहीं की. पता नहीं इस लड़की की घड़ी, मेरी घड़ी और मेरी खटारा और उस की नई कार सभी में इतना तालमेल कैसे है कि ठीक एक ही समय पर हम दोनों यहां होते हैं.

खैर, मुझे उस लड़की की इतनी परवा नहीं है जितनी समय पर अपने दफ्तर पहुंचने की. आजकल हैदराबाद में भी ट्रैफिक जाम होने लगा है. गनीमत यही है कि इस सिगनल से दाहिने मुड़ने के बाद दफ्तर के रास्ते में कोई खास बाधा नहीं है. मैं 10 बजे के पहले अपनी आईटी कंपनी में होता हूं. अपने क्लाइंट्स से मीटिंग्स और कौल्स ज्यादातर उसी समय होते हैं.

मेरी कंपनी का अधिकतर बिजनैस दुबई, शारजाह, कुवैत, आबूधाबी, ओमान आदि मध्यपूर्व देशों से है. कंपनी नई है. स्टार्टअप शुरू किया था 2 साल पहले. सिर्फ 2 दोस्तों ने इस स्टार्टअप की शुरुआत अपनी कार के गैराज से की थी जो अब देखतेदेखते काफी अच्छी स्थिति में है. 50 से ज्यादा सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं इस कंपनी में. बीचबीच में मुझे दुबई का टूर भी मिल जाता है.

वैसे तो आमतौर पर शाम 6 बजे तक मैं वापस अपने फ्लैट में होता हूं. इधर

2-4 दिनों से काम ज्यादा होने से लौटने में देर हो रही थी, पर सुबह जाने का टाइम वही है. आज वह लड़की मुझे सिगनल पर नहीं मिली है.

न जाने क्यों मेरा मन पूछ रहा है कि आज वह क्यों नहीं मिली. मैं ने एकदो बार बाएंदाएं देखा, फिर कार के रियर व्यू मिरर में भी देख कर तसल्ली कर ली थी कि मेरे  पीछे भी नहीं है. खैर, सिगनल ग्रीन हुआ तो फिर मैं आगे बढ़ गया. जब तक काम में व्यस्त था, मुझे उस लड़की के बारे में कुछ सोचने की फुरसत न थी, पर लंचब्रैक में उस की याद आ ही गई.

शाम को लौटते समय मैं केएफसी रैस्टोरैंट में रुका था अपना और्डर पिक करने, और्डर मैं ने औफिस से निकलने के पहले ही फोन पर दे दिया था. वहां वह लड़की मुझे फिर मिल गई. वह भी अपना और्डर पिक करने आई थी. वह अपना पैकेट ले कर जैसे ही मुड़ी, मैं उस के पीछे ही खड़ा था. वह मुसकरा कर ‘हाय’ बोली और कहा, ‘‘आप भी यहां. एक खूबसूरत संयोग. आज सिगनल पर नहीं मिली क्योंकि मुझे आज औफिस जल्दी पहुंचना था. मुंबई से डायरैक्टर आए हैं, तो थोड़ी तैयारी करनी थी.’’

वह मेरे पैकेट मिलने तक बगल में ही खड़ी रही थी. मेरी समझ में नहीं आया कि यह सब मुझे क्यों बता रही है क्योंकि मैं तो उसे ढंग से जानता भी नहीं हूं, यहां तक कि उस का नाम तक नहीं मालूम.

‘‘मैं शोभना हूं’’, बोल कर उस ने अपना नाम तो बता दिया. दरअसल, हम दोनों कार पार्किंग तक साथसाथ चल रहे थे. मैं ने  अपना नाम अमित बताया. फिर दोनों अपनीअपनी कार में गुडनाइट कह कर बैठ गए. परंतु वह चलतेचलते ‘सी यू सून’ बोल गई है. जहां एक ओर मुझे खुशी भी हो रही है तो दूसरी ओर सोच रहा था कि यह मुझे से क्यों मिलना चाहती है.

अगले 3-4 दिनों तक फिर शोभना उस सिगनल पर नहीं मिली. एक दिन शाम को मैं शिल्पा रामम में लगी एक प्रदर्शनी में गया तो मेरी नजर शोभना पर पड़ी. गेहुंआ रंग, अच्छे नैननक्श वाली शोभना स्ट्रेचेबल स्किनफिट जींस और टौप में थी. इस बार मैं ही उस के पास गया और बोला, ‘‘हाय शोभना, तुम यहां?’’

उस ने भी मुड़ कर मुझे देखा और उसी परिचित मुसकान के साथ ‘हाय’ कहा. फिर उस ने 4 फोल्ंिडग कुरसियां खरीदीं. मैं ने उस से 2 कुरसियां ले कर कार तक पहुंचा दी थी. कार के पास ही खड़खड़े बातें करने लगे थे हम दोनों. शोभना ने कहा, ‘‘मैं कोंडापुर के शिल्पा पार्क एरिया में रघु रेजीडैंसी में नई आई हूं. 2 रूम का फ्लैट एक और लड़की के साथ शेयर करती हूं और आप अमित?’’

‘‘अरे, मैं भी आप के सामने वाले शिल्पा प्राइड में एक रूम के फ्लैट में रहता हूं. वैसे तुम मुझे तुम बोलोगी तो ज्यादा अपनापन लगेगा. तुम में मैं ज्यादा कंफर्टेबल रहूंगा.’’

शोभना हंसते हुए बोली, ‘‘मुझे पता है. मैं ने अपनी खिड़की से कभीकभी तुम को देखा है. बल्कि मेरे साथ वाली लड़की तो आईने से सूर्य की किरणों को तुम्हारे चेहरे पर चमकाती थी.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं कैसे मान लूं कि इस शरारत में तुम शामिल नहीं थीं?’’

‘‘तुम्हारी मरजी, मानो न मानो.’’

दोनों हंस पड़े और ‘बाय’ कह कर विदा हुए.

अगले दिन उसी सिगनल पर फिर हम दोनों मिले, पर सिगनल ग्रीन होने के पहले तय हुआ कि शाम को कौफी शौप में मिलते हैं. शाम को कौफी शौप में मैं ने शोभना से कहा कि एक ब्रेकिंग न्यूज है.

शोभना के पूछने पर मैं ने कहा, ‘‘कल सुबह की फ्लाइट से मैं दुबई जा रहा हूं. कंपनी ने दुबई में एक इंटरनैशनल सैमिनार रखा है. उस में कई देशों के प्रतिनिधि आ रहे हैं. उन के सामने प्रैजेंटेशन देना है.’’

‘‘ग्रेट न्यूज, कितने दिनों का प्रोग्राम है?’’ शोभना ने पूछा. मैं ने उसे बता दिया कि प्रोग्राम तो 2 दिनों का है, पर अगले दिन शाम की फ्लाइट से हैदराबाद लौटना है. तब तक कौफी खत्म कर मैं चलने लगा तो उस ने उठ कर हाथ मिलाया और ‘बाय’ कह कर चली गई.

कंपनी ने दुबई के खूबसूरत जुमेरह बीच पर स्थित पांचसितारा होटल ‘मुवेन पिक’ में प्रोग्राम रखा था. उसी होटल में 2 बैड के एक कमरे में मुझे और मेरे इवैंट मैनेजर के ठहरने का इंतजाम था. होटल तो मैं दोपहर में ही पहुंच गया था, पर शाम को मैं रिसैप्शन पर प्रोग्राम के लिए होने वाली तैयारी की जानकारी लेने आया तो देखा रिसैप्शन पर एक लड़की बहस कर रही है. निकट पहुंचा तो देखा यह शोभना थी.

मैं ने पूछा कि वह दुबई में क्या कर रही है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे कंपनी ने भेजा है और कहा कि मेरा कमरा यहां बुक्ड है. पर यह बोल रहा है कि कोई रूम नहीं है. बोल रहा कि कंपनी ने शेयर्ड रूम की बुकिंग की है.’’

मेरे रिसैप्शन से पूछने पर उस ने यही कहा कि शेयर्ड बुकिंग है इन की. मैं ने रूम पूछा तो उस ने चैक कर जो नंबर बताया, वह मेरा था. शोभना भी यह सुन कर चौंक गई थी. मैं ने उसे चैकइन कर मेरे रूम में चलने को कहा और बोला, ‘‘तुम रूम में चलो, मैं थोड़ी देर में इन की तैयारी देख कर आता हूं.’’

थोड़ी देर में जब वापस अपने रूम के दरवाजे पर नौक किया तो आवाज आई, ‘‘खुला है, कम इन.’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए पूछा, ‘‘तुम अचानक दुबई कैसे आई? कल शाम तो तुम साथ में थीं. तुम ने कुछ बताया नहीं था.’’

शोभना बोली, ‘‘तब मुझे पता ही कहां था? मैं हैदराबाद के इवैंट मैनेजमैंट कंपनी में काम करती हूं. मेरी कंपनी को इस इवैंट का कौन्ट्रैक्ट मिला है. मेरा मैनेजर आने वाला था. पर अचानक उस की पत्नी का ऐक्सिडैंट हो गया तो कंपनी ने मुझे भेज दिया. वह तो संयोग से मेरा यूएई का वीजा अभी वैलिड था तो आननफानन कंपनी ने मुझे भेज दिया.’’

तब मेरी समझ में सारी बात आई और मैं ने उस से कहा, ‘‘यह कमरा मुझे तुम्हारे मैनेजर के साथ शेयर करना था. अब उस की जगह तुम आई हो, तो एडजस्ट करना ही है. वैसे, मैं कोशिश करूंगा पास के किसी होटल में रूम लेने को, अगर नहीं मिला तो मैं यहीं सोफे पर सो जाऊंगा.’’

शोभना बोली, ‘‘नहीं, नहीं. सोफे पर क्यों सोना है? दोनों बैड काफी अलगअलग हैं. काम चल जाएगा.’’

खैर, अगले दिन हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ. सबकुछ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अच्छे से चल रहा था. मेरी कंपनी के प्रौडक्ट की सभी डैलीगेट्स ने प्रशंसा की थी. शोभना भी दिनभर काफी मेहनत कर रही थी. वह काले रंग के बिजनैस सूट में काफी स्मार्ट लग रही थी. सभी विदेशी डैलीगेट्स से एकएक कर मिली और पूछा कि वे संतुष्ट हैं या नहीं. दिनभर एक पैर पर खड़ी रही थी सभी मेहमानों का खयाल रखने के लिए.

निकाह-भाग 2 : बेटे की अनोखी जिद

80 के दशक में उन दिनों डाकू मोहर सिंह और मूरत सिंह के किस्से इतने अधिक प्रचलित थे कि डाकुओं की रौबिनहुड वाली छवि फिल्मी हीरो की भांति हमारी अवचेतना में निरंतर कौंधती रहा करती थी.

जेल के आगे बढ़ते ही मिशन स्कूल आता, उस से आगे मुल्लाजी का बगीचा और उस के बाद हमारे नए महल्ले की बस्ती शुरू हो जाती.

पुलिस लाइन से हाईस्कूल तक के 2 किलोमीटर का क्षेत्र एकदम वीरान था. सिवाय बीचोंबीच एक भुतहा मसजिद को छोड़ कर. यहां सुनसान में मसजिद क्यों और किस ने बनाई, किसी को नहीं पता था. मसजिद सड़क से थोड़ा पीछे हट कर तकरीबन 50 कदम पीछे की ओर बनी थी. उस के सामने छोटा सा खुला मैदान था, जिस में एक नलकूप था. भेड़बकरी चराने वाले इसी नलकूप पर कभीकभी पानी पीतेपिलाते दिख जाया करते थे. मसजिद का लकड़ी से बना दरवाजा हमेशा बंद दिखता, जिस की सांकल बाहर से कुंडी पर चढ़ी रहती. मसजिद में किसी को आतेजाते कभी नहीं देखा गया.

अब्दुल बताया करता कि मसजिद के आसपास जिन्न रहते हैं, जो रात में निकलते हैं. भुतहा मसजिद की दीवारों में बड़ीबड़ी दरारें हो गई थीं, जिन में से पीपल और बरगद की शाखाएं निकल आईं थीं.

एक दिन स्कूल से लौटते समय मैं ने अब्दुल से पूछा, “अब्दुल, मसजिद अंदर से कैसी होती है? वहां तुम्हारे कौन से भगवान की पूजा होती है?”

यह सुन कर अब्दुल हंसा था, “मसजिद के अंदर न तो कोई मंदिर होता है और न ही कोई मूर्ति. सिर्फ दीवारें होती हैं और काबा की ओर मुंह कर के नमाज पढ़ने का स्थान.”

फिर पता नहीं उसे क्या सूझा कि वह मेरा हाथ खींचते हुए भुतहा मसजिद में ले गया था. मैं डरा हुआ था कि कोई जिन्न आ कर न दबोच ले हमें.

मसजिद के दरवाजे की कुंडी खोल उस ने किवाड़ों को अंदर की ओर जैसे ही धकेला, तो दरवाजा आसानी से खुल गया.

हम दोनों ने चप्पल बाहर उतारे और अंदर चले गए थे. अंदर संगमरमर का फर्श था, पर था साफसुथरा. दीवारें जरूर मटमैली हो गई थीं.

यह देख अब्दुल खुद भी अचंभित रह गया था, फर्श इतना साफ कैसे? जरूर किसी ने सफाई की होगी. अब्दुल ने एक स्थान पर खड़े हो कर बताया था कि मौलवी साहब यहां से अजान दिया करते हैं.

मैं डरताडरता चारों ओर देखता रहा था कि कहीं कोई जिन्न न प्रकट हो जाए. मसजिद के बाहर निकलतेनिकलते पप्पू बोला था, “हरीश, ईद पर तुम्हें जामा मसजिद ले चलेंगे, जहां शहर के हजारों लोग ईद की नमाज पढ़ने इकट्ठे होते हैं.”
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अब्दुल के अब्बू की शहर के मुख्य बाजार में जूतों की दुकान थी. अकसर शाम के वक्त अब्दुल भी दुकान जाया करता और अब्बू की मदद करता. अब्दुल एक दिन मुझे भी साथ ले गया था. मुख्य बाजार के गांधी चौक में बड़ी सी दुकान के बाहर बोर्ड लगा था, ‘पप्पू शू कार्नर’.

मैं यह देख चकित रह गया था कि अब्बू कैसे किसी नाप के जूते लाने के लिए आवाज लगाते और गफ्फार तुरंत ला कर उन्हें पकड़ा देता. गफ्फार उन का घरेलू नौकर था, जो गांव से आ कर अब उन्हीं के यहां रहने लगा था.

गफ्फार अब तो 18-19 साल का हट्टाकट्टा जवान हो गया था, पर जब 5 साल पहले गांव से शहर आया था, तब मौत से संघर्ष कर रहा था. गांव में किसी आवारा बैल ने उस के गले में सींग घुसा दिया था. किसी तरह जान तो बच गई थी, पर उस का ‘वोकलकार्ड’ खराब हो गया था. 2 बार आपरेशन के बाद भी उस की आवाज नहीं लौटी, और गले से घर्रघर्र की आवाज निकलती.

गफ्फार दुकान खोलने के पहले और दुकान बंद करने के बाद पप्पू के यहां घर के सारे काम करता और दिन के समय दुकान में अब्बू की मदद.

अब्दुल ने मुझे समझाया था कि जूतों के डब्बों को इस तरह जमाया जाता है कि चाहे गए नाप और बनावट के जूते रैक से निकालने में न तो कोई कठिनाई हो और न समय लगे.

उस दिन पप्पू की दुकान से लौटते समय रास्तेभर मैं खयालों में डूबा रहा था कि बड़े हो कर मैं भी इसी तरह की जूतों की दुकान खोलूंगा.
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गफ्फार को सुबहसुबह पप्पू ने अर्जी देने मेरे घर भेजा था. कक्षा अध्यापक के नाम लिखी अर्जी में पप्पू ने पेटदर्द का बहाना बना कर एक दिन का अवकाश मांगा था.

मार्च महीने की उस सुहावनी सुबह अकेले स्कूल जाते समय जब पुलिस लाइन से मैं आगे बढ़ा, तो सड़क के दोनों ओर लगे महुआ के पेड़ों के नीचे स्कूल ना जाने वाले छोटेछोटे बच्चेबच्चियां दौड़दौड़ कर महुआ के टपके फूल बीनते नजर आए थे. वे श्वेत महुआ के फूलों को चुनचुन कर अपनी टोकरी में भर रहे थे. पूरे वातावरण में महुआ की विशेष मदमस्त कर देने वाली गंध फैली हुई थी. महुआ के इन्हीं फूलों को धूप में सुखा कर इन बच्चों की मां पूरे साल रोटी बना कर बच्चों को खिलाया करतीं.

स्कूल से लौटते समय तक चटक धूप हो गई थी और महुआ के पेड़ों की छाया सिकुड़ कर उन के तने तक सिमट गई थी. चारों ओर सन्नाटा था और दूर से भुतहा मसजिद आज और ज्यादा डरावनी दिख रही थी. मैं ने निगाहें दूसरी ओर फेर कदमों की रफ्तार बढ़ा दी थी. पर जब मसजिद के नजदीक पहुंचा, तो मुझे अचानक जिन्न का खयाल आ गया. मैं ने मसजिद की ओर नजर घुमाई तो देखा कि मसजिद का दरवाजा आज खुला हुआ है और दरवाजे के सामने कोई खड़ा है. हमेशा बंद रहने वाला दरवाजा आज क्यों खुला है? और वह खड़ा व्यक्ति कौन हैं? ये प्रश्न मेरे दिमाग में उठ रहे थे.

मैं ने एक बार फिर से खड़े आदमी को गौर से देखने की कोशिश की तो लगा, जैसे वह लंबी सफेद दाढ़ी वाला हाथ से इशारा करते हुए मुझे बुला रहा हो.

मैं ने डर के मारे आंखें बंद की और हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से दौड़ लगा दी थी. मेरे दादाजी कहा करते थे कि हनुमान चालीसा के पाठ से भूतप्रेत, जिन्न सब दूर भाग जाते हैं. बचपन में जब मैं उन की उंगली पकड़ तालाब किनारे बने हनुमान मंदिर में संध्या की आरती में जाया करता, तो लौटते समय गांव के सब से पुराने विशाल पीपल वृक्ष के नीचे से निकलते समय वे जोरजोर से हनुमान चालीसा गाने लगते थे. मैं भी उन का अनुसरण करते हुए उन के सुर में सुर मिलाया करता था.

 

भविष्यफल-भाग 1 : क्या मुग्धा भविष्यफल के जाल से बच पाई?

मुग्धा ने बेचैनी से घड़ी की ओर देखा. अरे, साढ़े 6 बज गए. अभी तक अखबार नहीं आया. आमतौर पर तो 6 बजतेबजते ही आ जाया करता है वह छोकरा. आज ही के दिन देर, उफ. बालकनी से सामने की मेन रोड दोनों ओर दूर तक दिखाई पड़ती थी. मुग्धा ने गरदन ऊंची कर के रोड के दोनों ओर निहारा. उस को अखबार देने वाला हौकर, जो लगभग 17-18 साल का नई उम्र का लड़का था, साइकिल पर अखबार लादे हुए आता दिखाई दिया.

यों तो मुग्धा को अखबार का इंतजार रोज ही बेचैनी से रहा करता पर इतवार वाले अखबार का इंतजार एक किस्म की सनक में बदल जाता. इतवार को वह 6 बजे ही बालकनी में आ बैठती. उस दिन अखबार के लिए इंतजार के वे कुछ पल ठीक उसी तरह बेसब्री से बीतते, जिस तरह किसी प्रियतमा के अपने प्रियतम के इंतजार में बीतते हैं.

दरअसल, इस अखबार के रविवारीय अंक में साप्ताहिक राशिफल का विस्तार से विवरण प्रकाशित होता था. हर राशि के सातों दिनों के भविष्यफल की विस्तृत व्याख्या उस में छपती थी. व्याख्या के लिए पूरे 2 पृष्ठ निर्धारित रहते. व्याख्याकार थे शहर के जानेमाने ज्योतिषाचार्य डा. अनिल नारियलवाला, जिन के बारे में किंवदंती थी कि उन की भविष्यवाणी कभी भी गलत नहीं होती. बात बिलकुल सही भी थी. मुग्धा को इस बात का एहसास कई बार हो चुका था. उसे डा. नारियलवाला के विश्लेषण पर पूरी आस्था रहती.

मुग्धा स्थानीय गर्ल्स कालेज में राजनीति विज्ञान की व्याख्याता थी. मार्क्स, लेनिन, एंजिल्स वगैरह के साहित्य का खूब अध्ययन किया था. मार्क्स का भौतिक द्वंद्ववाद और वर्ग संघर्ष का सिद्धांत वर्तमान आर्थिक परिप्रेक्ष्य में उसे सर्वाधिक तार्किक सिद्धांत लगता. वह प्रगतिशील विचारधारा की पोषक थी. स्त्री विमर्श और स्वाधीनता, दलित विमर्श और आरक्षण जैसे मुद्दों पर वह ओजपूर्ण वक्तव्य दे सकती थी. इन सब के बावजूद मन ही मन परंपरावादी भी थी.

भारतीय संस्कृति और धार्मिक कर्मकांड के प्रति सम्मोहन व आदर उसे विरासत में जो मिला था. मार्क्स का धर्म को अफीम कहना उसे हास्यास्पद लगता. धर्म तो सरासर आस्था व विश्वास की चीज है. वह हर माह की पूर्णिमा को सत्यनारायण कथा करवाती और व्रत रखती.

परंपरा व धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति आस्था की वजह से ही ज्योतिषशास्त्र के प्रति भी उस की अगाध श्रद्धा थी. डा. नारियलवाला उस के प्रिय ज्योतिषी थे. इस अखबार की ग्राहक होने का मुख्य  कारण भी यही था कि इस में डा. नारियलवाला रविवारीय परिशिष्ट में हर राशि का साप्ताहिक भविष्यफल विस्तार से लिखते थे.

दो भूत :अंदर पहुंचकर उर्मिला ने क्या किया?

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया.

घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी.

उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

 

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. य-पि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

 

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

तुम्हीं ने दर्द दिया है : जब सामने आई चारू के एड्स से पीड़ित होने की खबर

उस दिन मैं टेलीविजन के सामने बैठी अपनी 14 साल की बेटी के फ्राक में बटन लगा रही थी. पति एक हाथ में चाय का गिलास लिए अपना मनपसंद धारावाहिक देखने में व्यस्त थे. तभी दरवाजे पर घंटी बजी और मैं उठ कर बाहर आ गई.

दरवाजा खोला तो सामने मकानमालिक वर्माजी खड़े थे. मैं ने बड़े आदर से उन्हें भीतर बुलाया और अपने पति को आवाज दे कर ड्राइंगरूम में बुला लिया और बड़े विनम्र स्वर में बोली, ‘‘अच्छा, क्या लेंगे आप. चाय या ठंडा?’’

‘‘नहीं, इन सब की तकलीफ मत कीजिए. बस, आप बैठिए, एक जरूरी बात करनी है,’’ वर्माजी बेरुखी से बोले.

मैं अपने पति के साथ जा कर बैठ गई. थोड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबहसुबह कैसे आना हुआ. फिर अपने विचारों को विराम दे कर चेहरे पर बनावटी मुसकान ला कर उन्हें देखने लगी.

‘‘मुझे इस मकान की जरूरत है. आप कहीं और मकान ढूंढ़ लीजिए,’’ उन्होंने एकदम सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या?’’ मेरे पति के मुंह से निकला, ‘‘पर मैं ने तो 11 महीने की लीज पर आप से मकान लिया है. आप इस तरह बीच में छोड़ने के लिए कैसे कह सकते हैं.’’

‘‘सर, मेरी मजबूरी है इसलिए कह रहा हूं. और फिर यह मेरा हक है कि मैं जब चाहे आप से मकान खाली करवा सकता हूं.’’

दोनों के बीच विवाद को बढ़ता देख कर मैं ने बेहद विनम्र स्वर में कहा, ‘‘पर ऐसा क्या कारण है भाई साहब जो आप को अचानक इस मकान की जरूरत पड़ गई. हम ने तो हमेशा समय पर किराया दिया है. फिर आप का तो और भी एक मकान है. आप उसे क्यों नहीं खाली करवा लेते.’’

‘‘कारण आप भी जानती हैं. मुझे पहले से पता होता तो आप को कभी भी यह मकान न देता. मेरा 1 महीने का कमीशन और सफेदी कराने में जो पैसा खर्च हुआ, सो अलग.’’

‘‘पर ऐसा क्या किया है हम ने?’’ मैं चौंक गई.

‘‘कारण आप की बेटी है और उस की बीमारी है. पिछले मकान से भी आप को इसलिए निकाला गया क्योंकि आप की बेटी को एड्स है और ऐसी घातक बीमारी के मरीज को मैं अपने घर में नहीं रख सकता. फिर कालोनी के कई लोगों को भी एतराज है.’’‘‘भाई साहब, यह बीमारी कोई संक्रामक रोग तो है नहीं और न ही छुआछूत से फैलती है. यह तो हर जगह साबित हो चुका है और फिर हम दोनों में से यह किसी को भी नहीं है.’’

‘‘यह सब न मैं सुनना चाहता हूं और  न ही पासपड़ोस के लोग. अधिक पैसा कमाने की होड़ में आप लोग जरा भी नहीं समझते कि बच्चे किस तरफ जा रहे हैं. किन से मिलते हैं. बाहर क्याक्या गुल खिलाते हैं.’’

‘‘वर्माजी,’’ मेरे पति चीख पड़े, ‘‘आप के मुंह में जो आए कहते चले जा रहे हैं. आप को मकान खाली चाहिए मिल जाएगा पर इस तरह के अपशब्द और लांछन मुंह से मत निकालिए.’’

‘‘10 दिन बाद मकान की चाबियां लेने आऊंगा,’’ कह कर वर्माजी उठ कर चले गए.

उन के जाते ही मैं निढाल हो कर सोफे पर पसर गई. तभी भीतर से चारू आई और मुझ से आ कर लता की तरह लिपट कर रोने लगी. मेरे पति मेरे पास आ कर बैठ गए. कुछ कहतेकहते उन की  आवाज टूट गई, चेहरा पीला पड़ गया मानो वही दोषी हों.

अतीत चलचित्र सा मानसपटल पर तैरने लगा और एक के बाद एक कितनी ही घटनाएं उभरती चली गईं,

मैं उस दिन किटी पार्टी से लौटी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. फोन चारू के स्कूल से उस की क्लास टीचर का था. मेरे फोन उठाते ही वह हांफती हुई बोलीं, ‘आप चारू की मम्मी बोल रही हैं.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह बिना रुके बोलती चली गईं, ‘कहां थीं आप अब तक. मैं तो काफी समय से आप को फोन मिला रही हूं. आप के पति भी अपने आफिस में नहीं हैं.’

‘क्यों, क्या हुआ?’ मैं थोड़ा घबरा गई.

‘चारू सीढि़यों से फिसल कर नीचे गिर गई थी. काफी खून बह गया है. हम ने फौरन उसे फर्स्ट एड दे दी है. अब वह ठीक है. आप उसे यहां से ले जाइए,’ वह एक ही सांस में बोल गईं.

मैं ने बिना देर किए आटो किया और चारू के स्कूल पहुंच गई. वह मेडिकल रूम में लेटी थी और मुझे देख कर थोड़ा सुबकने लगी. मैं ने झट से उसे सीने से लगाया. तब तक वहां पर बैठी एक टीचर ने बताया कि आज हमारी नर्स छुट्टी पर थी. इसलिए पास के क्लीनिक से उस को मरहमपट्टी करवा दी है तथा एक पेनकिलर इंजेक्शन भी दिया है. मैं उसे थोड़ा सहारा दे कर घर ले आई. 1-2 दिन में चारू पूरी तरह ठीक हो गई और स्कूल जाने लगी.

इस बात को कई महीने हो गए. एक दिन सुबहसुबह मेरे पति ने बताया कि प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा है. मैं भी जाने को तैयार हो गई पर चारू थोड़ा मुंह बनाने लगी.

‘ममा, वहां बहुत चलना पड़ता है. मैं घर पर ही ठीक हूं.’

‘क्यों बेटा, वहां तो तुम्हारी रुचि की कई पुस्तकें होंगी. तुम्हें तो किताबों से काफी लगाव है. खुद चल कर

अपनी पसंद की पुस्तकें ले लो,’ मेरे पति बोले.

‘नहीं पापा, मेरा मन नहीं है,’ कह कर वह बैठ गई, ‘अच्छा, आप मेरे लिए कामिक्स ले आना और इंगलिश हैंडराइटिंग की कापी भी. टीचर कहती हैं मेरी हैंडराइटिंग आजकल इतनी साफ नहीं है.’

‘क्यों तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ मैं ने उस को अलग कमरे में ले जा कर पूछा. मुझे लगा कहीं उस के पीरियड्स न होने वाले हों, शायद इसीलिए वह थोड़ा जाने के लिए आनाकानी कर रही हो.

पति ने थोड़ा जोर से कहा, ‘नहीं बेटा, तुम को साथ ही चलना पड़ेगा. मैं ऐसे तुम को घर पर अकेला नहीं छोड़ सकता.’

वह अनमने मन से तैयार हो गई. पर मैं ने महसूस किया कि वह मेले में जल्दी ही बैठने की जिद करने लगती. फिर उसे एक तरफ बिठा कर हम लोग घूमने चले गए.

घर आतेआते वह फिर से एकदम निढाल हो गई. अगले दिन स्कूल की छुट्टी थी. मैं उसे ले कर डाक्टर के पास गई. उस ने थोड़े से टेस्ट लिख दिए जो 1-2 दिन में कराने थे. 2 दिन बाद फिर से ब्लड टेस्ट के लिए खून लिया चारू का.

अगले दिन सुबहसुबह डाक्टर का फोन आ गया और मुझे फौरन अस्पताल में बुलाया. पति तब आफिस जाने वाले थे. उन की कोई जरूरी मीटिंग थी. मैं ने कहा कि 12 बजे के बाद मैं आ कर मिल लेती हूं. पर वह बड़े सख्त लहजे में बोलीं कि आप दोनों ही फौरन अभी मिलिए. मैं थोड़़ा बिफर सी गई कि ऐसा भी क्या है कि अभी मिलना पड़ेगा पर वह नहीं मानीं.

हमारे पहुंचते ही डाक्टर बोलीं, ‘मुझे आप दोनों का ब्लड टेस्ट करना पड़ेगा.’

‘हम दोनों का?’ मैं एकदम मुंह बना कर बोली.

‘मैं ने आप की बेटी का 2 बार ब्लड टेस्ट किया है. मुझे बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि उसे एड्स है.’

‘क्या?’ हम दोनों ही चौंक गए. मेरी सांसें तेज होती गईं और छाती जोरजोर से धड़कने लगी. मैं ने अविश्वास से डाक्टर की तरफ देख कर कहा, ‘आप ने सब टेस्ट ठीक से तो देखे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?’

‘ऐसा ही है. अब देखना यह है कि यह बीमारी कहीं आप दोनों में तो नहीं है.’

मेरे तो प्राण ही सूख गए. मुझे स्वयं पर भरोसा था और अपने पति पर भी. फिर भी एक बार के लिए मेरा विश्वास डोल गया. यह सब कैसे हो गया था. हमारा ब्लड ले लिया गया. लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया है. मेरे पति उस दिन आफिस नहीं गए और न ही मेरा मन किसी काम में लगा.

दूसरे दिन हम दोनों की रिपोर्ट आ गई और रिपोर्ट निगेटिव थी. मैं ने डाक्टर को चारू के बारे में सबकुछ बताया और आश्वासन दिलाया कि उस के साथ कहीं कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ.

बातोंबातों में डाक्टर ने एकएक कर के बहुत सारे प्रश्न पूछे. तभी अचानक मुझे याद आया कि जब वह स्कूल में सीढि़यों से नीचे गिरी थी तो बाहर से एक इंजेक्शन लगवाया था. डाक्टर की आंखें फैल गईं.

‘आप के पास उस के ट्रीटमेंट और इंजेक्शन की परची है?’

‘ऐसा तो मुझे स्कूल वालों ने कुछ नहीं दिया पर एक टीचर कह रही थी कि उसे इंजेक्शन दिया था और इस बात की पुष्टि चारू ने भी की थी.’

हम लोग उसी क्षण स्कूल में जा कर प्रिंसिपल से मिले और अपनी सारी व्यथा सुनाई.

प्रिंसिपल पहले तो बड़े मनोयोग से सारी बातें सुनती रहीं फिर थोड़ी देर के लिए उठ कर चली गईं. उन के वापस आते ही मेरे पति ने कहा कि यदि आप उस टीचर को किसी तरह बुला दें जो चारू को क्लीनिक में ले कर गई थी तो हमें कारण ढूंढ़ने में आसानी होगी. कम से कम हम उस पर कोई कानूनी काररवाई तोकर सकते हैं.

‘क्या आप को उस का नाम मालूम है?’ वह बड़े ही रूखे स्वर में बोलीं.

चारू उस समय हमारी साथ थी पर वह इस बात का कोई ठीक से उत्तर नहीं दे सकी. इस पर प्रिंसिपल ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया कि मैं मामले की छानबीन कर के आप को बता दूंगी.

मेरे पति आपे से बाहर हो गए. उन की खीज बढ़ती गई और धैर्य चुकता गया.

‘हमारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और हम किस मानसिक दौर से गुजर रहे हैं, इस बात का अंदाजा है आप को. एक तो आप के स्कूल में उस दिन नर्स नहीं थी, उस पर जो उपचार बच्ची को दिया गया उस का भी आप के पास ब्योरा नहीं है. आप सबकुछ कर सकती हैं पर आप कुछ करना नहीं चाहती हैं. इसीलिए कि आप का स्कूल बदनाम न हो जाए. मैं एकएक को देख लूंगा.’

‘आप को जो करना है कीजिए, पर इस तरह चिल्ला कर स्कूल की शांति भंग मत कीजिए,’ वह लगभग खड़े होते हुए बोलीं.

दोषियों को दंड दिलवाने की इच्छा भी बेकार साबित हुई. चारू की रिपोर्ट से हम ने थोड़ेबहुत हाथपैर मारे पर सुबूतों के अभाव में दोषी डाक्टर एवं उस का स्टाफ बिना किसी बाधा के साफ बच कर निकल गया और जो हमारी बदनामी हुई, वह अलग.

हां, यदि प्रिंसिपल चाहती तो उन को सजा हो सकती थी पर वह क्लीनिक तो चलता ही प्रिंसिपल के इशारे पर था. स्कूल में प्रवेश से पहले सभी विद्यार्थियों को एक सामान्य हेल्थ चेकअप एवं सर्टिफिकेट की जरूरत होती थी जो वहीं से मिल सकता था.

चारू को एड्स होने की बात दावानल की भांति शहर भर में फैल गई. हम लोगों को हेय नजरों से देखा जाने लगा. चारू की स्कूल में भी हालत लगभग ऐसी ही थी.

सरकार के सारे बयान कि एड्स कोई छुआछूत की बीमारी नहीं है व छूने से एड्स नहीं फैलता, लगभग खोखले हो चुके थे. मेरे घर पर भी कालोनी वालों का आना लगभग न के बराबर हो गया. किटी पार्टी छूट गई. बरतन मांजने वाली भी काम से किनारा कर गई. हम लोग उपेक्षित एवं दयनीय से हो कर रह गए थे. हम सुबह से शाम तक 20 बार जीते 20 बार मरते.

यह जानते हुए भी कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है फिर भी अपने मन को समझाने के लिए जिस ने जो बताया मैं ने कर डाला. जिस का असर मेरे तनमन पर यह पड़ा कि मैं खुद को बीमार जैसा अनुभव करने लगी थी. यह जिंदगी तो मौत से भी कहीं ज्यादा कष्ट- दायक थी.

एक दिन चारू रोती हुई स्कूल से आई और कहने लगी कि क्लास टीचर ने उसे सब से अलग और पीछे बैठने के लिए कह दिया है. कहा ही नहीं, अलग से इस बात की व्यवस्था भी कर दी है. मेरा दिल भीतर तक दहल गया. इस छोटे से दिल के टुकड़े को जीतेजी अलग कैसे कर दूं. वह बिलखती रही और मैं चुपचाप तिलतिल सुलगती रही.

मैं ने वह स्कूल और घर छोड़ दिया तथा इस नई कालोनी में घर ले लिया और पास ही के स्कूल में चारू को एडमिशन दिलवा दिया, यही सोच कर कि जब तक यह स्कूल जा सकती है जाए. उस का मन लगा रहेगा. पर यहां भी हम से पहले हमारा अतीत पहुंच गया.

अचानक पति के कहे शब्दों से मेरी तंद्रा टूटी और मैं वर्तमान में आ गई.

हमें 10 दिन के भीतर मकान खाली करना है यह सोच कर हम फिर से परेशान हो उठे. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था हमारी चिंता और बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे की घंटी बजी तो मैं परेशान हो उठी. मुझे दरवाजे और टेलीफोन की घंटियों से अब डर लगने लगा था. मैं ने दरवाजा खोला. सामने एक बेहद स्मार्ट सा व्यक्ति खड़ा था. उस ने मेरे पति से मिलने की इच्छा जाहिर की. मैं बड़े सत्कार से उसे भीतर ले आई. मेरे पति के आते ही वह खड़ा हो गया. फिर बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं डा. चौहान हूं, चाइल्ड स्पेशलिस्ट. आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

‘‘मैं आप को कैसे भूल सकता हूं,’’ सकते में खड़े मेरे पति बोले, ‘‘आप की वजह से तो मेरी यह हालत हुई है. आप के क्लीनिक के इंजेक्शन की वजह से तो मेरी बच्ची को एड्स हो गया. अदालत से भी आप साफ छूट गए. अब क्या लेने आए हैं यहां? एक मेहरबानी हम पर और कीजिए कि हम तीनों को जहर दे दीजिए.’’

‘‘सर, आप मेरी बात तो सुनिए. आप जितनी चाहे बददुआएं मुझे दीजिए, मैं इसी का हकदार हूं. जो गलती मेरे क्लीनिक से हुई है उस के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मेरी ही लापरवाही से यह सबकुछ हुआ है. कोर्ट ने मुझे बेशक छोड़ दिया पर आप का असली गुनहगार मैं हूं. और यह एक बोझ ले कर मैं हर पल जी रहा हूं,’’ और हाथ जोड़ कर वह मेरी ओर देखने लगा. स्वर पछतावे से भरा प्रतीत हुआ.

‘‘मैं ने इस शहर को छोड़ कर पास के शहर में अपना नया क्लीनिक खोल लिया है. इनसान दुनिया से तो भाग सकता है पर अपनेआप से नहीं. मैं मानता हूं कि मेरा अपराध अक्षम्य है पर फिर भी मुझे प्रायश्चित्त करने का मौका दीजिए.

‘‘मैं अपने सूत्रों से हमेशा आप के परिवार पर नजर तो रखता रहा पर यहां तक आने और माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा सका. अभी कल ही मुझे पता चला कि आप पर फिर से मकान का संकट आ पड़ा है तो मैं यहां तक आने की हिम्मत कर सका हूं.

‘‘मैं जहां रहता हूं वहीं नीचे मेरा क्लीनिक है. मैं चाहता हूं कि आप लोग मेरे साथ चल कर मेरे मकान में रहिए. मुझे आप से कोई किराया नहीं चाहिए बल्कि आप की चारू का उपचार मेरी देखरेख में चलता रहेगा. मुझे एक बड़ी खुशी यह होगी कि मेरे लिए आप लोगों की सेवा का मौका मिलेगा,’’ कहतेकहते वह मेरे चरणों में गिर पड़ा. उस का स्वर जरूरत से ज्यादा कोमल एवं सहानुभूति भरा था.

मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं. उस का स्वर भारी और आंखें नम थीं. उस के यह क्षण मुझे कहीं भीतर तक छू गए. अचानक मां के स्वर याद आ गए, ‘अतीत कड़वा हो या मीठा, उसे भुलाने में ही हित है.’

‘‘मुझे सोचने के लिए समय चाहिए. मैं कल तक आप को उत्तर दूंगी.’’

‘‘मैं कल आप का उत्तर सुनने नहीं बल्कि आप को लेने आ रहा हूं. मेरा आप का कोई खून का रिश्ता तो नहीं पर अपना अपराधी समझ कर ही मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए,’’ कहते- कहते उस का गला भर गया और आंसू छलक आए.

उस के इन शब्दों में आत्मीयता और अधिकार के भाव थे. आंखें क्षमायाचना कर रही थीं.

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