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आईना: गरिमा ने कैसे दिखाया आईना?

सामान से लदीफंदी मैं घर पहुंची तो बरामदे में ही मैं ने मम्मी को इंतजार करते पाया. अरे मम्मी, आप कब आईं? न फोन, न कोई खबर, मैं ने मम्मी के पैर छूते हुए उन से पूछा.

अचानक ही प्रोग्राम बन गया, कहते हुए मम्मी ने मुझे गले लगा लिया.

रामू, रामू, जरा चाय बनाना, मैं ने नौकर को आवाज दे कर चाय बनाने को कहा.

तुम्हारे नौकर तो बहुत ट्रेंड हैं. मेरे आते ही चायपानी, सब बड़ी स्मार्टली करा दिया, मम्मी बोलीं.

बातबात में अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल करना मम्मी के व्यक्तित्व की खासियत है. डाई किए कटे बाल, कानों में नगों वाले हीरे के टाप्स, गले में सोने की मोटी चेन में चमकता पेंडेंट, अच्छे मेकअप से संवरी उन की सुगठित काया सामने वाले पर अच्छा असर डालती है.

मैं ने प्रशंसा से मम्मी की ओर देखा, बादामी रंग पर हलके सतरंगी फूलों वाली साड़ी उन के गोरे तन पर फब रही थी. ड»ाइवर सामान मेज पर रख कर चला गया था.

मम्मी, मैं बाजार से यह सामान लाई हूं, आप तब तक देखिए, मैं जरा हाथमुंह धो कर आती हूं, कहती हुई मैं बाथरूम में चली गई.

हांहां, तुम फ्रेश हो कर आ जाओ, मम्मी ने कहा.

मैं हाथमुंह धो कर आई तो मैं ने देखा मेरे आने तक रामू मम्मी के सामने चाय के साथसाथ पकौड़ी की प्लेट भी लगा चुका था. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, गरिमा, साडि़यां तो बहुत सुंदर हैं, लेकिन ये इतने सारे छोटेछोटे बाबा सूट किस के लिए लाई हो? मम्मी पूछ तो मुझ से रही थीं पर उन की नजर हाथ में पकड़ी सोने की पतली चेन का निरीक्षण कर रही थी.

इतने सारे कहां, मम्मी? सिर्फ 5 सेट कपड़े हैं. भैरवी को बेटा हुआ है न, उसी के लिए लाई हूं, मैं ने बताया.

अरे हां, याद आया. मैसेज तो आया था. मैं ने भी बधाई का टेलीग्राम भेज दिया था, मम्मी बोलीं.

अच्छा किया, मम्मी, भैरवी को अच्छा लगा होगा. मैं भैरवी के घर जाने की ही तैयारी कर रही हूं. परसों इतवार है. मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आज रात में ललितपुर से आदर्श यहां आ जाएंगे, कल सुबह यहां से निकलने का प्रोग्राम है. अब…, उत्साह से मैं बोलती ही जा रही थी.

चलो अच्छा है, आदर्श से भी मुलाकात हो जाएगी. मुझे भी कल मानिर््ंाग में ही वापसी निकलना है, मम्मी बोलीं.

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अरे, ऐसी क्या जल्दी है. हम लोग अपना प्रोग्राम थोड़ा बदल लेंगे. भैरवी के घर पहुंचने में सिर्फ 4 घंटे ही तो लगते हैं. और फिर अपनी गाड़ी से जाना है, जब चाहें निकल लेंगे. इतने दिनों बाद तो आप आई हैं, पकौड़ी खाते हुए मैं बोली.

नहीं भाई, मेरा प्रोग्राम तो एकदम डेफिनेट है. ठीक 7 बजे हम लोग यहां से निकल जाएंगे. ठंडेठंडे में कानपुर पहुंच जाएंगे, मम्मी ने कहा.

हम लोग? यानी आप के साथ और भी कोई आया है? मैं ने चौंकते हुए पूछा.

हमारी महिला समिति को मेरठ में एक ‘इनक्वायरी’ करनी थी. तुम यहां पोस्टेड हो और मेरी सहेली सुलभा देशमुख की बेटी भी यहीं झांसी में मैरिड है. 2 मेंबर्स की टीम आनी थी, अच्छा चांस था. बस, हम दोनों ने वाøलटियर कर दिया. रास्ते में इनक्वायरी का काम निबटाया. आज का दिन और एक रात अपनीअपनी बेटियों के साथ बिताएंगे और कल ईवनिंग में 5 बजे समिति की मीटिंग में अपनी जांच रिपोर्ट दे देंगे. अब समिति की गाड़ी तो आनी ही थी, सो बिना खर्चे के बच्चों से मिलना हो गया, कहती हुई मम्मी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

चाय का स्वाद अचानक मेरे मुंह में कसैला हो गया. जाने क्यों, मम्मी का यह व्यावहारिक रूप मुझे कभी रास नहीं आया था. मैं मम्मी से मतलब निकालने की कला नहीं सीख सकी थी. केवल यही क्यों, मैं तो मम्मी से कुछ भी नहीं पा सकी थी. गोरी रंगत और तीखे नैननक्श के साथ लंबी कद- काठी और गठीले शरीर की स्वामिनी की कोख से मैं, सांवली रंगत, साधारण नाकनक्श और सामान्य कदकाठी की संतान पैदा हुईघ्थी.

मैं ने अपने पिता की छवि पाई थी. केवल रंगरूप में ही नहीं, स्वभाव भी मुझे पिता का ही मिला था. बचपन से ही मैं डरपोक, शांतिप्रिय, एकांत प्रेमी और पढ़ाकू थी. एकांत प्रेमी और पढ़ाकू होना शायद मेरी मजबूरी थी. गुजरा हुआ अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था.

रूपगर्विता मम्मी का मन, साधारण व्यक्तित्व वाले पति को कभी स्वीकार नहीं सका था.घ्पति को छोड़ पाना मम्मी के वश में भी नहीं था, आर्थिक मजबूरियां थीं. परंतु मुझ जैसी कुरूप संतान उन पर बोझ थी. लेकिन मजबूरी यहां भी दामन थामे खड़ी थी. अपनी ही संतान को कहां फेंकें? सामाजिक बंधन थे. लिहाजा उन्हें मेरी परवरिश का अनचाहा बोझ उठाना पड़ा. इस जिम्मेदारी को अंजाम भी दिया परंतु वात्सल्य की मिठास से मेरी झोली खाली ही रह गई. उसी शाख पर खिले दूसरे 2 सुंदर फूल मम्मी की प्रतिच्छाया थे. मम्मी का सारा प्यार उन्हीं पर निछावर हो गया.

मेरे प्रशासनिक सेवा में चयन की खुशी मम्मी की आंखों में चमकी थी. घर की उपेक्षित लड़की अचानक मम्मी की नजर में महक्कवपूर्ण हो गई थी.घ्मुझे मम्मी में यह बदलाव अच्छा लगा था, किंतु यहां भी छोटी बेटी के प्रति मम्मी का प्रेम उन पर हावी हो गया था और उन्हें यह अफसोस होने लगा था कि यदि ग्लोरी की शादी अब होती तो उसे भी प्रशासनिक अधिकारी पति मिल जाता.

बचपन में मम्मी की सहेलियां जब भी घर आतीं, मम्मी मुझे हमेशा रसोई में घुसा देतीं. नाश्तापानी बनाने की सारी मेहनत मैं करती किंतु ट्रेन में सजा कर ले जाने का काम हमेशा मेरी अनुजा ग्लोरी का ही होता. उम्र के साथसाथ मैं ने इस सत्य को स्वीकार लिया और खुद ही लोगों के सामने जाने से कतराने लगी. धीरेधीरे मैं एकांतप्रिय होती चली गई. अपने अकेलेपन को भरने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ने लगी जिस से मैं पूरी तरह पढ़ाकू ही बन गई.

ग्लोरी, मेरी अनुजा का यह नाम भी मम्मी का रखा हुआ था जो मम्मी का अंगरेजी प्रेम दरशाता है. अपनी इसी खिचड़ी भाषा, शिष्ट श्रृंगार और सामाजिक संगठनों से जुड़ कर मम्मी खुद को उच्च वर्ग का दरशाती हैं. ग्लोरी मेरी सगी बहन है, किंतु वह मम्मी की कार्बन कापी. अधिकार से अपनी बात मनवाना और हर जगह छा जाना उस की फितरत में है.

गरिमा, गरिमा, मम्मी की आवाज से मैं वापस वर्तमान में आ गई.

अरे, क्या सोचने लगी थी? बैठेबैठे सपनों में खो जाने की तेरी आदत अभी गई नहीं. इतनी देर से पूछ रही हूं, कुछ बोलती क्यों नहीं? मम्मी ने कहा.

ये, क्या पूछ रही थीं, मम्मी? मैं ने सवाल के जवाब में खुद ही सवाल कर डाला.

यह गुलाबी साड़ी कितने रुपए की है? मैं ग्लोरी के घर जाने वाली हूं. सोच रही हूं यह गुलाबी साड़ी ग्लोरी पर अच्छी लगेगी, उसे दे दूं, वाणी में मिठास घोलते हुए मम्मी बोलीं.

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ग्लोरी पर तो सारे रंग अच्छे लगते हैं. ये साडि़यां तो मैं भैरवी के लिए लाई हूं. अपने लिए लाई होती तो मैं जरूर दे देती, मैं ने कहा.

क्या? ये सब, मतलब ये सारा सामान तुम भैरवी को देने के लिए लाई हो? मम्मी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं.

हां, मम्मी, भैरवी की पहली संतान को आशीर्वाद देने जा रहे हैं हम लोग, मैं ने कहा.

अरे, तू होश में तो है? इतने सारे कपड़े, 5 साडि़यां, रजाईगद्दा, चादर, खिलौने, क्या तूने उस का पूरा ठेका ले रखा है? और, जरा सा बच्चा सोने की चेन का क्या करेगा? फैली नजरों से मम्मी मुझे देख रही थीं.

मम्मी, कैसी बात कर रही हैं आप? भैरवी की यह पहली संतान है, मैं ने कहा.

कैसा क्या? तेरे भले की बात कर रही हूं. पहला बच्चा है तो क्या, कोई अपना घर उजाड़ कर सामान देता है किसी को? मम्मी ने कहा.

छोडि़ए मम्मी, जो आ गया सो आ गया, कह कर मैं ने इस अप्रिय प्रसंग को खत्म करना चाहा.

छोडि़ए कैसे? तुम फुजूलखर्ची छोड़ो और ऐसा करो, बहुत मन है तो बच्चे के कपड़ों के साथ एक साड़ी और मिठाई दे दो, बाकी सब वापस रख दो. हो जाएगा सगुन, कहते हुए मम्मी ने आदतन अपना हुकम सुना दिया.

मम्मी, ग्लोरी के पहली बेटी होने पर लगभग इतना ही सामान भिजवाया था आप ने. तब मैं टे»øनग में ही थी, पैसों की भी तंगी थी, परंतु उस समय आप को यह सब फुजूल- खर्ची नहीं लगी थी, मुझे अब गुस्सा आने लगा था.

ग्लोरी तेरी सगी बहन है, उसे दिया तो क्या, सभी को बांटती फिरोगी, मम्मी बोलीं.

भैरवी कोई गैर नहीं, मेरी सगी ननद है. जैसी ग्लोरी वैसी भैरवी, मैं ने कहा.

बहन और ननद में कोई फर्क नहीं है क्या? मम्मी भी गुस्से में आ गई थीं.

नहीं, कोई फर्क नहीं है. एक को मेरी मां ने जन्म दिया है तो दूसरी को मेरी सासू मां ने. एक ही प्यार का नाता है, मैं बोली.

तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, कोई फर्क नहीं दिखता, मम्मी खीज उठीघ्थीं.

वैसे फर्क तो है, मम्मी, कुछ सोचती हुई मैं बोल पड़ी.

चलो, तुम्हारी समझ में तो आया, मम्मी खुश हो गईं.

भावना और परवरिश में फर्क है, अभी मैं ने अपनी बात स्पष्ट करना शुरू ही किया था कि रामू अदब से सामने आ कर खड़ा हो गया और बोला, मैडम, खाना लग गया है.

ठीक है, चलिए मम्मी, खाना खाते हैं. आप तो सुबह की निकली होंगी, मैं उठते हुए बोली. इस अप्रिय संवाद के खत्म होने से मैं ने चैन की सांस ली.

हां, सुबह 6 बजे ही हम लोग कानपुर से चल दिए थे. सीधे मोठ पहुंचे. 2 घंटे वहां लगे. 11 बजे मोठ से चलना शुरू किया और सीधे झांसी, कहते हुए मम्मी भी उठ खड़ी हुईं.

खाना खा कर हम दोनों पलंग पर लेट गईं. घरपरिवार का हालचाल बतातेबताते मम्मी अचानक बोल पड़ीं, अरे, गरिमा, जो सामान वापस करना है, अपने ड»ाइवर को बोल दो, वापस कर आएगा, नहीं तो तुम लोग 3 दिन के लिए चले जाओगे. इस दौरान शापकीपर का सामान क्यों पता बिक ही जाए. जब लेना नहीं है तो बेचारे का नुकसान क्यों कराया जाए.

कौन सा सामान? कुछ समझ नहीं सकी. लिहाजा बोल पड़ी.

अरे, वही जो तुम भैरवी के लिए उठा लाई थीं, मम्मी ने कहा.

मम्मी, क्यों वही बात फिर से शुरू कर रही हैं? मेरे लहजे में शिकायत थी.

मतलब, तुम सामान वापस नहीं कर रही हो? मम्मी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही थीं.

नहीं, मम्मी, आप भला नहीं कर रही हैं. आप हमें स्वार्थी बनाने का प्रयास कर रही हैं, मैं स्पष्ट शब्दों में बोल उठी.

गरिमा? गुस्से से मम्मी की आवाज कांप गई.

मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, मम्मी, मुझे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय में मैं ने हमेशा टालना चाहा है. जब तक बात मेरे तक थी, मैं ने कोई विरोध नहीं किया, अपनेआप में सिमटती चली गई. लेकिन आप की दखल का असर अब हमारी गृहस्थी पर भी होने लगा है. ग्लोरी का बिखरता दांपत्य आप की ऐसी सीखों का ही नतीजा है. अभी भी समय है मम्मी, खुद को रोक लीजिए. आप ने तो समाजसुधार का बीड़ा उठा रखा है. फिर अपनी बेटियों का घर क्यों…

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मेरी बात बीच में काटती हुई मम्मी मेरा हाथ झटक कर बैठ गईं और गुस्से से बोलीं, तुम कहना क्या चाहती हो? मेरी फूल जैसी ग्लोरी को वे लोग सुखी नहीं रख रहे हैं और उस के लिए दोषी मैं हूं? मैं तुम लोगों को स्वार्थी बना रही हूं? मैं तुम लोगों का भला नहीं चाहती? और तेरे साथ मैं ने क्या किया जो तू चली गई? पढ़ालिखा कर प्रशासनिक अधिकारी बना दिया, यही न? आज सी.डी.ओ. बनी सब पर रोब झाड़ती घूम रही है. हमेशा की डरीसहमी रहने वाली लड़की, आज मां से ही जवाबसवाल कर रही है, मम्मी की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.

मम्मी, प्लीज, शांत हो कर मेरी बात सुनिए, मैं ने नरम पड़ते हुए कहा.

अच्छा, अभी भी सुनने को कुछ रह गया है क्या? मम्मी झल्लाईं.

प्लीज मम्मी, मुझे मालूम है आप हमारा बुरा नहीं चाहतीं. अपनी लाड़ली ग्लोरी का बुरा तो आप सोच भी नहीं सकतीं øकतु अनजाने में ही आप भले के चक्कर में ऐसा कुछ कर जाती हैं जो आप के न चाहते हुए भी आप की संतान का बुरा कर बैठता है. मेरे और ग्लोरी के सुखी भविष्य के लिए मेरी बात सुन लीजिए, मैं ने उन्हें समझाते हुए कहा.

शायद मेरी बात मम्मी को कुछ समझ आ रही थी या फिर ग्लोरी की बिखरती गृहस्थी को संवारने की इच्छा से मम्मी मेरी बात सुनने को तैयार हो गई थीं. मैं समझ नहीं पा रही थी कि उन नजरों में क्या था.

क्या कहना चाहती हो, बोलो, मम्मी के सपाट शब्दों में कोई भाव नहीं था.

मैं दुविधा में थी. मम्मी अपलक मेरी ओर देख रही थीं. थोड़ी देर हमारे बीच खामोशी पसरी रही, फिर मैं ने बोलना शुरू किया, मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाइएगा, मम्मी.

हां, बोलो, मम्मी की तटस्थता बरकरार थी.

मम्मी, अभी आप ने मुझे बहन और ननद में फर्क करने की सलाह दी थी जिसे मैं ने मानने से मना कर दिया, क्योंकि निश्छल और निस्वार्थ प्यार क्या होता है, मैं ने अपनी शादी के बाद ही जाना है. पति का प्यार ही नहीं, मां का प्यार, बहन का प्यार…, मैं कहती चली गई.

अरे, हम प्यार नहीं करते क्या? मम्मी की तटस्थता टूटी. उन के स्वर में आश्चर्य था.

जरूर करती हैं, लेकिन ग्लोरी और भैया से कम. मैं बचपन से ही काली मोटी रही हूं, मैं ने कहा.

गरिमा, रंगरूप तो भगवान का दिया है, मम्मी बोलीं.

हां, लेकिन आप तीनों के व्यवहार से मेरी कुरूपता मुझ पर हावी होती गई. नतीजतन, मैं हीनभावना से घिरती गई. किसी से बात करने का आत्मविश्वास मुझ में नहीं रहा, मैं ने मम्मी से अपने मन की हकीकत बयान की.

अरे, कैसी बात कर रही हो? ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ, मम्मी बोलीं.

लेकिन अतीत की कसैली यादें मुझ पर हावी थीं. मैं अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, मम्मी, याद है मैं जब हाईस्कूल में थी, स्कूल में हमारी फेयरबेल पार्टी थी. मैं बहुत उत्साहित थी. आप की एक साड़ी मैं ने उस खास मौके पर पहनने के लिए कई दिन पहले से अलग निकाल रखी थी. उस दिन, जब मैं ने उसे पहनने के लिए निकाला तो ग्लोरी ने टोका था, ‘दीदी, तुम दूसरी साड़ी पहन लो. यह साड़ी मैं परसों पिकनिक में पहन कर जाऊंगी.’

‘नहीं, आज तो मैं यही साड़ी पहनूंगी. इतने दिनों से मैं ने इसे तैयार कर के रखा है. तुम्हें पहनना है तो तुम भी पहन लेना. मैं इसे गंदा नहीं करूंगी,’ मैं ने भी जिद कीघ्थी.

‘दीदी, तुम जो कुछ भी पहनती हो, कोई भी रंग तुम्हारे ऊपर खिलता तो है नहीं, बेकार की जिद मत करो,’ कहते हुए ग्लोरी ने साड़ी मेरे हाथ से ले ली थी. मैं खड़ी की खड़ी रह गई थी.

मम्मी, आप के सामने ग्लोरी मुझे इस तरह अप्रिय शब्दों में अपमानित कर के चली गई और आप कुछ नहीं बोली थीं.

अरे, तुम इतनी छोटी सी बात अब तक दिल से लगाए बैठी हो, गरिमा? मम्मी अचंभित सी मुझे देख रही थीं.

यह आप के लिए छोटी घटना होगी मम्मी, लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने कभी भी ग्लोरी और भैया की बराबरी नहीं की. मैं सब से कटती चली गई. अपने रंगरूप के कारण जो आत्मविश्वास मैं ने खो दिया था वह मुझे वापस मिला अपनी शादी के बाद.

आई.ए.एस. की टे»øनग के दौरान मुझे आदर्श मिले, जो सिर्फ नाम के ही नहीं विचारों के भी आदर्श हैं. आदर्श को जीवनसाथी में रूप की नहीं, गुणों की तलाश थी और हम परिणय सूत्र में बंध गए. ससुराल जाते हुए मैं बहुत आशंकित थी øकतु मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. ससुराल में सब ने मेरा खुले मन से स्वागत किया. मेरा ससुराल सचमुच ‘घर’ था, जहां सब को एकदूसरे की भावनाओं का खयाल था, मेरी छोटीछोटी बातों की तारीफ होती. मैं किसी को रूमाल भी ला कर देती तो वे लोग एकदम खिल जाते. वे कहीं भी जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ जरूर लाते. तब मुझे अपने भाईबहन याद आते, जो सिर्फ अधिकार से लेना जानते हैं.

गरिमा, वे तुम से छोटे हैं, मम्मी ने उन का पक्ष लेते हुए कहा.

मम्मी, आप ने हमेशा उन का पक्ष लिया है. इसीलिए वे जिद्दी हो गए हैं. मां होने का अर्थ हमेशा बच्चों की कमी पर परदा डालना नहीं होता बल्कि उन्हें सही राह दिखाना होता है. मम्मी, वे यदि छोटे हैं तो भैरवी भी तो छोटी ही है, लेकिन उस ने मुझे सही अर्थों में छोटी बहन का प्यार दिया. ‘प्यार’ शब्द का अर्थ मैं ने इस परिवार में आ कर जाना है. प्यार में कोई लेनदेन नहीं होता, बस, प्यार होता है. बिना मेरी कमियों की तरफ इशारा करे भैरवी ने मेरे बालों की स्टाइल, मेरा पहनावा सब बदलवा दिया. मैं इस नई स्टाइल में काफी स्मार्ट लगने लगी जिस से मुझे मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिला. मैं भैरवी की आभारी हूं. उस के लिए कुछ भी करने का मेरा मन करता है. जितना सामान मैं भैरवी को दे रही हूं, इस से कहीं ज्यादा ही वह बेटे के होने पर लाई थी और ग्लोरी के लिए मैं ने क्या नहीं किया और वह क्या लाई थी, आप से भी छिपा नहीं है, मैं ने शिकायती अंदाज में कहा.

गरिमा… मम्मी बोलीं.

नहीं मम्मी, मुझे गलत मत समझिए. मैं नहीं चाहती कि ग्लोरी मुझे कुछ दे, लेकिन ग्लोरी को देना सिखाइए. उस की सुखी गृहस्थी के लिए यह जरूरी है, मैं ने कहा.

मुझे आज पता चला तुम अपने दिल में अंदर ही अंदर इतना कुछ छिपाए हुए थीं. आज अचानक तुम्हारी दर्द की परतें खुलने लगीं तो मैं… मम्मी बोलीं.

मम्मी की बात बीच में काटते हुए मैं बोली, मेरा छोडि़ए, मम्मी, जो अकेला बीता, वह मेरा बचपन था और वह बीत चुका है. मेरा वर्तमान खुशियोें से भरा है. मेरा दांपत्य बहुत सुखी है और आज आप को अपनी गृहस्थी में दखल देने से पहले ही रोक कर मैं ने बिखराव की पहली आहट पर ही विवेक का पहरा बिठा दिया है. ग्लोरी यही नहीं कर सकी है, मैं ने कहा.

मतलब… गरिमा साफसाफ कहो, क्या कहना चाह रही हो तुम. मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई. मैं ग्लोरी के लिए बहुत øचतित हूं, मम्मी ने कहा.

मेरी छोटी बहन के प्रति उन की ममता उमड़ रही थी. ग्लोरी के लिए उन का øचतित होना बहुत ही स्वाभाविक था. अब उन की आंखों में अपरिचित सा भाव दिखाई दे रहाघ्था.

अतीत चलचित्र सा मेरे मानस पटल पर उभर रहा था. परिवार की सब से छोटी,  सब की लाड़ली बेटी ग्लोरी का हित मम्मी के लिए सदैव सर्वोपरि रहा है.

पापा के गहरे मित्र ने अपने बड़े बेटे, अक्षय का रिश्ता मेरे लिए भेजा था. दहेज विरोधी इतना संपन्न परिवार, उस पर  प्रोबेशनरी अफसर लड़का. बस, मम्मी की दुनियादारी का ज्ञान उन की कोमल भावनाओं पर हावी हो गया और मम्मी ने यह रिश्ता ग्लोरी के लिए तय कर लिया. पापा के अलावा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. हमेशा की तरह पापा झुक गए और बड़ी के कुंआरी रहते छोटी बेटी का ब्याह हो गया. ससुराल से लौटी ग्लोरी अपनी कुंआरी बड़ी बहन की भावनाओं को समझे बिना अपने वैवाहिक जीवन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती रही.

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ग्लोरी की कोई गलती नहीं थी. उस ने दूसरे की भावनाओं को समझना सीखा ही नहीं था और न ही उसे सिखाया गया.

गरिमा, गरिमा, क्या कह रहीं थीं तुम? एकदम चुप क्यों हो गईं? मम्मी के टोकने से मैं फिर वर्तमान में लौट आई.

मम्मी, दूसरे की भावना को समझना हर ब्याही लड़की के लिए बहुत जरूरी होता है. हरेक को पापा जैसा सहनशील पति और परिवार नहीं मिलता. दूसरे की भावना को समझे बिना ससुराल में कोई भी लड़की तालमेल नहीं बिठा सकती. अब से ही सही, ग्लोरी को सही राह दिखाइए, मैं ने मम्मी से कहा.

मौन हुई मम्मी मेरी तरफ देख रही थीं. शायद वह मेरी बातों की सचाई तौल रही थीं.

मम्मी.

हां, मम्मी का स्वर बहुत धीमा था.

मम्मी, याद है आप को, जब हम लोग पहली बार ग्लोरी के घर गए थे. कितना दौड़दौड़ कर वह सब काम कर रही थी और कितना खुश थी, लेकिन एकांत मिलते ही आप ने उसे समझाया था…‘ग्लोरी, सारा काम तुम ही करोगी क्या? अपनी ननद को भी करने दो. और साड़ी के पल्ले को पिन से बालों में क्यों रोक रखा है? अरे, पल्ला सिर से गिरता है तो गिरने दो. अभी से अपने पैर जमाना स्टार्ट करो. नहीं तो बहू के बजाय नौकरानी बन कर रह जाओगी,’ मैं ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

सिर हिलाती हुई मम्मी बोलीं, याद है, सब याद है, लेकिन लाख समझाने पर भी ग्लोरी कहां कुछ कर पाई. रोजरोज की खिटखिट से बेचारी परेशान रहती है. समझ में नहीं आता, उस के लिए क्या करूं. अक्षय हैं कि अलग रहने के लिए तैयार ही नहीं हैं, मम्मी के स्वर में ग्लोरी के प्रति गहरी हमदर्दी थी.

मम्मी, आप की उस दिन की वह सलाह ग्लोरी के परिवार के बिखराब की पहली दस्तक थी, जिस की आहट ग्लोरी नहीं सुन सकी थी, मैं ने कहा.

क्या…? मम्मी फटीफटी आंखों से मेरी तरफ देख रही थीं.

मम्मी, जब किसी परिवार में कोई बाहरी व्यक्ति दखल देने लगता है तो उसी पल उस परिवार का बिखराव तय हो जाता है, मैं ने मम्मी को समझाते हुए कहा.

बाहरी?…मैं, मैं ग्लोरी के लिए बाहरी व्यक्ति हो गई? मम्मी चौंक कर बोलीं.

हां, मम्मी. यही कड़वी सचाई है, इसे स्वीकार कीजिए. देखिए, ग्लोरी का घरपरिवार वही है, ग्लोरी वहां रह रही है और वही बेहतर समझ सकती है, उसे वहां कैसे रहना चाहिए. परंतु वह अपने विवेक से नहीं, आप के बताए रास्ते पर चलती है. इसी लिए अपनी शादी के 4 साल बाद भी वह अपने परिवार को पूरी तरह अपना नहीं पाई है.

कुछ पल के मौन के बाद मम्मी बोलीं तो उन की आंखें नम हो आई थीं, ग्लोरी बहुत भोली है, वह कुछ समझ नहीं पाती.

मम्मी, आप उस का भला चाहती हैं तो उसे उस के हाल पर छोड़ दीजिए. अक्षय हैं न उसे राह दिखाने के लिए. मम्मी, अक्षय अच्छा लड़का है और सब से बड़ी बात यह कि वह ग्लोरी को बहुत प्यार करता है. एक बार उसे उस के हाल पर छोड़ कर देखिए.

तुम…शायद तुम ठीक कह रही हो. मैं…मैं…तो उस का, कहतेकहते गला भर आया था. उन की आंखों से गरम आंसू टपक पड़े.

मम्मी, मुझे माफ कर दीजिए, मैं बहुत ज्यादा बोल गई. मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थीं, कहते हुए मेरा भी गला भर आया था.

मम्मी ने आगे बढ़ कर मुझे अपने सीने से लगा कर कहा, नहीं, गरिमा, आज तुम ने मुझे सही आईना दिखाया है. मैं ने कभी इस नजरिए से नहीं सोचा था.

जाने कब तक हम मांबेटी एकदूसरे से लिपटी आंसू बहाती रहीं. दिल के तार दिल से जुड़ते गए और उस खारे जल के साथ मन की परतों में छिपे सारे गिलेशिकवे बह गए.

अब मन का आईना धुल कर चांदी सा चमकने लगा था मानो नवप्रभात के आगमन की सूचना दे रहा हो.

Women’s Day Special: अपनी राह- 40 की उम्र में कैसे हुआ मीरा का कायाकल्प

देखते ही देखते मीरा ने अपनी उम्र का 40वां वसंत पार कर लिया. 5 साल पहले तक रिश्तेदार उस के लिए ढंगबेढंग के रिश्ते भेजते रहे थे, पर अब सभी ने किनारा कर लिया था. उस के मम्मीपापा भी उस से छोटी दोनों बहनों और भाई की शादी कर चुके थे.

‘‘अकेले हैं तो क्या गम है,’’ कह कर  15 सालों से मीरा सारे प्रस्तावों को ठुकराती रही थी. लेकिन अपने असफल प्यार के धधकते रेगिस्तान में नंगे पैर दौड़ती भी तो रही.  वह एक पल के लिए भी देव को भूल न सकी थी. मन में बसे देव को वह भूल भी कैसे सकती थी. तनमन को चुरा, वजूद को मिटा कर मीरा के उस गिरधर ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा था. मात्र 14 साल की कच्ची उम्र से मीरा ने उसे मन में छिपा लिया था और उस चोर ने भी छिपने में कोई आनाकानी नहीं की थी. मन, क्रम, वचन से उस का हाथ थामे उस के प्रेम रस में भीगती रही, छीजती  रही. सोतेजागते, उठतेबैठते, रोतेहंसते देवदेव उच्चारती रही.

समय के साथ दोनों के प्यार की खुशबू सर्वत्र फैल रही थी पर देव के प्रेम रस बूंदन में मीरा के मन की भीग रही चुनरिया तन को भी भिगो गई थी. होली के दिन भंग चढ़ा कर देव ने उस के तन की याचना क्या की कि गरजती, नाचती दामिनी की तरह वह उस पर बरस गई. फिर बारबार भीगती रही. कभी मोल ली हुई दासी की तरह तो कभी जोगन की तरह. प्रीत की चुनर ओढ़े मीरा नित नई होती गई.  दोनों ने आईआईटी दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बीटैक किया. एमबीए करने के लिए मीरा बैंगलुरु चली गई और देव बोस्टन के हार्वर्ड बिजनैस स्कूल में चला गया. देव तो बारबार जाने से मना कर रहा था पर मीरा ही नहीं मानी. पलक झपकते 2 साल गुजर जाएंगे, फिर हम और हमारा आशियाना. भविष्य के ढेर सारे सपने आंखों में ले कर भरे मन से मीरा ने देव को विदा किया.

कभी फोन पर बातें कर के तो कभी फेसबुक पर प्यारमनुहार करते समय बीतता रहा. न्यूयौर्क की एक बड़ी कंपनी में कैंपस सलैक्शन होने के बाद देव इंडिया आया भी. कन्याकुमारी में 2 हफ्ते तक दोनों एकदूजे में खोए रहे. सभी तरह से आश्वस्त करते हुए देव लौट गया. बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी ने मीरा को भारी पैकेज के साथ सलैक्ट कर लिया था. लेकिन उस की नौकरी भी न्यूयौर्क में हो जाए, इस के लिए देव हर तरह से प्रयत्नशील था. नहीं भी होने से कोई बात नहीं थी. शादी के बाद स्पाउस वीजा पर वह देव के साथ चली जाएगी.  लेकिन ऐसा कहां हो सका.

इधर मीरा प्रीत की धानी चुनर ओढ़े देव की प्रतीक्षा कर रही थी. उधर विषम परिस्थितियों में देव को उसी कंपनी में कार्यरत नैन्सी से शादी करनी पड़ी थी. विरह में डूबे जो दिन पावस और वसंत बने हुए थे, अग्नि बन कर उस पर बरस गए. देव पुरुष था, समाज ने उस के कदम को सराहा. स्त्री तन लिए मीरा ही कलंकित हुई. समय की चट्टान पर लिखित उस की प्रेमगाथा ने जीतेजी उसे सलीब पर टांग दिया. विवश मीरा को विरह की अनंत पीड़ा स्वीकारनी पड़ी पर अपनी प्रेम गठिया को छुआ तक नहीं. छूती भी कैसे? एक ही मन था, एक ही चुनर थी और वह भी देव प्रेम रंग में भीगी. दूसरा रंग कहां से चढ़ता और चढ़ता भी कैसे? चुनर का रंग न तो छीजा था और न सूखा था, वह तो दिनोंदिन गहराता गया था.

कितने रिश्ते आए, कितनों ने साथ के लिए हाथ बढ़ाया पर वह देव की जोगिन  ही बनी रही. मीरा अपने काम में ही अपना सुकून ढूंढ़ने का प्रयास करती रही. देखतेदेखते दोनों बहनों एवं भाई का घर बस गया पर मीरा अकेलेपन की मार भोगती रही.  जब से मीरा को दीया का साथ मिला था जीवन के प्रति उस का नजरिया सकारात्मक हो गया था. दीया का बारबार का समझाना कि जीवन में जो गुजर गया उसे भुला कर जीने का प्रयास कर के खुश रहना है.

‘‘अरे यार, कब तक देव की विरहण बनी रहोगी? वह तो सब कुछ भुला कर मस्ती भरा जीवन जी रहा है और तुम उस की यादों को संजोए हो. चलो, आज ब्यूटीपार्लर चलती हैं. अपने साथ तुम्हारे हुलिए को भी बदलवाऊंगी.’’  मीरा ने हंसते हुए कहा, ‘‘उम्र के 40 वसंत पार कर लिए. अब मुझे देखेगा भी कौन, जो ब्यूटीपार्लर जाऊं?’’  ‘‘यह भी कोई उम्र है जोगिन बनने की… 40 के बाद ही जीवन जीने का मजा रहता है… चुनौतियों से, झंझावातों से, बाधाओं से और अगर कोई साथी न हो तो अकेलेपन से जूझने का जज्बा रहता है. जब जागो तभी सबेरा. आज से अपने जीने का अंदाज बदल डालो… कैसी बहार छा जाती है जीवन में देखना.’’

दीया के शब्दों ने मीरा के अंदर तूफान उठा दिया… वह व्यग्र हो उठी… कितना दम है दीया के कथन में… इस तरह से क्यों न समझाया उस के अपनों ने उसे कभी. फिर मीरा ने कोईर् आनाकानी नहीं की.  ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद एक नई मीरा का जन्म हो गया था, जिस के समक्ष खुशियों का समंदर लहरा उठा था. कोई अकेलापन नहीं, उत्साह, उमंग से भरे नए एहसास के कलश चारों ओर छलक उठे थे.

15 सालों के दुखदर्द, टूटन, चुभन और अकेलेपन के पलों को एकसाथ जी लेना चाहती थी. अपार रूप की स्वामिनी थी ही, ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद हीरे से तरासे उस के सौंदर्य ने न जाने कितनी जोड़ी आंखों को बांध लिया था.  मौल में जा कर आधुनिक पोशाकें खरीदीं. फिर उन से मैच करती ज्वैलरी, सौंदर्य प्रसाधन का सामान, परफ्यूम आदि खरीदा. अगर दीया उसे समय का एहसास नहीं दिलाती तो शायद पल भर में अपनी दुनिया बदल लेने के जनून से बाहर ही न आ पाती.

1 हफ्ते के अंदर ही मीरा ने स्वयं को ही नहीं, अपने फ्लैट के कोनेकोने को भी सजा लिया. वार्डरोब से ले कर किचन तक मुसकरा उठे.  मीरा में आए अचानक परिवर्तन ने अपार्टमैंट से ले कर औफिस तक के लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था. अकेलेपन में घुटती मीरा हर पल चहकने लगी थी. सभी की अवहेलना करने वाली मीरा नए जोश से भर कर सब के साथ उन्मुक्त हो उठी थी.  देखतेदेखते सभी के साथ उस के दोस्ताना संबंध ही नहीं बने, बल्कि वह सब के दुखसुख के साथी भी बन गई. हर पल कुछ नया करने की उमंग से भरी रहती. प्रत्येक दिन सैंडविच निगलने वाली मीरा के खाने का डब्बा खुलते ही लजीज व्यंजनों की सुगंध से सभी के मुंह में पानी आ जाता. साथियों से अपना खाना भी शेयर करने लगी थी.

फिट और चुस्त रहने के लिए मीरा ने जिम जाना भी शुरू कर दिया था. वहां भी हर उम्र के उस के बहुत सारे दोस्त बन गए थे. पढ़ना तो पहले से ही उस की हौबी थी. प्रसिद्घ लेखकों की किताबों से रैक भर गया था.  आंतरिक प्रसन्नता एवं सुगढ़ मेकअप ने उस की उम्र के 10 साल चुरा लिए थे. अपने डाइरैक्टर अमन से हमेशा चिढ़ी रहने वाली मीरा अब उन से भी हिलमिल गई थी. वे भी मीरा में आए परिवर्तन पर चकित थे. उस की असीमित प्रतिभा और उदासी से भरे सौंदर्य पर वे मोहित तो थे ही, उस के जीने के अनोखे अंदाज से वे उस की निकटता के लिए व्याकुल हो उठे.

आननफानन में किसी बड़े प्रोजैक्ट की रूपरेखा तैयार  करते हुए मीरा को साथ लिए उन्होंने न्यूयौर्क के लिए उड़ान भर ली. 2 कमरों की बुकिंग होते हुए भी मीरा को अपने कमरे में रहने को बाध्य किया तो वह भी इनकार नहीं कर सकी. अमन के आकर्षक व्यक्तित्व पर वह भी मुग्ध थी. अब दोनों के दिन सोने के थे और रातें चांदी की.  दोनों एकदूसरे में समाए हाथों में हाथ लिए दुनिया के उस अनोखे खहर में घूमते रहे. वहां रोकटोक करने वाला भी कौन था. तनमन से वर्षों की प्यासी मीरा आनंद सागर में जी भर कर डुबकियां लगा रही थी.

मौल में घूमते समय किसी की घूरती नजरों को पहचान मीरा और उन्मुक्त हो उठी. वह अमन की बांहों में झूम उठी. वे नजरें थीं देव की.  वह अमन से लिपटी हुई देव के समक्ष जा खड़ी हुई.  ‘‘हाय देव, पहचाना नहीं? मैं मीरा… कभी की तुम्हारी दीवानी… सोचा भी नहीं था कि कभी तुम से कुछ यों मुलाकात होगी… सब कुछ ठीक चल रहा है न? कुछ दुबले हो गए हो.’’

अमन की बांहों में अपनेआप को लपेटते हुए उद्दंडता से बोली मानो देव के किए का सारा लेखाजोखा इसी पल ले लेगी.  ‘‘अमन. ये हैं देव, कभी के मेरे मंगेतर थे. मैं इन से तनमन से जुड़ी रही. इन के विश्वासघात के बाद भी इन की यादों में जीतीमरती रही.’’  ये तो मेरे देव नहीं बने पर मैं ने बेवकूफी में जीवन के कितने अनमोल वर्ष इन की पारो बन कर गुजारा दिए.

‘‘देव, ये हैं अमन,’’ कह कर सब से छिपा कर मीरा ने छलक आए आंसुओं को अमन की हथेलियों में मुंह छिपा कर पोछा और आगे बढ़ गई. अमन को उस पर और भी प्यार उमड़ आया. फिर पीछे मुड़ कर देव को घूरते हुए मीरा को अपनी जैकेट में छिपा लिया.

फटीफटी आंखों से देव तब तक अमन की बांहों में बंधी मीरा को देखता रहा जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गई.

त्यौहार 2022: मौसमी बुखार- पति के प्यार को क्या समझ बैठी माधवी?

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

Holi Special: मिशन मोहब्बत भाग-1

कैंपस सिलैक्शन में राहुल का चयन गुजरात की एक बहुत बड़ी कैमिकल ऐंड फर्टिलाइजर फैक्टरी में हो गया था. फैक्टरी की अपनी आवासीय कालोनी थी, मनोरंजन के सभी साधन थे, शहर जाने के लिए फैक्टरी की गाडि़यां थीं, कुछ लोगों से दोस्ती भी हो गई थी, फिर भी अभी राहुल का दिल नहीं लग रहा था. लेकिन कुछ सप्ताह से आवाज में मायूसी के बजाय उत्साह झलकने लगा था.

एक शाम यह सुन कर विशाल और मानसी ने राहत की सांस ली कि अगली सुबह विशाल टूर पर जयपुर जा रहा था. राहुल ने चहक कर कहा, ‘‘सच पापा, मजा आ गया.’’

‘‘जयपुर मैं जा रहा हूं, मजा तुझे किस खुशी में आ गया, भई?’’ विशाल ने चौंक कर पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं पापा, आप फोन कौन्फ्रैंस मोड पर लगा दीजिए ताकि मम्मी भी सुन लें.’’

‘‘फोन कौन्फ्रैंस मोड पर ही है, बोल क्या सुना रहा है मुझे,’’ मानसी ने उतावलेपन में कहा.

‘‘मेरे बौस हैं न सलिल मेहरा, उन की ससुराल है जयपुर में, उन की साली भी मेरे साथ ही ट्रेनिंग ले रही है. सो, सलिल साहब के घर पर आनाजाना हो गया है. यह सुन कर कि पापा टूर पर जयपुर जाते रहते हैं, अर्पिता दीदी, मेरा मतलब है श्रीमती मेहरा ने कहा कि अब जब जाएं तो बताना, मम्मीपापा से कहूंगी उन से मिलने को. मैं उन को आप का मोबाइल नंबर दे देता हूं. प्रेम सर्राफ आप को फोन कर लेंगे, वे मेरे बौस के ससुर हैं, पापा.’’

 

‘‘सीधे से कह न, मेरे होने वाले ससुर हैं…’’

‘‘आप भी न पापा…’’ और राहुल ने फोन काट दिया.

‘‘थोड़े में ही बहुत कुछ कह गए, बरखुरदार,’’ विशाल ने उसांस ले कर कहा, ‘‘मगर यह रिश्तेविश्ते की

बात मुझ से नहीं होगी. तुम भी साथ चलो, मानसी.’’

इतने शौर्ट नोटिस पर और वह भी बेटे की संभावित ससुराल जाना, मानसी कैसे मान सकती थी. टालने के स्वर में बोली, ‘‘जब लड़की ही वहां नहीं है तो मैं जा कर क्या करूंगी?’’

‘‘यह बात भी ठीक है, मैं भी

काम का बहाना बना कर टालने की कोशिश करूंगा.’’

अगली सुबह प्लेन से बाहर आते ही जैसे विशाल ने अपना मोबाइल स्विच औन किया, घंटी बजने लगी.

‘‘नमस्कार विशाल सहगल साहब, मैं कामिनी सर्राफ बोल रही हूं. राहुल ने आप को बताया होगा कि मेरे पति प्रेम सर्राफ आप को फोन करेंगे लेकिन वे तो आजकल अजमेर गए हुए हैं, सो मैं फोन कर रही हूं.’’

विशाल आवाज की मधुरता और खनक से अभिभूत हो गया.

‘‘नमस्कार जी, बड़ी खुशी हुई आप से बात कर के. कहिए, मेरे लिए क्या हुक्म है?’’

‘‘गुजारिश करने की हिमाकत कर रही हूं,’’ कामिनी की हंसी ने विशाल के मनमस्तिष्क को एक बार फिर झंकृत कर दिया, ‘‘आज की शाम मेरे साथ बरबाद कीजिए.’’

‘‘हुक्म करिए, अपनी शाम संवारने के लिए कब और कहां हाजिर होना है?’’

‘‘जब आप को फुरसत हो, आप फोन कर दीजिएगा, मैं गाड़ी भिजवा दूंगी.’’

‘‘वैसे तो आप जब कहें फुरसत निकाल सकता हूं लेकिन 6 बजे के बाद तो खाली हूं.’’

‘‘आप जब, जहां कहें, गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

‘‘मेरे पास बैंक की गाड़ी है, आप पता बता दीजिए, मैं शाम साढ़े 7 बजे हाजिर हो जाऊंगा.’’

‘‘रेलवे औफिसर कालोनी में किसी से भी चीफ इंजीनियर का घर पूछ लीजिएगा. शाम को मिलते हैं फिर, हैव ए गुड डे,’’ कह कर कामिनी ने फोन रख दिया.

विशाल सिटपिटा गया. गुड डे का आगाज जो कामिनी की आवाज से हुआ था, यह सुनते ही कि प्रेम सर्राफ रेलवे के चीफ इंजीनियर हैं, गायब हो गया. राहुल पर गुस्सा भी आया, बताना तो चाहिए था कि किस के यहां मिलने भेज रहा है ताकि वे उस के अनुरूप कपड़े तो लाता. अभी तो औफिस में पहनने वाले कपड़े ही लाया है. वैसे अमेरिकन बैंक मैनेजर के औफिस के कपड़े भी बढि़या ही रहते हैं, फिर भी किसी खास जगह जाने और खास हस्ती से मिलने के लिए तो कुछ खास होना चाहिए. खैर, अब जो भी हैं उन्हें कड़क प्रैस करवा लेगा.

गैस्ट हाउस पहुंच कर बैग खोलते ही वह फड़क उठा. मानसी ने खास कपड़ों के अलावा, दुबई के सूखे मेवों का गिफ्ट हैंपर भी रख दिया था. कमाल की व्यवहारकुशलता थी मानसी में. बगैर कहे वक्त की नजाकत को समझ कर वक्त के साथ चलना तो उस की खासीयत थी. लेकिन आज मानसी के बारे में सोचने के बजाय उसे कामिनी सर्राफ की आवाज के बारे में सोचना अच्छा लग रहा था. शाम को फुरसत मिलने पर जब मानसी को फोन किया तो यह तो बताया कि वह सर्राफ के यहां जा रहा है लेकिन यह बताना टाल गया कि प्रेम सर्राफ शहर में नहीं हैं.

कामिनी की आवाज ही आकर्षक नहीं थी, व्यक्तित्व में भी अजीब चुंबकीय कशिश थी. पहली बार संभावित समधी से अकेले मिलने की हिचक भी नहीं थी उस में जबकि विशाल को समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात करे.

‘‘प्रेम साहब अकसर टूर पर रहते हैं?’’ न चाहते हुए भी घिसापिटा सा सवाल पूछा.

‘‘महीने में 2-3 बार जाना पड़ ही जाता है. सुना है आप अकसर जयपुर आते रहते हैं?’’

‘‘जी हां, जयपुर का जिस तेजी से विकास हो रहा है उस के मुताबिक हम भी अपने बैंक की सेवाओं का विस्तार कर रहे हैं. उसी सिलसिले में आता रहता हूं. कभीकभी मानसी भी साथ आ जाती है.’’

‘‘अगली बार उन्हें जरूर साथ लाइएगा,’’ कह कर कामिनी ने मेज पर रखा लैपटौप उठा लिया, ‘‘आप को उस फैक्टरी की तसवीरें तो दिखा दूं जहां आप का बेटा काम करता है.’’

लैपटौप पर फैक्टरी और कालोनी की तसवीरें थीं. कुछ देर बाद तसवीरों को आगे बढ़ाते हुए कामिनी बोली, ‘‘अब अपने बेटे को भी देख लीजिए, कालोनी के क्लब की तसवीरें हैं,

यह बैडमिंटन खेल कर आता हुआ आप का बेटा है और इस के साथ मेरी छोटी बेटी निकिता और यह रहा मेरा दामाद सलिल और यह बड़ी बेटी अर्पिता.’’

‘‘अरे, परिवार के मुखिया से तो मिलवाया ही नहीं?’’

‘‘अभी साइड टेबल पर रखी तसवीर ही देख लीजिए, फिर कोई सीडी लगाऊंगी.’’

तभी एक युवक और युवती आ गए. कामिनी ने परिचय करवाया, ‘‘मेरा भतीजा राघव और इस की पत्नी ऋतु, ये दोनों कोठारी कैपिटल में काम करते हैं यानी आप की तरह ही पैसे के लेनदेन का धंधा करने वाले.’’

‘‘आजकल तो चाची, बस, देने का ही काम रह गया है,’’ राघव हंसा.

‘‘ठीक कह रहे हैं, लेने का तो दूरदूर तक पता नहीं है,’’ विशाल ने जोड़ा.

‘‘इस लेनेदेने के लेखेजोखे में उलझने से पहले बेहतर रहे, राघव, कि तुम अजयजी से उन की पसंद पूछ लो,’’ कामिनी ने कहा, ‘‘विशालजी, ऋतु और राघव लजीज व्यंजन बनाने में माहिर हैं. बस अपनी पसंद बता दीजिए.’’

आगे पढ़ें- कुछ ही देर में बढि़या खानेपीने का सामान आ गया और…

Holi Special: जीजाजी का पत्र

घर में सालों बाद सफेदी होने जा रही थी. मां और भाभी की मदद के लिए मैं ने 2 दिन के लिए कालेज से छुट्टी कर ली. दीदी के जाने के बाद उन का कमरा मैं ने हथिया लिया था. किताबों की अलमारी के ऊपरी हिस्से में दीदी की किताबें थीं. मैं कुरसी पर चढ़ कर किताबें उतार रही थी कि अचानक हाथ से 3-4 किताबें गिर पड़ीं.

1-2 किताबें जमीन पर अधखुली पड़ी थीं. उन को उठाने के लिए झुकी तो देखा, 3-4 पेज का एक पत्र पड़ा था. अरे, यह तो जीजाजी का पत्र है जो उन्होंने दीदी को इंगलैंड से लिखा था. पत्र पर एक नजर डालते हुए मैं ने सोचा, ‘दीदी का पत्र मुझे नहीं पढ़ना चाहिए.’

परंतु मन में पत्र पढ़ने की उत्सुकता हुई. मां अभी रसोई में ही थीं. भाभी बंटी को स्कूल छोड़ने गई थीं. जीजाजी के पत्र ने मुझे झकझोर कर रख दिया और अतीत के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया.

दीदी हम तीनों में सब से बड़ी हैं. भैया दूसरे नंबर पर हैं. दीदी और मुझ में फर्क भी 12 साल का है. मां और पिताजी को घर में बहू लाने की बहुत इच्छा थी. इसलिए भैया की शादी जल्दी ही हो गई… वैसे भी दीदी की शादी की प्रतीक्षा करते तो भैया कुंआरे ही रह जाते.

उस दिन सवेरे से ही सब लोग काम में लगे हुए थे. पूरे घर की अच्छी तरह से सफाई की जा रही थी. मां और भाभी रसोई में लगी थीं. दीदी को देखने के लिए कुछ लोग दिल्ली से आ रहे थे. वे दोपहर 12 बजे तक हमारे घर पहुंचने वाले थे. दिल्ली से चलने से पहले उन का 10 बजे के लगभग फोन आ गया था. दीदी नहाधो कर तैयार हो रही थीं.

इस बार दीदी को देखने आने वाले लोग जरा दूसरी ही किस्म के थे. लड़का इंगलैंड में नौकरी करता था. शादी कराने भारत आया हुआ था और उसे 2 हफ्ते से भी कम समय में वापस लौट जाना था.

पिछले 5 वर्ष से दीदी को न जाने कितनी बार दिखाया जा चुका था. हमारे पड़ोस में ही दीदी की एक साथी प्राध्यापिका रहा करती थीं. वे हमेशा ही हमारे घर में होने वाली गतिविधियों से जान जातीं कि कोई दीदी को देखने आ रहा है. हर बार जब निराशा हाथ लगती तो दीदी को उन के सामने लज्जित होना पड़ता था. वैसे वे बेचारी दीदी को कुछ नहीं कहती थीं, परंतु दीदी ही हर बार अपने को हीन और अपमानित महसूस करती थीं.

पिछले कुछ महीनों में तो दीदी ने कई बार घर में काफी क्लेश किया था कि वे भेड़बकरी की तरह नहीं दिखाई जाएंगी, परंतु पिताजी की एक डांट के आगे बेचारी झुक जातीं. हां, अपनी जिद, हीनभावना और अपमान के कारण वह खूब रोतीं.

वे लोग ठीक समय पर ही आ गए थे. उन सब की खूब खातिरदारी की गई. वे खुश नजर आ रहे थे. लड़के के भैया- भाभी, छोटी बहन, मातापिता, 2 छोटे भाई और बड़े भाई के 3 बच्चे सभी बैठक में बैठे थे. लड़के की मां, भाभी, छोटी बहन तो पहले ही अंदर जा कर दीदी से मिल चुकी थीं. जिस प्यार से लड़के की मां दीदी को देख रही थीं उस से तो लगता था कि उन्हें दीदी बहुत पसंद आई हैं.

खाने के पश्चात दीदी को बैठक में लाया गया, जहां सब लोग बैठे थे. लड़के के पिता और बड़े भाई दीदी को बड़े गौर से देख रहे थे. लड़का बेचारा चुप ही था. उस की शायद समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह दीदी से आंख मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. लगभग आधे घंटे बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘‘इन दोनों को कुछ देर के लिए अकेला छोड़ देते हैं. एकदूसरे से एकांत में कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं.’’

उन की बात सुन कर सब लोग वहां से उठ गए.  लगभग 20 मिनट पश्चात दीदी अंदर आ गईं. उन के आने पर लड़के के घर की महिलाएं बैठक में चली गईं. उन्होंने अपने परिवार के पुरुषों को भी वहीं बुला लिया. वे आपस में सलाहमशवरा कर रहे थे. लगभग आधे घंटे पश्चात लड़के के पिता ने मेरे पिताजी को बुलाया और उन के बैठक में पहुंचते ही कहा, ‘‘मुबारक हो, हमें आप की बेटी बहुत पसंद आई है.’’  पिताजी ने मां और भैया को वहीं बुला लिया. कुछ ही क्षणों में वहां का माहौल ही बदल गया. कुछ देर पहले का तनावपूर्ण वातावरण अब आत्मीयता में परिवर्तित हो चुका था.

जब दीदी ने सुना कि उन को आखिर किसी ने पसंद कर ही लिया है तब उन्होंने चैन की सांस ली. वे लाज की चादर ओढ़े बैठी थीं. बैठक में पिताजी उन लोगों से सारी बातें तय कर रहे थे. मां और भाभी महिलाओं से बातें कर रही थीं.  थोड़ी देर बाद अंदर आ कर लड़के की मां ने अपने गले से सोने की चेन उतार कर दीदी को पहना दी. पहले तो उन सब का 4-5 बजे तक दिल्ली लौट जाने का कार्यक्रम था परंतु अब रात का खाना खाए बिना कैसे जा सकते थे. मां और भाभी खाने की तैयारी में लग गईं. मुझे भी मन मार कर रसोई में उन दोनों की मदद करने जाना पड़ा.  खाने के तुरंत पश्चात ही वे लोग जाने की तैयारी करने लगे. दीदी अपने कमरे से नहीं आईं. मैं जिद कर के होने वाले जीजाजी को दीदी के कमरे में ले गई और उन दोनों को अकेले छोड़ दिया, परंतु वे कुछ देर बाद ही बाहर आ गए. उन्होंने दीदी से क्या कहा? यह तो दीदी ने मुझे बाद में कुरेदने पर भी नहीं बताया था.

3 दिन बाद पिताजी और भैया जा कर सगाई की रस्म पूरी कर आए. उन लोगों ने दीदी के लिए साडि़यां और सोने का एक सैट भेजा. घर में कुछ नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे. समय कम था, फिर भी परिवार के सब लोगों की दिनरात की मेहनत से सारी तैयारियां हो ही गईं.

खूब धूमधाम से शादी हुई. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि लड़के वालों ने 6 दिन पहले ही हमारे यहां आ कर पहली बार दीदी को देखा था. सवेरे 8 बजे बरात विदा हो गई. दीदी हमारा घर सूना कर गई थीं.

दीदी को जीजाजी अगले ही दिन ब्रिटेन के हाईकमीशन ले गए. उन के लिए वीजा मिलने में कुछ दिन तो लग ही जाने थे. दिल्ली में दीदी से हम मुश्किल से 40 घंटे बाद मिले थे, परंतु ऐसा लगा कि जैसे मुद्दतों के बाद मिले हों. दीदी बहुत थकीथकी नजर आ रही थीं. कुछ उदास भी थीं, आखिर जीजाजी लंबी हवाई यात्रा पर जो जा रहे थे.  जीजाजी के विमान के चले जाने पर हम लोग मोदीनगर रवाना हो गए. दीदी की सास ने तो घर चलने की काफी जिद की, पर मांपिताजी नहीं माने. 1-2 दिन बाद तो भैया दीदी को लिवाने के लिए उन के यहां जाने ही वाले थे. दीदी भी घर जल्दी आने को इच्छुक थीं. उन्होंने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था.

2 दिन बाद भैया दीदी को लिवा लाए. घर में जैसे बहार आ गई. दीदी का कालेज जाने का वह आखिरी दिन था. उन्होंने सवेरे ही अपना इस्तीफा लिख लिया था.  वे रिकशा वाले की प्रतीक्षा कर रही थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दीदी ने जल्दी से दरवाजा खोला. उन के ही नाम रजिस्ट्री थी. जीजाजी ने ही रजिस्ट्री पत्र भेजा था.  दीदी पत्र को उत्सुकता से खोलने लगीं. उन के हवाई टिकट के साथ एक पत्र भी था. दीदी ने हवाई टिकट पर एक नजर डाली.

‘‘अरे, अगले इतवार की ही हवाई उड़ान है,’’ मैं ने टिकट दीदी के हाथ से ले लिया.

दीदी पत्र पढ़ने लगीं. अचानक मुझे उन के चेहरे का रंग उड़ता सा नजर आया, ‘‘जीजाजी ठीक हैं न?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, ठीक हैं,’’ दीदी ने बस यही कहा. उन का चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया था. वे मुझे वहीं छोड़ कर स्नानघर में चली गईं.

मैं जीजाजी का भेजा हवाई टिकट मां को दिखाने के लिए रसोई में चली गई. कुछ ही देर में भाभी भी आ गईं. रिकशा वाला बाहर घंटी बजा रहा था. हम लोग हवाई टिकट देख कर इतने उत्साहित हो गए कि दीदी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं हुआ. दीदी जब स्नानघर से निकलीं तो सीधी रिकशा की ओर जाने लगीं. भाभी ने रोका तो बस यही कह दिया, ‘‘भाभीजी, मुझे देर हो रही है.’’

दीदी के चेहरे की बस एक ही झलक मैं देख पाई थी. उन्होंने चाहे भाभी के मन में कोई शक न पैदा किया हो, पर मुझे विश्वास हो गया कि दीदी स्नानघर में जरूर ही रोई होंगी. शायद वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़ कर विदेश जाने से घबरा रही थीं. जीजाजी के साथ उन्होंने कितना कम समय बिताया था. वे दोनों एकदूसरे के लिए लगभग अजनबी ही तो थे दीदी का उसी दिन से मन खराब रहने लगा. 2-3 बार तो रोई भी थीं. मां और पिताजी उन्हें समझाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. इंगलैंड जाने से 2 दिन पहले वे अपनी ससुराल चली गईं.  दीदी को हवाई अड्डे पर विदा करने के लिए उन की ससुराल के लोगों के साथसाथ हम सब भी पहुंचे हुए थे. तब दीदी में काफी परिवर्तन सा नजर आ रहा था. विदा लेते समय दीदी की जेठानी ने उन से कहा, ‘‘अब तो हमें जल्दी से जल्दी खुशखबरी देना.’’

दीदी चली गईं. हम लोग भी वापस मोदीनगर आ गए. जीजाजी ने दीदी के लंदन पहुंचने का तार उन के वहां पहुंचते ही भेज दिया. तार पा कर घर में सब को बहुत राहत मिली. दीदी का पत्र भी आ गया. मां ने उन का पत्र न जाने कितनी बार पढ़ा होगा. दीदी के जाने के बाद कई सप्ताह तो घर कुछ सूनासूना लगा, परंतु बाद में सब सामान्य हो गया.

जीजाजी और दीदी के पत्र हमेशा नियमित रूप से आते रहते थे. दीदी ने मांपिताजी को तसल्ली दे रखी थी कि उन की बेटी वहां बहुत खुश है. उन को इंगलैंड गए 2 साल होने जा रहे थे. मां ने कभी दीदी को भारत आने के लिए नहीं लिखा था. सोचा था, उचित समय आने पर ही आग्रह करेंगी. मां की नजरों में उचित समय मेरी शादी का ही अवसर था, जिस के लिए मांपिताजी दौड़धूप कर रहे थे.

मां ने रसोई से आवाज दी, ‘‘सफेदी करने वाले आते ही होंगे…सामान जल्दी से निकाल कर कमरा खाली करो.’’

‘‘अच्छा मां,’’ मैं ने उत्तर दिया. पता नहीं उसी क्षण मुझे अपनी दीदी पर क्यों इतना स्नेह उमड़ आया. भावावेश में मेरी आंखें भीग गईं. फिर मुझे जीजाजी का ध्यान आया. उन्होंने अपने प्यार से दीदी के अधूरे जीवन में शायद कुछ पूर्णता सी ला दी है. यह तो हमें कभी शायद पता नहीं चल पाएगा कि दीदी वास्तव में खुश हैं या नहीं. परंतु उन के पत्रों से इस बात का जबरदस्त एहसास होता कि जीजाजी उन को बहुत प्यार करते हैं.

भाभी बंटी को विद्यालय छोड़ कर घर आ गई थीं. इस से पहले कि वे मुझे जीजाजी का पत्र पढ़ते हुए देख पातीं, मैं ने पत्र की कुछ खास पंक्तियों पर आखिरी नजर डाली. जीजाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि घर वालों की जिद के आगे झुक कर ही उन्होंने शादी की थी. उन की इस भूल के लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं. घर वालों में से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे अपनी पत्नी को एक पति का सुख देने में असमर्थ हैं. वे अपनी इस शारीरिक असमर्थता को अपने परिवार वालों के सामने स्वीकार नहीं कर सके. इस के लिए वे अत्यंत दुखी हैं.

जीजाजी के पत्र के छोटेछोटे टुकड़े कर के मैं उसे घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक आई थी.

सरोगेसी की चमक पर काला बादल : भाग 1

सरोगेसी से हुए बच्चों से प्यार और दुलार को माधुरी किसी भी कीमत पर कम नहीं होने देना चाहती थी लेकिन इस के लिए उसे बहुत बड़ी परीक्षा देनी पड़ी. माधुरी को सम झ नहीं आ रहा था कि इस घटना पर वह प्रसन्न हो या दुखी. प्रकृति का यह कैसा खेल है, वह अपनेआप से सवाल कर रही है. जिस बात के लिए उसे 12 वर्षों से समाज के लांछन और ताने मिले,

लोग जिसे उस के अस्तित्व पर एक धब्बा सम झते हैं, जिस ने न सिर्फ उस के शरीर बल्कि सोच तक को झक झोर दिया, क्या आज के तथ्यों की परिणति उन सब को नकार देगी? उस ने प्रभाष को कौल किया- ‘‘हैलो, आप घर कब आएंगे?’’ ‘‘आज कम ही ग्राहक हैं, सो जल्दी आ जाऊंगा,’’ प्रभाष ने जवाब दिया. ‘‘मु झे एक जरूरी बात कहनी है. पिछले बुधवार को मेरा पीरियड आना था. आप तो जानते हैं मेरे पीरियड एकदो दिनों से ज्यादा आगेपीछे नहीं होते पर बुधवार को नहीं आया तो मैं ने थोड़ा और इंतजार किया.

आज 10 दिन लेट होने पर मैं ने टैस्ट किया,’’ कह कर माधुरी खामोश हो गई. ‘‘हां, तुम ने बताया था कि इस बार… हां, क्या हुआ टैस्ट में?’’ ‘‘दोनों डंडियां रंगीन हो गईं,’’ कह कर माधुरी चुप हो गई. प्रभाष ने चहकते हुए कहा, ‘‘क्या, यह तो चमत्कार हो गया. विश्वास ही नहीं होता, ऐसा भी हो सकता है. इस के लिए हम ने क्याक्या नहीं किया है. प्रकृति के यहां देर है, अंधेर नहीं. ‘‘पहले आप घर आइए, फिर देखते हैं क्या करना है?’’ ‘‘सुनो, अपना ध्यान रखो. कल से घर के सब काम बंद.

मैं आज ही मम्मी को फोन कर के बुला लेता हूं और एक चौबीस घंटे की कामवाली ढूंढ़ता हूं.’’ माधुरी ने कहा, ‘‘अभी किसी से कुछ मत बोलिए. यह किट वाला टैस्ट उतना प्रामाणिक नहीं होता है. कल लैब से टैस्ट कराती हूं. आप जल्दी आओ. मैं फोन रखती हूं. अंशुल रो रहा है.’’ ‘‘ओके, मैं बस निकल रहा हूं.’’ मोबाइल रख कर माधुरी ने अंशुल को गोद में लिया और चुप कराने लगी. वैसे, रश्मि बहुत ध्यान रखती है दोनों बच्चों का पर जब उन्हें सोना होता है तब मां को ही खोजते हैं.

माधुरी की गोद में आते ही बच्चे 10-15 मिनट में सो जाते हैं. अंशुल को सुला कर माधुरी ने रश्मि से पूछा, ‘‘रोली कितने बजे सोई है?’’ ‘‘6 बजे मेमसाहब.’’ ‘‘ओके, फिर तो अभी उठेगी, मैं उस के लिए दूध बना कर रखती हूं. उठते ही उस को चाहिए होगा.’’ कह कर माधुरी किचन में गई. पहले दूध खौलाया, फिर उसे ठंडा किया और रोली के पीने के लिए बोतल में भर दिया. बोतल रश्मि को दे दी. दिनभर के काम से माधुरी थक चुकी थी. वह बिस्तर पर लेटीलेटी सोचने लगी. लगता है जैसे कल ही की बात हो. पूरा घर ठसाठस भरा है. महल्ले वाले, रिश्तेदार, प्रभाष और माधुरी के ढेर सारे दोस्त, जाने कितने लोग आए हुए हैं.

आने का प्रयोजन भी बड़ा है. शादी के 12 साल बाद सक्सेना भवन में बच्चों की किलकारियां गूंजी हैं. साल 2007 में प्रभाष और माधुरी का विवाह हुआ था. विवाह के समय माधुरी 26 वर्ष की और प्रभाष 29 वर्ष का था. दोनों की जोड़ी एकदम परफैक्ट थी. माधुरी जहां सच में हीरोइन माधुरी दीक्षित जैसी लगती थी वहीं प्रभाष हीरो प्रभाष की कौपी था. शहर के चौक बाजार में प्रभाष की ‘परिधान’ नाम से रेडीमेड कपड़े की दुकान है. वहां कुल 8 लोग काम करते हैं. परिधान, रेडीमेड कपड़ों के लिए शहर की अच्छी दुकानों में शामिल है. शादी के बाद दोनों का दांपत्य जीवन बहुत बढि़या चल रहा था.

दोनों साल में एक बार बाहर घूमने भी जाते थे. शाम को घर लौटते वक्त प्रभाष अकसर रजनीगंधा के फूलों का गजरा ले आता जो माधुरी को पसंद है. हफ्ते में एक दिन वे पिक्चर देखने जाते और लौटते समय चटपटा चाट हाउस की पानीपूरी भी खाते थे. शादी के 2 साल बीतने के बाद सब ने पूछना शुरू किया खुशखबरी के बारे में. प्रभाष की मां भदोही से जब फोन करती तो थोड़ी देर में यह मुद्दा आ ही जाता. ‘अरे, पड़ोस का मुकुल है न, जो तुम्हारे साथ पढ़ा था.

 

Taj Divided by Blood Review: मुगलों के इतिहास और सलीम-अनारकली के प्यार का निराशाजनक चित्रण

रेटिंगः दो़ स्टार
निर्माताः अभिमन्यु सिंह और रुपाली कादयान
लेखक:साइमन फैंटुजो और विलियम बोर्थविक
निर्देशक:रॉन स्कैल्पेलो
कलाकारःनसीरुद्दीन शाह , अदिति राव हैदरी,आशिम गुलाटी ,ताहा शाह,शुभम मेहरा,संध्या मृदुल,राहुल बोस,जरीना वहाब, दीपराज राणा और धर्मेंद्र व अन्य
अवधिः लगभग 38 से पैंतालिस मिनट के दस एपीसोड,कुल सात घंटे
ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5, तीन मार्च 2023 से

हमारे देश में मुगलिया सल्तनत का एक लंबा इतिहास रहा है. मुगलिया सलतनत में सबसे जयादा खून बहा. सल्तनत के ताज को हासिल करने के लिए भाई ने भाई का खून किया. ऐसे मुगलिया सल्तनत और खासकर बादषाह अकबर को लेकर अब तक कई फिल्में व सीरियल बन चुके हैं. यहां तक कि के. आसिफ, कमाल अमरोही, संजय लीला भंसाली और आशुतोश गोवारीकर जैसे दिग्गज भारतीय फिल्मकार इसी विशय पर फिल्में बन चुके हैं. खैर, इसी मुगलिया सल्तनत के इतिहास पर अब फिल्मकार अभिमन्यू सिंह एक वेब सीरीज ‘‘ताजः डिवाइडेड बाय ब्लड’’ लेकर आ रहे हैं, जिसके पहले सीजन के दस एपीसोड तीन मार्च से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’ पर स्ट्रीम हो रहे हैं. पहले सीजन की कहानी सम्राट जलाल-उद-दीन मुहम्मद अकबर और उनके तीनों बेटों के इर्द गिर्द घूमती है.

इसमें सल्तनत के वारिस, मोहब्बत से लेकर इंतकाम तक की सेक्स व खून खराबा से भरपूर अति षुष्क कहानी है. इसका कैनवास इतना बड़ा है, जिसे देखने का लुत्फ बड़े परदे पर ही आ सकता है. फिल्मकार को इतनी समझ तो होनी चाहिए कि किस विशय को किस प्लेटफार्म पर पेश किया जाना चाहिए. दूसरी बात इस वेब सीरीज में धर्मेंद्र, नसिरूद्दीन शाह व अदिति राव हादरी जैसे कई दिग्गज कलाकार हैं, मगर अफसोस यह सभी इस सीरीज की सबसे बडी कमजोर कड़ियां ही हैं. इतना ही नही हम इस बात की चर्चा नही कर रहे है कि इतिहास कितना सही या गलत दिखाया गया है. क्योंकि अकबर के संबंध में आम इंसान जितना जानता है, उससे इस वेब सीरीज की कहानी कोसों दूर है. मगर यह ऐसी वेब सीरीज है, जिसे न देखने का किसी को मलाल भी नही होना चाहिए.

कहानीः

वेब सीरीज ‘ताज डिवाइडेड बाय ब्लड’ की शुरुआत मुगल सलतनत के नए युवा बादषाह अकबर (नसिरूद्दीन षाह) से होती, जिन्हे बड़ा बेटा होने के चलते ताज मिला. जिससे उनके छोटे भाई मिर्जा हाकिम नाराज हैं. वैसे अकबर ने अपने भाई मिर्जा हाकिम को लाहौर की जागीर दे रखी है. पर मिर्जा हाकिम नाराज चल रहे हैं. बादषाह की कुर्सी पर बैठने के बाद अकबर ने कई जंग फतह कर इस बात को साबित कर चुके हैं कि वही इस सल्तनत के ताज के काबिल थे और हैं. अकबर ने चित्तौड़ पर हमला कर उसके सेनापति को मार डालने के साथ ही तीस हजार लोगो की लाषें बहायी. मगर उनकी अपनी कोई औलाद नही है. जबकि वह एक दो नहीं तीन निकाह कर चुके हैं. बादषाह अकबर, शेख सलीम चिश्ती

इसके बाद कहानी आगे बढ़ जाती हैं. अब अकबर के तीन बेटे हैं. लेकिन अब मुगलिया स (धर्मेंंद्र) से मिलकर उनसे दुआ करने की अपील करते हैं.ल्तनत के बादशाह अकबर के जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने तीन बेटों सलीम (आषिम गुलाटी), मुराद (ताहा षाह बादुषा) व दनियाल (षुभम कुमार मेहरा) में से किसे अपना वारिस चुनें. क्यांेकि जब उन्हे राज सिंहासन मिला था, उस वक्त जो कुछ घटा था, उस इतिहास को वह दोहराना नही चाहते. इसलिए अकबर फैसला करते हैं कि मुगलिया तख्त का वारिस उसकी काबिलियत देख कर चुना जाएगा, सिर्फ उम्र में बड़े होने के चलते ताज नहीं मिलेगा.अकबर के इस फैसले के बाद तीनों बेटों के बीच इस बात की दावेदारी शुरु हो जाती है कि तख्त का असली वारिस कौन होगा ?

बड़ा बेटा सलीम हमेशा नशे में धुत हरम की कनीज के साथ अय्याशी में डूबा रहता है. मंझला बेटा मुराद बहादुर है, उसे लड़ाई के सारे तौर तरीके पता है, लेकिन उसके अंदर रहम नहीं है. जबकि सबसे छोटा बेटा दनियाल पांचों वक्त का नमाजी है और समलैंगिक है. दनियाल को यही बताया गया है कि उसकी मां उसे जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गयी थीं. यॅूं तो अकबर अपनी तरफ से प्रयासरत रहते हैं कि किसी तरह सलीम को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो, मुराद रहमदिल बने और दनियाल लड़ाई के तौर तरीके को समझ सके, लेकिन अकबर की अपेक्षाओं पर कोई भी खरा नहीं उतरता है. इन तीनों बेटों के साथ अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक एक चिपके हुए हैं और तीनों अपनी अपनी चाले भी चल रहे हैं.

तो दूसरी तरफ हाकिम मिर्जा, अकबर को काफिर बताते हुए उनके खिलाफ जंग का ऐलान करता है, जिसे सबक सिखाने के लिए मुराद के नेतृत्व में सेना जाती है. जहां मिर्जा हाकिम को भागने में दनियाल मदद करता है. पर यहीं से तीनों भाईयों सलीम, मुराद व दनियाल के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं.

दनियाल की मां अनारकली , बादषाह अकबर की सबसे कम उम्र की कनीज रही हैं. जिन्हे 14 साल की उम्र से अकबर ने अपने हरम में गुप्त जगह पर कैद कर रखा है और जब उनकी इच्छा होती है, तब वह अनारकली से मिलने जाते रहते हैं. एक दिन सलीम और अनारकली की मुलाकात होती है और दोनों में प्यार हो जाता है. लेकिन जब सलीम को पता चलता है कि अनारकली तो उनके छोटे भाई दनियाल की मां हैं. तब सलीम, अनारकली से संबंध खत्म करने की बात करता है. तभी इसकी जानकारी अकबर को मिल जाती है. अकबर सलीम सल्तनत से बेदखल, अनारकली को जिंदा दीवार में चुनने और अनारकली से सलीम के मिलने में मदद करने के जुर्म में अकबर सल्तनत के सेनापति मान सिंह (दिगंबर प्रसाद) के बेटे व सलीम के दोस्त दुर्जन सिंह को फांसी की सजा देते हैं.

बहरहाल, कहानी में कई मोड़ आते रहते हैं. अकबर के दरबारी नौ रत्न मे से एक बदायुनी (आयम मेहता) अपनी चाल चलकर व जंगल में रहने वाले बंगाल के कुछ साथियों की मदद से धोखे से महाराणा प्रताप को मरवाने के बाद मुराद को भी सांप का जहर पिलाकर मौत दे देता है. और अकबर को सच पता नही चलता. दनियाल खुद अपनी मां अनारकली की हत्या कर अपने भाई सलीम को जंगल में मरणासन्न छोड़कर अकबर के पास पहुॅचता है. मिर्जा हाकिम(राहुल बोस) को जेलसे भगाकर उनके हाथों बीरबल (सुबोध भावे) की हत्या करवा देता है. यानी कि मुगलिया सल्तनत में गंदी राजनीति, विश्वासघात और खूनी पारिवारिक झगड़े की कहानी है -‘‘ताज डिवाइडेड बाय ब्लड. ’’

लेखन व निर्देशनः

वेब सीरीज ‘‘ताजः डिवाइडेड बाय ब्लड’’ उस वक्त आयी है, जब देश में मुगल ‘आक्रमण कारियों‘ को न सिर्फ लगातार बदनाम किया जा रहा है, बल्कि उनकी ऐतिहासिक उपस्थिति को मिटाने की कोशिश की जा रही है. तब इस विशय पर यह सीरीज अकबर को तमाम विरोध के बावजूद हर धर्म को समान दृष्टि से देखने वाले बादषाह की तरह पेश करने का असफल प्रयास करती है. इस वेब सीरीज में अकबर खुद को ख्ुादा से भी बढ़कर पेश करते हुिए ‘दीन ए इलाही’ नामक नए धर्म की नींव भी रखते हैं.

लगभग सात घ्ंाटे की अवधि वाली यह पूरी वेब सीरीज सिरदर्द के अलावा कुछ नही है. इतिहास के पन्नों ही नही उस दौर की किवदंतियों में सलीम और अनारकली के प्रेम की मिसाल दी जाती है. लेकिन इस सीरीज में सलीम व अनारकली की प्रेम कहानी को ठीक से चित्रित ही नही किया गया है.

ट्रेलर लांच के दौरान सीरीज के निर्माता अभिमन्यू सिंह ने बताया था कि इस सीरीज के लिए उन्हें भारत में कोई अच्छा निर्देशक नही मिला, इसीलिए उन्होने निर्देशन की जिम्मेदारी हौलीवुड निर्देशक राॅन स्कैल्पेलो को सौंपी है. ऐतिहासिक प्रतिष्ठित स्मारकों, स्थान, भव्य सेट, कुछ रीयल लोकेशन, लोगों की भीड़, जानवर, बारूद, युद्धक्षेत्र, के साथ बड़ी भव्यता के साथ फिल्मायी गयी इस वेब सीरीज में बतौर निर्देशक राॅन स्कैल्पेलो ने काफी निराश किया है. क्यांेकि हौलीवुड निर्देशक राॅन स्कैल्पेलो को भारतीय इमोशन व अहसासों की कोई समझ ही नही है.

देश में जिन महाराणा प्रताप की वीरता की लोग आज भी शपथ लेते हैं, उनकी वीरता का कोई चित्रण नही है. अफसोस की बात यह है कि महाराणा प्रताप को बंदूक से लड़ते हुए दिखाया गया है. इतना ही नही महाराणा प्रताप की मृत्यू भी शिकार खेलने के दौरान दिखाई गई है. वैसे महाराणा प्रताप के किरदार में दीपराज राणा का चयन भी गलत है. यॅूं तो फिल्मकार ने सलीम चिष्ती, अकबर, जोधा सहित किसी भी किरदार के लिए सही कलाकार का चयन नही किया.

इस सीरीज में धर्म किस तरह आम लोगों के साथ ही षासक को अंधा कर देता है, इसका खूबसूरत चित्रण है. फिर चाहे वह मिर्जा हाकिम हों या दनियाल. दोनों इस्लाम धर्म गुरूआंे के हाथ की कटपुटली ही नजर आते हैं. मगर सीरीज इस पर कुछ प्रतिक्रिया देने की बजाय खामोश नजर आती है.

फिल्म के संवाद काफी सतही हैं. मसलन-‘जंग होगी तो खून बहेगा, चाहे अपना या दुष्मन का. ’ अथवा ‘लाषों पर खड़ी हुई फतह का क्या जष्न’, ‘राज परिवारों में षादियां सियासत के लिए होती हैं, मोहब्बत के लिए नहीं. ’अथवा ‘‘जरुरत से ज्यादा यकीन इंसान को अंधा भी बना सकता है. ’ इस तरह की वेब सीरीज में जिस तरह के जोषीले संवाद होने चाहिए थे, उनका घोर अभाव है. इतना ही नही यह वेब सीरीज रोमांचित भी नही करती.

अनारकली को लेकर जो कहानी बतायी गयी है, उससे इतिहासकार कितना सहमत होंगे, कहा नही जा सकता. इस सीरीज में काल्पनिक दृष्यों की भरमार नजर आती है. लेखक क्रिस्टोफर बुटेरा, विलियम ब्रोथविक, साइमन फैंटाजो बुरी तरह से मात खा गए हैं. पांचवें एपीसोड के बाद लेखन मंे दोहराव नजर आता है.

अभिनयः

aसलीम चिष्ती के किरदार में सर्वाधिक निराश करते हैं अभिनेता धर्मेंद्र. उनका शरीर अब उनके जुनून का साथ नहीं दे रहा. अकबर के किरदार में नसीरुद्दीन शाह का अभिनय भी निराषाजनक है. कम से कम नसिरूद्दीन षाह से इतने घटिया अभिनय की उम्मीद नही की जा सकती. अकबर में जो जोश था, वह उनमें एक भी दृष्य में नजर नही आता. वह कहीं से भी मुगलिया सल्तनत के बादषाह अकबर नही लगते. अकबर के रूप में उनका गेटअप शहंशाह कम और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसा ज्यादा दिखता है. सलीम के किरदार में आषिम गुलाटी नही जमे. अनारकली के किरदार में अदिति राव हादरी भी निराश करती है. एक दो दृष्य में वह खूबसूरत नजर आयी हैं, मगर प्यार में डूबी अनारकली कहीं नजर नही आती. गुस्सैल व क्रूर राज कुमार मुराद के किरदार में ताहा शाह बादुशा का अभिनय ठीकठाक है. पर अभी भी उन्हे काफी मेहनत करने की जरुरत है. खुद से डरने वाले विनम्र स्वभाव के दानियाल के किरदार में षुभम कुमार मेहरा अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. अकबर के गद्दार भाई मिर्जा हकीम के रूप में राहुल बोस भी अच्छे लगे हैं. अफसोस की बात यह है कि एक भी किरदार 15 वीं या सोलहवीं सदी का नजर नही आता. हर किरदार की बौडी लैंगवेज व बातचीत का सलीका आधुनिक ही है.

सिसोदिया की गिरफ्तारी

आम आदमी पार्टी के दूसरे सब से बड़े नेता मनीष सिसोदिया की दिल्ली की शराब नीति में घोटाले के आरोप में गिरफ्तारी भले ही भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक हथियार हो पर इस से यह भी साबित होता है कि आम आदमी पार्टी की बेसिक वोट काटने की नीति कितनी गलत है. आम आदमी पार्टी उन राज्यों में पैर फैला रही है जहां कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है और कांग्रेस से थोड़े उचाट वोटरों को लुभा कर वह भारतीय जनता पार्टी को जितवा रही है. कांग्रेस इसीलिए आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी टीम कहती है.

शराब के ठेकों के मामले में कुछ फेरबदल बेबात में किए गए थे, यह आम जनता को दिख रहा था. अचानक पूरे दिल्ली शहर में शराब की दुकानें जेवरों की दुकानों से ज्यादा चमचमाने लगी थीं. ऐसा लग रहा था कि इस धंधे में मोटी कमाई होने वाली है क्योंकि सुंदर शीशों, इंटीरियर डिजाइन वाली दुकानें पहले की गंदी, मैली लोहे की शैल्फों वाली दुकानों, जिन में लोहे के जाल में से शराब बेची जाती थी, से देखने में बेहतर थीं तो इस से बिक्री के साथ उन की कीमतें बढ़ना स्वाभाविक थी. शराब की बिक्री को इंटरनैशनल एयरपोर्टों की सजी दुकानों की तरह बनाने की कोई तुक नहीं थी.

शराब में पैसा सदा रहा है. राज्य हमेशा आम खाने की चीजों को फौर्मेट कर के उन के पानी को निकालने पर अपना नियंत्रण करते रहे हैं और लोगों से इसे टैक्स वसूलने का साधन बनाते रहे हैं. आबकारी कर पुराना है. शराब के अड्डे हमेशा से राजाओं की नजर में रहे और राज्य इन्हें हमेशा प्रोत्साहित करते रहे थे. शराबी प्रजा हर राज्य के लिए कई तरह से लाभदायक होती रही है. शराब का आदी विद्रोह नहीं करता. उस की अपनी माली हालत डांवांडोल रहती है. उस के पत्नी-बच्चे मस्त रहते हैं. वह मारपीट करता है, वह अच्छा सैनिक बनता है क्योंकि उसे घर से निकाल दिया जाता है और शराब पी कर मरने से नहीं डरता.

राज्य हमेशा शराब के उत्पादन के लिए कुछ खास लोगों को लगाता था जो शराबियों से पैसा वसूल कर खजाना भी भरा करते थे. लोकतांत्रिक भारत में संवैधानिक आदेश तो शराबबंदी का है पर पहले गुजरात और अब बिहार को छोड़ कर कहीं शराब बंद नहीं है.

शराब एक तरह का खाना है पर ऐसा खाना जिस से पेट भरता नहीं, खराब होता है. फिर भी इसे षड्यंत्र के तौर पर लोगों पर हजारों सालों से थोपा जाता रहा है क्योंकि यह आम आदमी को कंट्रोल करने और उस से टैक्स वसूलने का अच्छा तरीका है. धर्म हर जगह इस का खुले में विरोध करते नजर आते हैं पर हर जगह पीछे से इसे चलाते हैं क्योंकि शराबी पति से परेशान औरतें धर्म की सब से बड़ी ग्राहक हैं.

आम आदमी पार्टी पर शराब की नीति को ले कर ढीलेढाले आरोप भी लगाए गए जो उस के ढोल की पोल खोलते हैं. आम आदमी पार्टी को तो बिहार की तरह की शराबबंदी की वकालत करनी चाहिए थी क्योंकि शराब पर हुआ खर्च, असल में, हर आम घरवाली की जेब से जाता है. शराब कहीं से किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं करती. आज भी दुनियाभर में शराब के अड्डों में आदमी ही धुत नजर आते हैं, औरतें अगर पीतीं हो तो भी वे धुत नहीं नजर आतीं.

मनीष सिसोदिया को राजनीतिक कारणों से नहीं पकड़ा गया, यह तो नहीं कहा जा सकता पर मनीष सिसोदिया की पार्टी ही कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में ला पाई है या उसे मजबूती दी है. यह गिरफ्तारी बेमतलब की है पर आंसू नहीं बहाए जा सकते क्योंकि जंजीर बनाने में आम आदमी पार्टी ने साथ दिया था.

सामाजिक हो होली मिलन, मनमुटाव भुला कर कायम करें उत्सव का माहौल

समाज में हर त्योहार का अपना महत्व होता है. इनमें होली सबसे खास है क्योंकि इस में समाज का हर वर्ग रंग में सराबोर होकर उत्साह से भरा दिखता है. रंगों के इस त्योहार में किसी का भेदभाव नहीं होना चाहिए, तभी होली के रंग का उत्साह समाज को खुशहाल बना सकता है. होली में रंग खेलने के अलावा दूसरा सब से बड़ा महत्व होता है कि इसमें एकदूसरे से मिलने के लिए होली मिलन का आयोजन होता है.

वैसे तो यह आयोजन अलगअलग तरह से लोग करते हैं, अच्छी बात यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी भेदभाव के होली मिलन में एकदूसरे से मिलते हैं. होली मिलन एक तरह से समाज को एकजुट रहने का संदेश देता है.

जरूरत इस बात की है कि होली मिलन में सामाजिकता को और बढ़ावा दिया जाए. अभी हर वर्ग अपने अपने होली मिलन के समारोह आयोजित करता है. अगर ये खास वर्ग के लिए न होकर सभी के लिए हों तो इन की उपयोगिता बढ़ सकती है.

आज जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव व गैरबराबरी का दर्जा देने की बहुत घटनाएं हो रही हैं. ऐसे में अगर होली मिलन के बहाने सभी लोग जाति व धर्म के भेदभाव को छोड़ कर होली मिलन समारोह में हिस्सा लें तो भेदभाव कम होगा. सही माने में हर त्योहार का यही उद्देश्य होता है.

होली की खासीयत है कि रंग लगा कर, भेदभाव मिटा कर आपस में गले लगने का संदेश दिया जाए. होली के अलावा बाकी त्योहार ऐसे हैं जिन में लोग अपने नाते रिश्तेदारों या सगे संबंधियों के साथ ही मौजमस्ती करना पसंद करते हैं.

society

होली अकेला ऐसा त्योहार है जिसमें लोग सड़क पर, पार्क में या घर के बाहर निकल कर रंग खेलते हैं. सबसे बड़ी बात इस त्योहार में कोई एक रंग नहीं रह जाता. सारे रंग मिलकर एक हो जाते हैं. ऐसे में रंगों की राजनीति करने वालों को भी समाज आईना दिखा देता है.

डांसमस्ती तक ही सीमित न रहें

जब होली मिलन की बात होती है तो होली के गाने और डांस के दृश्य याद आते हैं. डांस होली मिलन का प्रमुख हिस्सा होता है. यही वजह है कि होली के पहले ही बहुत सारे होली के गानों के म्यूजिक अलबम बनने लगते हैं. सबसे अधिक गाने लोकगीतों की धुन पर तैयार होते हैं. इनमें भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री सबसे ऊपर होती है.

गायिका खुशबू उत्तम कहती हैं, ‘‘भोजपुरी गीत और संगीत में लोकगीत की खुशबू होती है. जो लोग इस

बोली को नहीं भी समझते वे भी इस की धुन पर थिरकने लगते हैं. लोकगीत में छेड़छाड़, हासपरिहास सभीकुछ होता है.’’

होली मिलन के आयोजन में डांस के लिए और्केस्ट्रा जरूर बुलाया जाता है. यहां छोटेबड़े का भेद मिट जाता है. हर उम्र व जाति के लोग होली के गानों में बिना किसी भेदभाव के मजा लेते हैं.

समाज सुधार की दिशा में काम कर रहे युवा मनोज पासवान कहते हैं, ‘‘होली में केवल रंगों को ही मिलजुल कर नहीं खेला जाता. होली में तरहतरह के पकवान भी बनते हैं जिनको लोग आपस में मिलबांट कर खाते हैं. इस में जातिधर्म का भेदभाव नहीं रहता है.’’

सामाजिक होली मिलन समारोह होने से इस परंपरा को आगे बढ़ाया जा सकेगा और आधुनिक होते समाज को नया संदेश दिया जा सकेगा. होली का त्योहार तभी सार्थक हो सकेगा जब सभी लोग सारे भेदभाव भूल कर एकजुट हो कर होली का मजा लें. इससे एकदूसरे से संपर्क का रास्ता भी खुलता है. शहरी इलाकों में तो यह भेद कम हो रहा है लेकिन गांवों में इस को और बढ़ाने की कोशिश की जाती है.

नशे से दूर रहें

हर त्योहार का उद्देश्य बुराई पर अच्छाई की जीत होती है. होली के हुड़दंग को होली की बुराइयां बदरंग कर देती हैं. शराब, भांग या दूसरे किस्म का नशा करके होली खेलना बेकार होता है. इस कारण ही होली की ठिठोली, छेड़छाड़ में बदल जाती है. नशे में यह ध्यान नहीं रहता कि किस के साथ कैसे संबंध रखने हैं. कई लोग होली को छेड़छाड़ का अवसर मानते हैं, जिस वजह से परेशानियां बढ़ जाती हैं. इस तरह की घटनाओं का असामाजिक तत्त्व लाभ उठाते हैं. वे त्योहार को बदनाम करते हैं. रंग खेलने की आड़ में होने वाली छेड़छाड़ की घटनाओं में सब से अधिक घटनाएं नशे की हालत में ही होती हैं.

रंग खेलते समय यह ध्यान रखें कि जो आप से रंग खेलना चाहे उससे ही रंग खेलें. कई बार जबरन रंग खेलने से भी सामाजिकता खराब होती है. होली में जाति और धर्म के भेदभाव को खत्म करने की पहल सबको मिल कर करनी चाहिए. उन बस्तियों में जाकर लोगों को गले लगाना चाहिए जहां भेदभाव होता रहा है.

केवल होली के दिन या रंग खेलने के दौरान ही नहीं, होली के बाद सप्ताहभर तक होली की खुमारी और उमंग बनी रहती है. ऐसे में सामाजिक होली मिलन आयोजन करके समाज को एकजुट रखने का संदेश दिया जा सकता है. तभी होली का यह त्योहार अपने लक्ष्य में सफल हो सकता है.

होली में हंसी और ठिठोली के जरिए गंभीर प्रयास हो सकते हैं, जो दूसरे त्योहारों में संभव नहीं होते हैं. होली ऐसा त्योहार है जिस में लोककला का हर रंग मौजूद रहता है. जरूरत इस बात की है कि इस त्योहार को सही तरह से मनाया जाए. सामाजिक होली मिलन के जरिए इस भेदभाव को खत्म किया जा सकता है. होली का यही संदेश है जो सभी को सीखना और समझना होगा, तभी आपसी भेदभाव व मनमुटाव खत्म हो सकेगा. आज के दौर में इस की बहुत अधिक जरूरत है.

असली मजा तो तभी है जब दिल से हो मिलन

आज हम खुद में इतने सिमट गए हैं कि त्योहारों पर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों से मिलने के बजाय फोन पर ही बात कर लेते हैं, फेसबुक, व्हाट्सऐप पर ही बधाई दे देते हैं, सोचते हैं कौन जा कर मिले, कौन घर बुलाए, इतनी दूर कौन जाए. पहले तो मेहमाननवाजी करो, फिर घर की सफाई करो, इस से तो बेहतर है कि घर पर छुट्टी का मजा लो और आराम करो. लेकिन जब बात उत्सव की आती है तो कहते हैं ‘त्योहारों का मजा अब कहां, मजा तो पहले आता था, कैसे सब मिल कर साथ मनाते थे, तरहतरह के पकवानों का मजा लेते थे.’

भले ही आज एकल परिवार हैं, जगह की दिक्कत है लेकिन अगर आप चाहें तो त्योहारों का मजा उसी तरह से ले सकते हैं जैसे आप पहले लिया करते थे. तो देर किस बात की, इस होली एक अच्छी सी पार्टी कर के अपने रिश्तेदारों व दोस्तों के  साथ होली का मजा लें.

लें जिम्मेदारी : कोई और शुरुआत करेगा, इस इंतजार में न बैठे रहें बल्कि खुद जिम्मेदारी ले कर आयोजन करें ताकि इस के जरिए आप व्यस्त जीवनशैली से आईर् दूरियों को मिटा सकें और होली के रंग से अपने रिश्तों में प्यार बढ़ा सकें.

तैयारी में न करें देरी : कई बार ऐसा भी होता है कि हम पार्टी के लिए सब को निमंत्रण तो दे देते हैं लेकिन सही तरीके से तैयारी नहीं करते, जिस का नतीजा यह होता है कि मेहमान घर पर बैठ कर हमारी बुराइयां कर रहे होते हैं और हम सोचते हैं कि एक तो बुलाओ और ऊपर से बातें सुनो. आप के साथ ऐसा कुछ न हो, इसलिए तैयारी में कोई कमी न छोड़ें.

थीम पार्टी से डालें जान : होली पर सफेद कपड़े और रंगगुलाल तो सभी जगह दिखते हैं लेकिन आप अपनी पार्टी में कुछ अलग करिए, जिस से पार्टी का मजा दोगुना हो जाए. इस के लिए आप पार्टी की थीम रखिए, जैसे सफेद कपड़ों के साथ सभी को चश्मा व टोपी लगा कर आना है. अगर कोई चाहे तो रंगबिरंगी विग लगा कर भी आ सकता है, इस से रंगों से बाल खराब भी नहीं होते और पार्टी में जो अतिरिक्त मजा आता है, सो अलग.

सभी हों आमंत्रित : ऐसा न सोचें कि आप के सासससुर पार्टी में जा कर क्या करेंगे, वे तो होली खेलते नहीं हैं, वहां किसी को जानते नहीं हैं बल्कि पार्टी में सभी को ले कर जाएं. ऐसा भी न करें कि आप केवल उन्हीं को बुलाएं जिन से आप की बात होती है या जो आप को अच्छे लगते हैं बल्कि जो आप से रूठ गए हैं या जिन से आप की किसी बात पर कहासुनी हो गई है, उन्हें रंगों के प्यार से मनाएं. अपनी पार्टी में उम्र की कोई सीमा न रखें और 3 पीढि़यों के साथ होली का आनंद लें.

सब को सम्मान दें : इस दिन आप के पास काम ज्यादा होते हैं और आप मेहमानों पर ध्यान ही नहीं दे पातीं, उन के साथ समय ही नहीं बिता पाती, बस, काम में ही व्यस्त रहती हैं. ऐसे में मेहमानों को लगता है कि जब तैयारी हुई ही नहीं थी तो बुलाने की क्या जरूरत थी. इसलिए जरूरी है कि आप एक लिस्ट  बना लें ताकि आप से कुछ भी छूट न पाए और उस दिन आप काम करने के बजाय उत्साह व जोश के साथ मेहमानों का स्वागत करें.

गानों का कलैक्शन कर लें :  नाचगाने के बिना होली का मजा अधूरा है, इसलिए आप पहले से ही पार्टी के लिए कुछ गाने डाउनलोड कर के रख लें. अगर आप पहले से गानों का कलैक्शन तैयार नहीं करतीं तो पार्टी के बीचबीच में आप को गाने खोजने पड़ते हैं और उस बीच कोई कहता है ‘फलां गीत बजा दो’ और इस तरह से गाने खोजने के चक्कर में कोई एंजौय नहीं कर पाता. इसलिए बेहतर है कि आप पहले से ही होली के गानों का कलैक्शन तैयार कर लें. इस के अलावा बच्चों के लिए भी कुछ गाने और घर के बड़ेबुजुर्गों के पसंद के गाने भी डाउनलोड कर लें ताकि उस दिन वे भी खुद को डांस करने से न रोक पाएं.

परोसें पारंपरिक व्यंजन : त्योहारों का मजा तभी आता है जब आप उस दिन विशेष व्यंजन खाते हैं. इसलिए इस दिन होली पर खाए जाने वाले व्यंजन रखें, जैसे गुझिया, दहीवड़ा, कांजी, ठंडाई इत्यादि. अगर आप पार्टी को चटपटेदार बनाना चाहती हैं तो गोलगप्पे, चाट, समोसे, छोलेभठूरे, पावभाजी, भेलपूरी जैसे स्ट्रीट फूड भी रख सकती हैं.

पकवानों का आनंद लें : अगर आप अपने रिश्तेदारों व दोस्तों के घर होली पार्टी पर जा रही हैं तो डाइटिंग की रट न लगाती रहें कि मैं यह नहीं खाऊंगी, मैं डाइट पर हूं. डाइटिंग भूल कर पारंपरिक पकवानों का आनंद लें. अगर आप ‘ये नहीं खाऊंगी वो नहीं खाऊंगी’ कहती हैं तो आप की वजह से पार्टी का मजा किरकिरा होता है और आप के दोस्तों व रिश्तेदारों को पार्टी में आप के लिए कुछ अलग से इंतजाम करना पड़ता है.

बड़ेबुजुर्गों का रखें खास ध्यान : ऐसा न करें कि पार्टी की मस्ती में घर के बड़ेबुजुर्गों को भूल जाएं, बल्कि उन के लिए खास प्रबंध करें. उन के खानेपीने से ले कर, उन के उठनेबैठने व आराम करने तक की चीजें तैयार रखें ताकि अगर वे थक जाएं तो बैठ कर पार्टी का आनंद उठा सकें.

वर्चुअल होली में न रहें व्यस्त : जब आप अपनों के साथ हैं तो उस समय सोशल साइट्स पर व्यस्त न रहें क्योंकि हम सब थोड़ी देर होली खेलते हैं, फिर फोटो खिंचवा कर सोशल साइट्स पर डाल कर पूरे दिन लाइक व कमैंट में बिजी हो जाते हैं. ऐसा न करें, बल्कि अपनों के साथ समय बिताएं, उन से बात करें.

खेलों से बनाएं पार्टी मजेदार : पार्टी को मजेदार बनाने के लिए इस में गेम्स भी रखें. आप तंबोला, म्यूजिकल चेयर, कार्ड, बैलूनशूटर, गुब्बारे फुलाना आदि मजेदार गेम्स पार्टी में रखें ताकि सब खुल कर एंजौय कर सकें.

मस्ती में न हो बदले की भावना : कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इस मस्ती के दौरान बदला लेने की कोशिश करते हैं, जैसे जबरन रंग लगाना, कपड़े फाड़ देना, कीचड़ में गिराना. ऐसा करना गलत है. ऐसा कर के आप इस त्योहार का मजा खराब करते हैं.

नशीले पदार्थों से न करें मजा फीका : परिवार में कई लोग ऐसे भी होते हैं जो यह सोचते हैं कि होली पर भांग पी कर मस्ती नहीं की तो क्या किया. लेकिन आप सब को बता दें कि आप की पार्टी में ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए क्योंकि नशे से पार्टी का मजा खराब ही होता है.

समापन करें धमाकेदार : आप अपनी पार्टी का समापन धमाकेदार तरीके से करें और सब को बता दें कि आखिर में कुछ खास होने वाला है, इसलिए जो गया उस ने मिस किया. पार्टी को मजेदार बनाने के लिए सब को कुछ टाइटल दें, जैसे ‘कौन रहा महफिल की जान,’ ‘किस ने किया पैसा वसूल,’ ‘कौन रहा रोमांटिक कपल.’ आप के द्वारा इस तरह के टाइटल देने से सब का उत्साह बढ़ेगा और अगली बार जब सब आएंगे तो पूरी तैयारी से आएंगे.

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