देश आजादी के 76 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. आज भी गाहेबगाहे चाहेअनचाहे भगत सिंह की प्रासंगिकता सामने आ ही जाती है. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के मौके पर भी उन्हें याद किया जाता है. उन पर बनी फिल्मों के गीत सुनाए जाते हैं. सो, उन्हें याद करने व उन के प्रति सम्मान व्यक्त करने के अनेक कार्यक्रम किए जाते हैं - कुछ सरकारी, कुछ अर्धसरकारी और कुछ गैरसरकारी.

इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान भगत सिंह के स्वरूप और धर्म को ले कर चर्चाएं भी होती रहती हैं. कुछ उन के केशधारी स्वरूप को आगे लाने की कोशिश करते दिखेंगे तो दूसरे उन के हैटधारी स्वरूप को. जब उन के नाम पर सिक्का या टिकट जारी करने की बात चली तब भी यही विवाद उठा था.

सांप्रदायीकरण और विवाद

प्रश्न पैदा होता है कि ऐसा सब क्यों? इस का सीधासादा उत्तर तो यही है कि जब कुछ लोग शहीद का सांप्रदायीकरण करने का प्रयास करते हैं तो दूसरे उस का विरोध करते हैं. इस से विवाद का उपजना स्वाभाविक ही है.

भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ, यह निर्विवाद है. परंतु वह परिवार विचारधारा की दृष्टि से आर्यसमाजी था. यह बात स्वयं भगत सिंह ने लिखी है. परंतु बाद में भगत सिंह आर्यसमाजी के स्थान पर बुद्घिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा के हो गए और उन के लिए सिख या आर्यसमाजी होना बेमाने हो गया. यह उन की सच्ची महानता थी.

वे यदि महान हैं तो इसलिए नहीं कि वे कभी केशधारी थे. वे इसलिए भी महान नहीं हैं कि वे कभी आर्यसमाजी विचारधारा के पक्षधर थे. उन की महानता उन की उस स्पष्टमानवी, बुद्घिवादी और वैज्ञानिक विचारधारा में निहित है, जिस पर वे जीवन के अंतिम क्षणों तक चले और अटल बने रहे.

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