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भारत भूमि युगे युगे: एक लोकल आंधी

नैशनल हैल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में तकरीबन 10 फीसदी पत्नियां बिना किसी वजह के पति की मारकुटाई करती हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पतियों को कूटने के मामले में भारत तीसरे नंबर पर है. ज्यादतर पतियों की पिटाई घर में आसानी से मिलने वाले सामान जूता, चप्पल, बैल्ट, बेलन और बरतनों से की जाती है. छत्तीसगढ़ की 50 वर्षीया खूबसूरत और दबंग कांग्रेसी विधायक अंबिका सिंहदेव के एनआरआई पति अमिताबो कुमार घोष ने सोशल मीडिया पर बड़े भावुक और दार्शनिक अंदाज में रोना रोया है कि विधायक पत्नी उन्हें पीटती है. दोनों के बीच में विवाद राजनीति को ले कर है.

अमिताबो ‘आंधी’ फिल्म के संजीव कुमार नहीं बनना चाहते, इसलिए उन्होंने अंबिका से गंदी राजनीति छोड़ कर परिवार पर ध्यान देने की मार्मिक अपील की है. इस ड्रामे का अंत क्या होगा, कहा नहीं जा सकता लेकिन हमदर्दी पति को मिल रही है तो जाहिर है पत्नी पीडि़त पतियों की तादाद बढ़ रही है क्योंकि वे मारे शर्म और लोकलाज के आपबीती शेयर नहीं कर पाते. शराब और दूध गुजरे कल की कट्टर हिंदूवादी साध्वी उमा भारती की राजनीति खात्मे की तरफ है जिन पर न तो मोदीशाह ध्यान दे रहे हैं और न ही आरएसएस की नजरें इनायत पहले सी रहीं. वक्त काटने के लिए उमा ने एक उबाऊ सा मुद्दा कुछ ड्रामाई अंदाज में चुना है. बीते दिनों वे बुंदेलखंड के ओरछा कसबे में शराब की दुकान के सामने गाय बांध कर खड़ी थीं और शराबियों से गाय का दूध पीने का आग्रह कर रही थीं. गाय हिंदुत्व की राजनीति का जज्बाती जरिया हमेशा से ही रही है जिस के प्रचार का अनूठा तरीका उमा ने चुना है जो कारगर नहीं हो रहा है. वह दौर गया जब लोग उन की बातों को भगवान की आवाज सम?ाते थे.

मध्य प्रदेश के सियासी पंडित उमा से हमदर्दी रखते दबी आवाज में कहने तो लगे हैं कि बड़ी बेआबरू हो कर न जाएं तो फायदे में रहेंगी. चाट विक्रेता केजरीवाल अभी तक तो अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और शाहरुख खान सरीखे लोकप्रिय नायकों के डुप्लीकेट ही सुर्खियां बटोरते थे पर अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के हमशक्ल को लोग हाथोंहाथ ले रहे हैं. ग्वालियर में गुप्ताजी की स्वादिष्ठ चाट वाले ठेले पर लोग चाटपकौड़ी खाने के बहाने उन के साथ सैल्फी लेने ज्यादा पहुंच रहे हैं जिस से गुप्ताजी को कोई एतराज नहीं क्योंकि इस से उन्हें नाम और दाम दोनों मिल रहे हैं. फूड ब्लौगर ने इंस्टाग्राम पर गुप्ताजी का चाट बेचते वीडियो शेयर किया. इस चाट वाले को देख हर कोई उसे केजरीवाल सम?ा कर सकते में आ जाता है. इस चाट विक्रेता ने चश्मा तक केजरीवाल स्टाइल में पहन रखा है.

इसे देख कर लोग कह रहे है कि इस केजरीवाल ने मोदीजी की सलाह पर सही अमल किया है कि पकौड़े बेचो. भक्त और भगवान अच्छी क्वालिटी के भगवान की यह खूबी होती है कि वह आश्वासन देने के एवज में भक्त की चड्ढी तक उतरवा लेता है लेकिन राजनीति के भगवानों को भक्तों की जरूरत ब्रैंडिंग के लिए रहती है. नरेंद्र मोदी इस दौर की राजनीति के सब से बड़े भगवान हैं जिन की भक्ति से कईयों को मलाई और रोजगार मिले हुए हैं. मानो यह धंधा हो. ऐसे में जो राहुल गांधी की भक्ति करेगा उसे आप क्या कहेंगे- पागल या दूरदर्शी या कुछ और, खुद तय कर लें. हरियाणा के जींद जिले के गांव काकडोद के निवासी पंडित दिनेश शर्मा ने राहुल को त्वमेव माता च पिता त्वमेव की तर्ज पर अपना ईष्ट मान लिया है. भारत जोड़ो यात्रा में वे पूरे वक्त रहे. दिनेश की इच्छा है कि राहुल पीएम बनें. इस बाबत कई तरह के त्याग भी उन्होंने कर रखे हैं. अच्छी बात तो यह है कि राहुल भी अपने इस प्रह्लाद का पूरा ध्यान रखते हैं. भक्त और भगवान के संबंध को सार्थक करते रहते हैं.

कोर्ट का कलीजियम किला

सरकारी सेंध प्रैस, सोशल मीडिया, टीवी मीडिया, संसद, चुनाव आयोग, ह्यूमन राइट्स आयोग, टैक्स संस्थाओं, सीबीआई व दूसरी जांच एजेंसियों आदि को पूरी तरह काबू में ले कर अब भाजपा सरकार को इन पर रोकटोक लगा सकने वाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता को काबू में करने की जल्दबाजी लग रही है. सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में कलीजियम पद्धति से नए जजों के नाम चुनने की आजादी पर रोक लगाने के लिए छुटभैए छोड़ दिए गए हैं जो अनापशनाप बयानों से न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कलीजियम सिस्टम से नियुक्तियां कर के न्यायपालिका को राजनीतिबाजों से बचने के लिए एक सुदृढ़ किला बना लिया था पर अब सरकार मनचाहे जजों की नियुक्ति करने के लिए उस किले को तोड़ने में लगी हुई है. प्रैस, सोशल मीडिया, टीवी न्यूज चैनलों, संसद, चुनाव आयोग, सीबीआई की तरह न्यायपालिका को भी सरकारी बुलडोजरों से भयभीत रखने का यह सरकार का षड्यंत्र है. अब सोशल मीडिया, कानून मंत्री व उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से केंद्र की भाजपा सरकार ‘कलीजियम सिस्टम’ पर सुप्रीम कोर्ट के साथ बहस को ले कर सड़कों तक उतर आई है और उसे उसी तरह ध्वस्त करने की तैयारी कर रही है जिस तरह भीड़ ले जा कर मसजिद तोड़ी गई थी.

जनता के सामने कलीजियम सिस्टम को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है. 1993 के बाद पहली बार पूरे देश में बड़े स्तर पर कलीजियम सिस्टम चर्चा का विषय बन गया है. सरकार समर्थक लोग तर्क देते हैं कि भारत के अलावा कलीजियम सिस्टम किसी और देश में नहीं है. वे अमेरिका की तुलना में भारत की न्याय व्यवस्था को कमतर आंकते हैं. यह सही है पर कलीजियम पद्धति के कारण ही भारत की अदालतें मानवाधिकार को ले कर अमेरिका सहित बहुत देशों की अदालतों से अधिक संवेदनशील हैं. महिलाओं के गर्भपात कानून के आईने में देखें तो तसवीर साफ नजर आती है.

अमेरिका में 1971 में गर्भपात कराने में नाकाम रही एक महिला की तरफ से वहां की सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. उसे ‘रो बनाम वेड’ मामला कहा गया. फैसले में कहा गया था कि गर्भधारण और गर्भपात का फैसला महिला का होना चाहिए न कि सरकार का. उस के 2 साल बाद 1973 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात को कानूनी अधिकार देते कहा, ‘संविधान गर्भवती महिला को फैसला लेने का हक देता है.’ अमेरिका के धार्मिक समूहों के लिए यह बड़ा मुद्दा था. 1980 तक यह मुद्दा ध्रुवीकरण का कारण बनने लगा. इस के बाद कई राज्यों में गर्भपात पर पाबंदियां लगाने वाले तरहतरह के नियम लागू किए गए. 2022 में अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट में ‘डौब्स बनाम जैक्सन वीमेन्स हैल्थ और्गेनाइजेशन’ का मामला सामने आया. इस के बाद वहां एक बार फिर गर्भपात को ले कर बहस छिड़ गई.

यह मामला मिसिसिपी राज्य का था जिस में राज्य के नए कानून 15वें सप्ताह के बाद अबौर्शन के प्रतिबंध को चुनौती दी गई थी. राज्य के पक्ष में फैसला देते हुए अब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया. 5 जज इस फैसले के पक्ष में थे जबकि 3 असहमत थे. इस के बाद अमेरिका के अलगअलग राज्य अपने अलग नियम बना सकते हैं. हैल्थकेयर और्गेनाइजेशन प्लान्ड पैरेंटहुड के अनुसार, करीब 36 मिलियन यानी 3.6 करोड़ महिलाओं से उन के गर्भपात का अधिकार छिन गया. डैमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की निंदा करते कहा, ‘इस फैसले ने महिलाओं के स्वास्थ्य और जीवन को खतरे में डाल दिया है.’ इस से यह बात साफ हो गई कि अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के मानवाधिकार की सुरक्षा नहीं की.

यह इसलिए हुआ क्योंकि अमेरिका में राष्ट्रपति जजों को नियुक्त करता है और पिछले कई रिपब्लिकन राष्ट्रपति चर्च समर्थक, गन समर्थक, कट्टरपंथी जजों को जानबू?ा कर नियुक्त करते रहे हैं. इस बार नए गर्भपात संबंधी फैसले में उन जजों ने गर्भपात को संवैधानिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया जिन्हें रिपब्लिकन राष्ट्रपति ने नियुक्त किया था. इस के विपरीत भारत में सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर गर्भपात के बारे में कानून में संशोधन किया गया जिस के बाद गर्भपात करवाने के लिए मान्य अवधि 20 हफ्ते से बढ़ा कर 24 हफ्ते कर दी गई. स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के अनुसार 16 मार्च, 2021 को भारत में मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी (संशोधित) बिल 2020 को राज्यसभा में पास किया गया. इस में गर्भपात के लिए मान्य अवधि विशेष तरह की महिलाओं के लिए बढ़ाई गई है,

जिन्हें एमटीपी नियमों में संशोधन के जरिए परिभाषित किया जाएगा. इन में दुष्कर्म पीडि़त, सगेसंबंधियों के साथ यौन संपर्क की पीडि़त और अन्य असुरक्षित महिलाएं (विकलांग महिलाएं, नाबालिग) भी शामिल होंगी. दोनों अदालतों के फैसले को देखें तो भारत की सुप्रीम कोर्ट ने औरतों के हित में अधिक संवेदनशील फैसला दिया. कलीजियम सिस्टम के तहत नियुक्त जजों की वजह से ही अदालतें आधारभूत ढांचे को जनता के हित में रखने की मंशा के तहत काम कर रही हैं. अमेरिका से यह भिन्नता इसीलिए है. कई मामलों पर भारतीय अदालतें सरकार की नहीं सुनतीं. अमेरिका में जज चूंकि राष्ट्रपति यानी कि पार्टियां नियुक्त करती हैं इसलिए वे अपने समर्थकों को चुनती हैं. डैमोक्रेटिक पार्टी के जज उदार, स्वतंत्रताओं के रक्षक, बंदूक रखने के अधिकारों के विरुद्ध हैं जबकि रिपब्लिकन पार्टी के नियुक्त जज कट्टरवादी हैं.

अमेरिका की दक्षिणपंथी रिपब्लिकन की तरह भारत की दक्षिणपंथी भाजपा सुप्रीम कोर्ट में और ज्यादा कट्टरवादी जजों को भरना चाहती है जो अयोध्या जैसे मामलों की तरह अन्य धार्मिक विवादों के फैसलों के समय सरकार की सुनें. कलीजियम सिस्टम की बहस इसीलिए शुरू की गई है ताकि जजों की नियुक्ति भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे वाले नेता करें. इसीलिए कलीजियम सिस्टम पर टकराव एक मुद्दा बनाया जा रहा है जिस पर पूरे देश में बहस शुरू कर दी गई है.

जनता का एक पक्ष अपनी व्यथा को छिपा कर न्याय व्यवस्था का सम्मान तो करता है पर कई अनकही बातें कहने से डरता है. इस से सरकार को सुप्रीम कोर्ट से टकराव पर खुल कर बोलने का मौका मिल गया है. कलीजियम सिस्टम पर संविधान सभा में चर्चा जिस समय संविधान बन रहा था, कई बिंदु ऐसे आए जिन पर खुलेदिल व खुलेदिमाग से चर्चा हुई. इन महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में एक मसला सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का भी था. संविधान सभा बहुत ही गहन परामर्श व बहस के बाद इस मसले को हल कर पाई थी. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज कैसे बनाए जाएं, इस पर संविधान सभा में 23 और 24 मई, 1949 को लगातार 2 दिन बहस हुई.

अनुच्छेद 124, जो संविधान के मसौदे में 103वां अनुच्छेद था, में मद्रास के रहने वाले बी पोकर ने 2 संशोधन प्रस्ताव रखे. पहला प्रस्ताव था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस करें. उन का दूसरा प्रस्ताव था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति चीफ जस्टिस के सिर्फ परामर्श से नहीं बल्कि सहमति से करें. बी पोकर ने अपने भाषण में कहा, ‘मुख्य न्यायाधीश को अपनी सिफारिश सीधे राष्ट्रपति को भेजनी चाहिए. राष्ट्रपति को चीफ जस्टिस की सहमति से जजों की नियुक्ति करनी चाहिए. हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के मामले में राज्यपाल से परामर्श के बाद जजों की नियुक्ति हो.’ उन का कहना था, ‘मैं चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति किसी भी तरह से राजनीति से प्रभावित न हो.’ लेकिन जजों की मंजूरी से जज बनाने का सिस्टम लाने की कोशिश वाले इस संशोधन को संविधान सभा ने ध्वनिमत से खारिज कर दिया.

ड्राफ्ंटिंग कमेटी के चेयरमैन डा. बी आर अंबेडकर ने इस पर गहरी आपत्ति जताई. क्या कहा डाक्टर अंबेडकर ने जजों की नियुक्ति सहित न्यायिक नियुक्तियों पर डा. अंबेडकर ने 24 मई, 1949 में संविधान सभा में एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया. इस में उन्होंने कहा, ‘इन संशोधन प्रस्तावों में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जज सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की मंजूरी से ही बनाए जाएं. इस बारे में दोराय नहीं है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र और अपने स्तर पर सक्षम होना चाहिए.

जहां तक चीफ जस्टिस की मंजूरी से जज नियुक्त करने का मामला है तो मु?ो ऐसा लगता है कि इस तर्क को देने वाले लोग चीफ जस्टिस की निष्पक्षता और उन के फैसला लेने की क्षमता पर पूरी तरह भरोसा कर रहे हैं. ‘मैं निजी तौर पर मानता हूं कि चीफ जस्टिस महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं लेकिन आखिर हैं तो वे आदमी ही. उन में आम आदमियों की तरह तमाम खामियां, तमाम तरह की भावनाएं और रागद्वेष हो सकते हैं. सो, मेरा मानना है कि जजों की नियुक्तियों में चीफ जस्टिस को वीटो यानी निर्णायक अधिकार देने की बात की जा रही है, जो वीटो पावर हम राष्ट्रपति और सरकार को भी नहीं दे रहे हैं. उसे चीफ जस्टिस को देना एक खतरनाक व्यवस्था होगी.’ संविधान सभा की इन 2 दिनों की कार्यवाही को देखने से इस में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि संविधान सभा जजों की नियुक्ति का निर्णायक अधिकार जजों या चीफ जस्टिस को देने के खिलाफ था.

यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सभा भी एक तरह से संसद ही थी और जिस में उस समय के राजनीतिक नेता ही शामिल थे जो सम?ा रहे थे कि अगले आने वाले दशकों तक उन का राज रहेगा. वे अपने राज में एक और पावर सैंटर हरगिज नहीं चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि कांग्रेस के विरोधी कभी जज बनें. यह बात दूसरी है कि इस के बावजूद इलाहाबाद के जगमोहन लाल सिन्हा जैसे जज बने जिन्होंने इंदिरा गांधी का रायबरेली का उन का चुनाव रद्द कर दिया पर यह कांग्रेस द्वारा नियुक्त जजों की मेहरबानी ही थी कि इंदिरा गांधी के चुनाव मुकदमे को अपील को फैसले में बदल दिया गया और आपातकाल को भी संवैधानिक करार दे दिया गया.

1947 से ले कर 1993 तक कार्यपालिका और न्यायपालिका में जो टकराव हुआ उस का कारण रहा कि 1965 के बाद और फिर 1975, 1977, 1984 व 1989 के बाद कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई और जजों को छूट मिली. 1993 में 9 जजों की बैंच ने अनुच्छेद 124 की व्याख्या कर के जजों की नियुक्ति का काम अपने हाथ में ले लिया है. दरअसल 1993 में 9 जजों की पीठ ने उस संविधान सभा की भावना के तो खिलाफ काम किया जिस में सरकारी पदों पर आसीन राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, डा. अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कृपलानी, मावलंकर, पट्टाभि सीतारमैया जैसे थे और जिन्होंने जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति यानी सरकार को ज्यादा अधिकार देना उचित माना था लेकिन यह न भूलें कि ये सब राजनीति के मोहरे थे और हरेक का अपना एजेंडा था. वे खुद को भारत का भाग्यविधाता मानने लगे थे जैसे अब नरेंद्र मोदी अपने को मान रहे हैं. कानून संसद में बनेगा या सुप्रीम कोर्ट में भारत में भले ही लोकतंत्र हो पर हर किसी को अपनी अकेली प्रभुसत्ता चाहिए.

इस बात को संविधान बनाने वाले भी सम?ाते थे. उन की शंका निर्मूल साबित नहीं हुई. इस के बहुत सारे उदाहरणों में कलीजियम सिस्टम की जरूरत भी एक है. संविधान ने संसद को यह अधिकार दिया है कि वह कानून बना सकती है. सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है. अगर सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति को ज्यादा अधिकार दिए जाने से सहमत नहीं थी तो भी इस कानून में बदलाव संसद में होता, 9 जजों की बैंच में नहीं. आजादी के बाद विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका सभी के व्यवहार में गिरावट आई है. इस में किसी सर्वे की जरूरत नहीं है. देश का आम नगारिक इस बात को बेहद आसानी से समझता है.

राजनीति में भाईभतीजावाद पर खुल कर बात होती है, कार्यपालिका के भ्रष्टाचार पर खुलेआम चर्चा होती है लेकिन न्यायपालिका अपने बारे में इस बात की इजाजत नहीं देती. हालांकि देखा जाए तो अदालतों के बारे में ज्यादा भेदभाव या पक्षपात की शिकायतें नहीं होतीं क्योंकि यह किसी वादी, परिवादी को नहीं मालूम होता कि उस का मामला किस जज के पास जाएगा. एक बार मामला एक जज के पास जाता भी है तो सुनवाई के दौरान बीच में दूसरे के पास जा सकता है. कार्यपालिका में फैसले दिनों और घंटों में ले लिए जाते हैं. फैसलों में पक्षपात का आरोप लगना भी आम है. हाल में पंजाब कैडर के आईएएस अधिकारी अरुण गोयल रिटायर होने के 3 दिनों बाद ही नए चुनाव आयुक्त चुने गए. इस नियुक्ति की प्रक्रिया को ले कर भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमनेसामने आ गए हैं. सरकारें अपने फैसले मनमाने ढंग से ले तो रही हैं चाहे वे जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के जमाने में बैंकों के सरकारीकरण के हों, जमींदारी उन्मूलन कानूनों में जोरजबरदस्ती के हों या श्रमिक नेताओं को जरूरत से ज्यादा अधिकार देने के हों.

अगर न्यायपालिका नहीं होती तो ब्रेक नहीं लगता पर ब्रेक के बावजूद सरकारें अपनी धौंस चलाती रहीं क्योंकि जज कम से कम 1993 तक तो उन की मरजी के ही नियुक्त होते रहे हैं. जजों की नियुक्ति में कलीजियम सिस्टम लागू होने के बाद मोदी सरकार का सब से बड़ा आरोप है कि भाईभतीजावाद और परिवारवाद वहां जम गया है. अगर आज की सरकार में भाईभतीजावाद नहीं होता तो इस आरोप में दम होता पर पीयूष गोयल, जयशाह, अनुराग ठाकुर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दुष्यंत सिंह, पूनम महाजन, प्रीतम मुंडे, प्रवेश सिंह वर्मा और बी वाई राघवेंद्र और यहां तक कि राज्यसभा और लोकसभा में भाजपा के चुने सांसदों में 11 प्रतिशत सांसद किसी न किसी सियासी परिवार से संबंध रखते हैं. जाहिर है भारतीय जनता पार्टी में टैलेंट या मैरिट से ज्यादा परिवार की ही चल रही है. अदालतों में केसों की भरमार के लिए कलीजियम सिस्टम को दोष दिया जा रहा है.

यह आरोप ऐसा ही है जैसा कि घरों में नई बहू को दिया जाता है अगर शादी के तुरंत बाद ससुराल में कुछ नुकसान हो जाए या किसी की मृत्यु हो जाए. हमारे समाज में किसी विधवा का शादी में मौजूद रहना शादी में विघ्न माना जाता है. कलीजियम सिस्टम को उसी तरह मुकदमों की भरमार के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है. असल में सरकार सब से बड़ी लिटिगैंट है. ज्यादातर मुकदमे सरकारी कानूनों के कारण या सरकारी फैसलों के कारण ही होते हैं. भारत की विभिन्न अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. इन में से कई मामले 10 साल से भी अधिक समय से लंबित हैं. अब इस में तर्क दिए जाते हैं कि कोर्ट में जजों की कमी, कोर्टों की कमी, आम लोगों के अधिकारों को ले कर बढ़ती जागरूकता जैसे कारण हैं जोकि एक सीमा तक सही भी हैं पर इन तर्कों की आड़ में यह छिपा दिया जाता है कि पैंडिंग मामलों में भारत सरकार ही सब से बड़ी मुकदमेबाज है. वह लगभग आधे लंबित मामलों के लिए जिम्मेदार है. अधिकांश मामलों में, जब सरकार कोई मामला दर्ज करती है, यह देखा जाता है कि सरकार अपनी बात को साबित करने में विफल रहती है. यह बात पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने बताई थी कि 50 प्रतिशत पैंडिंग मामलों में सरकार ही एक पक्षकार है.

इसलिए इस में केवल यह कह कर इसे टाला नहीं जा सकता कि देश की अदालतों में जजों की संख्या जरूरत के अनुसार नहीं है. सरकारी सैक्टर के हर विभाग में इस तरह की दिक्कतें हैं क्योंकि सरकार देरी को ही ताकत सम?ाती है. इलाज करने के लिए सही अनुपात में डाक्टर हैं नहीं. पुलिस में सही अनुपात में सिपाही नहीं. सही अनुपात में शिक्षक नहीं. सरकारी कार्यवाहों की संख्या हर जगह कम है. ऐसे में यदि जजों की संख्या में कमी है भी तो इस की बड़ी जिम्मेदार खुद सरकार ही है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर ने अपने कार्यकाल में न्यायाधीशों की संख्या 21 हजार से बढ़ा कर 40 हजार करने में कार्यपालिका द्वारा ‘निष्क्रियता’ जताने पर खेद व्यक्त किया था. उन्होंने केंद्र पर देश में अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ न करने का आरोप लगाया. उन्होंने केंद्र पर उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में बाधा डालने का भी आरोप लगाया.

कलीजियम सिस्टम को दोष नहीं दिया जा सकता कि उस के जेल या बेल के मामले रातोंरात कोर्ट खोल कर सुन लिए जाते हैं जबकि आम लोगों को सालोंसाल न्याय के लिए भटकना पड़ता है. सवाल है सरकार हर किसी को जेल भेजती ही क्यों है जबकि मामला चाहे मामूली या सरकार की आलोचना का हो. ज्यादातर निचली अदालतों में जिस मामले में बड़ी सजा हो जाती है, ऊंची अदालत में जा कर मामला छूट जाता है लेकिन जिस व्यक्ति के खिलाफ मामला होता है उस को सालोंसाल जेल में गुजारने पड़ते हैं, इस की कीमत कौन अदा करता है? इस के लिए कलीजियम सिस्टम दोषी नहीं, पुलिस और पुलिस के वकील जिम्मेदार हैं जो सरकार ही नियुक्त करती है और एक तरह से कहा जा सकता है जनता नियुक्त करती है. अब जज कभीकभार सरकार पर अंकुश लगाने लगे हैं. ऐसे समय में अंकुश जरूरी भी हो जाते हैं जब देश में विपक्ष को पंगु कर दिया गया हो और ताकत का केंद्र एक जगह केंद्रित हो गया हो और सरकार नोटबंदी, जीएसटी, एनआरसी, कृषि कानून मनमाने तरीके से जनता पर थोप रही हो.

कलीजियम सिस्टम सवालों के घेरे में क्यों जब सर्वोच्च न्यायालय का या उच्च न्यायालय का कलीजियम जजों को नियुक्त करता है तो उस के समक्ष वोटर नहीं होते. जब कानून मंत्री और प्रधानमंत्री जज नियुक्त करेंगे तो उन के सामने वोट व वोटर होंगे. चुनाव आयोग इस का एक बड़ा अच्छा उदाहरण है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर ज्यादा सवाल उठाए जा रहे हैं बजाय जजों के भाईभतीजावाद पर. क्या सरकार चुनाव आयोग पर अपना रवैया बदलने को तैयार है? कलीजियम सिस्टम से असहज महसूस करती देश की मौजूदा भगवाई भाजपा सरकार उस पर सवाल उठाने का मौका तलाशती रहती है. मोदी सरकार और उस के मंत्री किरेन रिजिजू कलीजियम सिस्टम पर बहस को सड़कों पर ले कर आने में सफल हो गए हैं क्योंकि आम जनता तो भाजपा की पक्षधर मीडिया की सुनती है, दूसरा पक्ष तो उसे सुनने को मिलता ही नहीं और सरकार को अधिकांश जनता का साथ मिलना ही था क्योंकि यह भी हिंदूमुसलिम विवाद सा है. न्यायपालिका से जुड़े लोग भी कलीजियम सिस्टम को अपारदर्शी सिस्टम बताते हैं. कलीजियम सिस्टम के आलोचक आरोप लगाते हैं कि जजों की नियुक्ति के वक्त सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह होता है कि कैंडिडेट के बापदादा क्या थे.

जज के बेटों को तरजीह मिलती है. यह आरोप अगर सही है तो जजों को देखना होगा पर केवल इस के लिए कलीजियम सिस्टम को कूड़े में फेंक कर जजों को प्रधानमंत्री की कठपुतली नहीं बनाया जा सकता. सरकारी पक्ष कहता है कि कामकाज के लिए लिखित मैनुअल का अभाव, चयन मानदंड का अभाव, पहले से लिए गए निर्णयों में मनमाने ढंग से उलटफेर, बैठकों के रिकौर्ड का चयनात्मक प्रकाशन कलीजियम प्रणाली की अपारदर्शिता को साबित करता है. कोई नहीं जानता कि न्यायाधीशों का चयन कैसे किया जाता है और इस प्रकार की नियुक्तियों ने औचित्य, आत्मचयन तथा भाईभतीजावाद जैसी चिंताओं को जन्म दिया है. यह प्रणाली अकसर कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी करती है. कलीजियम के जरिए जजों को नियुक्त करने की प्रक्रिया को सम?ाते हैं. कलीजियम वकीलों या जजों के नाम की सिफारिश केंद्र सरकार को भेजती है.

इसी तरह केंद्र भी अपने कुछ प्रस्तावित नाम कलीजियम को भेजती है. केंद्र के पास कलीजियम से आने वाले नामों की जांच और आपत्तियों की छानबीन की जाती है. इस के बाद रिपोर्ट वापस कलीजियम को भेजी जाती है. सरकार इस में कुछ नाम अपनी ओर से सु?ाती है. कलीजियम केंद्र द्वारा सु?ाव गए नए नामों और कलीजियम के नामों पर केंद्र की आपत्तियों पर विचार कर के फाइल दोबारा केंद्र के पास भेजती है. कलीजियम किसी वकील या जज का नाम केंद्र सरकार के पास दोबारा भेजती है तो केंद्र को उस नाम को स्वीकार करना ही पड़ता है. कब तक स्वीकार करना है, इस की कोई समयसीमा नहीं है. भारत के 25 हाईकोर्टों में 395 और सुप्रीम कोर्ट में जजों के 4 पद खाली हैं. न्यायालयों की नियुक्ति के लिए 146 नाम पिछले 2 साल से सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच मंजूरी न मिलने के कारण अटके हुए हैं. इन नामों में 36 नाम सुप्रीम कोर्ट कलीजियम के पास लंबित हैं जबकि 110 नामों पर केंद्र सरकार की मंजूरी मिलनी बाकी है.

सरकारी पक्ष यह बात जनता तक नहीं पहुंचने देता. सरकार और सुप्रीम कोर्ट क्यों हैं आमनेसामने सारे विवाद में सरकारी मंत्री एक भी मामला ऐसा सामने नहीं ला पाए जिस में अदालत ने किसी नागरिक को कहीं ज्यादा छूट दी हो या उसे बेबात परेशान किया हो. उलटे, सरकार पर लाखों करोड़ कुछ उद्योगपतियों को देने, नोटबंदी थोपने, कोविड में लाखों की मौतें छिपाने के आरोप हैं. सरकारें आज बुलडोजरों का उपयोग कर रही हैं जिन में पहले सजा और बाद में सुनवाई होती है. जेलों में बंद लाखों अंडरट्रायल सरकारी निकम्मेपन के सुबूत हैं, जजों के नहीं. जजों पर दबाव डाला जाता है कि फलां को हरगिज जमानत न दी जाए. ऊंची कोर्ट अगर दे भी दे तो सरकार नए मामले थोप देती है. ऐसी सरकार पर क्या निष्ठावान जज नियुक्त करने की उम्मीद की जा सकती है? सुप्रीम कोर्ट की मंशा देशहित में है. तृणमूल के सांसद सौगत रौय ने लोकसभा में सरकार की आलोचना करते कहा कि कलीजियम सिस्टम सरकार की तानाशाही पर अंकुश लगाने का कारगर तरीका है. यह एक गारंटी है जिस से सरकार की विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लगता है. कानून मंत्री किरेन रिजिजू के न्यायपालिका पर दिए बयान की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था.

सरकार के एक पत्र, जो प्रहार था, में कहा गया कि कलीजियम में सरकार का प्रतिनिधि भी होना चाहिए ताकि पारदर्शिता बनी रहे. इस के उत्तर में 19 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने 5 उच्च न्यायालय जजों के नाम सरकार की आपत्तियों के बावजूद फिर दोहराए ही नहीं, वे कारण भी सार्वजनिक कर दिए जो सरकार ने नहीं दिए. सरकार इस तरह की पारदर्शिता तो नहीं चाहती थी. इन 5 जजों में से 3 को नियुक्त न करने के पीछे सरकार के कारण थे : एक जज समलैंगिक है और एक विदेशी पुरुष के साथ रह रहा है; एक ने ट्वीटर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ पोस्ट को शेयर किया था; एक ने नागरिकता कानून पर टिप्पणी की थी. केंद्र व हर राज्य सरकार हर तरह से आज अपारदर्शी है. सूचना का अधिकार जो कांग्रेस ने एक मौलिक अधिकार बना दिया था, अब समाप्तप्राय: हो गया है. संसद में सांसदों के प्रश्नों का उत्तर हां या न में कह कर टरका दिया जाता है. सरकार कलीजियम में नियुक्तियों को ले कर अपारदर्शिता का नाम तो नहीं ले सकती. केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव की शुरुआत नवंबर 2022 में हुई थी. केंद्र सरकार ने कलीजियम से हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ी 20 फाइलों पर दोबारा विचार करने को कहा. ये फाइलें 25 नवंबर को लौटाई गई हैं. इन में 11 नए मामले हैं और 9 मामलों को दोहराया गया है. इन मामलों में एक नाम एडवोकेट सौरभ किरपाल का भी है, जिन्हें दिल्ली हाईकोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश की गई है. एडवोकेट किरपाल पूर्व सीजेआई बी एन किरपाल के बेटे हैं.

इस के पहले मईजून 2018 जनवरी में कलीजियम ने इंदु मल्होत्रा और के एम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने की सिफारिश की थी. सरकार ने इन के नाम पर भी दोबारा विचार करने को कहा था. मई में सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को तो मंजूरी दे दी लेकिन जस्टिस जोसेफ के नाम पर फिर सोचने को कहा. हालांकि बाद में सरकार ने जस्टिस के एम जोसेफ के नाम को भी मंजूर कर लिया था. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम ने 74 जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश की थी, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा समय बीतने के बाद भी केंद्र सरकार ने इन्हें मंजूरी नहीं दी थी. क्यों, यह तो सरकार ने कभी नहीं बताया. यह अपारदर्शिता नहीं तो क्या है? अगस्त 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया था कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उस से टकराव लेने से नहीं हिचकेगी. केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद अक्तूबर 2015 जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने के लिए कानून बनाया गया था. इस की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया और आयोग को निरस्त कर दिया. कलीजियम सिस्टम की सिफारिशों को नजरअंदाज करने पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कड़ी फटकार लगाई.

अदालत ने कहा कि यह एक कानून है और इस पर पूरी तरह से अमल करना जरूरी है. अटौर्नी जनरल को कड़ी हिदायत देते हुए कहा कि आप सरकार को जा कर सम?ाएं. अगर संसद के बनाए कानूनों को कुछ लोग मानने से इनकार कर देते हैं तो फिर क्या स्थिति होगी. कोर्ट का कहना था कि समाज अपने हिसाब से यह तय करने में लग जाए कि कौन से कानूनों की पालना करनी है और कौन से की नहीं तो यह एक ब्रेकडाउन जैसी स्थिति हो जाएगी. जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस विक्रम नाथ की बैंच ने केंद्र सरकार को साफतौर पर हिदायत दी कि वह किसी भी सूरत में संवैधानिक बैंच के दिए फैसले पर नरमी न बरते. उन का कहना था कि समाज के कुछ वर्गों को कलीजियम सिस्टम से दिक्कत होने से कोर्ट को कोई फर्क नहीं पड़ता.

अटौर्नी जनरल ने कोर्ट से कहा कि 2 बार खुद सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम ने अपनी ही सिफारिशों में फेरबदल किया था क्योंकि केंद्र ने उस के सु?ाए नाम वापस कर दिए थे. इस से ?ालक मिली कि कलीजियम ने जो सिफारिश की थी वह अपनेआप में कहीं न कहीं अधूरी थी. जस्टिस संजय किशन कौल की बैंच ने इस पर कड़ा रुख दिखाते कहा कि एकदो बार के उदाहरण से केंद्र को लाइसैंस नहीं मिल जाता कि वह कलीजियम सिस्टम को नजरअंदाज करना शुरू कर दे. बैंच का कहना था कि जब एक मसले पर कोर्ट कोई फैसला दे चुकी है तो किसी अगरमगर की जरूरत नहीं रह जाती. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से कलीजियम बनाया था. कलीजियम की व्यवस्था संविधान में नहीं दी गई लेकिन ‘जजेस केस’ कहलाने वाले मामलों में उस ने संविधान की जो व्याख्या की, उस से कलीजियम की संरचना और अधिकार तय हुए.

इसीलिए दोनों बातें सही हैं- यह कि कलीजियम संविधान में नहीं है और यह भी कि, कलीजियम संविधान से निकला है क्योंकि संविधान में निहित प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है. कलीजियम सिस्टम फिलहाल सर्वोत्तम तरीका है जजों को नियुक्त करने का. पूछा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने किस से पूछ कर नेता नियुक्त किया था. कौन सी जनता ने उन की उम्मीदवारी पर मोहर लगाई थी. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने से पहले ही बहुत बार पार्टी में वोटिंग होती है. कलीजियम सिस्टम को दोष देने वाले उस सिस्टम को पार्टियों में ला सकते हैं क्या?

उड़द की उत्पादन तकनीक

विषय वस्तु विशेषज्ञ (शस्य विज्ञान) हमारे देश में उड़द का उपयोग मुख्य रूप से दाल के लिए किया जाता है. इस की दाल अत्यधिक पोषक होती है. विशेष तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसे लोग अधिक पसंद करते हैं. उड़द की दाल को भारत में भारतीय व्यंजनों को बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता है और इस की हरी फलियों से सब्जी भी बनाई जाती है. उड़द की जड़ों में गांठों के अंदर राइजोबियम जीवाणु पाया जाता है, जो वायुमंडल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधे को नाइट्रोजन की आपूर्ति करता है, इसलिए उड़द की फसल से हरी खाद भी बनाई जाती है,

जिस में तकरीबन 40-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन प्राप्त होती है. देश की एक मुख्य दलहनी फसल है उड़द. इस की खेती मुख्य रूप से खरीफ सीजन में की जाती है, लेकिन जायद सीजन में समय से बोआई सघन पद्धतियों को अपना कर भारत के मैदानी भाग, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और राजस्थान में यह मुख्य रूप से इस की खेती की जाती है. कार्य सांख्यिकी प्रभाग अर्थ एवं सांख्यिकी निदेशालय के अनुसार, वर्ष 2004-05 में भारत में कुल उड़द का उत्पादन 1.47 मिलियन टन था, जो वर्ष 2015-16 में बढ़ कर 2.15 मिलियन टन हो गया, वहीं वर्ष 2016-17 की शुरुआत में 2.93 मिलियन टन कुल उड़द का उत्पादन लक्ष्य रखा गया.

उड़द की फसल के लिए जलवायु उड़द एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है, इसलिए इसे आर्द्र एवं गरम जलवायु की आवश्यकता होती है. उड़द की खेती के लिए फसल पकाते समय शुष्क जलवायु की जरूरत पड़ती है. जहां तक भूमि का सवाल है, समुचित जल निकास वाली बुलई दोमट भूमि इस की खेती के लिए सब से उपयुक्त मानी जाती है, लेकिन जायद में उड़द की खेती में सिंचाई की जरूरत पड़ती है. उड़द की उन्नत किस्में टी-9, पंत यू-19, पंत यू-30, जेवाईपी, यूजी-218. उड़द बोआई के लिए बीज की दर उड़द अकेले बोने पर 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और मिश्रित फसल के रूप में बोने पर 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काम में लेना चाहिए.

उड़द बोने की विधि और समय वसंत ऋतु की फसल फरवरीमार्च में और खरीफ ऋतु की फसल जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के अंतिम सप्ताह तक बोआई कर देते हैं. चारे के लिए बोई गई फसल छिड़कवां विधि से की जाती है और बीज उत्पादन के लिए पंक्तियों में बोआई अधिक लाभदायक होती है. प्रमाणित बीज को कैप्टान या थायरम आदि फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के बाद राइजोबियम कल्चर द्वारा उपचारित कर के बोआई करने से 15 फीसदी उपज बढ़ जाती है. उड़द बीज का राइजोबियम उपचार उड़द दलहनी फसल होने के कारण अच्छे जमाव, पैदावार व जड़ों में जीवाणुधारी गांठों की सही बढ़ोतरी के लिए राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करना जरूरी होता है.

एक पैकेट (200 ग्राम) कल्चर 10 किलोग्राम बीज के लिए सही रहता है. उपचारित करने से पहले आधा लिटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या चीनी के साथ घोल बना लें. उस के बाद कल्चर को मिला कर घोल तैयार कर लें. अब इस घोल को बीजों में अच्छी तरह से मिला कर सुखा देें. ऐसा बोआई से 7-8 घंटे पहले करना चाहिए. उड़द की फसल में खाद एवं उर्वरक भूमि की उर्वराशक्ति बनाए रखने के लिए हर 2 या 3 साल में एक बार अपने खेतों में सड़ी हुई गोबर की खाद (100-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) का उपयोग करें. उड़द दलहनी फसल होने के कारण अधिक नाइट्रोजन की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि उड़द की जड़ में उपस्थित राइजोबियम जीवाणु वायुमंडल की स्वतंत्र नाइट्रोजन को ग्रहण करते हैं और पौधों को प्रदान करते हैं. पौधे की प्रारंभिक अवस्था में जब तक जड़ों में नाइट्रोजन इकट्ठा करने वाले जीवाणु क्रियाशील हों, तब तक के लिए 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय खेत में मिला देते हैं.

उड़द की फसल में सिंचाई फूलफल बनने की अवस्था पर यदि खेत में नमी न हो, तो सिंचाई अवश्य करें. उड़द में खरपतवार नियंत्रण वर्षाकालीन उड़द की फसल में खरपतवार का प्रकोप अधिक होता है, जिस से उपज में 40-50 फीसदी नुकसान हो सकता है. रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिए वासालिन 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 1,000 लिटर पानी के घोल का बोआई के पूर्व खेत में छिड़काव करें. फसल की बोआई के बाद, परंतु बीजों के अंकुरण के पहले पेंडीमिथेलीन 1.25 किलोग्राम 1,000 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर के खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है.

अगर खरपतवार फसल में उग जाते हैं, तो फसल बोआई 15-20 दिन की अवस्था पर पहली निराईगुड़ाई खुरपी की सहायता से कर देनी चाहिए. दोबारा खरपतवार उग जाने पर 15 दिन बाद निराई करनी चाहिए. उड़द में फसल चक्र एवं मिश्रित खेती वर्षा ऋतु में उड़द की फसल प्राय: मिश्रित रूप में मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास व अरहर आदि के साथ उगाते हैं. उड़द की फसल की कटाई और मड़ाई उड़द 85-90 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है, इसलिए ग्रीष्म ऋतु की कटाई मईजून माह में और वर्षा ऋतु की कटाई सितंबरअक्तूबर माह में फलियों का रंग जब काला पड़ जाने पर हंसिया से कटाई कर के खलिहानों में फसल को सुखाते हैं.

बाद में बैल या डंडों या थ्रैशर से फलियों से दानों को निकाल लिया जाता है. उड़द की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर शुद्ध फसल में और मिश्रित फसल में 6-8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हो जाती है. भंडारण ??दानों को धूप में सुखा कर 10-12 फीसदी नमी हो जाए, तब दानों को बोरियों में भर कर गोदाम में रख लिया जाता है.

Holi Special: सोने का पिंजरा

अगर तुम न होते -भाग 3 : अपूर्व ने संध्या मैडम की तस्वीर को गले से क्यों लगाया?

“व्हाट,” जौन चौंका, “यू मीन, वे तुम्हारी रियल मौम नहीं हैं?” इतने साल साथ रहते हुए भी अपूर्व ने कभी उसे यह नहीं बताया कि संध्या उस की अपनी मां नहीं हैं, बल्कि उन्होंने उसे गोद लिया है.

“हां, वे मेरी अपनी मां नहीं हैं लेकिन मां से कहीं ज्यादा बढ़ कर हैं. अगर वे न होतीं, तो आज मेरा वजूद न होता. मैं किसी फुटपाथ पर बैठा भीख मांग रहा होता या किसी अनाथ आश्रम में पल रहा होता या कोई चोर डाकू बन कर जेल में सड़ रहा होता,” बोल कर अपूर्व अपने अतीत के एकएक पन्ने पलटने लगा.

‘बच्चो, अब यह बताओ, यह कौन सा साल चल रहा है?” संध्या मैडम ने क्लास के बच्चों से अगला सवाल पूछा, तो सभी ने एकसाथ जवाब दिया, ‘2000.’

‘वैरी गुड. दीपक, तुम बताओ हमारे देश के प्रधानमंत्री कौन हैं?’

‘नहीं पता?’

‘हमारे देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हैं. अच्छा आरती, अब तुम बताओ, हमारा देश कब आजाद हुआ था?’

‘टीचर जी, हमारा भारत देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ था,’ खड़ी हो कर आरती बोली.

‘बिलकुल सही जवाब,’ ताली बजाती हुई संध्या मैडम बोलीं, तो क्लास के सारे बच्चे भी ताली बजाने लगे.

‘अब तुम बताओ कि देश की पहली महिला प्रधानमंत्री कौन थी?’ संध्या ने इस बार सवाल विनोद से किया, लेकिन वह नहीं बता पाया, तो मैडम ने पिछली बैंच पर बैठा 8 साल के उस सांवले से बच्चे से पूछा, ‘अपूर्व, तुम बताओ, देश की पहली महिला प्रधानमंत्री कौन थीं?’

‘वो…मैडम जी,’ बड़ा संकुचाते हुए अपूर्व बोला, ‘इंदिरा गांधी.’

‘एकदम सही जवाब. अच्छा, अब यह बताओ कि इंदिरा गांधी राहुल गांधी की कौन लगती थीं?’ संध्या मैडम ने फिर अपूर्व से ही सवाल किया.

“वो…मैडम जी, इंदिरा गांधी राहुल गांधी की दादी लगती थीं,’ आगेपीछे अपना सिर घुमाते हुए अपूर्व बोला. उसे लगा कहीं गलत जवाब हुआ तो क्लास के सारे बच्चे उस पर हंसेंगे.

‘डरो नहीं, सही जवाब दिया तुम ने.’

संध्या मैडम, बच्चों को किताबी ज्ञान के अलावा सामान्य ज्ञान की भी शिक्षा देती थीं. ‘अच्छा, अब यह बताओ कि गांधी जी कौन थे?’ इस बार भी सवाल अपूर्व से ही पूछा गया.

‘गांधी जी? गांधी जी तो…’ ऊपर छत की तरफ देखते हुए अपूर्व सोचने लगा कि क्या जवाब दें? लेकिन फिर जो उसे समझ में आया, बोल दिया, ‘गांधी जी तो राहुल गांधी के दादा जी थे.’ अपूर्व की बात पर क्लास के सारे बच्चे ‘हो हो हो’ कर हंसने लगे और उसे ‘वेवकूफ…बेवकूफ’ बोलबोल कर चिढ़ाने लगे.

‘ऐ, चुप हो जाओ सब,’ संध्या मैडम ने टेबल पर डंडा पटका, तो सारे बच्चे चुप हो गए. मगर अभी भी वे मुंह पर हाथ रख कर हंसे ही जा रहे थे. ‘मैं ने कहा न, कोई नहीं हंसेगा. चलो, अब सब अपनीअपनी किताबें निकालो.’

टीचर की बात पर सारे बच्चे बैग से अपनीअपनी किताबें निकालने लगे. लेकिन अपूर्व वैसा ही बैठा रहा. ‘अपूर्व, क्या हुआ? तुम भी अपनी किताब निकालो.’ लेकिन वह खड़ा हो कर बोला कि उस के पास किताब नहीं है.

‘किताब नहीं है लेकिन किताब तो थी न तुम्हारे पास?’ संध्या मैडम की बात पर अपूर्व वैसे ही जमीन पर नजरें गड़ाए खड़ा रहा. कैसे बताता कि उस के छोटे भाई ने उस की किताब फाड़ दी. जब भाई से वह झगड़ा करने लगा, तो उसे डांटने के बजाय उलटे उस की मां ने उस की किताब को चूल्हे में झोंक दिया. बेचारा कितना रोया था अपनी किताब के लिए. ‘अच्छा, तुम दीपक के पास जा कर बैठ जाओ, ताकि दोनों एक ही किताब से पढ़ सको.” संध्या मैडम ने आज बड़े गौर से अपूर्व को देखा.

उसे देख कर लग रहा था जैसे वह कई दिनों से नहाया न हो. मैलेकुचैले स्कूल ड्रैस में अपूर्व बड़ा बेचारा सा लग रहा था. मन तो किया उस की मां को बुला कर जोर की फटकार लगाए और कहे कि अरे, कैसी मां हो तुम जो बच्चे का ठीक से ध्यान भी नहीं रख सकतीं. मगर संध्या जानती है उस के बोलने से अपूर्व और प्रताड़ित होगा उस के हाथों, क्योंकि अपूर्व उस का अपना बच्चा जो नहीं है. इसलिए मन की बात मन में ही घोंट संध्या मैडम बच्चों को पढ़ाने लगीं.

मां का जन्म-भाग 3 : माधुरी किस घटना से ज्यादा दुखी थी?

तय प्रक्रिया के तहत दोनों ने एक महीने दवाएं खाईं. उस के बाद दोनों के जरूरी तत्त्व लिए गए. लैब में भ्रूण बनाया गया. उस के महीनेभर बाद माधुरी के गर्भ में उस भ्रूण को डाला गया. पर गर्भ ने उसे स्वीकार नहीं किया और यह पूरी प्रक्रिया असफल रही. दोनों बहुत परेशान हुए.

डा. लतिका ने उन्हें समझाया- ‘आईवीएफ में साधारणतया 30 से 40 फीसदी मामले सफल होते हैं. हम फिर कोशिश करेंगे. चूंकि प्रकिया जटिल है और असफल होने पर मानसिक रूप से तोड़ देती है, इसलिए हम दोतीन महीने रुकते हैं. उस के बाद फिर कोशिश करेंगे.’

माधुरी ने दुखी मन से कहा, ‘आप जैसा ठीक समझें, मैडम. हम तो पिछले 2 महीने से बहुत उत्साहित थे. अब देखिए, अगली बार क्या होता है?’

‘तुम दोनों धैर्य रखो और प्रकृति पर भरोसा भी. मैं सिर्फ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया करती हूं. उस की सफलता या असफलता प्रकृति के हाथ में है. हमारा काम कोशिश करते रहना है,’ कह कर डा. लतिका ने दोतीन महीने बाद आने को कहा और आने के एक महीना पहले वही दवाएं खाने की सलाह दी.

5 महीने बाद दोनों ने दोबारा प्रयास किया. इस बार भी असफलता हाथ लगी. दोनों टूटते जा रहे थे. पर हर बार एकउम्मीद के साथ खुद को तैयार करते. हर बार प्रभाष और माधुरी 2 महीने इसी उम्मीद में जीते कि इस बार सब अच्छा हो. एकएक कर के 4 बार आईवीएफ की प्रक्रियाएं असफल हुईं. और ऐसा करतेकरते पूरे 3 साल निकल गए. अब दोनों ने हार मान ली और निराश हो गए.

अंतिम बार जब भ्रूण स्थानांतरण असफल हुआ तब डा. लतिका ने उन्हें सरोगेसी की सलाह दी. उन्होंने समझाया कि इस में भ्रूण किसी अन्य महिला के गर्भ में डालेंगे. वह महिला उसे 9 महीने अपने गर्भ में रखेगी. बच्चा होने के बाद उसे बायोलौजिकल पेरैंट्स यानी प्रभाष-माधुरी को दे दिया जाएगा.

सब समझने के बाद माधुरी ने पूछा, ‘मतलब, वह बच्चा 9 महीने किसी और के गर्भ में पलेगा, फिर मैं उस की मां कैसे हुई?’

‘उस बच्चे के जैविक यानी बायोलौजिकल मातापिता तुम्हीं दोनों होगे. उस में तुम्हारे ही डीएनए होंगे. बस, यह समझ लो कि तुम ने किराए की कोख ली है.’

‘फिर अगर कल को वह महिला आ गई अपना बच्चा मांगने तो हम क्या करेंगे?’ माधुरी ने घबरा कर कहा.

‘यह एक सख्त कानूनी प्रक्रिया के तहत होता है. उस के अंतर्गत तुम दोनों का एक एग्रीमैंट होगा मेरे हॉस्पिटल से. फिर हौस्पिटल उस महिला से भी एग्रीमैंट करेगा. इस प्रक्रिया की गोपनीयता हमारी जिम्मेदारी है, इस के उल्लंघन होने पर मेरा लाइसैंस कैंसल हो जाएगा.’

प्रभाष ने डा. लतिका से सोचने का समय मांगा. 15 दिनों बाद सब से रायमशवरा कर के दोनों ने डा. लतिका के चाइल्ड केयर हौस्पिटल से सरोगेसी के लिए एग्रीमैंट कर लिया. कई सारी जांच और प्रक्रियाएं हुईं. डा. लतिका ने प्रभाष के शुक्राणु और माधुरी के अंडों से भ्रूण बना कर सरोगेट की कोख में डाला. सरोगेट महिला का गर्भधान सफल रहा. उस की कोख ने 2 भ्रूण स्वीकार लिए. डा. लतिका समयसमय पर बच्चों के बारे में प्रभाष और माधुरी को बताती रहतीं. उस महिला के लिए जरूरी कपड़े, भोजन, दवाएं, खानपान का उचित प्रबंध चाइल्ड केयर हौस्पिटल करता.

इसी बीच, सितंबर में प्रभाष ने माधुरी को उस के मायके जौनपुर भेज दिया था. आखिरकार 14 दिसंबर को डा. लतिका ने प्रभाष को सूचित किया कि सरोगेट महिला से जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है. एक लड़का-एक लड़की. दोनों बच्चे कल उन्हें सौंप दिए जाएंगे. प्रभाष ने यह खबर तुरंत माधुरी को दी और कहा, ‘आज मिठाई बांटता हूं सब को और यही कहूंगा कि तुम ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया है.’

माधुरी ने मना किया और कहा, ‘मिठाई बांटों, बच्चे हुए यह भी बताओ पर मैं ने जन्म दिया है यह मत कहो. सच कहो कि सरोगेसी से हुए हैं. हमारे जीवन में खुशियां आने वाली हैं, प्रकृति ने हमारा अंश धरती पर भेजा है. उस की बुनियाद हमें झूठ पर नहीं रखनी चाहिए.’

प्रभाष और माधुरी इस खबर से बहुत खुश हुए. उन के जीवन की एक ऐसी कमी पूरी हो गई जिस के लिए वे सालों से प्रयासरत थे. खासकर, माधुरी आज बहुत खुश थी. उस के और प्रभाष के अंश, सक्सेना खानदान के 2 चिराग इस दुनिया में आ चुके हैं. उस की सास रजनी ने तो जाने कहांकहां की मिन्नतें पूरी करने की लिस्ट बना ली है. पर अब प्रभाष यह सोच कर परेशान था कि लोगों से क्या बताए और क्या छिपाए. इस पूरी बात की जानकारी दोनों के मांबाप के अलावा सिर्फ रोहन को थी.

प्रभाष के मन में डर था कि सब को सच बताने पर लोग कहीं न कहीं माधुरी के स्त्रीत्व या उस के पौरुष पर जरूर सवाल खड़ा करेंगे. उसी दिन माधुरी कानपुर वापस आई और अगले दिन प्रभाष उसे सीधा चाइल्ड केयर हौस्पिटल ले गया.

गुलाबी कपड़ों में लिपटे एकएक दिन के 2 मासूम बच्चे माधुरी की गोद में डालते हुए डा. लतिका ने कहा, ‘ये दोनों नैन प्रो पीते हैं. हर 2 घंटे पर इन्हें दूध पिलाते रहना. हर बार दूध पिलाने के बाद बोतल गरम पानी में उबाल लेना. आने वाले 3 महीने इन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. मैं ने बच्चों के डा. शिरीष नटियाल को बुलाया है. वे दूसरे केबिन में हैं. वे तुम्हें अन्य सावधानियां बताएंगे.’

माधुरी की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. उस ने डाक्टर की ओर देखते हुए पूछा, ‘मैडम, इन की असली मां ने कैसे इन्हें खुद से अलग किया होगा? 9 महीने कोख में पालने के बाद तुरंत अलग कर देना, यह सोच कर ही दिल दहल जा रहा है कि आज उस मां पर क्या बीत रही होगी. मुझे दो मिनट में इन से लगाव हो गया है. उस ने तो 9 महीने…’ कहती हुई माधुरी रोने लगी.

 

फिल्मों में एंट्री मिलना मुश्किल था, लेकिन मैंने अपना सपना कभी नहीं छोड़ा- मनोज बाजपेयी

फिल्म ‘गुलमोहर’ अभिनेता मनोज बाजपेयी के लिए एक अलग और चुनौतीपूर्ण कहानी है, जिसे निर्देशक राहुल चित्तेला ने बहुत ही सुंदर तरीके से पर्दे पर उतारा है. ये नई जेनरेशन की फॅमिली ड्रामा फिल्म है, जिसमे मनोज बाजपेयी ने अरुण बत्रा की भूमिका निभाई है, जो काबिलेतारीफ है. मनोज कहते है कि मुझे एक ऐसी ही अलग कहानी में काम करने की इच्छा थी, जिसे निर्देशक राहुल लेकर आये और मुझे करने का मौका मिला. खास कर इस फिल्म के ज़रिये मुझे शर्मीला टैगोर और अमोल पालेकर जैसी लिजेंड के साथ काम करने का मौका मिला. मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है, जब मैं ऐसे लिजेंड कलाकार के साथ काम करता हूँ. मैंने अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता के साथ भी काम किया है. मुझे दुःख इस बात का है कि मैं अभिनेता संजीव कुमार के साथ काम नहीं कर पाया. एक बार मैं लिजेंड दिलीप कुमार से भी मिला हूँ, उन्होंने सिर्फ कहा था कि मैं उम्दा काम करता हूँ. ये सारी बातें एक कलाकार को अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करती है.

फिल्म ‘बेंडिट क्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है. बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.

रिलेटेबल है कहानी

मनोज ने हमेशा रिलेटेबल कहानियों में काम करना पसंद किया है, क्योंकि वे खुद को इससे जोड़ पाते है. इसी कड़ी में उन्होंने फिल्म ‘गुलमोहर’ किया है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘डिजनी प्लस हॉटस्टार’ पर रिलीज होने वाली है, इस फिल्म में काम करने की खास वजह के बारें में पूछने पर वे बताते है कि ये इसकी स्क्रिप्ट और उलझन मेरे लिए आकर्षक है, एक परिवार के अंदर हर व्यक्ति कुछ पकड़ना चाह रहा है, लेकिन वह रेत की तरह उसके हाथ से छूट रहा है, ये मुझे बहुत अच्छा लगा. ये आज की कहानी है, जहाँ रिश्तों और संबंधों के बारें में लोग कम सोचते है. आज मैं काम में व्यस्त हूँ और अपने परिवार के साथ रहना मुमकिन नहीं होता, इसलिए जब भी थोडा समय मिलता है मैं परिवार के साथ रहने की कोशिश करता हूँ.

 

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रिश्तों को दे समय

रिश्ते और संबंधों में हल्कापन आने के बारें में मनोज का कहना है कि रिश्ते है, खासकर शहरों में किसी के पास समय नहीं है, जबकि गांव में ऐसा आज भी नहीं है, लेकिन रिश्ते तो है. व्यक्ति काम से अपने आप को बाहर नहीं निकाल पाता, ताकि रिश्तों को मजबूत कर पाएं. रिश्तों को उतना ही महत्व दें, जितना काम को देते है, ताकि बाद में कोई अफ़सोस न हो.

हैप्पी यादे जीवन की

मनोज आगे कहते है कि मुझे याद आता है, मैं एक्टर बनना चाहता था और मैंने 18 साल की उम्र में गांव छोड़ा था. गांव में तब फ़ोन की व्यवस्था नहीं थी, बाद में टेली फ़ोन आया और कम्युनिकेशन स्मूथ हो गया और अब सबके हाथ में मोबाइल फ़ोन है, लेकिन बात नहीं होती.

इसके अलावा जब गांव से निकला, तो परिवार से दूर हो गया, जब मैने उन्हें गांव से दिल्ली लाया, तो मैं मुंबई आ गया, इस तरह से मैं उनके साथ नहीं रह पाया. ये खाली है और कभी भर नहीं सकते. उसे याद करता हूँ और ये सारे हैप्पी यादें है. मैंने कुछ अपनी माँ से और कु अपने पिता से अडॉप्ट किया है. परिवार का साथ मिलकर रहना और बातचीत करना बहुत जरुरी होता है. इससे इमोशनल बोन्डिंग बढती है, जिसकी आज की स्ट्रेसफुल लाइफ में बहुत जरुरी होता है.

 

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ओटीटी ने दिया मौका

इंडिपेंडेंट फिल्मों के बनने से कलाकारों को काम करने का अधिक मौका मिला है और ये आगे तक चल सकेगी. मनोज आगे कहते है कि इंडिपेंडेंट सिनेमा में पैसे नहीं होते, लेकिन कहानी को अपने हिसाब से कहने और फिल्म मेकिंग को ऑर्गनाइज कर दिया है. आज सबके पास वौयस् है, पहले ऐसा नहीं था.

इस फिल्म को करते हुए मैंने बहुत एन्जॉय किया है. फिल्म किसी को कुछ सिखाती नहीं, रिलेट कराती है. इसलिए विश्वास के साथ काम करें, तो सफल अवश्य होगी. मुझे याद है, मुझे फिल्मों में एंट्री मिलना थोडा मुश्किल था, लेकिन मैंने एक्टिंग की ड्रीम को मैंने नहीं छोड़ा. बदलाव जरुरी था, लेकिन ओटीटी ने इस बदलाव को जल्दी ला दिया. फिल्म मेकिंग की तकनीक भी बहुत बदली है.

महिलाओं को आगे बढ़ने में होती है समस्या

मनोज आगे कहते है कि परिवार और पुरुष को इस बात को समझना पड़ेगा कि समय बदल गया है और महिलाओं के सामने पूरा आसमान है और वह पूरी तरह से स्वतंत्र ख्याल की हो चुकी है. उनपर किसी प्रकार की बंदिश लगाने से वह सम्बन्ध नहीं रहेगा. परिवार को मजबूत करने के लिए महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता के साथ उड़ पाए, इसके लिए पुरुष की तरफ से एक समझदारी की जरुरत है. मेरे परिवार में मेरी माँ एक स्ट्रोंग महिला रही, उनकी कई बातों को मैं अपने जीवन में उतारता हूँ. ये बातें मेरी जीवन में महत्वपूर्ण है और अंत तक मेरे साथ रहेंगी. मेरे जीवन में काम और परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है.

भारतीय दुल्हन की तरह सजी पाकिस्तानी एक्ट्रेस तो लोग हुए नाराज, पर मिला करारा जवाब!

पाकिस्तानी फेम एक्ट्रेस उस्ना शाह शादी के बंधन में बंध चुकी है,  जैसे ही अदाकारा ने अपनी शादी की वीडियो शेयर कि चर्चा होने लगी. अदाकारा ने लाल रंग के लहंगे में अपना वीडियो शेयर किया है. जो एक दम भारतीय एक्ट्रेस जैसे तैयार हुई हैं.

अदाकारा के इस अदा को देखकर कुछ पाकिस्तानी लोग कमेंट कर रहे हैं कि भारतीय स्टाइल में क्यों तैयार हुई है. जिसे देखकर अदाकारा ने करारा जवाब दिया है.

 

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एक यूजर ने कमेंट करके लिखा है कि पाकिस्तानियों के अपने धर्म हैं और हमें इसी तरह से तैयार होकर रहना चाहिए ज्यादा भारतीय परंपरा को फॉलो नहीं करना चाहिए.  एक यूजर ने लिखा पाकिस्तानी दुल्हन भारतीय स्टाइल में क्यों सजने लगी,  इस पोस्ट को देखने के उस्ना ने जवाब देते हुए लिखा है कि मेरे ड्रेस और स्टाइल पर कमेंट करने वाले आप लोग ना तो मेरे शादी में इंवाइट थे और ना ही आपने मेरे ड्रेस के पैसे दिए थें.

मेरी जूलरी, मेरा जोड़ा पूरी तरह से पाकिस्तानी है, बेगानी शादी में जो बिन बुलाए फोटोग्राफर घूस गए हैं उन्हें सलाम है. क्या आपके पास कोई काम नहीं है. हर वक्त ऐसे उल्टे सीधे काम करने में क्या आपको अच्छा लगता है.

रश्मि देसाई के नए वीडियो को देखकर फैंस ने किए ऐसे कमेंट!

टीवी की फेमस एक्ट्रेस रश्मि देसाई इन दिनों कुछ खास काम नहीं कर रही हैं, लेकिन आए दिन अपनी वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करती रहती हैं, जिससे वह चर्चा में बनी रहती हैं. हाल ही में रश्मि देसाई ने एक गाने पर डांस करते हुए अपा वीडियो शेयर किया है जिसमें वह साड़ी पहने नजर आ रही हैं.

रश्मि देसाई के डांस मूव्स जबरदस्त हैं, जिसे देखकर फैंस कुछ तारीफ कर रहे हैं तो वहीं कुछ फैंस भड़क गए हैं. उन्होंने रश्मि देसाई के वीडियो पर भद्दा कमेंट किया है. रश्मि फेमस सॉंन्ग पर डांस कर रही हैं, जिसमें उनके मूव्स काफी शानदार हैं.

 

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फैंस को साड़ी पहने रश्मि कि यह अदा खूब पसंद आ रही है, रश्मि काफी दिनों बाद इस तरह के वीडियो को शेयर कि हैं. वहीं कुछ यूजर ने कमेंट कर उनकी वीडियो की तारीफ की तो कुछ ने उन्हें आंटी कहकर गंदा मजाक बनाया है.

फैंस ने कहा है कि ये आंटी को लोग अब काम नहीं दे रहे हैं, इसलिए अपने आप को बनाएं रखने के लिए ये सब कर रही है. बीते कुछ दिनों से रश्मि देसाई ने कोई भी वीडियो सोशल मीडियापर इस तरह से शेयर नहीं किया था.

गिरफ्तारी और मनीष सिसोदिया का मुस्कुराता चेहरा

केंद्र सरकार की एजेंसी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की कथित आबकारी मामले में गिरफ्तारी से आश्चर्यजनक तरीके से जहां आप पार्टी की लोकप्रियता बढ़ी है वही मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी का वायरल चित्र जिसमें वे मुस्कुराते हुए दिखाई दे रहे हैं यह बता रहा है कि सच क्या है. एक निर्भीक और सच्चा व्यक्ति ही ऐसी बिना डर की मुस्कुराहट चेहरे पर बिखेर सकता है.

सीबीआई ने मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार किया है वह अपना पक्ष मीडिया में भी रख सकती है और न्यायालय में भी, मगर जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के कुछ चर्चित चेहरे मनीष सिसोदिया पर हमला कर रहे हैं आप पार्टी को भ्रष्टाचार का गढ़ बता रहे हैं उससे यह संकेत है कि भारतीय जनता पार्टी उसका नेतृत्व राजनीतिक दलों में अगर किसी से सबसे ज्यादा भयभीत है तो वह है अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप. जो धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही है और अब तो राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त कर चुकी है.

दरअसल, यह अपने आप में हमारे देश के लोकतांत्रिक इतिहास में एक ऐसा घटनाक्रम है जो एक ऐसा रास्ता बताएगा जो हमें सोचने पर मजबूर करेगा दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया है. सवाल यह है कि क्या देश में अभी देश में कांग्रेस की सरकार होती तो क्या मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी होती शायद नहीं, आज भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार ऐसा ऐसा काम कर रही है जो कभी नहीं हुआ. लाख टके का सवाल से किया है कि जब आप काम करते हैं तो गलतियां होती हैं कुछ गलतियां जानबूझकर होती जाती है और कुछ अनजाने में हो जाती हैं. सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं.

इस देश ने देखा है बोफोर्स घोटाला का वह मंजर जब पूरे देश के कोने-कोने में गूंज रहा था. मगर क्या हुआ . 2G स्पेक्ट्रम घोटाला कोयला खदान आवंटन का मामला जाने जाने कितने ऐसे मामले भ्रष्टाचार के नाम पर आए और चले गए. हम भ्रष्टाचार की तरफदारी नहीं करते मगर यह भी सच है कि भ्रष्टाचार के नाम पर चाहे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या प्रवर्तन निदेशालय का गलत इस्तेमाल कतई नहीं होना चाहिए जब तक 100 फीसद सबूत ना हो ऐसे मामलों में सतर्कता बरती जानी चाहिए और देश में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि किसी साफ-सुथरे व्यक्ति पर केंद्र सरकार या फिर उसकी एजेंसियां पावर का गलत इस्तेमाल कर रही हैं नैतिकता और कानून का भय तो होना ही चाहिए.

दरअसल, केंद्रीत जांच ब्यूरो ने आबकारी नीति से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को एक अदालत में पेश किया. अदालत ने पूछताछ के लिए चार मार्च तक के लिए जांच एजंसी की हिरासत में भेज दिया.

विशेष न्यायाधीश एमके नागपाल ने सीबी आइ और सिसोदिया के वकीलों की दलीलें सुनने के बाद कुछ देर के लिए अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था. उन्होंने फिर सीबीआइ के तर्कों से सहमति जताई और पांच दिन की हिरासत मजूर कर ली.

जैसा कि हमेशा होता रहा है
सुनवाई के दौरान पहले जांच एजंसी के वकील ने दलील दी कि गिरफ्तार मनीष सिसोदिया को हिरासत में रख कर मामले में पूछताछ करने की दरकार है.

सिसोदिया ने दावा किया है कि मामले में उनकी कोई भूमिका नहीं है, मगर सीबीआई के अनुसार जांच से यह पता चला कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से फैसले लिए थे. वहीं सिसोदिया के वकील ने हिरासत में सौंपने संबंधी जांच एजंसी के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा कि ( तत्कालीन) उपराज्यपाल ने आबकारी नीति में बदलावों को मंजूरी दी थी, लेकिन केंद्रीय जांच एजंसी निर्वाचित सरकार के पीछे पड़ी हुई है. यह सारी स्थितियां आशीष के सामने हैं ऐसे में यही कहा जा सकता है कि सीबीआई ने जिस तरह जल्दी बाजी में मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी की है आने वाले समय में देश को कई चौंकाने वाली जानकारियां मिलेंगी जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है.
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विपक्षी नेता एक हो रहे
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दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद कुछ हो ना हो देश के विपक्ष के कई नेता मनीष सिसोदिया के पक्ष में आ गए हैं और उन्होंने खुलकर बयान दिया है कि कहीं ना कहीं कुछ तो लोचा है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने विपक्षी छोटी-छोटी पार्टियों को एक होने का मौका दे दिया है जो स्वयं उनकी सेहत के लिए नुकसान कारी सिद्ध होगा.

बीआरएस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीएम के चंद्रशेखर राव ने ट्वीट कर कहा – हम सीबीआइ द्वारा सिसोदया की गिरफ्तारी की निंदा करते हैं. यह अडानी मोदी गठजोड़ से लोगों का ध्यान हटाने के अलावा और कुछ नहीं है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने कहा – मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी निंदनीय है. मोदी सरकार की परियोजना विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने, चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने और लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों को हथियार बना रही है.

उद्धव सेना के सांसद संजय राउत ने ट्वीट कर कहा कि जैसे भाजपा विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार कर रही है. मुझे डर है कि भविष्य में भाजपा के नेताओं का क्या होगा, जब वे सत्ता से बाहर होंगे ? क्या होगा यदि उन्हें समान रूप से सताया या गिरफ्तार किया जाएगा? उनकी मदद को कौन आएगा ?

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि सिसोदिया की गिरफ्तारी निराशाजनक है. यह लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई राज्य सरकारों की आवाजों पर हमला करने और उन्हें दबाने का एक और बेशर्म प्रयास है.

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