‘‘इतनी सी बात में घर सिर पर उठाने की क्या जरूरत है, शांता? लाओ, एक प्याला चाय तो पिलाओ. फिर सोचेंगे कि समस्या क्या है,’’ राजेश्वर घर के वातावरण को सामान्य करने का प्रयत्न करते हुए बोले. फिर वे चाय पीतेपीते ही बेटी के कमरे में पहुंचे, ‘‘क्या बात है, प्रांजलि? तुम दोनों तो ऐसे मुंह फुलाए बैठी हो कि मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा.’’ ‘‘मैं सुबोध के साथ फिल्म देखने गई थी. वहां मां ने मुझे देख लिया. तभी से वे परेशान हैं और मुझे बुराभला कहे जा रही हैं,’’ प्रांजलि सहमे स्वर में बोली. ‘‘यह सुबोध कौन है?’’ राजेश्वर ने जोर दे कर पूछा. ‘‘मेरे कालेज में बी.एससी. अंतिम वर्ष का छात्र है.
हम दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं और विवाह करना चाहते हैं,’’ प्रांजलि ने पुन: पूरी बात दोहरा दी. ‘‘देखो बेटी, अपने मित्र के साथ फिल्म देखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन जब भी कोई काम चोरीछिपे किया जाए तो वह अवश्य ही बुरा कहलाता है. यदि तुम मित्र के साथ फिल्म देखने जाना चाहती थीं तो हम लोगों को सूचित कर के भी तो जा सकती थीं.’’ ‘‘जी,’’ प्रांजलि ने अपना सिर नीचे झुका लिया. ‘‘रही विवाह की बात…तो यह क्या कोई हंसीखेल है कि आज साथ फिल्म देखी और कल विवाह कर लिया?’’ उन्होंने बेटी से प्रश्न किया. ‘‘हम दोनों एकदूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं,’’
प्रांजलि का उत्तर था. ‘‘अच्छा?’’ राजेश्वर व्यंग्य से मुसकराए, ‘‘अच्छा बताओ, सुबोध के कितने भाईबहन हैं?’’ ‘‘शायद 3.’’ ‘‘शायद…अच्छा, वह किस धर्म व जाति का है?’’ ‘‘धर्म तो शायद हिंदू है, जाति मुझे नहीं मालूम,’’ प्रांजलि बोली. ‘‘उस के मातापिता आधुनिक हैं या पुरातनपंथी?’’ ‘‘पता नहीं.’’ ‘‘वे लोग क्या तुम्हें पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करेंगे?’’ ‘‘कह नहीं सकती.’’ ‘‘अभी वह बी.एससी. कर रहा है, व्यवस्थित होने में उसे 3-4 वर्ष लग जाएंगे. ऐसे में विवाह के चक्कर में पड़ कर क्या तुम अपना और उस का भविष्य दांव पर नहीं लगाओगी?’’ ‘‘आप कहना क्या चाहते हैं, पिताजी?’’
प्रांजलि रुंधे स्वर में बोली. ‘‘यही कि तुम तो स्वयं वैज्ञानिक बनना चाहती हो, उस का क्या होगा?’’ ‘‘आप की कोई भी बात मुझे अपने निश्चय से नहीं डिगा सकती,’’ प्रांजलि दृढ़ स्वर में बोली. ‘‘मुझे प्रसन्नता है कि तुम इतनी बड़ी हो गई हो कि अपने लिए स्वयं निर्णय ले सकती हो और वैसे भी हमें क्या चाहिए? केवल तुम्हारी खुशी, पर जल्दबाजी में कोई भी ऐसा निर्णय तुम ले लो कि जीवन भर पछताना पड़े, यह भी मैं नहीं चाहूंगा,’’ कह कर राजेश्वर कमरे से बाहर निकल गए. वे अचानक ही बेहद गंभीर हो उठे थे. पति को इतनी गंभीर मुद्रा में देख कर शांता का भी कुछ कहनेसुनने या पूछने का साहस नहीं हो पा रहा था. उधर, अपने कमरे में प्रांजलि स्तब्ध बैठी थी. पिता ने इतना रूखा व्यवहार उस से पहले कभी नहीं किया था. किंतु उस से भी अधिक चिंता उसे सुबोध को ले कर थी.
वह तो सोचती थी कि सुबोध के संबंध में वह बहुत कुछ जानती है, पर कहां? वह तो अपने पिता के आधे प्रश्नों का भी उत्तर नहीं दे सकी थी. सुबोध से संबंधित कितनी ही बातें न कभी उस ने सोची थीं न ही सुबोध ने बताई थीं. पढ़ाई में सदा सब से आगे रहने वाली प्रांजलि अब पढ़ाई की ओर से बिलकुल उदासीन हो कर सुबोधमयी हो उठी थी. उस का मन बेहद ग्लानि से भर उठा. दूसरे दिन राजेश्वर जल्दी ही कार्यालय से लौट आए. शांता मन ही मन मुसकराई कि चलो, बेटी की चिंता में इतना परिवर्तन तो हुआ पर वे तो चाय का प्याला ले कर प्रांजलि के कमरे में ऐसे घुसे कि वहीं रम गए. नाराजगी दिखाने के लिए शांता बेटी से बात नहीं कर रही थी, इसलिए उस के कमरे में भी जाना नहीं चाहती थी.
किंतु पितापुत्री बातों में ऐसे खोए कि उस की सुध ही भूल गए. पढ़ाई, कालेज, पत्रपत्रिकाओं और न जाने कितनी तरह की बातें दोनों करते रहे, पर सुबोध का उस चर्चा में कहीं नामोनिशान न था. अब तक घर का हर सदस्य अपने ही दायरे में घूम रहा था. शांता की अपनी सहेलियां थीं, रुचियां थीं, वीडियो फिल्में थीं. प्रांजलि के मित्रों का अपना अलग संसार था. जीवन के रंगीन सपने, भविष्य की रूपरेखा, पौप संगीत, फिल्मी सितारे तथा खेलजगत के प्रसिद्ध खिलाडि़यों के झूठेसच्चे किस्से उन की गपशप का आवश्यक अंग होते थे. राजेश्वर का कार्यालय था, मित्र थे तथा मन में उन्नति की महत्त्वाकांक्षा थी.
प्रांजलि के स्कूल छोड़ कर कालेज में जाते ही दोनों ने उस के प्रति कर्तव्य की इतिश्री समझ ली थी. पर सुबोध वाली घटना ने उन्हें सोते से जगा दिया था. अब कार्यालय से छूटते ही राजेश्वर घर भागने की ताक में रहते. न मित्रमंडली उन्हें खींच पाती न कोई अन्य आकर्षण. तब उन्होंने अनुभव किया कि कितने लंबे समय से उन्होंने या शांता ने प्रांजलि से ढंग से बात भी नहीं की थी. उस के पास कितना कुछ कहनेसुनने को था, पर अभी भी संशय की दीवार बीच में थी. सुबोध का प्रसंग बीच में आते ही वह बात का रुख मोड़ देती या फिर चुप हो जाती. एक दिन शांता, राजेश्वर तथा प्रांजलि पिकनिक पर गए थे. वहां से लौट कर राजेश्वर अपनेआप में खोए बैठे थे कि शांता के स्वर ने उन्हें चौंका दिया,
‘‘क्या सोच रहे हैं?’’ ‘‘कुछ नहीं…यों ही…मैं सोच रहा था कि क्या हम ने प्रांजलि को बहुत उपेक्षित नहीं कर दिया था? क्या इसी कारण वह सुबोध के प्रति आकर्षित नहीं हो गई थी?’’ ‘‘मैं नहीं मानती यह बात. क्या नहीं दिया हम ने उसे, कौन सी सुविधा नहीं दी? आप यह सोचते हैं कि आप की मीठी बातों में आ कर उस का मन सुबोध की ओर से हट जाएगा? क्यों सुबोध की बात आते ही वह चुप हो जाती है? क्या आज तक उस ने सुबोध से संबंधित एक भी बात आप को बताई है? मुझे तो ऐसा लगता है कि वह कालेज में छिप कर अवश्य उस से मिलती है. मैं ने कहा था कि उस की पढ़ाई छुड़ा कर घर बिठा लो, पर मेरी बात सुनता ही कौन है.’’ ‘‘उसे विद्रोही बनाने का यत्न मत करो, शांता.
पशु को बांधा जा सकता है, मनुष्य को नहीं. मैं तो केवल यह प्रयत्न कर रहा हूं कि किसी प्रकार वह यह समझ सके कि क्या सही है और क्या गलत. फिर भी यदि वह कुछ ऐसावैसा कर लेती है तो मैं यही समझूंगा कि मेरे प्रयत्न में ही कोई कमी रह गई थी.’’ ‘‘जैसी आप की मरजी, पर कहे देती हूं, एक दिन सिर पर हाथ रख कर रोना पड़ेगा,’’ शांता नाराज हो उठी. ‘‘देखता हूं, मांबेटी के बीच अब भी तलवारें खिंची हुई हैं. शांता, प्रांजलि की मित्र बनने का प्रयत्न करो, जिस से कि वह अपनी अंतरंग बातें भी तुम से कर सके,’’ राजेश्वर ने पत्नी को समझाया. ‘‘अंतरंग बातें? मुझ से तो वह सीधे मुंह बात ही नहीं करती,’’ शांता व्यंग्यात्मक स्वर में बोली. दूसरे दिन प्रांजलि घर लौटी तो बहुत उद्विग्न थी. ‘‘क्या बात है प्रांजलि, बहुत उदास हो? क्या हुआ?’’ शांता ने प्रश्न किया. ‘‘कुछ नहीं मां, मुझे अकेला छोड़ दो,’’ कहती हुई पैर पटकती प्रांजलि अपने कक्ष में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी. ‘‘प्रांजलि कहां है?’’ कुछ ही देर में राजेश्वर ने घर में प्रवेश किया. ‘‘अंदर है, अपने कमरे में. न जाने क्या बात है, कुछ बताती ही नहीं. मुझे तो बहुत डर लग रहा है,’’ शांता ने धीरे से कहा. ‘‘क्या बात है प्रांजलि?’’ वे तुरंत प्रांजलि के पास जा पहुंचे.
‘‘यह सुबोध अपनेआप को समझता क्या है?’’ उस ने आंसुओं से भरा चेहरा ऊपर उठाया, ‘‘आज मेरी सहेलियों के सामने कहने लगा कि मैं ने उस के मातापिता से कहा है कि वह मुझ से विवाह करेगा और यह कि वह मेरी तरह विवाह को ही अंतिम लक्ष्य नहीं मानता…उस के सामने पूरा भविष्य है. कुछ बन जाने के बाद ही वह विवाह जैसी फालतू बातों के संबंध में सोच सकता है. फिर कहने लगा कि आजकल लड़कियों के साथ जरा घूमेफिरे, 1-2 फिल्में देखीं तो वे विवाह के सपने देखने लगती हैं,’’ प्रांजलि गुस्से से बोली. ‘‘उस का इतना साहस? फिर तुम ने कुछ कहा नहीं?’’ ‘‘मैं ने कहा कि वह स्वयं को समझता क्या है? केवल उस के सामने ही भविष्य का प्रश्न है, मेरे सामने नहीं? मैं उस से कहीं अधिक परिश्रम कर के उसे ऐसा मुंहतोड़ जवाब दूंगी कि वह सदा याद रखेगा.’’
‘‘लेकिन तुम तो कह रही थीं कि तुम उस के बिना नहीं रह सकतीं,’’ राजेश्वर मुसकराए. ‘‘पिताजी, उस की बात मत कीजिए, वह सब तो केवल बचपना था. उस ने मेरे मित्रों के सामने मुझे बुराभला कहा…न जाने वे सब क्या सोचते होंगे.’’ ‘‘दूसरे क्या सोचते हैं, यह सब भूल कर यदि तुम पढ़ाई में जुट जाओगी तो अवश्य ही अपने प्रति उन के विचारों में परिवर्तन ला सकोगी.’’ राजेश्वर पत्नी की ओर मुड़े, ‘‘शांता, चलो, चाय के साथ कुछ गरमागरम बना लो, तब तक प्रांजलि भी हाथमुंह धो कर आती है.’’
शांता ने आंखों ही आंखों में प्रश्न किया कि यह सब कैसे हुआ तो वे केवल मुसकरा दिए. वे कैसे बताते कि सुबोध के मातापिता को संपूर्ण प्रकरण की जानकारी वही दे कर आए थे. राजेश्वर ने अब निश्चय कर लिया था कि वे भविष्य में कभी प्रांजलि के साथ संवादहीन की स्थिति नहीं आने देंगे. जब 3 वर्ष बाद बी.एससी. में प्रांजलि विश्वविद्यालय में प्रथम आई तो शांता ने भी स्वीकार किया कि उस के पति के प्रयत्न सफल हुए हैं. प्रांजलि तो पिता की पूर्ण रूप से ऋणी हो गई थी.