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शिकायतनामा : भाग 1

देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझा करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियेां से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

‘‘पापा, आज फिर ये जोरजोर से चिल्लाने लगे,’’ अनुष्का ने अपने पति कृष्णा का जिक्र किया.

‘‘क्यों?’’ विश्वनाथ निर्विकार भाव से बोले.

‘‘इसी का जवाब मैं खोज रही हूं.’’ कह कर वह भावुक हो गई.

विश्वनाथ का जी पसीज गया. विश्वनाथ उन पिताओं जैसे नहीं थे जो बेटी का विवाह कर के गंगा नहा लेते थे. वे उन पिताओं सरीखे थे जिन्हें अपनी बेटी का दुख भारी लगता. तनिक सोच कर बोले, “उन की बातों को ज्यादा तवज्जुह मत दिया करो. अपने काम से काम रखो.’’

जब भी अनुष्का का फोन आता वे उसे धैर्य और बरदाश्त करने की सलाह देते. विश्वनाथ की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपनी तरफ से कभी बेटियों को निराश नहीं किया. उन की बात पूरी लगन से सुनते. वे चाहते तो कह सकते थे कि यह तुम दोनों का आपसी मामला है. बारबार फोन कर के मुझे परेशान मत किया करो. ज्यादातर पिताओं की यही भूमिका होती है. बेटियों की शादी कर दिया तो अपने बेटाबहू में रम गए.

विश्वनाथ की 3 बेटियां थीं और एक बेटा. उन्होंने बेटाबेटियों में कोई फर्क नहीं किया. अमूमन लोग बेटियों को बोझ समझते हैं. इस के विपरीत विश्वनाथ को लगता, उन की बेटियां ही उन की ताकत हैं. उन की पत्नी कौशल्या की सोच उन से इतर थी. उन्हें अपना बेटा ही हीरा लगता. वे बेटियों को जबतब कोसती रहतीं. विश्वनाथ को बुरा लगता. इसी बात पर तूतूमैंमैं शुरू हो जाती.

विश्वनाथ का जीवन अभावपूर्ण था. बड़े संघर्षो से गुजर कर उन्होंने अपनी औलादों को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि वे अपने पैरों पर खडे हो गए. बड़ी बेटी की शादी से वे खुश नहीं थे क्योंकि दामाद का कामधाम कोई खास नहीं था. वे अच्छी तरह जानते थे कि उन की कामाऊ बेटी की बदौलत ही गृहस्थी की गाड़ी चलेगी. उन की मजबूरी थी. कहां से अच्छे वर के लिए दहेज ले आते? बेटी की शक्लसूरत कोई खास नहीं थी. हां, पढ़ने में तेज जरूर थी. पहली से निबटे तो दूसरी अनुष्का आ गई. सब बेटियों में 2 से 3 साल का फर्क था. अनुष्का देखनेसुनने के साथ पढ़ने में भी होशियार थी. उस ने साफसाफ कह दिया कि वह किसी भी सूरत में प्राइवेट नौकरी वाले लडके से शादी नहीं करेगी. सब चिंता में पड गए. कहां से लड़का ढूंढें.

ऐसे में उन के बड़े दामाद ने कृष्णा का जिक्र किया. वह सरकारी नौकरी में था. देखने में ठीकठाक था. रही पढ़ाई, तो वह अनुष्का की तुलना में औसत दर्जे का था तो भी क्या? सरकारी नौकरी थी. जिस आर्थिक अनिश्चितता के दौर से विश्वनाथ का परिवार गुजरा, उस से तो मुक्ति मिलेगी. यही सब सोच कर विश्वनाथ इस रिश्ते के लिए अपने दामाद की मनुहार करने लगे. साथसाथ, उन्होंने अपनी तीसरी बेटी के लिए भी सरकारी नौकरी वाले वर से करने का मन बना लिया.

लड़के को अनुष्का पसंद आ गई. दहेज पर मामला रुका, तो विश्वनाथ ने साफसाफ कह दिया कि उन की औकात ज्यादाकुछ देने की नहीं है. सांवले रंग के कृष्णा को जब गोरीचिट्टी अनुष्का मिली तो वह न न कर सका. इस के पहले उस ने काफी लड़कियां देखीं. किसी की पढ़ाई पसंद आती तो रूपरंग मनमाफिक न मिलता. रूपरंग होता तो पढ़ाई साधारण रहती. यहां सब था. नहीं था तो दहेज की रकम. कृष्णा को लगा अब अगर और छानबीन में लगा रहेगा तो उम्र निकल जाएगी, ढंग की लड़की न मिलेगी. लिहाजा, उसे भी गरज थी. शादी संपन्न हो गई.

अनुष्का फूले नहीं समा रही थी. उस ने जो चाहा वह मिल गया. बिना आर्थिक किचकिच के जिंदगी आसानी से कटेगी. शादी होते ही वह जयपुर घूमने निकल गई. बड़ी बहन लतिका को तकलीफ हुई. वह सोचने लगी, आज उस का भी पति ऐसी ही नौकरी में होता तो वह भी वैवाहिक जीवन की इस प्रथम पायदान पर चढ़ कर जिदगी का लुफ्त उठाती.

दोनों के विवाह का शुरुआती दौर बिना किसी शिकवाशिकायत के कटा. अनुष्का इस रिश्ते से निहाल थी. वहीं कृष्णा को लगा, उस ने जैसा चाहा उसे मिल गया. इस बीच, वह एक बेटे की मां बनी.

कृष्णा में एक खामी थी. उसे रुपए से बहुत मोह था. घरगृहस्थी के लिए खर्च करने में कोई कोताही नहीं बरतता तो भी बिना मेहनत के धन ही मिल जाए तो हर्ज ही क्या है. इसी लालच में उस ने अपना काफी रुपया शेयर में लगा दिया. अनुष्का ने एकाध बार टोका. मगर कृष्णा ने नजरअंदाज कर दिया.

एक दिन तो हद हो गई, कहने लगा, ‘‘मेरा रुपया है, जहां भी खर्च करूं.’’

कृष्णा को ऐसे तेवर में देख कर अनुष्का सहम गई. एकाएक उस के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज कर दिया. उस का मन खिन्न हो गया. मारे खुन्नस कृष्णा से बोली नहीं. कृष्णा की आदत थी, जल्द ही सामान्य हो जाता. वहीं अनुष्का के लिए आसान न था. चूंकि यह पहला अवसर था, इसलिए अनुष्का ने भी अपनी तरफ से भूलना मुनासिब समझा. मगर कब तक. जल्द ही उसे लगा कि कृष्णा अपने मन के हैं, उन्हें समझाना आसान नहीं. इस बीच, शेयर के भाव बुरी तरह से नीचे आ गए और उस के लाखों रुपए डूब गए. सो, अनुष्का को कहने का मौका मिल गया.

15 अगस्त स्पेशल : स्वदेश के परदेसी

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15 अगस्त स्पेशल : “शहीद भगत सिंह के विचार और नास्तिक बनने की वजह”

देश आजादी के 76 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. आज भी गाहेबगाहे चाहेअनचाहे भगत सिंह की प्रासंगिकता सामने आ ही जाती है. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के मौके पर भी उन्हें याद किया जाता है. उन पर बनी फिल्मों के गीत सुनाए जाते हैं. सो, उन्हें याद करने व उन के प्रति सम्मान व्यक्त करने के अनेक कार्यक्रम किए जाते हैं – कुछ सरकारी, कुछ अर्धसरकारी और कुछ गैरसरकारी.

इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान भगत सिंह के स्वरूप और धर्म को ले कर चर्चाएं भी होती रहती हैं. कुछ उन के केशधारी स्वरूप को आगे लाने की कोशिश करते दिखेंगे तो दूसरे उन के हैटधारी स्वरूप को. जब उन के नाम पर सिक्का या टिकट जारी करने की बात चली तब भी यही विवाद उठा था.

सांप्रदायीकरण और विवाद

प्रश्न पैदा होता है कि ऐसा सब क्यों? इस का सीधासादा उत्तर तो यही है कि जब कुछ लोग शहीद का सांप्रदायीकरण करने का प्रयास करते हैं तो दूसरे उस का विरोध करते हैं. इस से विवाद का उपजना स्वाभाविक ही है.

भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ, यह निर्विवाद है. परंतु वह परिवार विचारधारा की दृष्टि से आर्यसमाजी था. यह बात स्वयं भगत सिंह ने लिखी है. परंतु बाद में भगत सिंह आर्यसमाजी के स्थान पर बुद्घिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा के हो गए और उन के लिए सिख या आर्यसमाजी होना बेमाने हो गया. यह उन की सच्ची महानता थी.

वे यदि महान हैं तो इसलिए नहीं कि वे कभी केशधारी थे. वे इसलिए भी महान नहीं हैं कि वे कभी आर्यसमाजी विचारधारा के पक्षधर थे. उन की महानता उन की उस स्पष्टमानवी, बुद्घिवादी और वैज्ञानिक विचारधारा में निहित है, जिस पर वे जीवन के अंतिम क्षणों तक चले और अटल बने रहे.

भगत सिंह जब जेल में बंद थे और उन के केस का फैसला आने वाला था, तभी उन्हें मालूम पड़ चुका था कि अंगरेज सरकार उन्हें जीवित छोड़ने वाली नहीं. उन्होंने 5 और 6 अक्तूबर, 1930 को एक लेख के रूप में अपनी विचारधारा को अंगरेजी में लिपिबद्घ किया, जो 27 सिंतबर, 1931 को लाहौर से प्रकाशित होने वाले ‘द पीपल’ में ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक से छपा था. ध्यान रहे 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी थी.

लेख में भगत सिंह ने इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया है कि मैं नास्तिक क्यों हूं. अपने बारे में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘मेरे दादा, जिन के प्रभाव में मेरा पालनपोषण हुआ, कट्टर आर्यसमाजी हैं… मैं लाहौर के डीएवी स्कूल में सुबह और शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी घंटों गायत्री मंत्र जपता रहा… आगे चल कर मैं अपने पिता के साथ रहने लगा… वे उदारवादी हैं… अब, मैं बिना कटेछंटे दाढ़ी और केश रखने लगा था, मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों व सिद्घांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया. फिर भी ईश्वर के अस्तित्व में मेरी पक्की आस्था थी.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 457)

भगत सिंह जब क्रांतिकारी दल में शामिल हुए तो अनेक क्रांतिकारी नेताओं से उन का संपर्क हुआ. वे लिखते हैं, ‘‘मैं पहलेपहल जिस नेता के संपर्क में आया, वह ईश्वर को मानता तो नहीं था लेकिन उस के अस्तित्व को नकारने का साहस भी उस में नहीं था. जब मैं उस से ईश्वर के बारे में लगातार प्रश्न करता तो वह कह दिया करता था ‘जब तुम्हारा मन करे, प्रार्थना कर लिया करो.’ ’’

इस के बाद भगत सिंह शचींद्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए, जो आस्तिक थे. उन्होंने अपनी एकमात्र किताब ‘बंदीजीवन’ के पहले पृष्ठ से ही ईश्वर की महिमा का जबरदस्त गुणगान किया है.

भगत सिंह लिखते हैं कि काकोरी कांड के चारों विख्यात शहीदों ने अपना अंतिम दिन प्रार्थनाएं करते हुए बिताया था. रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे. समाजवाद और साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषदों और गीता के श्लोकों का पाठ करने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके. उन लोगों में मैं ने सिर्फ एक आदमी ऐसा देखा जो कभी प्र्रार्थना नहीं करता था, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस वह भी कभी नहीं जुटा सका.

वे लिखते हैं कि ऐसे में जब आगे चल कर क्रांतिकारी आंदोलन की पूरी जिम्मेदारी मुझे अपने कंधों पर उठाने का मौका मिला तो मेरे दिमाग के हर कोने-अंतरे से एक ही आवाज रहरह कर उठती ‘अध्ययन करो, स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो’, ‘अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो.’

आतंकवाद से मुंह मोड़ा

भगत सिंह के शब्दों में, ‘‘मैं ने अध्ययन करना शुरू किया. उस से मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. केवल हिंसात्मक उपायों में विश्वास करने का रूमानीपन जाता रहा. रहस्यवाद और अंधविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही. यथार्थवाद हमारा मत बन गया.’’

अपने अध्ययन का संक्षिप्त सा परिचय देते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं ने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा सा साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स को पढ़ा और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति करने वाले लेनिन, त्रात्सकी और अन्य लोगों को खूब पढ़ा. ये सब नास्तिक थे. बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ अधूरीसी होने के बावजूद इस विषय का एक रोचक अध्ययन है. बाद में निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मेरे पढ़ने में आई.

‘‘अध्ययन के फलस्वरूप 1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और निमंत्रित करने वाली कथित सर्वशक्तिमान परमसत्ता का अस्तित्व निराधार है. मैं ने अपने अविश्वास के बारे में दूसरों को बता भी दिया था. मित्रों के साथ मैं इस विषय पर बहस करने लगा. मैं घोषितरूप से नास्तिक बन चुका था.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 459).

मई 1927 में भगत सिंह की गिरफ्तारी हुई उस घटना के लिए जिस के लिए वे जिम्मेदार नहीं थे. 1926 के दशहरे के दिन भीड़ पर किसी द्वारा फेंके बम केस में उन्हें धमकाया, फुसलाया गया. सीआईडी के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक मि. न्यूमैन ने उन से कहा, ‘मेरे पास तुम्हें सजा दिलाने और फांसी पर चढ़ाने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं.’

भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं पूरी तरह बेकुसूर था, फिर भी मुझे पता था कि पुलिस चाहे तो मुझे किसी भी केस में फंसा कर सजा दिला सकती है.’’

उन दिनों कुछ पुलिस अफसरों ने भगत सिंह को सुबहशाम दोनों समय नियमपूर्वक प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया. भगत सिंह ने अपने मन में सोचा कि क्या वे सुखशांति के दिनों में ही नास्तिक होने की शेखी बघारते हैं या ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी अपने सिद्घांतों पर अटल रह सकते हैं. वे लिखते हैं, ‘‘बहुत सोचविचार करने के बाद मैं ने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं को ईश्वर में विश्वास करने और उस की प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं कर सकता और मैं ने प्रार्थना नहीं की.’’

आत्मविश्वास बनाम अहंमन्यता

भगत सिंह से उन के साथी कहते रहे कि ईश्वर को न मानना उन की अहंमन्यता है, अहंकार है. साथियों की बात को काटते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘आदमी ईश्वर में बड़ी राहत और दिलासा पा सकता है, जबकि उस (ईश्वर) के बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना होता है और आंधियोंतूफानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है. परीक्षा की ऐसी घडि़यों में अहंमन्यता (वेनिटी) अगर हो भी, तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उस में निरी अहंमन्यता के अलावा और ताकत है.’’

भगत सिंह आगे लिखते हैं, ‘‘सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मुकदमे का फैसला क्या होना है. (जिस दिन भगत सिंह ने यह वाक्य लिखा उस के तीसरे दिन 7 अक्तूबर को उन्हें फांसी की सजा हो गई थी.) हफ्तेभर में वह सुना भी दिया जाएगा. मेरे लिए इस खयाल के अलावा और क्या राहत हो सकती है कि मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूं. ईश्वर में विश्वास करने वाला हिंदू राजा के रूप में पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मजे लूटने और अपनी मुसीबतों व कुरबानियों के बदले ईनाम हासिल करने के सपने देख सकता है. मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूं?

‘‘मैं जानता हूं कि जब मेरी गरदन में फांसी का फंदा डाल कर मेरे पैरों के नीचे से तख्ते खींचे जाएंगे, सबकुछ समाप्त हो जाएगा. वही मेरा अंतिम क्षण होगा. मेरा, अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूं तो, मेरी आत्मा का, संपूर्ण अंत उसी क्षण हो जाएगा. बाद के लिए कुछ नहीं बचेगा. अगर मुझ में इस दृष्टि से देखने का साहस है तो एक छोटा सा संघर्षमय जीवन ही, जिस का अंत भी कोई शानदार अंत नहीं, अपनेआप में मेरा पुरस्कार होगा. बस, और कुछ नहीं.’’

वे आगे लिखते हैं, ‘‘किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना, इहलोक या कथित परलोक में कोई पुरस्कार पाने की इच्छा के बिना, बिलकुल अनासक्त भाव से मैं ने अपना जीवन आजादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया क्योंकि मैं ऐसा किए बिना रह नहीं सका.’’

अहंमन्यता नहीं, आत्मविश्वास

भगत सिंह के सिद्घांत को अहंमन्यता नहीं कहा जा सकता. यह आत्मविश्वास है. जो लोग इसे अहंमन्यता कहते हैं, उस का कारण दूसरा है. ‘‘आप जब भी लकीर से हट कर चलेंगे, किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करेंगे अथवा किसी नायक या महान व्यक्ति की आलोचना करेंगे तो आप के तर्कों से पराजित व मजबूर हो कर लोग आप को अहंकारी कह कर आप का मजाक उड़ाएंगे. इस का कारण मानसिक जड़ता है,’’ भगत सिंह लिखते हैं.

क्रांतिकारी के गुण

क्रांतिकारी में, भगत सिंह के अनुसार, 2 गुण अनिवार्य होते हैं- आलोचना और स्वतंत्र चिंतन. उन के अनुसार, ‘‘क्रांतिकारी यह नहीं मानता कि महात्माजी महान हैं, सो किसी को उन की आलोचना नहीं करनी चाहिए. चूंकि वे पहुंचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ भी कह देंगे, वह सही ही होगा, आप सहमत हों या न हों, आप को कहना ही होगा कि यही सत्य है. यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जा सकती.’’

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘इसी तरह ईश्वर में विश्वास है. हमारे पूर्वजों ने किसी परमसत्ता में, ईश्वर में, विश्वास बना लिया था. उस के विरोध में जब तर्क दिया जाता तो उस का जवाब देने में अपने को असमर्थ पा कर ईश्वरवादी कभी उस के कोप के कारण आने वाली मुसीबतों का भय दिखाते और कभी उसे तर्क देने वाले को काफिर, गद्दार, नास्तिक आदि कह कर दबाते और कभी उसे अहंकारी, अहंमन्य आदि कह कर उस का मजाक उड़ाते. परंतु यह सब इस बात का प्रमाण था कि ईश्वरवादियों के पास विरोधी तर्कों का न जवाब था और न उन के तर्क विरोधियों को कायल करने वाले थे.’’

यथार्थ का सामना

भगत सिंह जीवन के यथार्थ का सामना बिना किसी नशे के, वह चाहे भक्ति का हो या परलोक में मिलने वाले बताए जाते स्वर्ग या रहस्यवाद आदि का, करने के पक्षधर थे. कई बार संभव है, आदमी फिसल जाए, परंतु यह तो एक अपवाद है और अपवाद को नियम नहीं बनाना चाहिए. इसलिए भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता. मैं यथार्थवादी हूं. मैं अपनी सहजवृत्ति पर विवेक से विजय पाने की कोशिश करता रहा हूं. मैं इस कोशिश में हमेशा कामयाब नहीं रहता हूं. मगर इंसान का फर्ज है कि वह कोशिश करे.’’

प्रगति के लिए आलोचना अनिवार्य

भगत सिंह से पहले के क्रांतिकारी बहुत से मामलों में लकीर के फकीर थे, सिर्फ आजादी के मामले में वे क्रांतिकारी थे. बाकी मामलों में आम आदमी के समान ही दकियानूसी विचार ढोते रहते थे.

सो, भगत सिंह कहते हैं, ‘‘प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उस में अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एकएक बात के हर कोने-अंतरे की विवेककपूर्ण जांचपड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोईर् विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोचविचार के बाद किसी सिद्घांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उस के विश्वास का स्वागत है… मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता है, क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी. यदि विश्वास विवेक की आंच बरदाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जाएगा. यथार्थवादी आदमी को सब से पहले उस विश्वास के ढांचे को पूरी तरह गिरा कर उस की जगह एक नया दर्शन खड़ा करने के लिए जमीन साफ करनी होगी.’’

सकारात्मक कार्य

भगत सिंह कहते हैं कि कई बार पुराने विश्वास की कुछ सामग्री पुनर्निर्माण के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती है यदि वह किसी काम की हो, जैसे भौतिकवादी दृष्टि या आलोचनात्मक दृष्टि के लिए प्राचीन चार्वाक दर्शन का कुछ हद तक आज भी उपयोग किया जा सकता है.

हमारा दर्शन

अपने दर्शन का सारांश प्रस्तुत करते हुए भगत सिंह कहते हैं कि हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव की सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समूचे प्रगतिशील आंदोलन का लक्ष्य है. उसे चलाने वाली कोई चेतनाशक्ति उस के पीछे नहीं है. यही हमारा दर्शन है.

क्यों नहीं है?

भगत सिंह ईश्वर नामक चेतनाशक्ति के अस्तित्व से इनकार करते हैं तो अकारण नहीं. वे अपने कारण प्रस्तुत करते हैं, अपने तर्क पेश करते हैं और अपने प्रश्न उठाते हैं, जिन के आज तक किसी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिए हैं.

ईश्वरवादियों से प्रश्न

भगत सिंह ईश्वरवादियों से कहते हैं कि यदि आप के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है तो उस ने ऐसी दुनिया क्यों बनाई, जिस में तमाम दुख हैं, तकलीफें हैं, त्रासदियों का एक अनंत व निरंतर सिलसिला है और एक भी प्राणी पूरी तरह संतुष्ट नहीं?

वे कहते हैं कि आप यह मत कहना कि ईश्वर नियम का बंधा है, क्योंकि यदि उसे नियम का बंधा कहोगे तो फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं रहेगा. तब तो वह हमजैसा ही एक गुलाम है.

शाश्वत नीरो

भगत सिंह कहते हैं कि यह भी मत कहना कि यह उस की लीला है, जिस में उसे आनंद आता है. वेदांत में उस की लीला की ही बात की जाती है. इसीलिए तो रामलीला और कृष्णलीला हैं परंतु भगत सिंह कहते हैं, ‘‘नीरो ने तो एक ही रोम को जलाया था, उस ने तो थोड़े से ही लोगों की जानें ली थीं, फिर भी इतिहास में उस की जगह कहां है? इतिहासकार उसे किस नाम से याद करते हैं? उस पर दुनियाभर की नफरतभरी लानतें बरसाईर् जाती हैं. अत्याचारी, हृदयहीन और दुष्ट नीरो की भर्त्सना करते हुए पृष्ठ पर पृष्ठ गालियों से भरी कटु निंदाओं से काले किए गए हैं.

‘‘एक चंगेजखां था, जिस ने हत्या का आनंद लेने के लिए कुछ हजार लोगों की जानें ली थीं और हम उस के नाम तक से नफरत करते हैं.

‘‘तब आप अपने सर्वशक्तिमान, शाश्वत नीरो को उचित कैसे ठहराएंगे जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य त्रासदियों को जन्म देता रहा है और आज भी दे रहा है? कैसे आप उस के इन कुकृत्यों का समर्थन करेंगे, जो प्रतिक्षण चंगेजखां के दुष्कृत्यों को मात करते हैं.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 464).

भगत सिंह आगे कहते हैं, ‘‘मैं पूछता हूं उस ने यह दुनिया बनाई ही क्यों, जो साक्षात नरक है, अनंत और तलख बेचैनी का घर है? उस कथित सर्वशक्तिमान ने मनुष्य की सृष्टि क्यों की जबकि उस के पास ऐसी सृष्टि न करने की शक्ति थी? इस सब का औचित्य क्या है?’’

परलोक का तर्क या ग्लैडिएटरों का?

ईश्वरवादी कहा करते हैं कि जो निर्दोष यहां उत्पीडि़त होते हैं, उन्हें परलोक में पुरस्कार मिलता है और जो यहां कुकर्म करते हैं, वे परलोक में दंडित होते हैं.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप उस आदमी को कहां तक सही ठहराएंगे जो बाद में मुलायम और आरामदेह मरहम लगाने के लिए आप के शरीर को जख्मों से छलनी कर दे?’’ वे ग्लैडिएटरों का उदाहरण दे कर पूछते हैं, ‘‘ग्लैडिएटरों की संस्था के समर्थक और प्रबंधक, जो पहले तो लोगों को भूखे और कु्रद्घ शेरों के सामने फेंक देते थे और बाद में अगर वे लोग जिंदा बच जाते तो उन की बड़ी अच्छी तरह देखभाल करते थे, कहां तक सही थे? इसीलिए मैं पूछता हूं कि उस कथित चेतन परमसत्ता ने इस दुनिया की और उस में भी मनुष्य की सृष्टि क्यों की? अपने मजे के लिए? तो फिर उस में और नीरो में क्या फर्क है?’’

ईसाइयों और मुसलमानों से

भगत सिंह ईसाइयों और मुसलमानों को संबोधित कर के कहते हैं कि आप के पास उपरोक्त प्रश्न का क्या उत्तर है? आप तो हिंदुओं की तरह यह तर्क भी नहीं दे सकते कि प्रत्यक्षरूप से निर्दोष लोग इसलिए दुख पा रहे हैं कि इन्होंने पिछले जन्म में बुरे कर्म किए थे, क्योंकि आप लोग तो पूर्वजन्म में विश्वास ही नहीं करते.

वे कहते हैं, ‘‘मैं आप ईसाइयों और मुसलमानों से पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिमान ने 6 दिनों तक शब्द के द्वारा इस दुनिया को बनाने की मेहनत क्यों की और क्यों प्रतिदिन यह कहा कि ‘सब ठीक है.’

‘‘आज उसे बुलाइए, उसे पिछला इतिहास दिखाइए, उस से कहिए कि वह वर्तमान स्थिति का अध्ययन करे. देखें तब वह कैसे कहता है कि ‘सब ठीक है.’

‘‘जेलों की कालकोठरियों, गंदी बस्तियों और झुग्गीझोंपडि़यों में भूखे मरते लाखों लोगों, शोषित और जरूरतमंदों में बांटने के बजाय अतिरिक्त उत्पादन को समुद्र में फेंक देने जैसे कार्यों से ले कर नरकंकालों की नींव पर खड़े किए गए शाही महलों तक हर चीज उसे दिखाइए और जरा उस से कहलवाइए कि ‘सब ठीक है.’

‘‘यह सब क्यों और कहां से आया? यह है मेरा सवाल.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 465).

पूर्वज चालाक थे

भगत सिंह हिंदुओं से कहते हैं, ‘‘अच्छा, हिंदुओ, आप कहते हैं कि जो लोग आज दुख पा रहे हैं, वे पूर्वजन्मों के पापी हैं. ठीक, आप यह भी कहते हैं कि आज के उत्पीड़क लोग पूर्वजन्मों के धर्मात्मा हैं, इसलिए उन के हाथ में सत्ता है.’’

इस पर टिप्पणी करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मानना पड़ेगा कि आप के पूर्वज बड़े चालाक थे. उन्होंने ऐसे सिद्घांत खोज निकालने का प्रयास किया जिन से विवेक और अविश्वास के आधार पर की जाने वाली तमाम कोशिशों को दबा दिया जाए.’’

वे अपराध और दंड की चर्चा करते हुए कहते हैं कि दंड का उद्देश्य या तो बदला लेना हो सकता है या सुधार करना या फिर दंड के भय से लोगों को अपराध करने से रोकना (निवारण).

बदले के लिए दंड देने को आज कोई बुद्घिमान उचित नहीं मानता. भगत सिंह कहते हैं कि निवारण के सिद्घांत का यही हश्र होने वाला है. सो, एकमात्र सुधार का सिद्घांत ही सारवान है जो मानवीय प्रगति के लिए अपरिहार्य है. इस का उद्देश्य है दोषी व्यक्ति को अत्यंत सुयोग्य व शांतिप्रिय बना कर समाज को वापस कर देना.

वे कहते हैं, ‘‘अब अगर हम सभी मनुष्यों को अपराधी मान भी लें तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी जाने वाली सजा कैसी है? मैं पूछता हूं, इस का मनुष्य पर कौन सा सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है? आप को ऐसे कितने लोग मिले जो कहते हों कि पाप करने के कारण पिछले जन्म में वे गधा बने थे? एक भी नहीं. अपने पुराणों के उद्घरण रहने दीजिए. आप की पौराणिक कहानियों के लिए मेरे पास फुरसत नहीं है.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

गरीबी : सजा या पाप?

ईश्वरवादियों से भगत सिंह कहते हैं, ‘‘दुनिया में सब से बड़ा पाप गरीब होना है. परंतु आप के अनुसार, यह लोगों को ईश्वर द्वारा दी गई सजा है. मैं पूछता हूं कि आप उस अपराधविज्ञानी को, उस विधिवेत्ता या विधायक को कैसे उचित ठहराएंगे जो आदमी के लिए ऐसी सजाएं सुझाए व तजवीज करे जो उसे अनिवार्यतया और ज्यादा अपराध करने के लिए मजबूर करने वाली हों? गरीबी में पड़ा व्यक्ति तो और भी अपराध करने को विवश होता है. क्या आप के ईश्वर ने इस चीज पर गौर नहीं किया? या, उसे भी ऐसी बातें अनुभव से सीखनी पड़ती है?’’

विषय को स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘‘किसी गरीब, अनपढ़, अछूत परिवार में पैदा होने वाले आदमी की नियति क्या होगी? वह गरीब है, इसलिए पढ़लिख नहीं सकता. उस के इर्दगिर्द के लोग अपने को श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे तथाकथित ऊंची जातियों जन्में हैं, वे उसे अछूत मान कर अलगथलग रखते हैं.

‘‘उस का अज्ञान, उस की गरीबी और उस के साथ किया जाने वाला बरताव उसे समाज के प्रति कठोर हृदय बना देगा. अब वह यदि कोई पाप करता है, तो उस की सजा कौन भुगतेगा? ईश्वर या वह स्वयं या समाज के ज्ञानवान लोग?’’

भगत सिंह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘‘घमंडी और स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जानबूझ कर अज्ञानी बना कर रखे गए उन लोगों की सजा के बारे में आप क्या कहते हैं जिन्हें आप के पवित्र ज्ञानग्रंथों, अर्थात वेदों, की कुछ पंक्तियां सुन लेने का दंड अपने कानों में पिघले हुए गरम रांगे (सीसे) की धार झेल कर भरना पड़ता था? उन का अगर कोई अपराध था भी तो उस के लिए जिम्मेदार कौन था और उस का परिणाम किस को भुगतना चाहिए था.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

अमरता का सिद्घांत : लूट का लाइसैंस

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्घांत का विशेषाधिकारप्राप्त लोगों के मनगढं़त सिद्घांत हैं. इन सिद्घांतों द्वारा वे बलात् थियाई हुई अपनी शक्ति, संपन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं.’’

अपटन सिंक्लैर ने कहीं लिखा है कि आदमी को अमरता में विश्वास करने वाला बना दो, फिर उस की चाहे सारी धनसंपत्ति लूट लो, वह उफ तक नहीं करेगा. यही नहीं, वह अपने को लूटने में खुद आप की मदद करेगा. धार्मिक उपदेशकों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों और इन सिद्घांतों का निर्माण हुआ है.

ईश्वर : बुराई से रोकता क्यों नहीं?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं आप से पूछता हूं कि आदमी जब पाप या अपराध करना चाहता है, तब आप का सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं? उस के लिए तो यह बहुत आसान होना चाहिए, फिर उस ने जंगबाजों को मार कर या उन के भीतर के युद्घोन्माद को मार कर मानवता को विश्वयुद्घ की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया? वह अंगरेजों के मन में कोई ऐसी भावना क्यों पैदा नहीं कर देता कि वे भारत को आजाद कर दें?’’

(ध्यान रहे ये बातें 1930 में लिखी गई हैं.)

शक्ति ईश्वर में नहीं, तोपों और फौजों में है

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप गोलमाल तर्क देना बंद कीजिए. वे नहीं चलेंगे. अंगरेजों का शासन यहां इसलिए नहीं है कि यह कथित ईश्वर की इच्छा है, बल्कि इसलिए है कि उन के पास ताकत है और हम उन का विरोध नहीं करते. वे ईश्वर की सहायता से नहीं, बल्कि तोपों, बंदूकों, बमों, गोलियों, पुलिस व फौज की सहायता से तथा हमारी उदासीनता के चलते हमें गुलाम बनाए हुए हैं. और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का निर्लज्ज शोषण करने का सब से घृणित पाप समाज के विरुद्घ सफलतापूर्वक करते चले जा रहे हैं.’’

इस के बाद भगतसिंह निष्कर्ष स्वरूप पूछते हैं, ‘‘कहां है ईश्वर? क्या कर रहा है वह? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखोंकष्टों का मजा ले रहा है? तब तो वह नीरो है, चंगेजखां है, उस का नाश हो.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 467).

दुनिया व इंसान कहां से आए

यदि तुम मुझ से पूछते हो कि यदि ईश्वर नहीं है तो यह दुनिया व इंसान कहां से आए, तो मैं तुम्हें बताता हूं, तो चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर प्रकाश डालने की कोशिश की है. उस का अध्ययन कीजिए. निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ पढि़ए. (अब और बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं, यथा गुणाकर मूले कृत ‘ब्रह्मांड परिचय’, हाकिंज कृत ‘समय का इतिहास’, प्रगति प्रकाशन, मास्को की ‘मानव जाति की उत्पत्ति’ आदि). इन के अध्ययन से आप के सवाल का जवाब मिल जाएगा.

यह दुनिया बनना एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न नीहारिका से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई. कब? यह जानने के लिए इतिहास देखिए. इसी प्रकार जीवधारी उत्पन्न हुए और उन में से ही एक लंबे अरसे बाद मनुष्य का विकास हुआ. (ध्यान रहे, विकास हुआ, उत्पत्ति नहीं हुई.) डार्विन की पुस्तक ‘जीवों की उत्पत्ति’ (अब यह हिंदी में भी उपलब्ध है) पढि़ए.

आप का दूसरा तर्क कि जन्म से ही अंधे या लंगड़े पैदा होने वाले बच्चे यदि पूर्वजन्म के कर्मों के कारण ऐसे नहीं हैं, तो किस कारण से ऐसे हैं?

भगत सिंह कहते हैं कि इस विषय में मेरा उत्तर है कि जीवविज्ञानी इस की व्याख्या कर चुके हैं कि यह एक जीव वैज्ञानिक घटना है, न कि ईश्वरीय या कार्मिक. उन के अनुसार, इस के लिए बहुत बार मातापिता उत्तरदायी होते हैं, जो तरहतरह के नशे करते हैं या दवाइयां खाते हैं या दूसरे कई तरह के उलटेसीधे काम करते हैं चाहे वे गर्भावस्था में ही बच्चे में हो जाने वाली विकृतियों को जन्म देने वाले अपने कार्यों के प्रति सचेत हों या न हों.

ईश्वर नहीं तो विश्वास कैसे जन्मा?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप पूछ सकते हैं कि यदि ईश्वर था ही नहीं तो लोग उस में विश्वास कैसे करने लग गए?’’ उत्तर में वे कहते हैं, ‘‘इस बचकाना प्रश्न के उत्तर में मैं संक्षेप में यही कहूंगा कि जिस तरह लोग भूतों और प्रेतात्माओं में विश्वास करने लगे, उसी तरह ईश्वर में विश्वास करने लगे, फर्क सिर्फ यह है कि भूतों आदि की अपेक्षा ईश्वर में विश्वास सर्वव्यापी है और इस का दर्शन बहुत विकसित है. पर चीज एक ही है.’’

ईश्वर : शोषकों की चालबाजी?

कई लोग यह कहा करते हैं कि ईश्वर की उत्पत्ति उन शोषकों की चालबाजी से हुई है जो एक परमसत्ता के अस्तित्व का प्रचार कर के और फिर उस से प्राप्त होने वाली सत्ता व विशेषाधिकारों का दावा कर के लोगों को गुलाम बनाना चाहते थे.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं यह नहीं मानता कि ईश्वर को उन्हीं लोगों ने पैदा किया, चाहे मैं इस मूल बात से सहमत हूं कि सभी विश्वास, धर्म, मत और इस प्रकार की अन्य संस्थाएं आखिरकार दमनकारी तथा शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों की समर्थक बन कर ही रहीं. राजा के विरुद्घ विद्रोह करना हर धर्म के मुताबिक पाप रहा है.’’

नास्तिक : आत्मविश्वास व दृढ़ता

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘ईश्वर में विश्वास के विरुद्घ उसी तरह संघर्ष करना होगा जिस तरह मूर्तिपूजा और धार्मिक संकीर्णताओं के विरुद्घ किया गया है. जब मानव अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, वह आदिम युग के इस अवशेष ईश्वर में विश्वास को छोड़ देगा, उसे अपनी आस्तिकता को झटक कर फेंक देना पड़ेगा. तब परिस्थितियां चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें उसे उन का मुकाबला दृढ़ता के साथ करना पड़ेगा. मेरी हालत ठीक इसी तरह की है.’’

प्रेरणास्रोत नास्तिक

वे आगे कहते हैं, ‘‘मेरे दोस्तो, यह मेरी अहंमन्यता नहीं है. यह मेरे सोचने का तरीका है, जिस ने मुझे नास्तिक बना दिया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज प्रार्थना करने से, जिसे मैं आदमी का सब से स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूं, मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती.’’

‘‘मैं ने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया. उन्हीं की तरह मैं भी यह कोशिश कर रहा हूं कि आखिर तक, फांसी के तख्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊंचा किए खड़ा रहूं. देखिए, इस कोशिश में कहां तक कामयाब होता हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 469)

आस्तिकता : स्वार्थ व पस्तहिम्मती

भगत सिंह कहते हैं कि एक मित्र ने उन से प्रार्थना करने के लिए कहा था. लेकिन जब उसे पता चला कि मैं नास्तिक हूं तो उस ने कहा, ‘अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैं ने उत्तर में कहा, ‘नहीं जनाब, यह नहीं होगा. मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती का काम समझूंगा. स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज नहीं करूंगा.’

अंत में भगत सिंह कहते हैं, ‘‘पाठकों और मित्रो, क्या यह अहंमन्यता है? अगर है, तो मैं इस का हामी हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज पृ. 469)

इतिहास गवाह है कि भगत सिंहको जब फांसी पर लटकाने के लिए जेल के अधिकारी व संतरी गए तो वे कालकोठरी में लेनिन के बारे में एक किताब पढ़ रहे थे.

वीरेंद्र सिंधू ने अपनी पुस्तक में उस समय का जो चित्र, संतरी के कहे के अनुसार, चित्रित किया है, वह कुछ इस प्रकार है : भगत सिंह अपने मित्र व वकील प्राणनाथ मेहता से मंगवाईर् लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे जब दरवाजा खुला. दहलीज पर अफसर खड़ा था.

‘‘सरदारजी,’’ उस ने कहा, ‘‘फांसी लगाने का हुक्म आ गया है. तैयार हो जाइए.’’

भगत सिंह के दाएं हाथ में किताब थी. उस से नजरें उठाए बिना ही उन्होंने बायां हाथ उठा कर कहा, ‘‘ठहरिए. यहां एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’’

कुछ पंक्तियां और पढ़ कर उन्होंने किताब एक तरफ रख दी और उठ खड़े हुए तथा बोले, ‘‘चलिए.’’

इस तरह के थे भगत सिंह. उन्होंने जिस नास्तिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया, जीवन के अंतिम क्षण तक फांसी के फंदे को चूमने तक उस पर दृढ़ रहे. न कोई पूजा, न पाठ, बल्कि उन क्षणों में एकदूसरे नास्तिक व्यक्तित्व लेनिन की पुस्तक का अध्ययन किया.

जो लोग आज भगत सिंह के समागमों क अवसर पर धार्मिक पाखंड करते हैं, वे दरअसल उस शहीद का घोर अपमान करते हैं. यदि हमें भगत सिंह के प्रति जरा भी लगाव है, उन के प्रति हमारे अंदर यदि जरा भी सम्मान है, तो हमें उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना होगा जो उन का अपना असली स्वरूप है. यदि उन के विचार हम में से किसी को अच्छे नहीं लगते, तो उसे उन्हें पूजने, उन के समागम करने की क्या विवशता है? हमें उन्हें अपनी इच्छा या पसंद के अनुरूप विकृत करने का, उन का कार्टून बनाने का कोई अधिकार नहीं है.

भगत सिंह तभी तक भगत सिंह  हैं जब हम उन की कथनी और करनी को एकसाथ उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस क दर्शन उन के लेख और कालकोठरी के अंदर के उन के जीवन में पाते हैं. यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम उन की पैरोडी बनाने का जघन्य कुकृत्य कर रहे होंगे, जो एक अक्षम्य अपराध होगा.

सशक्त प्रेरणास्रोत

आज 21वीं शताब्दी में जब भारत, धर्म के नाम पर पाखंड के साथसाथ आतंकवाद की मार भी झेल रहा है, दूरदर्शन के विभिन्न चैनल जब धर्म के नाम पर हर तरह की संकीर्णता, अंधविश्वास, क्रूरता और अवैज्ञानिकता को निरंतर परोस रहे हैं, चारों ओर भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और उत्तरदायित्वहीनता का बोलबाला है, धर्म के अनेक स्वयंभू ठेकेदारों व धर्मध्वजियों के घिनौने चेहरों पर से परदा उठ रहा है और युवा पीढ़ी राजनीतिबाजों व धर्म के धंधेबाजों से निराश व हताश हो कर उद्देश्यहीनता के चौराहे पर पहुंच गई है.

तब, आशा है कि शहीद ए आजम भगत सिंह के ये विचार व उन का बलिदान उसे वैज्ञानिक विचारधारा अपनाने, देश के लिए निस्वार्थभाव से कुछ कर गुजरने और अपना दायित्व पहचानने के लिए सशक्त प्रेरणास्रोत सिद्घ होंगे.

तुम्हारे हिस्से में : भाग 1

बाइक ‘साउथ सिटी’ मौल के सामने आ कर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन में रोमांच से गुदगुदी हुई. मौल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेशद्वार. द्वार के दोनों ओर जटायु के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चारदीवारी. चारदीवारी पर फ्रेस्को शैली के भित्तिचित्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की नुमाइश करते बड़ेबड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शोकेस. सबकुछ इतना अचरजकारी कि देख कर आंखें बरबस फटी की फटी रह जाएं.

भीतर बड़ा सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़ेबड़े शोरूम. बीच में थोड़ीथोड़ी दूर पर आगतों को मासूमियत के संग अपनी हथेलियों पर ले कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने के लिए तत्पर एस्केलेटर.

‘‘कैसा लग रहा है, जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता. शादी के पहले संजना मायके में ‘संजू’ थी. शादी के बाद हर्ष उसे बांहों में भरते हुए ठुनका था, ‘संजू कैसा देहाती शब्द लगता है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सबकुछ ग्लोबल होना चाहिए, नाम भी. इसलिए आज से मैं तुम्हें जेन कहूंगा, माय जेन फोंडा.’

‘‘अद्भुत,’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया, ‘‘लगता है, पेरिस का मिनी संस्करण ही उतर आया हो यहां.’’

‘‘एक बात जान लो. यहां हर चीज की कीमत बाहर के स्टोरों की तुलना में दोगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.

संजना खिलखिला कर हंस पड़ी तो लगा जैसे छोटीछोटी घंटियां खनखना उठी हों. होंठों की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों से दांत चमक उठे. वह शरारत से आंखें नचाती बोली, ‘‘कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मौल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’

‘‘लगता है, इस क्रैडिट कार्ड का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज,’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रैडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा. संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उस की हंसी में रातरानी सी महक घुली थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक महीन लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई.

‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो बिल्कुल नहीं होती,’’ होंठों पर लोटते लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुसकराया.

‘‘न, ऐसा नहीं कह सकते तुम. उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे इस क्रैडिट कार्ड पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की पौलिश भी लगा दूंगी. ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल…’’

दोनों एस्केलेटर की ओर बढ़ गए.

‘‘जानते हो हर्ष, पड़ोस के 402 नंबर वाले गुप्ताजी तुम से जूनियर हैं न? उन की मिसेज इसी मौल से खरीदारी कर गई हैं कल,’’ संजना हाथ नचानचा कर बता रही थी, ‘‘आज मैं खबर लूंगी उन की.’’

‘‘नारीसुलभ डाह,’’ हर्ष ने चुटकी ली.

‘‘नहीं, केवल स्टेटस सिंबल,’’ दोनों की आंखों में दुबके शरारत के नन्हे चूजे पंचम स्वर में चींचीं कर रहे थे.

पहली मंजिल. मौल का सब से मशहूर शोरूम ‘अप्सरा’. दोनों शोरूम के भीतर चले आए. अंदर का माहौल तेज रोशनी से जगमगा रहा था. चारों ओर बड़ीबड़ी शैल्फें. वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय ब्रांड. फैशन व डिजाइनों के नवीनतम संग्रह. जीवंत से दिखने वाले पुतले खड़े थे, तरहतरह के डिजाइनर कपड़ों को प्रदर्शित करते हुए.

शोरूम का विनम्र व कुशल सेल्समैन उन्हें खास काउंटर पर ले आया. साडि़यां, जींसटौप, पैंटशर्ट, अंडरगार्मेंट्स…रंगों के अद्भुत शेड्स. एक से बढ़ कर एक कसीदाकारी की नवीनतम बानगी. मनपसंद को चुन लेने की प्रक्रिया 3 घंटे तक चली. आखिरकार चुने हुए वस्त्र ढेर से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद हो कर आ गए. पेमेंट काउंटर पर बिल पेश हुआ, 18,500 रुपए का. क्रैडिट कार्ड पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया.

संजना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलक रहे थे. पैकेटों को चमगादड़ की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव थम गए.

‘‘दीवाली के इस मौके पर जींसटौप का एक सैट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा, हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पा कर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’

एक नन्ही परी : भाग 1

विनीता कठघरे में खड़े राम नरेश को गौर से देख रही थीं पर उन्हें याद नहीं आ रहा था कि इसे कहां देखा है. साफ रंग, बाल खिचड़ी और भोले चेहरे पर उम्र की थकान थी. साथ ही, चेहरे पर उदासी की लकीरें थीं. वह उन के चैंबर में अपराधी की हैसियत से खड़ा था. वह आत्मविश्वासविहीन था. लग रहा था जैसे उसे दुनिया से कोई मतलब ही नहीं. वह जैसे अपना बचाव करना ही नहीं चाहता था. कंधे झुके थे. शरीर कमजोर था. वह एक गरीब और निरीह व्यक्ति था. लगता था जैसे बिना सुने और समझे हर गुनाह कुबूल कर रहा था. ऐसा अपराधी उन्होंने आज तक नहीं देखा था. उस की पथराई आंखों में अजीब सा सूनापन था, जैसे वे निर्जीव हों.

लगता था वह जानबूझ कर मौत की ओर कदम बढ़ा रहा था. जज साहिबा को लग रहा था, यह इंसान इतना निरीह है कि यह किसी का कातिल नहीं हो सकता. क्या इसे किसी ने झूठे केस में फंसा दिया है या पैसों के लालच में झूठी गवाही दे रहा है? नीचे के कोर्ट से उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी. आखिरी अपील के समय अभियुक्त के शहर का नाम देख कर उन्होंने उसे बुलवा लिया था और चैंबर में बात कर जानना चाहा था कि वह है कौन.

विनीता ने जज बनने के समय मन ही मन निर्णय किया था कि कभी किसी निर्दोष या लाचार को सजा नहीं होने देंगी. झूठी गवाही से उन्हें सख्त नफरत थी. अगर राम नरेश का व्यवहार ऐसा न होता तो शायद जज साहिबा ने उस पर ध्यान भी न दिया होता. दिनभर में न जाने कितने केस निबटाने होते हैं. ढेरों जजों, अपराधियों, गवाहों और वकीलों की भीड़ में उन का समय कटता था. पर ऐसा दयनीय कातिल नहीं देखा था. कातिलों की आंखों में दिखने वाला पश्चाताप या आक्रोश कुछ भी तो नजर नहीं आ रहा था. विनीता अतीत को टटोलने लगीं. आखिर कौन है यह? कुछ याद नहीं आ रहा था.

विनीता शहर की जानीमानी सम्माननीय हस्ती थीं. गोरा रंग, छोटी पर सुडौल नासिका, ऊंचा कद, बड़ीबड़ी आंखें और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व वाली विनीता अपने सही और निर्भीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बालों ने उन्हें और प्रभावशाली बना दिया था. उन की चमकदार आंखें एक नजर में ही अपराधी को पहचान जाती थीं. उन के न्यायप्रिय फैसलों की चर्चा होती रहती थी.

पुरुषों के एकछत्र कोर्ट में अपना कैरियर बनाने में उन्हें बहुत तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा था. सब से पहला युद्ध तो उन्हें अपने परिवार से लड़ना पड़ा था. विनीता के जेहन में बरसों पुरानी बातें याद आने लगीं…

घर में सभी प्यार से उसे विनी बुलाते थे. उस की वकालत करने की बात सुन कर घर में तो भूचाल आ गया. मां और बाबूजी से नाराजगी की उम्मीद थी, पर उसे अपने बड़े भाई की नाराजगी अजीब लगी. उन्हें पूरी आशा थी कि महिलाओं के हितों की बड़ीबड़ी बातें करने वाले भैया तो उस का साथ जरूर देंगे. पर उन्होंने ही सब से ज्यादा हंगामा मचाया था.

तब विनी को हैरानी हुई जब उम्र से लड़ती बूढ़ी दादी ने उस का साथ दिया. दादी उसे बड़े प्यार से नन्ही परीबुलाती थीं. विनी रात में दादी के पास ही सोती थी. अकसर दादी कहानियां सुनाती थीं. उस रात दादी ने कहानी तो नहीं सुनाई पर गुरुमंत्र जरूर दिया. दादी ने रात के अंधेरे में विनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘मेरी नन्ही परी, तू शिवाजी की तरह गरम भोजन बीच थाल से खाने की कोशिश कर रही है. जब भोजन बहुत गरम हो तो किनारे से फूंकफूंक कर खाना चाहिए. तू सभी को पहले अपनी एलएलबी की पढ़ाई के लिए राजी कर, न कि अपनी वकालत के लिए. मैं कामना करती हूं, तेरी इच्छा जरूर पूरी हो.

विनी ने लाड़ से दादी के गले में बांहें डाल दीं. फिर उस ने दादी से पूछा, ‘दादी, तुम इतनी मौडर्न कैसे हो गईं?’

दादी रोज सोते समय अपने नकली दांतों को पानी के कटोरे में रख देती थीं. तब उन के गाल बिलकुल पिचक जाते थे और चेहरा झुर्रियों से भर जाता था. विनी ने देखा दादी की झुर्रियों भरे चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आईं और वे बोल पड़ीं, ‘बिटिया, औरतों के साथ बड़ा अन्याय होता है. तू उन के साथ न्याय करेगी, यह मुझे पता है. जज बन कर तेरे हाथों में परियों वाली जादू की छड़ी भी तो आ जाएगी न.

अपनी अनपढ़ दादी की ज्ञानभरी बातें सुन कर विनी हैरान थी. दादी के दिए गुरुमंत्र पर अमल करते हुए विनी ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली. तब उसे लगा, अब तो मंजिल करीब है. पर तभी न जाने कहां से एक नई मुसीबत सामने आ गई. बाबूजी के पुराने मित्र शरण काका ने आ कर खबर दी. उन के किसी रिश्तेदार का पुत्र शहर में ऊंचे पद पर तबादला हो कर आया है. क्वार्टर मिलने तक उन के पास ही रह रहा है. होनहार लड़का है. परिवार भी अच्छा है. विनी के विवाह के लिए बड़ा उपयुक्त वर है. उस ने विनी को शरण काका के घर आतेजाते देखा है. बातों से लगता है कि विनी उसे पसंद है. उस के मातापिता भी कुछ दिनों के लिए आने वाले हैं.

शरण काका रोज सुबह एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में धोती थाम कर टहलने निकलते थे. अकसर टहलना पूरा कर उस के घर आ जाते थे. सुबह की चाय के समय उन का आना विनी को हमेशा बड़ा अच्छा लगता था. वे दुनियाभर की कहानियां सुनाते. बहुत सी समझदारी की बातें समझाते. पर आज विनी को उन का आना अखर गया. पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि शादी की बात छेड़ दी. विनी की आंखें भर आईं. तभी शरण काका ने उसे पुकारा, ‘बिटिया, मेरे साथ मेरे घर तक चल. जरा यह तिलकुट का पैकेट घर तक पहुंचा दे. हाथों में बड़ा दर्द रहता है. तेरी मां का दिया यह पैकेट उठाना भी भारी लग रहा है.

बरसों पहले भाईदूज के दिन मां को उदास देख कर उन्होंने बाबूजी से पूछा था. भाई न होने का गम मां को ही नहीं, बल्कि नानानानी को भी था. विनी अकसर सोचती थी कि क्या एक बेटा होना इतना जरूरी है? उस भाईदूज से ही शरण काका ने मां को मुंहबोली बहन बना लिया था. मां भी बहन के रिश्ते को निभातीं, हर तीजत्योहार में उन्हें कुछ न कुछ भेजती रहती थीं. आज का तिलकुट मकर संक्रांति का एडवांस उपहार था. अकसर काका कहते, ‘विनी की शादी में मामा का फर्ज तो मुझे ही निभाना है.

शरण काका और काकी अपनी इकलौती काजल की शादी के बाद जब भी अकेलापन महसूस करते, तब उसे बुला लेते थे. अकसर वे अम्माबाबूजी से कहते, ‘काजल और विनी दोनों मेरी बेटियां हैं.

शरण काका भी अजीब हैं. लोग बेटी के नाम से घबराते हैं और काका का दिल ऐसा है कि दूसरे की बेटी को भी अपना मानते हैं.

15 अगस्त स्पेशल : महिलाओं की जिन्दगी और संविधान

भारत को अंग्रेजों से आजाद हुए 76 साल बीत चुके हैं. आजाद होने के बाद देश में संविधान लागू हुआ. संविधान ने देश के नागरिकों को अधिकार दिए, लेकिन हाशिऐ पर पड़े उन वर्गों को ख़ास स्थान दिया जिन्हें लम्बे समय से सताया गया. इन्हीं में आधी आबादी यानी महिलाओं की रही. संविधान नामक इस एक किताब ने 76 सालों में कैसे उलट-पलट दी है भारतीय महिलाओं की दुनिया, क्या आपको मालूम है ?

  • महिलाओं को माता-पिता और ससुराल दोनों ही तरफ के संयुक्त परिवार की संपत्तियों में हिस्सेदारी का अधिकार है.
  • तलाक के बाद या तलाक की प्रक्रिया के दौरान कोई आदमी अपनी औरत को घर से निकाल नहीं सकता उसे खुद निकलना पड़ेगा.
  • बिना किसी महिला कांस्टेबल के कोई पुरुष पुलिस अधिकारी महिला को गिरफ्तार नहीं कर सकता.
  • सूर्यास्त के बाद हिंदुस्तान में किसी महिला को कोई पुलिसवाला गिरफ्तार नहीं कर सकता.
  • किसी महिला की जांच य तलाशी पुलिस उसके निवास पर ही कर सकती है.
  • एक बलात्कार पीड़िता अपनी पसंद के स्थान पर ही अपना बयान रिकौर्ड कर सकती है.
  • सभी महिलाएं मुफ्त कानूनी सहायता का लाभ लेने की हकदार हैं.
  • संविधान हक़ देता है कि बालिग चाहे जिसे भी अपना लाइफ पार्टनर चुन सकती है.

जी हां,ये सब सच है और यह उस किताब के जरिये संभव हुआ है जिसे भारत का संविधान कहते हैं.देश की आजादी के पहले तक आजादी पर पुरुषों का विशेषाधिकार था. लेकिन 26 जनवरी 1950 को जब भारत ने नया संविधान स्वीकार किया तो एक झटके में चीजें बदल गयीं.  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-18 में सभी को बराबर का नागरिक अधिकार दिया गया.इसलिए अगर कहा जाय कि भारतीय संविधान नामक एक किताब ने भारतीय महिलाओं की दुनिया को पिछले 76 सालों में बदल कर रख दिया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक की कुप्रथा को अवैध घोषित किया तो उसके पीछे भी संविधान की ताकत थी और 2019 में इस पर भारत की संसद की मुहर लगी तो यह भी संविधान की ताकत से ही संभव हुआ.इसी क्रम में हाल के सालों में महिलाओं को शनि शिंगणापुर (महाराष्ट्र), सबरीमाला (केरल) व हाजी अली (मुंबई) जैसे मंदिरों व मजारों के गर्भगृहों तक जाने की आजादी मिली है तो उसमें भी निर्णायक भूमिका संविधान की ही रही है.क्योंकि भारतीय संविधान अनुच्छेद 15 व 25 बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं.

वास्तव में मौजूदा संविधान के पहले भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत चिंताजनक थी.उन्हें अपने तनावपूर्ण विवाह से निकलने के लिए तलाक़ का अधिकार नहीं था. अगर किसी सूरत से वह अलग भी हो जाए तो बच्चों की कस्टडी उसे नहीं मिलती थी.उसका पति अनेक पत्नियां रख सकता था, जबकि उसे सम्पत्ति में उत्तराधिकार हक़ तक नहीं मिलता था. घरेलू हिंसा से बचने के लिए उसके पास कोई रक्षा कवच नहीं था. लेकिन आज संविधान की बदौलत वह खराब विवाह से निकलकर तलाक़ ले नया जीवन शुरू कर सकती है. हालांकि बच्चों की कस्टडी व गार्जियनशिप के संदर्भ में अब भी कानूनी झुकाव पिता की ओर ही है, लेकिन अब अदालतें माँ को कस्टडी मामलों में प्राथमिकता देने लगी हैं.

हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 ने बहुपत्नी विवाह पर रोक लगा दी तो इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन समुदायों के पर्सनल कानूनों (जैसे मुस्लिम) में बहुपत्नी विवाह का अब भी प्रावधान है, उनमें भी एक से अधिक पत्नी रखने की प्रथा पर रोक लगी. साल 2006 में लागू हुआ महिला घरेलू हिंसा निरोधक कानून-2005 न केवल महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षित रखता है बल्कि इसमें यह अनुमान भी है कि बच्चों की कस्टडी मामले में मां को प्राथमिकता दी जाए,आज महिलाओं को मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम 2017 के तहत 12 से 26 सप्ताह तक का सवेतन अवकाश हासिल है,जबकि एक दौर वह भी था कि महिलाओं को या तो काम पर रखा नहीं जाता था या उनसे सुनिश्चित करवा लिया जाता था कि वे एम्प्लायर की इजाजत के बिना गर्भवती नहीं होंगी. अगर महिलाएं होती थीं तो उन्हें बिना किसी हिचक के नौकरी से निकाल दिया जाता था.

आज मुंबई ,बंगलुरु जैसे शहरों में महिलाओं को वर्क फ्राम होम की जो सुविधा हासिल है या कार्यस्थल पर क्रेच की जो सुविधा हासिल हुई  है, उसमें भी संविधान का बहुत निर्णायक योगदान रहा है. भारतीय संविधान  कामकाजी महिलाओं को काम और पारिवारिक जीवन को संतुलित करने के लिए सुविधा प्रदान करता है. महिलाओं के कार्यस्थलों को उनके अनुकूल बनाने में भी संविधान का ही निर्णायक योगदान है.कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के पहले भारतीय दफ्तर महिलाओं के लिए काफी हिंसक और संवेदनहीन थे.कुछ क़ानून भी थे तो उनका इंटरप्रिटेसन सही नहीं था.तब संविधान ने नए कानून में इसका विस्तृत खाका खींचा.

यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में जब यौन उत्पीड़न को विस्तृत परिभाषा में बांधा गया ,कहा गया कि यौन उत्पीड़न का मतलब होता है शारीरिक संपर्क और उसके आगे जाना, या यौन उत्पीड़न की मांग या अनुरोध, या यौन से संबंधित टिप्पणियां  या अश्लीलता दिखाना या यौन प्रकृति के किसी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक, गैर-मौखिक आचरण को. यह उत्पीड़न करने वाला चाहे वह पुरुष मालिक हो या सहयोगी अपराधी माना जाता है.

इस तरह देखें तो आजादी के बाद और आजादी के पहले महिलाओं की स्थिति में आज जो जमीन-आसमान का फर्क दीखता है उसमें संविधान की सबसे बड़ी और निर्णायक भूमिका है.

15 अगस्त स्पेशल : बेटियों के लिए आजादी का महत्व

मैं कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी. वहां 5 से 9-10 साल के बीच की 3 बहनों को देखा, जो अपने पिता के पीछेपीछे चलती हुईं रैक पर सजे सामान को छूतीं और फिर ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ पता चल रहा था कि इन की बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जाएगा जो इन का पिता चाहेगा. पिता धीरगंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. बच्चियों की मां पीछे गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी. वह भी कुछ भी छूने से पहले पति की तरफ देखती थी.

अगलबगल कई और परिवार भी शौपिंग कर रहे थे, जिन की बेटियां अपनी मां को सुझाव दे रही थीं या पिता पूछ रहे थे कि कुछ और लेना है? उन हिजाब संभालती बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख मेरे मन में आ रहा था कि न जाने वे क्या सोच रही होंगी. उन की कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटती रही.

भेदभाव क्यों

इसी तरह देखती हूं कि घरों में लड़के अकसर ज्यादा अच्छे होते हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर बनते हैं, जबकि उसी घर की लड़कियों को बहुत कम पढ़ा कर उन की शादी कर दी जाती है. ऐसा कैसे होता है कि लड़कियां ही कमजोर निकलती हैं उन के भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊंचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने की आजादी ही नहीं होती है, पाने को वह मौका ही नहीं मिलता है, जो उन के पंख पसार उड़ने में सहायक बने.

एक आम धारणा है कि बेटियों को दूसरे

घर जाना है. इसलिए उन्हें दबा कर रखना चाहिए. उन के मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए, क्योंकि कल को जब वे ससुराल जाएंगी तो उन्हें तकलीफ होगी. बचपन से ही उन पर इतनी टोकाटाकी और पाबंदियां लगा दी जाती हैं कि उन का विश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है.

आज भी उन से उम्मीद की जाती है कि वे वही काम करें, वैसा ही करें जो उन की मां, दादी या बूआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण एहसास दिलाया जाता है कि वे लड़कियां हैं और उन्हें इन अधिकारों का हक नहीं है, कहीं अकेले नहीं जा सकती हैं, अपनी पसंद के कपड़े नहीं पहन सकती हैं. उन्हें अपने पिता, भाई की हर बात माननी ही होगी. अपनी पसंद के विषय या खेल चुनना तो दूर की बात है.

ऐसा भी नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. उच्चवर्ग और निम्नवर्ग तो हमेशा पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है, यह सारी पाबंदियां, वर्जनाएं मध्य वर्ग के सिर हैं. शहरी मध्य वर्ग के लोगों की सोच में भी बहुत बदलाव आ चुका है, वे अपनी बेटियों को कम या ज्यादा आजादी दे रहे हैं. पूरी आजादी तो शायद ही अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को मिली हो.

आजादी के माने

आजादी देने का मतलब छोटे कपड़े पहनना, शराब पीना या देर रात बाहर घूमना ही नहीं होता है. आजादी का मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घरबाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उस का ऐसा बौद्घिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता, भाई या पति पर निर्भर न रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों तक ही सीमित न हो, बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वे आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकें.

बेटियों के गुण व रुझान की पहचान कर उन के विकास में सहयोग करना हर मातापिता का फर्ज है. नियम ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जीया जाता है,’ यह बचपन से सीख सके वरना यहां ससुराल और पति के लिए ही किसी बेटी का लालनपालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल या गीता फोगट के मातापिता की होती तो देश कितनी ही प्रतिभाओं के परिचय से भी वंचित रह जाता.

बदलाव थोड़ा पर अच्छा

बेटेबेटियों के लालनपालन का अंतर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वे भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को जाहिर करने लगी हैं. शादी की उम्र भी अब खिंचती दिख रही है. पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी, आज अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच बनने लगी है और इस का असर समाज में दिखने भी लगा है. चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजूमदार आज लड़कियों की रोल मौडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलाव से बेटियों की प्रतिभा भी सामने आने लगी है.

ह्यूमन कैपिटल देश की सब से कीमती संपत्ति है. बेटियों का विकास ही देश को विकसित बनाता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है, तो देश का विकास भी नामुमकिन है. जरूरत है प्रतिभाओं के विकास और उन्हें सही दिशा देने की. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभाओं को खोज उन्हें सामने लाना ही होगा. आजादी से निखरती ये बेटियां घरपरिवार, समाज के साथसाथ खुद और देश को भी विकसित कर रही हैं. अनैतिकता के नाम पर लड़कियों को काबू में रखने की कोशिश न करें. संस्कृति, धर्म और सुरक्षा के नाम पर जो रोकटोक लगाई जा रही है, वह भारी पड़ेगी.

Shailesh Lodha के दावे को Asit Modi ने बताया झूठा! किया बड़ा खुलासा

Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah Controversy : छोटे पर्दे के सबसे चहेते शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ के प्रोड्यूसर असित मोदी (Asit Modi) पिछले कई समय से सुर्खियों में बने हुए हैं.  प्रोड्यूसर के खिलाफ शो के कई कलाकारों ने गलत व्यवहार करने के आरोप लगाए है. इसके अलावा शो में तारक मेहता का किरदार निभाने वाले शैलेश लोढ़ा ने असित मोदी के खिलाफ केस भी दर्ज करवाया था.

वहीं बीते दिनों खबर आई थी कि शैलेश (Shailesh Lodha) कोर्ट में प्रोड्यूसर के खिलाफ केस जीत गए हैं. लेकिन अब इन खबरों पर चुप्पी तोड़ते हुए प्रोड्यूसर असित मोदी ने बड़ा खुलासा किया है.

ट्विटर पर किया खुलासा

आपको बता दें कि, असित मोदी (Asit Modi) ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट ट्विटर पर कोर्ट के पेपर की कुछ तस्वीरें शेयर की है. साथ ही उन्हेंने कैप्शन में लिखा शैलेश लोढ़ा केस जीतने का झूठा दावा कर रहे हैं. आगे उन्होंने लिखा, ‘कोर्ट का आदेश कहता है कि ये मामला आपसी सहमति से सुलझाया गया है.’

असित मोदी ने लगाए तारक मेहता पर आरोप

इसके अलावा मीडिया को दिए इंटरव्यू में भी उन्होंने अपनी बात दोहराई. उन्होंने कहा, ”शैलेश (Shailesh Lodha) ने केस जीतने का झूठा दावा किया है. वह जो ये कह रहे हैं कि वो केस जीते हैं, ये गलत है. क्योंकि कोर्ट का ऑर्डर ये कहता है कि केस आपसी सहमति से सुलझाया गया है.” इसके आगे उन्होंने कहा, ‘गलत जानकारी फैलाने के पीछे वह उनकी मंशा नहीं जान पा रहे हैं. अब यह ही बेहतर होगा कि इसे यहीं खत्म करा जाएं और वो फैक्ट्स को तोड़ना मरोड़ना छोड़ दें.’

असित- शैलेश ने बिना बताए छोड़ा शो

असित मोदी (Asit Modi) यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे कहा, ‘जब कोई आर्टिस्ट शो (Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah) को छोड़ कर जाता है तो उसे कुछ पेपर साइन करने होते हैं. वो सबूत होता है कि उसे शो से रीलिव किया जा रहा है, जिसे हर आर्टिस्ट को मानना ही होता है. लेकिन शैलेश ने वो पेपर साइन करने से भी मना कर दिया था.’ साथ ही उन्होंने कहा, ‘हमने कभी भी किसी को भी पेमेंट देने और औपचारिकताएं पूरी करने से मना नहीं किया था. हमने मिस्टर लोढ़ा से शो छोड़ने की औपचारिकताओं पर बात करने की भी कोशिश की थी. लेकिन उन्होंने प्रोसेस को पूरा नहीं किया बल्कि वो NCLT के पास अपने पेमेंट की बात लेकर चले गए.

वहीं प्रोडक्शन हाउस के प्रोजेक्ट हेड सोहेल रमनानी ने कहा, साल 2022 में हमे शैलेश का एक ईमेल आया था, जिसमें उन्होंने शो छोड़ने की बात लिखी थी और वो उस दिन के बाद से सेट पर नहीं आए.

तारक के अलावा सोढ़ी और बावरी ने भी लगाए थे आरोप

आपको बता दें कि शो (Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah) में तारक मेहता का किरदार निभाने वाले शैलेश लोढ़ा (Shailesh Lodha) ने मेकर्स के खिलाफ उनके बकाया राशि का भुगतान न करने पर मामला दर्ज करवाया था. इसके अलावा शो में रोशन सोढ़ी का किरदार निभाने वाली एक्ट्रेस जेनिफर मिस्त्री ने असित मोदी, कार्यकारी निर्माता जतिन बजाज और प्रोजेक्ट हेड सोहेल रमानी के खिलाफ वर्किंग प्लेस पर यौन दुर्व्यवहार की शिकायत दर्ज करवाई है. वहीं शो में बावरी का रोल निभाने वाली मोनिका भदौरिया ने भी खुलासा किया था कि सेट पर कलाकारों को टॉर्चर किया जाता हैं.

15 अगस्त स्पेशल : औपरेशन, डाक्टर सारांश की कहानी

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मुंहबोला भाई और बौयफ्रैंड : कैसे बैठाएं तालमेल?

रिश्ते बेहद नाजुक डोर से बंधे होते हैं. अगर समझदारी से निभाए जाएं तो ठीक वरना एक गलतफहमी की गांठ इन की नाजुक डोर को उलझा कर रख देती है. ऐसा ही रिश्ता मुंहबोले भाईबहन का भी है. पहले तो यह आसानी से बनता नहीं है और एक बार बन जाए तो संभाल कर रखना भी एक चुनौती होती है.

आज के गैर इमोशनल दौर में तकनीक और मूवऔन का फंडा अपनाने वाली यूथ जनरेशन रिश्तों को ले कर बहुत लापरवाह है. जरा सी बात पर छोटीछोटी नोकझोंक, नादानियों और तकरार से वर्षों के रिश्तों को तोड़ देती है. हालांकि कई बार इन्हीं तकरारों से रिश्ता संवरता भी है. बहरहाल, दिक्कत तब आती है जब लड़की के बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच उचित तालमेल के अभाव में रिश्ते दरकने लगते हैं. आखिर कैसे बैठाएं इन में तालमेल?

गलतफहमी की दीवार

कई बार ऐसा भी होता है कि लड़कियां बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को एकदूसरे से मिलवाती भी नहीं हैं. लिहाजा, जब वे कहीं बौयफ्रैंड को मुंहबोले भाई के साथ या फिर मुंहबोले भाई को बौयफ्रैंड के साथ मौजमस्ती करते या घूमते दिखते हैं तो उन में गलतफहमी पैदा हो जाती है. एक तरफ बौयफ्रैंड को लगता है कि उस की प्रेमिका उसे धोखा दे कर किसी और के साथ घूम रही है, वहीं दूसरी ओर मुंहबोला भाई अपनी बहन के रास्ता भटकने या गलत राह पर जाने की आशंका से घबरा जाता है, इस क्रम में वह या तो अपनी मुंहबोली बहन को डांट देता है या फिर मातापिता से शिकायत कर देता है.

इस तरह एकदूसरे से सही परिचय और रिश्तों में तालमेल न होने के चलते सब के बीच गलतफहमी की दीवार खड़ी हो जाती है. यह दीवार कई बार रिश्तों की नींव तक हिला देती है. इसलिए सब से पहले अपने बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को एकदूसरे से मिलवाएं. इस से दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं पैदा होगी और तालमेल में भी कोई अड़चन नहीं आएगी.

मिक्स न करें व्यवहार

अकसर किशोर इस बात में फर्क करना भूल जाते हैं कि बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के साथ एक ही तरीके से पेश आना तर्कसंगत नहीं है. मान लीजिए आप अपने मुंहबोले भाई से कैरियर या पढ़ाई के बाबत गंभीर बातें करती हैं और बौयफ्रैंड से हंसीमजाक तो जब आप दोनों व्यवहार मिला देंगी यानी गंभीर बातें बौयफ्रैंड से करने लगेंगी और मुंहबोले भाई से हंसीमजाक, तो रिलेशन में पेच आना स्वाभाविक है. हर रिश्ते की अपनी गरिमा होती है जो हमें बरकरार रखनी चाहिए. बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच भी अपने व्यवहार को संयमित और स्पष्ट रख दोनों के बीच आराम से तालमेल बैठा सकती हैं.

आत्मसम्मान को न पहुंचे ठेस

किसी भी रिश्ते की मजबूत इमारत में सैल्फ रिस्पैक्ट यानी आत्मसम्मान की नींव अहम भूमिका निभाती है. इस बुलंद नींव पर ही दो शख्स एकदूसरे से किसी रिश्ते में बंधते हैं. फिर चाहे वह बौयफ्रैंड हो या मुंहबोला भाई. दोनों की अपनी अहमियत है. कभी बौयफ्रैंड को खुश करने के लिए या उसे बड़ा दिखाने के लिए मुंहबोले भाई का मजाक न उड़ाएं. इसी तरह किसी एक को कमतर दिखाने या जलाने के लिए किसी के आत्मसम्मान से न खेलें, उस की व्यक्तिगत कमियों को निशाना बना कर उसे शर्मिंदा करने से बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच अहम और वर्चस्व की लड़ाई पैदा हो जाएगी, जो रिश्तों को अंदर से खोखला कर सकती है.

भले ही आप बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई में से किसी एक को ज्यादा करीब आंकती हों या स्नेह करती हों, इस भावना को अपने अंदर ही रखें, क्योंकि ऐसी बातें जाहिर करने पर किसी के भी स्वाभिमान को चोट पहुंचा सकती हैं और रिश्तों में तालमेल गड़बड़ा सकता है.

दोनों को मिले ईक्वल प्राइवेसी

रिश्ते कभी थोपे नहीं जाते. उन में हमेशा एक स्पेस जरूरी होता है. जिन रिश्तों में उचित प्राइवेसी नहीं मिलती वे जल्दी ही जड़ से उखड़ जाते हैं. बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच में निजता का ध्यान रखना जरूरी है. ऐसा न हो कि आप बौयफ्रैंड के साथ किसी पार्टी में जा रही हैं और वहां अपने मुंहबोले भाई को भी जबरन ले जाना चाहती हैं. हो सकता है उस का साथ जाने का मन न हो या फिर वह आप के और बौयफ्रैंड के साथ कंफर्टेबल फील न करता हो. लिहाजा, उस की प्राइवेसी में दखल न दें. सब को बराबर समय दें. उस की मरजी भी सुनें. अगर कभी बौयफ्रैंड और मुंहबोला भाई अकेले रहने की बात करें तो उन की निजता का उल्लंघन न करें.

ऐसा भी हो सकता है कि बौयफ्रैंड या मुंहबोले भाई को आप से अकेले में कोई बात करनी है तो दोनों के सामने वहीं बात करने की जिद न करें. अगर हर जगह आप की दोनों को साथ रखने की जिद होगी तो पक्का है कि संबंध चटक जाएंगे. इसलिए दोनों के बीच आवश्यक तालमेल और संबंधों में मधुरता बनाए रखने के लिए निजता का सम्मान और ध्यान रखना जरूरी है.

पर्सनल लाइफ और टाइम

बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई की अपनीअपनी प्राथमिकताएं होती हैं. किसी के साथ ज्यादा क्लोज हो सकते हैं, लेकिन एक को ज्यादा खुश रखने के लिए दूसरे को यानी बौयफ्रैंड या मुंहबोले भाई को नजरअंदाज करना उसे चुभ सकता है. होना तो यह चाहिए कि अपनी सूझबूझ से बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को पर्याप्त समय दिया जाए ताकि दोनों से रिश्ता सुचारु रूप से चलता रहे.

परस्पर ईमानदारी व निष्पक्षता

झूठ और सिर्फ एक का ही पक्ष लेने की मानसिकता भी कई बार बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच तकरार का कारण बन जाती है. हो सकता है कि किसी बात को ले कर बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच न बनती हो या स्वभाव में फर्क के चलते भी मनमुटाव की बात हो जाए. ऐसे हालात में अगर आप बौयफ्रैंड की गलती पर उस का पक्ष लेंगी या फिर मुंहबोले भाई को बेवजह बचाने की कोशिश करेंगी तो संबंधों में तालमेल बिगड़ जाएगा. इसलिए जरूरी है कि आप बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच परस्पर ईमानदारी और निष्पक्षता भरा रुख अपनाएं.

सामाजिक नजरिए में

आजकल रिश्ते पुराने समय की तुलना में कहीं ज्यादा सहज हो गए हैं. लड़का और लड़की फ्रैंड के तौर पर तो स्वीकार कर लिए जाते हैं, लेकिन मुंहबोले भाईबहन भी बन सकते हैं ऐसा कोई नहीं मानता. पहले महल्ले या गली में रहने वाले किसी अंकल का बेटा मुंहबोला भाई बन जाया करता था. बदलते वक्त के साथ मुंहबोला भाई बनाने का ट्रैंड अब लगभग खत्म हो चुका है, फिर भी आज बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच समाज आसानी से फर्क नहीं कर पाता, ऐसे में लड़की की जिम्मेदारी है कि दोनों रिश्तों को स्पष्ट और खरा रखे.

कई समाजशास्त्री कहते हैं कि मुंहबोले भाईबहन के रिश्ते को बनाना आसान है, लेकिन इसे निभाना बेहद मुश्किल है. यहां यह कहने का मतलब है कि बौयफ्रैंड का रिश्ता कमजोर है उस को इंपौर्टेंस नहीं देनी. दरअसल, आज जब लोग रिश्तों को सहजता से निभा नहीं पा रहे हैं, तो फिर इस तरह के बनाए हुए रिश्तों की अहमियत और गरिमा को कैसे संभालेंगे? संबंधों में अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सहजता आ गई है. पहले अगर कोई लड़का किसी लड़की से बात करता दिख जाता था, तो उस का उस के साथ अफेयर मान लिया जाता था. कहने का मतलब यह है कि पहले समाज लड़का और लड़की के बीच के रिश्ते को सहजता से नहीं लेता था.

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