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दलितों के घोड़ी चढ़ने पर सवर्णों को कष्ट यह कैसा लोकतंत्र

यह भारत ही है, जहां किसी दूल्हे की बारात पर लोग पत्थर बरसाते हैं. अगर यह यह खबर मीडिया में चली तो भारत की छवि जंगल में रहने वाले उस समुदाय, समाज जैसी दिखाई देगी जो सभ्यता से कोसों दूर है. मगर हम जानते हैं कि भारत को आजाद हुए लंबा समय बीत गया है और हमारे यहां एक संविधान है, लोकतंत्र है. मगर इन सब के बावजूद एक दलित दूल्हे की बारात पर दबंगों द्वारा पत्थरों की बारिश करना कई सवाल खड़े करता है जिस का जवाब फिर हमें ढूंढ़ना ही होगा.

क्या आप आजादी के अमृत महोत्सव के समयकाल में यह सोच सकते हैं कि देश में किसी गांव में दलित दूल्हे की बारात पर सिर्फ इसलिए पत्थरों की बारिश हो जाए कि वह दलित है? उसे मानसम्मान और अभिमान के साथ जीने का कोई अधिकार नहीं है?

एक कानून एक संविधान

यह सारा देश और दुनिया जानती है कि देश में एक संविधान है, नियमकायदे हैं, पुलिस है, शासनप्रशासन है मगर इन के बावजूद दलित समाज अपने अधिकारों के लिए आज भी सरकार की तरफ क्यों देख रहा है?

कल्पना कीजिए कि देश में लोकतंत्र नहीं होता तो क्या हालात होते. एक दलित की बारात को जिले का पुलिस अधीक्षक और पुलिस की पूरा दस्ता सुरक्षा देता है. मगर इन सब के बावजूद दबंग बाज नहीं आते और पत्थर चलाने लगते हैं. इस का सीधा सा मतलब यह है कि कानून को हम नहीं मानते और आज भी उस पुरानी विचारधारा को ढो रहे हैं जिस में दलित सिर ऊंचा कर के चलने का अधिकार नहीं रखता। इस का सीधा सा मतलब यह है कि उच्चवर्ग के कुछ लोगों में अभी भी सीनाजोरी खत्म नहीं हुई है। ऐसे में आवश्यकता है कि कानून के सहीसही पालन कराने और जागरूकता की. ‌‌ ‌

दबंगों की दबंगई

आप को ले चलते हैं देश के हृदय प्रदेश कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के छतरपुर में, जहां दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार देख दबंग भड़क गए और कानून से बिना डरे बारात पर पथराव कर दिया.

यहां ऐसा लगा जैसे कानून सिर्फ दलितों के लिए है और संविधान का सम्मान दबंगों में नहीं है। यही कारण है कि दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार खुशियां मनाते हुए देख कर गांव के दबंग आपे से बाहर हो गए, जिस के बाद उन्होंने कानून अपने हाथों में ले लिया और हाथों में पत्थर ले कर पथराव शुरू कर दिया.

पुलिस के मुताबिक, दलित दूल्हे के रास में 40 से 50 बाराती शामिल थे जिन पर जम कर पत्थर बरसाए गए. इस मामले में पुलिस ने 50 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया है, जिस में 20 आरोपी नामजद हैं.

क्या दलित होना अभिशाप है

छतरपुर के बकस्वाहा थाना क्षेत्र के चौरई गांव में यह घटना 6 जून, 2023 की शाम को घटित हुई. बाद में जब पुलिस को सूचना मिली तो पुलिस अधीक्षक स्वयं पहुंच गए और पुलिस सुरक्षा में बारात शान के साथ निकाली गई। इस दौरान पथराव में 3 पुलिसकर्मी भी घायल हुए हैं. पुलिस की काररवाई मंगलवार सुबह तक चलती रही. पुलिस अधीक्षक अमित सांघी स्वयं और एएसपी सहित 2 थानों का बल मौके पर पहुंच गया. मगर इस के बाद भी पथराव नहीं रुका। काफी मशक्कत के बाद हालात पर काबू पाए गए. पुलिस की मौजूदगी में ही बारात को सागर जिले के शाहगढ़ के लिए रवाना करवाया गया.

इस संबंध में बड़ा मलहरा डीएसपी के मुताबिक, बकस्वाहा थाना के चौरई गांव से रितेश अहिरवार की बारात सागर जिले के शाहगढ़ जा रही थी. रीतेश पढ़ लिखा है। दिल्ली में कार्यरत है. रस्म के दौरान गांव में घोड़ी पर बैठ कर दूल्हे की रास घुमाई जानी थी, जिस का गांव के एक समुदाय ने विरोध किया. यह विरोध बलवा में तबदील हो गया. बाद में पुलिस की सुरक्षा में रास फिराई गई। इस के बाद देर शाम बारात शाहगढ़ के लिए रवाना हो सकी.

अब काररवाई होगी

पुलिस ने कथित आरोपियों के खिलाफ रास्ता रोकने, बलवा का प्रयास, पथराव, संपत्ति को नुकसान पहुंचाने, मारपीट, धमकी देने समेत एससीएसटी ऐक्ट की विभिन्न धाराओं के तहत मामला पंजीबद्ध किया गया है. पुलिस द्वारा आरोपियों की तलाश की जा रही है. पुलिस ने स्वयं एफआईआर दर्ज की है। घटना के बाद गांव में माहौल अशांत बना हुआ है। पुलिसप्रशासन लोगों को समझाने का प्रयास कर रहा है.

हाई कोर्ट के अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता बृजेश शुक्ला कहते हैं,”आज के भारत में दलित दूल्हे की बारात पर पत्थरों की बारिश एक शर्मनाक घटना है मगर जिन लोगों ने यह अपराध किया है उन्हें कानून कड़ी सजा देने के लिए सक्षम है. संविधान के मुताबिक मौलिक अधिकार मिले हुए हैं, जिन का उल्लंघन नहीं किया जा सकता.”

मेरी 7 साल की बेटी मूत्रनली के संक्रमण से पीड़ित है, बताएं क्या करें?

सवाल
मेरी 7 साल की बेटी का वजन 33 किलोग्राम है. वह 3 सालों से मूत्रनली के संक्रमण से पीड़ित है. इस दौरान उसे बुखार या पेट में दर्द नहीं हुआ. लेकिन पिछले 2 हफ्तों से उसे दर्द रहने लगा है, जो पेशाब करने के 3-4 घंटों के बाद ठीक हो जाता है. जांच में पता चला है कि उसे कोली बैक्टीरिया का संक्रमण है और डाक्टर ने उसे ऐंटीबायोटिक का कोर्स लेने को कहा है. ऐंटीबायोटिक में मौजूद नाइट्रोफ्यूरेंटोइन से उसे उलटियों और पेट में जलन की शिकायत होती है. पेट के अल्ट्रासाउंड में सब कुछ सामान्य निकला है. किडनियों और गौल ब्लैडर की अवस्था भी ठीक है. गौल ब्लैडर में अवशिष्ट पेशाब भी नहीं था. यूरोलौजिस्ट ने उपचार जारी रखते हुए एमसीयूजी तथा यूरोडायनैमिक जांच करवाने को कहा है. बताएं क्या करें?

जवाब
जांच अपर्याप्त लगती है. इस में एमसीयूजी या यूरोडायनैमिक जांच की जरूरत नहीं है. लेकिन यूरोलौजिस्ट ने बच्ची को रोगनिरोधक ऐंटीबायोटिक देने की सही सलाह दी है. यूरिन कल्चर और संवेदनशीलता की जांच दोबारा करा लें. अगर यह जीवाणुरहित आता है तो रोगनिरोध के लिए सब से बढि़या ऐंटीबायोटिक होगी. नाइट्रोफ्युरेंटोइन 50 मिलीग्राम की रोजाना एक खुराक लेनी होगी. मैं रोगनिरोधक ऐंटीबायोटिक के लिए औग्मैंटीन की सलाह नहीं दूंगी. इस बीच भरपूर पानी पीएं और जब भी महसूस हो तुरंत पेशाब जाएं. भरपूर पानी पीने से पेशाब की थैली में बैक्टीरिया का जमाव नहीं होगा.

हर बेटी अपने पिता से सुनना चाहती है ये 4 बातें

बेटियां माता-पिता की दुलारी होती हैं. यहां तक कि एक पिता के लिए तो बेटियां उनकी परी होती हैं, जिनकी वे हर इच्छा पूरी करना चाहते हैं. लेकिन इसी के साथ ही लड़कियां चाहती हैं कि एक पिता अपनी भावना व्यक्त करते हुए अपनी बेटी से बात करें.

आज हम आपको कुछ ऐसी बातें बताने जा रहे हैं जो हर बेटी अपने पिता से सुनना चाहती है. तो आइये जानते हैं उन बातों के बारे में.

तुम खूबसूरत हो

पेरेंट्स को अपने बच्चे खूबसूरत ही लगते हैं लेकिन बेटी अपने माता-पिता से यह बात सुनना चाहती हैं, खासकर पिता से. आपकी यह एक छोटी-सी बात बेटी का आत्मविश्वास बढ़ा देती है.

मैं तुम्हारे साथ हूं

वैसे तो पिता हर कदम पर अपनी बेटी के साथ खड़े रहते हैं लेकिन बेटी यह बात अपने पिता के मुंह से सुनना चाहती हैं कि मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूं. आप के सिर्फ इतना कहने से आपकी बेटी किसी भी काम को करने से पहले असहज महसूस नहीं करती.

कुछ भी नामुमकिन नहीं

बेटी चाहे कोई भी काम करें लेकिन वह चाहती हैं कि हर कदम पर पिता उन्हें प्रोत्साहित करें. पिता का प्रोत्साहन बेटी के लिए काफी मायने रखता है. पिता का एक बार यह कह देना ‘कुछ भी करना नामुमकिन नहीं है, तुम आगे बढ़ों’ बेटी के मनोबल को बढ़ावा देता है.

मुझे तुम पर नाज है

बेटी जब भी कोई अच्छा काम करें तो उसे यह जरूर कहें कि आपको उनपर नाज है. इससे न सिर्फ बेटी को खुशी मिलती है बल्कि इससे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है.

Father’s Day 2023 : अम्मा बनते बाबूजी

छोटा सा ही सही, साम्राज्य है यह घर अम्मा का, हुकूमत चलती है यहां अम्मा की. मजाल है उन की इच्छा के बगैर कोई उन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता. हमें भी सख्त हिदायत रहती जो चीज जहां से लो, वहीं रखनी है ताकि अंधेरे में भी खोजो तो पल में मिल जाए. बाबूजी…वे कभी रसोई में घुसने का प्रयास भी करते तो झट अम्मा कह देतीं, ‘आप तो बस रहने ही दीजिए, मेरी रसोई मुझे ही संभालने दीजिए. आप तो बस अपना दफ्तर संभालिए.’

फिर जब कभी अम्मा किसी काम में व्यस्त होतीं और बाबूजी से कहतीं, ‘सुनिए जी, जरा गैस बंद कर देंगे?’ बाबूजी झट हंसते हुए कहते, ‘न भई, तुम्हारी राज्यसीमा में भला मैं कैसे प्रवेश कर सकता हूं.’

यह बात नहीं कि अम्मा को बाबूजी के रसोई में जाने से कोई परहेज हो, यह तो बहाना था बाबूजी को घर की झंझटों से दूर रखने का, चाहे बाजार से किराना लाना हो, दूध वाले या प्रैस वाले का हिसाब ही क्यों न हो. समझदार हैं अम्मा, वे जानती हैं कि दफ्तर में सौ झंझटें होती हैं, कम से कम घर में तो इंसान सुख से रहे. बाबूजी के नहाने के पानी से ले कर बाथरूम में उन के कपड़े रखने तक की जिम्मेदारी बड़े कौशल से निभातीं अम्मा. दफ्तर से आ कर बाबूजी का काम होता अखबार पढ़ना और टीवी देखना. बाबूजी के सदा बेफिक्र चेहरे के पीछे अम्मा ही नजर आतीं.

अम्मा का प्रबंधकौशल भी अनोखा था. सब की जरूरतों का ध्यान रखना, सुबह से ले कर शाम तक किसी नटनी की भांति एक लय से नाचतीं. न कभी थकतीं अम्मा और न ही उन के चेहरे पर कभी कोई झुंझलाहट ही होती. सदा होंठों पर मुसकान लिए हमारा उत्साह बढ़ातीं. मेरे और चिंटू के स्कूल से आने से पहले वे घर के सारे काम निबटा लेतीं, फिर हमारी तीमारदारी में लग जातीं. उसी तरह शाम को बाबूजी के दफ्तर से लौटने से पहले वे रसोई में सब्जी काट कर, आटा लगा कर गैस पर कुकर तैयार रखतीं ताकि बाबूजी के आने के  बाद उन के स्वागत के लिए वे तनावमुक्त रहें. रात के खाने का हमसब मिल कर आनंद लेते. पूरे घर को अपनी ममता और प्यार की नाजुक डोर से बांध कर रखा था अम्मा ने. उन के बगैर किसी का कोई अस्तित्व नहीं था.

हालांकि ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं वे, फिर भी रात को जब हम पढ़ने बैठते तो वे हमारे पास बैठतीं. उन की उपस्थिति ही हमारे लिए काफी होती. वे पास बैठेबैठे कभी उधड़े कपड़ों की सीवन करतीं तो कभी स्वेटर बुनतीं. काम में उन की लगन देख कर लगता मानो रिश्तों की उधड़न को सी रही हों.

ममता का प्रभाव था कि मैं और चिंटू सदैव स्कूल में अव्वल रहते. हमारे स्कूल यूनिफौर्म से ले कर स्कूलबैग और टिफिन में अम्मा का मातृत्व झलकता था. मेरे लंबे बालों को अम्मा बड़े जतन से तेल लगा कर, दो चोटी बना, ऊपर बांध देतीं ताकि किसी की नजर न लगे मेरे बालों को. बहुत पसंद हैं बाबूजी को लंबे बाल. उन की छोटीछोटी पसंद का खयाल रखतीं अम्मा.

पिं्रसिपल मैडम ने एक बार अम्मा को बुला कर कहा भी, ‘रियली आई एप्रीशिएट यू मिसेज सुलेखाजी. आप ने बच्चों को बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं. आप गृहिणी हैं, आप की शिक्षा काम आई, इसीलिए तो कहते हैं कि परिवार में मां का पढ़ालिखा होना बहुत जरूरी है.’

अम्मा ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया. ‘मैडम, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हूं, न ही मैं पढ़ा पाती हूं. मीनू और चिंटू के बस पढ़ते वक्त मैं हरदम उन के साथ रहती हूं.’ सुन कर पिं्रसिपल मैडम और भी प्रभावित हो गईं अम्मा की साफगोई से.

हरी दूब पर चलते से गुजर रहे थे दिन, सारे घर में मशीन की तरह फिरती अम्मा. एक दिन अचानक उस मशीन में खराबी आ गई. सारे घर का व्यापार ही थम गया. डाक्टर ने अम्मा को आराम करने की नसीहत दी. फिर भी अम्मा से जितना बन पड़ता, उठ कर समयसमय से कुछ कर लेतीं ताकि बाबूजी को और हमें कम परेशानी हो. बाबूजी के लिए तो यह परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि कुकर में दाल कितनी सीटी में पक जाती है, आटे में कितना नमक पड़ता है, भिंडी काटने से पहले धोई जाती है या बाद में.

न चाहते हुए भी अम्मा का साम्राज्य अस्तव्यस्त होता जा रहा था. कमजोरी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. अब तो डाक्टर ने उन्हें बिस्तर से न उठने की भी सख्त हिदायत दे दी. बाबूजी अम्मा का पूरा ध्यान रखते. मगर बहुत बदल गए थे वे. पहले हमारी छोटी सी गलतियों पर डांटने वाले बाबूजी अब बड़ी गलतियों पर भी चुप रहते. वे जान गए थे कि उन की डांट से बचाने वाला आंचल अब तारतार हो रहा है. दफ्तर के बाद उन का सारा समय अम्मा की तीमारदारी में बीत जाता.

बाबूजी से अपनी तीमारदारी कराते उन्हें खुशी नहीं होती थी. वे किसी मासूम बच्चे की तरह उदास हो कहतीं, ‘सुनिए जी, मैं ठीक तो हो जाऊंगी न. कितना परेशान कर दिया है मेरी बीमारी ने तुम्हें. और मेरे मासूम बच्चे, देखो, कितना उदास रहने लगे हैं.’

बाबूजी अम्मा का हाथ अपने हाथ में ले कर उन्हें हिम्मत बंधाते. मगर खुद भीतर ही भीतर कितना टूट रहे थे, वे ही जानते थे. उन्हें पता था कि अब अम्मा कभी अच्छी नहीं होने वाली. उन्हें ब्लडकैंसर हो गया था. न अम्मा इस बात को जानती थीं, न मैं, न ही चिंटू. इतना बड़ा पहाड़ बाबूजी अपने सीने पर अकेले ही झेलते रहे. अम्मा के सामने खुद को मजबूत करते. मगर अकेले में कई बार आंसू बहाते देखा था मैं ने उन्हें. अब रसोई बाबूजी के हाथों में आ गई थी. कच्चापक्का जैसे भी बनता, पकाते. कभी दालचावल तो कभी खाली खिचड़ी से हम पेट भर लेते. सब्जीरोटी कम ही बनती. अब चिंटू भी खाने को ले कर कुरकुरी भिंडी की मांग नहीं करता, न ही दूध के लिए अम्मा को सारे घर में दौड़ाता. अम्मा के हाथ से खाने की जिद भी नहीं करता, जानता था, अम्मा बहुत कमजोर हो गई हैं. जो बनता, हमसब चुपचाप खा लेते. घर में हमेशा गहरी उदासी छाई रहती. यह सब देख अम्मा कहतीं कुछ नहीं, बस, उन की आंखों की कोर से आंसू ढुलक जाते. शायद वे समझ गई थीं कि वे कभी ठीक नहीं हो पाएंगी.

बाबूजी अम्मा का पूरा खयाल रखते. उन के  नहाने, खाने, बाल बनाने तक, समयसमय पर जूस ला कर अम्मा के हाथ में देते. अपने और हमारे नहाने की बालटी से ले कर तौलिया और कपड़े तक बाबूजी ही रखते बाथरूम में. सुबह दूध, टिफिन दे कर हमें स्कूल की बस तक पहुंचाना… हां, अब मेरे लंबे बाल कटवा दिए गए क्योंकि बाबूजी के काम जो बहुत बढ़ गए थे. बहुत रोई थीं अम्मा उस रोज. उन की हालत दिनबदिन  खराब होती जा रही थी. अब तो उन्हें आंखों से भी कम दिखाई देने लगा था. बाबूजी ने उन्हें खुश रखने की हर संभव कोशिश की. मगर एक दिन अम्मा हमेशाहमेशा के लिए हम सब को छोड़ कर चली गईं. आधे रह गए थे बाबूजी अपनी अर्द्धांगिनी के चले जाने पर. एकांत में बैठे, छत निहारते रहते, मानो अम्मा से शिकायत कर रहे हों मझधार में छोड़ कर क्यों चली गईं?

कितना बदल जाता है वक्त और अपने साथ बदल देता है इंसान को. जो बाबूजी बैडटी के बगैर बिस्तर से नीचे कदम नहीं रखते थे, अब उठते ही हमारी देखभाल में व्यस्त हो जाते. हमें स्कूल भेज कर ही खुद चाय बनाते और पीते.

वक्त अपने तरीके से कट रहा था. इस महीने हमारे स्कूल का परीक्षा परिणाम आ गया. कल पेरैंट्स मीटिंग थी. बाबूजी नहीं जानते क्या होता है पेरैंट्स मीटिंग में. कई बार अम्मा ने कहा संग चलने को, मगर बाबूजी ने यह कह कर टाल दिया कि बच्चों की ट्यूटर तुम हो, जवाब तो तुम्हें ही देना है. फिर शरारत करते हुए कहते, ‘भई, मैं ने तो अपने हिस्से का स्कूल कर लिया, तुम रह गईं, सो तुम्हीं जाओ. मुझे बख्शो.’ वही हुआ जिस की संभावना थी, हमेशा अव्वल आने वाले हम पिछड़ गए थे. इस बार मैं 2 विषयों और चिंटू 4 विषयों में फेल हो गया. यह बात नहीं कि हम ने पढ़ने की कोशिश नहीं की, पुस्तकें खोल कर बैठते, पास में गुमसुम बाबूजी भी होते मगर पास अम्मा जो नहीं होतीं.

जैसे ही बाबूजी हमें ले कर क्लास में दाखिल हुए, दूसरे पेरैंट्स की कानाफूसी न चाहते हुए भी कानों में पड़ गई. अब तक मां थी, अब मां नहीं है न. कितना फर्क पड़ता है मां से. ये शब्द बाबूजी के भीतर किसी तेजाब सरीखे उतरते चले गए. अम्मा की कमी का एहसास उन से ज्यादा और किसे होगा. मगर लोगों के शब्द मानो उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हों कि वे अम्मा की जगह नहीं ले सकते या फिर वे हमारी परवरिश में सफल नहीं हो पाए.

आज उन्हीं पिं्रसिपल ने बाबूजी को बुला कर कहा, ‘‘मिस्टर विकास, मैं आप की स्थिति समझ सकती हूं. मैं यह भी जानती हूं आप को इस परिस्थिति से उबरने में अभी वक्त लगेगा. किंतु बच्चों की भलाई के लिए यह कहने को विवश हूं कि अब आप को उन की ओर ज्यादा गंभीरता से ध्यान देना होगा. इस बार का परिणाम तो हम समझ सकते हैं लेकिन मैं समझती हूं आप भी नहीं चाहेंगे कि सुलेखाजी ने जिस मेहनत से बच्चों को तैयार किया है, वह जाया हो.

‘‘इस में कोई शक नहीं मीनू और चिंटू बहुत इंटैलिजैंट हैं. किंतु पिछले दिनों दोनों के सलवट भरी यूनिफौर्म और बिखरे बालों को ले कर बच्चे क्लास में उन का मजाक बना रहे थे. कल तो चिंटू की पैंट भी नीचे से उधड़ी हुई थी. मिस्टर विकास, आप समझ रहे हैं न. इस से बच्चे हतोत्साहित हो जाएंगे. एक बार उन का आत्मविश्वास कमजोर हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी उन्हें संभालने में. सो, प्लीज, आप उन का खयाल रखिए.’’ बाबूजी चुपचाप सुनते रहे. कुछ नहीं बोले. वैसे भी, आजकल वे बोलते कम ही हैं. छोटीछोटी बातों में शरारत कर अम्मा से मजे लेने की आदत तो उन की अम्मा के साथ ही चली गई. उन्हें रेशारेशा टूटते, खुद को बदलते मैं ने देखा है

मानो उन्होंने अम्मा बनने की मुहिम चला रखी हो. भीतर ही भीतर ठान लिया हो कि वे अम्मा की मेहनत को जाया नहीं होने देंगे. उस दिन रविवार था. उन्होंने शाम को मुझे और चिंटू को तैयार किया. दूध और ब्रैड हाथ में थमाते हुए बोले, ‘‘मीनू बेटा, चिंटू को सामने पार्क में घुमा ला. तब तक मैं रसोई का काम निबटा लूं. फिर हम पढ़ाई करेंगे.’’

मैं कुछ ही देर में पार्क से लौट आई, मन नहीं लग रहा था. लौटी तो देखा रसोई में गैस पर रखे कुकर में सीटी आ रही थी, पास ही भिंडी तल कर रखी हुई थी. थाली में आटा लगा हुआ था, ठीक जैसे अम्मा रखती थीं. मगर बाबूजी, बाबूजी तो रसोई में नहीं हैं? कमरे में जा कर देखा तो सुईधागा लिए बाबूजी चिंटू की उधड़ी पैंट सिलने की कोशिश कर रहे थे. पैंट नहीं…उधड़े रिश्ते सी रहे थे… जैसे अम्मा सीया करती थीं. आज ऐसा लग रहा था अम्मा पूरी की पूरी बाबूजी में उतर आई हों.

Father’s Day 2023: पापा कूलकूल

‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने…सुगंधा…अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.

‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है…ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.

‘‘बातें सुनो इस की…कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है…कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’

‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते…’’

‘‘अरे…मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.

‘‘अड़ाना भी मत…अभी तो दिन हैं उस के फैशन के…कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’

‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं…’’

‘‘एक कमी हो तो कहूं…’’

‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी…’’

‘‘हूं, पापा…फिर वही सुगंधा…सू कहिए न.’’

‘‘अच्छा सू बेटी…तुम्हें कितने कपड़े चाहिए…अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं… मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट…न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’

‘‘पापा…मैचिंग हैंडबैग और शूज

भी चाहिए थे…वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’

‘‘क्या…’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’

‘‘वह आप का जमाना था…यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं…’’

‘‘और पढ़ाई के लिए कब वक्त निकलता है…जरा बताओ तो.’’

‘‘पढ़ाई…हमारे इंगलिश टीचर

पैपी यानी प्रभात हैं न…उन्होंने हमें अपने नोट्स फोटोस्टेट करने के लिए दे दिए हैं.’’

‘‘तुम्हारे इस पैपी की शिकायत मैं प्रिंसिपल से करूंगा.’’

‘‘पिं्रसी क्या कर लेगा…वह तो खुद पैपी के आगे चूहा बन जाता है…आखिर, पैपी यूनियन का प्रेसी है.’’

‘‘प्रेसी…तुम्हारा मतलब प्रेसीडेंट…’’ नरेंद्र ने उस की बात समझ कर कहा, ‘‘बेटा, बात को समझो…हम मध्यवर्गीय परिवार के  सदस्य हैं…इस तरह फुजूलखर्ची हमें सूट नहीं करती.’’

‘‘बस…शुरू हो गया आप का टेपरिकार्डर,’’ रेवती चिढ़कर बोली, ‘‘हर वक्त मध्यवर्गीय…मध्यवर्गीय. अरे, कभी तो हमें उच्चवर्गीय होने दिया करो.’’

‘‘रेवती…तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी…देख लेना पछताओगी,’’ नरेंद्र आपे से बाहर हो गए.

‘‘क्यों, क्या किया मैं ने? केवल उसे फैशनेबल कपड़े दिलवाने की तरफदारी मैं ने की…आप तो बिगड़ ही उठे,’’ सुगंधा की मां ने थोड़ी शांति से कहा.

‘‘मैं भी उसे कपड़े खरीदने से कब मना करता हूं…लेकिन जो भी करो सीमा में रह कर करो…जरा इसे कुछ रहनेसहने का सही सलीका समझाओ.’’

‘‘लो, अब कपड़े की बात छोड़ी तो सलीके पर आ गए…अब उस में क्या दिक्कत है, पापा,’’ सुगंधा ठुनकी.

‘‘तुम जब कालिज चली जाती हो तो तुम्हारी मां को घंटा भर लग कर तुम्हारा कमरा ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरे पीछे मेरा कमरा ठीक करें…मेरा कमरा जितना बेतरतीब रहे वही मुझे अच्छा लगता है…यही आजकल का फैशन है.’’

‘‘और साफसफाई रखना…सलीके से रहना?’’

‘‘ओल्ड फैशन…हर वक्त नीट- क्लीन और टाइडी जमाने के लोग रहते हैं…नए जमाने के यंगस्टर तो बस, कूल दिखना चाहते हैं…अच्छा, मैं चलती हूं…नहीं तो कालिज के लिए देर हो जाएगी.’’

अपने मोबाइल को छल्ले की तरह नचाती हुई वह चलती बनी. रेवती ने भी चिढ़ कर नाश्ते के बरतन उठाए और किचन में चली गई.

‘कहां गलती कर दी मैं ने इस बच्ची को संस्कार देने में,’ नरेंद्र अपनेआप से बोले, ‘नई पीढ़ी हमेशा फैशन के हिसाब से चलना पसंद करती है…इसे तो कुछ समझ ही नहीं है…एक बार मन में ठान ली उसे कर के ही मानती है. ऊपर से रेवती के लाड़प्यार ने इसे कामचोर और आरामतलब अलग बना दिया है. मैं रेवती को समझाता हूं कि पढ़ाई के साथ घर के कामकाज व उठनेबैठने, पहनने का सलीका तो इसे सिखाओ वरना इस की शादी में बड़ी मुश्किल होगी, तब वह तमक कर कहती है कि मेरी इतनी रूपवती बेटी को तो कोई भी पसंद कर लेगा…’

‘‘क्या बड़बड़ा रहे हैं अकेले में आप?’’ रेवती नरेंद्र से बोली.

‘‘तुम्हारी लाड़ली के बारे में सोच रहा हूं,’’ नरेंद्र ने चिढ़ कर कहा.

‘‘ओहो, अब आप शांत हो जाओ… कितना खून जलाते हो अपना…’’

‘‘सब तुम्हारे ही कारण जल रहा है…तुम उसे दिशाहीन कर रही हो.’’

‘‘आप ऐसा क्यों समझते हो जी, कि मैं उसे दिशाहीन कर रही हूं,’’ रेवती रहस्यमय ढंग से कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि आप ने अपनी सुविधा के लिए उस से बहुत सी आशाएं लगा रखी हैं.’’

‘‘अब इकलौती संतान है तो उस से आशा करना क्या गलत है…बोलो, गलत है.’’

‘‘देखो,’’ रेवती समझाने के ढंग से बोली, ‘‘पुरानी पीढ़ी अकसर परंपरागत मान्यताओं, रूढि़यों और अपने तंग नजरिए को युवा पीढ़ी पर थोपना चाहती है जिसे युवा मन सहसा स्वीकार करने में संकोच करता है.’’

‘‘ठीक है, मेरा तंग नजरिया है… तुम लोगों का आधुनिक, तो आधुनिक ही सही,’’ नरेंद्र के बोलने में उन का निश्चय झलकने लगा था, ‘‘जब सारे समाज में ही परिवर्तन हो रहा है तो मेरा इस तरह से पिछड़ापन दिखाना तुम दोनों को गलत ही महसूस होगा.’’

‘‘ये हुई न समझदारी वाली बात,’’ रेवती ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आप की और सू की लड़ाइयों से आजकल घर भी महाभारत बना हुआ है…आप उसे और उस की पीढ़ी को दोष देते हो…वह आप को और आप की पुरानी पीढ़ी को दोष देती है…’’

‘‘तुम ही बताओ, रेवती,’’ नरेंद्र ने अब हथियार डाल दिए, ‘‘क्या सुगंधा और उस की पीढ़ी के बच्चे दिशाहीन नहीं हैं?’’

रेवती चिढ़ कर बोली, ‘‘आप को  तो एक ही रट लग गई है…अरे भई, दिशाहीनता के लिए युवा वर्ग दोषी नहीं है…दोषी समाज, शिक्षा, समय और राजनीति है.’’

नरेंद्र फिर चुप हो गए. लेकिन गहन चिंता में खो गए. ‘जैसे भी हो आज इस समस्या का हल ढूंढ़ना ही होगा,’ वह बड़बड़ाए, ‘सच ही है, हमारा भी समय था. मुझे भी पिताजी बहुत टोकते थे, ढंग के कपड़े पहनो…करीने से बाल बनाओ…समय पर खाना खाओ…रेडियो ज्यादा मत सुनो…बड़ों से अदब से बोलो…पैसा इतना खर्च मत करो. सही भाषा बोलो…ओह, कितनी वर्जनाएं होती थीं उन की, किंतु मैं और छुटकी उन की बातें मान जाते थे…यहां तो सुगंधा हमारी एक भी बात सुनने को तैयार नहीं.

‘उस से यही सुनने को मिलता है कि ओहो पापा, आप कुछ नहीं जानते. लेकिन मैं भी उसे क्यों दोष दे रहा हूं… जरूर मेरे समझाने का ढंग कुछ अलग है तभी उसे समझ नहीं आ रहा…उस की फुजूलखर्ची और फैशनपरस्ती से ध्यान हटाने के लिए मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा.’

नरेंद्र अब उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगे. रेवती ने उन्हें कमरे में टहलते देखा तो चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं. अचानक नरेंद्र की आवाज आई, ‘‘रेवती, दरवाजा बंद कर लो. मैं अभी आता हूं.’’

रेवती दौड़ कर बाहर आई. दरवाजे से झांक कर देखा तो नरेंद्र कालोनी के छोर पर लंबेलंबे डग भरते नजर आए… उस ने गहरी सांस भर कर दरवाजा बंद किया.

अब उन्हें दुख तो होना ही है जब सुगंधा ने उन के द्वारा रखे अच्छेखासे नाम को बदल कर सू रख दिया.

वह भी घर में शांति चाहती है इसलिए विभिन्न तर्क दे दे कर दोनों को

चुप कराती रहती है…यह सही है

कि बेटी के लिए उस के मन में बहुत ज्यादा ममता है…वह नरेंद्र की

कही बात पर कांप उठती है, ‘रेवती, तुम्हारी अंधी ममता सुगंधा को कहीं बिगाड़ न दे.’

‘कहीं सचमुच सुगंधा दिशाहीन हो गई तो वह क्या करेगी…’ रेवती स्वयं से सवाल कर उठी, ‘सुगंधा जिस उम्र में पहुंची है वहां तो हमारा प्यार और धैर्य ही उसे काबू में रख सकता है. सुगंधा को उस की गलती का एहसास बुद्धिमानी से करवाना होगा…जिस से वह सोचने पर मजबूर हो कि वह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ सुगंधा का बिखरा कमरा समेटते हुए रेवती सोचती जा रही थी.

शाम घिर आई थी…सुबह 11 बजे के निकले नरेंद्र अभी तक नहीं लौटे थे… अचानक बजी कालबेल ने उस का ध्यान खींचा. दरवाजा खोला तो नरेंद्र थे…हाथों में 4 बडे़बडे़ पैकेट लिए.

‘‘सुगंधा आ गई क्या?’’ नरेंद्र ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

उस के प्रश्न को अनसुना कर के नरेंद्र बोले, ‘‘रेवती, जरा पानी ले आओ… बड़ी प्यास लगी है.’’

गिलास में पानी भरते समय उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे.

‘‘क्या है इन पैकेटों में?’’ गिलास पकड़ाते हुए उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम खुद देख लो,’’ नरेंद्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘और सुनो, मेरा सामान दे दो…मैं जरा उन्हें ट्राई कर लूं… फिर तुम भी अपना सामान ट्राई कर लेना.’’

रेवती की हंसी कमरे में गूंज गई, ‘‘ये क्या, अपने लिए आसमानी रंग की पीले फूलों वाली शर्ट लाए हो क्या?’’ वह हंसती हुई बोली.

नरेंद्र ने उस के हाथ से शर्र्ट खींच कर कहा, ‘‘हां भई, हमारी लाड़ली फैशनपरस्त है. अब तो उस के पापा भी फैशनपरस्त बनेंगे तभी काम चलेगा.’’

‘‘और यह मजेंटा कलर का बरमूडा…यह भी आप का है?’’ रेवती के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ रहे थे.

‘‘यह हंसी तुम संभाल कर रखो… अभी कहीं और न हंसना पडे़…ये देखो… तुम अपनी डे्रस देखो.’’

‘‘ये…ये क्या?’’ रेवती चौंक कर बोली, ‘‘आप का दिमाग खराब तो नहीं हो गया…खुद तो चटकीले ऊलजलूल कपडे़ ले आए, अब मुझे ये मिडी पहनाओगे….’’

‘‘क्यों भई, फैशनपरस्त बेटी की फैशनपरस्ती को तो खूब सराहती हो. अब मैं भी तो तुम्हें सराह लूं. चलो, जरा ये मिडी पहन कर दिखाओ.’’

‘‘आप का दिमाग तो सही है…इस उम्र में मैं मिडी पहनूंगी…मुझे नहीं पहननी,’’ रेवती भुनभुनाई.

‘‘चलो, जैसी तुम्हारी मर्जी. तुम्हें नहीं पहननी, न पहनो. मैं तो पहन रहा हूं,’’ कहते हुए नरेंद्र कपड़ों को हाथ में लिए बाथरूम में घुस गए.

‘‘अब समझ आया,’’ रेवती बोली, ‘‘देखें, आज पितापुत्री का युद्ध कहां तक खिंचता है…’’ वह मुसकराई किंतु साथ ही उस के दिमाग में विचार आया…उस ने फटाफट सामान समेटा और किचन में घुस गई.

‘‘ममा…ममा…’’ सुगंधा के चीखने की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘आ गई मेरी लाडली…’’ वह मुसकराती हुई कमरे में आई. सुगंधा की पीठ उस की ओर थी, ‘‘ममा, मेरा पिंक टाप नहीं दिखाई दे रहा. आप ने देखा… और आज आप ने मेरा रूम भी ठीक नहीं किया,’’ कहतेकहते सुगंधा मुड़ी तो हैरानी से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘ममा, आप मिडी में…वह भी स्लीवलेस मिडी में.’’

क्यों, ‘‘क्या हुआ…क्या तुम ही फैशन कर सकती हो…हम नहीं,’’ नरेंद्र ने पीछे से आ कर कहा.

‘‘ऐं…पापा, आप बरमूडा में…क्या चक्कर है. पापा, आप तो ये ड्रेस चेंज कीजिए. कैसे अजीब लग रहे हैं…और मम्मी आप भी…कोई देखेगा तो क्या कहेगा.’’

‘‘क्यों, क्या कहेगा…यही कि हम 21वीं सदी के पेरेंट्स हैं…तुम्हें इन ड्रेसेस में क्या खराबी नजर आ रही है?’’

‘‘इन ड्रेसेस में कोई खराबी नहीं है,’’ सुगंधा ने सिर झटका, ‘‘कैसे दिख रहे हैं इन ड्रेसेस को पहन कर आप लोग.’’

‘‘मुझे पापा मत कहो, डैड कहो,’’ नरेंद्र बोले.

‘‘ऐं, डैड…’’ सुगंधा चौंकी, ‘‘क्या हो गया है आप को…ममा, पानी ले कर आओ…पापा की तबीयत वाकई खराब है.’’

तब तक रेवती कोल्डड्रिंक की बोतल ले कर पहुंच गई…सुगंधा ने कोल्डडिं्रक देख कर कहा, ‘‘हां, ममा, ये मुझे दो…आप पापा के लिए पानी ले कर आओ.’’

‘‘अरी हट….ये कोल्डडिं्रक तेरे पापा के लिए ही है…कह रहे हैं पानीवानी सब बंद, ओल्ड फैशन है…पीऊंगा तो केवल कोल्डडिं्रक या हार्डडिं्रक…’’

‘‘ऐं… ममा,’’ सुगंधा रोंआसी हो गई, ‘‘यह पापा को क्या हो गया है…’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र ने फिर बीच में टोका.

‘‘अरे, छोड़ अपने पापा को,’’  रेवती बोली, ‘‘बोल, आज डिनर में क्या बनाऊं? पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, मैगी…या…’’

‘‘ममा, सचमुच आज आप यह सब बनाओगी…’’ सुगंधा खुश हो कर बोली.

‘‘आज ही नहीं, हमेशा ही बनाऊंगी,’’ रेवती ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब ?’’ सुगंधा फिर चौंकी.

‘‘मतलब यह कि आज से मैं ने  और तेरे पापा ने निर्णय लिया है कि जो तुझे पसंद है वही इस घर में होगा…तुझे अपने पापा से शिकायत रहती है न कि वे तुझे टोकते रहते हैं.’’

‘‘ममा, आज क्या हो गया है आप लोगों को.’’

‘‘हमें कुछ नहीं हुआ है, बेटा,’’ नरेंद्र ने प्यार से कहा, ‘‘हम तो अपनी बेटी के रंग में रंगना चाहते हैं ताकि घर में शांति बनी रहे.’’

‘‘हां, हां…ये बरमूडा और मिडी पहन कर आप लोग घर में शांति जरूर करवा दोगे लेकिन बाहर अशांति छा जाएगी…लोग क्या कहेंगे कि…’’

‘‘यही तो मैं कहता हूं…आज तुम्हें भी समझ आ गई, सू…’’

‘‘हां, आप लोगों को देख कर मुझे यह बात समझ आ रही है कि फैशन उतना ही अच्छा लगता है जो दूसरों की निगाह में न खटके.’’

‘‘मेरी समझदार बच्ची,’’ रेवती भावविह्वल हो कर बोली.

‘‘बेटा…क्या हमारे पास एकमात्र यही रास्ता रह गया है कि बदलते हुए परिवेश से समझौता कर लें या पुराणपंथी दकियानूसी लकीर के फकीर कहलाएं…’’

सुगंधा अवाक् अपने पिता को देख रही थी.

नरेंद्र कह रहे थे, ‘‘तुम लोगों के पास जोश तो है बेटा लेकिन होश नहीं…तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारी पीढ़ी भी कल पुरानी हो जाएगी…तुम्हें भी नई पीढ़ी से ऐसा ही व्यवहार मिलेगा तब तुम्हारी बात कोई सुनने को तैयार नहीं होगा…’’

‘‘ठीक कहते हैं आप…युवा वर्ग और बुजुर्ग आपस में एकदूसरे के पूरक हैं…केवल दृष्टिकोण और कार्यों में दोनों  एकदूसरे से बिलकुल विपरीत हैं,’’  सुगंधा ने कहते हुए सिर हिलाया.

‘‘और इन दोनों में जब आपसी समझदारी हो तो दोनों वर्गों के कार्यों और परिणामों में सफलता मिलनी ही निश्चित  है.’’

‘‘आज से मेरा उलटीसीधी बातों पर जिद करना बंद. मुझे पता होता

कि आप मुझे इतना प्यार करते हैं तो मैं आप को कभी दुखी नहीं करती, पापा.’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र की इस बात पर तीनों खुल कर हंस पडे़ और हंसतेहंसते रेवती की आंखें बरस पड़ी यह सोच कर कि उस के समझदार पति ने उसे और उस की बेटी को दिशाहीन होने से बचा लिया.

Crime Story: रास न आया ब्याज

चंचल, जैसा नाम वैसा ही स्वभाव था उस 35 वर्षीय खूबसूरत नारी का. 12 वर्ष पहले उस का विवाह
आगरा के सिकंदरा थाना क्षेत्र के गांव पनवारी में रहने वाले सोहनवीर सिंह से हुआ था. सोहनवीर प्राइवेट नौकरी करता था. उस की इतनी कमाई नहीं थी कि घर का खर्च आसानी से चल पाता. चंचल इस से खुश नहीं थी लेकिन अपना भाग्य मान कर वह पति सोहनवीर के साथ निर्वाह कर रही थी.सोहनवीर पत्नी भक्त था, वह चंचल से बेइंतहा प्यार करता था. पति के इस बर्ताव ने आहिस्ताआहिस्ता चंचल के स्वभाव को बदल दिया.

एक शाम जब सोहनवीर लौटा तो चंचल ने उसे हाथपैर धोने के लिए गरम पानी दिया. हाथमुंह धो कर सोहनवीर रसोई में चंचल के पास ही बैठ गया, जहां चंचल उस के लिए गरम रोटियां सेंक रही थी. खाना खा कर सोहनवीर उठा और बैड पर जा कर लेट गया. सारा काम खत्म करने के बाद चंचल भी उस के पास आ कर बैड पर लेट गई.

चंचल को पति के मुंह से शराब की गंध महसूस हुई तो बोली, ‘‘तुम ने शराब पी है?’’
‘‘हां आज ज्यादा ठंड लग रही थी इसीलिए, लेकिन कल से नहीं पीऊंगा, वादा करता हूं.’’ सोहनवीर गलती मान कर बोला.‘‘आज माफ किए देती हूं, आइंदा शराब पी कर घर में आए तो घर में घुसने नहीं दूंगी. फिर ठंड में सारी रात बाहर ही ठिठुरते रहना, समझे.’’ चंचल ने आंखें दिखा कर कहा.
उस रात सोहनवीर ने चंचल से वादा तो किया कि दोबारा शराब को हाथ नहीं लगाएगा, लेकिन वो वादा रात के साथ ही कहीं खो गया. अगले दिन सोहनवीर शराब के नशे में घर लौटा तो पतिपत्नी के बीच कहासुनी हो गई. इस के बाद चंचल फिर से पति सोहनवीर से चिढ़ने लगी. अब सोहनवीर चंचल को जरा भी नहीं सुहाता था. वह उस से हमेशा कटीकटी रहने लगी.

सोहनवीर चूंकि चंचल का पति था, इसलिए वह चाहे जैसा भी था, उसे उस के साथ रहना ही था. दिन गुजरते गए, समय पंख लगा कर उड़ने लगा. लाख कोशिशों के बाद भी चंचल सोहनवीर की शराब छुड़वा पाने में असफल रही. समय के साथ चंचल एक बेटे और एक बेटी की मां भी बन गई.इस बीच सोहनवीर शराब का आदी हो गया था. शराब के चक्कर में उस ने कई लोगों से पैसे भी उधार लिए थे. वह पहले उधार लिए गए पैसे चुका नहीं पाता था, फिर से उधार मांगने लगता था. इसी के चलते लोगों ने उसे उधार देना बंद कर दिया था.

लोग तगादा करते तो सोहनवीर उन के सामने आने से बचने लगा. इस पर लोग उस के घर के बाहर आ कर तगादा करने लगे. सोहनवीर घर नहीं होता तो लोग चंचल को ही बुराभला बोल कर चले जाते थे.
चंचल चुपचाप सब के ताने सुनती, फिर दरवाजा बंद कर के रोती रहती. पति से कुछ कहती तो उस के सितम उस के जिस्म पर उभर कर दिखाई देने लगते.एक दिन दोपहर में सोहनवीर कमरे में खाना खा रहा था. तभी किसी ने जोरजोर से दरवाजे की कुंडी बजाई. सोहनवीर समझ गया कि कोई लेनदार दरवाजे पर आया है. उस ने चंचल से कहा, ‘‘तुम जा कर देखो और मुझे पूछे तो दरवाजे से ही चलता कर देना.’’

‘‘हां, यही काम तो है मुझे कि हर किसी से झूठ बोलती रहूं.’’ कह कर चंचल झल्ला कर उठी. सोहनवीर उसे लाल आंखों से घूर रहा था. चंचल ने दरवाजा खोला तो सामने एक व्यक्ति खड़ा था. उसे देख कर चंचल ने पूछा, ‘‘आप कौन हैं?’’‘मैं शिशुपाल सिंह हूं. कहां है सोहनवीर, जब से पैसा लिया है, दिखाई ही नहीं दे रहा.’’ शिशुपाल रूखे स्वर में बोला.‘‘वो तो घर पर नहीं हैं, आप बाद में आ जाना.’’

‘‘मेरा यही काम है क्या. लोगों को पैसा दे कर भलाई करूं और जब पैसे लेने का वक्त आए तो देनदार घर से गायब मिले. कहे देता हूं, इस तरह नहीं चलेगा. अपने आदमी को कहना मेरा पैसा वापस कर दे, वरना अच्छा नहीं होगा.’’ शिशुपाल कड़क कर बोला. ‘‘आप नाराज क्यों होते हैं, वो आएंगे तो मैं बोल दूंगी. मैं ने तो आप को पहली बार देखा है.’’ चंचल बोली.  और भी हिदायतें दे कर शिशुपाल सिंह वहां से चला गया. चंचल ने दरवाजा बंद किया और फिर से आ कर रोटियां सेंकने लगी.

‘‘सारी उम्र लोगों की गालियां सुनवाते रहना लेकिन ये दारू मत छोड़ना.’’ चंचल गुस्से में पति से बोली.
‘‘ऐ तू मुझे आंखें दिखाती है, साली मैं तेरा मर्द हूं. जानती है पति परमेश्वर होता है. तू है कि मुझे ही आंखें दिखा रही है.’’ सोहनवीर चिल्ला कर बोला.  ‘‘पति के अंदर परमेश्वर वाले गुण हों तभी तो. तुम में पति जैसा है कुछ.’’ चंचल बोली तो सोहनवीर उस के बाल पकड़ कर रसोई से बाहर ले आया और लातघूंसों से बुरी तरह पिटाई करने लगा.

चंचल रोतीबिलखती खुद को पति के हाथों से छुड़ाती रही लेकिन सोहनवीर उसे तब तक पीटता रहा, जब तक खुद थक नहीं गया. चंचल रात भर दर्द से तड़पती रही और सोहनवीर शराब पी कर एक ओर लुढ़क गया.  3-4 दिन बाद शिशुपाल एक बार फिर से पैसों की वसूली के लिए सोहनवीर के घर आया तो इत्तेफाक से दरवाजा खुला था. शिशुपाल भीतर घुसता चला आया. चंचल आइने में देख कर बाल संवार रही थी. शिशुपाल पर नजर पड़ी तो उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘अरे शिशुपालजी आप! अरे आप खड़े क्यों हैं, बैठिए न.’’

शिशुपाल चुप था और एकटक चंचल की ओर देख रहा था. चंचल उस के करीब आई और कुरसी उठा कर उस की ओर सरकाते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं.’’
‘‘नहीं, मुझे चाय नहीं पीनी. मैं तो सोहनवीर से मिलने आया था. कहां है वो मेरे पैसे कब देगा?’’ शिशुपाल ने पूछा.  ‘‘आप के पैसे मिल जाएंगे, चिंता मत कीजिए.’’ चंचल अब भी मुसकरा रही थी. वह रसोई में चली गई और 2 कप चाय और प्लेट में बिस्कुट, नमकीन ले आई. उस ने शिशुपाल की ओर चाय का कप बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कितने रुपए हैं आप के?’’

‘‘आप को नहीं मालूम.’’ शिशुपाल ने कप हाथ में ले कर पूछा. ‘‘जब पति पत्नी को सारी बातें बताए, तभी उसे हर बात की जानकारी रहती है. जो आदमी पत्नी को सिवाय पैर की जूती के कुछ नहीं समझता वो…खैर जाने दीजिए मैं भी कहां आप से अपना रोना ले कर बैठ गई.’’ चंचल बोल रही थी, शिशुपाल खामोशी से उस की बातें सुन रहा था.काफी देर तक इंतजार के बाद भी सोहनवीर घर नहीं आया तो शिशुपाल जाने लगा. चंचल ने उसे थोड़ी देर और रुकने के लिए कहा, लेकिन वह नहीं रुका. चंचल ने उस का मोबाइल नंबर ले लिया और बोली, ‘‘वो आएंगे तो मैं आप को फोन कर के बता दूंगी.’’

शिशुपाल वहां से चला गया. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि सोहनवीर की पत्नी चंचल उस पर इतनी मेहरबान क्यों हो गई. फिर उस ने सिर को झटका और सोचने लगा कि उसे तो अपने पैसे चाहिए चाहे पत्नी दे या पति. सोचता हुआ वह अपने घर पहुंच गया.शिशुपाल सिंह संपन्न किसान था. करीब 18 साल पहले उस का विवाह सीता से हुआ था. सीता से उसे 2 बेटे और एक बेटी हुई. करीब डेढ़ साल पहले आपसी विवाद के कारण सीता हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली गई. शिशुपाल अकेला पड़ गया. गांव के लोगों को वह ब्याज पर पैसा देता था.

एक दिन सोहनवीर ने उस से किसी जरूरी काम के लिए पैसे उधार मांगे तो शिशुपाल ने दे दिए. पैसे उधार मिलने के बाद सोहनवीर ने शिशुपाल की तरफ जाना ही छोड़ दिया. काफी समय बीतने के बाद सोहनवीर शिशुपाल से नहीं मिला तो शिशुपाल सोहनवीर के घर तक पहुंच गया.
सोहनवीर घर पर नहीं मिला तो चंचल ने शिशुपाल की आवभगत की. शिशुपाल उस दिन ये कह कर चला गया कि 4 दिन बाद फिर आएगा.  4 दिन गुजर गए. चंचल को आज शिशुपाल का इंतजार था. पति और बच्चे तो सुबह ही चले गए थे. उन के जाने के बाद चंचल ने घर का सारा काम खत्म किया और खुद सजसंवर कर बैठ गई. अपने बताए समय पर शिशुपाल सोहनवीर के घर पहुंच गया. दरवाजे की कुंडी खड़की तो चंचल ने घड़ी की ओर देखा, ठीक 11 बज रहे थे.

चेहरे पर मुसकान बिखेर कर एक बार वह आइने के सामने आ कर मुसकराई, फिर मन ही मन लजाई, उस ने साड़ी के पल्लू से खुद को लपेटा और सामने के बालों को गोल कर गालों पर गिरा लिए. चंचल का निखरा गोरा बदन दूध की तरह दमक रहा था.  उस ने दरवाजा खोला तो सामने शिशुपाल खड़ा था. उसे देखते ही चंचल ने मुसकान बिखेरी और निगाहें नीची कर लीं. फिर आहिस्ता से बोली, ‘‘अंदर आइए न.’’
‘‘जी, सोहनवीर नहीं है क्या?’’ शिशुपाल ने हिचकिचा कर पूछा.

‘‘मैं तो हूं, आप की ही राह देख रही थी.’’ चंचल बोल पड़ी.  ‘‘जी आप मेरी राह!’’ शिशुपाल चौंका तो चंचल ने बिना किसी हिचक के उसे हाथ बढ़ा कर अंदर आने का इशारा किया. शिशुपाल अंदर आ गया तो चंचल ने अंदर से कुंडी लगा दी और पलट कर शिशुपाल से बोली, ‘‘आप अभी तक खड़े हैं.’’चंचल ने कुरसी निकाल कर देनी चाही तो शिशुपाल बोला, ‘‘आज मैं अपने पैसे ले कर ही जाऊंगा, बुलाओ सोहनवीर को जो मुंह छिपा कर बैठा है.’’

‘‘आप के तो दिमाग में दिन रात पैसा ही पैसा सवार रहता है. ये देखो कितना पैसा है मेरे पास.’’ चंचल ने स्वयं ही साड़ी का पल्लू हटा कर उस से कहा. यह देख शिशुपाल ठगा सा देखता रह गया. उस की निगाहें चंचल के तराशे हुए जिस्म पर थीं. वह अपलक देखे जा रहा था.  ‘‘सचमुच सांचे में तराशा हुआ बदन है तुम्हारा.’’ शिशुपाल बोला.

चंचल ने झट से पल्लू से खुद को लपेट लिया. शिशुपाल चंचल के दिल की मंशा जान चुका था. उस ने चंचल को लपक कर अपनी ओर खींचा और बाजुओं में जकड़ लिया.  चंचल के सारे बदन में एक अजीब सा रोमांच उठने लगा. उस ने दोनों बांहें शिशुपाल के कंधों पर जमा लीं. शिशुपाल ने चंचल को बांहों में उठा कर पलंग पर लिटा दिया. वह सुहागन हो कर भी शादीशुदा औरत की सारी मर्यादाएं भूल कर वासना के अंधे कुंए में कूद पड़ी थी, जिस में कूदने के बाद चंचल ने असीम आनंद का अनुभव किया. वह शिशुपाल की दीवानी हो गई. उस ने कहा, ‘‘अब बताओ इस दौलत में सुख है या फिर तुम्हारी तिजोरी वाली दौलत में?’’
‘‘सच कहूं तो मैं ने जब पहली बार तुम्हें देखा था तो तिजोरी की दौलत को भूल गया था और तुम्हारी इस दौलत का दीवाना हो गया था.’’

शिशुपाल की बांहों की गरमी पा कर चंचल को लगने लगा था कि अब उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गईं. चंचल अब शिशुपाल के वश में हो चुकी थी. जब जी करता दोनों एकदूसरे में समा जाते थे.

21 जुलाई, 2020 की सुबह शिशुपाल खेत से चारा लाने की बात कह कर घर से निकला लेकिन दोपहर तक नहीं लौटा. घरवालों ने उसे सभी जगह तलाशा, लेकिन कोई पता नहीं चला. कई दिन बाद भी जब शिशुपाल का पता नहीं लगा तो उस के भाई नवल सिंह ने 30 जुलाई को सिकंदरा थाने में शिशुपाल के गुम होने की सूचना दी. जिस पर इंसपेक्टर अरविंद कुमार ने गुमशुदगी दर्ज कर जांच एसआई अमित कुमार को सौंप दी.पुलिस ने हर जगह शिशुपाल का पता किया लेकिन कुछ पता नहीं लगा. इस पर पुलिस ने जानकारी जुटा कर पता किया कि शिशुपाल से कौनकौन मिलने आता है और शिशुपाल कहांकहां जाता था. इसी जांच में सोहनवीर पुलिस के शक के दायरे में आ गया. पता चला कि शिशुपाल हर रोज सब से ज्यादा समय सोहनवीर के घर बिताता था.

शिशुपाल और सोहनवीर के मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स की जांच की गई तो जानकारी मिली कि घटना वाले दिन सुबह साढ़े 10 बजे दोनों के बीच बात हुई थी. फोन सोहनवीर ने किया था. उसी के बाद से शिशुपाल लापता हो गया था.12 अगस्त, 2020 को इंसपेक्टर अरविंद कुमार ने पुलिस टीम के साथ जा कर सोहनवीर सिंह को उस के घर से हिरासत में ले लिया. थाने  ला कर जब उस से कड़ाई से पूछताछ की गई तो उस ने शिशुपाल की हत्या कर देने की बात स्वीकार कर ली.

इंसपेक्टर अरविंद कुमार ने उस की निशानदेही पर अंशुल एपीआई के पास निर्माणाधीन इमारत के पास सीवर नाले से शिशुपाल की लाश बरामद कर ली. लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजने के बाद वह थाने लौट आए. पुलिस ने सोहनवीर के खिलाफ भादंवि की धारा 302/201 के तहत मुकदमा दर्ज करने के बाद उस से विस्तृत पूछताछ की पूछताछ में पता चला कि शिशुपाल और चंचल के नाजायज रिश्ते की इमारत जैसेजैसे बनती गई, वह लोगों की नजरों में आने लगी थी. लोगों की नजरों में बात आई तो सोहनवीर तक पहुंचते देर नहीं लगी. तब सोहनवीर ने अपने घर की इज्जत पर हाथ डालने वाले शिशुपाल को जान से मार देने का फैसला
कर लिया.

उस ने घटना से 1-2 दिन पहले मोबाइल पर शिशुपाल से बात की और कहा कि कुछ परेशानी थी, इस वजह से वह उस का पैसा नहीं दे पाया लेकिन अब जल्द ही दे देगा. शिशुपाल तो वैसे भी अपनी दी गई रकम का ब्याज उस की पत्नी के बदन से वसूल रहा था. इसलिए उस ने कह दिया कि ठीक है जब पैसा हो जाए दे देना.

21 जुलाई, 2020 की सुबह शिशुपाल चारा लाने के लिए घर से खेत की तरफ जाने के लिए निकला. वह खेत पर था तब करीब साढ़े 10 बजे सोहनवीर ने फोन कर के उसे मिलने के लिए बुलाया. शिशुपाल उस के पास पहुंचा तो सोहनवीर उसे अंशुल एपीआई के पास निर्माणाधीन इमारत में ले गया. वहीं पर उस ने कोल्ड ड्रिंक में कीटनाशक मिला कर शिशुपाल को पिला दी, जिसे पीने के कुछ ही देर में शिशुपाल की मौत हो गई. सोहनवीर ने शिशुपाल की लाश इमारत के पास वाले सीवर नाले में डाल दी और घर चला गया.
कागजी खानापूर्ति करने के बाद इंसपेक्टर अरविंद कुमार ने सोहनवीर को न्यायालय में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

Yrkkh: मुस्कान-कायरव को भागकर शादी करने की सलाह देगी अक्षरा, आएगा नया ट्विस्ट

टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है को 14 साल हो गए हैं, इस सीरियल में लगातार कई सारे बदलाव देखने को मिल रहा है, सीरियल में दिखाया जा रहा है कि अक्षरा और अभिमन्यु मुस्कान और कायरव के शादी का जिम्मा उठा लिए हैं.

वहीं साथ में अभिनव को मनाने में भी जुट गए हैं, बता दें कि कायरव कसौली आ गया है अब उसके साथ मुस्कान भी वहां पहुंची हुई है, जहां दोनों अपनी शादी के बारे में सोच रहे हैं, वहीं अभिनव कोने में खड़ा रहता है , तभी अक्षरा उन दोनों को समझाती है कि तुम दोनों को भागकर शादी कर लेनी चाहिए.

 

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अभिनव अक्षरा की पूरी बात को सुन लेता है फिर वह सलाह करता है कि अक्षरा ही इन दोनों को भड़का रही है, वहीं कायरव और मुस्कान भागकर शादी करने से मना कर देते हैं, और कायरव की यही बाद अभिनव का दिल जीत लेते हैं,

वहीं सीरियल में आगे देखने को मिलता है कि अक्षरा अभिमन्यु को देखकर स्माइल करती है और दोनों एक रात पहले हुई बात को याद करने लगते हैं, अभिमन्यु अक्षरा को एक आइडिया देता है कि हमें अभिनव के सामने कायरव की छवि को बदलना है. दोनों बात करते हैं कि पहले हमें कायरव और मुस्कान के रिश्ते के बारे में बात करनी होगी परिवार वालों से.

युवा मुसलमान प्रशासनिक सेवाओं में क्यों नहीं आते?

23 मई,2023 को सिविल सर्विसेस एग्जामिनेशन 2022 का रिजल्ट आउट हुआ. पहले 4 स्थानों पर लड़कियों का कब्जा था.7वें स्थान पर कश्मीरी मुसलिम वसीम अहमद भट और इसके बाद पूरी लिस्ट पर नजर दौड़ाई तो मालूम चला कि कुल 933 उम्मीदवारों में सिर्फ 30मुसलिम उम्मीदवार देश की प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हुए हैं.

प्रशासनिक सेवा में चुने गए इन युवाओं में 20 लड़के हैं और 10 लडकियां. आज देश की कुल आबादी में मुसलमानों की तादाद लगभग 14 प्रतिशत है. इसको देखते हुए प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए मुसलिम उम्मीदवारों की यह संख्या बेहद कम है. यानी, कुल उम्मीदवार का सिर्फ 3.45 प्रतिशत. अगर अपनी आबादी के मुताबिक मुसलिम उम्मीदवार इस परीक्षा में कामयाब होते तो उनकी संख्या लगभग 130 होनी चाहिए थी. ऐसा क्यों नहीं हुआ?

भारतीय मुसलिम युवाओं का प्रशासनिक सेवा और सेना में ही नहीं, बल्कि हर सरकारी क्षेत्र में बहुत कम प्रतिनिधित्व है. एमबीबीएस, इंजीनियरिंग, राजनीति, कानून किसी भी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या मुसलिम आबादी के अनुपात में ऐसी नहीं है जिसे अच्छा कहा जा सके. ऐसा नहीं है कि मुसलमान बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में कम आयवर्ग के मुसलमान परिवार भी अब अपने बच्चों को मदरसे में न भेज कर स्कूलों में भेज रहे हैं.

मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं तो वहीं पैसेवाले घरों के युवा अच्छे और महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूलकालेजों में हैं. बावजूद इसके, सरकारी क्षेत्रों में ऊंचे पदों पर उनकी संख्या उंगली पर गिनने लायक है. न सेना में उनकी संख्या दिख रही है और न पुलिस में. आखिर इसकी क्या वजहें हैं?

आत्मविश्वास की कमी

‘सरिता’ ने इसकी पड़ताल की तो कई तरह की वजहें सामने आईं. दिल्ली के कुछ उच्च आयवर्गीय मुसलमानों, जो काफी पढ़ेलिखे हैं, पैसे वाले हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा रहे हैं, में से अधिकांश का कहना है कि चाहे यूपीएससी की परीक्षा हो, केंद्रीय सेवा की हो अथवा सेना या पुलिस में जाने का मौक़ा हो, लिखित परीक्षा तक तो कोई भेदभाव नजर नहीं आता.बच्चे लिखित परीक्षा निकाल भी लेते हैं.मगर इंटरव्यू में या फिटनैस टैस्ट में फेल हो जाते हैं. फिर भी मुसलमानों को कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए. उन्हें प्रशासनिक सेवा में आने के लिए भरपूर मेहनत करनी चाहिए.

एडवोकेट जुल्फिकार रजा कहते हैं, “हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी अधिकारी बनें, राजनेता बनें,  डाक्टर, इंजीनियर बनें, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. इसके पीछे कुछ कारण हैं. कहीं न कहीं मुसलिम बच्चों में आत्मविश्वास की कमी है, मेहनत की कमी है, कहीं उनका घरेलू परिवेश उनको रोकता है तो कहीं यह डर उनके अंदर है कि चाहे जितनी मेहनत कर लें और कितना भी पैसा पढ़ाई पर खर्च कर दें, लिखित परीक्षा भी पास कर लें, मगर इंटरव्यू में बाहर कर दिए जाएंगे.”

लखनऊ बास्केट बौल एसोसिएशन के सीनियर वाइस प्रैसिडैंट नियाज अहमद कहते हैं,“देश में सरकारी नौकरी के लिए आमराय यह है कि यह तो मिलने वाली नहीं है. आम मुसलमान युवा की यह सोच है कि वह कितनी भी मेहनत से पढ़ ले, मांबाप का कितना ही पैसा अपनी पढ़ाई पर लगवा ले, मगर लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब इंटरव्यू होगा तो उसमें उसकी छंटनी हो जाएगी. फिर सरकारी सेवा में जाने की कोशिश ही क्यों करना.”

प्रशासनिक सेवा या अन्य सरकारी विभागों में मुसलिम अधिकारियों-कर्मचारियों की कम संख्या की एक और वजह नियाज अहमद यह बताते हैं कि मुसलमान पढ़ाई और नौकरी को लेकर उतना ज्यादा दृढ संकल्पित और जुझारू नहीं हैजितना ब्राह्मण, क्षत्रिय या कायस्थ हैं. आज ओबीसी और दलित युवा भी प्रशासनिक सेवाओं में आने के लिए खूब मेहनत कर रहे हैं, अपने कोटे का फायदा भी वे उठा रहे हैं ताकि अपनी सामाजिक हैसियत सुधार सकें. मगर मुसलमान लड़का लापरवाह है.

नियाज कहते हैं, “आप किसी पान या चाय की गुमटी पर दस मिनट खड़े होकर देख लें, 90 फ़ीसदी मुसलमान लड़कों के झुंड आपको दिखेंगे. रात 12 बजे भी यहां हंसीठट्ठा चल रहा है. जिंदगी और कैरियर को लेकर गंभीरता नहीं है.’जो होगा देखा जाएगा’ जैसा इनका रवैया है. ऐसा नहीं है कि ये पढ़ नहीं रहे हैं. ये बेशक कालेज के लड़के हैं, मगर कैरियर के प्रति उनमें कोई गंभीरता नहीं है, कोई लक्ष्य तय नहीं है.

“कुछ थोड़ी सी संख्या को छोड़ दें तो उच्च शिक्षा पा रहे ज्यादातर मुसलिम नौजवानों की सोच यह है कि कुछ नहीं होगा तो बाप का बिजनैस संभाल लेंगे या कुछ और कामधंधा कर लेंगे. वे भविष्य को लेकर डांवांडोल हैं.”

मुसलिम भागीदारी रोकने का प्रयास

सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की कम भागीदारी के लिए केंद्रीय स्कूल में शिक्षण कार्य कर रहे सीनियर टीचर अल्ताफ बेग सत्ता को दोष देते हैं. उनका कहना है कि चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या बीजेपी की, दोनों ही राजनीतिक दलों में सलाहकारों और निर्णय लेने वाले पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. मुसलमान युवा की भागीदारी सरकारी नौकरी में ज्यादा न हो सके, इसके लिए इनके द्वारा जगहजगह अघोषित फिल्टर लगा दिए गए हैं. जहांजहां लिखित परीक्षा के बाद इंटरव्यू होते हैं चाहे प्रशासनिक सेवा में हो, सेना में हो या अन्य नौकरियों में, हर जगह यह पहले से तय होता है कि कितने प्रतिशत मुसलमान लिए जाएंगे. ऐसे में शासनप्रशासन या सत्ता में उनकी संख्या कैसे बढ़ सकती है?

अल्ताफ आगे कहते हैं,“आप सीडीएस (सैंट्रल डिफैंस सर्विस) का पिछले 10 साल का डेटा देख लें, उसके रिजल्ट को एनालाइज कर लें, आप देखेंगे कि अगर 100मुसलिम युवा लिखित और फिटनैस टैस्ट में पास हो कर आए हैं तो उनमें से सिर्फ 4 या 5 ही सेना में भरती हुए हैं. मुसलमानों के लिए इस तरह का फ़िल्टर हर जगह लगा हुआ है. वकील से जज बनने वाले मुसलमानों की संख्या और अन्य जाति व धर्म के उम्मीदवारों की संख्या देखें, वहां भी मुसलमान उम्मीदवार का चयन नहीं होता है. जजों के लिए जो रेकमेंडेशन होती हैं वे पंडित, ठाकुर, कायस्थ के लिए तो खूब होती हैंलेकिन मुसलमान को कोई रेकमंड नहीं करता. भले ही वेज्यादा काबिल हों.

“यही हाल बड़े शिक्षा संस्थानों, केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों के टीचर्स के अपौइंटमैंट में भी देखने को मिलता है. केंद्रीय विद्यालयों में तो टीचर्स का अपौइंटमैंट ही नहीं, बच्चों के एडमिशन का भी क्राइटेरिया बना हुआ है. सबसे पहले उन बच्चों के एडमिशन को वरीयता दी जाती है जिनके अभिभावक केंद्र की सरकारी नौकरी में हैं. दूसरे स्तर पर स्टेट गवर्मेंट के तहत नौकरी करने वालों के बच्चों को रखा जाता है. सरकारी नौकरियां ज्यादातर ठाकुरों, ब्राह्मणों, लालाओं के पास हैं तो मुसलमान बच्चों के लिए यहीं फिल्टर लग जाता है.

“चौथे या 5वें स्तर पर उन बच्चों को लिया जाता है जिनके मातापिता बिजनैस में हैं या प्राइवेट नौकरी में हैं. इनके पास इतना पैसा तो होता है कि वे स्कूल की फीस भर सकें मगर इतना ज्यादा नहीं होता कि बच्चों को किसी कंपीटिशन की तैयारी करवाने के लिए भारीभरकम प्राइवेट ट्यूशन फीस भर सकें. इस वर्ग के बच्चे, जिनमें मुसलमान भी होते हैं, पढ़लिख कर अपने खानदानी धंधे में ही लग जाते हैं. बहुतेरे मुसलिम बच्चे 8वीं या 10वीं तक पढ़ाई कर स्कूल छोड़ देते हैं. कुछ तो इससे पहले ही पैसे की तंगी के चलते शिक्षा से दूर हो जाते हैं. यही वजह है कि स्कूल ड्रौपआउट्स में मुसलमानों की संख्या ज्यादा होती है.”

अलगथलग करता प्रशासन

अल्ताफ बेग एक और रहस्योद्घाटन करते हैं. वे बताते हैं कि हर स्कूल में कमजोर वर्ग के बच्चों के एडमिशन के लिए कुछ हिस्सा रिजर्व है.20 फ़ीसदी बच्चे उन्हें कमजोर वर्ग के लेने होते हैं. इन बच्चों का एडमिशन बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड के आधार पर होता है.गांकसबों में जहां प्रधान ही सबका मालिक होता है, अगर वह हिंदू है तो वहां के अधिकांश मुसलमान वाशिंदे अपना बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड नहीं बनवा पाते हैं.

प्रधान उनका कार्ड बनाने में टालमटोल करता है. उनको बारबार दौड़ाता है या पैसे की मांग करता है. जबकि उन हिंदुओं के अंत्योदय कार्ड बन जाते हैं जो स्कौर्पियो से चलते हैं.अंत्योदय कार्ड न होने से, या वोटरकार्ड न होने से इन मुसलमानों के बच्चों को न तो स्कूलों में प्रवेश मिलता है, न सरकारी योजनाओं, जैसे फ्रीशिक्षा या फ्रीस्वास्थ्य सेवा का फायदा उनको प्राप्त होता है. यही वजह है कि गरीब मुसलमान अपने बच्चों की तालीम के लिए मदरसों का रुख करता है जहां दीनी तालीम के साथ वह हिंदी, इंग्लिश, विज्ञान और कंप्यूटर की शिक्षा ले सकता है और साथ ही उसको वहां कुछ खाने को भी मिल जाता है.

मगर बीजेपी की सरकार अब इन मदरसों पर भी गिद्ध नजर गड़ाए बैठी है.ज्यादातर मदरसे बंद कर दिए गए हैं जो आम मुसलमान जनता द्वारा की जा रही चैरिटी पर चल रहे थे. यह समाज के एक बड़े वर्ग को बौद्धिक रूप से दबाए और डराए रखने की बीजेपी की साजिश है. अल्ताफ कहते हैं,““मुसलमानों के लिए कहीं कोई रिजर्वेशन भी नहीं है. दलित और ओबीसी अपने रिजर्वेशन कोटे से सरकारी नौकरियों में जगह पा जाते हैं, मगर मुसलमान पिछड़ जाता है.”

वे आगे कहते हैं,“सरकार के प्राइमरी स्कूलों की हालत कितनी लचर है, यह किसी से छिपा नहीं है. भवन जर्जर हैं, किताबें नहीं हैं, टीचर नहीं हैं. हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल में मुश्किल से 15 बच्चे आते हैं, मगर रजिस्टर में 90 बच्चों के नाम दर्ज हैं. प्रधान की मिलीभगत से यह होता है क्योंकि मिड डे मील के पैसों में, किताबों, यूनिफौर्म, फर्नीचर और भवन के लिए आने वाले सरकारी पैसों में उसका बड़ा हिस्सा होता है. प्राइमरी स्कूलों में मुसलिम बच्चों की संख्या बहुत कम है तो वहीं मुसलिम टीचर भी सिर्फ 3फीसदी हैं.

“आप केंद्रीय जांच एजेंसियों रौ, सीबीआई, ईडी को देख लें, या स्टेट लैवल पर पुलिस विभाग को देख लें, वहां मुसलमानों की संख्या नगण्य है. सेना या रौ में तो पहली और दूसरी पंक्ति में मुसलमान है ही नहीं. उसको वहां तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है. देशभर के पुलिस थानों में सबइंस्पैक्टर लैवल पर भी आप पाएंगे कि अगर एक थाने में 25 का स्टाफ है तो उसमें एक या दो एसआई ही मुसलमान होंगे. कांस्टेबल भरती के लिए तो कोई लिखित परीक्षा भी नहीं होती मगर वहां भी मुसलमान की संख्या बहुत कम है, वहां भी भूमिहार और यादवों की भरमार है, तो क्या मुसलमान लड़का दौड़ भी नहीं पा रहा है? ऐसा नहीं है.

“मुसलिम युवा जिम्मेदारी वाले पद पर न पहुंच सकें या डिसीजनमेकर न बन जाएं, इसके लिए आजादी के बाद से ही एक साजिश के तहत कई स्तरों पर ऐसे फ़िल्टर लगे हैंजिनकी वजह से वह हतोत्साहित हो चुका है. जो मुट्ठीभर मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं, वे तमाम तरह की परेशानियों का सामना करते हैं. उनको दूरदराज ट्रांसफर कर दिया जाता है. उनके प्रमोशन रोके जाते हैं. मुसलमान बढ़ने की कोशिश तो करता है मगर चारों तरफ से दबाव इतना ज्यादा है कि वह हिम्मत हार जाता है. आज कुछ बच्चे अपने जुझारूपन से आगे आए हैं, आईएएस/आईपीएस के लिए सिलैक्ट हुए हैं, यह तारीफ की बात है, लेकिन उनकी इतनी कम तादाद चिंता पैदा करती है.”

छोटे कामों से कमाई

एक नामी स्कूल में फिजिक्स के लैक्चरर सैयद कमर आलम इस विषय में अपनी राय साझा करते हुए इसके लिए पहले मुसलमानों को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, “आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी मुसलमानों में शिक्षा के प्रति चाहत और विवेक की कमी है. यही वजह है कि स्कूलों में उनका एडमिशन रेट कम है. इसके साथ ही मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा छोटे कामों, जैसे मोची का काम, चमड़े का काम, मवेशी पालन, कपड़ा बुनाईसिलाई, बूचड़खाने का काम, बिरयानी शौप, गोश्त के दुकान, साईकिल की  दुकान, मोटर मकैनिक, मजदूरी, किसानी, किराने का काम, जरदोजी का काम, चिकेनकारी, कार्पेट उद्योग, नकली जेवर बनाना, चूड़ी उद्योग, फूल का धंधा, कारपेंटर, बावर्ची, प्लंबर, इलैक्ट्रिक के काम आदि में लगा है. इनके बच्चे प्राइमरी शिक्षा के लिए स्कूल में दाखिला जरूर लेते हैं मगर साथसाथ वे अपने पिता या दूसरे रिश्तेदारों से हाथ का हुनर भी सीखते हैं. या यों कहें कि उनको यह पैतृक हुनर जबरन सिखाया जाता है.

“प्राइमरी की शिक्षा पूरी होते ही वे पिता के साथ उनके धंधे में लग जाते हैं. यह तबका उच्च शिक्षा या सरकारी नौकरी की चाहत ही नहीं रखता और यह मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है. जो बच्चे किसी तरह बाप से जिद कर इंटरमीडिएट तक पहुंचते हैं, वे भी उसके बाद वोकैशनल ट्रेनिंग लेकर रोजगार की ओर बढ़ जाते हैं. इसी वजह से उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुसलिम बच्चों का प्रतिशत बहुत कम है. जिनके आर्थिक हालात थोड़े ठीक हैं और जो उच्च शिक्षा, जैसे बीए, बीएससी, बीकौम या मास्टर्स कर लेते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो किसी कंपीटिशन की तैयारी के लिए ट्यूशन की फीस नहीं दे सकते.अच्छे इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं ले सकते. तो उस दशा में वे कहीं टीचर लग जाते हैं या अपनी कोचिंग क्लास खोल लेते हैं, या किसी प्राइवेट कंपनी में काम शुरू कर देते हैं.

 “मुसलिम समाज की लड़कियों के लिए देश में माईनौरिटी स्कूल-कालेज न के बराबर हैं. धार्मिक और परिवार व समाज के दबाव में जो लड़कियां जवानी की दहलीज पर पहुंचते ही बुर्का पहनने लगती हैं, वे को-एजुकेशन वाले कालेज में खुद को एडजस्ट नहीं कर पातीं. देखा जाता है कि हायर एजुकेशन के लिए दाखिला मिलने के बाद कालेज का माहौल उन्हें रास नहीं आता और वे पढ़ाई ड्रौप कर देती हैं.

“कर्नाटक में जब लड़कियों के हिजाब को लेकर बवाल हुआ तब कितनी ही लड़कियों के घरवालों के दिल में बच्चियों की सेफ्टी को लेकर खौफ बैठ गया होगा. कितने ही लोगों ने अपनी बच्चियों के कालेज जाने पर प्रतिबंध लगा दिया होगा, ये आंकड़े कभी सामने नहीं आएंगे.”

निरंतरता की कमी

कमर आलम कहते हैं कि अधिकांश मुसलिम बच्चे उच्च शिक्षा लेकर जल्दी से जल्दी जौब शुरू करना चाहते हैं ताकि घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकें. उनके लिए अधिकार पाने से ज्यादा जरूरी पैसा कमाना है. फिर यूपीएससी या इसके समकक्ष प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए कम से कम चारपांच साल लगते हैं और बहुत ज्यादा पैसा भी खर्च होता है. इतना समय और पैसा वो इसलिए नहीं देना चाहते क्योंकि उनको सिलैक्शन करने वालों की नीयत पर भी भरोसा नहीं है.

इनके अलावा भी कई कारण हैं, जैसे मोटिवेशन की कमी, निरंतर प्रयास की कमी, आत्मविश्वास की कमी, हीनभावना, शासन सत्ता पर भरोसा न होना भी हैं जो मुसलमान युवा को प्रशासनिक अधिकारी बनने की राह में रोड़ा अटकाते हैं. उक्त सभी बातें यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमानों की कम होती संख्या की वजहें हैं.

लखनऊ के एक नामी इंग्लिश मीडियम स्कूल में बायोलौजी के टीचर आरिफ अली, जो एमएससी-एमएड हैं और कई प्रतियोगी परीक्षाएं दे चुके हैं, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमान बच्चों का चयन न होने के सवाल पर कहते हैं, “यूपीएससी पहले यह बताए कि कितने मुसलिम अभ्यर्थियों ने यूपीएससी का मेन एग्जामिनेशन पास किया और इंटरव्यू तक पहुंचे? और इंटरव्यू में किन कारणों से उनका सिलेक्शन नहीं हुआ?”

फिर अपने सवाल का खुद ही जवाब देते हुए आरिफ कहते हैं, “वे कभी नहीं बताएंगे. उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे मुसलमान बच्चे कंपीटिशन की तैयारी भी करते हैं. परीक्षाएं भी देते हैं और पास भी होते हैं, बस, इंटरव्यू में रह जाते हैं. यह बहुत लंबे समय से मुसलमानों के साथ हो रहा है. इसलिए अब पढ़ालिखा मुसलिम युवा व्यवसाय की ओर मुड़ गया है. बहुतेरे बच्चे हायर स्टडीज के बाद अपने पिता की दुकान चला रहे हैं या पैतृक व्यवसाय संभाल रहे हैं. चौक चले जाइए, चिकनवर्क,ज्वैलरी शौप या खानेपीने का व्यवसाय चलाते जो युवा आपको मिलेंगे, उनसे आप उनकी शिक्षा के बारे में पूछेंगी तो अधिकांश ग्रेजुएट मिलेंगे.

“”बहुतेरों के पास मास्टर्स डिग्री होगी. उनके आगे, बस, एक ही लक्ष्य है वह है पैसा कमाना. और वे कमा रहे हैं. तो बीजेपी अगर यह सोच रही है कि वह मुसलमानों को सरकारी नौकरी में नहीं आने देगी, उन को आर्थिक रूप से कमजोर बना देगी, तो यह उसकी खामखयाली है. बीजेपी और उसके नेता अगर यह सोचते हैं कि मुसलमानों को इग्नोर करके बहुत बड़ा तीर मार रहे हैं तो उनकी यह मानसिकता देश की प्रोडक्टिविटी ही घटाएगी.”

रुखसाना के दोनों लड़के इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा सैकंड डिवीजन में पास कर गए. दोनों जुड़वां हैं. रुखसाना चाहती है कि अब वे 12वीं भी कर लें मगर उनके पति चाहते हैं कि अब दोनों उस बिरयानी-कोरमे की दुकान में उनका हाथ बंटाएं जिस दुकान को वे अकेले बड़ी मेहनत से चला रहे हैं. उनका कहना है कि अभी दोनों लड़के शाम के कुछ घंटे अपनी दुकान को देते हैं. इतनी ही देर में उनको बहुत हलकामहसूस होता है और ग्राहक भी खुशीखुशी खा कर जाता है. अगर दोनों पूरा वक्त दुकान को देने लगेंगे तो उनकी आमदनी बढ़ जाएगी.

मेरे पूछने पर कि क्या आप नहीं चाहते कि वे आगे पढ़ें और किसी सरकारी नौकरी में जाएं या कोई कंपीटिशन निकाल कर अधिकारी बन जाएं. इस पर रफीक हंसते हुए बोले,““क्यों फालतू के ख्वाब दिखा रही हैं. सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का हाल आप जानती हैं. हम न तो इतने पढ़ेलिखे हैं और न हमारे पास इतना पैसा है कि कि अपने बच्चों को बता सकें कि किस परीक्षा की तैयारी करो, कैसे करो, कहां जा कर पढ़ो, किससे पढ़ो. हम अनपढ़ होते हुए जो कामधंधा कर रहे हैं, हमारे बच्चे पढ़लिख कर उसको संभाल लेंगे तो किसी बड़े अधिकारी की महीने की तनख्वाह से ज्यादा ही कमा लेंगे.”

सोच भी एक कारण

यह मानसिकता ज्यादातर मुसलमान अभिभावकों की है. उन्हें व्यवसाय में ज्यादा फायदा नजर आता है और यह सच भी है. एक स्नातक या परास्नातक हिंदू लड़का अगर किसी सरकारी नौकरी में महीने का 40हजार रुपया कमा रहा है तो वहीं बिरयानी का ठेला लगाने वाला मुसलमान लड़का 3 दिनों में 40हजार रुपए बना लेता है.गांवों और कसबों की मुसलिम आबादी के ज्यादातर बच्चे, जो मदरसों में शिक्षा पा रहे हैं और कभी उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते हैं, वे मेहनतमजदूरी के काम में लग जाते हैं, साइकिल पंचर की दुकान खोल ली, दरजी बन गए या इसी तरह के छोटे कहे जाने वाले काम करने लगे, मगर इसमें भी अब अच्छी आमदनी है.

एक बात और ध्यान देने वाली है. कोई मुसलिम लीडर, कोई मौलाना, कोई विचारक अपने आम संबोधन में दीन की बात तो करता है मगर कभी मुसलिम बच्चों की शिक्षा की बात नहीं करता.वे अपनी कौम के लोगों पर इस बात का दबाव नहीं बनाते कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें. यह भी शायद इसी वजह से है क्योंकि वे जानते हैं कि तमाम दबाव और डर के बावजूद मुसलमान कमा-खा रहा है.

 

जल्द सात फेरे लेंगे प्रभास, आदिपुरुष के ट्रेलर पर किया खुलासा

साउथ स्टार प्रभास का नाम सुनते ही लड़कियां बेताब हो जाती हैं, वहीं फैंस हमेशा उनके पर्सनल लाइफ के बारे में जानने के लिए बेताब रहते हैं. इन दिनों प्रभास अपनी फिल्म आदिपुरुष को लेकर चर्चा में बने हुए हैं, प्रभास की यह फिल्म लोगों को काफी ज्यादा पसंद आ रही है.

हाल ही में इस फिल्म का ट्रेलर लॉच हुआ है, जिसे देखकर फैंस काफी ज्यादा एक्साइटेड हैं, इस फिल्म में प्रभास के साथ कृति सेनन नजर आ रही हैं, इस फिल्म की कहानी काफी को लेकर काफी बातें हो रही हैं, कहा जा रहा है कि इस फिल्म की कहानी काफी ज्यादा शानदार है. जिसे देखने के लिए प्रभास के फैंस काफी ज्यादा एक्साइटेड हैं.

 

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जब भी प्रभास से उनकी दिल की बात होती है इस मामले में वह हमेशा चुप ही रहते हैं, हाल ही में प्रभास से पूछा गया है उनकी शादी को लेकर तो ट्रेलर लॉच के दौरान उन्होंने कुछ बाते की जिससे फैंस काफी ज्यादा एक्साइटेड हैं, उन्होंने कहा कि तिरुपति में शादी करुंगा इस बात की खबर मिलते ही फैंस काफी ज्यादा खुश हो गए हैं.

ट्रेलर लॉच के दौरान प्रभास काफी ज्यादा मस्ती के मूड में नजर आ रहे थें, इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा है कि वह हर साल 2 फिल्में जरुर करेंगे. फैंस से इस तरह से बात करते हुए देख फैंस काफी खुश नजर आ रहे हैं.

क्या ‘कवच’ से रोका जा सकता था बालासोर ट्रेन हादसा? आइए जानते हैं कैसे काम करती है यह तकनीक

ओडिशा के बालासोर में हुए भीषण ट्रेन हादसे की गूंज भारत समेत पूरी दुनिया में है. इस हादसे की गिनती इस सदी में सब से बड़े रेल हादसों में हो रही है. इस घटना में अब तक 280 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, साथ ही 900 से ज्यादा लोगों के घायल होने की खबर है. इस के साथ ही आंकड़ों की मानें तो तकरीबन 100 से ज्यादा ऐसे लोग हैं, जिन की पहचान नहीं हो पाई है. वहीं इस हादसे ने कई सवाल भी खड़े कर दिए हैं.

ट्रेन हादसे को ले कर हमलावर विपक्ष

विपक्ष लगातार इस हादसे को ले कर मोदी सरकार पर हमलावर है. इन सब में सब से बड़े सवाल ट्रेन की कवच प्रणाली पर उठ रहे हैं. वही कवच प्रणाली, जिस का कुछ समय पहले रेल मंत्री अश्विणी वैष्णव द्वारा डैमो दिखाया गया था. इस कवच को ले कर रेल मंत्री ने जीरो ट्रेन ऐक्सीडैंट टारगेट करने का दावा किया था. हालांकि इस टैक्नोलौजी को अब तक देश के सभी रेलवे ट्रैक पर जोड़ा नहीं गया है, जिस में से एक हादसे वाली जगह भी थी.

तो चलिए जानते हैं कि यह कवच प्रणाली या रेलवे कवच प्रोटैक्शन सिस्टम क्या है…

कवच प्रोटैक्शन सिस्टम एक औटोमैटिक ट्रेन प्रोटैक्शन सिस्टम है, जिसे भारतीय रेलवे ने आरडीएसओ यानी रिसर्च डिजाइन ऐंड स्टैंडर्ड और्गेनाइजेशन के जरीए बनाया है. इस सिस्टम पर रेलवे ने साल 2012 में काम करना शुरू किया था.

इस सिस्टम को बनाने के पीछे भारतीय रेलवे का उद्देश्य जीरो ट्रेन हादसे का लक्ष्य हासिल करना है. इस सिस्टम का पहला ट्रायल वर्ष 2016 में किया गया था और पिछले साल ही अश्निवी वैष्णव की मौजूदगी में इस का सफल डैमो भी दिखाया गया था.

कवच सिस्टम लागू करने का काम कितना पूरा हुआ

बताया जा रहा है कि जहां पर यह ट्रेन हादसा हुआ, वहां अभी कवच सिस्टम लागू नहीं हुआ था. अगर यह प्रणाली वहां होती तो हादसे को रोका जा सकता था. कवच प्रणाली सब से पहले उन ट्रैक्स पर लगाया जा रहा है, जहां सब से ज्यादा ट्रेन की आवाजाही है. फिलहाल, यह सिस्टम दिल्लीमुंबई और दिल्लीहावड़ा कौरिडोर पर कवच को ले कर काम चल रहा है. हर साल 4,000 से 5,000 किलोमीटर तक इस तकनीक को लागू करने का लक्ष्य है.

कवच प्रणाली से कैसे रुक सकती थी 2 ट्रेनों की टक्कर

बीते दिनों राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए रेल मंत्री ने कहा था कि भारतीय रेलवे दुर्घटना रोकने के लिए एक प्रणाली ‘कवच’ को विकसित किया है, जिस से देशभर में लागू कर ट्रेनों की टक्कर को रोका जा सकता है.

रेलवे के अनुसार, इस तकनीक की मदद से सिगनल जंप करने पर ट्रेन खुद ही रुक जाती है. यह कवच ट्रेन के आमनेसामने आने पर कंट्रोल कर उसे पीछे ले जाता है और इस के जरीए यदि लोको पायलट ब्रेक लगाने में फेल हो जाता है, तो इस प्रणाली से स्वचालित रूप से ब्रेक लग जाते हैं.

कवच के काम करने की प्रक्रिया

कवच एकसाथ कई इलैक्ट्रोनिक डिवाइस का सैट है. इस में रेडियो फ्रीक्वैंसी आइडैंटिफिकेशन डिवाइसेस को ट्रेन, ट्रैक, रेलवे सिगनल सिस्टम और हर स्टेशन पर एक किलोमीटर की दूरी पर इंस्टाल किया जाता है. यह सिस्टम दूसरे कंपोनैंट्स से अल्ट्रा हाई रेडियो फ्रीक्वैंसी के जरीए कम्युनिकेट करता है. जैसे ही कोई ट्रेन सिगनल जंप करती है तो यह ऐक्टिव हो जाता है. इस के बाद सिस्टम लोको पायलट को अलर्ट करता है और ट्रेन के ब्रेक्स का कंट्रोल हासिल कर लेता है. इस के बाद जैसे ही सिस्टम पर दूसरी ट्रेन के पटरी पर होने का अलर्ट आता है, तो वह पहली ट्रेन के मूवमैंट को रोक देता है. इस तकनीक से सिस्टम लगातार ट्रेन को मौनिटर करते हुए इस के सिगनल भेजता रहता है.

अगर आसान शब्दों में कहें, तो अगर 2 ट्रेन एक ही ट्रैक पर एक समय में आ जाती हैं, तो इस टैक्नोलौजी की मदद से दोनों ट्रेनों को एक निश्चित दूरी पर रोका जा सकता है.

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