भारत को अंग्रेजों से आजाद हुए 76 साल बीत चुके हैं. आजाद होने के बाद देश में संविधान लागू हुआ. संविधान ने देश के नागरिकों को अधिकार दिए, लेकिन हाशिऐ पर पड़े उन वर्गों को ख़ास स्थान दिया जिन्हें लम्बे समय से सताया गया. इन्हीं में आधी आबादी यानी महिलाओं की रही. संविधान नामक इस एक किताब ने 76 सालों में कैसे उलट-पलट दी है भारतीय महिलाओं की दुनिया, क्या आपको मालूम है ?
- महिलाओं को माता-पिता और ससुराल दोनों ही तरफ के संयुक्त परिवार की संपत्तियों में हिस्सेदारी का अधिकार है.
- तलाक के बाद या तलाक की प्रक्रिया के दौरान कोई आदमी अपनी औरत को घर से निकाल नहीं सकता उसे खुद निकलना पड़ेगा.
- बिना किसी महिला कांस्टेबल के कोई पुरुष पुलिस अधिकारी महिला को गिरफ्तार नहीं कर सकता.
- सूर्यास्त के बाद हिंदुस्तान में किसी महिला को कोई पुलिसवाला गिरफ्तार नहीं कर सकता.
- किसी महिला की जांच य तलाशी पुलिस उसके निवास पर ही कर सकती है.
- एक बलात्कार पीड़िता अपनी पसंद के स्थान पर ही अपना बयान रिकौर्ड कर सकती है.
- सभी महिलाएं मुफ्त कानूनी सहायता का लाभ लेने की हकदार हैं.
- संविधान हक़ देता है कि बालिग चाहे जिसे भी अपना लाइफ पार्टनर चुन सकती है.
जी हां,ये सब सच है और यह उस किताब के जरिये संभव हुआ है जिसे भारत का संविधान कहते हैं.देश की आजादी के पहले तक आजादी पर पुरुषों का विशेषाधिकार था. लेकिन 26 जनवरी 1950 को जब भारत ने नया संविधान स्वीकार किया तो एक झटके में चीजें बदल गयीं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-18 में सभी को बराबर का नागरिक अधिकार दिया गया.इसलिए अगर कहा जाय कि भारतीय संविधान नामक एक किताब ने भारतीय महिलाओं की दुनिया को पिछले 76 सालों में बदल कर रख दिया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक की कुप्रथा को अवैध घोषित किया तो उसके पीछे भी संविधान की ताकत थी और 2019 में इस पर भारत की संसद की मुहर लगी तो यह भी संविधान की ताकत से ही संभव हुआ.इसी क्रम में हाल के सालों में महिलाओं को शनि शिंगणापुर (महाराष्ट्र), सबरीमाला (केरल) व हाजी अली (मुंबई) जैसे मंदिरों व मजारों के गर्भगृहों तक जाने की आजादी मिली है तो उसमें भी निर्णायक भूमिका संविधान की ही रही है.क्योंकि भारतीय संविधान अनुच्छेद 15 व 25 बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं.
वास्तव में मौजूदा संविधान के पहले भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत चिंताजनक थी.उन्हें अपने तनावपूर्ण विवाह से निकलने के लिए तलाक़ का अधिकार नहीं था. अगर किसी सूरत से वह अलग भी हो जाए तो बच्चों की कस्टडी उसे नहीं मिलती थी.उसका पति अनेक पत्नियां रख सकता था, जबकि उसे सम्पत्ति में उत्तराधिकार हक़ तक नहीं मिलता था. घरेलू हिंसा से बचने के लिए उसके पास कोई रक्षा कवच नहीं था. लेकिन आज संविधान की बदौलत वह खराब विवाह से निकलकर तलाक़ ले नया जीवन शुरू कर सकती है. हालांकि बच्चों की कस्टडी व गार्जियनशिप के संदर्भ में अब भी कानूनी झुकाव पिता की ओर ही है, लेकिन अब अदालतें माँ को कस्टडी मामलों में प्राथमिकता देने लगी हैं.
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 ने बहुपत्नी विवाह पर रोक लगा दी तो इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन समुदायों के पर्सनल कानूनों (जैसे मुस्लिम) में बहुपत्नी विवाह का अब भी प्रावधान है, उनमें भी एक से अधिक पत्नी रखने की प्रथा पर रोक लगी. साल 2006 में लागू हुआ महिला घरेलू हिंसा निरोधक कानून-2005 न केवल महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षित रखता है बल्कि इसमें यह अनुमान भी है कि बच्चों की कस्टडी मामले में मां को प्राथमिकता दी जाए,आज महिलाओं को मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम 2017 के तहत 12 से 26 सप्ताह तक का सवेतन अवकाश हासिल है,जबकि एक दौर वह भी था कि महिलाओं को या तो काम पर रखा नहीं जाता था या उनसे सुनिश्चित करवा लिया जाता था कि वे एम्प्लायर की इजाजत के बिना गर्भवती नहीं होंगी. अगर महिलाएं होती थीं तो उन्हें बिना किसी हिचक के नौकरी से निकाल दिया जाता था.
आज मुंबई ,बंगलुरु जैसे शहरों में महिलाओं को वर्क फ्राम होम की जो सुविधा हासिल है या कार्यस्थल पर क्रेच की जो सुविधा हासिल हुई है, उसमें भी संविधान का बहुत निर्णायक योगदान रहा है. भारतीय संविधान कामकाजी महिलाओं को काम और पारिवारिक जीवन को संतुलित करने के लिए सुविधा प्रदान करता है. महिलाओं के कार्यस्थलों को उनके अनुकूल बनाने में भी संविधान का ही निर्णायक योगदान है.कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के पहले भारतीय दफ्तर महिलाओं के लिए काफी हिंसक और संवेदनहीन थे.कुछ क़ानून भी थे तो उनका इंटरप्रिटेसन सही नहीं था.तब संविधान ने नए कानून में इसका विस्तृत खाका खींचा.
यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में जब यौन उत्पीड़न को विस्तृत परिभाषा में बांधा गया ,कहा गया कि यौन उत्पीड़न का मतलब होता है शारीरिक संपर्क और उसके आगे जाना, या यौन उत्पीड़न की मांग या अनुरोध, या यौन से संबंधित टिप्पणियां या अश्लीलता दिखाना या यौन प्रकृति के किसी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक, गैर-मौखिक आचरण को. यह उत्पीड़न करने वाला चाहे वह पुरुष मालिक हो या सहयोगी अपराधी माना जाता है.
इस तरह देखें तो आजादी के बाद और आजादी के पहले महिलाओं की स्थिति में आज जो जमीन-आसमान का फर्क दीखता है उसमें संविधान की सबसे बड़ी और निर्णायक भूमिका है.