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शीजान की मां ने फलक नाज की तस्वीर शेयर कर लिखी इमोशनल पोस्ट

टीवी एक्ट्रेस तुनीषा शर्मा ने बीते दिनों शूटिंग के दौरान सेट पर आत्मत्या कर ली थी, जिसके बाद से तुनीषा को लेकर लगातार खबरें बन री थी. तुनीषा की मां ने शीजान पर हत्या का आरोप लगाया था, जिसके बाद से टीवी एक्टर शीजान के गिरफ्तार किया गया था और वह इन दिनों जेल में हैं.

इसी बीच शीजान की मां कहकशा फैजी ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक पोस्ट शेयर किया है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि हमें किस बात की सजा दी जा रही है, इसके साथ ही उन्होंने फोटो अटैच किया है फलक नाज का.

 

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जिसमें फलक अस्पताल में नजर आ रही हैं, इसकी तस्वीर में आप देख सकते हैं कि फलक अस्पताल में नजर आ रही हैं, उन्होंने लिखा है कि क्यों मेरा बेटा शीजान पिछले 1 महीने से कैदियों की तरह काट रहा है, उसे किस बात की सजा दी जा रही है. मेरी बेटी एक सप्ताह से बीमार चल रही है.

मेरा छोटा बेटा पिछले कुछ दिनों से बेड पर पड़ा हुआ है, ऐसे में हमें दुआ की जरुरत है,  जाने किस बात कि सजा हम भुगत रहे हैं. फैंस को भी शीजान और तुनीषा केस का इंतजार है कि कोर्ट क्या फैसला लेती है.

दीपिका कक्कड़ और शोएब इब्राहिम के घर जल्द गूंजेगी किलकारी, इंस्टाग्राम पर किया खुलासा

एक्ट्रेस दीपिका कक्कड़ और शोएब इब्राहिम के घर जल्द गुंजेगी किलकारी , शादी के पांच साल बाद एक्ट्रेस मां बनने जा रही है.

दरअसल, दीपिका और शोएब ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट के जरिए अपने फैंस को अपनी प्रेग्नेंसी की सूचना दी है. जिसकी जानकारी मिलने के बाद से फैंस लगातार कपल को बधाई दे रहे हैं.

दीपिका और शोएब ने जो फोटो शेयर कि है उसमें कैमरे से पीछे की साइड से लिया गया है, जिसमें शोएब और दीपिका के कैप पर लिखा है मॉम और डैड जिसे देखकर साफ हो जा रहा है कि कपल अपने आने वाले बच्चें को लेकर काफी ज्यादा एक्साइटेड हैं.

 

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दीपिका और शोएब ने तस्वीर को शेयर करते हुए लिखा है कि बेहद खुशी के साथ यह बताना चाहते हैं कि हम लाइफ के खूबसूरत चरण में हैं. हां हम अपने बच्चे की उम्मीद कर रहे हैं. हम अपने नन्हें मुन्ने बच्चें की लाने की तैयारी शुरू कर दिए हैं.

सेलिब्रिटी लगातार दीपिका और शोएब को बधाई दे रहे हैं, बता दें कि दीपिका और शोएब की मुलाकात ससुराल सिमर का में हुई थी, इसके बाद से इनकी दोस्ती हुई. यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई किसी को पता भी नहीं चला.

एक लंबे समय तक एक दूसरे को डेट करने के बाद से कपल ने पूरी जिंदगी साथ गुजारने का फैसला ले लिया. अब दोनों एक दूसरे के साथ काफी ज्यादा खुश रहते हैं. दीपिका और शोएब अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाते नजर आते हैं.

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उस की डायरी- भाग 2: आखिर नेत्रा की पर्सनल डायरी में क्या लिखा था

पहले उस ने सोचा कि वह इस वक्त डायरी को दराज में रख देता है, कल कहीं फेंक आएगा. फिर मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि आखिर नेत्रा ने अपनी डायरी में क्या लिखा होगा. अगर उस के विषय में भी नहीं तो अपने प्रेम प्रसंग के विषय में तो जरूर लिखा होगा. शायद इसीलिए वह अपनी डायरी को छिपा कर रखती थी.

यही सोच कर शिशिर ने डायरी को खोल कर पन्ने पलटने शुरू किए. वह भौचक्का रह गया. नेत्रा अपनी डायरी इस प्रकार लिखती थी मानो वह शिशिर से बात कर रही हो. ऐसा कोई पन्ना नहीं था, जिस पर नेत्रा ने शिशिर को संबोधित करते हुए अपने मन की बात न लिखी हो.

शिशिर अचंभे में था. उस ने एकएक पन्ने को विस्तारपूर्वक पढ़ना शुरू किया तो पाया कि नेत्रा रोज डायरी नहीं लिखती थी. 1 तारीख के बाद सीधे 7 तारीख का पन्ना था. नेत्रा ने छोटीछोटी बातों से ले कर हर बड़ी घटना का जिक्र अपनी डायरी में किया था.

‘शिशिर, आज मैं ने आप के लिए पनीर के कोफ्ते बनाए थे. चखने पर पता चला कि मैं नमक डालना भूल गई थी…’ जैसी खट्टीमीठी बातें पढ़ कर शिशिर कितनी ही देर तक हंसता रहा.

उस ने कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा. साढ़े 11 बज चुके थे. न उसे नींद आ रही थी और न ही डायरी को छोड़ने का दिल कर रहा था. वह एक छोटा सा ब्रेक लेने के लिए उठ खड़ा हुआ. कौफी बना कर फिर वहीं वापस आ कर बैठ कर डायरी को दोबारा पढ़ने लगा.

शादी के पहले वर्ष के दौरान नेत्रा ने सब अच्छा ही लिखा था, पर शादी के दूसरे वर्ष में प्रवेश करतेकरते उस की बातों में उदासी झलकने लगी थी.

एक पृष्ठ पर लिखा था, ‘शिशिर, आजकल आप मुझ से नाराज क्यों रहते हैं. मुझ से ठीक से बात भी नहीं करते हैं. क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’ वहीं दूसरे पृष्ठ पर उस के रात को देर से घर आने की बात लिखी थी.

शिशिर यह पढ़ कर भी खीझ उठा. उसे नेत्रा पर गुस्सा आने लगा. क्या वह इतनी मूर्ख थी, जो यह भी नहीं समझ पा रही थी कि शिशिर उस का गंवारपन बरदाश्त नहीं कर पा रहा था. उसे बदलने की कितनी कोशिशें की तो थीं, पर जब कोई खुद को बदलना ही न चाहे तो किया भी क्या जा सकता है.

काफी रात हो गई थी. शिशिर को उबासी आने लगी तो उस ने डायरी को अगली रात तक के लिए दराज में रख दिया और अपने कमरे में जा कर सो गया.

अगला पूरा दिन भागदौड़ में बीत गया. फोन और बिजली के कनैक्शन दोबारा चालू करवाने के लिए अर्जी दी. राशन व बाकी जरूरी सामान की खरीदारी की. नौकर से बाकी बचे कमरों की सफाई करवाई और सारा बेकार व टूटाफूटा सामान स्टोररूम में रखवाया. काम निबट जाने के बाद मुग्धा को फोन कर के सब बताया. रात होतेहोते शिशिर थक कर चूर हो चुका था. अब इंतजार था नौकर के जाने का, ताकि वह नेत्रा की डायरी को आगे पढ़ सके.

नौकर के जाते ही शिशिर ने झट से दरवाजा बंद किया और दराज से डायरी निकाल कर अपने पलंग पर लेट कर पढ़ने लगा. वह काफी सारे पन्ने यों ही पलटता रहा, क्योंकि उन सब पर ज्यादातर एक सी ही बातें लिखी थीं, जिस में नेत्रा अपने प्रति शिशिर के बदलते व्यवहार को ले कर परेशान थी.

अभी तक तो उस की डायरी में उस के प्रेमी का कोई जिक्र नहीं मिला था, लेकिन शायद आगे कुछ न कुछ जरूर मिलेगा, यही सोच कर वह पन्ने पलटता गया.

उस के बाद शिशिर उस पृष्ठ पर रुका जिस पर उस की शादी की दूसरी वर्षगांठ का जिक्र था. वह दिन जब नेत्रा ने सारे औफिस के लोगों और दोस्तों के सामने उसे शर्मिंदा किया था. इस पृष्ठ पर उस ने मेरे बारे में जरूर कुछ उलटासीधा लिखा होगा, यह सोच कर शिशिर ने पढ़ना शुरू किया.

‘प्रिय शिशिर,

‘शादी की दूसरी वर्षगांठ बहुतबहुत मुबारक हो. मैं यही आशा करती हूं कि आप की सारी मनोकामनाएं पूरी हों. आप को जीवन में हमेशा खुशियां और सफलताएं मिलें. आज आप ने अपने मित्रों के अनुरोध पर एक पार्टी का आयोजन किया था. सारा दिन आप मुझे निर्देश देते रहे कि मैं आप के मित्रों के सामने अपना मुंह न खोलूं, अच्छी तरह से तैयार हो कर ही पार्टी में आऊं इत्यादि.

‘आप ने सुबह से ले कर शाम तक मुझे इतना कुछ कहा, पर एक बार भी मुझे शादी की सालगिरह की मुबारकबाद नहीं दी. मैं ने आप को शुभकामनाएं दीं, तब भी आप ने मुझे जवाब नहीं दिया.

‘शाम को जब मैं पार्टी के लिए तैयार हो कर आई तो आप ने मुझे एक कोने में ले जा कर कितना डांटा, भलाबुरा कहा. यहां तक कि मेरे साड़ी पहन कर आने पर मुझे गंवार भी कह दिया.

‘पर क्या आप ने एक बार भी यह ध्यान दिया कि यह वही साड़ी थी, जो आप ने मुझे हमारी शादी की पहली सालगिरह पर तोहफे में दी थी. यह मुझे आप की ओर से मिला एकमात्र उपहार था, शिशिर. यह साड़ी मुझे हर चीज से अधिक प्रिय है और बस, इसीलिए मैं यह साड़ी पहन कर पार्टी में चली आई.

‘मुझे लगा था कि आप मुझे इस साड़ी में देख कर खुश होंगे. लेकिन आप केक काटते ही तबीयत खराब होने का बहाना कर पार्टी से वापस चले गए. मुझे बहुत दुख है कि मेरी वजह से आप का मूड खराब हो गया. शायद मैं आप को अपना प्रेम दिखाने के चक्कर में गलती कर बैठी. मैं ने आप से कई बार माफी मांगी, पर आप ने मेरी बात ही नहीं सुनी. मुझे माफ कर दीजिए, शिशिर.’

पढ़ कर शिशिर हैरान था. उस ने वाकई में यह ध्यान ही नहीं दिया था कि नेत्रा ने उसी की दी हुई साड़ी पहनी है. क्या वह इतना कठोर हो गया था कि उस ने नेत्रा को शादी की सालगिरह की मुबारकबाद तक नहीं दी थी. खैर, अब जो हो गया सो हो गया, उसे बदला थोड़े ही जा सकता है. यह सोच कर वह आगे पढ़ने लगा. उस के बाद उस ने जितने भी पष्ृठ पढ़े, उन पर उन के अकसर होने वाले झगड़ों व नेत्रा की बेबसी का जिक्र था.

फैसला-भाग 1 : राजनीति के चक्रव्यूह में रत्ना

“कौंग्रेच्यूलेशन रत्ना… वैलडन. तुम्हारी मेहनत रंग लाई. तुम्हारी पीएचडी को ‘ए ग्रेड’ मिला है. वाकई तुम ने बहुत मेहनत की है आंकड़े जुटाने में,” आज सागर, मध्य प्रदेश की केंद्रीय यूनिवर्सिटी से रत्ना को पीएचडी अवार्ड होने पर उस के गाइड प्रोफैसर मिश्रा ने शाबाशी दी.

“अरे वाह, रत्ना को देख कर लगता नहीं कि वह ऐसे चुनौतीपूर्ण विषय को ले कर बाजी मार जाएगी.”

“इसलिए कहते हैं कभी किसी की शारीरिक बनावट से उस को मत तोलो. तुम ने क्या सोचा सांवली, दुबलीपतली सी रत्ना भला कहां अंजाम दे पाएगी अपने प्रोजैक्ट को… तुम ने शायद वह कहावत नहीं सुनी…”

“कौन सी?”

“अरे वही, वह क्या कहते हैं कि ’मूर्ति लहान कर्म महान’… ऐसी ही है हमारी रत्ना.”

“भई, कदकाठी से कुछ नहीं होता… जंग जीती जाती है आत्मविश्वास से. देखते नहीं हमारी रत्ना में वह आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा है,” दोस्तों में चर्चा का विषय बनी हुई है आज रत्ना.

“भई, रत्ना शुरू से ही होनहार है, राजनीति शास्त्र में प्रथम श्रेणी में एमए और फिर ‘ए ग्रेड’ में पीएचडी… भविष्य उज्ज्वल है तुम्हारा. हमारी तरफ से भी बहुत बधाई,” प्रोफैसर रजनी ने भी रत्ना की पीठ थपथपाते हुए कहा.

“थैंक्यू सर, थैंक्यू मैम, आप सभी का बहुत सपोर्ट रहा, तभी मैं यह कर पाई.”

आज जहां उस के कालेज साथी बहुत खुश थे, वहीं सभी प्रोफैसर रत्ना को बधाई दे रहे थे.

“वाओ… रत्ना बधाई, आज से तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लग गया है… डा. रत्ना प्रखर,” निशिकांत बोला.

“वैसे, क्या विषय था तुम्हारे शोध का?”

“निशि, मैं ने ‘प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार और सोशल मीडिया की भूमिका’ विषय पर शोध किया है.”

“वाह, बहुत ही प्रासंगिक विषय है.”

“हां, तुम ने तो राजनीति और सोशल मीडिया दोनों को कठघरे में ले लिए,” कामिनी बोली.

“कामिनी, प्रजातंत्र में मेरी गहरी आस्था है और जिस तरह प्रजातंत्र को भ्रष्टाचार के रंग में रंगा जा रहा है, इस से जनता को रूबरू कराना बहुत आवश्यक है.”

“अच्छा, यह बताओ कि अब आगे क्या सोचा है? कौन सा कालेज जौइन करोगी?” रोहन ने पूछा.

“हां भई, जिस कालेज में चाहेगी जौब पक्की है. आखिर प्रोफैसर मिश्रा की स्टूडैंट है, सिक्का चलता है प्रोफैसर मिश्रा का.”

“नहीं कामिनी, मैं कोई कालेज जौइन नहीं कर रही.”

“मगर क्यों?” इस बार सभी मित्र चौंक पड़े.

“राजनीति शास्त्र में पीएचडी कर के क्या घर बैठने का इरादा है या पापा की दुकान संभालोगी?”

“न ही मैं घर बैठूंगी, न ही पापा की दुकान संभालने का इरादा है.”

“फिर…?”

“मैं राजनीति में जाना चाहती हूं,” रत्ना आत्मविश्वास से भरी आवाज में बोली.

“राजनीति में… दिमाग तो ठीक है तेरा?” निशि बोला.

“राजनीति का नाम सुन कर इतना हैरान क्यों हो गए निशि ?”

“क्या तुम जानती नहीं कि राजनीति में कितनी कीचड़ है ?” रोहन ने हैरान हो कर कहा.

“सही कहा तुम ने, किंतु यह कीचड़ किसी को तो साफ करनी होगी न रोहन,” रत्ना शांत भाव से बोली.

“मगर, इस के लिए क्या एक तू ही रह गई है… क्यों अपनी जिंदगी से खिलवाड़ कर रही है?” रोहन फिर बोला.

“अपने पापा से बात की इस संबंध में?” कामिनी ने पूछा.

“हां, की है.”

“रोका नहीं उन्होंने?”

“नहीं, पापा ने कहा कि मैं ने तुम्हें शिक्षा ही इसलिए दिलाई है कि तुम अपना उचितअनुचित समझ सको. अगर तुम्हें यही उचित लगता है, तो मेरी तरफ से कोई एतराज नहीं.”

“फिर भी रत्ना मेरे खयाल से यह तुम्हारा पागलपन है.”

“हां रत्ना, एक बार फिर से सोच लो. यह राजनीति काजल की वह कोठरी है, इस में जो भी जाता है उसे कालिख लग ही जाती है. एक बार उस दलदल में फंसने के बाद निकलना मुश्किल हो जाता है.”

“मैं ऐसा नहीं मानती और फिर दलदल को साफ करने के लिए दलदल में उतरना ही पड़ता है न.

“यदि सभी युवा इसी तरह सोचते रहे तो यह राजनीति व्यभिचारियों और अपराधियों का अड्डा बन कर रह जाएगी. आखिर इस बीमार राजनीति की वैक्सीन हम युवाओं को ही तो खोजनी है,” रत्ना ने विश्वास के साथ जवाब दिया.

 

अकेली स्त्री अपनाए दूरदर्शिता

कनकप्रभा के पति 2 करोड़ रुपए से ज्यादा की दौलत पत्नी के नाम छोड़ गए थे. किसी फिल्मी चरित्र की भांति पिता के जीवनकाल में ही 1 बेटा 10वीं में फेल हो जाने के बाद घर से भाग गया था जिस का आज तक पता नहीं चला. दूसरा बेटा एक ज्वैलर के साथ दक्षिण अफ्रीका जा कर रहने लगा. सुना है, उस ने वहां निजी व्यवसाय शुरू कर लिया है और वहीं की एक युवती से विवाह कर घर बसा लिया है.

अकेलेपन से परेशान हो कर कनकप्रभा घर के पास स्थित एक आश्रम में जाने लगी. एक दिन उस ने अपनी कथाव्यथा आश्रम के धर्मगुरु को कह सुनाई. धर्मगुरु ने सहानुभूति जताई और प्रवचनों के माध्यम से सुनियोजित तरीके से उस में वितृष्णा का भाव जागृत कर संपूर्ण संपत्ति ट्रस्ट के नाम करवा ली. सबकुछ दान कर देने के बाद पिछले 6 वर्षों से कनकप्रभा आश्रम की शरणागत है. 62 साल की उम्र में पति द्वारा छोड़ी गई लाखों रुपए की संपत्ति के बावजूद, पाईपाई को मुहताज कनकप्रभा आश्रम में दासी की भांति काम करने को मजबूर है क्योंकि नियमानुसार सारी संपत्ति ट्रस्ट के नाम से अंतरित हो चुकी है.

58 वर्षीया वंदना के पति श्यामजी सरकारी अधिकारी थे. 2 पढ़ेलिखे, सुयोग्य बेटों का परिवार था. दोनों आईटी इंजीनियर थे, सो अच्छे पैकेज पा कर सपरिवार अमेरिका जा कर बस गए. श्यामजी स्वाभिमानी थे. अंतर्मन से तो उन्हें बेटेबहुओं की प्रतीक्षा रहती थी किंतु वे उन के समक्ष झुकने व मिन्नतें करने को तैयार न थे. आखिरकार मौन प्रतीक्षारत श्यामजी का 6 वर्ष पूर्व निधन हो गया.

पत्नी के लिए वे 50 लाख रुपए की एफडी और 50 लाख रुपए का फ्लैट छोड़ गए. वंदना को आशा थी कि पिता के गुजर जाने के बाद बेटे अब जिम्मेदारी महसूस करेंगे किंतु उन्हें मां से अधिक जायदाद की जिम्मेदारी महसूस हुई. वे वंदना की वेदना तनिक भी नहीं समझ पाए. एक बार दोनों बेटे आए, मां को भरमा कर संपत्ति हस्तगत की और वृद्धाश्रम में भरती करवा कर चलते बने. विगत 4 साल से वृद्धाश्रम में रह रही वंदना पथराई निगाहों से बेटों की राह तक रही हैं.

भारत का सामाजिक तानाबाना न्यूनाधिक रूप से आज भी ऐसा है जिस में अधिकांश महिलाएं पिता या पति पर ही आर्थिक रूप से निर्भर होती हैं. वक्त की मार से वे पतिहीन हो जाएं तो उस के बाद उन्हें पुत्र व पुत्रवधू के शरणागत होना पड़ता है.

कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं कि कुछ पतिपत्नी, जो स्वाभिमानी किस्म के होते हैं अथवा परिस्थितिवश अकेले रहने हेतु बाध्य होते हैं, उन में पति की मृत्यु होने के बाद पत्नी अकेले रहने को अभिशप्त हो जाती है और अवसादवश विक्षिप्तता की शिकार बन जाती है. बहुत बार तो ऐसी एकाकी स्त्रियां नौकरों, चोरलुटेरों, स्वजनों या असामाजिक तत्त्वों की शिकार बन कर जान से हाथ धो बैठती हैं.

एक सर्वेक्षण के मुताबिक, देशभर में लगभग 2 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें पति की मृत्यु के बाद पति द्वारा छोड़ी गई संपत्ति, दायित्व का स्वयं ही प्रबंधन करना होता है. नैसर्गिक रूप से यह सहारा वे पुत्रपौत्रों से प्राप्त करने का प्रयास करती हैं स्त्री की यही निर्भरता कई बार उस के लिए घातक सिद्ध होती है जब भावी मालिक, पहले ही मालिक बन जाने की आकांक्षा में सबकुछ हड़प जाते हैं.

भोपाल के एक विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन केंद्र के अनुसार, धीरेधीरे क्षरित हो रही संयुक्त परिवार प्रथा के चलते 90 के दशक के बाद से सामाजिक परिस्थितियों व सोच में तेजी से बदलाव आया है. ‘पारिवारिक अवलंबन’ के घटते आधार के परिणामस्वरूप अधिकतर पुरुष असुरक्षा के भय से जमीनजायदाद, पैंशन या फंड आदि के रूप में इतनी संपत्ति अवश्य छोड़ जाना चाहते हैं जिस से आश्रिता पत्नी या अन्य आसानी से भरणपोषण कर सकें और उन्हें आर्थिक रूप से किसी की दया पर निर्भर न रहना पड़े.

आर्थिक नियोजन संस्थान के सलाहकारों के आकलन के अनुसार, उच्चमध्यम परिवार का मुखिया जो सामान्यतया 50 हजार रुपए महीना कमाता है, औसतन 25 लाख रुपए तक का मकान और 10-15 लाख रुपए का कोष परिवार के लिए छोड़ कर जाता है. यदि पति द्वारा छोड़ी गई संपत्ति व कोष का विवेकपूर्ण नियोजन कर इस्तेमाल किया जाए तो महिला का शेष जीवन सुगमता से गुजारने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है लेकिन दुख की बात है कि मुश्किल से 2-3 फीसदी महिलाएं ही ऐसा कर पाने में सफल होती हैं.

98 फीसदी महिलाएं तो सबकुछ हो कर भी धनहीन रहने को विवश होती हैं. कनकप्रभा जैसी धर्मभीरुओं के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं जिन की संपत्तियां अनाधिकृत रूप से धर्मगुरुओं द्वारा हरण कर ली जाती हैं.

इसलिए आवश्यक है कि पति अपने जीवनकाल में ही पत्नी को अपनी चलअचल संपत्ति के अधिकारपत्रों, उन के नामांकन आदि से परिचित रखे. इस में पति से अधिक पत्नी का कर्तव्य बनता है कि वह जागरूक रह कर, रुचि के साथ संपत्ति विवरणों की जानकारी हासिल करे. पतिपत्नी को चाहिए कि वे सदैव चलअचल संपत्ति की वसीयत बनवाएं और उन्हें अद्यतन करवाते रहें.

यह तो हुई स्थायी संपत्ति की बात, जहां तक तरल कोष (नकद, बैंक खाते, पौलिसी, शेयर, फंड, भविष्य निधि आदि) की बात है, उन में भी नामांकन किया जाना आवश्यक है और इन सब की जानकारी कम से कम पत्नी को अवश्य होनी चाहिए. भावुकता का दामन छोड़ कर नामांकन में बच्चों के बजाय पत्नी का नाम ही करवाना श्रेयस्कर है.

देखने में आया है कि कई बार भवन, वाहन या अन्य संपत्ति पर पति द्वारा बैंक, बीमा कंपनी या वित्तीय संस्थान से कर्ज लिया हुआ होता है और उस के चुकता किए बिना ही पति की मृत्यु हो जाती है. ऐसी स्थिति में पत्नी को ही पति द्वारा लिया गया कर्ज चुकाना पड़ता है.यदि कर्ज चुकाने की स्थिति नहीं है तो बेहिचक वित्तीय संस्थान को बता दिया जाना चाहिए ताकि संपत्ति अधिगृहीत कर उस के बेचने से कर्ज चुकता होने के बाद शेष बची राशि आप को मिल सके.

यदि कोई संपत्ति ऐसी है जिस की वसीयत नहीं है तो जागरूकता का परिचय देते हुए यथोचित समयावधि में सक्षम अधिकारी के समक्ष पति के मृत्यु प्रमाणपत्र सहित दावा पेश करें क्योंकि पति द्वारा अर्जित संपत्ति में पत्नी व बच्चों का समान हक होता है.

पिछले कुछ सालों में बने 2 कानूनों ने संपत्ति का हक दिलवाने के मामलों में महिलाओं की राह और भी आसान कर दी है. विधवाओं के लिए तो ये विशेष हितकारी सिद्ध हुए हैं. उन में से एक तो है, ‘घरेलू हिंसा अधिनियम’, जिस ने उन के आवास और संपत्ति में हक पाने के अधिकार को मजबूत किया है और दूसरा है ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (2005).’ इस के अंतर्गत विवाहित महिलाओं को भी पूर्वजों (मायके) की संपत्ति में बराबर का हक दे दिया गया है जबकि इस से पहले संपत्ति में यह अधिकार केवल अविवाहित महिलाओं के लिए ही था.

परेशानी तब होती है जब पत्नी के नाम पर संपत्ति होने के बावजूद पति के शोककाल में झूठा विश्वास जमा कर बच्चे या निकटस्थ रिश्तेदार पीएफ, ग्रैच्युटी, मुआवजा राशि, अवकाश, नकदीकरण पर अपना हक जमा लेते हैं. इसलिए शोकाकुल रहते हुए भी भविष्य के प्रति पर्याप्त सजग रहें और उन्हें सही बैंक खाते में जमा करवाएं, दुरुपयोग न होने दें. याद रहे, बेटेबहुओं के लाख कहने पर भी स्त्रीधन यानी गहनों पर अधिकार बनाए रखें, अन्यथा वे आसानी से हड़पे जा सकते हैं.

शोककाल में मनोभावों पर नियंत्रण रखें. दुखकाल में स्वाभाविक रूप से वितृष्णाभाव जागृत होते हैं जिन का कई धूर्त पंडित, धर्मगुरु अनुचित लाभ उठाने में प्रयोग करते हैं, इसलिए उन से पूरी तरह सावधान रहें.

टीवी देखते वक्त स्नैक्स का सेवन आपके लिए है खतरनाक

सिनेमा देखते वक्त, टीवी देखते वक्त लोगों में स्नैक्स खाने की आदत बेहद ही आम है.  पर अगर आपको भी ये आदत है तो इसे आज ही बदल डालें. आपकी ये आदत आपको बीमार कर सकती है. खासकर के युवाओं के लिए ये आदत और अधिक हानिकारक साबित हो रही है. इससे युवाओं में डायबिटीज और हृदय संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है.

जानिए विस्तार में

हाल ही में हुए एक शोध में ये बात सामने आई है कि जो बच्चे टीवी देखते वक्त स्नैक्स का अधिक सेवन करते हैं उनके शरीर में मेटाबोलिक सिंड्रोम का खतरा ज्यादा देखने को मिलता है. इस शोध को 12 से 17 साल के करीब 34,000 बच्चों पर किया गया, जिसके बाद शोधार्थी इस निष्कर्ष पर पहुंचे.

क्या होता है मेटाबोलिक सिंड्रोम

ये किसी बीमारी का नाम नहीं है. बल्कि कई तरह की बीमारियों के एक साथ होने से लोगों में ये परेशानी होती है. हाई ब्लड प्रेशर, मोटापा, अधिक कोलेस्ट्रोल, कमर की चर्बी, ये सब एक साथ मिल कर मेटाबोलिक सिंड्रोम की वजह बनते हैं. इसके अलावा  कई बार इन सभी परेशानियों को बढ़ाने में भी मेटाबोलिक सिंड्रोम प्रमुख कारण होता है.

आइए जाने कौन सी बीमारियां मेटाबोलिक सिंड्रोम के लिए जिम्मेदार होती हैं.

हाई ब्लड प्रेशर

मेटाबोलिक सिंड्रोम के होने का सबसे अधिक खतरा हाई ब्लड प्रेशर के मरीजों में रहता है. आपको बता दें कि व्यक्ति का रक्तचाप समान्यत: 120/80 रहता है. अगर आपमें ये अगल हो तो आपको ये परेशानी हो सकती है.

बैड कोलेस्ट्रोल

अगर आपके खून में बैड कोलेस्ट्रोल की मात्रा 150 मिग्रा/डेलि है तो आपको मेटाबोलिक सिंड्रोम के होने का खतरा अधिक हो जाता है.

मोटापा

मोटापा का सामना कर रहे लोगों को भी मेटाबोलिक सिंड्रोम के होना का खतरा अधिक रहता है. खास कर के उन लोगों में ये और अधिक होता है जिनके पेट के आसपास में अतिरिक्त चर्बी जमा रहती है.

शुगर

अगर खाना खाने से पहले आपके शरीर में शुगर की मात्रा 100 से अधिक है तो आपको सचेत रहने की जरूरत है. आपको ये परेशानी हो सकती है.

आलू वड़ा : दीपक मामी की हरकतों से क्यों परेशान था?

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया.

मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

चटनी -भाग 2 : रेखा को अचानक सुरुचि की याद क्यों आ गई?

‘मैं बताती हूं न कि चटनी कैसे बनाते हैं,’ बोलती हुई सुरुचि मुसकराई. इस के बाद सुरुचि वहीं रसोई के गेट से ही चटनी की रैसिपी बताती गई और शांता ताई बनाती गईं.

‘‘वाह, शांता ताई, क्या चटनी बनाई है,” रेखा के पति मनोज ने कहा.

‘‘साहब, इस चटनी की रैसिपी तो सुरुचि ने बताई है.’’

यह सुनते ही सब सुरुचि की ओर देखने लगे.

अगले दिन जब सुरुचि हौल में बैठी पढ़ रही थी तब प्रिया, जोकि रेखा की 8 वर्षीया बेटी थी, आई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे गणित का यह सवाल समझ नहीं आ रहा, आप मुझे समझा देंगी?” ‘‘हां प्रिया, क्यों नहीं,’’ कहती हुई सुरुचि ने उस की गणित की किताब अपने हाथों में ली, ‘‘देखो, यह सवाल इस तरह हल होगा,’’ सुरुचि ने प्रिया को समझाते हुए कहा.

‘‘प्रिया, कहां हो तुम,’’ कहती हुई रेखा हौल में दाखिल हुई, ‘‘सुरुचि, क्या तुम्हें अपनी औकात नहीं पता, जो प्रिया के साथ यहां सोफे पर आराम फरमा रही हो?”

‘‘नहीं मैडम, मैं तो प्रिया को गणित का सवाल समझा रही थी,” सुरुचि ने धीमी आवाज में कहा. ‘‘तुम्हें जैसे बहुत गणित आती है और प्रिया, तुम किस गवार से पूछ रही हो. जाओ, जा कर अपने पापा की मदद लो,” यह कहती हुई रेखा ने प्रिया को फटकार लगाई.

प्रिया ने कहा, ‘‘मम्मी, पापा तो काम में बिजी हैं.’’

‘‘चलो, तुम यहां से उठो,’’ यह कहती हुई रेखा प्रिया का हाथ पकड़ कर उसे कमरे में ले गई. सुरुचि अपने समय को दोष दे कर रह गई.

रात को घर के सभी काम खत्म कर के सुरुचि पढऩे बैठ गई.

पढ़तेपढ़ते कब रात के एक बज गए, उसे पता ही नहीं चला. वह किताबें समेट कर स्टोररूम में ले गई और चटाई बिछा कर लेट गई. वही उस का बिस्तर था. दिनभर की थकान के चलते जल्द ही उसे नींद भी आ गई. सुबह 6 बजे सुरुचि उठ गई. वह अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई. छत पर कपड़े सुखाते समय सुरुचि की बात पड़ोस में काम करने वाली निधि से हुई. उस ने बताया कि गली के कोने में पडऩे वाले डिपार्टमैंटल स्टोर में हैल्पर की जरूरत है. यह सुनते ही सुरुचि के मन में एक नई उमंग जागी. उस ने सोचा क्यों न वह वहां हैल्पर की नौकरी करे और साथसाथ अपनी पढ़ाई भी करती रहे.

उस ने जब इस बारे में रेखा से बात की तो उस ने गुस्सा करते हुए कहा, “तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगे, तुम हमारे नीचे ही रहोगे और हमारे घरों में काम करतेकरते तुम्हारी पूरी जिंदगी निकल जाएगी.”

यह सब सुन कर सुरुचि को बहुत बुरा लगा. उस ने सोचा, ये ऊंची जाति वाले हमें कुछ नहीं समझते, इन्हें अपनी जाति का बहुत घमंड है और मुझे उन के इसी घमंड को तोडऩा है.

सुरुचि डिपार्टमैंटल स्टोर में गई और नौकरी की इच्छा जाहिर की.

डिपार्टमैंटल स्टोर का मालिक जातपांत को नहीं मानता, इसलिए उस ने सुरुचि को नौकरी दे दी. अब वह स्टोर के पास ही किराए का कमरा ले कर रहने लगी. डिपार्टमैंटल स्टोर में उसे ऐसे कई लोग मिले जो उस पर नीची जाति होने का ताना कसते थे. कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो उस के हाथ से सामान भी नहीं लेते थे, वे कहते थे कि कैसेकैसे लोगों को लोग नौकरी दे देते हैं, हम इस से सामान नहीं लेंगे.

दुनिया का ऐसा रूप देख कर सुरुचि अपने को कोसती रहती कि उसे ऐसी दुनिया में भेजा ही क्यों गया जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता. ऐसा भी कई बार हुआ जब उस ने अपनी हिम्मत खो दी लेकिन वह जानती थी कि अगर वह यहां रुक गई तो इस समाज की सोच कभी नहीं बदलेगी और ऐसे ही लोगों के साथ भेदभाव होता चला आएगा. कुछ समय बाद सुरुचि का 10वीं का रिजल्ट आ गया. सुरुचि अच्छे नंबरों से पास हुई. होशियार बच्चों के भविष्य के लिए काम करने वाली एक सरकारी संस्था ‘ज्योति’ ने उस से संपर्क किया और उस की पढ़ाई का खर्चा उठाने की बात कही. अब सुरुचि को अपना समय बदलने का सुनहरा अवसर मिल गया. यही सब सोच कर सुरुचि ने अपनी नौकरी को जारी रखा और देखते ही देखते उस ने 12वीं की पढ़ाई भी पूरी कर ली.

सुरुचि अब 12वीं की पढ़ाई पूरी चुकी थी और वह ‘ज्योति’ से जुडी थी, इसलिए उस के पास नौकरी के कई और विकल्प थे. उन्हीं में से एक विकल्प सेल्सगर्ल को उस ने चुना.

इस के बाद उस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के ओपन लर्निंग स्कूल से बीए में एडमिशन लिया. अब वह नौकरी और कालेज की पढ़ाई साथसाथ करने लगी. सुरुचि जब कभी भी कालेज जाती वहां स्थित उच्च जाति का एक समूह उस पर हमेशा तंज कसता.

जब सुरुचि कैंटीन में खाना लेने जाती तो लड़कियों का एक समूह उसे ताना कसते हुए कहता, ‘‘इसे चटनीरोटी दो, यह और क्या खाएगी. ये लोग यही तो खाते है.’’ सुरुचि ने उन सब की बातों को अनसुना किया और अपना खाना और्डर किया. खाने के बाद सुरुचि वहां से चली गई. यह उस का साहस और अपने लक्ष्य की ओर बढऩे की दृढ़ इच्छा थी जो उसे रुकने नहीं दे रही थी.

रिद्धिमा, जोकि सुरुचि के साथ कालेज में पढ़ती थी, ने एक दिन सुरुचि से पूछा, ‘‘सुरुचि, तुम कालेज के बाद क्या करोगी?’’

“मैं कालेज के बाद बैंक में नौकरी करना चाहूंगी,” सुरुचि ने जवाब दिया.

“अच्छा, उस के लिए तो तुम्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी,” रिद्धिमा ने अपनी राय दी.

‘‘हां, अब यही मेरे जीवन का लक्ष्य है,’’ सुरुचि ने कहा.

लेखिका – प्रियंका यादव

कंगन – भाग 3: जब सालों बाद बेटे के सामने खुला वसुधा का राज

यों अचानक रुचिता को देख कनिका बुरी तरह चौंक गई, वह कुछ बोलने को ही थी कि चित्र उस के सामने रख दिए. उन्हें देख कर तो कनिका जड़ हो गई. अब उस ने कुछ बोलते नहीं बन रहा था. बड़ी मुश्किल से बस इतना बोली कि ये आप के पास कैसे? रुचिता ने जवाब में कहा कि तुम ने मेरे पति को मु झ से छीनने की कोशिश की है, कुछ तो मु झे भी करना ही था सो मैं ने तुम्हारा पूरा कच्चा चिट्ठा निकलवा लिया, यही नहीं तुम्हारे घर का पता भी. सोच रही हूं ये सभी तसवीरें तुम्हारे मातापिता को भेज दूं. आखिर उन्हें भी तो पता चले शहर में उन की लड़की कितनी मेहनत कर रही है. कितनी मेहनत से राघव को फंसा कर उन के पैसे से अपने महंगेमहंगे शौक पूरे कर रही है.

अब तो कनिका की हालत खराब हो गई. उस ने लड़खड़ाती जबान से कहा, ‘‘नहीं, ऐसा मत कीजिएगा मेरे मांबाप शर्र्म से मर जाएंगे. मैं यह नौकरी छोड़ दूंगी और आप लोगों को कभी अपनी शक्ल नहीं दिखाऊंगी. मैं आप के पति से बिलकुल प्यार नहीं करती. वह तो मेरे महंगे शौक पूरे कर रहा था इसलिए…’’

इस से ज्यादा राघव सुन नहीं सका और उठ कर उन की मेज पर आ कर खड़ा हो गया. उस की निगाह उन तसवीरों पर पड़ी तो उस की आंखों में गुस्सा और पश्चात्ताप दोनों साथ दिखाई दिए. उस ने देखा रेस्तरां लोगों से भरा हुआ है तो उस ने कनिका को सिर्फ वहां से चले जाने का इशारा किया- लेकिन रुचिता ने हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया और उस से कहा कि मेरी एक और चीज तुम्हारे पास है, अब रुचिता की निगाह उस के हाथ के कंगन पर थी. कनिका ने जल्दी से वो कंगन उसे वापस किया और वहां से निकल गई.

राघव ने कुछ कहना चाहा ही था कि रुचिता ने उस से कहा, ‘‘आशा करती हूं तुम्हें सम झ आ गया होगा कि कोई जब विश्वासघात करता है तब कैसा लगता है. चलो बाकी बातें घर जा कर करेंगे, सब देख रहे हैं.’’

घर पहुंचे तो वसुधा बेटे पर टूट पड़ीं. बोलीं, ‘‘तूने मु झे बहू को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मु झे तु झ पर कितना नाज था, लेकिन तू भी अपने बाप जैसा निकला. बचपन से ले कर आज तक तू अपने बाप से नाराज है, लेकिन तु झ में और उन में क्या फर्क है? उन्होंने भी अपनी पत्नी और बच्चे के साथ धोखा किया और तूने भी अपनी पत्नी के साथ धोखा किया. आखिर तू है तो उन्हीं की औलाद.’’

सुन कर राघव फूटफूट कर रोने लगा और अपने घुटनों पर बैठ कर वसुधा से बोला, ‘‘ऐसा न कहो मां मैं तुम्हारा बेटा हूं उन का नहीं. मु झ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया मां मु झे माफ कर दो… मु झे माफ कर दो.’’

‘‘माफी मांगनी है तो बहू से मांग… तू उस का गुनहगार है. अगर उस ने तु झे माफ कर दिया तो मैं भी कर दूंगी और अगर वह घर छोड़ कर गई तो मैं भी अपनी बेटी के पास चली जाऊंगी,’’ वसुधा ने कठोर स्वर में कहा.

राघव रुचिता की ओर बढ़ा और उस का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘रुचिता, वैसे तो मैं माफी मांगने लायक नहीं हूं पर फिर भी क्या तुम मु झे माफ कर पाओगी? मैं वादा करता हूं भविष्य में कभी तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा. क्या तुम एक बार इसे मेरी पहली और आखिरी गलती सम झ कर माफ नहीं कर सकतीं?’’

रुचिता ने कुछ रुक कर कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करती हूं और यह भी सच है कि इस शादी को एक और मौका देना चाहती हूं, लेकिन ये सब भूल कर एक नई शुरुआत करने के लिए और तुम्हें माफ करने के लिए मु झे कुछ वक्त चाहिए. आशा करती हूं तुम सम झोगे.’’

‘‘हां रुचि तुम्हें जितना वक्त चाहिए ले लो, लेकिन मु झे छोड़ कर मत जाना. मु झे तुम्हारी जरूरत है. मैं इंतजार करूंगा उस दिन का जब तुम मु झे माफ कर दोगी,’’ राघव ने राहत की सांस लेते हुए कहा.

रुचिता ने अपनी सास की तरफ देख कर कहा, ‘‘मां सास होने के बावजूद आप ने अपने बेटे का नहीं मेरा साथ दिया… मैं किन शब्दों में आप का धन्यवाद दूं.’’

वसुधा उस के माथे को चूमते हुए बोलीं, ‘‘तुम बहुत सम झदार हो बेटा. अपनी सू झबू झ से तुम ने यह घर टूटने से बचा लिया… मैं ने वही किया जो मैं अपनी बेटी के लिए करती. हम अकसर कहते हैं बहू कभी बेटी नहीं बन सकती, जबकि सच यह है कि अधिकतर सासें ही कभी मां नहीं बन पातीं, अगर सासें मां बन जाएं तो बहुएं अपनेआप बेटियां बन जाएंगी.

 

 

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