Download App

एक नियोजित सी-सेक्‍शन डिलीवरी से आप क्‍या उम्‍मीद रख सकते हैं

नेशनल फैमिली हेल्‍थ सर्वे (एनएफएचएस) के अनुसार सी सेक्‍शन की हिस्‍सेदारी 21.5 फीसदी है, जो कि विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन द्वारा अनुशंसित आदर्श 10-15 फीसदी से बहुत ज्‍यादा है। कुछ सी-सेक्‍शंस की जरूरत तब हो सकती है, यदि महिला की गर्भावस्‍था या प्रसव के दौरान कठिनाइयाँ पैदा हों, यह अक्‍सर होता है, ज्‍यादातर ऐसे मरीजों पर, जिनका पहले भी सी-सेक्‍शन हो चुका है।

कई सी-सेक्‍शंस को पहले से ही तय कर लिया जाता है। मदरहुड हॉस्पिटल, गुरुग्राम में ऑब्‍स्‍टेट्रिक्‍स और गायनेकोलॉजी की कंसल्‍टेन्‍ट डॉ. श्‍वेता वज़ीर कहती हैं कि पहले सी-सेक्‍शन करा चुकीं महिलाओं के अलावा, हम प्रसव में इन कारणों से एक नियोजित सी-सेक्‍शन की सलाह दे सकते हैं:

नवजात शिशुओं में कुछ जन्‍मगत विकृतियाँ
प्रसव को जोखिमपूर्ण बनाने वालीं माता की चिकित्‍सकीय समस्‍याएं
जुड़वां या ज्‍यादा बच्‍चे- गर्भाशय में उनकी स्थिति के कारण, जितने ज्‍यादा बच्‍चे हों, आपको सी-सेक्‍शन की जरूरत उतनी ज्‍यादा हो सकती है।
बच्‍चा, जिसके पहले सिर के बजाए नितंब या पैर बाहर आएं, उसे ब्रीच बेबी कहते हैं।
हमें इस विषय पर कई सवाल मिलते हैं, क्‍योंकि हमारे कई मरीजों की पहले से तय सीजे़रियन सर्जरी नहीं हुई होती है। आइये, हम जानें कि सी-सेक्‍शन से पहले और बाद में क्‍या अपेक्षाएं की जा सकती हैं।

सी-सेक्‍शन के दौरान क्‍या होता है?
ज्‍यादातर अस्‍पताल सीज़ेरियन डिलीवरी को जितना संभव हो, आरामदायक रखने का प्रयास करते हैं और माता को प्रसव के कुछ समय बाद ही बच्‍चे से मिलने और उसका स्‍वागत करने का विकल्‍प देते हैं, अगर कोई चिकित्‍सकीय कारण न हों। बच्‍चे को माँ के पास लिटाया जाता है और संभवत: स्‍तनपान भी हो सकता है। शांत रहना और जन्‍म का आनंद लेना भी आम है, क्‍योंकि आपको जोर लगाने पर ध्‍यान नहीं देना होता है और असहजता नहीं होती है। अच्‍छी बात यह है कि यह एक तेज उपचार है; वास्‍तविक प्रक्रिया में केवल 10 मिनट या उससे भी कम लगते हैं और फिर टांके लगाने में और 30 मिनट या ज्‍यादा लगते हैं। आमतौर पर होने वाला सी-सेक्‍शन आसान होता है और अच्‍छी तरह से लिखी गई योजना पर चलता है, चाहे यह चयनात्‍मक हो या अंतिम मिनट में लिया गया फैसला।

सी-सेक्‍शन के लिये तैयार होना
सी-सेक्‍शन के दौरान आमतौर पर एनेस्‍थेसिया के रूप में एपिड्यूरल या स्‍पाइनल ब्‍लॉक का इस्‍तेमाल किया जाता है, ताकि आप होश में रहें, लेकिन आपका निचला शरीर सुन्‍न रहे। फिर आपके पेट को एक एंटीसेप्टिक सॉल्‍यूशस से साफ किया जाएगा और जरूरत होने पर शेविंग की जाएगी। ऑपरेटिंग रूम की टीम आपके ब्‍लेडर में कैथेटर डालेगी और पेट पर स्‍टेराइल पर्दे लगाए जाएंगे। जन्‍म देने में आपके मार्गदर्शक या पति सैनिटरी कपड़े पहनकर आपके पास बैठ सकते हैं और आपका हाथ थाम सकते हैं। एरिया को साफ रखने और आपको अपना कटना देखने से बचाने के लिये आपातकालीन देखभाल के पेशेवर आपके पेट के सामने एक छोटी-सी स्‍क्रीन खड़ी कर देंगे।

चीरा लगाना
आपके बेहोश या पूरी तरह से सुन्‍न हो जाने के बाद डॉक्‍टर आपकी प्‍यूबिक हेयर लाइन के ठीक ऊपर आपके पेट के निचले हिस्‍से में एक छोटा-सा चीरा लगाएंगे। ऐसा लग सकता है कि आपकी त्‍वचा को अनज़िप किया जा रहा हो। अच्‍छी तरह से टांके लगाने के बाद चीरे का निशान दिखेगा और बीतते समय के साथ धीरे-धीरे गायब हो जाएगा। इसके बाद डॉक्‍टर आपके गर्भाशय के निचले हिस्‍से में दूसरा चीरा लगाएंगे। सीज़ेरियन सेक्‍शंस के बीच गर्भाशय पर लगने वाले चीरों की जगह अलग होती है। सीज़ेरियन के बाद डॉक्‍टर से पूछें कि किस तरह के चीरे लगाये गये हैं। भविष्‍य की गर्भावस्‍थाओं में यह जानकारी काम आएगी।

सीज़ेरियन सेक्‍शन में, नीचे दिए गए 2 चीरे लग सकते हैं:

हॉरिज़ोंटल इंसिज़न: ज्‍यादातर मामलों में निचले हिस्‍से में चीरा लगाया जाता है। इस चीरे को “बिकिनी लाइन’’ भी कहते हैं और इसमें पेट तथा गर्भाशय के निचले हिस्‍से में आड़ा चीरा लगता है। इसके घाव ज्‍यादा जल्‍दी ठीक हो जाते हैं, कम नजर में आते हैं और बाद की गर्भावस्‍था में उनके दखल की संभावना कम रहती है।

वर्टिकल इंसिज़न: गर्भाशय पर खड़े चीरे को “क्‍लासिक इंसिज़न’’ कहा जाता है। जब प्‍लैसेंटा बहुत नीचे होता है, आपका शिशु बगल में होता है या बहुत छोटा होता है, तब यह चीरा केवल सबसे गंभीर मामलों में लगाया जाता है या बहुत खास स्थितियों में। इससे बाद की गर्भावस्‍था और प्रसव में परेशानियाँ होने की संभावना रहती है।

इस प्रकिया में एक ही असहजता हो सकती है कि बच्‍चा बाहर आते समय थोड़ा झटका या दबाव लग सकता है। अगर आपको रीजनल एनेस्‍थेटिक लगा है, तो आप इस प्रक्रिया और अपने बच्‍चे के जन्‍म के दौरान जागते रहेंगे, लेकिन कमर से नीचे पूरी तरह सुन्‍न रहेंगे।

सी सेक्‍शन के बाद
सीज़ेरियन डिलीवरी के बाद रिकवरी रूम में नर्सेज तब तक आपकी देखभाल करेंगी, जब तक कि आप मैटरनिटी वार्ड में लौटने के लिये तैयार न हो जाएं। संभवत: आपका शिशु आपके साथ रहेगा। रिकवरी रूम में अपने बच्‍चे को स्‍तनपान कराने में आपकी मदद की जाएगी। अगर मेडिकल टीम को आपके या आपके शिशु के स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर चिंता है, तो शुरूआत में यह संभव न हो। जनरल एनेस्‍थेसिया के बाद आपके जाग जाने तक रिकवरी रूम में नर्स आपकी देखभाल करेंगी। आपके स्थिर होने और जागने के बाद आप अपने बच्‍चे को देख सकती हैं।

सीजे़रियन के बाद आपको दर्द या असहजता हो सकती है, खासकर हिलने-डुलने पर। नर्स को अपना हाल-चाल बताएं। सबसे अच्‍छा काम है असहजता को कम करना, क्‍योंकि ऐसा करने से आप जल्‍दी ठीक हो जाएंगी। दाइयाँ ब्‍लड प्रेशर, घाव और योनि से खून बहने की नियमित जाँच करती रहेंगी। पहले 12 से 24 घंटों तक, आपको यूरिनरी कैथेटर और बोतल लगवानी पड़ सकती है। दाई उठने में आपकी सहायता करेंगी, ताकि पहले 12 घंटों के बाद आप नहा सकें।

सी सेक्‍शन के बाद स्‍तनपान
ज्‍यादातर तो ऐसा ही होता है कि सी-सेक्‍शन के कुछ समय बाद माँ स्‍तनपान करवाना शुरू कर सकती है। आपने सुना होगा कि जन्‍म के बाद पहले घंटे में शिशु को स्‍तनपान कराने की सलाह दी जाती है। अगर आप तुरंत स्‍तनपान में असमर्थ हैं, तो भी दूध की आपूर्ति को बचा सकती है और अपने शिशु के साथ ठोस रिश्‍ता बना सकती है, जैसे कि अगर आपके बच्‍चे को कोई समस्‍या है, जो आप दोनों को अलग रहने पर विवश करती हो।

समर स्पेशल सेहत : और स्वाद -ठंडी ठंडी आइसक्रीम

गरमी का मौसम हो और ठंडी ठंडी आइसक्रीम, कुल्फी खाने को मिल जाएं तो ठंडा ठंडा एहसास तनमन में स्फूर्ति भर देता है. तो आइए घर पर ही बनाएं स्वादिष्ठ आइसक्रीम और हो जाए कुछ कूलकूल.

कोकोनट आइसक्रीम

सामग्री : 1 कप नारियल का गूदा, 1 कप दूध, 1 कप क्रीम, 1/4 कप काजू, 10 छोटे चम्मच चीनी, 6 छोटे चम्मच मिल्क पाउडर (थोड़े से दूध में मिला हुआ), 1 चम्मच कौर्नफ्लोर दूध में घुला हुआ, 1 चम्मच वनीला एसेंस, 1/4 चम्मच आइसक्रीम स्टेबलाइजर पाउडर.

विधि : चीनी और स्टेबलाइजर पाउडर को एकसाथ मिलाएं. 1 कप दूध गरम करें. उस में मिल्क पाउडर को धीरेधीरे मिलाएं. फिर उस में चीनी व कौर्नफ्लोर का मिश्रण डालें व चलाते हुए 15 मिनट तक उबालें. फिर इसे ठंडा कर के इस में क्रीम, नारियल का गूदा, आधे काजू और वनीला एसेंस मिला कर फ्रीजर में जमने के लिए रखें. आइसक्रीम बनने के बाद बचे काजुओं से सजाएं.

*

कुल्फी फालूदा

सामग्री : 1 लिटर दूध, 1 कप मलाई, 11/2 कप चीनी, 20 ग्राम पिस्ता, 20 ग्राम बादाम, 3-4 छोटी इलायची.

फालूदा के लिए सामग्री : 100 ग्राम सेंवईं, 1/2 कप चीनी, 1 बड़ा चम्मच गुलाबजल, 1 बड़ा चम्मच मक्खन, चुटकीभर नमक, आवश्यकतानुसार पानी.

विधि : दूध को 1/3 भाग रहने तक खौलाएं. उस में चीनी, इलायची, पिस्ता व बादाम डाल कर थोड़ा और गाढ़ा करें. ठंडा होने पर मलाई अच्छी तरह मिला कर कुल्फी के सांचों में रख कर जमाएं.

फालूदा बनाने की विधि : चीनी को 4 प्याले पानी में घोल कर उस में गुलाबजल मिलाएं व फ्रिज में रखें. 1/2 लिटर पानी, नमक व मक्खन मिला कर उबालें और उस में सेंवइयां डाल कर 2 मिनट तक रखें. फिर सारा पानी छान कर उबली हुई सेंवईं को चीनी व गुलाबजल के पानी में रखें. इस तैयार फालूदा को कुल्फी के साथ सर्व करें.

*

केले की आइसक्रीम

सामग्री : 4 प्याले दूध, 11/2 प्याले क्रीम, 1/2 कप चीनी पाउडर, 2 पके केले, 1 बड़ा चम्मच जिलेटिन, 1 बड़ा चम्मच वनीला एसेंस, 1/4 कप गरम पानी, सजाने के लिए नट्स व चेरी.

विधि : जिलेटिन पर गरम पानी डालें ताकि वह घुल जाए. अब केले, चीनी पाउडर, दूध, क्रीम व जिलेटिन को ब्लैंडर में अच्छी तरह मिलाएं. अब एक बरतन में डाल कर फ्रीजर में रखें. 1 घंटे बाद फ्रीजर से बरतन को निकाल कर आइसक्रीम फिर से ब्लैंडर में मिलाएं व फिर फ्रीजर में रखें. 1 घंटे बाद आइसक्रीम खाने के लिए तैयार है.

*

ग्रेप्स डिलाइट

सामग्री : 1 लिटर दूध, 300 ग्राम अंगूर (हरे), 200 ग्राम चीनी, 30 ग्राम क्रीम, 15 ग्राम कौर्नफ्लोर, हरा रंग (कुछ बूंदें).

विधि : अंगूरों को मिक्सी में पीस लें. थोड़े दूध में कौर्नफ्लोर का पेस्ट बना कर उस में मिलाएं. बाकी दूध में चीनी डाल कर अंगूर के मिश्रण में मिलाएं और आंच पर चढ़ा कर गाढ़ा होने दें. हरा रंग व क्रीम मिलाएं. लगातार धीमी आंच पर चलाते रहें. मिश्रण गाढ़ा होने पर आंच से उतार लें व ठंडा होने दें. ठंडा होने पर सांचे में भर कर फ्रीजर में रखें. जमने के बाद अंगूरों से सजा कर आइसक्रीम पेश करें.

Mother’s Day 2023: सुबह का भूला

मां की याद मुझे बहुत ही धुंधली सी है. मैं उन दिनों 8 साल का था. एक शाम मां के पेट में जोर का दर्द उठा था. वे दर्द से बुरी तरह कराह रही थीं. पिताजी पड़ोस में रहने वाले विष्णु काका के साथ मां को अस्पताल ले कर गए थे. अगली सुबह जब मेरी आंख खुली तो घर में बहुत से लोग जमा थे. आदमी लोग भले ही पिताजी के पास चुपचाप बैठे थे लेकिन औरतें दादी के गले लगलग कर खूब रो रही थीं. मैं उस भीड़ में अपनी मां को ढूंढ़ रहा था, लेकिन वे कहीं दिखाई नहीं दे रही थीं. सब को इस तरह रोता देख कर मैं भी रोने लगा. फिर रोते हुए दादी के पास जा कर पूछा, ‘‘मां कहां हैं?’’ तो दादी मुझे सीने से लगा कर जोर से रोने लग गईं. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. अपने सवाल का जवाब न पा कर जब मैं पिताजी से पूछने बाहर आंगन में गया, तो उन्होंने भी बिना कुछ बोले मुझे बांहों में भर कर सीने से लगा लिया. मेरे कुछ कहने से पहले ही विष्णु काका के इशारे पर उन का बेटा दिनेश मुझे उठा कर अपने घर ले गया. वहीं उस ने मुझे नाश्ता करवाया और कई घंटों तक बैठाए रखा.

उस के बाद तो कई दिनों तक घर में अकसर लोगों का आनाजाना लगा रहा, लेकिन मां लौट कर नहीं आईं. फिर कई दिनों तक मां का इंतजार करकर और उन के बारे में सवाल पूछपूछ कर भी जब मैं कुछ जान नहीं सका तो मैं अकसर जिद करने और रोने लगा. तब एक दिन दादी ने समझाते हुए बताया कि मेरी मां अब कभी वापस नहीं आएंगी. यह सुन कर मैं हैरान रह गया. मुझे बिना बताए, मुझे यहां छोड़ कर मां कैसे कहीं जा सकती हैं? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में दादी हर रोज एक नई कहानी सुना देतीं. हर रोज उन की कही नई बात, नई कहानी से मुझे यकीन हो चला था कि मां अब लौट कर आने वाली नहीं. उन दिनों मैं जब कभी भी रोते हुए कहता कि मुझे भी मां के पास जाना है तो दादी या पिताजी मुझे प्यार से गले लगा कर कहते, ‘बच्चे वहां नहीं जा सकते, तभी तो मां अकेली चली गई हैं.’ उन दिनों मैं बड़ी ही अजीब मनोस्थिति से गुजर रहा था. मेरी समझ में कुछ नहीं आता था. बस, कभी मां पर और कभी रोजरोज नई कहानियां सुनाने वाली दादी पर मुझे रहरह कर गुस्सा आता था. मैं दिन भर खीजता, चिड़चिड़ाता, जिद करता और रोता रहता. उधर पिताजी भी बहुत परेशान व उदास रहने लगे थे, क्योंकि वे तो बड़े थे, मां फिर भी उन्हें साथ ले कर नहीं गई थीं. पिताजी से कुछ पूछने, कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी. वैसे वे घर पर ज्यादा रहते ही कहां थे. सुबह से देर रात तक काम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहने लगे थे.

दिनभर चारपाई पर बैठ कर मां पर हुक्म चलाने वाली दादी पर एकाएक घर का सारा काम आ पड़ा था. दादी को वैसे भी जोड़ों के दर्द  के कारण उठनेबैठने में बहुत परेशानी होती थी. ऐसे में विष्णु काका की छोटी बहन गीता, दादी की मदद को आ जाया करती थी. धीरेधीरे वह मेरे भी सारे काम करने लगी थी. मुझे स्कूल से लाना, खाना खिलाना, मेरा होमवर्क करवाना वगैरावगैरा. उन्हीं दिनों उस ने बीए की परीक्षा दी थी. वह मुझ से इतनी बड़ी थी, फिर भी मैं उसे गीता ही पुकारता था, क्योंकि दादी उसे गीता बुलाती थीं. किसी से कोई रिश्ता जोड़ने की मेरी तब उम्र ही नहीं थी. दादी अकसर मुझे टोकतीं पर मैं दादी की उन दिनों सुनता ही कहां था. हां, गीता जरूर मेरी बात सुन कर हंस दिया करती थी. धीरेधीरे गीता ने घर का लगभग सारा काम ही संभाल लिया था क्योंकि दादी के जोड़ों के दर्द ने उन्हें चारपाई पकड़वा दी थी. मैं तब क्या जानता था कि मेरे ही घर में क्या चल रहा है, नियति मेरे साथ क्या खेल खेल रही है.

दशहरे की छुट्टियां थीं. मैं  अपने मामा के घर गया हुआ था. छुट्टियों में मैं अकसर मां के साथ उन के घर जाया करता था. उस बार मामा स्वयं मुझे लेने आए थे. 4 दिनों बाद पिताजी के साथ जब मैं घर लौटा तो देखा कि गीता घर में सुंदर गोटे, किनारी वाला सूट और ढेर सारे गहने पहने, बालों का जूड़ा बनाए आंगन में दादी के पास बैठी उन के पैरों  की मालिश कर रही है. गीता उन सब चीजों में बहुत सुंदर लग रही थी. मैं ने शरारत से मुसकराते हुए उस के पास जा कर पूछा, ‘‘गीता, क्या तुम्हारी शादी हो गई?’’ तभी दादी ने मुझे प्यार से अपने पास खींचते हुए कहा, ‘‘गीता नहीं, मां कह. अब यह गीता नहीं तेरी मां है. अब यह यहीं रहेगी, तेरी देखभाल के लिए.’’इतना सुनते ही मुझे जैसे बिजली का करंट सा लगा. पिताजी ने रास्तेभर मुझे कुछ नहीं बताया था. मैं अपने जीवन में आए इस परिवर्तन को पचा नहीं पा रहा था. आंखों में आंसू लिए घर के अंदर भागा तो वहां दीवार पर मां की तसवीर की जगह पिताजी और गीता की मुसकराती हुई तसवीर टंगी थी. अब मेरे पास किसी से कुछ पूछने को बचा ही क्या था? मैं समझ गया कि इन तीनों ने मिल कर मुझे घर से दूर भेज कर यह खेल खेला है. मेरी रुलाई फूट पड़ी. गाल आंसुओं से भीग गए. मैं घर से भागा और भागता चला गया. मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था. आखिर हार कर पेड़ के नीचे बैठ, घुटनों में सिर दे कर रोने लगा और  देर तक बैठा रोता रहा.

जल्दी ही पिताजी मुझे ढूंढ़ते हुए वहां आ गए थे. वे चेहरे से बहुत दुखी लग रहे थे. मैं चुपचाप उठ कर उन के साथ चल दिया. मेरे पास और कोई रास्ता भी तो नहीं था. उन के साथ न जाता तो उस उम्र में अकेला कहां जाता? मैं घर तो आ गया, लेकिन अब मेरे जीवन में परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हो गया था. हर रोज कुछ बदल रहा था. मां के बाद पिताजी के साथ सोने वाला मैं, अब दादी के साथ सुलाया जाने लगा था. दादी के पास मुझे नींद नहीं आती थी. अगर कभी जिद कर के पिताजी के पास सो भी जाता, तो भी सुबह उठता दादी के ही कमरे में था. गीता, जिसे मैं मां कभी न कह सका, उस का दखल अब घर में ज्यादा हो गया था, जो मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. गीता जितना मेरे पास आने की कोशिश करती उतना ही मैं उस से दूर होता जा रहा था. बचपन का भोला मन पता नहीं क्याक्या सोचने लगा था. सही और गलत का विवेक उस उम्र में था ही नहीं, सो मैं परिवार में सब से कटाकटा अपने में ही गुमसुम सा रहने लगा था. दादी की बातबात पर मुझे गीता की तरफ धकेलने की कोशिश मुझे दादी से भी दूर करने लगी थी. पता नहीं क्यों मुझे लगता था कि मेरी देखभाल तो मात्र बहाना है. गीता दरअसल हमारे पूरे घर और घर के लोगों पर कब्जा करना चाहती है. मेरी देखभाल तो वह पहले भी करती ही थी. इस के लिए उसे पिताजी के साथ शादी करने की क्या जरूरत थी? मेरा मन दुनियादारी, रीतिरिवाज, रिश्तों के तानेबाने जैसी बातों को समझने को तैयार ही नहीं था.

गीता हमारे घर में सब पर अधिकार जमाने और मुझे पिताजी से छीनने आई है, यह बात मेरे मन में कहीं गहरी बैठ गई थी. उस पर लगा सौतेली होने का ठप्पा मुझे ठीक से कुछ सोचने ही नहीं देता था. स्कूल में दोस्तों से सुनी जा रही सौतेली मां की कहानियां, बातें और ताने मेरे मन में गीता के सौतेलेपन को कठोर बनाते जा रहे थे. पिताजी से तो मैं उसी दिन ही दूर हो गया था जिस दिन उन्होंने गीता को मेरी मां की जगह दे दी थी और मुझे अपने इस निर्णय में शामिल करना तो दूर, मुझे इस बारे में बताया तक नहीं था. वैसे बीते इतने वर्षों में मुझे कई बार लगा कि पिताजी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहते हैं. वे अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहते हैं या शायद अपनी मजबूरियां मुझे बताना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पाते. पता नहीं यह उन का संकोच है या उन के प्रति मेरा रूखा व्यवहार है जो उन्हें ऐसा करने से रोकता है. वर्षों बाद पास के शहर में सरकस आया तो सब दोस्तों ने सरकस देखने का प्रोग्राम बना लिया. पिताजी काम के सिलसिले में 3 दिनों के लिए बाहर गए हुए थे. दादी को सिधारे हुए 2 वर्ष हो गए थे और गीता को मैं किसी गिनती में लेता ही नहीं था. सो, बिना किसी से कुछ पूछे, कुछ कहे मैं ने भी दोस्तों के साथ जाने का मन बना लिया.

इसी साल कालेज में दाखिला होते ही पिताजी ने मेरे जन्मदिन पर मुझे बाइक, तोहफे में दी थी. पिताजी इसी तरह के कीमती तोहफों से अपने और मेरे बीच की दूरी को कम करने की कोशिश में लगे रहते थे लेकिन दूरियां थीं कि बढ़ती ही जा रही थीं, क्योंकि गीता जो बीच में खड़ी थी. पता नहीं क्यों मैं चाह कर भी न उसे स्वीकार ही कर पाया था और न ही खुल कर कभी कोई प्रतिवाद ही कर पाया था. 2 और दोस्तों के पास अपनी बाइक है, सो हम 6 दोस्त सुबह ही घर से निकले तो कालेज के लिए लेकिन शहर की ओर चल दिए. सरकस देखा, पूरे दिन शहर में खूब मौजमस्ती की और शाम को लौट रहे थे कि घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर हाईवे पर एक तेज रफ्तार ट्रक ने हमारा संतुलन बिगाड़ दिया. दूसरे दोस्तों का तो पता नहीं, मैं सड़क पर उस ट्रक के साथ बहुत दूर तक घिसटता चला गया था. नीम बेहोशी की हालत में मैं ने स्वयं को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. कब, किस ने कैसे मुझे अस्पताल पहुंचाया, मुझे कुछ पता नहीं. पट्टियों में बंधा, दर्द से निढाल था मैं और मुझे खून चढ़ाया जा रहा था. मेरे आसपास कोई नहीं था. तभी एक आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘‘प्लीज डाक्टर साहब, कुछ भी कर के मेरे बेटे को होश में लाइए. यह हमारी इकलौती संतान है, हमारे जीने का एकमात्र सहारा है,’’ एक औरत रोंआसे स्वर में गिड़गिड़ा रही थी. मैं ने अपनी पूरी ताकत से अपनी बोझिल पलकें उठा कर आवाज की दिशा में देखा. वह औरत कोई और नहीं, गीता थी. मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

इतनी बेबस, परेशान, दुखी और आंसू बहाती और डाक्टर के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाती गीता का यह रूप मुझ से देखा नहीं गया. मैं ने अपनी आंखें मूंद लीं. बचपन से अब तक का जीवन आंखों के सामने चलचित्र की भांति घूम गया. शरीर का दर्द कहीं पीछे छूट गया. दिल में एक टीस सी उठी. मुझे अपने जीवन का एकमात्र सहारा, अपनी इकलौती संतान कहने वाली को मैं ने तो कभी मां का दरजा ही नहीं दिया. मन आत्मग्लानि से भर गया. शायद किसी दोस्त, राहगीर या पुलिस ने घर पर खबर कर दी थी. गीता रात में अकेली कैसे, किस हाल में खबर पाते ही यहां पहुंची, कुछ पता नहीं. मैं अपनेआप को धिक्कारने लगा. आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बह निकले. ज्यादा कुछ सेचने की स्थिति में मैं हूं ही नहीं. एकाएक दिल और शरीर से दर्द की एक लहर सी उठी और मैं मां कह कर कराह उठा.

नर्स गीता के पास जा कर बोली, ‘‘लगता है आप के बेटे को होश आ गया है. वह आप को पुकार रहा है.’’ गीता एक आह भरते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं पुकार रहा, मुझे तो यह गीता कहता है.’’ ‘‘आप तो कह रही थीं यह आप का इकलौता बेटा है?’’ नर्स ने हैरान होते हुए पूछा. उत्तर में वह कुछ नहीं बोली. क्या कहती, क्या समझाती वह उस नर्स को? नर्स ने भी कुछ और नहीं पूछा. वर्षों से हर रोज नएनए मरीजों की देखभाल में लगी रहने वाली नर्स के पास उन के जीवन में झांकने का समय ही कहां होता है. नर्स कंधे उचकाते हुए बाहर चली गई. मैं ने एक ममतामयी स्पर्श माथे पर महसूस किया, जिस के लिए मैं वर्षों से तरस रहा था, जो मेरे पास था लेकिन मैं ही उस से दूर भागता रहा. उस स्पर्श में जादू था जो धीरेधीरे मेरे दर्द को सुला कर मेरी चेतना जगा रहा था. सुबह जब ठीक से होश आया तो पिताजी मेरे सामने खड़े थे. मुझे जागा देखते ही, उन के अंदर मेरे प्रति वर्षों से जो आक्रोश दबा था वह फूट पड़ा, ‘‘यह वर्षों से चली आ रही इस की जिद, इस की मनमानी का ही नतीजा है. किसी को कुछ समझता ही नहीं. अरे मां सौतेली है लेकिन बाप तो तेरा अपना है, लेकिन नहीं जी…’’ गुस्से में वे और भी न जाने क्याक्या बोलते जा रहे थे.

गीता पिताजी को चुप कराती हुई बोली, ‘‘देख नहीं रहे, बेटा कितनी तकलीफ में है. ऐसे में गुस्सा करना जरूरी है क्या? बच्चा है, मन हुआ तो दोस्तों के साथ चला गया. सारी गलती तो उस ट्रक वाले की है, और आप…’’‘‘तुम आज भी इस की वकालत कर रही हो जबकि यह तुम्हें किसी गिनती में लेता ही नहीं. बेटाबेटा कहते तुम्हारा मुंह सूखता है. एक यह है जिस ने तुम्हें कभी…’’ पिताजी अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाए थे कि मैं ने ‘मां’ कहते हुए गीता का हाथ पकड़ लिया. मेरी आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे. मां और पिताजी की आंखें भी नम हो आईं. मैं आगे कुछ बोल ही नहीं पाया. मेरे आंसू सबकुछ कह गए थे. पिताजी फौरन बाहर चले गए. शायद अपनी आंखों में आए खुशी के आंसुओं को वे किसी को दिखाना नहीं चाहते थे. गीता ने मेरे आंसू पोंछते हुए मेरा माथा चूम लिया.

Mother’s Day 2023: ऐसे बनाएं मां और पत्नी में तालमेल

अक्सर जब एक लड़की की शादी होती है और वो ससुराल जाती है तो अपने घर को छोड़कर उसे अपने ससुराल को अपनाना होता है… एक नया परिवार मिलता है. पति उसे अपना ज्यादा वक्त देता है और ये सही भी भला ऐसे में जब एक लड़की अपना सबकुछ छोडकर आपके पास आई है तो आपका उसे वक्त देना बिल्कुल भी गलत नहीं है क्योंकि एक-दूसरे को समझने और जानने के लिए साथ में वक्त बिताना बहुत जरूरी है. लेकिन जब पति ऐसा करता है तो अक्सर मां को लगता है कि लड़की घर में आई नहीं कि मेरे बेटे को मुझसे दूर कर दिया. घर को तोड़ दिया….मेरा बेटा दिनभर उससे चिपका रहता है…औऱ भला मेरी अब कहां सुनेगा अब तो कोई और है इसकी जिंदगी में ऐसे में बेटे का रिश्तों को संभालना तोड़ा कठिन हो जाता है.जब घर में नए रिश्ते बनते हैं तो उनको वक्त देना पड़ता है और फिर ये तो पति-पत्नी का रिश्ता है. यदि बेटा मां की ज्यादा बात माने तो ऐसे में पत्नी को लगता है कि उसका पति उसे वक्त नहीं देता मां के पल्लू से चिपका रहता है.ऐसे में कुल मिलाकर यदी कोई बीच में फंसता तो है वो है लड़का जो बेटा और पति दोनों ही है.अब ऐसे में उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे वो अपनी मां और पत्नी में सामंजस्य बिठा सके.

  • सबसे पहले तो पुरुष को अपनी मां से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए क्योंकि वो एकमात्र वो इंसान है इस दुनिया में जो आपको इस दुनिया में लाती है,बिना किसी शर्त और स्वार्थ के प्रेम करती है.आपको पाल-पोस कर बड़ा करती है हसदम आपका ख्याल रखती है. इसलिए उनके इस प्यार को कभी कम मत समझे पुरूष,भले ही शादी हो जाए पत्नी आ जाए लेकिन अपनी मां का महत्व कभी कम मत होने दें.उनकी बातों को सुने, समझे और उनके साथ वक्त भी बिताए.
  • यदि आपसे मां कभी आपकी पत्नी की शिकायत करें तो कभी भी हां में हां न मिलाएं बल्कि समझाएं कि ऐसा नहीं है उनकी बहू इतनी भी बुरी नहीं है साथ ही ये भी कहें चलो ठिक है मां मैं उसे समझा दूंगा.अगर गलती है तो ही अन्यथा अपनी मां को भी प्यार से समझा सकते हैं.
  • शिकायत वाली बात पत्नी पर भी लागू होती है यदि वो पति से उसके मां की बुराई करती है तो अपनी पत्नी को भी समझाएं और दोनों को आपस में मिला कर रखें कभी झगड़ा या मन में खटास न पैदा होने दें.ये आपकी जिम्मेदारी बनती है कि दोनों में सही गलत को समझकर ही फैसले करें.
  • यदि आपकी पत्नी दिनरात आपका इंतजार करे और उसे बिल्कुल भी समय न दें तो,ये बिल्कुल भी सही नहीं है,क्योंकि वो आपके लिए सबकुछ छोड़कर आयी है इसलिए उसे पति का वक्त मिलना उसाक हक है.कभी भी अपने और अपनी पत्नी के बीच अहंकार को न आने दें प्यार से रिश्ता बनाए.
  • बेटे को अपनी मां को समझाना चाहिए कि अब घर में और रिश्तों में कुछ बदलाव हुए हैं जो उन्हें समझने होंगे.घर में एक नया सदस्य और आ गया जो अब हमारे परिवार का हिस्सा है तो बदलाव तो होंगे ही.मां को भी इन बातों को समझना होगा साथ ही पत्नी को भी परिवार को पति के मां को समझना होगा.उनकी मनोस्थिति को समझना होगा तभी रिश्ते निभ पाएंगे.

Mother’s Day 2023: शादीशुदा बेटी की लाइफ में क्या सही है मां की दखल अंदाजी?

मां और बेटी का रिश्ता बेहद अंतरंग व अनोखा होता है. लेकिन, बेटी की चिंता के चलते मां का उस के शादीशुदा जीवन में दखल देना अकसर कई मुसीबतें खड़ी कर देता है.

मांबेटी का रिश्ता बेहद प्यारा होता है. हर मां अपनी बेटी के विवाह के सपने देखती है. हर मां चाहती है कि उस की बेटी शादी के बाद अपनी ससुराल में हर तरह से सुखी रहे. मातापिता इसी उम्मीद से अपनी बेटी का विवाह करते हैं और आशीष देते हैं कि वह हमेशा खुश रहे. लेकिन, कई बार कुछ ज्यादा खुशी देने के चक्कर में बात बिगड़ भी सकती है. कुछ मांएं इस आशा में कि उन की बेटी को वह सब मिले जिस की वह हकदार है, शादीशुदा बेटी की गृहस्थी में हस्तक्षेप करने लगती हैं.

वे यह नहीं समझ पातीं कि उन की बेटी अभीअभी शादी कर के गई है. उसे नए घर में, नए परिवार के साथ बसने के लिए कुछ समय लगेगा. ठीक वैसे ही जैसे नए परिवार को भी उसे पूर्णतया अपनाने हेतु थोड़ा समय देना होगा. क्या वे खुद अपना वक्त भूल जाती हैं कि उन्हें भी तो कई वर्ष लग गए अपनी गृहस्थी की बागडोर को पूरी तरह से संभालने में.

नई बहू और नई ससुराल दोनों को एडजस्ट करने के लिए भरपूर वक्त देना होगा ताकि नए परिवार की नींव अच्छे से रखी जा सके. किंतु हमारे सामने ऐसे न जाने कितने उदाहरण आते हैं जहां मां की चिंता के कारण बेटी के लिए ससुराल में परेशानी उठ खड़ी हुई.

श्वेता ने अपनी मम्मी को बताया कि उस के गहने उस की सास ने अपने लौकर में रखवा दिए हैं.

‘‘पर क्यों? तेरे गहने तेरा स्त्रीधन है. उन पर केवल तेरा अधिकार है. उन से अपने गहने वापस मांग, किसी भी बहाने से सही और फिर अपना एक लौकर खोल जिस में तू खुद उन्हें अपने पास रख सके,’’ मम्मी ने समझाया. श्वेता ने ऐसा ही किया जिस से उस के घर में थोड़ी अनबन भी हो गई क्योंकि सास को लगा कि वह उन पर विश्वास नहीं करती.

‘‘आज खाना किस ने बनाया, बेटा?’’ मम्मी के पूछने पर रम्या ने बताया कि सब्जी उस की सास ने बना रखी थी और रोटियां उस ने औफिस से लौटने के बाद सेंकीं.

‘‘बेचारी मेरी प्रिंसेस, तू इतना अच्छा कमाती है, ऐसा कर कि एक कुक लगा ले ताकि तुझे चकलाबेलन से फुरसत मिले,’’ मम्मी ने राह सुझाई.

हो सकता है कि श्वेता या रम्या के मन में ससुराल में घट रहे घटनाक्रम को ले कर कोई परेशानी न आती यदि उन की माताएं उन से ससुराल की रोजमर्रा की जिंदगी में हो रही बातों को ले कर अनर्गल प्रश्न न पूछतीं. कुछ माताएं तो बेटियों की सैक्स लाइफ को ले कर भी सवाल कर बैठती हैं, जैसे मिसेज कुमार ने किया.

अपनी नवविवाहिता बेटी से हर रोज उस की अत्यंत निजी जिंदगी को ले कर प्रश्न करतीं और जो कुछ बेटी बताती, उस पर वे उस से कहतीं कि यह तो बहुत कम है, तुम्हारी नईनई शादी हुई है, अभी तुम दोनों को हरपल प्यार में डूबा रहना चाहिए. नतीजतन, उन की बेटी ने अपने पति से शिकायतें करना शुरू कर दिया जिस के कारण उन का रिश्ता जुड़ने से पहले ही दरकने लगा. हद तो तब हो गई जब पति को ज्ञात हुआ कि यह आग सासुमां की लगाई हुई है.

यहां मुझे थोड़ा पुराना एक किस्सा याद आ रहा है जब पारुल की शादी हुई थी. कुछ महीने पश्चात उस का उस के पति से ससुराल की एक बात को ले कर मनमुटाव हो गया. उस ने अपनी मां को फोन मिलाया और सारी बात सुनाई, ‘‘मां, अब मैं यहां नहीं रहना चाहती. ऐसे घर में रहने का क्या मतलब जहां मेरी राय को तवज्जुह ही नहीं दी जाती.’’

‘‘समझदारी से काम ले, पारुल. अब तेरी शादी हो चुकी है. तू उस घर में मेहमान नहीं बल्कि उस परिवार का एक सदस्य है. जो गलती तेरी बड़ी बहन ने की थी और जिस का खमियाजा वह अब तक भुगत रही है, वह गलती तू मत दोहराना. अगर तेरे रूठ कर मायके आने पर तेरा पति भी तेरे जीजा की तरह तुझे वापस लेने न आया तो? अब वही तेरा घर है. तुझे वहीं रह कर उस परिवार में अपनी जगह बनानी है, समझी?’’

मां के उत्तर ने पारुल को ससुराल में रहने पर मजबूर कर दिया. मजबूरी में ही सही पर उस की गृहस्थी टूटने से बच गई.

न बांटें हर बात

आज के माहौल में मातापिता बेटियों की शादी तो कर रहे हैं पर उन्हें विदा नहीं करना चाहते. वे चाहते हैं कि बेटियों की जिंदगी में जो कुछ हो, उन्हें उस की खबर रहे, और वे अपनी बेटियों को अपने हिसाब से सही रास्ता दिखाते रहें. उन की इस शह पर बेटियां भी अपने नए घर में पूरा मन लगा कर बसने के बजाय हर बात का जिक्र अपनी मां से करती हैं, फिर चाहे सासननद से कोई खटपट हो गई हो या फिर पति ने उन का कोई नखरा न उठाया हो. घर से बाहर निकलने से बात का रुख बदल जाता है. मां अपनी बेटी को ऐसी सलाह देगी जो निष्पक्ष होगी, ऐसा मुश्किल है. बात बनने की जगह बिगड़ने के हालात ज्यादा बन जाते हैं.

यदि नए घर में सास या ननद से कोई खटपट अथवा टोकाटाकी हो जाती है तो अव्वल तो बेटी को हर बात अपनी मां से कहने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. लेकिन अगर वह कहती है तो यह मां का कर्तव्य है कि वह उसे सही शिक्षा दे, न कि आग में घी का काम करे.

यदि बेटी की छोटी से छोटी शिकायत पर मां ससुराल में हस्तक्षेप करने लगेगी तो स्थिति खराब ही होगी. मां भले ही अच्छी नीयत से कुछ कहे किंतु उसे यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि अब बेटी पराई है, उस का एक अलग परिवार है जिस के जीने के ढंग भिन्न हैं. बेटी को अपनी ससुराल में अपने तरीके से एडजस्ट करने देने का यही सही तरीका है कि उस की हर परेशानी को मां खुद न ओढ़े बल्कि उसे स्वयं ही स्थिति को संभालने का मौका दे.

मैं मायके चली जाऊंगी

आजकल हर हाथ में फोन की ऐसी बीमारी ने हम सब को जकड़ लिया है कि हम अपनी जिंदगी कम जीते हैं, उस का बखान अधिक करते हैं. व्हाट्सऐप के जरिए बेटियां अपनी माताओं से हर बात फोटो सहित शेयर करने लगी हैं, जैसे आज क्या पहना, खाने में क्या बनाया, कितने बजे सो कर उठे, टीवी पर कौन सा सीरियल देख रहे हैं, आदिआदि. यह लिस्ट खत्म नहीं होती.

मनीष को अपनी पत्नी सुलोचना से यही शिकायत रहती है कि वह घर की हर स्थिति अपनी मां के साथ शेयर करती रहती है. ऐसे में कितनी ही बार मां अपनी बेटी को समझाने की जगह उसे और उत्साह देती है जिस से सुलोचना में सहनशक्ति कम हो जाती है. वह कई बातों में अड़ जाती है क्योंकि उसे लगता है कि उसे मायके का सपोर्ट मिल रहा है. तभी तो छोटीछोटी बातों पर वह मायके लौट जाने की धमकी भी दे डालती है.

बढ़ते केस, पुलिस वाले परेशान

पुलिस की ओर से चल रहे परिवार परामर्श केंद्रों के अनुसार, समय के साथ माताओं की सीख में आए परिवर्तन के कारण आज अधिकतर घर टूटने की कगार पर पहुंच रहे हैं. मां द्वारा बिन मांगा हस्तक्षेप करने की वजह से बेटियां गलत शिक्षा पा रही हैं, और ससुराल का कल्चर सीखने के बजाय अपने मायके का ही राग अलापती रहती हैं जिस से सहनशीलता कम हो रही है और झगड़े बढ़ रहे हैं.

आगरा के एक महिला थाने में पिछले वर्ष जनवरी से जून तक करीब 52 मामले दर्ज हुए. इंस्पैक्टर सुनीता मिश्रा ने बताया कि इन सभी का परिवार परामर्श केंद्र में चल रही काउंसलिंग से ज्ञात हुआ कि इन में से 17-18 मामले ऐसे हैं जिन में मायके के हस्तक्षेप के कारण पतिपत्नी के रिश्ते में खटास आई. काउंसलर्स की मानें तो ससुराल में नवविवाहिताएं छोटीछोटी बातों का इश्यू बना लेती हैं. ऐसे भी केस हैं जहां लड़की संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती, इसलिए झगड़े होते हैं. मायके वाले उसे समझाने की जगह और भी उकसाते हैं. इन में से कई केस फिर दहेज उत्पीड़न की झूठी शक्ल ले कर थाने में पहुंचते हैं. सोशल मीडिया पर ऐसी कितनी ही कहानियां वायरल हो रही हैं.

दिल्ली के एक परामर्श केंद्र के प्रभारी और कोतवाली थाने में महिला सेल की इंचार्ज एसआई रचना मिश्रा और काउंसलर किरण निगम बताते हैं कि उन की ओर से पूरा प्रयास किया जाता है कि राजीनामा करवा कर युवा दंपती का घर बसाया जाए लेकिन जब मायके पक्ष के लोग अड़ जाते हैं कि हम बेटी को ससुराल नहीं भेजेंगे तो मामला बिगड़ जाता है.

हर रोज की तरह फोन पर बात करते समय आज वंदना ने अपनी बेटी से पूछा कि दामाद कितने बजे घर लौटते हैं. सोनिया ने बताया कि आजकल प्रोजैक्ट के कारण लेट हो रहे हैं.

‘‘हमारे टाइम में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ करता था. औफिस का एक टाइम होता है. भाई, नईनई शादी में भी अगर लेट आओगे तो बाद में क्या करोगे,’’ साधारण ढंग से कही गई मां की यह गैरजिम्मेदाराना बात सोनिया के मन में घर कर गई. हो सकता है कि मां की ऐसी कोई मंशा न रही हो लेकिन उन की इस बात की वजह से उस रात पतिपत्नी में खूब झगड़ा हुआ.

जाहिर है कि बेटी की खुशी में ही मां की खुशी बसती है. अगर बेटी ससुराल में खुश है, घर वाले अच्छे हैं, तो छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज करना सिखाना हर मां का फर्ज है ताकि शादीशुदा रिश्ता मजबूत बना रहे. बेटी को अच्छी सीख दें. बेटी के वैवाहिक रिश्ते को बनाए रखने में सकारात्मक भूमिका मां बखूबी निभा सकती है.

कुछ आम सी बातें आप को बेटी और ससुराल पक्ष के बीच के रिश्ते को सुदृढ़ बनाने में मदद कर सकती हैं.

–  शादी के बाद बेटी को बारबार मायके आने को प्रोत्साहित न करें, खासकर तब जब मायका और ससुराल एक ही शहर में हो. बेटी को ससुराल में अपना स्थान बनाने हेतु वहीं रहने दें. अब वही उस का असली घर है, यह सोच कर उसे पूरा समय वहां के रंगढंग समझने का अवसर दें.

–  विवाह उपरांत बेटी की सहायता तभी करें जब वह मांगे या फिर उस की ससुराल वाले उस की मदद न कर पा रहे हों. कई मांबेटियों को डिलीवरी के लिए यह सोच कर मायके ले आती हैं कि सास इतनी अच्छी देखभाल नहीं कर सकेगी. यह सोच सही नहीं है. जैसा ससुराल पक्ष चाहे, बेटी को वैसे ही रहने दें ताकि उन में प्यार व अपनेपन की भावना जन्म ले सके.

–   अत्यधिक उपहार दे कर अपनी बेटी की लालसा न जगाएं. रश्मि की ससुराल में इनवर्टर नहीं था जबकि मायके में उस ने कभी भी बिना बिजली के समय नहीं काटा था. इसलिए जब उस की मां उस की ससुराल इनवर्टर ले कर पहुंची तो बेटी तो खुश हो गई किंतु अन्य सभी के मुंह उतर गए. ध्यान रखें कि आप की किसी हरकत से ऐसा न लगे कि आप उन लोगों को नीचा दिखा रहे हैं.

–  जब कभी बेटी से मिलने जाएं तो केवल उसी के बैडरूम में सारा समय व्यतीत न करें. घर के अन्य लोगों को भी पूरी तवज्जुह दें.

–  बेटी के मन में ससुराल के लोगों के प्रति प्रेमभावना पनपने में सहयोग दें न कि किसी भी रिश्ते के प्रति भड़काएं. ऐसे ही, यदि आप का दामाद अपने घर वालों पर पैसे खर्च करता हो तो बेटी को इन खर्चों में कटौती करने के लिए न उकसाएं. यह उस का परिवार है. मन में अच्छी भावना रहेगी तो रिश्ते मजबूत बनेंगे.

–   कोशिश करें कि बेटी के गृहस्थ जीवन में हस्तक्षेप न करें. यदि आप को कोई बात बुरी लगे तो इस ढंग से कहें कि किसी को बुरा न लगे अन्यथा आप के और उन के संबंधों में खटास पड़ सकती है.

अच्छा तो यह है कि आप की बेटी को शादी के बाद किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, ये बातें आप शादी से पहले ही देख लें. बाद में विवाद पैदा कर लड़के वालों को कोसना शादीशुदा जिंदगी को नुकसान पहुंचाता है. विवाह एक ऐसा बंधन होता है जो नए रिश्तों को नए पायदान पर ले जाता है.

शादी के बाद एक औरत की नई जिंदगी की शुरुआत होती है. वह एक नए घर में नए लोगों से रिश्ते बनाती है. बेटी के जीवन में मां की जगह शायद ही कोई ले सकता है, इसलिए एक मां अपनी बेटी की गृहस्थी को सुखमय बना सकती है, और उजाड़ने की क्षमता भी रखती है. याद रखिए, समय बलवान होता है. नए जीवन में बेटी को भरपूर समय देने दीजिए. अधिकतर गलतफहमियां समय के साथ खुद ही सुलझ जाती हैं. एक मां के हाथ में है कि वह अपनी सकारात्मकता से बेटी की सोच को बड़ा व उदार रखने का प्रयास करे.

Mother’s Day 2023: अपराजिता – मां को मायके की मिट्टी से इतना ज्यादा लगाव क्यों था

मेरे जागीरदार नानाजी की कोठी हमेशा मेरे जीवन के तीखेमीठे अनुभवों से जुड़ी रही है. मुझे वे सब बातें आज भी याद हैं. कोठी क्या थी, छोटामोटा महल ही था. ईरानी कालीनों, नक्काशीदार भारी फर्नीचर व झाड़फानूसों से सजे लंबेचौड़े कमरों में हर वक्त गहमागहमी रहती थी. गलियारों में शेर, चीतों, भालुओं की खालें व बंदूकें जहांतहां टंगी रहती थीं. नगेंद्र मामा के विवाह की तसवीरें, जिन में वह रूपा मामी, तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों व उच्च अधिकारियों के साथ खडे़ थे, जहांतहां लगी हुई थीं.

रूपा मामी दिल्ली के प्रभावशाली परिवार की थीं. सब मौसियां भी ठसके वाली थीं. तकरीबन सभी एकाध बार विदेश घूम कर आ चुकी थीं. नगेंद्र मामा तो विदेश में नौकरी करते ही थे.

देशी घी में भुनते खोए से सारा घर महक रहा था. लंबेचौड़े दीवानखाने में तमाम लोग मामा व मौसाजी के साथ जमे हुए थे. कहीं राजनीतिक चर्चा गरम थी तो कहीं रमी का जोर था. नरेन मामा, जिन की शादी थी, बारबार डबल पपलू निकाल रहे थे. सभी उन की खिंचाई कर रहे थे, ‘भई, तुम्हारे तो पौबारह हैं.’

नगेंद्र मामा अपने विभिन्न विदेश प्रवासों के संस्मरण सुना रहे थे. साथ ही श्रोताओं के मुख पर श्रद्धामिश्रित ईर्ष्या के भाव पढ़ कर संतुष्ट हो चुरुट का कश खींचने लगते थे. उन का रोबीला स्वर बाहर तक गूंज रहा था. लोग तो शुरू से ही कोठी के पोर्टिको में खड़ी कार से उन के ऊंचे रुतबे का लोहा माने हुए थे. अब हजारों रुपए फूंक भारत आ कर रहने की उदारता के कारण नम्रता से धरती में ही धंसे जा रहे थे.

यही नगेंद्र मामा व रूपा मामी जब एक बार 1-2 दिन के लिए हमारे घर रुके थे तो कितनी असुविधा हुई थी उन्हें भी, हमें भी. 2 कमरों का छोटा सा घर  चमड़े के विदेशी सूटकेसों से कैसा निरीह सा हो उठा था. पिताजी बरसते पानी में भीगते डबलरोटी, मक्खन, अंडे खरीदने गए थे. घर में टोस्टर न होने के कारण मां ने स्टोव जला कर तवे पर ही टोस्ट सेंक दिए थे, पर मामी ने उन्हें छुआ तक नहीं था.

आमलेट भी उन के स्तर का नहीं था. रूपा मामी चाय पीतेपीते मां को बता रही थीं कि अगर अंडे की जरदी व सफेदी अलगअलग फेंटी जाए तो आमलेट खूब स्वादिष्ठ और अच्छा बनता है.

यही मामी कैसे भूल गई थीं कि नाना के घर मां ही सवेरे तड़के उठ रसोई में जुट जाती थीं. लंबेचौडे़ परिवार के सदस्यों की विभिन्न फरमाइशें पूरी करती कभी थकती नहीं थीं. बीच में जाने कब अंडे वाला तवा मांज कर पिताजी के लिए अजवायन, नमक का परांठा भी सेंक देती थीं. नौकर का काम तो केवल तश्तरियां रखने भर तक था.

दिन भर जाने क्या बातें होती रहीं. मैं तो स्कूल रही. रात को सोते समय मैं अधजागी सी मां और पिताजी के बीच में सोई थी. मां पिताजी के रूखे, भूरे बालों में उंगलियां फिरा रही थीं. बिना इस के उन्हें नींद ही नहीं आती थी. मुझे भी कभी कहते. मैं तो अपने नन्हे हाथ उन के बालों में दिए उन्हीं के कंधे पर नींद के झोंके में लुढ़क पड़ती थी.

मां कह रही थीं, ‘पिताजी को बिना बताए ही ये लोग आपस में सलाह कर के यहां आए हैं. उन से कह कर देखूं क्या?’

‘छोड़ो भी, रत्ना, क्यों लालच में पड़ रही हो? आज नहीं तो कुछ वर्ष बाद जब वह नहीं रहेंगे, तब भी यही करना पडे़गा. अभी क्यों न इस इल्लत से छुटकारा पा लें. हमें कौन सी खेतीबाड़ी करनी है?’ कह कर पिताजी करवट बदल कर लेट गए.

‘खेतीबाड़ी नहीं करनी तो क्या? लाखों की जमीन है. सुनते हैं, उस पर रेलवे लाइन बनने वाली है. शायद उसे सरकार द्वारा खरीद लिया जाएगा. भैया क्या विलायत बैठे वहां खेती करेंगे.’

मां को इस तरह मीठी छुरी तले कट कर अपना अधिकार छोड़ देना गले नहीं उतर रहा था. उत्तर भारत में सैकड़ों एकड़ जमीन पर उन की मिल्कियत की मुहर लगी हुई थी.

भूमि की सीमाबंदी के कारण जमीनें सब बच्चों के नाम अलगअलग लिखा दी गई थीं. बंजर पड़ी कुछ जमीनें ‘भूदान यज्ञ’ में दे कर नाम कमाया था. मां के नाम की जमीनें ही अब नगेंद्र मामा बडे़ होने के अधिकार से अपने नाम करवाने आए थे. वैसे क्या गरीब बहन के घर उन की नफासतपसंद पत्नी आ सकती थी?

स्वाभिमानी पिताजी को मिट्टी- पत्थरों से कुछ मोह नहीं था. जिस मायके से मेरे लिए एक रिबन तक लेना वर्जित था वहां से वह मां को जमीनें कैसे लेने देते? उन्होंने मां की एक न चलने दी.

दूसरे दिन बड़ेबडे़ कागजों पर मामा ने मां से हस्ताक्षर करवाए. मामी अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थीं.

शाम को वे लोग वापस चले गए थे.

अपने इस अस्पष्ट से अनुभव के कारण मुझे नगेंद्र मामा की बातें झूठी सी लगती थीं. उन की विदेशों की बड़बोली चर्चा से मुझ पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ा. पिताजी शायद अपने कुछ साहित्यकार मित्रों के यहां गए हुए थे. लिखने का शौक उन्हें कोठी के अफसरी माहौल से कुछ अलग सा कर देता था.

मुझे यह देख कर बड़ा गुस्सा आता था कि पिताजी का नाम अखबारों, पत्रिकाओं में छपा देख कर भी कोई इतना उत्साहित नहीं होता जितना मेरे हिसाब से होना चाहिए. अध्यापक थे तो क्या, लेखक भी तो थे. पर जाने क्यों हर कोई उन्हें ‘मास्टरजी’ कह कर पुकारता था.

सब मामामौसा शायद अपनी अफसरी के रोब में अकड़े रहते थे. कभी कोई एक शेर भी सुना कर दिखाए तो. मोटे, बेढंगे सभी कुरतापजामा, बास्कट पहने मेरे छरहरे, खूबसूरत पिताजी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं थे. उन की हलकी भूरी आंखें कैसे हर समय हंसती सी मालूम होती थीं.

अनजाने में कई बार मैं अपने घर व परिस्थितियों की रिश्तेदारों से तुलना करती तो इतने बडे़ अंतर का कारण नहीं समझ पाई थी कि ऊंचे, धनी खानदान की बेटी, मां ने मास्टर (पिताजी) में जाने क्या देखा कि सब सुख, ऐश्वर्य, आराम छोड़ कर 2 कमरों के साधारण से घर में रहने चली आईं.

नानानानी ने क्रोध में आ कर फिर उन का मुंह न देखने की कसम खाई. जानपहचान वालों ने लड़कियों को पढ़ाने की उदारता पर ही सारा दोष मढ़ा. परंतु नानी की अकस्मात मृत्यु ने नाना को मानसिक रूप से पंगु सा कर दिया था.

मां भी अपना अभिमान भूल कर रसोई का काम और भाईबहनों को संभालने लगीं. नौकरों की रेलपेल तो खाने, उड़ाने भर को थी.

नानाजी ने कई बार कोठी में ही आ कर रहने का आग्रह किया था, परंतु स्वाभिमानी पिताजी इस बात को कहां गवारा कर सकते थे? बहुत जिद कर के  नानाजी ने करीब की कोठी कम किराए पर लेने की पेशकश की, परंतु मां पति के विरुद्ध कैसे जातीं?

फिर पिताजी की बदली दूसरे शहर में हो गई, पर घर में शादी, मुंडन, नामकरण या अन्य कोई भी समारोह होने पर नानाजी मां को महीना भर पहले बुलावा भेजते, ‘तुम्हारे बिना कौन सब संभालेगा?’

यह सच भी था. उन का तर्क सुन कर मां को जाना ही पड़ता था.

असुविधाओं के बावजूद मां अपना पुराना सा सूटकेस बांध कर, मुझे ले कर बस में बैठ जातीं. बस चलने पर पिताजी से कहती जातीं, ‘अपना ध्यान रखना.’

कभीकभी उन की गीली आंखें देख कर मैं हैरान हो जाती थी, क्या बडे़ लोग भी रोते हैं? मुझे तो रोते देख कर मां कितना नाराज होती हैं, ‘छि:छि:, बुरी बात है, आंखें दुखेंगी,’ अब मैं मां से क्या कहूं?

सोचतेसोचते मैं मां की गोद में आंचल से मुंह ढक कर सो जाती थी. आंख खुलती सीधी दहीभल्ले वाले की आवाज सुन कर. एक दोना वहीं खाती और एक दोना कुरकुरे भल्लों के ऊपर इमली की चटनी डलवा रास्ते में खाने के लिए रख लेती. गला खराब होगा, इस की किसे चिंता थी.

कोठी में आ कर नानाजी हमें हाथोंहाथ लेते. मां को तो फिर दम मारने की भी फुरसत नहीं रहती थी. बाजार का, घर का सारा काम वही देखतीं. हम सब बच्चे, ममेरे, मौसेरे बहनभाई वानर सेना की तरह कोठी के आसपास फैले लंबेचौड़े बाग में ऊधम मचाते रहते थे.

आज भी मैं, रिंपी, डिंकी, पप्पी और अन्य कई लड़कियां उस शामियाने की ओर चल दीं जहां परंपरागत गीत गाने के लिए आई महिलाएं बैठी थीं. बीच में ढोलकी कसीकसाई पड़ी थी पर बजाने की किसे पड़ी थी. पेशेवर गानेवालियां गा कर थक कर चाय की प्रतीक्षा कर रही थीं.

सभी महिलाएं अपनी चकमक करती कीमती साडि़यां संभाले गपशप में लगी थीं. हम सब बच्चे दरी पर बैठ कर ठुकठुक कर के ढोलकी बजाने का शौक पूरा करने लगे. मैं ने बजाने के लिए चम्मच हाथ में ले लिया. ठकठक की तीखी आवाज गूंजने लगी. नगेंद्र मामा की डिंकी व रिंपी के विदेशी फीते वाले झालरदार नायलोनी फ्राक गुब्बारे की तरह फूल कर फैले हुए थे.

पप्पी व पिंकी के साटन के गरारे खेलकूद में हमेशा बाधा डालते थे, सो अब उन्हें समेट कर घुटनों से ऊपर उठा कर बैठी हुई थीं. गोटे की किनारी वाले दुपट्टे गले में गड़ते थे, इसलिए कमर पर उन की गांठ लगा कर बांध रखे थे.

इन सब बनीठनी परियों सी मौसेरी, ममेरी बहनों में मेरा साधारण छपाई का सूती फ्राक अजीब सा लग रहा था. पर मुझे इस का कहां ज्ञान था. बाल मन अभी आभिजात्य की नापजोख का सिद्धांत नहीं जान पाया था. जहां प्रेम के रिश्ते हीरेमोती की मालाओं में बंधे विदेशी कपड़ों में लिपटे रहते हों वहां खून का रंग भी शायद फीका पड़ जाता है.

रूपा मामी चम्मच के ढोलकी पर बजने की ठकठक से तंग आ गई थीं. मुझे याद है, सब औरतें मग्न भाव से उन के लंदन प्रवास के संस्मरण सुन रही थीं. अपने शब्द प्रवाह में बाधा पड़ती देख वह मुझ से बोलीं, ‘अप्पू, जा न, मां से कह कर कपडे़ बदल कर आ.’

हतप्रभ सी हो कर मैं ने अपनी फ्राक की ओर देखा. ठीक तो है, साफसुथरा, इस्तिरी किया हुआ, सफेद, लाल, नीले फूलों वाला मेरा फ्राक.

किसी अन्य महिला ने पूछा, ‘यह रत्ना की बेटी है क्या?’

‘हां,’ मामी का स्वर तिरस्कारयुक्त था.

‘तभी…’ एक गहनों से लदी जरी की साड़ी पहने औरत इठलाई.

इस ‘तभी’ ने मुझे अपमान के गहरे सागर में कितनी बार गले तक डुबोया था, पर मैं क्या समझ पाती कि रत्ना की बेटी होना ही सब प्रकार के व्यंग्य का निशाना क्यों बनता है?

समझी तो वर्षों बाद थी, उस समय तो केवल सफेद चमकती टाइलों वाली रसोई में जा कर खट्टे चनों पर मसाला बुरकती मां का आंचल पकड़ कर कह पाई थी, ‘मां, रूपा मामी कह रही हैं, कपड़े बदल कर आ.’

मां ने विवश आंखों में छिपी नमी किस चतुराई से पलकें झपका कर रोक ली थी. कमरे में आ कर मुझे नया फ्राक पहना दिया, जो शायद अपनी पुरानी टिशू की साड़ी फाड़ कर दावत के दिन पहनने के लिए बनाया था.

‘दावत वाले दिन क्या पहनूंगी?’ इस चिंता से मुक्त मैं ठुमकतीकिलकती फिर ढोलक पर आ बैठी. रूपा मामी की त्योरी चढ़ गईं, साथ ही साथ होंठों पर व्यंग्य की रेखा भी खिंच गई.

‘मां ने अपनी साड़ी से बना दिया है क्या?’ नाश्ते की प्लेट चाटते मामी बोलीं. वही नाश्ता जो दोपहर भर रसोई में फुंक कर मां ने बनाया था. मैं शामियाने से उठ कर बाहर आ गई.

सेहराबंदी, घुड़चढ़ी, सब रस्में मैं ने अपने छींट के फ्राक में ही निभा दीं. फिर मेहमानों में अधिक गई ही नहीं. दावत वाले दिन घर में बहुत भीड़भाड़ थी. करीबकरीब सारे शहर को ही न्योता था. हम सब बच्चे पहले तो बैंड वाले का गानाबजाना सुनते रहे, फिर कोठी के पिछवाड़े बगीचे में देर तक खेलते रहे.

फिर बाग पार कर दूर बने धोबियों के घरों की ओर निकल आए. पुश्तों से ये लोग यहीं रहते आए थे. अब शहर वालों के कपड़े भी धोने ले आते थे. बदलते समय व महंगाई ने पुराने सामंती रिवाज बदल डाले थे. यहीं एक बड़ा सा पक्का हौज बना हुआ था, जिस में पानी भरा रहता था.

यहां सन्नाटा छाया हुआ था. धोबियों के परिवार विवाह की रौनक देखने गए हुए थे. हम सब यहां देर तक खेलते रहे, फिर हौज के किनारे बनी सीढि़यां चढ़ कर मुंडेर पर आ खडे़ हुए. आज इस में पानी लबालब भरा था. रिंपी और पप्पी रोब झाड़ रही थीं कि लंदन में उन्होंने तरणताल में तैरना सीखा है. बाकी हम में से किसी को भी तैरना नहीं आता था.

डिंकी ने चुनौती दी थी, ‘अच्छा, जरा तैर कर दिखाओ तो.’

‘अभी कैसे तैरूं? तैरने का सूट भी तो नहीं है,’ पप्पी बोली थी.

‘खाली बहाना है, तैरनावैरना खाक आता है,’ रीना ने मुंह चिढ़ाया.

तभी शायद रिंपी का धक्का लगा और पप्पी पानी में जा गिरी.

हम सब आश्वस्त थे कि उसे तैरना आता है, अभी किनारे आ लगेगी, पर पप्पी केवल हाथपैर फटकार कर पानी में घुसती जा रही थी. सभी डर कर भाग खड़े हुए. फिर मुझे ध्यान आया कि जब तक कोठी पर खबर पहुंचेगी, पप्पी शायद डूब ही जाए.

मैं ने चिल्ला कर सब से रुकने को कहा, पर सब के पीछे जैसे भूत लगा था. मैं हौज के पास आई. पप्पी सचमुच डूबने को हो रही थी. क्षणभर को लगा, ‘अच्छा ही है, बेटी डूब जाए तो रूपा मामी को पता लगेगा. हमारा कितना मजाक उड़ाती रहती हैं. मेरा कितना अपमान किया था.’

तभी पप्पी मुझे देख कर ‘अप्पू…अप्पू…’ कह कर एकदो बार चिल्लाई. मैं ने इधरउधर देखा. एक कटे पेड़ की डालियां बिखरी पड़ी थीं. एक हलकी पत्तों से भरी टहनी ले कर मैं ने हौज में डाल दी और हिलाहिला कर उसे पप्पी तक पहुंचाने का प्रयत्न करने लगी. पत्तों के फैलाव के कारण पप्पी ने उसे पकड़ लिया. मैं उसे बाहर खींचने लगी. घबराहट के कारण पप्पी डाल से चिपकी जा रही थी. अचानक एक जोर का झटका लगा और मैं पानी में जा गिरी. पर तब तक पप्पी के हाथ में मुंडेर आ गई थी. मैं पानी में गोते खाती रही और फिर लगा कि इस 9-10 फुट गहरे हौज में ही प्राण निकल जाएंगे.

होश आया तो देखा शाम झुक आई थी. रूपा मामी वहीं घास पर मुझे बांहों में भरे बैठी थीं. उन की बनारसी साड़ी का पानी से सत्यानास हो चुका था. डाक्टर अपना बक्सा खोले कुछ ढूंढ़ रहा था. मां और पिताजी रोने को हो रहे थे.

‘बस, अब कोई डर की बात नहीं है,’ डाक्टर ने कहा तो मां ने चैन की सांस ली.

‘आज हमारी बहादुर अप्पू न होती तो जाने क्या हो जाता. पप्पी के लिए इस ने अपनी जान की भी परवा नहीं की,’ नगेंद्र मामा की आंखों में कृतज्ञता का भाव था.

मैं ने मां की ओर यों देखा जैसे कह रही हों, ‘तुम्हारा दिया अपराजिता नाम मैं ने सार्थक कर दिया, मां. आज मैं ने प्रतिशोध की भावना पर विजय पा ली.’

शायद मैं ने साथ ही साथ रूपा मामी के आभिजात्य के अहंकार को भी पराजित कर दिया था.

 

मेरी भाभी मुझे हर बात पर टोकती हैं, मैं उनकी हरकतों को भूल नहीं पाती, मैं क्या करूं ?

सवाल
मेरी शादी को 4 साल हो गए हैं. वैसे तो मेरे परिवार में सब का स्वभाव ठीक है लेकिन मेरी भाभी मुझे बातबात पर टोकती रहती हैं. वे हमेशा बड़ों के सामने मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं. इसलिए मेरा उन से बात करने का दिल नहीं करता. मेरे पति मुझे काफी सहयोग करते हैं और कहते हैं कि ज्यादा मत सोचा करो. लेकिन हर समय नजरों के सामने रहने के कारण मैं भाभी की हरकतों को भूल नहीं पाती. आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?

जवाब
परिवार में हर सदस्य की सोच आपस में मिले, यह जरूरी नहीं और आप जब अपनी भाभी के स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ हैं तो फिर उन के कारण परेशान रहने की क्या जरूरत है. जब भी वे आप को टोकें तो बस, यही कहें कि भाभी, मैं आप से सम्मान पाने की उम्मीद करती हूं, मेरे मन में भी आप के लिए बहुत आदर है. हो सकता है कि आप की ये बातें उन्हें बदलने पर मजबूर कर दें. लेकिन आप परिवार के लिए हमेशा बेहतर करने की ही कोशिश करें.

आप के साथ तो आप के पति का सहयोग है, इसलिए खुद को अन्य चीजों में व्यस्त रख कर अपने माइंड को फ्रैश करें वरना आप इन्हीं चीजों में उलझ कर रह जाएंगी और पति भी रोजरोज की इन बातों को सुन कर ऊबने लगेंगे.

ये भी पढ़ें

आज सुबह से ही मेरी पड़ोसन शोभा के यहां उठापटक हो रही थी. जब सुबह दूध लेते वक्त मेरी उन से मुलाकात हुई तो मैं ने इस उठापटक की वजह पूछी. वे जोश से भर कर बोलीं, ‘‘आज दोपहर को मेरे जेठजेठानी अपने परिवार समेत आ रहे हैं. बस, हम उन्हीं के स्वागत की तैयारी में बिजी थे.’’

बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि कैसे पिछले हफ्ते से ही वे जेठानी के परिवार के हर सदस्य का मनपसंद खाना बनाने और उपहार लाने में मसरूफ थीं.

पड़ोसन की बातें सुन कर मुझे अपनी मां की याद आ गई कि जब ताईजी और ताऊजी आने वाले होते थे तो कैसे मां थरथर कांपने लगती थीं और ताईजी के आने के बाद अपने ही घर में मम्मी की जगह जीरो हो जाती थी, पर आज शोभा की बातें सुन कर नए जमाने की देवरानीजेठानी के रिश्ते की यह नई बहार मेरे मन को बड़ा सुकून दे गई.

हकीकत में आज के इस नए जमाने की बहुएं देवरानीजेठानी के बजाय सहेली और बहनें बन कर रहना ज्यादा पसंद कर रही हैं. पुरानी दकियानूसी सोच को छोड़ कर वे आज एकदूसरे की साथी बन कर समाज में इस रिश्ते को नया रूप दे रही हैं.

आज तकनीक का जमाना है. इस में एकदूसरे से जुड़े रहने के अनेक साधन हैं. इन का इस्तेमाल भी आज की औरतें अपने रिश्तों को मजबूत करने में बखूबी कर रही हैं.

ये भी पढ़ें 

मुंबई की रहने वाली अणिमा की बेंगलुरु में रहने वाली जेठानी खाना बनाने में माहिर हैं. अणिमा अकसर वीडियो कौलिंग कर के अपनी जेठानी से नईनई रैसिपी पूछती रहती है. साथ ही, उस ने कोशिश कर के अपनी जेठानी का कुकिंग का यूट्यूब चैनल भी बनवा दिया है, जिस से जेठानी भी घर बैठे अच्छीखासी कमाई कर लेती हैं. दोनों दूर रह कर भी एकदूसरे की साथी बन गई हैं.

विविधा की ससुराल में 2 जेठानियां और सास थीं. दोनों जेठानियां कम पढ़ीलिखी थीं, जबकि विविधा शादी से पहले ही एक स्कूल में पढ़ाती थी और पीएचडी भी कर रही थी.

कुछ ही दिनों के बाद विविधा ने महसूस किया कि घर का काम खत्म करने के बाद उस की जेठानियां शाम को जेठजी के औफिस से आने तक फ्री रहती हैं इसीलिए सुबहसुबह उस का तैयार हो कर घर से स्कूल चले जाना भी उन्हें रास नहीं आ रहा था.

एक दिन मौका देख कर विविधा ने जेठानियों को बिजी रहने के लिए कुछ करने की सलाह दी. उन की रुचि देख कर उस ने एक को सिलाई और दूसरी को ब्यूटीशियन का कोर्स करवा दिया.

कुछ ही दिनों में विविधा ने खुद कोशिश कर के घर के ही 2 कमरों में दोनों जेठानियों को ब्यूटीपार्लर और बुटीक खुलवा दिया.

अब जेठानियां बिजी रहने के साथसाथ कमाई भी करने लगी हैं. वे इस के लिए विविधा का गुणगान करते नहीं थकतीं. अब वे तीनों मिल कर घरबाहर का सारा काम चुटकियों में कर लेती हैं.

अपनी तीनों बहुओं का तालमेल देख सास व परिवार के मर्द भी चैन की सांस लेते हैं.

ये भी पढ़ें 

मंजू और उस की देवरानी अंजू ने अपनी समझदारी का परिचय देते हुए भाइयों की आपसी दुश्मनी को दरकिनार कर अपने संबंधों को जब सामान्य कर लिया तो दोनों भाइयों का मनमुटाव भी खुद ही खत्म हो गया.

हुआ यों कि मंजू के देवर शादी से पहले बड़े भाई के साथ ही रहते थे. सो, शादी के बाद देवरानी भी उसी घर में आ गई. शुरुआत में तो सब ठीकठाक रहा, पर कुछ दिनों के बाद ही दोनों में छोटीछोटी बातों को ले कर तनातनी होने लगी.

देवरानीजेठानी से शुरू हुई बात भाइयों तक पहुंचतेपहुंचते बतंगड़ बन गई और एक दिन गरम स्वभाव के दोनों भाइयों ने अलग होना ठीक समझा. नतीजतन, दोनों भाई एक ही महल्ले में अलगअलग रहने लगे.

कुछ समय बाद पढ़ीलिखी और समझदार मंजू को जब एक सामाजिक कार्यक्रम में देवरानी अंजू मिली तो वह बोली, ‘‘एक ही शहर में रह कर भी अगर हम जरूरत पड़ने पर एकदूसरे

के काम न आएं तो हमारी पढ़ाईलिखाई किस काम की. अपने ही सगे भाई से अहंकार पाल कर क्यों दूसरों को बातें बनाने का मौका दें.

‘‘अच्छा है कि हम पिछला सब भुला कर एक नई शुरुआत करें और मिलजुल कर रहें.’’

समझदार देवरानी को भी जेठानी की बात जंच गई और अगली दीवाली सब ने एकसाथ मनाने का तय किया. दोनों बहुओं की थोड़ी सी कोशिश से पिछले 3 सालों से बनी दिलों की दूरियों को मिटा कर आज अलग रहने के बाद भी दोनों भाई बड़े ही प्यार से रहते हैं और जरूरत पड़ने पर एकदूसरे का भरपूर साथ भी देते हैं.

ये भी पढ़ें

आजकल इस हाथ दे उस हाथ ले का जमाना है. गरिमा और उस की देवरानी रीना का परिवार भी साल में एक बार जरूर साथ घूमने का प्रोग्राम बनाते हैं.

वह कहती है, ‘‘हम दोनों पैसों के मामले में पूरी साफगोई रखते हैं क्योंकि पैसा ही संबंध बिगड़ने की बहुत बड़ी वजह बन जाता है.

‘‘ऐसे प्रोग्राम में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा. हम दोनों पूरे खर्च को

2 बराबर हिस्सों में बांट लेते हैं ताकि किसी भी तरह का मनमुटाव न हो और हमारे द्वारा चलाया गया यह सिलसिला हमारे बाद हमारे बच्चे भी चलाते रहें.

‘‘एकसाथ घूमने जाने से हम बच्चों और दूसरे मामलों में बेफिक्र तो रहते ही हैं, साथ ही हमारे बच्चों के संबंध भी मजबूत होते हैं जो उन के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है.’’

आज की देवरानीजेठानी ज्यादा समझदार हैं और प्रैक्टिकल भी. वैसे तो तनाव, तकरार और मनमुटाव के मुद्दे आज भी वही हैं, पर पढ़ाईलिखाई का असर और सोच के बड़े नजरिए के चलते वर्तमान समय की देवरानीजेठानी इन सब से अपने पारस्परिक संबंधों को कम से कम प्रभावित होने देती हैं.

कुछ साल पहले जहां आपसी मनमुटाव के चलते सालोंसाल तक भाइयों के परिवार आपस में बातचीत तक नहीं करते थे, वहीं आज की बहुएं अच्छी तरह समझती हैं कि वर्तमान समय में परिवार छोटे हैं जिस में सदस्यों के नाम पर महज 3 या 4 लोग ही होते हैं. ऐसे में सभी को कभी न कभी एकदूसरे की जरूरत पड़ती ही है, तो क्यों न अपने ही भाई के परिवार से तालमेल बिठा कर रखा जाए. इस से अपनेपन के साथसाथ रिश्ते की मजबूती बढ़ती है.

वक्तबेवक्त जरूरत पड़ने पर दूसरों से मदद ले कर अहसानमंद होने के बजाय अपने ही भाई के परिवार से मदद ली जाए. पहले जहां मान और पद की गरिमा को बहुत ज्यादा अहमियत दी जाती थी वहीं आज की बहुएं मानती हैं कि न कोई छोटा है और न बड़ा.

ये भी पढ़ें

एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर गरिमा के देवर की जब शादी हुई तो सभी उसे जेठानी बनने की बधाई दे रहे थे.

इस पर वह बोली, ‘‘आंटी, न कोई देवरानी है, न जेठानी. बस, सब एक परिवार के सदस्य हैं और मैं खुश हूं कि हमारे परिवार में एक सदस्य आ रही है.’’

गरिमा की यह सोच आज की नई पीढ़ी की सोच को बखूबी बयान करती है.

Mother’s Day 2023: सासू मां के सात रंग

जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सारे बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें