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मां आनंदेश्वरी : भाग 3

“राधे ने शहर से दूर एक चाल में कमरा लिया और दोनों पतिपत्नी की तरह रहने लगे थे. वह दूध का काम करने के साथ एक हलवाई की दुकान में भी काम करने लगा था. वे लोग 3-4 महीने भी नहीं रह पाए थे कि स्वामीजी के आदमी उन लोगों का पता लगा कर आए और उन लोगों को अपने साथ ले गए. वह अपने कमरे में आ कर खुश हो गई थी लेकिन राधे को यहां आना अच्छा नहीं लगा था. उस ने सख्त ताकीद कर दी थी कि तुम स्वामीजी से दूरी बना कर रहना.

“मंदिर के पीछे कई सारे कमरे बने हुए थे जो प्रंबंध कमेटी ने पुजारियों के परिवारों के रहने के लिए बनाए हुए थे. उस के सिवा भी 8-10 कमरे थे जो यात्रियों के लिए बनाए गए थे लेकिन उन सब कमरों में अब स्वामीजी के चहेते रहते थे. गुरु जी की पत्नी भी वहीं पर रहती थीं. उन के कमरे में एसी लगा था, बड़ा टीवी और सारी सुखसुविधाएं थीं.

यह आश्रम बूआ के घर के पास ही था, इसलिए वह वहां पर उसे देख चौंकी थी. लेकिन उस ने इशारे से चुप रहने को कह दिया था.

“राधे, तुम्हारी बहू तो कमरे में ही घुसी रहती है, बाहर आ कर दर्शन तो कर लिया करे.”

जब वह सजधज कर आश्रम में पहुंची, तो स्वामीजी वहीं बाहर ही बैठे हुए थे. ‘आनंदी बहू, यहां पर तुम्हें कोई परेशानी या कुछ जरूरत हो, तो बता देना. राधे तो एकदम लापरवाह है और गैरजिम्मेदार लड़का है.’

“वे स्वयं उठ कर मंदिर में चढे हुए ढेर सारे फल और मिठाई उस की झोली में डाल कर बोले, ‘सब बच्चों को ही मत खिलाना, खुद भी खाना. कितनी कमजोर लग रही हो. मैं राधे से कहूंगा कि मेहरी का बड़ा सुख लेकिन खर्ची का बड़ा दुख.’ उन के चेहरे पर अनोखा तेज देख उस का मन उन के प्रति श्रद्धा से भर उठा था. वह उन के चमकते चेहरे और आकर्षक व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हो गई थी.

“स्वामी जी लगभग 40-45 साल के लंबे चौड़े स्वस्थ गठीले बदन के थे. उन का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था. उन को सुंदरकांड कंठस्थ था. उन्हें संस्कृत के कई सारे श्लोक और मंत्र कंठस्थ थे, जिन्हें अपने मधुर स्वर में गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे. उन के आश्रम में एक बड़ा सा वरांडा था जहां रोज कीर्तनभजन और प्रसाद वितरण होता था. वे समयसमय पर दूसरे कथावाचकों को आमंत्रित करते, जिस के कारण वहां भीड़ के साथसाथ चढ़ावा बढता जा रहा था, जिस पर स्वामीजी अपनी काग दृष्टि लगाए रखते थे.

“वहां एक कोने में उन का धार्मिक कार्य करने का एक छोटा सा कमरा था जहां के लिए यह कहा जाता था कि वे वहां पर ध्यान लगाया करते थे. उस कमरे में उन की आज्ञा के बिना कोई नहीं जा सकता था. वे केवल जोगिया कपड़ा पहनते थे.

“स्वामीजी की पत्नी कादंबरीजी को सब लोग माताजी कहते थे. एक दिन माताजी ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘बिटिया, अपना खाना अलग क्यों बनाती हो? यहां प्रसादी बनता ही है, वहीं पर तुम मदद कर दिया करो और सब लोग यहीं पर प्रसाद ग्रहण कर लिया करो.’ वह बहुत खुश हुई थी और उस ने माताजी के पैर पकड़ लिए थे, ‘आप तो मेरी अम्मा से भी बढ़ कर हैं.’  “सच था कि वहां किचेन में बढ़िया खाना देख कर उसे बहुत लालच आया करती था. अब वह वहां पर मदद करती और फिर ऱाजसी भोजन करती. कुछ दिनों में ही उस का शरीर गदबदा उठा और सौंदर्य निखर उठा था. वह गौर कर रही थी कि वह स्वामीजी की विशेष कृपा का पात्र बनती जा रही थी और उन की नजरें उस का पीछा करती रहती थीं.

“स्वामीजी झाड़फूंक भी करते थे. वे लोगों की परेशानियों का निदान करने के लिए धार्मिक कार्य के साथ अन्य उपाय भी बताया करते थे. वे बच्चों/बड़ों को एक काला डोरा के साथ भभूत, जिसे वे मंत्रसिक्त या सिद्ध कह कर, दिया करते थे. उस के एवज में लोग प्रसन्नतापूर्वक उन्हें दक्षिणा में रुपया आदि दिया करते.

“इस के सिवा आश्रम की व्यवस्था के नाम पर उस के नवनिर्माण के लिए लोगों की औकात व श्रद्धा देखपरख कर स्वामीजी रसीद काट दिया करते थे. वह व्यक्ति श्रद्धा के कारण मजबूरीवश दे दिया करता था. इसी कारण से उन का आश्रम दिनोंदिन विशाल और भव्य होता जा रहा था.

स्वामीजी के प्रति उस का भी श्रद्धाभाव बढता जा रहा था.

“उन के धार्मिक कार्य करने वाले कमरे से खूब सुगंधित धुआं बाहर निकलता था. माताजी बताया करतीं कि उन्हें देवीजी की सिद्धि है. वे प्रसाद में लौंग दिया करते और कपूर, गुगुर लोबान का धुआं या अज्ञारी करवाते.

“उस छोटे से कक्ष में महिलाएं अपनी समस्या ले कर जाया करतीं, उन से वहां पर विशेष कार्य करवाया जाता था. उन से विशेष रूप से चढ़ावा चढ़वाने के बाद उन की समस्या के समाधान हो जाने के लिए विशेष मंत्र जाप करने के लिए भी कहा जाता. वह झांक कर जानने की कोशिश करती कि वहां कुछ गलत काम तो नहीं हो रहा. लेकिन माताजी वहां बाहर बैठ कर निगरानी करतीं, इसलिए वह अंदर क्या होता है, कभी नहीं देख पाई थी. वैसे, यह तो उसे पक्का विश्वास था कि स्वामीजी के कमरे के अंदर अकेली महिला के साथ कुछ अनैतिक कार्य अवश्य किया जाता है. परंतु वह कभी न हीं देख पाई और न ही किसी से भी सुना.

“राधे, स्वामीजी और उन के सब संगीसाथी रात में इकट्ठा हो कर गांजे की चिलम लगाते और भी नशा किया करते थे. नशे का सामान राधे और गुरुजी का विश्वासपात्र अंगद चुपचाप लाया करता था. कई बार माताजी को भी उस ने चिलम लगाते देखा था. राधे ने उसे रात के समय जब सब चिलम से नशा करते, उस समय बाहर निकलने से बिलकुल मना कर दिया था. लेकिन धीरेधीरे राधे नशेड़ची बन कर आश्रम में रहने वाली माला के साथ खुल्लमखुल्ला इश्क लड़ाने लगा था. यहां तक कि वह रातें भी उस के कमरे में गुजारने लगा था.

“राधे एक दिन काम पर गया, फिर वह लौट कर ही नहीं आया. कई दिनों बाद उस की लावारिस लाश मिली थी. क्रौसिंग से जल्दबाजी में ट्रेन के साथ बाइक के साथ घिसटता चला गया था. वह तो बिलकुल बेसहारा हो गई थी. रोतेरोते वह बेहोश हो जाती. उस समय स्वामीजी ने उसे सहारा देते हुए कहा था- ‘राधे नहीं रहा, तो क्या हुआ? मैं तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा.’

“स्वामीजी के सिवा उस के पास कोई सहारा नहीं था. चारों तरफ अंधकार ही अंधकार छाया हुआ था. वह पंखविहीन पक्षी की भांति स्वामीजी के चरणों पर अपना सिर रख सिसक पड़ी थी. स्वामीजी ने दिलासा देते हुए उसे अपना विशेष शिष्य बना लिया. लेकिन उन की वासनाभरी नजरें उस के शरीर के आरपार मानो देख रही थीं. कोई भी स्त्री किसी पुरुष की कामुक निगाहों को पलभर में परख लेती है, फिर, वह तो ऐसी निगाहों के धोखे से कई बार गुजर चुकी थी. अब वह स्वामीजी के सहारे अपने जीवन को नई दिशा दे सकती है, ऐसा वह मन ही मन सोचा करती थी.

“विशेष शिष्य बनने के बाद अब वह स्वामीजी की मंडली के साथ दूसरे गांवगांव सत्संग और कथा में जाने लगी थी. उन की समृद्धि और संपन्नता देख वह गुरुजी के प्रति आकर्षित होती जा रही थी. सार्वजनिक रूप से वह आश्रम की विशेष प्रबंधक कही जाती थी. लेकिन वह जानती थी कि गुरुजी के जीवन में उस का क्या स्थान था. जब वह फौर्चुनर गाड़ी में बैठती तो इस सपने के साथ बैठती कि जल्द ही वह भी ऐसी ही गाड़ी और आश्रम की मालकिन बन कर रहेगी. वह गुरुजी का राजसी ठाटबाट देख वह स्वयं भी मन ही मन उसी तरह की रईसी से रहने की अभिलाषा पाल बैठी थी.

“वह अपनी जद्दोजहेद में लगी हुई थी, इधर बेटी लक्ष्मी 12 वर्ष की हो चुकी थी और स्कूल के नाम पर वह गुरुजी के ही एक चेले मलंग के साथ आंखें लड़ा रही थी. बेटा बलराम सब की नजर बचा कर चिलम के सुट्टे लगाया करता. उस के सामने दोनों इस तरह से कौपीकिताब के पेज पलटते मानो पढ़ाई के सिवा कुछ जानते ही नहीं. वह बच्चों की तरफ से निश्चिंत थी. वे दोनों स्वामीजी से ट्यूशन और हाथ खर्च के लिये रकम लेते रहते. दोनों के पास बड़ेबड़े मोबाइल देख वह खुश होती थी कि उस के बच्चे उस की तरह गरीबी में नहीं बड़े हो रहे हैं.

“अब वह अपने को शातिर समझ कर अपने लिए नई राह बनाने चल पड़ी थी.

“उस का प्रोमोशन हो गया था. माताजी वाला कक्ष उस के लिए आवंटित हो गया था. वह स्वामीजी की मुख्य शिष्या के रूप में जानी जाने लगी थी. परंतु वह जानसमझ रही थी कि वह गुरुजी के लिए एक खिलौने की तरह थी, जब तक चाहेंगे उस के शरीर के साथ अपनी भूख मिटाएंगें, फिर उन को जैसे ही कोई नया शिकार पसंद आया, वह किनारे कर दी जाएगी क्योंकि वह उन की तथाकथित पत्नी का हश्र देख रही थी. उस के देखतेदेखते वे पदच्युत हो कर टूटी टांग के साथ आश्रम के एक छोटे से कोने में आंसू बहाती हुई पर अपने दिन काट रही थीं.

इसलिए कुछ कथाप्रसंगों को उस ने कंठस्थ कर लिया और उसे अकेले में अभ्यास किया करती. चूंकि वह पढ़ना जानती थी, इसलिए वह रोज कथाप्रसंगों को पढ़ती, सुनती और बोलने का अभ्यास करती थी.

“उस ने जब एक दिन मोबाइल पर अपनी आवाज में कथा रिकौर्ड कर के चुपचाप रिकौर्डिंग चला दी तो स्वामीजी सुन कर दंग रह गए. वे नाराज हो कर बोल पड़े, ‘तुम तो जल्दी ही मेरी रोजीरोटी ही बंद करवा दोगी. बंद करो.” उन के चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखाई पड़ रही थीं. वे आगे बोले, ‘अब तुम ऐसी हिम्मत मत करना.’

“स्वामीजी की संपन्नता दिन दूनी रात चौगुनी बढती जा रही थी. वे भागवत कथा सुनाया करते थे. उन के नाम पर लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. उन का अंदाज बहुत चुटीला और संगीत व नृत्य से भरपूर रहता था, जिस में कथा कम होती थी, मनोरंजन ज्यादा होता था. इसीलिए, भीड़ बेतहाशा उमड़ पड़ती थी.

“उन का कथा सुनाने का रेट बढ़ता जा रहा था. बुकिंग करवाते समय उन्हें लंबी रकम मिलती, फिर कथा में लोग श्रद्धा से भरपूर चढ़ावा चढ़ाते. गुरुजी मालामाल होते जा रहे थे. अब उन के पास एक नहीं, दो बड़ी गाड़ियां थीं. वे रेशमी जोगिया कपड़े धारण करने लगे थे. उन के हाथ में महंगी स्मार्ट वाच और बड़ा वाला आइफोन रहने लगा था. उन्होंने विनय नाम के एक पढ़ेलिखे भक्त को मैनेजर बना कर अपौइंट कर लिया था, जो उन की बुकिंग की तारीख तय करता. उन के दर्शन के लिए लोगों की भीड़ लग जाती. उन की सुरक्षा के लिए उन के साथ 2 गनर रहने लगे थे. उन के पास नेताओं का जमावड़ा रहने लगा था.

“उस की रिकौर्डिंग सुनने के बाद उस के सुंदर रूप और मीठे स्वर से स्वामीजी घबराने लगे तो उन्होंने उस के रंगीन कपड़ों पर, साजश्रंगार पर प्रतिबंध लगा कर सफेद साड़ी पहनने के लिए मजबूर कर दिया. वह बहुत रोई थी क्योंकि रंगबिरंगी साड़ियों, विशेषकर चुनरी, में उस की जान बसती थी. मजबूर हो कर उसे अपनी मांग से सिंदूर मिटा कर विधवा का वेष धारण करना पड़ा.  अति तो तब हो गई थी जब उन्होंने उस के लंबे बालों पर कैंची चलवा दी थी. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी. लेकिन वह सबकुछ अपने बच्चों के भविष्य के लिए सह रही थी.

“उस ने मन ही मन योजना बना रखी थी कि जब उस की ख्याति बढ़ जाएगी तो वह कथावाचक बन कर अपना अलग आश्रम बना लेगी. परंतु स्वामीजी के गुप्तचर उस की हर क्रियाकलाप पर नजर रखते थे. उन्होंने उसे आगाह किया था- ‘ज्यादा उड़ने की कोशिश मत करना वरना बरबाद हो जाओगी.’

“वह गुरुजी के साथ बहराइच में भागवत कथा के लिए उन की मंडली के साथ गई हुई थी. वह छोटा शहर था, अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था क्योंकि आयोजनकर्ता ने कथावाचक के पोस्टर में उस की तसवीर भी छपवा रखी थी और वे लगातार पर्चा बांट कर कथा का प्रचार भी कर रहे थे. वह अपनी कथा में व्यस्त थी. लगातार उसे एक महीने तक बाहर रहना पड़ा था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. वह अकसर कथामंडली के साथ गांवगांव जाती रहती थी क्योंकि ग्रामीण श्रद्धापूर्वक कथा सुनते थे और जीभर कर दान भी देते थे.

“अब तो गुरुजी की ख्याति बढ़ती जा रही थी, इसलिअर बड़ेबड़े शहरों में भी लंबे प्रवास के लिए जाना पड़ता था. वह मना तो कर ही नहीं सकती थी क्योंकि वह उन की मंडली के साथसाथ उन के आनंद के लिए वह आवश्यक सामग्री की तरह थी. उन के लिए वह एक पंथ दो काज थी. वह लगभग 2 महीने के व्यस्त कार्यक्रम के बाद कुछ दिनों के लिए ही लौट कर आई थी.

“घर पर बेटी रूपा को न पा कर जब बेटे से पूछा तो वह बोला, ‘वह तो लगभग एक महीने पहले माताजी की आज्ञा से उन के किसी रिश्तेदार के साथ कुछ पढ़ाई करने गई है.’

“वह समझ नहीं पा रही थी कि बेटी रूपा कहां गई. माताजी से पूछा तो वे गोलमोल जवाब दे कर बोलीं, ‘मुझ से कही थी कि वह कल लौट कर आ जाएगी, तो मैं ने हां कर दी थी. वह कहां गई, उन्हें नहीं मालूम.’ इतना कह कर उन्होंने मुंह फेर लिया था.

“स्वामीजी से पूछा तो वे लापरवाही से बोले थे, ‘वह बड़ी हो गई है, अपना भलाबुरा जानती है. तुम नाहक परेशान हो. अपने अगले प्रोग्राम पर ध्यान दो. इस बार तुम्हारे नाम से अलग से बुकिंग ली है, इसलिए अच्छे से अभ्यास करो और कलपरसों से यहां आश्रम में तुम्हें कथा सुनानी होगी.’

“इस अप्रत्याशित घटना ने उस के सारे सपनों को धूलधूसरित कर दिया था. वह रातभर सिसकती रही थी. वह गुस्से के कारण तमतमा उठी थी.

“एक ओर उस का अपना सपना पूरा होने वाला था, वह स्वतंत्ररूप से कथावाचक बन कर मंच पर बैठ कर कथा सुनाने वाली थी, दूसरी ओर जिन बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के जो सपने वह देख रही थी वे सब टूटते दिखाई पड़ रहे थे. लेकिन अपने मन का दर्द कहे भी तो किस से, इस दुनिया में कोई भी तो ऐसा नहीं था जो उस के मन की पीड़ा बांट सके. वह बिलख उठी थी. उसे अपने चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ रहा था. वह समझ तो गई कि माताजी ने उस के साथ बदला लेने के लिए रूपा को कहीं गायब किया है. वह यह भी जान रही थी कि स्वामीजी को भी सबकुछ अवश्य मालूम है. उन्होंने उस के पर काटने के लिए बेटी को अपना हथियार बनाया है.

“स्वामीजी के पैरों पर गिर कर वह घंटों तक सिसकती रही थी, ‘स्वामीजी. मैं आजीवन आप की गुलाम बनी रहूंगी, बस, आप मेरी बेटी रूपा को बुला कर दिखा दीजिए. बेटे रामू को यहां से हटा कर होस्टल में पढ़ने के लिए उस का एडमिशन करवा दीजिए.’

“वे नाराज हो कर बोले, ‘मैं तो बराबर तुम्हारे साथ था. मुझे स्वयं नहीं मालूम. आप माताजी से पूछिए, वे सब बता देंगी.’

“जब स्वामीजी ने माताजी को पुलिस का डर दिखाया तो उन्होंने कबूला, ‘रूपा ने मलंग के साथ शादी कर ली है. वह डर के मारे नहीं आ रही है. वह उन के संपर्क में है.’

“मलंग कथा में कृष्ण का रूप धारण करता था और माताजी का करीबी था. वह लगभग 35 साल का आकर्षक रंगरूप का आदमी था. सब से बड़ी खासीयत उस की चिकनीचुपड़ी, मीठीमीठी बातें… बस, रूपा को उस ने अपनी बातों में ही फंसा लिया होगा, वह अपनी बेबसी पर सिसकती रही थी. माताजी ने उस के साथ खूब बदला लिया था.

“अब वह बेटे को इन सब से दूर करना चाहती थी जहां इस की परछाई भी न पड़े. अभी वह 10 वर्ष का पूरा हुआ था और कक्षा 4 में था. वह पढ़ने के बजाय मोबाइल पर वीडियो देखता या गेम खेलता था. पहले तो वे नाराज हो कर बोले, ‘इस की फीस कौन भरेगा?’

लेकिन जब वह ज्यादा रोईगिड़गिड़ाई तो वे पिघल गए.

“उन के अपना कोई बेटा नहीं था, इसलिए गुरुजी बलराम को अपना बेटा कहा करते थे. उन्होंने किसी भक्त से कह कर तुरंत उस का एक बोर्डिंग स्कूल में एडमिशन करवा दिया. सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि उस के जीवन में इतना कुछ घटित हो चुका है.

‘बोर्डिंग में जाते समय बलराम उस से लिपट कर रोता रहा था. उस की आंखों से भी अश्रुधारा बह निकली थी, यहां तक कि गुरुजी की भी आंखें भीग उठीं तो वे अंदर चले गए थे.

“‘बलराम बेटा, तुम पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े होना.’ आज उस की ममता बिलख उठी थी परंतु वह उस के भविष्य की सुनिश्चितता के लिए सबकुछ सहने को तैयार थी.”

बूआ उस आश्रम में दर्शन करने अकसर जाया करती थीं. आनंदी के चेहरे पर छाई उदासी को देख वे पूछ बैठीं, “आनंदी, आज तुम्हें बहुत दिनों के बाद देख रही हूं. तुम्हारा चेहरा बुझा हुआ दिखाई पड़ रहा है?” उस की आंखें भीग उठी थीं. उस ने आंखों से अपने कमरे की ओर आने का इशारा किया था. वहां सभी लोग उन दोनों के आपसी संबंधों के बारे जानते थे, इसलिए कुछ नया नहीं था. जब वह कमरे में आई तो उन के कंधे पर सिर रख कर पहले खूब रोई, फिर बोली, “दीदी, मैं ने स्वामीजी की शरण ली कि यहां पर मुझे भगवान मिलेंगे और मैं शांति से जी सकूंगी. कम से कम अगला जन्म तो सुधर जाएगा लेकिन दीदी, यहां का जीवन देख कर तो मन वितृष्णा से व्यथित हो उठा है. सोचा था कि भगवान की शरण में रह कर किसी तरह से बच्चों को पढ़ालिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर दूंगी. लेकिन यहां पर तो धर्म की आड़ में वही धन की लिप्सा, भोगलिप्सा, सामदामदंडभेद से येनकेन प्रकारेण समाज में अपने को श्रेष्ठ दिखाने की होड़ लगी रहती है. दूसरों की जमीन, धन और स्त्री पर गिद्ध दृष्टि रहती है. ये स्वामीजी, दूसरे कथावाचक, जो समाज में भगवान के समान पूजे जाते हैं, अंदर से सब खोखले होते हैं. इन के अंदर भी वही मानवीय अवगुण भरे हुए हैं जो सामान्य इंसान में होते हैं. ये अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए दान करो, दान करो का गान करते रहते हैं ताकि ये संपन्न हो कर अपने लिए सुखसुविधा जुटा कर बड़ेबड़े आश्रम बना कर समाज में अपना वैभव दिखा कर सर्वश्रेष्ठ स्थान पर आसीन हो सकें.

“समस्या निदान के नाम पर ये लोगों की भावनाओं से खेल कर, उन्हें ठग कर अपना खजाना भरते हैं. ये नशा भी करते हैं, साथ में अन्य असामाजिक कृत्यों में भी संलग्न रहते हैं. जो भी इन के जाल में फंस जाता है, उस का निकलना मुश्किल हो जाता है क्योंकि य़े कभी भविष्य का डर दिखाते हैं तो कभी भविष्य की सपनीली दुनिया.

“दीदी, आप तो लिखती हैं, मेरे जीवन की कहानी जरूर लिखना, कम से कम यहां की असलियत तो बाहर की दुनिया जाने.

“दीदी, अब मुझे अपनी परीक्षा की तैयारी करनी है क्योंकि कल से ही मेरी फाइनल परीक्षा शुरू है,” कहती हुई व अपने आंसू पोंछती हुई मुझे बाहर जाने का इशारा किया लेकिन उस की बेबसी देख कर मुझे बहुत दर्द हुआ.

वह अपनी कथा के रिहर्सल में जुट गई थी. आखिर, उस के लिए भी तो परीक्षा की घड़ी थी, जिस में उसे जरूर से पास हो कर खरा उतरना जरूरी था. आखिर, उस के भी तो भविष्य का सवाल था.

सुनतेसुनते उसे कब झपकी आ गई थी, पता ही नहीं लगा था. जब सूर्य की रश्मियों ने कमरे में उजाला भर दिया तब वह हड़बड़ा कर उठ बैठी थी.

मामी विशेष कमरे में घंटी बजा रही थीं और मधुर स्वर में गा रही थीं, ‘जागो मोहन प्यारे…’

वह अभी भी आनंदी के फर्श से अर्श के संघर्ष की कहानी में खोई हुई थी. तभी मामी की आवाज से तंद्रा टूटी थी, “नलिनी दी, मासूम आनंदी से मां आनंदेश्वरी बनने की कहानी तो वास्तव में बहुत संघर्षभरी जीवन गाथा है. प्रसन्नता इस बात की है कि वह अपने प्रयास में सफल हुई.

वी आर प्राउड औफ यू अम्मा : भाग 3

‘‘हांहां अम्मा वही न, जो हमेशा नौकरों, मेहमानों और अपने बरतन सब अलग रखती थीं और अंकल ब्राह्मïण के अलावा अन्य निम्न जाति के लोगों को हेयदृष्टि से देखते थे. और तो और वे अपने घर में दलितों को तो न केवल जमीन पर बैठाते थे, बल्कि उन से स्पर्श होने पर नहाते भी थे. तुम दोनों सहेलियां बिलकुल एकजैसी विचारधारा वाली ही तो थी. एकदूसरे की पूरक, कट्टर जातिवादी. इसीलिए तो अचरच है अम्मा कि तुम्हें अचानक क्या हो गया इतना बड़ा परिवर्तन. बाबूजी बता रहे थे कि तुम ने अपनी विचारधारा बिलकुल पलट ली है,’’ दोनों बहनें एक स्वर में बोल उठीं.

‘‘हांहां वही मेरी पक्की सहेली तनुजा, पिछले साल तनुजा के पति दीनदयाल भयंकर रूप से बीमार हो गए. पीलिया से हुई बीमारी की शुरुआत कब गंभीर हेपेटाइटिस बी हो गया कि उन की जान पर ही बन आई थी. केजीएमसी अस्पताल में वे एक माह तक भरती रहे. बच्चों के आने तक उन की देखभाल घर के नौकरों ने ही की. शरीर में खून की बहुत कमी हो गई थी. डाक्टरों ने तुरंत खून का इंतजाम करने को कहा. लाख कोशिश करने पर भी खून का इंतजाम नहीं हो पा रहा था. तब उन के ड्राइवर ने ही उन्हें सहर्ष 3 यूनिट खून दिया था, जिस की बदौलत किसी तरह पंडितजी की जान बच पाई थी. जो तनुजा हमेशा नौकरों के बरतन अलग रखती थी. उस समय वही हाथ जोड़ कर अपने घर के ड्राइवर कैलाश से कह रही थी, ‘‘बेटा किसी तरह अंकल की जान बचा लो.” क्योंकि सभी परिचितों में केवल कैलाश ही था, जिस का ब्लड ग्रुप पंडितजी से मैच किया था और वह अपने मालिक के लिए सबकुछ करने को तैयार हो गया. अब उसी का खून उन की रगों में दौड़ रहा है. उस समय मैं और तेरे बाबूजी अस्पताल में ही थे. जो बात तुम्हारे बाबूजी के बरसों से समझाने से भी मुझे समझ नहीं आई, वह पंडितजी की दशा देख कर झट से समझ में आ गई.

“सच बेटा, उस दिन अस्पताल में यह सब देख कर मानों मैं तो नींद से जाग गई और मुझे लगा कि ये हम इनसानों के बनाए चोचले हैं. वास्तव में जन्म लेते समय तो इनसान का कोई धर्म होता ही नहीं. इस संसार में आ कर हम इनसान ही इनसानों को अलगअलग धर्म और जातियों में विभाजित कर देते हैं. और तो और हम बूढ़ों का तो ये हाल है कि शरीर चलता नहीं, फिर भी दकियानूसी बातों को दिल से लगाए रहते हैं. पर, उस घटना ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे लगा कि इस संसार में केवल एक ही धर्म और जाति है इनसानियत. बस उस दिन से बेटा मैं ने स्वयं को इन जातपांत के बंधनों से मुक्त कर लिया.’’

‘‘अरे वाह अम्मा, हमें आप पर और आप की उन्नत सोच पर गर्व है. काश, सब लोग आप दोनों की तरह समझदार हो पाते,’’ कह कर दोनों बेटियां अपनी अम्मा के गले लग गईं.

‘‘पर अम्मा, एक बात बताओ, तुम तो सुधर गईं, पर तनुजा आंटी के क्या हाल हैं. उन में कुछ परिवर्तन आया कि नहीं,’’ छोटी ने अचरच से पूछा.

‘‘यही तो दुख है बेटा कि जिन के शरीर से खून ही किसी और का दौड़ रहा है, वे खुद को रत्तीभर भी नहीं बदल पाए हैं. आज भी वे जस के तस ही हैं. उन के हालचाल जानने के लिए तुम दोनों सुबह उन के घर चली जाना तो मिलना भी हो जाएगा और हालचाल भी पता चल जाएगा,’’ कह कर अम्मा शाम के खाने की तैयारी के लिए महाराजिन को निर्देश देने लगीं. देर रात तक गप्पें लगाते हुए दोनों बहनें कब सो गईं, उन्हें ही पता न चला. सुबह जब तक दोनों बहनें सो कर उठीं, तो टेबल पर नाश्ता तैयार था.

‘‘अरे वाह अम्मा, पोहा, जलेबी, बेड़ई और आलू की सब्जी,’’ डायनिंग टेबल पर मनपसंद नाश्ता देख कर दोनों बेटियां खुशी से एकसाथ बोल उठी. नाश्ता कर के दोनों तनुजा आंटी के यहां जा पहुंची. उन्हें देखते ही तनुजा और उन के पति पंडितजी के चेहरे खिल उठे. दोनों बेटियों को गले लगाते हुए तनुजा आंटी की आंखों में खुशी के आंसू आ गए और वे भावविभोर होते हुए बोलीं, ‘‘अरे बेटा, तुम दोनों कब आईं? कितने बरस हो गए तुम्हें देखे? मुझे तो लगा कि बेटियां आंटी को भूल ही गई हैं. बैठोबैठो मैं पानी ले कर आती हूं,’’ कह कर वे किचन में चलीं गईं.

‘‘दी, आंटीअंकल कितने कमजोर और बूढ़े से हो गए हैं न. ऐसा लगता है कि दोनों उम्र से पहले ही बूढ़ा गए हैं,’’ तनुजा और उन के पति पंडितजी को देख कर छोटी ने फुसफुसाते हुए अंशू से कहा.

तभी अपने कमजोर शरीर और लंगड़ाते कदमों से हाथ में ट्रे थामे तनुजा आंटी पानी ले कर आ गईं और बड़े ही प्यार से बोलीं, ‘‘बताओ बेटा क्या खाओगी,’’ कह कर वे वहीं पास पड़ी आरामकुरसी पर बैठ गईं.

‘‘आंटी कुछ नहीं हम नाश्ता कर के आए हैं. आंटी अभी भी सारा काम आप खुद ही करती हैं,’’ छोटी से चुप नहीं रहा गया और पूछ बैठी.

‘‘हां बेटी, पहले तो दो जनों का काम ही क्या होता है. दूसरे किसे लगाएं. यहां जितनी भी कामवालियां आती हैं, किसी का भी जातिधर्म कुछ पता नहीं होता. उन से काम करवा के क्या अपना धर्मभ्रष्ट करना है,‘‘ आंटी ने अपने तर्क देते हुए कहा.

‘‘ये लोग तो नीची जाति की होते हुए भी झूठ बोल कर काम करने लग जाती हैं. अरे, हम पंडित आदमी हैं भाई,’’ हंसते हुए पंडित अंकल ने भी तनुजा आंटी की हां में हां मिलाते हुए कहा.

‘‘पर अंकल…’’ छोटी आगे कुछ बोल कर उन की बातों को काटती उस से पहले ही अंशू ने उस के हाथ को हौले से दबा दिया, जिस से वह चुप हो गई.

‘‘अच्छा आंटी, हम चलते हैं, फिर आएंगे…’’ कुछ देर बाद दोनों उठ खड़ी हुईं.

घर आईं तो अम्मा ने डायनिंग टेबल पर लंच लगा रखा था. खाना खा कर दोनों ने फिर अम्मा को घेर लिया.

‘‘अम्मा, आंटीअंकल की तो बहुत ही बुरा दशा है. इस अवस्था में तो उन से अपना काम ही नहीं होता, पूरा घर भी अस्तव्यस्त हो रखा है. दोनों बहुत ही कमजोर हो गए हैं. अमन भइया अपने पास क्यों नहीं बुला लेते इन्हें?’’ अंशू बोली.

‘‘वह बेचारा तो बुलाबुला कर थक गया. ये दोनों जाते ही नहीं, वह अपनी नौकरी संभाले या बारबार यहां आए. फिर भी हर शनिवार को दिल्ली से यहां आने की कोशिश करता है.’’

‘‘पर, यहां अकेले पड़े रहते हैं. इस से तो अमन के पास जा कर रहना चाहिए,’’ अंशिका ने कहा.

‘‘बहू विजातीय और दलित वर्ग से है न, इसलिए वहां जाने से साफ मना कर देते हैं. अमन ने अपनी मरजी से विवाह किया था. कुछ समय तो उस से नाराज रहे, पर पुत्र मोह के कारण बेटे से तो अलग नहीं रह पाए, पर हां, बहू से कोई मतलब नहीं रखते.

“आज विवाह के 8 वर्ष बाद भी उसे नहीं अपना पाए हैं. कहते हैं कि नीची जाति की बहू के हाथ का पानी पी कर क्या हम अपना धर्म भ्रष्ट कर दें? इन के जातपांत के चक्कर में अमन बेचारा परेशान रहता है, जबकि पंडितजी के बीमार पड़ने पर बहू ने ही पूरे एक माह तक यहां रह कर घर और अस्पताल एक कर दिया था. पर, तब भी इन की सोच में कोई अंतर नहीं आया. यही सब कारण है बेटा, जिन के चलते दोनों अपना अहंकार और ब्राह्मïणत्व पाल कर यहीं पड़े हैं, जिस से बच्चे परेशान रहते हैं सो अलग.’’

अब तुम दोनों तनुजा आंटी में ही लगी रहोगी या कुछ और भी करोगी. ये कुछ रुपए हैं, बाजार जा कर अपनी पसंद का कुछ ले आओ,’’ कहते हुए अम्मा ने दोनों बहनों को 2-2 हजार रुपए पकड़ा दिए.

‘‘अरे अम्मा, ये पैसे वैसे हमें नहीं चाहिए. हमें तो गर्व है कि हमें तुम्हारे जैसी समझदार और सुलझी हुई अम्मा मिली हैं, जिस ने समय की मांग को देखते हुए खुद को ऐसे बदल लिया जैसे इनसान अपने तन के कपड़े बदलता है.’’

‘‘बेटा परिवर्तन प्रकृति का नियम है. समय के अनुसार चल कर ही हम अपने जीवन को सुखी बना सकते हैं. अकड़ और अहंकार त्याग कर वक्त और परिस्थितियों के अनुसार जो खुद को ढाल ले, वही इनसान है.’’

‘‘वी आर प्राउड औफ यू अम्मा,’’ कह कर छोटी और अंशिका दोनों ही अम्मा के गले लग गईं.

प्रेम की उदास गाथा : भाग 3

काकाजी गांव वापस आ गए और नए सिरे से अपनी दिनचर्या को बनाने में जुट गए। कहानी सुनातेसुनाते कई बार काकाजी फूटफूट कर रोए थे। मैं ने उन को बच्चों जैसा रोते देखा था। शायद वे बहुत दिनों से अपने दर्द को अपने सीने में समेटे थे। मैं ने उन को जी भर कर रोने दिया था। इस के बाद हमारे बीच इस विषय को ले कर फिर कभी कोई बात नहीं हुई।

मैं उन के पास नियमित गणित पढ़ने जाता और वे पूरी मेहनत के साथ मुझे पढ़ाते भी। उन की पढ़ाई के कारण मेरी गणित बहुत अच्छी हो गई थी। उन्होंने मुझे अंगरेजी विषय की पढ़ाई भी कराई।

काकाजी की मदद से मेरा इंजीनियर बनने का स्वप्न पूरा हो गया था। पर मैं ज्यादा दिन इंजीनियर न रह कर आईएएस में सिलैक्ट हो गया और कलैक्टर बन कर यहां पदस्थ हो गया था। लगभग 10 सालों का समय यों ही व्यतीत हो गया था। इन सालों में मैं काकाजी से फिर नहीं मिल पाया था। मैं 1-2 बार जब भी गांव गया काकाजी से मिलने का प्रयास किया पर काकाजी गांव में नहीं मिले।

कलैक्टर का पदभार ग्रहण करने के पहले भी मैं गांव गया था तब ही पता चला था कि काकाजी तो कहीं गए हैं जब से यहां लौटे ही नहीं। उन के घर पर ताला पड़ा है। गांव के लोग नहीं जानते थे कि आखिर काकाजी चले कहां गए। आज जब अचानक उन की स्लिप चपरासी ले कर आया तो गुम हो चुका पूरा परिदृश्य सामने आ खड़ा हुआ। औफिस के बाहर मिलने आने वालों के लिए लगी बैंच पर वे बैठे थे, सिर झुकाए और कुछ सोचते हुए से।

मैं पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था पर मुझे लग रहा था कि वे ही हैं। बैंच पर और भी कुछ लोग बैठे थे जो मुझ से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे इस तरह भाग कर आता देख सभी चौंक गए थे। बैंच पर बैठे लोग उठ खङे हुए पर काकाजी यों ही बैठे रहे। उन का ध्यान इस ओर नहीं था।

मैं ने ही आवाज लगाई थी,”काकाजी…’’ वे चौंक गए। उन्होंने यहांवहां देखा भी पर समझ नहीं पाए कि आवाज कौन लगा रहा है। बाकी लोगों को खड़ा हुआ देख कर वे भी खड़े हो गए। उन्होंने मुझे देखा अवश्य पर वे पहचान नहीं पाए थे।

मैं ने फिर से आवाज लगाई,”काकाजी…’’ उन की निगाह सीधे मुझ से जा टकराई। यह तो तय हो चुका था कि वे काकाजी ही थे। मैं ने दौड़ कर उन को अपनी बांहों में भर लिया था।

‘‘काकाजी…नहीं पहचाना? मैं मनसुखजी का बेटा…आप ने मुझे गणित पढ़ाई थी,”काकाजी के चेहरे पर पहचान के भाव उभर आए थे।

‘‘अरे अक्षत…’’ अबकी बार उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था।

औफिस के रिटायररूम के सोफे पर वे इत्मीनान के साथ बैठे थे और मैं  सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ उन के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। चपरासी के हाथों से पानी ले कर वे एक ही घूंट में पी गए थे।

‘‘आप यहां कैसे, काकाजी…’’

“तुम…यहां के कलैक्टर हो? जब नाम सुना था तब कुछ पहचाना सा जरूर लगा था. पर तुम तो इंजीनियर…”

‘‘हां…बन गया था। आप ने ही तो मुझे बनवाया था. फिर आइएएस में सिलैक्शन हो गया और मैं कलैक्टर बन गया।’’ उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया।

‘‘आप यहां कैसे…मैं ने तो आप को गांव में कितना ढूंढ़ा?’’

‘‘मैं यहां आ गया था. रेणू को मेरी जरूरत थी,’’ उन्होंने कुछ सकुचाते हुए बोला था।

मेरे दिमाग में काकाजी की कहानी की नायिका ‘रेणू’ सामने आ गई। उन्होंने ही बोला,”रेणू को उस के पिरवार के लोग सता रहे थे. मैं ने बताया था न?’’

‘‘हां, पर यह तो बहुत पुरानी बात है।’’

‘‘वह अकेली पड़ गई थी. उसे एक सहारा चाहिए था।’’

‘‘उन्होंने आप को बुलाया था?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ही आ गया था…’’

‘‘यों इस तरह गांव में किसी को बताए बगैर?’’

‘‘सोचा था कि उस की समस्या दूर कर के जल्दी लोैट जाउंगा पर…”

‘‘क्या आप उस के साथ ही रह रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने यहां एक कमरा ले लिया है।’’

‘‘और…वो…उन्हें भी तो घर से निकाल दिया था…’’

दरअसल, मेरे दिमगा में ढेरों प्रश्न आजा रहे थे।

‘‘हां…वे वृद्धाश्रम में रह रही हैं।’’

‘‘अच्छा…’’

“यहां अदालत में उन का केस चल रहा है।’’

वे मुझे आप कहने लगे थे, शायद उन्हें याद आया कि मैं यहां का कलैक्टर हूं।

‘‘काकाजी, यह ‘आप’ क्यों लगा रहे हैं आप…’’

‘‘वह…बेटा, अब तुम इतने बड़े पद पर हो…’’

‘‘तो…’’

‘‘देखो अक्षत, रेणू का केस सुलझा दो। यह मेरे ऊपर तुम्हार बड़ा एहसान होगा…’’ कहतेकहते काकाजी ने मेरे सामने हाथ जोड़ लिए।

कमरे में पूरी तरह निस्तब्धता छा चुकी थी। काकाजी की आंखों से आंसू बह रहे थे। वे रेणू के लिए दुखी थे। वह रेणू जिस के कारण काकाजी ने विवाह तक नहीं किया था और सारी उम्र यों ही अकेले गुजार दी थी। मैं ने काकाजी को ध्यान से देखा। वे इन 10 सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे। चेहरे की लालिमा जा चुकी थी, उस पर उदासी ने स्थायी डेरा जमा लिया था, बाल सफेद हो चुके थे और बोलने में हांफने भी लगे थे।

औफिस के कोने में लगे कैक्टस के पौधे को वे बड़े ध्यान से देख रहे थे और मैं उन्हें। उन का सारा जीवन रेणू के लिए समर्पित हो चुका था। आज भी वे रेणू के लिए ही संघर्ष कर रहे थे।

‘‘काकाजी, मैं केस की फाइल पढ़ूंगा और जल्दी ही फैसला दे दूंगा,’’ मैं उन्हें झूठा आश्वासन नहीं देना चाह रहा था।

‘‘केस तो तुम को मालूम ही है न, मैं ने बताया था, ’’काकाजी ने आशाभरी निगाहों से मुझे देखा।

‘‘हां, आप ने बताया था पर फाइल देखनी पड़ेगी तब ही तो कुछ समझ पाऊंगा न,’’ मैं उन के चेहरे की बेबसी को पढ़ रहा था पर मैं भी मजबूर था। यों बगैर केस को पढ़े कुछ कह भी नहीं पा रहा था।

ककाजी के चेहरे पर भाव आजा रहे थे। मुझ से मिलने के बाद उन्हें उम्मीद हो गई थी कि रेणू के केस का फैसला आज ही हो जाएगा और वह उन के पक्ष में ही रहेगा। पर मेरी ओर से ऐसा कोई आश्वासन न मिल पाने से वे फिर से हताश नजर आने लगे थे।

‘‘काकाजी, आप भरोसा रखें, मैं बहुत जल्दी फाइल देख लूंगा…’’ मैं उन्हें आश्वस्त करना चाह रहा था।

काकाजी थके कदमों से बाहर चले गए थे। वे 2-3 दिन बाद मुझे मेरे औफिस के सामने बैठे दिखे थे। चपरासी को भेज कर मैं ने उन्हें अंदर बुला लिया था. उन के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी। काम की व्यस्त फाइल नहीं देख पाया था। मैं मौन रहा। चपरासी ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया, “काकाजी, कुछ खाएंगे क्या?” मैं  उन से बोल नहीं पा रहा था कि मैं फाइल नहीं देख पाया हूं पर काकाजी समझ गए थे।

वे बगैर कुछ बोले औफिस से निकल गए थे। फाइल का पूरा अध्ययन कर लिया था। यह तो समझ में आ ही गया था कि रेणूजी के साथ अन्याय हुआ है पर फाइल में लगे कागज रेणूजी के खिलाफ थे। दरअसल, रेणू को उन के पिताजी ने एक मकान शादी के समय दिया था। शादी के बाद जब तक हालात अच्छे रहते आए तब तक रेणू ने कभी उस मकान के बारे में जानने और समझने की जरूरत नहीं समझी. उन के पति यह बता देते कि उसे किराए पर उठा रखा है. पर जब रेणू की अपने ससुराल में अनबन हो गई और उन्हें अपने पति का घर छोड़ना पड़ा तब अपने पिताजी द्वारा दिए गए मकान का ध्यान आया। उन्होंने अपने पति से अपना मकान मांगा ताकि वे रह सकें पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया। रेणू ने मकान में कब्जा दिलाए जाने के लिए एक आवेदन कलैक्टर की कोर्ट में लगा दिया. रेणू को नहीं मालूम था कि उन के पति ने वह मकान अपने नाम करा लिया है। कागजों और दस्तावेजों के विपरीत जा कर मैं फैसला दे नहीं सकता था.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं काकाजी को क्या बोलूंगा।

वृद्धाश्राम के एक कार्यक्रम में मैं ने पहली बार रेणूजी को देखा था। आश्रम की ओर से पुष्पगुच्छ भेंट किया था उन्होंने मुझे। तब तक तो मैं  समझ नहीं पाया था कि यही रेणूजी हैं पर कार्यक्रम के बाद जब मैं लौटने लगा था तो गेट पर काकाजी ने हाथ दे कर मेरी गाड़ी को रोका था। उन के साथ रेणूजी भी थीं,”अक्षत, मैं और रेणू गांव जा रहे हैं. हम ने फैसला कर लिया है कि हम दोनो वहीं साथ में रहेंगे,” काकाजी के बूढ़े चेहरे पर लालिमा नजर आ रही थी। मैं ने रेणूजी को पहली बार नख से सिर तक देखा था। बुजुर्नियत से ज्यादा उन के चेहरे पर परेशानी के निशान थे पर वे बहुत खूबसूरत रही होंगी यह साफ झलका रहा था।

“सुनो बेटा, अब हमें तुम्हारे फैसले से भी कुछ लेनादेना नहीं है, जो लगे वह कर देना। उन्होंने रेणू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था।

“तुम ने मेरी अधूरी कहानी पढ़ी थी न. वह आज पूरी हुई,” काकाजी के कदमों में नौजवानों जैसी फुरती दिखाई दे रही थी। काकाजी के ओझल होते ही मेरी निगाह आश्रम के गेट पर कांटों के बीच खिले गुलाब पर जा टिकी।

शिकायतनामा : भाग 3

कंजूसी की भी हद होती है. रात अनुष्का, पिता विश्वनाथ को फोन कर के सुबकने लगी, “पापा, आप ने कैसे आदमी से मेरी शादी कर दी. एकदम जड़बुद्वि के हैं. मेरी सुनते ही नहीं.’’ फिर एक के बाद उस ने सारा किस्सा बयां कर दिया. सब सुन कर विश्वनाथ को भी तीव्र क्रोध आया. मगर चुप रहे यह सोच कर कि बेटी दिया है.

‘‘तुम से जितना बन पड़ता है, करो,’’ पिता विश्वनाथ का स्वर तिक्त था.

‘‘सास को यहां लाने की क्या जरूरत थी? 3 बेटे अच्छी नौकरियों में हैं. सब अपनेअपने बेटेबेटियों की शादी कर के मुक्त हैं. क्या अपनी मां को नहीं रख सकते थे? यहां कितनी दिक्कत हो रही है. किराए का मकान. वह भी जरूरत के हिसाब से लिए गए कमरे. जबकि उन तीनों बेटों के निजी मकान हैं. आराम से रह सकती थीं वहां.’’

‘‘अब मैं उन की बुद्वि के लिए क्या कहूं’’ विश्वनाथ ने उसांस ली.

गरमी की छुट्टियां हुईं. अनुष्का अपने बेटे को ले कर मायके आई. कृष्णा उसे मायके पहुंचा कर अपने भाईयों से मिलने चला गया. ससुराल में रुकने को वह अपनी तौहीन समझता. भाईयों का यह हाल था कि वे सिर्फ कहने के भाई थे, कभी दुख में झांकने तक नहीं आते. इतनी ही संवेदनशीलता होती तो जरूर अपनी मां की खोजखबर लेते. वे सब इसी में खुश थे कि अच्छा हुआ, कृष्णा ने मां को अपने पास रख लिया. अब आराम से अपनीअपनी बीवियों के साथ सैरसपाटे कर सकेंगे.

दो दिनों बाद कृष्णा अनुष्का को छोड़ कर इंदौर अपनी नौकरी पर चला गया. मां को दूसरे के भरोसे छोड़ कर आया था, इसलिए उस का वापस जाना जरूरी था. बातचीत का दौर चलता, तो जब भी समय मिलता अनुष्का अपना दुखड़ा ले कर विश्वनाथ के पास बैठ जाती.

एक दिन विश्वनाथ से रहा न गया, बोले, ‘‘तुम यहीं रह जाओ. कोई जरूरत नहीं है उस के पास जाने की.”

अनुष्का ने कोई जवाब नहीं दिया. बगल में खड़ी अनुष्का की मां कौशल्या से रहा न गया, “आप भी बिनासोचे समझे कुछ भी बोल देते हैं.’’ अनुष्का की चुप्पी बता रही थी कि यह न तो संभव था न ही व्यावहारिक. भावावेश में आ कर भले ही पिता विश्वनाथ ने कह दिया हो मगर वे भी अच्छी तरह जानते थे कि बेटी को मायके में रहना आसान नहीं है. फिर पतिपत्नी के रिश्ते का क्या होगा? अगर ऐसा हुआ तो दोनों के बीच दूरियां बढ़ेंगी जिसे बाद में पाट पाना आसान न होगा.

अनुष्का की आंखें भर आईं. उसे लग रहा था वह ऐसे दलदल में फंस गई है जहां से निकल पाना आसान न होगा. आज उसे लग रहा था कि रुपयापैसा ही महत्त्वपूर्ण नहीं, बल्कि आदमी का व्यावहारिक व सुलझा हुआ होना भी जरूरी है. पिता विश्वनाथ को आदर्श मानने वाली अनुष्का को लगा, पापा का सुलझापन ही था जो तमाम आर्थिक परेशानियों के बाद भी उन्होंने हम सब भाईबहनेां को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि समाज में सम्मान के साथ जी सकें. वहीं, कृष्णा के पास रुपयों के आगमन की कोई कमी नहीं तिस पर उन की सोच हकीकत से कोसों दूर है.

पिता विश्वनाथ की जिंदगी आसान न थी. सीमित आमदनी, उस पर 3 बेटियों ओैर एक बेटे की परवरिश. वे अपने परिवार को ले कर हमेशा चिंतित रहते. मगर जाहिर होने न देते. उन के लिए औलाद ही सबकुछ थे. पत्नी कौशल्या जब तब अपनी बेटियों को डांटतीफटकारती रहती जिस को ले कर पतिपत्नी में अकसर विवाद होता. बेटियों का कभी भी उन्होंने तिरस्कार नहीं किया. उन का लाड़प्यार उन पर हमेशा बरसता रहता. इसलिए बेटियां उन के ज्यादा करीब थीं. यही वजह थी कि बेटियां आज भी अपने पिता को अपना आदर्श मानतीं. जब बेटा हुआ तो मां कौशल्या का सारा प्यार उसी पर उमड़ने लगा. यह अलग बात थी कि जब उन की तीनों बेटियां अपने पैरों पर खड़ी हो गईं तो उन की नजर उन के प्रति सीधी हो गई.

एक महीना रहने के बाद अनुष्का कृष्णा के पास वापस इंदौर जाने की तैयारी करने लगी तो अचानक एक शाम विश्वनाथ को क्या सूझा, कहने लगे, ‘‘क्या तुम्हारी मां मुझ से खुश थीं?” सुन कर क्षणांश वह किंकर्तव्यविमूढ हो गई. अनुष्का मां की तरफ देखी. उन की आंखें सजल थीं. मानो अतीत का सारा दृश्य उन के सामने तैर गया हो. वे आगे बोले, ‘‘जब वह मुझ से खुश नहीं थी तो तुम कैसे अपने पति से अपेक्षा कर सकती हो वह हमेशा तुम्हें खुश रखेगा?’’

पिता की बेबाक टिप्पणी पर अनुष्का को कुछ कहते नहीं बन पड़ा. वह तो अपने पिता को आदर्श मानती थी. वह तो यही मान कर चलती थी कि उस के पिता समान कोई हो ही नहीं सकता. बेशक पिता के रूप में वे सफल थे मगर क्या पति के रूप में भी वे उतने ही सफल थे? क्या उन्होंने हमेशा वही किया जो कौशल्या को पसंद था? शायद नहीं. वे आगे बोलते रहे, ‘‘यह लगभग सभी के साथ होता है. पत्नी अपने पति से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करती है. पर खुशी का पैमाना क्या है? क्या कृष्णा शराबी या जुआरी है? कामधाम नहीं करता या मारतापीटता है? सिर्फ विचारों और आदतों की भिन्नता के कारण हम किसी को नापंसद नहीं कर सकते? जब एक गर्भ से पैदा भाईयों में मतभेद हो सकते हैं तो पतिपत्नी में क्यों नहीं.’’

अनुष्का को अपने पिता से यह उम्मीद न थी. उन के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज बना दिया. अभी तक उसे यही लग रहा था कि कृष्णा जो कुछ कर रहा है वह एक तरह से उस पर मनोवैज्ञानिक अत्याचार था. उन के कथन ने एक तरह से उसे भी कुसूरवार बना दिया. आहत मन से बोली, “पापा, जब ऐसी बात थी तो फिर आप ने मुझे क्यों मायके में ही रहने की सलाह दी?’’

वे किंचिंत भावुक स्वर में बोले, ‘‘एक पिता के नाते तुम्हारा दुख मेरा था. पुत्रीमोह के चलते मैं ने तुम्हें यहां रहने की सलाह दी. मगर यह व्यावहारिक न था. काफी सोचविचार कर मुझे लगा कि शायद मैं तुम्हें गलत रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हूं. बड़ेबुजर्ग का कर्तव्य है कि पतिपत्नी के बीच की गलतफहमियां अपने अनुभव से दूर करें, न कि आवेश में आ कर दूरियां बढ़ा दें, जो बाद में आत्मघाती सिद्व हो.’’

अनुष्का पर पिता विश्वनाथ की बातों का असर पड़ा. उस ने मन बना लिया कि अब से वह कृष्णा को भी समझने का कोशिश करेगी.

‘‘शादी में प्यार और सम्मान होना जरूरी’’- कंगना रनौत

सोशल मीडिया पर अपने बेबाक बयानों के लिए जानी जाने वाली व राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री कंगना रनौत की बतौर निर्माता ‘टीकू वेड्स शेरू’ जियो सिनेमा पर हाल ही में प्रदर्शित हुई. कंगना की पिछली हिट फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ की तर्ज पर बनी ‘टीकू वेड्स शेरू’ में शादी के माने अलग हैं. यहां पर अरेंज मैरिज की सफलता और खट्टीमीठी नोकझोक दिखाई गई है.

रनौत का जन्म हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के भांबला में हुआ था. उन का गांव, जिसे सूरजपुर के नाम से भी जाना जाता है, का नाम उन के परदादा सूरज सिंह रनौत के नाम पर है, जो कांग्रेस के पूर्व विधायक थे. रनौत की अपने स्कूल दिनों से ही मौडलिंग और फिल्मों में रुचि थी, जिस से उन के परिवार को काफी परेशानी थी. वे चाहते थे कि वह डाक्टर बने, लेकिन अभिनेत्री बनने का सफर उन्होंने चुना.

उन की शुरुआती फिल्मों में उन्हें उन की वर्साटाइल ऐक्ंिटग को ले कर खूब तारीफें मिलीं. साल 2006 में उन की पहली फिल्म ‘गैंगस्टर’ आई. इस फिल्म में उन की अदाकारी को सराहा गया. फिर ‘फैशन’, ‘क्वीन’, ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्मों के जरिए उन्हें मेनस्ट्रीम पहचान मिली. लेकिन जैसेजैसे वे अपने फिल्मी कैरियर में आगे बढ़ती गईं, उन के भाजपा और भगवा कट्टरता के समर्थन में पौलिटिकल ?ाकाव ने आम लोगों को उन से दूर भी कर दिया. इस का परिणाम हुआ कि उन्हें एक विशेष खांचे में देखा जाता है. उन की बातों में पहली जैसी गंभीरता भी खत्म हो गई है. जैसे पहले उन के नैपोटिज्म की बहस को ले कर लोगों का समर्थन उन्हें हासिल होता था, वह धीरेधीरे गायब होने लगा है.

उन की फिल्मों में अतिराष्ट्रवाद और खास एजेंडे को धकेलने वाले कंटैंट से भी लोग उकता चुके हैं. यही कारण भी है कि उन की हालिया कई फिल्में फ्लौप होती गईं. हालांकि वे अपनी आगामी फिल्म के साथ फिर से दस्तक दे चुकी हैं, जिस में वे अभिनेत्री के तौर पर नहीं, बल्कि निर्माता के तौर पर हैं. इसी को ले कर उन से कई सवाल पूछे गए, जिन के अंश यहां हैं.

जब उन से पूछा गया कि फिल्म ‘टीकू वेड्स शेरू’ में क्या हीरोइन का किरदार निभाने का खयाल नहीं आया तो वे कहती हैं, ‘‘नहीं. फिलहाल तो मैं बतौर निर्माता ही इस फिल्म को बनाना चाह रही थी क्योंकि हीरोइन के किरदार के लिए अवनीत कौर ही सूटेबल थी. दरअसल यही फिल्म ‘डिवाइन लवर्स’ के नाम से करीबन 7-8 साल पहले लौंच हुई थी जिस में मैं और इरफान खान मुख्य भूमिका में थे, कुछ कारणों से फिल्म अटक गई और बाद में इरफान साहब हमारे बीच नहीं रहे.

‘‘लिहाजा, जब हम ने फिर से इस फिल्म को बनाने की सोची तो हीरोइन के किरदार के लिए हम ने नए चेहरे को फिल्म में लाने की सोची और हीरो के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था. सो, हम ने उन को साइन किया.’’

कंगना बताती हैं कि नवाजुद्दीन के पास फिल्म के लिए डेट्स नहीं थीं. वे कहती हैं, ‘‘हां, जब मैं ने नवाज को फिल्म साइन करने के लिए सोचा तो मैं ने कुछ लोगों से बात की. मु?ो पता चला कि नवाज के पास अगले 5 सालों तक डेट नहीं हैं. फिर भी मैं ने उन को मैसेज किया और मिलने की बात की तो उन्होंने बताया, वे बेंगलुरु में शूटिंग कर रहे हैं. मैं बेंगलुरु पहुंच गई. मु?ो देख कर नवाज आश्चर्यचकित हो गए. नवाज ने भी फिल्म साइन करने में देरी नहीं लगाई.

‘‘जहां तक अवनीत का सवाल है तो मैं चाहती हूं कि इंडस्ट्री में अब और नए चेहरे भी आएं. लिहाजा, अवनीत मुझे इस रोल के लिए परफैक्ट लगी, इसलिए उस को मैं ने इस फिल्म के लिए साइन कर लिया.’’

कंगना पेशे से ऐक्ट्रैस हैं और अब निर्मात्री भी बन चुकी हैं. निर्माता और ऐक्ट्रैस के बीच अंतर के बारे में वे कहती हैं, ‘‘अब मैं निर्माताओं के दर्द को बहुत अच्छे से महसूस कर रही हूं. अब मुझे एहसास हो रहा है कि निर्माताओं को एक फिल्म बनाने के दौरान कितनी सारी परेशानियों को झेलना पड़ता है. कितने सारे टैंशन होते हैं लेकिन साथ ही, यह भी कहूंगी कि मुझे मेरी टीम ने पूरा सहयोग दिया.

‘‘मुझे परेशानी नहीं झेलनी पड़ी. साथ ही, मैं ने यह भी महसूस किया कि निर्माता बनने का अपना अलग मजा भी है. खुशी भी होती है बतौर निर्माता काम कर के. यही वजह है कि मु?ो निर्माता और निर्देशक के तौर पर काम करना पसंद है. मेरी नजर में कुछ ऐसे निर्माता भी हैं जिन्होंने अच्छा काम किया है, जैसे रौनी स्क्रूवाला. मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि बतौर निर्मात्री, मैं अच्छी फिल्में बना सकूं और लोगों का मनोरंजन कर सकूं.’’

फिल्म की थीम शादी के बंधन पर है. आज शादी से ज्यादा तलाक के केस सामने आ रहे हैं. खासतौर पर फिल्म इंडस्ट्री में कई पुरानी शादियां भी टूट रही हैं और शादी से ज्यादा लिवइन रिलेशनशिप फलफूल रही है. ऐसे में अच्छी शादी को डिफाइन करते हुए कंगना कहती हैं, ‘‘जैसेजैसे वक्त बदलता है, हमारी अपेक्षाएं भी बदलने लगती हैं. लव मैरिज में अपेक्षाएं भी ज्यादा होती हैं. अरेंज मैरिज में सम?ाते की गुंजाइश ज्यादा होती है. शादी से पहले हर इंसान अलग होता है. उस का लाइफस्टाइल, उस की अपेक्षाएं और वह खुद. लेकिन शादी के बाद हमें अपने पार्टनर के हिसाब से अपनेआप को बनाना पड़ता है. यह तभी होता है जब हमारी शादी में प्यार और सम्मान व अपनापन हो.

‘‘आज शादी को ले कर लोग जो रोमांटिक इमेज बनाते हैं वह शादी के बाद जब पूरी नहीं होती तो बात तलाक तक पहुंच जाती है. यही वजह है कि जहां आज के समय में लव मैरिज में

90 फीसदी तलाक हो रहे हैं तो अरेंज मैरिज में 10 परसैंट ही तलाक हो रहे हैं. ‘टीकू वेड्स शेरू’ में हम ने इसी प्यार, सम्मान, समझाता और अपनेपन को दर्शाया है. कहने का मतलब यह है शादी भले ही एक सम?ाता है लेकिन उस में प्यार और सम्मान अगर न हो तो वह नहीं टिकती और अगर प्यार और सम्मान हो तो अरेंज मैरिज भी टिक जाती है.’’

जब उन से पूछा गया कि शादी को ले कर उन का क्या इरादा है तो वे कहती हैं, ‘‘सिंगल लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि शादी रोमांटिक होती है और मेरी भी शादी करने की इच्छा है. लेकिन शादी मैं तभी करूंगी जब मुझे कोई ऐसा मिल जाएगा जो मेरे जीवन में कम से कम

5 परसैंट खुशियां ला सके. क्योंकि 95 फीसदी तो मैं सिंगल में खुश हूं.

शादी होने के बाद 5 परसैंट ही खुशी बढ़ेगी. अगर मेरा होने वाला हस्बैंड मेरी शादी को ?ांड करने वाला है और मेरी खुशनुमा जिंदगी को 95 फीसदी से बदल कर 40, 50 या 20 परसैंट बनाने वाला है तो ऐसे बंदे से मु?ो शादी नहीं करनी. मैं सिंगल ही खुश हूं. मैं शादी तभी करूंगी जब मु?ो ऐसा लगेगा कि सामने वाला बंदा मेरे लिए फिट है और वह मु?ो खुश रख सकेगा.’’

वे आगे कहती हैं, ‘‘मेरी मां तो मुझे से हर समय बोलती रहती थीं कि शादी कर लो. शादी कब करोगी. जब मैं

17-18 साल की थी तब से ही मेरी मां मेरी शादी के पीछे पड़ी हैं. मेरा तो बचपन से ही हाल बुरा है. उन को लग रहा था इस की मुश्किल ही है शादी होना. पहले मैं सोचती थी कि मनपसंद जीवनसाथी मिलना मुश्किल ही है. लेकिन अब मुझे लगता है कि इतना भी मुश्किल नहीं है. आप की कोई न कोई खूबी सामने वाले को पसंद आएगी ही.

‘‘अगर आप को मनपसंद जीवनसाथी नहीं भी मिलता तो भी कोई टैंशन की बात नहीं है. आप अपनी जिंदगी अकेले भी मजे से गुजार सकते हैं. लेकिन अगर आप ने गलत आदमी चुन लिया तो आप की जिंदगी नरक बन जाएगी. शादी को ले कर मेरा यही मानना है कि आप को उसी आदमी से शादी करनी चाहिए जो आप को खुश रख सके.’’

फिल्म ‘इमरजैंसी’ में कंगना ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई है. इस किरदार को निभाने के लिए की गई तैयारी को ले कर वे कहती हैं, ‘‘इंदिरा गांधीजी का किरदार निभाना मेरे लिए चैलेंज है क्योंकि वे भारत की सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं थीं बल्कि सशक्त नारी का चेहरा भी थीं. ऐसे में इस किरदार को निभाने के लिए मु?ो बहुत सारी तैयारी करनी पड़ी.

‘?‘मानसिक तौर पर मु?ो उस किरदार को जीना था लेकिन इस फिल्म के बारे में फिलहाल हम बातचीत नहीं करेंगे. जब यह फिल्म रिलीज होने वाली होगी, तभी इस फिल्म के बारे में मैं ज्यादा बता पाऊंगी.’’

आप ने 17 साल के कैरियर में अभिनय से ले कर निर्मातानिर्देशक बनने तक का सफर तय किया. इस दौरान अपने अनुभवों को ले कर आप क्या कहती हैं, ‘‘हमारी सोसाइटी में सफलता को कुछ ज्यादा ही अहमियत दी जाती है और असफलता को दुखी दिखाया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है. असफलता के चलते लंबे संघर्ष के बाद जब सफलता मिलती है तब एहसास होता है कि संघर्ष ही सफलता की मंजिल है. अगर कोई सफल नहीं है तो इस का मतलब यह नहीं कि वह बेकार है.

‘‘मेरा विश्वास समय पर भी बहुत है. मैं ने इस मैजिक को महसूस किया है. जब लाखों लड़कियों में से अनुराग बसु ने मुझे अपनी फिल्म के लिए चुना था उस वक्त मैं आश्चर्य के साथ खुश हुई थी. उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मेहनत के साथ समय का माफिक होना भी जरूरी है. मैं 7 सालों से संघर्ष कर रही थी, काफी कुछ कहनेसुनने को मिला. कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि तुम अच्छी ऐक्ंिटग करती हो, इसीलिए तुम बाहर हो, क्या तुम को एक्सपैरिमैंटल फिल्मों की हीरोइन कहला कर घर बैठना है. तुम स्टार किड्स की तरह ठीकठीक ऐक्ंटिग करोगी तो ही इंडस्ट्री में टिक पाओगी. ऐसे ही कई सारे अनुभव मु?ो हुए और आज मैं आप के सामने हूं. यही मेरी सफलता है.’’

हाल की लगातार फ्लौप फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो कंगना सफल अभिनेत्रियों में गिनी जाती हैं. जब उन से पूछा गया कि उन की नजर में सफलता क्या है तो वे कहती हैं, ‘‘जब हमें अपने किरदार, अपने मेकर अपनी मरजी के अनुसार चुनने का मौका मिले, जब आप अपने काम के लिए आजाद हों, जब आप को मन मार कर जबरदस्ती में काम न करना पड़े, अच्छे किरदारों के चुनाव के लिए आप को पूरी आजादी हो, तभी आप सही माने में सफल कहलाते हैं.’’

जब बारबार पेशाब आए

यूरिनरी इनकंटिनैंस या ब्लैडर पर से नियंत्रण खत्म हो जाना एक प्रकार का न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर है जिस कारण शर्मसार होना पड़ सकता है. इस का समाधान बोटुलिनम टौक्सिन ए (बीओएमटी) के इस्तेमाल से हो जाता है.

55 वर्षीया सविता ने अपनी बाकी बची जिंदगी देशभर की यात्रा करने और अपने ट्रैवलौग को पूरा करने के लिए 50 वर्ष की उम्र में ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. लेकिन न्यूरोलौजिकल स्थिति में गड़बड़ी से उपजी पेशाब करने की न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर की समस्या ने उन की योजनाओं और सपनों को चूरचूर कर दिया.

यूरिनरी इनकंटिनैंस से ग्रसित होने का मतलब है कि उन का अपने ब्लैडर से नियंत्रण खत्म हो चुका था और उन्हें बारबार पेशाब करने की नौबत आ जाती थी. लिहाजा, सविता को ज्यादातर वक्त अपने घर में ही बिताना पड़ गया. दवाइयों से उन की इस स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया. अपनी जिंदगी से निराश हो चुकीं सविता अवसाद की स्थिति से गुजरने लग गईं.

सविता जैसे लोगों को अब अपनी जिंदगी में आश्चर्यजनक सुधार लाने की उम्मीद जग गई है. कई ऐसे विकल्प मौजूद हैं जिन से उन्हें ऐसी न्यूरोलौजिकल स्थिति पर काबू पाने में मदद मिल सकती है और उन की जिंदगी फिर से सामान्य हो सकती है. हालांकि इस उपाय से समस्या जड़ से तो खत्म नहीं होती लेकिन इस इलाज से मरीजों को सामान्य जिंदगी जीने के लिए 10 महीनों तक राहत मिल सकती है.

कमजोर न्यूरोलौजिकल डिसऔर्डर यानी यूरिनरी इनकंटिनैंस से देश के बहुत सारे लोग पीडि़त हैं. इस समस्या से उन की जिंदगी पूरी तरह अस्तव्यस्त हो सकती है. इस समस्या से न सिर्फ लोगों को शर्मिंदगी? झेलनी पड़ सकती है बल्कि उन्हें लंबी यात्रा पर जाने में हिचकिचाहट भी होती है और इसलिए इस से पीडि़त व्यक्ति ज्यादातर समय घर की चारदीवारियों में ही बिताना पसंद करते हैं. कुछ लोगों में तो इस से होने वाली असुविधा और शर्मिंदगी हद से ज्यादा स्तर तक पहुंच जाती है.

यूरिनरी इनकंटिनैंस की कई वजहें होती हैं और यह स्थिति मिक्चुरिशन (बारबार पेशाब लगने की प्रवृत्ति) पर से ज्यादातर नियंत्रण खत्म हो जाने के कारण उभरती है. यह समस्या स्पाइनल कौर्ड इंजरी (एससीआई), मल्टीपल सेलेरोसिस (एमएस) और न्यूरोजेनिक डेट्रूसर ओवर एक्टिविटी (एनडीओ) जैसी न्यूरोलौजिक स्थितियों के कारण भी पनप सकती है.

आमतौर पर ब्लैडर में कम दबाव के साथ पेशाब एकत्रित रहता है. जब यह ब्लैडर भरा रहता है तो यूरेथ्रा ड्रौप (मूत्रनली) पर दबाव पड़ने से ब्लैडर की स्पिंचटर मांसपेशी तनावमुक्त हो जाती हैं और ब्लैडर मांसपेशी के सिकुड़ने से पेशाब बाहर निकल आता है. मांसपेशियों के सिकुड़ने और फूलने की यह प्रक्रिया नर्वस सिस्टम से संचालित होती है.

किसी स्वस्थ व्यक्ति में मस्तिष्क के जरिए पेशाब प्रवाहित करने या रोकने का संदेश ब्लैडर तक पहुंचता है. कुछ मामलों में यह व्यवस्था गड़बड़ा जाती है और इसलिए ब्लैडर पर से नियंत्रण खत्म हो जाने की समस्या खड़ी हो जाती है. कई बार यह समस्या दुर्घटनाग्रस्त ऐसे व्यक्तियों में भी उभर आती है जिन के स्पाइनल कौर्ड में चोट पहुंची हो.

विशेषज्ञों का कहना है कि यूरिनरी इनकंटिनैंस एक ऐसी स्थिति है जहां व्यक्ति का ब्लैडर नियंत्रण खत्म हो जाता है, जिस वजह से उसे न चाहते हुए भी बारबार पेशाब करने की नौबत आती है और यह प्रवृत्ति पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है.

प्रैग्नैंसी के दौरान समस्या

कई बार गर्भावस्था के दौरान जब महिला मानसिक और शारीरिक तनाव के दौर से गुजर रही होती है तो यूरेथ्रा का सहयोग खत्म हो जाने के कारण उस के खांसने, छींकने या कोई चीज उठाने के दौरान पेशाब की थोड़ी मात्रा का रिसाव हो जाता है. इसे स्ट्रैस इनकंटिनैंस की स्थिति भी कहा जाता है. अचानक तेज पेशाब लगने की नौबत जहां न्यूरोलौजिकल स्थितियों से जुड़े डेट्रूसर स्नायु के अवांछित सिकुड़ने के कारण आती है, वहीं व्यक्ति को शौचालय का इस्तेमाल करने का वक्त देने की पर्याप्त चेतावनी दिए बगैर बहुत ज्यादा पेशाब का रिसाव हो जाता है.

यूरिनरी इनकंटिनैंस का संबंध ब्लैडर की मल्टीपल सेरोसिस (एमएस) और स्पाइनल कौर्ड इंजरी (एससीआई) जैसी न्यूरोलौजिक स्थिति से होता है जिस के परिणामस्वरूप स्पाइनल कौर्ड और ब्लैडर प्रभावी रूप से संदेश प्रसारित नहीं कर पाते. मल्टीपल सेरोसिस से पीडि़त व्यक्तियों में यह स्थिति उन के स्पाइनल कौर्ड में चोट के कारण विकसित होती है जबकि स्पाइनल कौर्ड इंजरी से पीडि़त व्यक्तियों का स्नायु स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो जाता है जिस के परिणामस्वरूप स्पाइनल कौर्ड और ब्लैडर प्रभावी रूप से संदेश प्रवाहित करने में अक्षम हो जाते हैं.

इस वजह से ब्लैडर की मांसपेशियां अनिच्छा से सिकुड़ जाती हैं और ब्लैडर पर दबाव बनाते हुए वे ब्लैडर में जमे हुए पेशाब को बाहर निकाल देती हैं. यही कारण है कि इस से पीडि़त व्यक्ति बारबार और अनिच्छा से मूत्रस्राव के लिए मजबूर हो जाता है.

ब्लैडर की मांसपशियों में बोटुलिनम टौक्सिन ए का इंजैक्शन देने पर यह विशुद्ध प्रोटीन की तरह काम करता है जिस से मांसपेशियों के अत्यधिक सिकुड़न के लिए जिम्मेदार अतिसक्रिय स्नायु उत्तेजना अवरूद्ध हो जाती है. हालांकि इस का प्रभाव स्थायी नहीं रहता लेकिन बोटौक्स का एक इंजैक्शन कम से कम 10 महीनों तक राहत दे सकता है और पीडि़त व्यक्ति को बड़ी राहत मिल जाती है.

नियमित देखरेख की जरूरत

इस से उन लोगों को बड़ी राहत मिल सकती है जो अपनी स्थिति में सुधार के लिए मदद चाहते हैं. इस से डाक्टरों को भी अपने मरीजों के ऐसे लक्षणों के इलाज के लिए एक कारगर विकल्प मिल गया है. ब्लैडर पर से नियंत्रण खत्म होना एक गंभीर बीमारी हो सकती है और इस से पीडि़त व्यक्ति की जिंदगी पूरी तरह अस्तव्यस्त हो जाती है.

डाक्टरों को उम्मीद है कि बोटुलिनम टौक्सिन ए मरीजों की जिंदगी में पर्याप्त राहत प्रदान करेगा. बोटौक्स का इंजैक्शन एंडोस्कोपी के जरिए यूरिनरी ब्लैडर की मांसपेशियों में लगाया जाता है और यह प्रक्रिया किसी यूरोलौजिस्ट की देखरेख में अपनाई जाती है.

इस इलाज से अतिसक्रिय अवस्था वाले यूरिनरी ब्लैडर की कार्यप्रणाली फिर से सामान्य हो जाती है और कम से कम 10 महीनों तक रिकवरी अंतराल में मरीजों को किसी तरह की चिकित्सकीय सहायता की जरूरत नहीं पड़ती. हालांकि जब किसी मरीज को यूरिनरी के आसपास वाले क्षेत्र में किसी तरह का संक्रमण होता है तो यह पद्धति उस पर नहीं अपनाई जाती है.

सविता के लिए यह एक बेहद कारगर इलाज है. नौकरी छोड़ने के 5 वर्षों के बाद वे एक बार फिर अपने सपने को साकार करने में जुट गई हैं. अब वे नए सिरे से योजना बना सकती हैं और अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा कर सकती हैं. उन की तरह कई अन्य लोग भी अपनी नौकरी जारी रख सकते हैं क्योंकि इस नए इलाज से उन का जीवन और उन की दिनचर्या काफी बेहतर हो गई है. इस से उन की जिंदगी आसान हो जाएगी और कभी शर्मिंदगी भी नहीं उठानी पड़ेगी.

इस का सैल्फ मैडिकेशन तो नहीं किया जाना चाहिए पर जानकारी के लिए बता दें कि बौक्सन फार्मा की 50 मिली ली की बौटल 265 रुपए की है. उत्पादकों का दावा है कि यह इस्तेमाल करने में सेफ है. यह प्रौढ़ों और वृद्धों के लिए ही नहीं, युवा गर्भवतियों के लिए भी फायदेमंद है जो पेशाब पर नियंत्रण नहीं कर पातीं.

बहन की घरेलू दिक्कतें मन बेचैन करती हैं, क्या करूं?

सवाल

मेरी बहन की शादी हुए 18 साल हो गए हैं. उस के पति का व्यवहार उस के प्रति शुरू से रूखा रहा है. ऊपर से दिखाता है कि वह उस की परवा करता है लेकिन असलियत में उसे मूर्ख बनाता है. सारा रुपयापैसा अपने कंट्रोल में रखता है. उसे बस इतना खर्चा देता है जिस से घर का राशनपानी आ सके जबकि अच्छाखासा कमाता है.

भाई होने के नाते मैं बहन का पूरा साथ देता हूं. उस की पूरी जिम्मेदारी तक उठाने को तैयार हूं अगर वह अपने पति से तलाक लेती है. लेकिन पता नहीं क्यों वह बारबार पति के झूठे प्यार के दिखावे में आ जाती है और तलाक लेने का विचार छोड़ देती है.

बहन के बच्चे भी उस से बदसुलूकी करने लगे हैं. उस की इज्जत करनी छोड़ दी है. इस बार वह अपने पति और बच्चों के व्यवहार से परेशान हो हमारे यहां आई तो मैं ने और मम्मी ने बहुत कहा कि अब तो उस से तलाक ले ले. मैं ने वकीलों तक से बात कर ली लेकिन इस बार फिर अपने पति की मीठीमीठी बातों में आ कर वापस उस के साथ लौट गई. पति को तो एक नौकरानी चाहिए और जब वह नहीं होती तो उसे और बच्चों को मुश्किल हो जाती है.

मैंने बहन से इस बार कह दिया था कि अगर अब की बार वह वापस गई तो मैं आगे से उस के लिए कुछ नहीं करूंगा. मैं थक गया हूं. अब जब से वह वापस गई हैन उस ने मुझे फोन किया न मैंने उसे. मेरे भी बच्चे हैं. मां है. नौकरी करूं या इन सब झमेलों में पड़ा रहूं. आप ही बताए क्या करूं?

जवाब

आप क्या कर सकते हैं. जितना कर सकते हैंआप ने वह सब किया. फैसला तो आप की बहन को लेना है. जब तक वह अपने लिए स्टैंड नहीं लेगीकुछ नहीं हो सकता. वह अपने पति के व्यवहार को अच्छी तरह समझाती है लेकिन सालों से उस के गलत बिहेवियर को सहती आ रही है. कुछ हिम्मत उठाने की सोचती भी है तो पति उस वक्त प्यार की दो बातें बोल कर उस के कदम वापस खींच लेता है. आप की बहन ने शादी के 18 साल बिता दिए हैं.

ऐसा लगता है उसे ऐसा जीवन जीने की आदत हो गई है या फिर सोचती है कि इतना जीवन तो निकल गयाआगे भी निकल जाएगा.

देखिएअब आप कुछ मत कीजिए. बहन को खुद अपनेआप फैसला लेने दीजिए. आप परेशान होना छोड़ दें. अपने घरपरिवार पर ध्यान दें.

धर्म : अमोघ दास के बहाने इस्कौन की पब्लिसिटी

धार्मिक फिल्म ‘आदिपुरुष’ से जुड़े विवाद का फसाना, बस, इतना है कि इसे कुछ धार्मिक लोगों ने बनाया. कुछ धार्मिक लोगों ने ही सड़कों पर आ कर इस पर बवाल मचाया. फिर कुछ धार्मिक लोग विवाद ?को अदालत तक ले गए. इस के बाद मामला आयागया हो गया. लेकिन इस ड्रामे से एक लचर फिल्म कुछ दिनों के लिए सही हिट हो गई.

इस खेल में निर्माता सहित फिल्म से जुड़े सभी लोगों ने तबीयत से चांदी काटी और बेवकूफ बनी हमेशा की तरह वह आम जनता जिस की धार्मिक भावनाएं बातबात पर भड़क जाया करती हैं. कुछ और हुआ, न हुआ हो लेकिन इस मामले से यह जरूर साबित हो गया कि धर्म से जुड़े लोग ही धर्म का ज्यादा मजाक बनाते हैं और उस से पैसा भी बनाते हैं. दुनिया के इस सब से बड़े धंधे में हाथ हर कोई धो रहा है.

‘आदिपुरुष’ के जिस डायलौग पर बवाल मचा था वह मनोज मुंतशिर का नहीं था बल्कि इस्कौन के युवा संत अमोघ लीला दास का था जिसे उन्होंने कभी अपने प्रवचनों में कहा था. यह डायलौग कुछ यों था, ‘घी किस का रावण का, कपड़ा किस का रावण का, आग किस की रावण की, जली किस की रावण की’.

भक्तों को यह अमर्यादित लगा या लगाया गया तो उन्होंने जगहजगह हल्ला मचाया लेकिन अमोघ लीला का नाम कहीं बीच में नहीं आया और सारी शोहरत व क्रैडिट इसे न लिखने वाले मनोज बटोर ले गए जिन के बारे में अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि वे ‘आदिपुरुष’ की यूनिट के साथ किसी अज्ञात स्थान पर मीटिंग करते किसी नए धार्मिक विवाद से पैसा कमाने की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे होंगे.

मनोज मुंतशिर की उपलब्धि यही रही कि उन की कीमत बढ़ गई और उन्हें कई और लोग जानने लगे, ठीक वैसे ही जैसे ताजा बेवजह के विवाद के बाद अमोघ लीला दास को जानने लगे हैं. अमोघ को जानने वाले लोग एक अलग वर्ग के हैं जो अभिजात्य हैं और धनाढ्य भी. इस तबके के लोगों के लिए धर्म के माने भी अलग लगभग विलासी हैं. इन का भगवान महंगे और भव्य मंदिरों में रहता है जिन में टैंट तले भंडारा नहीं होता बल्कि अक्षयपात्र होता है (अक्षयपात्र, पौराणिक साहित्य में वर्णित एक बरतन जिस में कितना भी निकाले जाओ, खाना कभी खत्म नहीं होता).

मंगल आरती के बाद होने वाले इस्कौन मंदिरों के अक्षयपात्रों में तर देसी घी और ड्राई फ्रूट से बने सैकड़ों व्यंजन होते हैं. इस वर्ग के लोग अगर खुले मैदानों के भंडारों में घटिया तेल से बनी पूरी, सब्जी, खीर और रायता खा लें तो उन्हें एमीबियोसिस या गैस्ट्रोएन्ट्राइटिस होना तय है.

अमोघ लीला इस्कौन से ताल्लुक रखते हैं जिसे इंग्लिश में इंटरनैशनल सोसाइटी फौर कृष्णा  कौंशेसियस्नैस और हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ कहते हैं. नाम से ही स्पष्ट है कि यह संस्था कृष्ण को आराध्य मानते उन के भक्ति सिद्धांतों और दर्शन का प्रचारप्रसार करती है. यही उस का कारोबार, मकसद और मिशन है.

दुनियाभर में इस के 400 से भी ज्यादा मंदिर हैं जिन में से एकाध ही सौ करोड़ रुपए से कम का होगा. साल 1964 में किन्ही आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने न्यूयौर्क में इस की स्थापना की थी जिस का मुख्यालय अब पश्चिम बंगाल के मायापुर में है. यह नगर कोलकाता से 123 किलोमीटर दूर है. धार्मिक जगत में इसे वैष्णव धार्मिक परंपरा का वैदिक नगर कहा जाता है. अलावा इस के, यह कृष्ण परंपरा के एक और नामी संत चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान भी है. गौडीय या गोदिया वैष्णव भक्तों के गढ़ इस मायानगरी में अरबोंखरबों के छोटे कम बड़े मंदिर ज्यादा हैं.

‘मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग आते गए और कारवां बढ़ता गया’ की तर्ज पर देखते ही देखते महज 59 साल में इस्कौन दुनिया का सब से बड़ा धार्मिक संप्रदाय बन गया, जिस के सदस्य विदेशों में गेरुए कपड़े पहने ‘हरे रामा हरे कृष्णा…’ की धुन पर उन्मादियों की तरह नाचतेगाते नजर आते हैं.

इन गोरी चमड़ी वालों को देख हमारे देश के मिडिल क्लासी हिंदू, जिन्हें इस्कौन की ई भी नहीं मालूम, बड़े फख्र से कहते नजर आते हैं कि देखी सनातन की महिमा, अंगरेज भी बाइबिल छोड़ हाथ में श्रीमद्भागवदगीता लिए झूम रहे हैं. अब ये ईसामसीह को नहीं, बल्कि कृष्ण को मानते और पूजते हैं. हालांकि यह नाचना, गाना और झूमना ठीक वैसा ही है जैसा देवानंद कृत फिल्म ‘हरे कृष्णा हरे रामा’ में जीनत अमान और उस की मंडली में था, बस, कमी हाथ में चिलम भर की रहती है.

कौन हैं अमोघ लीला दास

अमोघ लीला दास, जिन्हें कोईकोई इस्कौनी प्रभु भी कहने लगे हैं, उन लाखों युवाओं में से एक हैं जो इस्कौन से कम उम्र यानी नौजवानी में ही जुड़ गए थे. लखनऊ के खासे खातेपीते सिख परिवार में जन्मे अमोघ का सांसारिक नाम आशीष अरोड़ा है. कम उम्र से ही उन का रु?ान धर्म और आध्यात्म की तरफ हो गया.

साल 2004 में सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद उन्होंने अमेरिका की एक कंपनी में नौकरी कर ली लेकिन 2010 में छोड़ भी दी. वजह थी इस्कौन, जिस से जुड़ कर उन्होंने संन्यास और ब्रह्मचर्य धारण कर लिया. यह कोई नई या हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि लाखों पलायनवादी युवा जब संघर्ष क्षमता खोने लगते हैं तो वे वही करते हैं जो आशीष अरोड़ा नाम के युवक ने किया.

महत्त्वाकांक्षी अमोघ लीला दास उर्फ आशीष अरोड़ा को जल्द ही दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कौन मंदिर का उपाध्यक्ष बना दिया गया. इस्कौन के युवा संन्यासियों की जिंदगी आसान नहीं होती. उन्हें कई बंदिशों में रहना पड़ता है. मसलन, वे तामसी करार दे दिया गया खाना नहीं खा सकते. यानी मांस, मांसाहार और शराब तो दूर की बात है प्याज, लहसुन और चायकौफी भी नहीं पी सकते. अनैतिक आचरण की भी उन के लिए मनाही है और अनिवार्य यह है कि वे रोज कम से कम एक घंटा हिंदू शास्त्रों का पठन करें जिस से उन के दिलोदिमाग में छाया आध्यात्म का सुरूर बना रहे. इस से भी ज्यादा जरूरी और अहम काम यह है कि संन्यासी इस्कौन का साहित्य बेचें जिस से दूसरों के दिलोदिमाग में यह सुरूर ठूंसा जा सके.

इस्कौन मंदिरों में ही रहने वाले इन संन्यासियों की दिनचर्या जैन मुनियों सरीखी होती है जिन का खानापीना और पहनना तक बड़े गुरुओं के हुक्म के मुताबिक निर्धारित होता है, जिस के चलते इन की व्यक्तिगत इच्छाओं के कोई माने नहीं रह जाते. ये दिनरात कृष्ण भक्ति के प्रचार के अलावा भगवान और मोक्ष के बारे में ही सोचते रहते हैं. इस्कौन से जुड़े संपन्न परिवारों के युवा हर कहीं गीता बेचते नजर आ जाते हैं. ये कभी गरीब बस्तियों में नहीं जाते. यह बेचना भिक्षावृति का परिष्कृत रूप है क्योंकि कथित रूप से इन की रोजीरोटी यही होती है.

भोपाल के पटेलनगर स्थित एक युवा इस्कौनी संन्यासी की मानें तो जिस दिन गीता नहीं बिकती उस दिन उसे भूखा भी सोना पड़ता है. खिचड़ी भी नसीब नहीं होती. अमोघ ने ऐसा क्या कह दिया जिस पर ‘आदिपुरुष’ सरीखा विवाद हुआ. इस से पहले एक नजर उन युवाओं के पेरैंट्स की परेशानी पर डालना जरूरी है जिन की संतानें इस्कौन के झांसे में आ कर जिंदगी के सुख गिरवी रख चुकी हैं.

निशाने पर ये युवा 

यहां बदला हुआ नाम देने का भी कोई मतलब नहीं. भोपाल के पौश इलाके शाहपुरा के एक संपन्न प्रतिष्ठित दंपती पिछले एक साल से ढंग से खा, पी और सो नहीं पा रहे हैं क्योंकि उन का इकलौता बेटा इस्कौन का संन्यासी बनने की जिद लिए हुए है. वह हर कभी इस्कौन मंदिर चला जाता है और घर आ कर बहकीबहकी सी बातें करने लगता है.

20 वर्षीय यह युवा इंजीनियरिंग का छात्र है और पढ़ाईलिखाई में काफी होशियार है. कालेज कैंपस में ही वह इस्कौनियों के संपर्क में आया और उन से इतना प्रभावित हुआ कि मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म, संन्यास और मुक्तिभक्ति वगैरह की तथाकथित भारीभारी बातें करने लगा. दिनरात गीता और दूसरे धर्मग्रंथों में डूबे इस युवा में अपनी उम्र के लड़कों जैसा कोई शौक अब नहीं रह गया है.

पेरैंट्स को असल झटका तब लगा जब उन्हें यह पता चला कि साहबजादे एक परिचित को बिट्टन मार्केट स्थित पैट्रोल पंप पर इस्कौनियों के साथ गीता बेचते दिखे थे और आजकल वैशालीनगर स्थित एक होस्टल भी जाते हैं, जहां इस्कौन से जुड़े कोई 25 छात्र रहते हैं. इन पेरैंट्स की मानसिक अवस्था शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती जिन्हें कभी धर्मकर्म से परहेज नहीं रहा लेकिन अब घर का चिराग ही जरूरत से ज्यादा करने लगा है तो उन के हाथपांव फूले हुए हैं. हालत जांघ के पास हुई दादखाज जैसी हो गई है जिसे सार्वजनिक तौर पर खुजाया भी नहीं जा सकता.

लड़का काउंसलिंग के लिए किसी डाक्टर के पास जाने को तैयार नहीं. उलटे वह कहता यह है कि साईकेट्रिस्ट की जरूरत मुझे नहीं, आप लोगों को है. मैं तो प्रभु मार्ग पर चल पड़ा हूं. आप लोगों को ज्यादा परेशानी हो तो कल ही इस्कौन मंदिर में जा कर रहने लगता हूं. इस से मेरा आप का सांसारिक रिश्ता खत्म नहीं हो जाएगा.

विवेकानंद पर बेवजह का विवाद

यही कभी आशीष अरोरा ने किया था जो इन दिनों अपने एक विवादित बयान के कारण सुर्खियों में है. नई उम्र के लड़कों को तुलसी माला और भगवद्गीता के ज्ञान से परिचित कराने वाले अमोघ दास ने एक प्रवचन में जो कहा उस का सार इतना भर है कि स्वामी विवेकानंद और उन के गुरु रामकृष्ण परमहंस मछली खाते थे. उन में करुणा कैसे हो सकती है? विवेकानंद तो सिगरेट भी पीते थे. अपनी बात को जितना हो सकता था उस ने विस्तार दिया लेकिन खुद भी शायद ही समझ पाया होगा कि उस की मंशा आखिर थी क्या.

भारतीय दर्शन में कईयों की करुणा का हवाला अकसर दिया जाता है. इन में बुद्ध और महावीर की करुणा प्रमुख हैं. बाकी पौराणिक नायकों में तो करुणा पाई ही नहीं जाती थी. वे तो जिंदगीभर युद्ध और हिंसा में लगे रहे. राम और कृष्ण इस के अपवाद नहीं. अगर अमोघ गुरुनानक देव की करुणा की बात कर रहा था जिस की संभावना उस के सिख होने के चलते ज्यादा है तो भी वह विवेकानंद पर फिट नहीं बैठती.

विवेकानंद के मछली खाने न खाने से देश की मौजूदा समस्याओं का कोई ताल्लुक नहीं है, न तो इस से महंगाई काबू होने वाली, न भ्रष्टाचार कम होने वाला और न ही बेरोजगारी थमने वाली है. साधुसंत किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों, अकसर ऐसी ही बेतुकी बातें करते रहते हैं. इन बातों के जरिए भी वे अपने भक्तों को दिशानिर्देश देते रहते हैं कि उन्हें क्या खानापीना और पहनना है.

बात चूंकि विवेकानंद की थी, इसलिए भक्तों को बुरी लगी. सो, उन्होंने अमोघ दास को ट्रोल करना शुरू कर दिया. धनाढ्य बुद्धिजीवी वर्ग भी गंभीर हो उठा मानो कोई प्रलय आ गई हो और उस में अपनी भूमिका तय कर पाने में वे खुद को असमर्थ पा रहे हों. इन में से कुछेक को ही एहसास होगा कि दरअसल 1893 के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में विवेकानंद ने सनातन या हिंदू धर्म के जो बीज बोए थे उन की फसल आज तक इस्कौन काट रहा है.

4 जुलाई से उठा यह विवाद कोई एक हफ्ते बाद थमा जब इस्कौन ने अमोघ लीला दास को एक महीने के लिए बैन कर दिया. उन्हें मायापुर मुख्यालय से लिखित हुक्म दिया गया कि आप एक महीने सार्वजनिक जीवन से दूर रहते हुए मथुरा के गोवर्धन पर्वत में विचरण करेंगे. अब तक अपने भक्तग्राहकों में इस विवेकानंद मछली कांड का जम कर पोस्टमार्टम हो चुका था और ‘आदिपुरुष’ की तरह इस्कौन का नाम भी नए लोगों की जबां पर चढ़ चुका था कि इस से जुड़ कर सशुल्क मोक्ष हासिल किया जा सकता है.

यानी किसी मिलीभगत की साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता. मोक्ष की ग्राहकी और धर्म का धंधा बढ़ाने का यह टोटका काफी पुराना है और हर वर्ग में लोकप्रिय है. गरीब ?ाग्गीबस्तियों में मोक्ष नहीं बिकता. वहां नीबू, हड्डी और सिंदूर के टोटके चलते हैं. मिडिल क्लास हमेशा की तरह नीम करोली बाबा के अलावा बागेश्वर बाबा, प्रदीप मिश्रा और देवकीनंदन ठाकुर जैसे ब्रैंडेड बाबाओं की ग्रिप में है जो इन दिनों दोनों हाथों से दक्षिणा बटोरते हिंदू राष्ट्र के निर्माण की मुहिम में लगे हैं. इस्कौन भी राम और कृष्ण के नाम पर बनी हजारों संस्थाओं में से एक है और उस की मंजिल भी हिंदू राष्ट्र ही है. बस, राह और तरीका अलग है.

धन ही धर्म है

अगर आप की जेब में 35,500 रुपए हों तो आप इस्कौन से जुड़ सकते हैं. यह पैसे वालों का शोरूम है. यहां जब कोई आशीष अरोड़ा अमोघ लीला दास बनने की ख्वाहिश लिए आता है तो उस का बैंक बैलेंस भी इस्कौन का हो जाता है. उस के शरीर पर एक कपड़ा डाल उसे उकसाया जाता है कि और युवाओं को संन्यास के लिए प्रेरित करो जो सांसारिक भोगविलास में उल?ो कीड़ेमकोड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं. प्रभु तुम्हारे जरिए ही उन का उद्धार करना चाह रहे हैं. तुम्हारे पूर्वजन्म के पुण्य कर्म अब फलीभूत हो रहे हैं और यह जन्म तुम्हारा अंतिम जन्म साबित हो सकता है. इस के बाद तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा. तुम ईश्वर में विलीन हो जाओगे.

इस ब्रेनवाश के शिकार युवा संन्यासी सेल्समैनों की तरह गीता सीने से लगाए कालेज कैंपसों, मौल्स और चौराहों पर निकल पड़ते हैं. वे पूरे देश में दिखते हैं, मनाली के माल रोड पर भी मिल जाते हैं, बेंगलुरु के फीनिक्स मौल में भी उन्हें देखा जा सकता है.

रात को अपने मंदिर में आ कर खिचड़ी खाने के बाद ये एकदूसरे को बड़े उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने आज कितनी किताबें बेचीं और कितनों को संन्यास व मोक्ष के लिए प्रेरित किया. मथुरा में अमोघ लीला दास गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाने की कोशिश या प्रैक्टिस नहीं कर रहे होंगे बल्कि यह चिंतनमनन कर रहे होंगे कि और कैसेकैसे पैसे वाले शिक्षित अपरिपक्व बुद्धि वाले संभ्रांत परिवारों के युवाओं को इस्कौन से जोड़ा जा सकता है जिस से वे भव सागर पार हो जाएं.

न्यू इं.डि.या. की शुरुआत: भाजपा में असमंजस

पहले पटना, फिर बेंगलुरु में भाजपा के खिलाफ 26 राजनीतिक दलों के जुटान के बाद विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की कवायद पटना से शुरू हुई. तीसरे चरण की बैठक मुंबई में होगी.

इस गठबंधन को इं.डि.या. नाम देना राष्ट्रवाद पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती देने की सोचीसम?ा रणनीति है. इस में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का मूल संदेश भी शामिल है, जो देश के सभी समुदायों, जातियों और अलगअलग संस्कृतियों के बीच भाईचारा मजबूत कर के भारत की धर्मनिरपेक्षता व अखंडता को बचाए रखने की कोशिशों पर आधारित है.

बीते कुछ सालों में भाजपा ‘नेशन फर्स्ट’ का तमगा पहन कर खुद को सब से बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ घोषित करने में लगी है जबकि उस का ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ देश के संवैधानिक सिद्धांतों के बिलकुल विपरीत है और कोरा सनातनी धर्मी वाद है. 1947 में जब देश आजाद हुआ तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस का राष्ट्रवाद से दूरदूर तक कोई लेनादेना नहीं था. देश की आजादी की लड़ाई में आरएसएस की कोई भूमिका कभी नहीं रही, मगर इतने सालों बाद जब उस की बनाई राजनीतिक पार्टी को सत्ता की चाशनी चाटने का अवसर मिला तो अब उन का अपनी तरह का ‘राष्ट्रवाद’ फूटफूट कर बह रहा है.

पिछले 2 दशकों से आरएसएस और भाजपा की बहुसंख्यकवादी नीतियां ‘राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद’ का नारा लगा कर हिंदू आबादी को अपनी ओर खींचे रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की तकनीक अपनाए हुए है. सनातनी पूजापाठी और अंधविश्वासी हिंदू राष्ट्र बनाने की ऐसी धुन लगी है कि देशभर में हिंसा, आगजनी, नफरती भाषणों का बाजार गरम है. ताजा मामला मणिपुर में औरतों की नंगी परेड का है, जिसे दुनिया ने देखा और शर्म से आंखें भर आईं.

उल्लेखनीय है कि जिस दौरान यह अमानवीय और देश को दुनिया के सामने शर्मसार करने वाली घटना मणिपुर में घटित हुई उस वक्त देश के गृहमंत्री अमित शाह के दौरे मणिपुर में बारबार लग रहे थे.

2 महीने से एक राज्य सुलग रहा है, आदिवासी समाज पर हिंसा हो रही है, हत्याएं की जा रही हैं, महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं, उन की नंगी परेड कराई जा रही है, उन के वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर पोस्ट किए जा रहे हैं, मगर देश के गृहमंत्री उस को काबू करने में नाकाम हैं.

इस से ज्यादा इस देश के लिए शर्म की बात कोई और हो ही नहीं सकती. प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, दुनिया अपनी समस्याएं सुल?ाने के लिए आज भारत की ओर देख रही है. लेकिन, क्या वे बताएंगे कि भारत की महिलाएं अपनी इज्जत बचाने के लिए किस की ओर देखें?

2 दशकों से भाजपा देश में हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, दलित, आदिवासियों के दिलों में एकदूसरे के प्रति नफरत की खाईयां खोदने में लगी हैं और वास्तव में जो दल धर्मनिरपेक्ष व्यवहार करते हैं उन्हें राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क से ही बाहर खदेड़ दिया गया है. जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा शुरू की और देशभर में घूम कर हर धर्म, जाति, संप्रदाय को साथ आने का आह्वान किया, प्रेम से जीने का मंत्र दिया और भाजपा के भेदभावपूर्ण बहुसंख्यवाद और हिंसक राष्ट्रवाद का चेहरा उजागर किया तब जिस तरह इस यात्रा से लोगों का जुड़ाव हुआ, वह यह सम?ाने के लिए काफी है कि इस देश में कोई भी आम आदमी हिंसा नहीं चाहता. वह अपने पड़ोसी के साथ प्रेम और विश्वास से रहना चाहता है. फिर चाहे वह पड़ोसी किसी भी धर्म, जाति, संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो.

राहुल गांधी के विचार और भावनाओं, जिन में देश की जनता की भावनाएं भी समाहित हैं उन को मजबूती देने के लिए भाजपाविरोधी विपक्षी गठबंधन ने अपने एलाएंस का नाम ‘इंडिया’ रखा है. इस गठबंधन का पूरा नाम इंडियन नैशनल डैवलपमैंटल इनक्लूसिव अलायंस है.

हालांकि इस नाम को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इस सांकेतिक महत्त्व वाले नाम को भाजपा सहजता से नहीं लेगी. मगर इस नाम के साथ गठबंधन के दल देश की जनता को यह संदेश देने में तो कामयाब हो ही गए हैं कि उन की लड़ाई सत्ता हथियाने की नहीं, बल्कि इंडिया को बचाने की है.

‘इंडिया’ से दहला भाजपा का दिल

यह पहली बार नहीं है कि अनेक राजनीतिक दलों ने एक मंच पर आ कर सत्ता में बैठी पार्टी को ललकारा है. आज वह वक्त भी याद करने की जरूरत है जब इस से पहले भी कई बार देश ने विपक्षी एकजुटता देखी और सरकारें बदलती देखीं.

याद करें जब 1977 में पहली बार विपक्षी नेता साथ आए तो सत्ता उलट गई और गठबंधन की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभाली. देश में इमरजैंसी के बाद पहली बार 1977 में विपक्षी नेता एकसाथ आए थे. तब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैरकांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था.

इस के बाद 1989 में जनता पार्टी ने अलगअलग दलों के समर्थन से वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. फिर एनडीए ने 1996 में भाजपा ने अटल बिहारी बाजपेयी को चेहरा घोषित कर चुनाव लड़ा और भाजपा सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने छोटेछोटे दलों के साथ मिल कर बिना प्रधानमंत्री चेहरे के चुनाव लड़ा और जीता था, तब यूपीए में कांग्रेस के नेता के रूप में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे. 2009 में फिर मुकाबला एनडीए बनाम यूपीए में हुआ. यह वह समय था जब राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह 2 खेमों, यूपीए और एनडीए में बंट गई थीं. उस चुनाव में भी यूपीए की जीत हुई.

विपक्षी पार्टियों ने मिल कर ‘इंडिया’ नाम से जो गठबंधन बनाया है उस की टैगलाइन है- ‘जीतेगा भारत.’ उधर 38 पार्टियों वाली एनडीए ने दिल्ली में 2024 की रणनीति पर मंथन शुरू कर दिया है. अगला लोकसभा चुनाव एनडीए बनाम इंडिया होगा. एनडीए पर मंथन इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि इस बार 2019 को दोहरा पाना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार होगा जब इतनी सारी पार्टियों से मिल कर बने 2 गठबंधन आपस में भिड़ेंगे.

नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए को पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भारी जीत मिली. उस सिलसिले को बरकरार रखने और जीत की हैट्रिक बनाने की चुनौती अब मोदी और शाह के सामने है. 2019 में विपक्ष उस तरह से एकजुट नहीं था, जिस की तैयारी इस बार चल रही है. उस के साथ ही जिस तरह से 2019 में भाजपा मजबूत दिख रही थी, वैसी मजबूत स्थिति में वह इस बार नहीं है.

हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में और पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त पा कर उस के हौसले डगमगाए हुए हैं. इस बार भाजपा की राह उतनी आसान नहीं है जितनी 2014 और 2019 में थी. तब उस के पास बहुत बड़ा मुद्दा था राममंदिर का, जिस ने जनता के दिलों को छुआ था. मगर अब वह मनोरथ पूरा हो गया है. राममंदिर बन कर तैयार होने की कगार पर है. लिहाजा, वह मुद्दा अब पुराना हो गया. ध्रुवीकरण की आस और सिटिजंस (एनआरसी) और यूनिफौर्म (सिविल कोड) पर भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ रही है.

शाहीन बाग का प्रकरण लोग भूले नहीं हैं. कृषि कानूनों को जबरन लागू करने की जिद, किसानों को डेढ़ साल तक सड़कों पर बैठने के लिए मजबूर करना, उन की हत्याएं करना, ये जुल्मोसितम लोग कैसे भूल जाएंगे.

एनआरसी का हल्ला मचा कर मुसलमानों को भयभीत करने की कोशिश और अब समान अचार संहिता लागू करने का शोर मचा कर पर्सनल लौ से छेड़छाड़ जनता को रास नहीं आया है. न मुसलमानों को, न ईसाईयों को, न सिखों को और न आदिवासी जातियों/ जनजातियों को. यूनिफौर्म सिविल कोड अगर असल में कौंट्रेक्ट एक्ट या ट्रांसफर औफ प्रौपर्टी एक्ट की तरह यूनिफौर्म हुआ तो पंडों को सब से ज्यादा नाराजगी होगी.

यही वजह है कि मोदी सरकार को एनआरसी और यूसीसी दोनों ही मुद्दों पर अपनी खाल में वापस दुबकना पड़ रहा है. मणिपुर को बहुल बनाने की हिंदू की चाह में हत्या, बलात्कार, आगजनी और औरतों को नंगा कर के घुमाने का जो घिनौना खेल खेला गया है उस ने मोदी सरकार को बैकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया है. ऐसे में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ से मोदी सरकार सहमी हुई है.

कर्नाटक में पराजय से बौखलाहट

भाजपा के शीर्ष नेता कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए करीब एक साल से वहां हिंदूमुसलिमकरण की कोशिशों में जुटे थे. मुसलिम समुदाय पर वाक्य बाणों के हमले किए गए. हलाला, हिजाब से ले कर अजान तक के मुद्दे उछाले गए. ऐन चुनाव के समय बजरंगबली की भी एंट्री हो गई.

कांग्रेस ने जब बजरंग दल के उत्पात को देख कर उसे बैन करने का वादा किया तो भाजपा ने बजरंग दल को सीधे बजरंग बली से जोड़ दिया और पूरा मुद्दा भगवान के अपमान का बना दिया. कुल जमा यह कि चुनाव से पहले भाजपा ने कर्नाटक में जम कर हिंदुत्व कार्ड खेला लेकिन उस का दांव काम नहीं आया. सनातनी हिंदू धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं और भाजपा कर्नाटक में औंधे मुंह गिरी.

कर्नाटक में भाजपा न तो अपने कोर वोटबैंक लिंगायत समुदाय को अपने साथ जोड़े रख पाई और न ही दलित, आदिवासी, ओबीसी और वोक्कालिंगा समुदाय का ही दिल जीत सकी. भाजपा को अपने कोर वोटबैंक पर जबरदस्त भरोसा था लेकिन कर्नाटक में भाजपा का कोर वोटबैंक (लिंगायत) टूट गया. कित्तूर कर्नाटक (मुंबई-कर्नाटक), जहां लिंगायत अच्छी तादाद में हैं, वहां भी भाजपा को कड़ा ?ाटका मिला और उसे कई सीटें गंवानी पड़ीं. जबकि कांग्रेस मुसलिमों से ले कर दलित और ओबीसी तक को मजबूती से जोड़े रखने के साथसाथ लिंगायत समुदाय के वोटबैंक को भी साधने में सफल रही.

दरअसल भाजपा और आरएसएस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की एकसूत्री योजना के तहत अपने सनातनी प्रचार को बढ़ा रहे हैं. धार्मिक कर्मकांड, ब्राह्मणों को शीर्ष पद, अंधविश्वास को बढ़ावा, रूढि़वादिता आदि  से भारतीय समाज को अब छुटकारा मिल जाना चाहिए. भाजपा उसे इन्हीं जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहती है. मगर इस का जवाब कर्नाटक में 18 फीसदी लिंगायत समुदाय ने उसे बखूबी दे दिया है. लिंगायत समुदाय, जो मंदिर नहीं जाता, पूजा नहीं करता, जिस का मानना है कि मानव शरीर ही मंदिर है, ने भाजपा को चुनाव में पटखनी दे कर साफ कर दिया कि राज्य में भ्रष्टाचार का खात्मा, युवाओं को रोजगार और गरीबी कम करने वाले मुद्दे पर ही वे किसी पार्टी को वोट करेंगे. धर्म, जाति, संप्रदाय जैसे लोगों के बीच खाई पैदा करने वाले मुद्दों पर कोई उन का वोट नहीं पा सकता.

भ्रष्टाचार – भाजपा के कोढ़ में खाज

भ्रष्टाचार के मामले में कर्नाटक में भाजपा नेताओं का गिरफ्तार होना सब से ज्यादा शर्मनाक रहा, जिस के चलते कर्नाटक में चुनाव के वक्त भाजपा को खूब खरीखोटी सुननी पड़ी.

दरअसल बेलगावी में एक ठेकेदार ने भाजपा के मंत्री एस ईश्वरप्पा पर यह आरोप लगा कर आत्महत्या कर ली थी कि मंत्री द्वारा उस से 40 फीसदी कमीशन मांगा जा रहा है. इस के बाद कौन्ट्रैक्टर एसोसिएशन ने राज्य सरकार के मंत्रियों के खिलाफ मोरचा खोल दिया. नतीजा यह हुआ कि ईश्वरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की छीछालेदर हुई.

चुनावप्रचार के वक्त राहुल गांधी ने भ्रष्ट राजनेताओं के मुद्दे को खूब भुनाया. राहुल ने कहा, ‘राज्य में घोटाले हर जगह हैं. भाजपा विधायक का बेटा

8 करोड़ रुपए के साथ पकड़ा जाता है तो वहीं दूसरा भाजपा नेता कहता है कि 2,500 करोड़ रुपए में तो यहां मुख्यमंत्री की कुरसी खरीदी जा सकती है. कर्नाटक में जो भ्रष्टाचार हुआ, वह 6 साल के बच्चे तक को पता है. यहां पिछले 3 साल से भाजपा की सरकार है तो पीएम मोदी को भी कर्नाटक में भ्रष्टाचार के बारे में पता होगा.’

कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ जो ‘40 फीसदी पे-सीएम करप्शन’ का अभियान चलाया था वह धीरेधीरे बड़ा मुद्दा बन गया. यहां तक कि करप्शन के मुद्दे पर ही एस ईश्वरप्पा को मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के एक अन्य विधायक को जेल जाना पड़ा. यह मुद्दा भाजपा के लिए पूरे चुनावभर गले की फांस बना रहा और पार्टी इस की काट नहीं खोज सकी.

महंगाई और बेरोजगारी ने भाजपा को आईना दिखाया

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले जो भी सर्वेक्षण टीवी चैनलों ने किए उस में बेरोजगारी का मुद्दा सब से ऊपर था. वहां युवा बेरोजगारी से परेशान था, मगर भाजपा ने कभी इस मुद्दे को छुआ ही नहीं. जबकि कांग्रेस ने अपने चुनावप्रचार के दौरान बेरोजगारी और महंगाई को ही अपने अहम मुद्दों में शामिल किया.

कांग्रेस ने चुनावप्रचार के दौरान जनमानस से जुड़े 5 वादे किए. उस ने पुरानी पैंशन बहाल करने, 200 यूनिट तक बिजली फ्री देने, 10 किलो अनाज मुफ्त देने, बेरोजगारी भत्ता देने और परिवार चलाने वाली महिला मुखिया को आर्थिक मदद की बात कही. जनमानस से जुड़े इन मुद्दों की वजह से ही कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस के सिर जीत का सेहरा बांधा. जैसा अरविंद केजरीवाल के साथ दिल्ली और पंजाब में हुआ.

पश्चिम बंगाल में दीदी ने नहीं गलने दी भाजपा की दाल

पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में दीदी की पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल की है. भाजपा हलकान है कि साम, दाम, दंड, भेद के सारे हथकंडे अपना कर भी वह दीदी के सामने एक बार फिर बौनी साबित हुई. पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत कोई पहला मौका नहीं है.

2011 में बंगाल में शुरू हुआ ममता बनर्जी का विजयरथ लगातार पूरी लरजगरज के साथ आगे बढ़ रहा है. चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव या अब पंचायत चुनाव, ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने सभी में बाजी मारी है. बंगाल पंचायत चुनाव में भाजपा ही नहीं, बल्कि किसी भी विपक्षी पार्टी को एकतिहाई सीट भी हासिल नहीं हुई. ऐसा मालूम पड़ता है जैसे बंगाल में दीदी अजेय हैं. तृणमूल कांग्रेस की जीत से भाजपा हलकान है. दीदी ने उस के अरमानों पर फिर बिजली गिरा दी है.

तृणमूल कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में जहां 48 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ था, वह अब की पंचायत चुनाव में बढ़ कर 51.14 प्रतिशत हो गया. यानी बूथ स्तर पर जनजन से जुड़ कर तृणमूल कांग्रेस वहां बहुत मजबूत स्थिति में है. पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वोट शेयरों में भारी गिरावट के साथ ही वाम और कांग्रेस के अप्रत्याशित उभार ने 2024 के लोकसभा चुनाव में राज्य में भाजपा के 35 सीट हासिल करने के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

इस चुनाव में भाजपा को 22.88 प्रतिशत वोट शेयर मिला है, जो 2021 विधानसभा चुनाव में मिले 38 प्रतिशत वोट शेयर से कम है. वहीं वाम-कांग्रेस-इंडियन सैक्युलर फ्रंट गठबंधन की बात करें तो पिछले चुनाव में जहां उस का 10 प्रतिशत वोट शेयर था, वह इस बार बढ़ कर 20.80 प्रतिशत हो गया है, यानी दोगुना, यह 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनेगा.

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में कई जगह हिंसक वारदातें और हत्याएं हुईं. किस के इशारे पर हुईं, किस ने करवाईं इस की जांचें चल रही हैं. हालांकि भाजपा चुनाव के दौरान हिंसा और खूनखराबे का पूरा ठीकरा तृणमूल कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए इसे अपने वोट शेयर में गिरावट की वजह बताने में लगी है मगर पार्टी के ही कुछ जिम्मेदार स्थानीय नेता जानते हैं कि भाजपा के कृत्य और उस की नीतियां पश्चिम बंगाल की जनता को रास नहीं आ रही हैं.

भाजपा वहां जनता के मन को नहीं भांप पा रही है. वहीं खुद प्रदेश भाजपा में आंतरिक संगठनात्मक चुनौतियां भी हैं, जो राज्य में भाजपा के पैर नहीं जमने दे रहीं, फिर ममता बनर्जी का रसूख और बंगाल के लोगों के दिलों में उन की पैठ 2024 में भाजपा को बंगाल में मजबूती दे दे, ऐसा मुश्किल ही लगता है. बावजूद इस के, देश के गृहमंत्री अमित शाह बारबार राज्य से 35 लोकसभा सीटें जीतने की ताल ठोंक रहे हैं.

राज्य भाजपा की अंदरूनी कलह का खुलासा तो खुद भाजपा के राष्ट्रीय सचिव अनुपम हाजरा ने किया है. हाजरा ने कहा, ‘आप यह कह कर खारिज नहीं कर सकते कि संगठन में सबकुछ ठीक है. वोट शेयर में गिरावट के लिए केवल हिंसा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. संगठनात्मक खामियों को पहचानने और उन्हें दूर करने की जरूरत है. राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 35 सीटें जीतने का लक्ष्य संगठन की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कठिन ही लगता है.’

हालांकि हाजरा यह भी कहते हैं कि, ‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावप्रचार के लिए मैदान में उतरते हैं तो विपक्ष में उन के तेवरों से मेल खाता कोई दूरदूर तक नजर नहीं आता है.’ मगर ऐसा कहते वक्त अपनी बात के खोखलेपन का एहसास भी उन्हें बखूबी है.

पश्चिम बंगाल में बूथ स्तर पर भाजपा की पकड़ कितनी मजबूत है, यह पंचायत चुनाव के परिणाम से ही स्पष्ट हो जाता है. उत्तरी बंगाल और आदिवासी बहुल जंगलमहल जिलों के अपने पूर्व गढ़ों में भी भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है.

दरअसल भाजपा उग्र स्वभाव की पार्टी है तोड़नेफोड़ने में उस का विश्वास है. जबकि बंगाली मानुष ‘रसोगुल्ला’ सा मीठा और कोमल होता है. वह मिलजुल कर प्रेम और शांति से रहने में विश्वास करता है. भाजपा की छवि से वह कतई मेल नहीं बिठा पा रहा है. भाजपा बंगाल में लोगों को भड़का कर, ध्रुवीकरण कर के अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है.

ध्रुवीकरण उन जगहों पर तो आसानी से हो सकता है जहां 2 धर्मों के खानपान, रहनसहन, पहनावे, विचार में फर्क हो, जैसे उत्तर भारत में हिंदू और मुसलमानों में फर्क साफ नजर आता है, मगर बंगाल में क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी तो बांग्ला बोलते हैं. माछभात दोनों का खास भोजन है. पहनावा भी लगभग समान है. तो जब भोजन व बोली एक तो भाजपा बांटने की लाख कोशिश कर ले, बंगाली मानुष बंट नहीं सकता.

दीदी का जलवा

राजनीतिक हलकों में काफी समय तक ममता बनर्जी को बखेड़ा खड़ा करने वाली अपरिपक्व नेता के तौर पर देखा जाता रहा. उन के बारे में ऐसी राय बनी रही कि उन्हें बड़े परिपक्व नेताओं के बीच नहीं बुलाया जाना चाहिए. पता नहीं कब, कहां, क्या बवाल मचा दें. मगर आज दीदी की चर्चा राष्ट्रस्तर पर है. उन के बगैर विपक्षी एकता या विपक्षी गठबंधन की बात करना ही बेमानी है.

2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर 18 जुलाई को बेंगलुरु में विपक्षी जमावड़े में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की उपस्थिति ने ‘विपक्षी एकता मंच’ में जो जान फूंकी, उस के बाद से ही भाजपा रक्षात्मक मोड में आ गई है. दीदी ने तो यह कह कर चुटकी ले ली कि, ‘भाजपा एक गिलास नहीं पलट सकती, मेरी सरकार क्या पलटेगी?’

बेंगलुरु में विपक्षी एकता मंच पर ममता बनर्जी और सोनिया गांधी को इतना ऐक्टिव देख कर एनडीए ने पुनर्निर्माण की कवायद शुरू कर दी है. उस के सहयोगियों की तलाश तेज हो गई है. छोटेछोटे क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की कोशिश में तमाम शीर्ष नेता शीर्षासन कर रहे हैं. दरअसल कर्नाटक में अपनी दुर्गति और उस के बाद बंगाल पंचायत चुनाव में अपनी छीछालेदर होने के बाद भाजपा बुरी तरह घबरा उठी है.

मां, माटी, मानुष से जुड़ी ममता

ममता ने 2011 में बंगाल के लोगों का दिल एक नारे से जीत लिया था- मां, माटी और मानुष. इस नारे के 3 शब्दों- मां यानी मातृशक्ति, माटी यानी बंगाल की भूमि और मानुष यानी बंगाल के लोग, इन 3 को ममता ने अपने दिल के करीब बता कर बंगाल का दिल जीत लिया था. ममता बनर्जी हमेशा बंगाल के लोगों के हितों पर बात करती हैं. इसी का परिणाम है कि लोग उन्हें हर चुनाव में विजयी बनाते हैं.

ममता हमेशा जमीन से जुड़ी नेता रही हैं. अपने लोगों के लिए वे एक खुली किताब की तरह हैं. सफेद सूती साड़ी, पैर में रबड़ की चप्पल, कंधे पर पर्स की जगह सूती कपड़े का ?ाला टांगे ममता को अपनी मां के घर से पैदल निकलते जिस ने भी देखा वह उसी पल उन के व्यक्तित्व का कायल हो गया.

ममता हमेशा बंगाल के लोगों के बीच रहीं. राजनीति में आने के बाद भी वे बेहद साधारण से उस घर में रहती रहीं जिस की छत टिन की है और जिस के बगल से एक खुली नहर बहती है, जहां मच्छरों का बसेरा है. उन का सब से ज्यादा जुड़ाव अपनी मां गायत्री देवी से था जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.

ममता जब भी अपने कालीघाट स्थित उस घर से काम के लिए निकलती थीं तो उन की मां उन्हें बाहर तक छोड़ने के लिए आया करतीं थीं. ममता अपनी गरदन घुमातीं और तब तक अपनी मां को देखा करतीं जब तक कि वे उन की आंखों से ओ?ाल नहीं हो जातीं. मां के घर के भीतर चले जाने के बाद ही वे कार में बैठती थीं. बंगाल के लोगों के लिए यह नजारा आम था. मां के प्रति ममता का वह प्रेम जनता के दिलों में उन के लिए एक स्थायी जगह बना चुका है.

ममता ने बंगाल की जनता के लिए अपने शासनकाल में अनगिनत कल्याणकारी योजनाएं चलाईं. इस का फायदा आम लोगों तक पहुंचा, जिस के चलते बंगाल के लोगों का भरोसा ममता बनर्जी पर कायम हुआ.

ममता ने अपने राज्य में कभी हिंदूमुसलिम में भेद नहीं किया. बंगाल का मुसलमान ममता पर आंख मूंद कर भरोसा करता है. उसे पता है कि ममता हैं तो वह सुरक्षित है. कोई भी चुनाव हो, ममता के लिए मुसलमानों का एकतरफा वोट पड़ता है. ममता ने समयसमय पर मुसलमानों के हित में कई फैसले लिए हैं.

ममता का जुझारू तेवर

बंगाल के लोगों को ममता बनर्जी का जु?ारू तेवर पसंद आता है. ममता आम लोगों के हितों के लिए जुझारू तरीके से लड़ती हैं. इस के चलते लोग ममता को चाहते हैं और उन्हें ही चुनते हैं.

भाजपा को घेरने और टोकने का कोई मौका ममता छोड़ती नहीं हैं. हाल ही में कोलकाता की एक जनसभा में उन्होंने केंद्र सरकार के रवैए को उजागर करते हुए कहा, ‘सुनने में आ रहा है कि अब हमें साल 2024 तक फंड नहीं मिलेगा. ऐसा हुआ तो जरूरत पड़ने पर मैं आंचल फैला कर बंगाल की माताओं के सामने भीख मांग लूंगी, लेकिन भीख मांगने दिल्ली (केंद्र सरकार के पास) कभी नहीं जाऊंगी.’

यह पहला मौका नहीं था जब ममता ने केंद्र पर बंगाल सरकार को फंड न देने का आरोप लगाया. 29 और 30 मार्च को उन्होंने राज्य की योजनाओं के लिए केंद्र की ओर से फंड न देने का आरोप लगा कर कोलकाता में 2 दिनों तक धरना भी दिया था. तब धरने पर बैठीं ममता ने कहा था कि 100 दिन काम योजना और अन्य योजनाओं के लिए केंद्र सरकार राशि जारी नहीं कर रही है. केंद्रीय बजट में भी हमें मनरेगा और आवास योजना के लिए एक रुपया नहीं दिया गया है.

एक सर्वे रिपोर्ट से उड़ी भाजपा की नींद

‘2024 के चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है’, चुनावों पर करीब से नजर रखने वाली संस्था सीएसडीएस की इस सर्वे रिपोर्ट से भाजपा की नींद उड़ी हुई है. यह रिपोर्ट मार्च में आई थी और तमाम दलों के वोटबैंक आकलन के साथ सीएसडीएस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने का फार्मूला दिया था. सीएसडीएस का दावा है कि अगर इस फार्मूले पर काम किया जाए तो अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को आसानी से सत्ता से बाहर किया जा सकता है.

दरअसल सीएसडीएस ने 2024 चुनावों को ले कर जो सर्वे किया, उस के मुताबिक, अगर भाजपा को छोड़ कर सारा विपक्ष साथ मिल कर चुनाव लड़े तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से आसानी से रोका जा सकता है. सर्वे करने वाली संस्था का कहना है कि ऐसा होने पर विपक्ष को आसानी से बहुमत मिल जाएगा.

सीएसडीएस के इस दावे के पीछे पिछले चुनावों में तमाम दलों को मिली सीटें और वोट प्रतिशत है. अपनी रिपोर्ट में सीएसडीएस ने दावा किया है कि अगर सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ मिल कर चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा 235-240 सीटों पर सिमट सकती है. 2019 में भाजपा को मिली सीटों में सहयोगी दलों का भी बड़ा हाथ था.

आंकड़े बताते हैं कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले एक फीसदी वोट भी कम मिलते हैं तो भाजपा 225-230 सीटों पर सिमट जाएगी, जबकि विपक्ष 310-325 सीटों तक पहुंच जाएगा और अगर भाजपा 2024 के चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले 2 प्रतिशत वोट कम पाती है तो उस की सीटों की संख्या 210-215 तक आ जाएगी.

इस रिपोर्ट के आने के बाद यह देखना है कि क्या विपक्ष सचमुच में भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को रोकने के लिए पूरी मजबूती से साथ एकजुट हो जाएगा या फिर महज मोदी और भाजपा के खिलाफ बातें कर के अपने वोटबैंक को बचाने की कवायद में ही जुटा रहेगा.

Raksha Bandhan : भैया – कीर्ति निशा का अनोखा रिश्ता

कीर्ति ने निशा का चेहरा उतरा हुआ देखा और सम झ गई कि अब फिर निशा कुछ दिनों तक यों ही गुमसुम रहने वाली है. ऐसा अकसर होता है.

कीर्ति और निशा दोनों का मैडिकल कालेज में दाखिला एक ही दिन हुआ था और संयोग से होस्टल में भी दोनों को एक ही कमरा मिला. धीरेधीरे दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई.

कीर्ति बरेली से आई थी और निशा गोरखपुर से. कीर्ति के पिता बैंक में अधिकारी थे और निशा के पिता महाविद्यालय में प्राचार्य.

गंभीर स्वभाव की कीर्ति को निशा का हंसमुख और सब की मदद करने वाला स्वभाव बहुत अच्छा लगा था. लेकिन कीर्ति को निशा की एक ही बात सम झ में नहीं आती थी कि कभीकभी वह एकदम ही उदास हो जाती और 2-3 दिन तक किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी.

आज रक्षाबंधन की छुट्टी थी. कुछ लड़कियां घर गई थीं और बाकी होस्टल में ही थीं क्योंकि टर्मिनल परीक्षाएं सिर पर थीं. कीर्ति ने निश्चय किया कि आज वह निशा से जरूर पूछेगी. होस्टल में घर की याद तो सभी को आती है पर इतनी उदासी…

नाश्ता करने के बाद कीर्ति ने निशा से कहा, ‘‘चल यार, बड़ी बोरियत हो रही है घर की याद भी बहुत आ रही है. वहां तो सब त्योहार मना रहे होंगे और यहां हमें पता नहीं कि उन्हें हमारी राखी भी मिली होगी या नहीं.’’

निशा ने भी प्रतिवाद नहीं किया. दोनों औटो से पार्क पहुंचीं. वहां का माहौल बहुत खुशनुमा था. कई परिवार त्योहार मनाने के बाद शायद पिकनिक मनाने वहां पहुंचे थे. दोनों एक कोने में नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खाली बैंच पर बैठ गईं. निशा चुपचाप खेलते हुए बच्चों को देख रही थी. कीर्ति ने पूछा, ‘‘निशा, अब हम और तुम अच्छे दोस्त बन गए हैं. मु झे अपनी बहन जैसी ही सम झो. मैं ने कई बार नोट किया कि तुम कभीकभी बहुत ज्यादा उदास हो जाती हो. आखिर बात क्या है?’’

निशा बोली, ‘‘कुछ खास बात नहीं. बस, घर की याद आ रही थी. आज हलके बादलों ने काली घटाओं का रूप ले लिया था और जब भी ऐसा माहौल बनता है तो मु झ पर बहुत उदासी छा जाती है.’’

‘‘इस के पीछे ऐसी क्या बात है?’’ कीर्ति ने पूछा.

‘‘बस, मेरे घर की कहानी बहुत ही अनोखी और उदास है,’’ निशा कहने लगी, ‘‘सुनोगी तुम?’’

कीर्ति बोली, ‘‘तुम सुनाओगी तो जरूरी सुनूंगी.’’

‘‘हम 4 बहनें हैं. हमारा कोई भाई नहीं था. बड़ी दीदी रेखा स्कूल में टीचर हैं. दूसरी सुमेधा, जो एलआईसी में काम कर रही हैं. तीसरी मैं और सब से छोटी बल्ली. मां और पापा को बेटे की बहुत इच्छा थी इसीलिए हम एक के बाद एक 4 बहनें हो गईं. मां व पापा को बेटे की चाहत के अलावा दादी को पोते को खिलाने की इच्छा हरदम सताती रहती थी.

‘‘रक्षाबंधन आने वाला होता. उस के कई दिन पहले से घर में एक अजीब सी उदासी पसर जाती थी. अपने मामा, चाचा और बूआ के बेटों को हम बहनें पहले ही राखियां भेज देती थीं. मां ऐसे में बहुत असहाय हो जातीं, जो हम से देखा नहीं जाता था पर दादी की कुढ़न उन के व्यंग्यबाणों से बाहर निकलती. पापा तो स्कूल से आ कर ट्यूशन के बच्चों से घिरे रहते. पढ़ाईलिखाई के इसी माहौल में हम लोग पढ़ने में अच्छे निकले.

‘‘एक बार राखी के दिन हमेशा की तरह सुबह पापा ने दरवाजा खोला और एकाएक उन के मुंह से चीख निकल गई. मम्मी किचन छोड़ कर बाहर की ओर दौड़ीं और वहां का नजारा देख कर वे भी हैरान रह गईं. दरवाजे के पास एक छोटा सा बच्चा लेटा हुआ हाथपैर मार रहा था.

‘‘‘अरे, यह कहां से आया?’ पापा बोले, ‘शायद कोई रख गया है,’ मम्मी अभी भी हैरान थीं.

‘‘इतनी देर में दादी और हम सब भी वहां पहुंच गए. थोड़ी ही देर में यह बात जंगल में आग की तरह पूरे महल्ले में फैल गई कि गुप्ताजी के दरवाजे पर कोई बच्चा रख गया है. बारिश के बावजूद बहुत से लोग इकट्ठा हो गए.

‘‘‘इसे अनाथाश्रम में दे दो,’ भीड़ से आवाज आई. ‘अरे, थोड़ी देर इंतजार करना चाहिए, शायद कोई इसे लेने आ जाए,’ नीरा आंटी बोलीं.

‘‘किसी ने कहा, ‘पुलिस में रिपोर्ट करानी चाहिए.’

‘‘धीरेधीरे सब लोग जाने लगे. त्योहार भी मनाना था.

‘‘‘वैसे आप की मरजी प्रो. साहब, पर मेरी राय में दोपहर तक इंतजार के बाद आप को इसे बालवाड़ी अनाथ आश्रम को सौंप देना चाहिए,’ कालोनी के सैके्रटरी ने कहा.

‘‘‘तुम चलो भी…उन के यहां का मामला है, वे चाहे जो भी करें,’ सैक्रेटरी की बीवी ने उन्हें कोहनी मारी.

‘‘‘कुछ भी हो मिसेज गुप्ता…रक्षाबंधन के दिन बेटा घर आया है…कुछ भी करने से पहले सोच लेना,’ जातेजाते भीड़ में से कोई बोला.

‘‘इस हैरानीपरेशानी में दोपहर हो गई. खाना भी नहीं बना. बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. लगता था जैसे किसी मजबूर के आंसू ही आसमान से बरस रहे हों. जाने किस मजबूरी में अपने कलेजे के टुकड़े को उस ने अपने से दूर किया होगा.

‘‘इधर लोग गए और उधर दादी और उन की ममता दोनों ही जैसे सोते से जागीं. उन्होंने उस नन्ही सी जान को गोद में ले कर पुचकारना और खिलाना शुरू कर दिया. उसे गरम पानी से नहलाया और जाने कहां से ढूंढ़ कर उसे हमारे पुराने धुले रखे कपड़े पहनाए. कटोरी में दूध ले कर उसे चम्मच से पिलाने लगीं.

‘‘पापा ने नहाधो कर जब बूआ की राखी हम लोगों से बंधवाई तब दादी बोलीं, ‘अब इस छोटे से भैया राजा को भी तुम लोग राखी बांध दो. रक्षाबंधन के दिन आया है. मैं तो कहती हूं तुम लोग इसे अपने पास ही रख लो.’

‘‘मम्मी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कहां छुआछूत को मानने वाली उन की रूढि़वादी सास और कहां न जाने किस जात का बच्चा है फिर भी उसे ऐसे सीने से चिपकाए थीं कि मानो उन का सगा पोता हो. मम्मीपापा पसोपेश में थे पर दादी की इस बात पर कुछ नहीं बोले.

‘‘दोपहर बाद भी लोग आते रहे, जाते रहे और तरहतरह की नसीहतें देते रहे पर दादी इन सब बातों से बेखबर उस की नैपी बदलने और उसे दूध पिलाने की कोशिश में लगी रहीं.

‘‘अगली सुबह सब चिंतित थे कि क्या होगा पर मम्मी के चेहरे पर दृढ़ निश्चय था.

‘‘‘मैं अनाथ आश्रम में जा कर बात करता हूं,’ पापा  के यह कहते ही मम्मी बोल उठीं, ‘नहीं, नन्हा यहीं रहेगा,’ पापा ने भी प्रतिवाद नहीं किया और दादी तो खुश थीं ही.

‘‘बस, उसी दिन से भैया हमारे घर और जिंदगी में आ गया. मैं भैया के प्रति शुरू से ही बहुत तटस्थ थी, जबकि दोनों बड़ी बहनें थोड़ी नाखुश थीं. उन की बात भी कुछ हद तक सही थी. उन का कहना था कि मांपापा के अच्छे व्यवहार और इस घर की अच्छी साख का किसी ने फायदा उठाया है और वह यह भी जानता है कि इस घर को एक बेटे की तीव्र चाह थी.

‘‘खैर, उस गोलमटोल और सुंदरसी जान ने धीरेधीरे सब को अपना बना लिया.

‘‘मां और दादी जतन से उसे पालने लगीं. वह बड़ा तो हो रहा था पर साल भर का हो जाने पर भी जब उस ने चलना तो दूर, बैठना और गर्दन उठाना भी नहीं सीखा तब सब को चिंता

हुई. फिर उसे बच्चों के डाक्टर को दिखाया गया.

‘‘डाक्टर ने कई टैस्ट कराए और तब पता चला कि उसे सेरेब्रल पाल्सी, यानी एक ऐसी बीमारी है जिस में दिमाग का शरीर पर कंट्रोल नहीं होता है.

‘‘उस दिन जैसे फिर एक बार हमारे घर पर बिजली गिरी. मां, पापा, दादी के साथ हम सभी बहनों के चेहरे भी उतर गए. पापा के अभिन्न मित्र ने फिर सम झाया कि उसे किसी अनाथ आश्रम को सौंप दें पर अब यह असंभव था क्योंकि पापा को थोड़ा समाज के उपहास का डर था और मां, दादी को उस से बहुत अधिक मोह.

‘‘वैसे भी यह कहां ठीक होता कि अच्छा है तो अपना और खराब है तो गैर. इसलिए भैया घर में ही है, अब करीब 6 साल का हो गया है पर लेटा ही रहता है. मां को उस का सब काम बिस्तर पर ही करना पड़ता है. दादी तो अब रही नहीं, कुछ समय पहले ही उन का देहांत हुआ.

‘‘मां कभीकभी बहुत उदास हो जाती हैं. कहां तो भैया के आने से उन्हें आशा बंधी थी कि शायद बुढ़ापे में बेटा सेवा करेगा पर अब तो जब तक जीवन है, उन्हें ही भैया की सेवा करनी है.’’

निशा फफकफफक कर रो पड़ी. कीर्ति की आंखें भी नम थीं. थोड़ी देर खामोशी रही फिर कीर्ति ने उसे ढाढ़स बंधाया.

‘‘इसलिए मैं डाक्टर बन कर ऐसे बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हूं, पर सच कहूं तो भैया का आगमन हमारे घर न हुआ होता तो आज मेरे मांबाप ज्यादा सुखी होते. जीवन की संध्या समाज सेवा में बिताते पर बेटे के मोह ने उन से वह सुख भी छीन लिया.’’

कीर्ति चुपचाप उस की बातें सुनती रही फिर उदास कदमों से दोनों होस्टल की ओर चल पड़ीं.

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