Download App

Raksha Bandhan : अकाल्पनिक- क्या मयंक ने पुजारी से राखी बंधवाई थी?

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा.

मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा कि अशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा.

‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’

‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली.

‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते  हुए शोरूम में बड़े आकर्षक  डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं,

रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’

‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा.

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’

‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहुत कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने पापा से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा.

कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर

गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए.

‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा.

‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’

सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’

गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए.

‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’

‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’

‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’

‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा.

‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया.

‘‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी.

‘‘हैलो, चुन्नी… हां, मैं ठीक हूं… अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है… मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा.

‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा.

‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’

‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता

वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा.

‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा.

‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’

स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया.‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोई बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था.

‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना.

‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गईर् थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी.

‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’

कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

चमत्कारी दादू : अम्मा जी ने अकाउंटैंट को क्यों हटाया नौकरी से ?

“हाय माय स्वीटी, दादू! आज आप इतना डल कैसे दिख रही हो? मैं तो मूड बना कर आया था आप के साथ बैडमिंटन खेलूंगा, लेकिन आप तो कुछ परेशान दिख रही हो”

“अरे बेटा, कुश, बस तेरी इस लाड़ली बहन कुहु की फिक्र हो रही है. ये कुहु अंशुल के साथ अपने रिश्ते में इतना आगे बढ़ चुकी है पर अंशुल के पेरैंट्स इस रिश्ते से खुश नहीं. अब जब तक लड़के के मांबाप खुशीखुशी बहू को अपनाने के लिए राजी नहीं होते, तो भला कोई रिश्ता अंजाम तक कैसे पहुंचेगा. मुझे तो बस यही फिक्र खाए जा रही है. मेरी तो कल्पना से परे है कि आज के जमाने में भी किसी की इतनी पिछड़ी सोच हो सकती है. आजकल जाति में ऊंचनीच भला कौन सोचता है. वे ऊंचे गोत्र वाले ब्राह्मण हैं, तो हम भी कोई नीची जात के तो नहीं.”

“अरे दादू, इकलौते बेटे को नाराज कर वे कहां जाएंगे, मान जाएंगे देरसवेर. आप टैंशन मत लो, वरना नाहक आप का बीपी बढ़ जाएगा. चलो थोड़ी देर बैडमिंटन खेलते हैं, मेरी अच्छी दादू.”

बैडमिंटन खेलतेखेलते भी पोती की चिंता ने आभा जी का पीछा नहीं छोड़ा.

करीबन आधे घंटे खेल कर, तरोताजा हो कर उन्होंने अंशुल को घर बुला कर उस से उस की शादी के मुद्दे पर गंभीर चर्चा की.

“अंशुल, तुम्हारा क्या फैसला है? मैं तो हर तरह से तुम्हारे पेरैंट्स को समझा कर हार गई. अब तो बस एक ही रास्ता बचता है. अगर तुम कुहु के साथ कोर्ट मैरिज कर के उन के सामने जाओ, तो उन्हें मजबूरन तुम्हारी शादी के लिए तैयार होना ही होगा. मुझे तो इस के अलावा कोई और विकल्प नजर नहीं आ रहा.”

“दादी, इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. अगर मैं बस उन से यह कह दूं कि मैं कुहू के साथ कोर्ट मैरिज करने के लिए कोर्ट में अर्जी दे रहा हूं तो उन के पास हमारी शादी के लिए हामी भरने के अलावा कोई चारा न बचेगा.”

“ठीक है, बेटा. जैसा तुम चाहो.”

अंशुल ने उसी दिन अपने पेरैंट्स को कोर्ट मैरिज की धमकी दी और उस की सोच के मुताबिक कुहु के साथ उस के विवाह के लिए उन का प्रतिरोध ताश के पत्तों के महल की भांति ढह गया.

आज आभाजी बेहद खुश थीं. आज ही तो कुहु के होने वाले सासससुर अपने बेटे के साथ खुशीखुशी रोके की तिथि निश्चित कर के अभीअभी गए थे.

“दादू, दादू, अब तो खुश? अब तो आप की समस्या हल हो गई न?”

“हां बेटा. आज मैं बहुत खुश हूं. आज कुहु की शादी की मेरी बरसों पुरानी साध पूरी हुई.”

“हां दादू, मैं भी बहुत खुश हूं. आप तो वाकई में अमेज़िंग हो. आप के पास हर समस्या का तोड़ है,” पोते ने लड़ियाते हुए उन की गोद में लेटते हुए कहा.

तभी उन की एक पड़ोसिन वंदिता का फोन उन के पास आया.

“हैलो दीदी, प्रणाम.”

“प्रणाम वंदिता. कहो, कैसे याद किया?”

“दीदी, रुनझुन को ले कर मन में कुछ उलझन थी. तो मैं उसी बाबत आप से सलाह लेना चाह रही थी.”

“हांहां, बोलो. निस्संकोच बोलो.”

“दीदी, रुनझुन को घर आए 3 महीने हो चले, लेकिन वह ससुराल जाने का नाम ही नहीं लेती. जब भी मैं कहती हूं, बेटा, दामाद जी को तुम्हारे बिना परेशानी हो रही होगी, वह कह देती है, ‘अरे मां, आप के दामादजी के पास उन की मां और बहनें हैं न. वे मुझ से ज्यादा उन के साथ खुश रहते हैं. मेरा फिलहाल उन के पास जाने का मन नहीं.’

“अब आप ही बताओ दीदी, शादी के बाद लड़की का इतने इतने दिन मायके में रहना क्या सही है?”

“हूं, तो यह बात है. चलो, शाम को बिटिया को ले कर घर आ जाओ. मैं उसे समझाती हूं.”

आभाजी ने रुनझुन को समझाया, “बेटा, शादी एक बेहद जिम्मेदारीभरा रिश्ता है, जिसे बेहद समझदारी और धैर्य से निभाना पड़ता है. तुम्हें ससुराल या दामाद जी से क्या परेशानी है?”

“ताई जी, ससुराल में मुझे बहुत घुटन महसूस होती है. सुबह 7 प्राणियों का खाना बना कर जाओ और रात को फिर वही रूटीन. इधर आजकल मेरे औफिस में बेहद व्यस्त दिनचर्या चल रही है. वर्षांत होने की वजह से औडिटिंग के सिलसिले में दसदस घंटों की ड्यूटी देनी पड़ रही है. तो सुबह 9 बजे की निकलीनिकली रात के 7 बजे ही घर लौट पाती हूं. अब आप ही बताइए, मैं रसोई का काम कैसे करूं? इतना लेट आने पर सासुजी कलह करती हैं. मुझे नौकरी छोड़ने के लिए धमकाती हैं. तो मैं अभी वापस नहीं जा रही.”

“बेटा, बुरा मत मानना. शादी के बाद घरपरिवार की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना क्या सही है? औफिस के काम की आड़ ले कर अगर तुम मायके से ससुराल जाना ही नहीं चाहो, तो यह तो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना हुआ न बेटा?”

“आंटीजी, मैं आप की बात से पूरी तरह सहमत हूं. आप ही बताइए, बारहबारह घंटे घर से बाहर बिता कर मैं रसोई का काम कैसे करूं. मैं अपनी यह इतनी अच्छी नौकरी छोड़ने वाली तो बिलकुल हूं नहीं.”

रुनझुन की ये बातें सुन अम्मा जी ने वंदिता से उस के दामाद अमेय से मिलने की इच्छा जाहिर की.

अगले दिन दामाद अमेय के अपने घर आने पर आभाजी ने औपचारिक कुशलक्षेम के बाद उस से कहा, “अमेयजी, हमारी बिटिया की जिम्मेदारी पूरी तरह से आप के ऊपर है. इसे बस यह गिला है कि 12 घंटे घर बाहर रहने के बाद इस में दोनों वक्त की रसोई निबटाने की हिम्मत नहीं बचती. अब आप ही बताइए, वह पूरी तरह से गलत तो नहीं?”

“आंटीजी, घर के काम की वजह से मायके आ कर बैठ जाना क्या सही है? मैं तो इसे समझासमझा कर हार गया. लेकिन यह घर चलने को तैयार ही नहीं होती.”

इस पर आभा जी ने उसे समझाया कि वह खाना बनाने के लिए एक सहायिका का इंतजाम करे.

घर पहुंच कर अमेय ने यह बात मां के समक्ष रखी. सब की सहमति से यह फैसला हुआ कि एक सहायिका खाना बनाने में रुनझुन की मदद करने के लिए रखी जाएगी.

इस निर्णय को अमेय के मुंह से सुनने के बाद वंदिता ने आभाजी का लाखलाख शुक्रिया अदा किया कि उन के मशवरे से उन की बेटी का घर उजड़ने से बच गया.

आभा जी वंदिता के घर से लौट कर अपने कमरे में आराम ही कर रही थीं, कि तभी उन का बेटा घर में घुसा.

“क्या हुआ बेटा, बेहद थके थके नजर आ रहे हो?”

“अरे मां, औफिस में अकाउंट में भारी गड़बड़ी नजर आ रही है. लेकिन अकाउंटैंट उसे ठीक तरह से समझ नहीं पा रहे. मैं भी सुबह से वही गड़बड़ पकड़ने की कोशिश में लगा हुआ था, लेकिन पकड़ नहीं पाया.”

“ओ बेटा, तूने मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया औफिस? तुझे तो पता है, ऐसी गड़बड़ी ढूंढने में मैं माहिर हूं. आखिर मेरी एमकौम की डिग्री कब काम आएगी?”

“मां, अब बारबार आप को औफिस के कामों में उलझाने का मन नहीं करता.”

“अरे बेटा, तू नाहक ही परेशान होता रहता है. ले चल, अभी अपने लैपटौप पर तेरा अकाउंट चैक करती हूं.”

आभाजी ने पूरे दिन लग कर अकाउंट की बारीकी से जांच कर उस में की गई भयंकर हेराफेरी पकड़ ली.

अकाउंट की गहन छानबीन से पता चला कि उन के नए मैनेजर ने बेहद चतुराई से एक बड़ी रकम का गबन किया था.

अम्मा जी ने फौरन ही बेईमान अकाउंटैंट को नौकरी से हटा दिया, और एक नया ईमानदार अकाउंटैंट को नियुक्त कर दिया.

पूरे दिन अकाउंट की जांच करतेकरते अम्माजी पस्त हो आराम कर रही थीं, कि तभी उन की बहू की चचेरी बहन की बिन मांबाप की बेटी सलोनी मुदित मन कहते हुए उन के पास आई, “अम्मू, अम्मू, यह देखो मेरा नीट का रिजल्ट आ गया. मुझे पूरे स्टेट में 5वीं पोजीशन मिली है.” इस बिन मांबाप की बच्ची को उन्होंने बचपन में ही गोद ले कर पाला था.

“ओह, इतनी बढ़िया पोजीशन! सब तेरी कड़ी मेहनत का नतीजा है मेरी लाड़ो. आज तेरी इस शानदार सफलता का जश्न मनाने वृद्धाश्रम चलेंगे. अरे कुश, ओ कुश बेटा, 5 किलो मिठाई ले आना बाज़ार से. सलोनी की यह सफलता कोई मामूली नहीं. पूरे पड़ोस में मिठाई बंटवाऊंगी. ले, ये रुपए ले और जा कर झटपट मिठाई ले आ.”

“हां दादू, हां दादू, तनिक ठंड रखो. अभी बाज़ार जा कर लाता हूं. यह चुहिया अब डाक्टर बनेगी! न बाबा न, मैं तो कभी अपना इलाज इस से नहीं करवाने वाला. इस नीमहकीम की दवाई से कहीं अपना पत्ता ही साफ़ हो गया, तो हो गया अपना बेड़ा गर्क,” कुश ने सलोनी को खिलखिलाते हुए छेड़ा.

“अम्मू, देखो, यह शैतान क्या कह रहा है? बेटू 5वीं पोजीशन आई है मेरी पूरे स्टेट में. कोई छोटीमोटी बात नहीं है यह. मैं तो हार्ट सर्जन बनूंगी.”

“हा…हा…हा…, हार्ट सर्जन! हार्ट खोल कर सिलना भूल जाएगी तो मरीज की तो हो गई छुट्टी!” कुश ने सलोनी को फिर से चिढ़ाया, और वह उसे एक धौल जमाने के लिए उस के पीछेपीछे भागी.

कुछ ही देर में वह नम आंखों से दादी के पास आ कर बैठ गई, और उस ने झुक कर उन के चरण स्पर्श कर लिए. “दादू, अगर आप मुझ अनाथ को अपने घर में ला कर सहारा न देतीं, तो मेरा कुछ न होता.”

“ऐसा नहीं कहते, बेटा.” यह कह कर अम्मा जी ने सलोनी को गले से लगा लिया.

तभी कुश का कोई फोन आया और वह अम्माजी से यह कहते हुए घर से भाग छूटा, “दादू, बहुत जरूरी काम है. मुझे अभी जाना पड़ेगा. लौट कर आते हुए मिठाई लेता आऊंगा.”

“अरे बेटा, यह तो बता दे जा कहां रहा है इतनी जल्दबाजी मैं?”

“आता हूं, दादू. फिर आप को बताता हूं.”

10 बजे घर से गया कुश दोपहर के 3 बजे हैरानपरेशान घर लौटा.

उस का तनावग्रस्त चेहरा देख अम्माजी ने उस से पूछा, “क्या बात है, बेटा? इतने टैंशन में क्यों दिख रहा है?”

“कुछ नहीं, दादू. बस, ऐसे ही,” उस ने बात टालते हुए कहा.

“अपनी दादू को नहीं बताएगा? कोई प्रौब्लम तो जरूर है जो तू इतना टैंशन में दिख रहा है.”

“अरे दादू, वह मेरी फास्ट फ्रैंड रितुपर्णा है न, उस की कुछ प्रौब्लम है. अब मेरी समझ में नहीं आ रहा इसे सौल्व करूं तो कैसे करूं?”

“अरे बेटा, मुझे बता तो सही, तेरी क्या परेशानी है?”

बेहद सकुचातेझिझकते कुश ने अम्मा जी को बताया, “यह रितुपर्णा वैसे तो बहुत अच्छी है, मेरी उस की बहुत पटती है. बस दादू, वह खर्चीली बहुत है. होस्टल में रहती है न. घर से पैसे आते ही वह पहले तो उन्हें नईनई ड्रैसेस व महंगेमहंगे कौस्मेटिक में उड़ा देती है. फिर पैसे खत्म होने पर मुझ से मांगती है. उस पर मेरे नहींनहीं करतेकरते 12 हज़ार रुपए उधार हो गए हैं. अब आप ही बताओ, दादू, पापा मुझे बेहिसाब पैसे तो देते नहीं. वह तो हर महीने अपने रुपए महीने की शुरुआत में ही खर्च कर लेती है. आज भी वह मुझ से जिद कर रही थी कि मैं उस के अगले माह के कालेज ऐक्सकर्शन के लिए रुपए जमा कर दूं. जब मैं ने इस के लिए हामी नहीं भरी, तो उस ने मुझे दस बातें सुना दीं. खूब लड़ीझगड़ी मुझ से.”

“क्या? रुपए न देने की वजह से लड़ीझगड़ी? बातें सुनाई? अरे फिर तो वह सही लड़की नहीं, बेटा. उस से दोस्ती रखना ठीक नहीं. उस से धीरेधीरे दोस्ती तोड़ दे.”

“अरे दादू, उस से दोस्ती तोड़ना आसान नहीं,” कुश ने बेहद मायूसी से कहा.

“क्यों भई? किसी से फ्रैंडशिप रखने की जबरदस्ती थोड़े ही है?”

“अरे दादू, आप समझ नहीं रहीं. वह मेरी खास फ्रैंड है,” इस बार वह तनिक हिचकतेअटकते बोला.

“खास फ्रैंड क्या? तेरा उस से कहीं प्यार व्यार का कोई चक्कर तो नहीं चल रहा?”

“हां दादू. कुछ ऐसा ही समझ लो. पहले तो मुझे उस पर भयंकर क्रश आया हुआ था, लेकिन अब जब से वह मुझ से हर महीने रुपए मांगने लगी है, और नहीं देने पर मुझ से झगड़ने लगी है, तो मेरे प्यार का बुखार उतरने लगा है.”

“वह तो उतरेगा ही, बेटा. हां, एक बात बताओ, तुम मानते हो न कि हर प्यार का अंजाम शादी होना चाहिए?”

“हां दादू, औब्वियसली.”

“साथ ही तुम यह भी मानते हो कि आप को शादी का रिश्ता ऐसे शख्स से जोड़ना चाहिए जिस का वैल्यू सिस्टम पुख्ता हो?”

“यसयस दादू. विदाउट फ़ेल.”

“तुम्हारी इस रितुपर्णा का वैल्यू सिस्टम मुझे बहुत खोखला नजर आ रहा है. जो लड़की बातबात पर अपने बौयफ्रैंड से रुपए मांगती हो. नहीं मिलने पर बुरी तरह से लड़तीझगड़ती हो, उस की वैल्यूज़ में कोई दम नहीं, बेटा. अभी तो तुम्हारी शादी भी नहीं हुई, तो वह किस हक से तुम से रुपए मांगती है और लड़तीझगड़ती है? यह तो उस की बेहद गैरजिम्मेदाराना हरकत है. समझ रहे हो न बेटा, मैं क्या कहना चाह रही हूं?”

“जी दादू. बिलकुल समझ रहा हूं.”

“उस से तू ब्रेकअप कर ले, बेटा. नहीं तो उस से तेरा रिश्ता तुझे जिंदगीभर नासूर की तरह दुख देगा.”

“हां दादू. सोच तो मैं भी यही रहा हूं. पर मैं उस से अपने रिश्ते में इतना आगे बढ़ चुका हूं कि अब पीछे कैसे लौटूं, समझ नहीं पा रहा.”

“तुझे कुछ नहीं करना, बेटा. बस, तू उस से साफसाफ कह दे कि मैं तुम जैसी उड़ाऊ, गैरजिम्मेदार और झगड़ालू लड़की से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता.”

“अरे दादू. यह इतना आसान नहीं.”

“मुश्किल भी नहीं. बस, तुझे यह कहना होगा कि अगर तुम ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा तो मेरी दादी तुम्हारे पेरैंट्स को तुम्हारे ऊपर मेरे 12 हज़ार रुपए की बकाया रकम के बारे में बता देंगी. बस, तेरा इतना कहते ही वह तेरी जिंदगी से दुम दबा कर नौ दो ग्यारह हो जाएगी.”

इस पर कुश ने अम्मा जी के हाथ चूमते हुए कहा, “वाह दादू. मान गया मैं आप को. कितना धांसू आइडिया दिया है आप ने. लव यू, दादू. मैं कल ही उसे साफसाफ लफ्जों में यही कहता हूं और उस से अपनी जान छुड़ाता हूं.”

लाड़ले पोते की यह बात सुन कर अम्माजी की आंखें चमक उठीं. और उन्होंने राहत की सांस ली.

तभी उन की एक सहेली दीपा का फोन आ गया.

“अरे आभाजी, आज कालोनी के मंदिर में कीर्तनभजन का कार्यक्रम रखा है. आप तो कभी इन धर्म के कामों में कोई रुचि ही नहीं लेती हो. घर ही घर में घुसी रहती हो. ऐसी भी क्या व्यस्तता भई, जो बुढ़ापे में परलोक सुधारने की भी सुध न रहे.”

“अरे दीपाजी, परलोक किस ने देखा है? मैं तो अपना यही लोक सुधारने की जुगत भिड़ाने में लगी रहती हूं. घरपरिवार में आएदिन कोई न कोई मसला होता ही रहता है. अब घर की बड़ीबुजुर्ग होने के नाते मेरा ही तो फर्ज है न, उस की उलझनों को सुलझाने का. मुझे तो भई माफ करो. मेरे अपने ही काम बहुत हैं. मेरे पास इन फ़ालतू की चीजों के लिए बिलकुल वक़्त नहीं.”

तभी कुश बाहर से आया और दादी से बोला, “दादू, आप का फ़ौर्मूला तो वाकई हिट रहा. मैं ने जैसे ही उधारी की बात उस के पेरैंट्स को बताने की धमकी दी, वह भीगी बिल्ली बन गई. मैं ने उस से कह दिया, “मैं तुम्हारा नंबर ब्लौक कर रहा हूं. अब कभी मुझे कौंटैक्ट करने की कोशिश मत करना.”

“ओ दादू, लव यू. आप तो वाकई में चमत्कारी हो.”

नजमा : अपनी मजबूरियों के आगे बेबस एक बाई की कहानी

story in hindi

Raksha Bandhan : बहन की गलतियों पर कहीं आप भी तो नहीं डालते परदा

रेखा हमेशा ऐसे ही फ्रैंड्स बनाती जो उस की हां में हां मिलाते, उस की गलतियों को उजागर नहीं करते और उस की तारीफ के पुल बांधे रहते. अगर कोई उस की कोई भी गलती पौइंटआउट करता तो वह उस से दूरी बना लेती. ऐसा सिर्फ रेखा ही नहीं बल्कि अधिकांश किशोर व युवा करते हैं. यही बात मुंहबोले भाईबहन के रिश्ते पर भी लागू होती है, क्योंकि जब मुंहबोले भाई को अपनी बहन की कोई बात बुरी लगती है तो वह यही सोच कर चुप रह जाता है कि अगर मैं ने इसे कुछ कहा तो बुरा मान जाएगी. हो सकता है कि मुझ से हमेशा के लिए रिश्ता ही तोड़ दे. ऐसे में वह चुप्पी साधने में ही भलाई समझता है, जो सही नहीं है. जब आप ने किसी से रिश्ता कायम किया है तो उस के प्रति आप की कुछ जिम्मेदारियां भी बनती हैं, जिन से आप का मुंह मोड़ना सही नहीं है. इसलिए जब बहन गलती कर रही हो तब उसे पूरे हक से समझाएं ताकि वह सही राह पर चल सके.

निम्न स्थितियों में ऐसे हैंडिल करें सिचुऐशन

जब बहन हो गलत फ्रैंड्स की संगति में

कई बार मुंहबोला भाई अपनी बहन को गलत फ्रैंड्स की संगति में रहने के कारण गलत राह पर जाते देखता है, जिस के कारण आएदिन डिस्क में जाना, सड़क चलते लोगों पर कमैंट्स करना, किसी से भी लिफ्ट ले लेना, पार्टी से लेटनाइट घर लौटना जैसी बातें उस की आदत में शुमार हो जाती हैं. भले ही उसे ये बातें काफी खटकती हैं, लेकिन फिर भी वह एक शब्द नहीं बोलता जिस कारण बहन गलत राह पर चलती रहती है. ऐसे में मुंहबोले भाई का फर्ज बनता है कि वह बहन को सहीगलत का आभास करवाए और अगर वह न माने तो थोड़ी सख्ती करने से भी न हिचके.

जब बहन करे नशा

यदि मुंहबोली बहन को स्मोकिंग करते या किसी रैस्टोरैंट में फ्रैंड्स के साथ शराब पीते देखते हैं तो उस समय भूल कर भी रिऐक्ट न करें, लेकिन बाद में उसे अकेले में प्यार से समझाएं कि ये सब तुम्हारे लिए सही नहीं है, इसलिए इसे छोड़ दो.

मुंहबोली बहन को बातोंबातों में यह भी समझाएं कि नशे की आड़ में कभी कोई तुम्हारा गलत इस्तेमाल भी कर सकता है, जिस से तुम्हारी पूरी जिंदगी ही तबाह हो जाएगी. यदि वह आप की बातों को लैक्चर समझे और कहे कि मेरी लाइफ में न तो इंटरफेयर और न ही जासूसी करें, तो उसे कड़े लहजे में समझा दें कि भले ही यह तुम्हारी जिंदगी है, लेकिन अब मैं भी इस से जुड़ा हुआ हूं, अगर तुम्हें तकलीफ होगी तो उस का असर मुझ पर भी होगा. इस से उस में आप का डर बना रहेगा और साथ ही उसे लगेगा कि आप यह बात उस के पेरैंट्स को भी बता सकते हैं.

सोशल साइट्स पर जब करे वल्गर डीपी अपलोड

सोशल साइट्स के बढ़ते वर्चस्व और स्मार्टफोन्स ने सैल्फी के क्रेज को काफी बढ़ा दिया है. वैसे सैल्फी क्लिक करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सोशल साइट्स पर डीसैंट फोटोज ही अपलोड करने चाहिए ताकि कोई आप को ब्लेकमैल न कर सके.

लेकिन आज शोऔफ के चक्कर में यूथ डेली डीपी चेंज करने लगे हैं. अगर आप अपनी मुंहबोली बहन की डेली वल्गर डीपी विद बकवास स्टेटस जैसे ‘आई एम इन रिलेशनशिप’, ‘आई मिस यू’, ‘लव यू जानू’ देखें तो उसे टोकें और कहें कि आइंदा इस तरह की डीपी व स्टेटस लगाने की जरूरत नहीं है. जब उसे आप का इंटरफेयर दिखेगा तो वह अगली बार सोचसमझ कर ही डीपी अपलोड करेगी.

स्कूल में करे बातबात पर लड़ाईझगड़ा

हर कोई मेरी बात सुने व माने, इस सोच के कारण अगर आप की मुंहबोली बहन स्कूल में हर किसी से बातबात पर लड़ाईझगड़े पर उतारू हो जाती हो तो ऐेसे में मजा लेने के लिए उसे प्रोत्साहन न दें कि तुम ने बिलकुल सही किया है बल्कि उसे डांटें कि हर बात में खुद को ऊपर रखना सही नहीं होता, क्योंकि ऐसा व्यवहार लोगों को आप के करीब लाने के बजाय  आप से दूर ले जाएगा. इसलिए संयम से मिलजुल कर रहने की कोशिश करें तभी लोग आप के सपोर्ट में खड़े होंगे.

पार्टीज में जाएं झूठ बोल कर

अनेक बार किशोर अपने फ्रैंड्स को बचाने के लिए उन के झूठ पर परदा डालते हैं, लेकिन यह कभीकभार ही सही लगता है. अगर आप की बहन भी रोज घर में झूठ बोल कर पार्टीज या फ्रैंड्स के साथ मूवी देखने या फिर कहीं और जाती रहे और आप से कह दे कि अगर मेरे पेरैंट्स पूछें तो कह देना कि हां वह फ्रैंड के घर उस के साथ पढ़ने गई है, तो आप उस का साथ न दें. यदि आप उस की ऐसी बातों में उस का साथ देंगे तो इस से उस की हिम्मत बढे़गी, इसलिए साथ देने के बजाय उसे सही राह दिखाएं.

जब बंक करे क्लास

बौयफ्रैंड से मिलने जाने के कारण अगर आप की मुंहबोली बहन आएदिन क्लास बंक करे और आप के पूछने पर कि आज का दिन स्कूल में कैसा रहा, कहें कि काफी बिजी रहा. आप तभी उसे यह भी बता दें कि आप ने उसे देख लिया था और अगर यही सब चलता रहा तो तुम्हारा पास होना भी मुश्किल हो जाएगा. तब तुम्हारा बौयफ्रैंड भी काम नहीं आएगा. इसलिए समय रहते सुधर जाओ. इस से उसे लगेगा कि अगर फेल हो गई तो भाई सारी सचाई घर पर बता देगा. इस से वह दोबारा क्लास बंक करने की हिम्मत नहीं करेगी.

जब करे गंदे मजाक

बहन बनाने का मतलब यह नहीं कि आप उस की हर गलत हरकत सहते रहें, क्योंकि इस से असर आप पर भी पड़ेगा. इसलिए जब बहन गंदे मजाक या फिर व्हाट्सऐप पर नौनवेज जोक भेजे तो रिप्लाई में स्माइली या फिर वैसा ही मैसेज न भेजें बल्कि नाराजगी भरे चेहरे वाली इमोटिकोन्स भेजें और 1-2 दिन तक उसे कोई मैसेज न करें. इस से वह खुद ही गरिमा में रहने लगेगी.

इस तरह आप अपनी मुंहबोली बहन को सही राह पर ला सकते हैं.

Raksha Bandhan : घर में ऐसे बनाएं जलेबी

रक्षा बंधन के खास मौके पर आप चाहे तो अपने भाई कि फेवरेट डिश बना सकती हैं, ऐसे में इसे बनाने के लिए आप नीचे दिए गए रेसिपी को ट्राई कर सकते हैं.

सामग्री :

– मैदा 2 कप
– ईस्ट 1/2 बड़ा चम्मच
– पानी 2 कप
– तलने के लिए घी
– चाशनी के लिए
– चीनी 4 कप
– पानी 2 कप
– दूध 1 बड़ा चम्मच
– केसर 8-10 धागे
– कड़ाही
– पैन
– चिमटा
– प्लास्टिक वाली सॉस बॉटल या जलेबी वाला कपड़ा

विधि : 

– यीस्ट में आधी कटोरी गुनगुना पानी डालकर फूलने के लिए छोड़ दें. – एक बड़े बर्तन में मैदा डालें.
– यीस्ट को अच्छी तरह से पानी में घोल लें.
– मैदे पर यीस्ट का पानी डालें और इसमें थोड़ा-थोड़ा करके पानी डालते जाएं घोल बनाते जाएं.
– पूरा डालकर ऐसा घोल बनाइए जो न ज्यादा गाढ़ा और न पतला.
– इस घोल को 5-6 घंटे के लिए ढककर छोड़ दीजिए.
– इतने में मैदे के घोल में अच्छी तरह से खमीर/ईस्ट उठ जाएगी.
– जलेबी बनाने के लिए घोल रेडी है.
– जलेबी तलने से पहले चाशनी बना लें.
– इसके लिए कड़ाही में पानी और चीनी डालकर मीडियम आंच पर उबलने के लिए रखें.
– इसे बीच-बीच में चलाते रहें. जब इसमें उबाल आ जाए तो इसमें दूध डाल दें.
– दूध डालने से चाशनी की गंदगी ऊपर आ जाएगी. इसे चम्मच से निकाल दीजिए.
– जलेबी के लिए एक तार की चाशनी जरूरत होती है.
– चाशनी में उबाल के बाद एक चम्मच से उठाकर देखें. अगर इसमें पतली सी तार बन रही है तो चाशनी रेडी है. इसमें केसर डालकर आंच एकदम धीमी कर दें.
– गैस के दूसरे चूल्हे पर पैन में घी डालकर मीडियम आंच पर गर्म होने के लिए रखें.
– जब तक घी गर्म हो रहा है. मैदे के घोल को अच्छी तरह फेंट लें.
– इस पेस्ट को सॉस बॉटल या फिर जलेबी बनाने वाले बर्तन में डालें. आप चाहें तो दूध की थैली में भी घोल भरकर एक कोने को काटकर जलेबियां तल सकते हैं.
– जब घी से हल्का सा धुआं उठने लगे तो इसमें कपड़े या बॉटल से घोल डालते हुए जलेबी का आकार दें.
– पूरे घी में जलेबियां तोड़ लें.
– दोनों तरफ सुनहरे होने तक सेंकें फिर जलेबियों को चाशनी में डाल दें.
– इसी प्रोसेस से बाकी के घोल से जलेबियां बना लें.

क्या खाएं गर्भवती महिलाएं?

मां बनना एक अलग अनुभव और एहसास है. लेकिन इस के साथसाथ कई प्रकार के शारीरिक बदलाव भी दिखाई देते हैं, जिन में पांवों का फूलना, उलटियां आना, अच्छी नींद का न आना आदि शामिल हैं. इतना ही नहीं, इस समय त्वचा में भी परिवर्तन दिखाई देता है. त्वचा रूखी और बेजान हो जाती है. ऐसे में बच्चे के साथसाथ मां की सेहत का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है. प्रैगनैंसी से ले कर पोस्ट डिलिवरी तक ये बदलाव किसी न किसी रूप में दिखाई देते हैं. मां बनने के बाद अधिकतर महिलाएं अपनी देखभाल करना छोड़ देती हैं. ऐसे में कुछ सालों बाद वे कई बीमारियों का शिकार हो जाती हैं.

इसी बात को ध्यान में रखते हुए ‘हिमालया’ ने ‘हिमालया फौर मौम्स’ लौंच किया. इस अवसर पर हिमालया की सीनियर रिसर्च साइंटिस्ट पूर्णिमा शंकर ने कहा, ‘‘महिलाएं डिलिवरी के बाद बच्चे और परिवार में पूरी तरह खो जाती हैं और अपनेआप को भूल जाती हैं. ऐसे में हम एक अवेयरनैस महिलाओं में इस प्रोडक्ट के लौंच के साथ जगाने की कोशिश कर रहे हैं. मां का खुद का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. यह उत्पाद रिसर्च के द्वारा टैस्ट कर फिर बाजार में उतारा गया है. मां की इस समय की जरूरत का खास ध्यान रखा गया है. प्रैगनैंसी के दौरान महिला को अपने परिवार की हैल्प लेनी चाहिए, क्योंकि इस समय तनाव, डिप्रैशन, चिंता आदि बढ़ जाती है. कुछ खास खुशबुओं का प्रयोग करने पर ऐसी मनोदशा से उबरा जा सकता है. ऐलोवेरा, लैवेंडर, रोज आदि की सुगंध मां के मूड को बदल सकती है. पहले बच्चे के समय मां की चिंता बहुत अधिक बढ़ जाती है. यह साधारण समस्या है, जो हर मां को होती है. अत: निम्न टिप्स पर महिला का प्रैगनैंट होते ही अमल करना आवश्यक है :

संतुलित आहार को पर्याप्त व्यायाम के साथ लें. अगर आप का भोजन आप के शारीरिक काम से अधिक है तो वजन बढ़ेगा. इसी प्रकार अगर आप का आहार आप की शारीरिक ऐक्टिविटी से कम है तो वजन कम हो जाएगा. प्रैगनैंसी के दौरान डाइट के साथसाथ ऐक्टिव भी रहे. इस से जो वजन बढ़ा है उसे डिलिवरी के बाद कम करना आसान होगा.

– खाने में कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन्स, फैट्स, विटामिन्स और मिनरल्स का भरपूर प्रयोग करें.

– प्लेट पर रेनबो बनाएं अर्थात प्लेट के आधे भाग में फल और आधे में सब्जियां रखें. अधिक तलेभुने पदार्थ, शुगर, सोडा आदि को अवाइड करें.

– सभी फैट्स खराब नहीं होते. कुछ अच्छे तो कुछ बुरे फैट्स होते हैं. मसलन ‘मोनो ऐंड पौलिअनसैचुरेटेड फैट्स’ जो अधिकतर लिक्विड फैट्स होते हैं, में तेल आता है जो शरीर के लिए जरूरी है, क्योंकि यह बैड कोलैस्ट्रौल को कम कर गुड कोलैस्ट्रौल को बढ़ाता है. सैचुरेटेड फैट्स जो कमरे के तापमान में जम जाएं, उन्हें अवाइड करें.

– अपने भोजन को छोटेछोटे मील्स में बांट लें और फिर 2-3 घंटे के बाद लेती रहें. 2 मुख्य भोजन और 2 हैल्दी स्नैक्स काफी होते हैं.

– नमक की मात्रा कम से कम लें, क्योंकि अधिक मात्रा में नमक लेने पर ब्लड प्रैशर बढ़ता है. प्रैगनैंट महिलाओं में नमक की मात्रा अधिक होने पर प्रैगनैंसी इन्ड्यूस्ड हाइपरटैंशन का खतरा रहता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति 5 ग्राम नमक हर दिन के लिए काफी होता है, क्योंकि हर खाने में नमक की मात्रा नैचुरली होती है.

– पर्याप्त मात्रा में पानी पीएं. रोज करीब 10-12 गिलास पानी पीएं. तरल पदार्थों का सेवन अधिक करें. अधिक तरलपदार्थ लेने से ‘प्रीटर्म’ बेबी डिलिवरी की संभावना कम होती है.

– शारीरिक के अलावा मानसिक स्वास्थ्य का भी हमेशा खयाल रखना चाहिए. इस के लिए अपने आसपास के लोगों से घुलमिल कर बातचीत करें.

– अपने लिए व्यायाम का समय प्रैगनैंसी के

समय से ले कर डिलिवरी के बाद भी निकालें, लेकिन जो भी व्यायाम करें डाक्टर की सलाह से ही करें.

मां आनंदेश्वरी : भाग 3

“राधे ने शहर से दूर एक चाल में कमरा लिया और दोनों पतिपत्नी की तरह रहने लगे थे. वह दूध का काम करने के साथ एक हलवाई की दुकान में भी काम करने लगा था. वे लोग 3-4 महीने भी नहीं रह पाए थे कि स्वामीजी के आदमी उन लोगों का पता लगा कर आए और उन लोगों को अपने साथ ले गए. वह अपने कमरे में आ कर खुश हो गई थी लेकिन राधे को यहां आना अच्छा नहीं लगा था. उस ने सख्त ताकीद कर दी थी कि तुम स्वामीजी से दूरी बना कर रहना.

“मंदिर के पीछे कई सारे कमरे बने हुए थे जो प्रंबंध कमेटी ने पुजारियों के परिवारों के रहने के लिए बनाए हुए थे. उस के सिवा भी 8-10 कमरे थे जो यात्रियों के लिए बनाए गए थे लेकिन उन सब कमरों में अब स्वामीजी के चहेते रहते थे. गुरु जी की पत्नी भी वहीं पर रहती थीं. उन के कमरे में एसी लगा था, बड़ा टीवी और सारी सुखसुविधाएं थीं.

यह आश्रम बूआ के घर के पास ही था, इसलिए वह वहां पर उसे देख चौंकी थी. लेकिन उस ने इशारे से चुप रहने को कह दिया था.

“राधे, तुम्हारी बहू तो कमरे में ही घुसी रहती है, बाहर आ कर दर्शन तो कर लिया करे.”

जब वह सजधज कर आश्रम में पहुंची, तो स्वामीजी वहीं बाहर ही बैठे हुए थे. ‘आनंदी बहू, यहां पर तुम्हें कोई परेशानी या कुछ जरूरत हो, तो बता देना. राधे तो एकदम लापरवाह है और गैरजिम्मेदार लड़का है.’

“वे स्वयं उठ कर मंदिर में चढे हुए ढेर सारे फल और मिठाई उस की झोली में डाल कर बोले, ‘सब बच्चों को ही मत खिलाना, खुद भी खाना. कितनी कमजोर लग रही हो. मैं राधे से कहूंगा कि मेहरी का बड़ा सुख लेकिन खर्ची का बड़ा दुख.’ उन के चेहरे पर अनोखा तेज देख उस का मन उन के प्रति श्रद्धा से भर उठा था. वह उन के चमकते चेहरे और आकर्षक व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हो गई थी.

“स्वामी जी लगभग 40-45 साल के लंबे चौड़े स्वस्थ गठीले बदन के थे. उन का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था. उन को सुंदरकांड कंठस्थ था. उन्हें संस्कृत के कई सारे श्लोक और मंत्र कंठस्थ थे, जिन्हें अपने मधुर स्वर में गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे. उन के आश्रम में एक बड़ा सा वरांडा था जहां रोज कीर्तनभजन और प्रसाद वितरण होता था. वे समयसमय पर दूसरे कथावाचकों को आमंत्रित करते, जिस के कारण वहां भीड़ के साथसाथ चढ़ावा बढता जा रहा था, जिस पर स्वामीजी अपनी काग दृष्टि लगाए रखते थे.

“वहां एक कोने में उन का धार्मिक कार्य करने का एक छोटा सा कमरा था जहां के लिए यह कहा जाता था कि वे वहां पर ध्यान लगाया करते थे. उस कमरे में उन की आज्ञा के बिना कोई नहीं जा सकता था. वे केवल जोगिया कपड़ा पहनते थे.

“स्वामीजी की पत्नी कादंबरीजी को सब लोग माताजी कहते थे. एक दिन माताजी ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘बिटिया, अपना खाना अलग क्यों बनाती हो? यहां प्रसादी बनता ही है, वहीं पर तुम मदद कर दिया करो और सब लोग यहीं पर प्रसाद ग्रहण कर लिया करो.’ वह बहुत खुश हुई थी और उस ने माताजी के पैर पकड़ लिए थे, ‘आप तो मेरी अम्मा से भी बढ़ कर हैं.’  “सच था कि वहां किचेन में बढ़िया खाना देख कर उसे बहुत लालच आया करती था. अब वह वहां पर मदद करती और फिर ऱाजसी भोजन करती. कुछ दिनों में ही उस का शरीर गदबदा उठा और सौंदर्य निखर उठा था. वह गौर कर रही थी कि वह स्वामीजी की विशेष कृपा का पात्र बनती जा रही थी और उन की नजरें उस का पीछा करती रहती थीं.

“स्वामीजी झाड़फूंक भी करते थे. वे लोगों की परेशानियों का निदान करने के लिए धार्मिक कार्य के साथ अन्य उपाय भी बताया करते थे. वे बच्चों/बड़ों को एक काला डोरा के साथ भभूत, जिसे वे मंत्रसिक्त या सिद्ध कह कर, दिया करते थे. उस के एवज में लोग प्रसन्नतापूर्वक उन्हें दक्षिणा में रुपया आदि दिया करते.

“इस के सिवा आश्रम की व्यवस्था के नाम पर उस के नवनिर्माण के लिए लोगों की औकात व श्रद्धा देखपरख कर स्वामीजी रसीद काट दिया करते थे. वह व्यक्ति श्रद्धा के कारण मजबूरीवश दे दिया करता था. इसी कारण से उन का आश्रम दिनोंदिन विशाल और भव्य होता जा रहा था.

स्वामीजी के प्रति उस का भी श्रद्धाभाव बढता जा रहा था.

“उन के धार्मिक कार्य करने वाले कमरे से खूब सुगंधित धुआं बाहर निकलता था. माताजी बताया करतीं कि उन्हें देवीजी की सिद्धि है. वे प्रसाद में लौंग दिया करते और कपूर, गुगुर लोबान का धुआं या अज्ञारी करवाते.

“उस छोटे से कक्ष में महिलाएं अपनी समस्या ले कर जाया करतीं, उन से वहां पर विशेष कार्य करवाया जाता था. उन से विशेष रूप से चढ़ावा चढ़वाने के बाद उन की समस्या के समाधान हो जाने के लिए विशेष मंत्र जाप करने के लिए भी कहा जाता. वह झांक कर जानने की कोशिश करती कि वहां कुछ गलत काम तो नहीं हो रहा. लेकिन माताजी वहां बाहर बैठ कर निगरानी करतीं, इसलिए वह अंदर क्या होता है, कभी नहीं देख पाई थी. वैसे, यह तो उसे पक्का विश्वास था कि स्वामीजी के कमरे के अंदर अकेली महिला के साथ कुछ अनैतिक कार्य अवश्य किया जाता है. परंतु वह कभी न हीं देख पाई और न ही किसी से भी सुना.

“राधे, स्वामीजी और उन के सब संगीसाथी रात में इकट्ठा हो कर गांजे की चिलम लगाते और भी नशा किया करते थे. नशे का सामान राधे और गुरुजी का विश्वासपात्र अंगद चुपचाप लाया करता था. कई बार माताजी को भी उस ने चिलम लगाते देखा था. राधे ने उसे रात के समय जब सब चिलम से नशा करते, उस समय बाहर निकलने से बिलकुल मना कर दिया था. लेकिन धीरेधीरे राधे नशेड़ची बन कर आश्रम में रहने वाली माला के साथ खुल्लमखुल्ला इश्क लड़ाने लगा था. यहां तक कि वह रातें भी उस के कमरे में गुजारने लगा था.

“राधे एक दिन काम पर गया, फिर वह लौट कर ही नहीं आया. कई दिनों बाद उस की लावारिस लाश मिली थी. क्रौसिंग से जल्दबाजी में ट्रेन के साथ बाइक के साथ घिसटता चला गया था. वह तो बिलकुल बेसहारा हो गई थी. रोतेरोते वह बेहोश हो जाती. उस समय स्वामीजी ने उसे सहारा देते हुए कहा था- ‘राधे नहीं रहा, तो क्या हुआ? मैं तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा.’

“स्वामीजी के सिवा उस के पास कोई सहारा नहीं था. चारों तरफ अंधकार ही अंधकार छाया हुआ था. वह पंखविहीन पक्षी की भांति स्वामीजी के चरणों पर अपना सिर रख सिसक पड़ी थी. स्वामीजी ने दिलासा देते हुए उसे अपना विशेष शिष्य बना लिया. लेकिन उन की वासनाभरी नजरें उस के शरीर के आरपार मानो देख रही थीं. कोई भी स्त्री किसी पुरुष की कामुक निगाहों को पलभर में परख लेती है, फिर, वह तो ऐसी निगाहों के धोखे से कई बार गुजर चुकी थी. अब वह स्वामीजी के सहारे अपने जीवन को नई दिशा दे सकती है, ऐसा वह मन ही मन सोचा करती थी.

“विशेष शिष्य बनने के बाद अब वह स्वामीजी की मंडली के साथ दूसरे गांवगांव सत्संग और कथा में जाने लगी थी. उन की समृद्धि और संपन्नता देख वह गुरुजी के प्रति आकर्षित होती जा रही थी. सार्वजनिक रूप से वह आश्रम की विशेष प्रबंधक कही जाती थी. लेकिन वह जानती थी कि गुरुजी के जीवन में उस का क्या स्थान था. जब वह फौर्चुनर गाड़ी में बैठती तो इस सपने के साथ बैठती कि जल्द ही वह भी ऐसी ही गाड़ी और आश्रम की मालकिन बन कर रहेगी. वह गुरुजी का राजसी ठाटबाट देख वह स्वयं भी मन ही मन उसी तरह की रईसी से रहने की अभिलाषा पाल बैठी थी.

“वह अपनी जद्दोजहेद में लगी हुई थी, इधर बेटी लक्ष्मी 12 वर्ष की हो चुकी थी और स्कूल के नाम पर वह गुरुजी के ही एक चेले मलंग के साथ आंखें लड़ा रही थी. बेटा बलराम सब की नजर बचा कर चिलम के सुट्टे लगाया करता. उस के सामने दोनों इस तरह से कौपीकिताब के पेज पलटते मानो पढ़ाई के सिवा कुछ जानते ही नहीं. वह बच्चों की तरफ से निश्चिंत थी. वे दोनों स्वामीजी से ट्यूशन और हाथ खर्च के लिये रकम लेते रहते. दोनों के पास बड़ेबड़े मोबाइल देख वह खुश होती थी कि उस के बच्चे उस की तरह गरीबी में नहीं बड़े हो रहे हैं.

“अब वह अपने को शातिर समझ कर अपने लिए नई राह बनाने चल पड़ी थी.

“उस का प्रोमोशन हो गया था. माताजी वाला कक्ष उस के लिए आवंटित हो गया था. वह स्वामीजी की मुख्य शिष्या के रूप में जानी जाने लगी थी. परंतु वह जानसमझ रही थी कि वह गुरुजी के लिए एक खिलौने की तरह थी, जब तक चाहेंगे उस के शरीर के साथ अपनी भूख मिटाएंगें, फिर उन को जैसे ही कोई नया शिकार पसंद आया, वह किनारे कर दी जाएगी क्योंकि वह उन की तथाकथित पत्नी का हश्र देख रही थी. उस के देखतेदेखते वे पदच्युत हो कर टूटी टांग के साथ आश्रम के एक छोटे से कोने में आंसू बहाती हुई पर अपने दिन काट रही थीं.

इसलिए कुछ कथाप्रसंगों को उस ने कंठस्थ कर लिया और उसे अकेले में अभ्यास किया करती. चूंकि वह पढ़ना जानती थी, इसलिए वह रोज कथाप्रसंगों को पढ़ती, सुनती और बोलने का अभ्यास करती थी.

“उस ने जब एक दिन मोबाइल पर अपनी आवाज में कथा रिकौर्ड कर के चुपचाप रिकौर्डिंग चला दी तो स्वामीजी सुन कर दंग रह गए. वे नाराज हो कर बोल पड़े, ‘तुम तो जल्दी ही मेरी रोजीरोटी ही बंद करवा दोगी. बंद करो.” उन के चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखाई पड़ रही थीं. वे आगे बोले, ‘अब तुम ऐसी हिम्मत मत करना.’

“स्वामीजी की संपन्नता दिन दूनी रात चौगुनी बढती जा रही थी. वे भागवत कथा सुनाया करते थे. उन के नाम पर लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. उन का अंदाज बहुत चुटीला और संगीत व नृत्य से भरपूर रहता था, जिस में कथा कम होती थी, मनोरंजन ज्यादा होता था. इसीलिए, भीड़ बेतहाशा उमड़ पड़ती थी.

“उन का कथा सुनाने का रेट बढ़ता जा रहा था. बुकिंग करवाते समय उन्हें लंबी रकम मिलती, फिर कथा में लोग श्रद्धा से भरपूर चढ़ावा चढ़ाते. गुरुजी मालामाल होते जा रहे थे. अब उन के पास एक नहीं, दो बड़ी गाड़ियां थीं. वे रेशमी जोगिया कपड़े धारण करने लगे थे. उन के हाथ में महंगी स्मार्ट वाच और बड़ा वाला आइफोन रहने लगा था. उन्होंने विनय नाम के एक पढ़ेलिखे भक्त को मैनेजर बना कर अपौइंट कर लिया था, जो उन की बुकिंग की तारीख तय करता. उन के दर्शन के लिए लोगों की भीड़ लग जाती. उन की सुरक्षा के लिए उन के साथ 2 गनर रहने लगे थे. उन के पास नेताओं का जमावड़ा रहने लगा था.

“उस की रिकौर्डिंग सुनने के बाद उस के सुंदर रूप और मीठे स्वर से स्वामीजी घबराने लगे तो उन्होंने उस के रंगीन कपड़ों पर, साजश्रंगार पर प्रतिबंध लगा कर सफेद साड़ी पहनने के लिए मजबूर कर दिया. वह बहुत रोई थी क्योंकि रंगबिरंगी साड़ियों, विशेषकर चुनरी, में उस की जान बसती थी. मजबूर हो कर उसे अपनी मांग से सिंदूर मिटा कर विधवा का वेष धारण करना पड़ा.  अति तो तब हो गई थी जब उन्होंने उस के लंबे बालों पर कैंची चलवा दी थी. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी. लेकिन वह सबकुछ अपने बच्चों के भविष्य के लिए सह रही थी.

“उस ने मन ही मन योजना बना रखी थी कि जब उस की ख्याति बढ़ जाएगी तो वह कथावाचक बन कर अपना अलग आश्रम बना लेगी. परंतु स्वामीजी के गुप्तचर उस की हर क्रियाकलाप पर नजर रखते थे. उन्होंने उसे आगाह किया था- ‘ज्यादा उड़ने की कोशिश मत करना वरना बरबाद हो जाओगी.’

“वह गुरुजी के साथ बहराइच में भागवत कथा के लिए उन की मंडली के साथ गई हुई थी. वह छोटा शहर था, अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था क्योंकि आयोजनकर्ता ने कथावाचक के पोस्टर में उस की तसवीर भी छपवा रखी थी और वे लगातार पर्चा बांट कर कथा का प्रचार भी कर रहे थे. वह अपनी कथा में व्यस्त थी. लगातार उसे एक महीने तक बाहर रहना पड़ा था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. वह अकसर कथामंडली के साथ गांवगांव जाती रहती थी क्योंकि ग्रामीण श्रद्धापूर्वक कथा सुनते थे और जीभर कर दान भी देते थे.

“अब तो गुरुजी की ख्याति बढ़ती जा रही थी, इसलिअर बड़ेबड़े शहरों में भी लंबे प्रवास के लिए जाना पड़ता था. वह मना तो कर ही नहीं सकती थी क्योंकि वह उन की मंडली के साथसाथ उन के आनंद के लिए वह आवश्यक सामग्री की तरह थी. उन के लिए वह एक पंथ दो काज थी. वह लगभग 2 महीने के व्यस्त कार्यक्रम के बाद कुछ दिनों के लिए ही लौट कर आई थी.

“घर पर बेटी रूपा को न पा कर जब बेटे से पूछा तो वह बोला, ‘वह तो लगभग एक महीने पहले माताजी की आज्ञा से उन के किसी रिश्तेदार के साथ कुछ पढ़ाई करने गई है.’

“वह समझ नहीं पा रही थी कि बेटी रूपा कहां गई. माताजी से पूछा तो वे गोलमोल जवाब दे कर बोलीं, ‘मुझ से कही थी कि वह कल लौट कर आ जाएगी, तो मैं ने हां कर दी थी. वह कहां गई, उन्हें नहीं मालूम.’ इतना कह कर उन्होंने मुंह फेर लिया था.

“स्वामीजी से पूछा तो वे लापरवाही से बोले थे, ‘वह बड़ी हो गई है, अपना भलाबुरा जानती है. तुम नाहक परेशान हो. अपने अगले प्रोग्राम पर ध्यान दो. इस बार तुम्हारे नाम से अलग से बुकिंग ली है, इसलिए अच्छे से अभ्यास करो और कलपरसों से यहां आश्रम में तुम्हें कथा सुनानी होगी.’

“इस अप्रत्याशित घटना ने उस के सारे सपनों को धूलधूसरित कर दिया था. वह रातभर सिसकती रही थी. वह गुस्से के कारण तमतमा उठी थी.

“एक ओर उस का अपना सपना पूरा होने वाला था, वह स्वतंत्ररूप से कथावाचक बन कर मंच पर बैठ कर कथा सुनाने वाली थी, दूसरी ओर जिन बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के जो सपने वह देख रही थी वे सब टूटते दिखाई पड़ रहे थे. लेकिन अपने मन का दर्द कहे भी तो किस से, इस दुनिया में कोई भी तो ऐसा नहीं था जो उस के मन की पीड़ा बांट सके. वह बिलख उठी थी. उसे अपने चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ रहा था. वह समझ तो गई कि माताजी ने उस के साथ बदला लेने के लिए रूपा को कहीं गायब किया है. वह यह भी जान रही थी कि स्वामीजी को भी सबकुछ अवश्य मालूम है. उन्होंने उस के पर काटने के लिए बेटी को अपना हथियार बनाया है.

“स्वामीजी के पैरों पर गिर कर वह घंटों तक सिसकती रही थी, ‘स्वामीजी. मैं आजीवन आप की गुलाम बनी रहूंगी, बस, आप मेरी बेटी रूपा को बुला कर दिखा दीजिए. बेटे रामू को यहां से हटा कर होस्टल में पढ़ने के लिए उस का एडमिशन करवा दीजिए.’

“वे नाराज हो कर बोले, ‘मैं तो बराबर तुम्हारे साथ था. मुझे स्वयं नहीं मालूम. आप माताजी से पूछिए, वे सब बता देंगी.’

“जब स्वामीजी ने माताजी को पुलिस का डर दिखाया तो उन्होंने कबूला, ‘रूपा ने मलंग के साथ शादी कर ली है. वह डर के मारे नहीं आ रही है. वह उन के संपर्क में है.’

“मलंग कथा में कृष्ण का रूप धारण करता था और माताजी का करीबी था. वह लगभग 35 साल का आकर्षक रंगरूप का आदमी था. सब से बड़ी खासीयत उस की चिकनीचुपड़ी, मीठीमीठी बातें… बस, रूपा को उस ने अपनी बातों में ही फंसा लिया होगा, वह अपनी बेबसी पर सिसकती रही थी. माताजी ने उस के साथ खूब बदला लिया था.

“अब वह बेटे को इन सब से दूर करना चाहती थी जहां इस की परछाई भी न पड़े. अभी वह 10 वर्ष का पूरा हुआ था और कक्षा 4 में था. वह पढ़ने के बजाय मोबाइल पर वीडियो देखता या गेम खेलता था. पहले तो वे नाराज हो कर बोले, ‘इस की फीस कौन भरेगा?’

लेकिन जब वह ज्यादा रोईगिड़गिड़ाई तो वे पिघल गए.

“उन के अपना कोई बेटा नहीं था, इसलिए गुरुजी बलराम को अपना बेटा कहा करते थे. उन्होंने किसी भक्त से कह कर तुरंत उस का एक बोर्डिंग स्कूल में एडमिशन करवा दिया. सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि उस के जीवन में इतना कुछ घटित हो चुका है.

‘बोर्डिंग में जाते समय बलराम उस से लिपट कर रोता रहा था. उस की आंखों से भी अश्रुधारा बह निकली थी, यहां तक कि गुरुजी की भी आंखें भीग उठीं तो वे अंदर चले गए थे.

“‘बलराम बेटा, तुम पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े होना.’ आज उस की ममता बिलख उठी थी परंतु वह उस के भविष्य की सुनिश्चितता के लिए सबकुछ सहने को तैयार थी.”

बूआ उस आश्रम में दर्शन करने अकसर जाया करती थीं. आनंदी के चेहरे पर छाई उदासी को देख वे पूछ बैठीं, “आनंदी, आज तुम्हें बहुत दिनों के बाद देख रही हूं. तुम्हारा चेहरा बुझा हुआ दिखाई पड़ रहा है?” उस की आंखें भीग उठी थीं. उस ने आंखों से अपने कमरे की ओर आने का इशारा किया था. वहां सभी लोग उन दोनों के आपसी संबंधों के बारे जानते थे, इसलिए कुछ नया नहीं था. जब वह कमरे में आई तो उन के कंधे पर सिर रख कर पहले खूब रोई, फिर बोली, “दीदी, मैं ने स्वामीजी की शरण ली कि यहां पर मुझे भगवान मिलेंगे और मैं शांति से जी सकूंगी. कम से कम अगला जन्म तो सुधर जाएगा लेकिन दीदी, यहां का जीवन देख कर तो मन वितृष्णा से व्यथित हो उठा है. सोचा था कि भगवान की शरण में रह कर किसी तरह से बच्चों को पढ़ालिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर दूंगी. लेकिन यहां पर तो धर्म की आड़ में वही धन की लिप्सा, भोगलिप्सा, सामदामदंडभेद से येनकेन प्रकारेण समाज में अपने को श्रेष्ठ दिखाने की होड़ लगी रहती है. दूसरों की जमीन, धन और स्त्री पर गिद्ध दृष्टि रहती है. ये स्वामीजी, दूसरे कथावाचक, जो समाज में भगवान के समान पूजे जाते हैं, अंदर से सब खोखले होते हैं. इन के अंदर भी वही मानवीय अवगुण भरे हुए हैं जो सामान्य इंसान में होते हैं. ये अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए दान करो, दान करो का गान करते रहते हैं ताकि ये संपन्न हो कर अपने लिए सुखसुविधा जुटा कर बड़ेबड़े आश्रम बना कर समाज में अपना वैभव दिखा कर सर्वश्रेष्ठ स्थान पर आसीन हो सकें.

“समस्या निदान के नाम पर ये लोगों की भावनाओं से खेल कर, उन्हें ठग कर अपना खजाना भरते हैं. ये नशा भी करते हैं, साथ में अन्य असामाजिक कृत्यों में भी संलग्न रहते हैं. जो भी इन के जाल में फंस जाता है, उस का निकलना मुश्किल हो जाता है क्योंकि य़े कभी भविष्य का डर दिखाते हैं तो कभी भविष्य की सपनीली दुनिया.

“दीदी, आप तो लिखती हैं, मेरे जीवन की कहानी जरूर लिखना, कम से कम यहां की असलियत तो बाहर की दुनिया जाने.

“दीदी, अब मुझे अपनी परीक्षा की तैयारी करनी है क्योंकि कल से ही मेरी फाइनल परीक्षा शुरू है,” कहती हुई व अपने आंसू पोंछती हुई मुझे बाहर जाने का इशारा किया लेकिन उस की बेबसी देख कर मुझे बहुत दर्द हुआ.

वह अपनी कथा के रिहर्सल में जुट गई थी. आखिर, उस के लिए भी तो परीक्षा की घड़ी थी, जिस में उसे जरूर से पास हो कर खरा उतरना जरूरी था. आखिर, उस के भी तो भविष्य का सवाल था.

सुनतेसुनते उसे कब झपकी आ गई थी, पता ही नहीं लगा था. जब सूर्य की रश्मियों ने कमरे में उजाला भर दिया तब वह हड़बड़ा कर उठ बैठी थी.

मामी विशेष कमरे में घंटी बजा रही थीं और मधुर स्वर में गा रही थीं, ‘जागो मोहन प्यारे…’

वह अभी भी आनंदी के फर्श से अर्श के संघर्ष की कहानी में खोई हुई थी. तभी मामी की आवाज से तंद्रा टूटी थी, “नलिनी दी, मासूम आनंदी से मां आनंदेश्वरी बनने की कहानी तो वास्तव में बहुत संघर्षभरी जीवन गाथा है. प्रसन्नता इस बात की है कि वह अपने प्रयास में सफल हुई.

वी आर प्राउड औफ यू अम्मा : भाग 3

‘‘हांहां अम्मा वही न, जो हमेशा नौकरों, मेहमानों और अपने बरतन सब अलग रखती थीं और अंकल ब्राह्मïण के अलावा अन्य निम्न जाति के लोगों को हेयदृष्टि से देखते थे. और तो और वे अपने घर में दलितों को तो न केवल जमीन पर बैठाते थे, बल्कि उन से स्पर्श होने पर नहाते भी थे. तुम दोनों सहेलियां बिलकुल एकजैसी विचारधारा वाली ही तो थी. एकदूसरे की पूरक, कट्टर जातिवादी. इसीलिए तो अचरच है अम्मा कि तुम्हें अचानक क्या हो गया इतना बड़ा परिवर्तन. बाबूजी बता रहे थे कि तुम ने अपनी विचारधारा बिलकुल पलट ली है,’’ दोनों बहनें एक स्वर में बोल उठीं.

‘‘हांहां वही मेरी पक्की सहेली तनुजा, पिछले साल तनुजा के पति दीनदयाल भयंकर रूप से बीमार हो गए. पीलिया से हुई बीमारी की शुरुआत कब गंभीर हेपेटाइटिस बी हो गया कि उन की जान पर ही बन आई थी. केजीएमसी अस्पताल में वे एक माह तक भरती रहे. बच्चों के आने तक उन की देखभाल घर के नौकरों ने ही की. शरीर में खून की बहुत कमी हो गई थी. डाक्टरों ने तुरंत खून का इंतजाम करने को कहा. लाख कोशिश करने पर भी खून का इंतजाम नहीं हो पा रहा था. तब उन के ड्राइवर ने ही उन्हें सहर्ष 3 यूनिट खून दिया था, जिस की बदौलत किसी तरह पंडितजी की जान बच पाई थी. जो तनुजा हमेशा नौकरों के बरतन अलग रखती थी. उस समय वही हाथ जोड़ कर अपने घर के ड्राइवर कैलाश से कह रही थी, ‘‘बेटा किसी तरह अंकल की जान बचा लो.” क्योंकि सभी परिचितों में केवल कैलाश ही था, जिस का ब्लड ग्रुप पंडितजी से मैच किया था और वह अपने मालिक के लिए सबकुछ करने को तैयार हो गया. अब उसी का खून उन की रगों में दौड़ रहा है. उस समय मैं और तेरे बाबूजी अस्पताल में ही थे. जो बात तुम्हारे बाबूजी के बरसों से समझाने से भी मुझे समझ नहीं आई, वह पंडितजी की दशा देख कर झट से समझ में आ गई.

“सच बेटा, उस दिन अस्पताल में यह सब देख कर मानों मैं तो नींद से जाग गई और मुझे लगा कि ये हम इनसानों के बनाए चोचले हैं. वास्तव में जन्म लेते समय तो इनसान का कोई धर्म होता ही नहीं. इस संसार में आ कर हम इनसान ही इनसानों को अलगअलग धर्म और जातियों में विभाजित कर देते हैं. और तो और हम बूढ़ों का तो ये हाल है कि शरीर चलता नहीं, फिर भी दकियानूसी बातों को दिल से लगाए रहते हैं. पर, उस घटना ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे लगा कि इस संसार में केवल एक ही धर्म और जाति है इनसानियत. बस उस दिन से बेटा मैं ने स्वयं को इन जातपांत के बंधनों से मुक्त कर लिया.’’

‘‘अरे वाह अम्मा, हमें आप पर और आप की उन्नत सोच पर गर्व है. काश, सब लोग आप दोनों की तरह समझदार हो पाते,’’ कह कर दोनों बेटियां अपनी अम्मा के गले लग गईं.

‘‘पर अम्मा, एक बात बताओ, तुम तो सुधर गईं, पर तनुजा आंटी के क्या हाल हैं. उन में कुछ परिवर्तन आया कि नहीं,’’ छोटी ने अचरच से पूछा.

‘‘यही तो दुख है बेटा कि जिन के शरीर से खून ही किसी और का दौड़ रहा है, वे खुद को रत्तीभर भी नहीं बदल पाए हैं. आज भी वे जस के तस ही हैं. उन के हालचाल जानने के लिए तुम दोनों सुबह उन के घर चली जाना तो मिलना भी हो जाएगा और हालचाल भी पता चल जाएगा,’’ कह कर अम्मा शाम के खाने की तैयारी के लिए महाराजिन को निर्देश देने लगीं. देर रात तक गप्पें लगाते हुए दोनों बहनें कब सो गईं, उन्हें ही पता न चला. सुबह जब तक दोनों बहनें सो कर उठीं, तो टेबल पर नाश्ता तैयार था.

‘‘अरे वाह अम्मा, पोहा, जलेबी, बेड़ई और आलू की सब्जी,’’ डायनिंग टेबल पर मनपसंद नाश्ता देख कर दोनों बेटियां खुशी से एकसाथ बोल उठी. नाश्ता कर के दोनों तनुजा आंटी के यहां जा पहुंची. उन्हें देखते ही तनुजा और उन के पति पंडितजी के चेहरे खिल उठे. दोनों बेटियों को गले लगाते हुए तनुजा आंटी की आंखों में खुशी के आंसू आ गए और वे भावविभोर होते हुए बोलीं, ‘‘अरे बेटा, तुम दोनों कब आईं? कितने बरस हो गए तुम्हें देखे? मुझे तो लगा कि बेटियां आंटी को भूल ही गई हैं. बैठोबैठो मैं पानी ले कर आती हूं,’’ कह कर वे किचन में चलीं गईं.

‘‘दी, आंटीअंकल कितने कमजोर और बूढ़े से हो गए हैं न. ऐसा लगता है कि दोनों उम्र से पहले ही बूढ़ा गए हैं,’’ तनुजा और उन के पति पंडितजी को देख कर छोटी ने फुसफुसाते हुए अंशू से कहा.

तभी अपने कमजोर शरीर और लंगड़ाते कदमों से हाथ में ट्रे थामे तनुजा आंटी पानी ले कर आ गईं और बड़े ही प्यार से बोलीं, ‘‘बताओ बेटा क्या खाओगी,’’ कह कर वे वहीं पास पड़ी आरामकुरसी पर बैठ गईं.

‘‘आंटी कुछ नहीं हम नाश्ता कर के आए हैं. आंटी अभी भी सारा काम आप खुद ही करती हैं,’’ छोटी से चुप नहीं रहा गया और पूछ बैठी.

‘‘हां बेटी, पहले तो दो जनों का काम ही क्या होता है. दूसरे किसे लगाएं. यहां जितनी भी कामवालियां आती हैं, किसी का भी जातिधर्म कुछ पता नहीं होता. उन से काम करवा के क्या अपना धर्मभ्रष्ट करना है,‘‘ आंटी ने अपने तर्क देते हुए कहा.

‘‘ये लोग तो नीची जाति की होते हुए भी झूठ बोल कर काम करने लग जाती हैं. अरे, हम पंडित आदमी हैं भाई,’’ हंसते हुए पंडित अंकल ने भी तनुजा आंटी की हां में हां मिलाते हुए कहा.

‘‘पर अंकल…’’ छोटी आगे कुछ बोल कर उन की बातों को काटती उस से पहले ही अंशू ने उस के हाथ को हौले से दबा दिया, जिस से वह चुप हो गई.

‘‘अच्छा आंटी, हम चलते हैं, फिर आएंगे…’’ कुछ देर बाद दोनों उठ खड़ी हुईं.

घर आईं तो अम्मा ने डायनिंग टेबल पर लंच लगा रखा था. खाना खा कर दोनों ने फिर अम्मा को घेर लिया.

‘‘अम्मा, आंटीअंकल की तो बहुत ही बुरा दशा है. इस अवस्था में तो उन से अपना काम ही नहीं होता, पूरा घर भी अस्तव्यस्त हो रखा है. दोनों बहुत ही कमजोर हो गए हैं. अमन भइया अपने पास क्यों नहीं बुला लेते इन्हें?’’ अंशू बोली.

‘‘वह बेचारा तो बुलाबुला कर थक गया. ये दोनों जाते ही नहीं, वह अपनी नौकरी संभाले या बारबार यहां आए. फिर भी हर शनिवार को दिल्ली से यहां आने की कोशिश करता है.’’

‘‘पर, यहां अकेले पड़े रहते हैं. इस से तो अमन के पास जा कर रहना चाहिए,’’ अंशिका ने कहा.

‘‘बहू विजातीय और दलित वर्ग से है न, इसलिए वहां जाने से साफ मना कर देते हैं. अमन ने अपनी मरजी से विवाह किया था. कुछ समय तो उस से नाराज रहे, पर पुत्र मोह के कारण बेटे से तो अलग नहीं रह पाए, पर हां, बहू से कोई मतलब नहीं रखते.

“आज विवाह के 8 वर्ष बाद भी उसे नहीं अपना पाए हैं. कहते हैं कि नीची जाति की बहू के हाथ का पानी पी कर क्या हम अपना धर्म भ्रष्ट कर दें? इन के जातपांत के चक्कर में अमन बेचारा परेशान रहता है, जबकि पंडितजी के बीमार पड़ने पर बहू ने ही पूरे एक माह तक यहां रह कर घर और अस्पताल एक कर दिया था. पर, तब भी इन की सोच में कोई अंतर नहीं आया. यही सब कारण है बेटा, जिन के चलते दोनों अपना अहंकार और ब्राह्मïणत्व पाल कर यहीं पड़े हैं, जिस से बच्चे परेशान रहते हैं सो अलग.’’

अब तुम दोनों तनुजा आंटी में ही लगी रहोगी या कुछ और भी करोगी. ये कुछ रुपए हैं, बाजार जा कर अपनी पसंद का कुछ ले आओ,’’ कहते हुए अम्मा ने दोनों बहनों को 2-2 हजार रुपए पकड़ा दिए.

‘‘अरे अम्मा, ये पैसे वैसे हमें नहीं चाहिए. हमें तो गर्व है कि हमें तुम्हारे जैसी समझदार और सुलझी हुई अम्मा मिली हैं, जिस ने समय की मांग को देखते हुए खुद को ऐसे बदल लिया जैसे इनसान अपने तन के कपड़े बदलता है.’’

‘‘बेटा परिवर्तन प्रकृति का नियम है. समय के अनुसार चल कर ही हम अपने जीवन को सुखी बना सकते हैं. अकड़ और अहंकार त्याग कर वक्त और परिस्थितियों के अनुसार जो खुद को ढाल ले, वही इनसान है.’’

‘‘वी आर प्राउड औफ यू अम्मा,’’ कह कर छोटी और अंशिका दोनों ही अम्मा के गले लग गईं.

प्रेम की उदास गाथा : भाग 3

काकाजी गांव वापस आ गए और नए सिरे से अपनी दिनचर्या को बनाने में जुट गए। कहानी सुनातेसुनाते कई बार काकाजी फूटफूट कर रोए थे। मैं ने उन को बच्चों जैसा रोते देखा था। शायद वे बहुत दिनों से अपने दर्द को अपने सीने में समेटे थे। मैं ने उन को जी भर कर रोने दिया था। इस के बाद हमारे बीच इस विषय को ले कर फिर कभी कोई बात नहीं हुई।

मैं उन के पास नियमित गणित पढ़ने जाता और वे पूरी मेहनत के साथ मुझे पढ़ाते भी। उन की पढ़ाई के कारण मेरी गणित बहुत अच्छी हो गई थी। उन्होंने मुझे अंगरेजी विषय की पढ़ाई भी कराई।

काकाजी की मदद से मेरा इंजीनियर बनने का स्वप्न पूरा हो गया था। पर मैं ज्यादा दिन इंजीनियर न रह कर आईएएस में सिलैक्ट हो गया और कलैक्टर बन कर यहां पदस्थ हो गया था। लगभग 10 सालों का समय यों ही व्यतीत हो गया था। इन सालों में मैं काकाजी से फिर नहीं मिल पाया था। मैं 1-2 बार जब भी गांव गया काकाजी से मिलने का प्रयास किया पर काकाजी गांव में नहीं मिले।

कलैक्टर का पदभार ग्रहण करने के पहले भी मैं गांव गया था तब ही पता चला था कि काकाजी तो कहीं गए हैं जब से यहां लौटे ही नहीं। उन के घर पर ताला पड़ा है। गांव के लोग नहीं जानते थे कि आखिर काकाजी चले कहां गए। आज जब अचानक उन की स्लिप चपरासी ले कर आया तो गुम हो चुका पूरा परिदृश्य सामने आ खड़ा हुआ। औफिस के बाहर मिलने आने वालों के लिए लगी बैंच पर वे बैठे थे, सिर झुकाए और कुछ सोचते हुए से।

मैं पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था पर मुझे लग रहा था कि वे ही हैं। बैंच पर और भी कुछ लोग बैठे थे जो मुझ से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे इस तरह भाग कर आता देख सभी चौंक गए थे। बैंच पर बैठे लोग उठ खङे हुए पर काकाजी यों ही बैठे रहे। उन का ध्यान इस ओर नहीं था।

मैं ने ही आवाज लगाई थी,”काकाजी…’’ वे चौंक गए। उन्होंने यहांवहां देखा भी पर समझ नहीं पाए कि आवाज कौन लगा रहा है। बाकी लोगों को खड़ा हुआ देख कर वे भी खड़े हो गए। उन्होंने मुझे देखा अवश्य पर वे पहचान नहीं पाए थे।

मैं ने फिर से आवाज लगाई,”काकाजी…’’ उन की निगाह सीधे मुझ से जा टकराई। यह तो तय हो चुका था कि वे काकाजी ही थे। मैं ने दौड़ कर उन को अपनी बांहों में भर लिया था।

‘‘काकाजी…नहीं पहचाना? मैं मनसुखजी का बेटा…आप ने मुझे गणित पढ़ाई थी,”काकाजी के चेहरे पर पहचान के भाव उभर आए थे।

‘‘अरे अक्षत…’’ अबकी बार उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था।

औफिस के रिटायररूम के सोफे पर वे इत्मीनान के साथ बैठे थे और मैं  सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ उन के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। चपरासी के हाथों से पानी ले कर वे एक ही घूंट में पी गए थे।

‘‘आप यहां कैसे, काकाजी…’’

“तुम…यहां के कलैक्टर हो? जब नाम सुना था तब कुछ पहचाना सा जरूर लगा था. पर तुम तो इंजीनियर…”

‘‘हां…बन गया था। आप ने ही तो मुझे बनवाया था. फिर आइएएस में सिलैक्शन हो गया और मैं कलैक्टर बन गया।’’ उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया।

‘‘आप यहां कैसे…मैं ने तो आप को गांव में कितना ढूंढ़ा?’’

‘‘मैं यहां आ गया था. रेणू को मेरी जरूरत थी,’’ उन्होंने कुछ सकुचाते हुए बोला था।

मेरे दिमाग में काकाजी की कहानी की नायिका ‘रेणू’ सामने आ गई। उन्होंने ही बोला,”रेणू को उस के पिरवार के लोग सता रहे थे. मैं ने बताया था न?’’

‘‘हां, पर यह तो बहुत पुरानी बात है।’’

‘‘वह अकेली पड़ गई थी. उसे एक सहारा चाहिए था।’’

‘‘उन्होंने आप को बुलाया था?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ही आ गया था…’’

‘‘यों इस तरह गांव में किसी को बताए बगैर?’’

‘‘सोचा था कि उस की समस्या दूर कर के जल्दी लोैट जाउंगा पर…”

‘‘क्या आप उस के साथ ही रह रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने यहां एक कमरा ले लिया है।’’

‘‘और…वो…उन्हें भी तो घर से निकाल दिया था…’’

दरअसल, मेरे दिमगा में ढेरों प्रश्न आजा रहे थे।

‘‘हां…वे वृद्धाश्रम में रह रही हैं।’’

‘‘अच्छा…’’

“यहां अदालत में उन का केस चल रहा है।’’

वे मुझे आप कहने लगे थे, शायद उन्हें याद आया कि मैं यहां का कलैक्टर हूं।

‘‘काकाजी, यह ‘आप’ क्यों लगा रहे हैं आप…’’

‘‘वह…बेटा, अब तुम इतने बड़े पद पर हो…’’

‘‘तो…’’

‘‘देखो अक्षत, रेणू का केस सुलझा दो। यह मेरे ऊपर तुम्हार बड़ा एहसान होगा…’’ कहतेकहते काकाजी ने मेरे सामने हाथ जोड़ लिए।

कमरे में पूरी तरह निस्तब्धता छा चुकी थी। काकाजी की आंखों से आंसू बह रहे थे। वे रेणू के लिए दुखी थे। वह रेणू जिस के कारण काकाजी ने विवाह तक नहीं किया था और सारी उम्र यों ही अकेले गुजार दी थी। मैं ने काकाजी को ध्यान से देखा। वे इन 10 सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे। चेहरे की लालिमा जा चुकी थी, उस पर उदासी ने स्थायी डेरा जमा लिया था, बाल सफेद हो चुके थे और बोलने में हांफने भी लगे थे।

औफिस के कोने में लगे कैक्टस के पौधे को वे बड़े ध्यान से देख रहे थे और मैं उन्हें। उन का सारा जीवन रेणू के लिए समर्पित हो चुका था। आज भी वे रेणू के लिए ही संघर्ष कर रहे थे।

‘‘काकाजी, मैं केस की फाइल पढ़ूंगा और जल्दी ही फैसला दे दूंगा,’’ मैं उन्हें झूठा आश्वासन नहीं देना चाह रहा था।

‘‘केस तो तुम को मालूम ही है न, मैं ने बताया था, ’’काकाजी ने आशाभरी निगाहों से मुझे देखा।

‘‘हां, आप ने बताया था पर फाइल देखनी पड़ेगी तब ही तो कुछ समझ पाऊंगा न,’’ मैं उन के चेहरे की बेबसी को पढ़ रहा था पर मैं भी मजबूर था। यों बगैर केस को पढ़े कुछ कह भी नहीं पा रहा था।

ककाजी के चेहरे पर भाव आजा रहे थे। मुझ से मिलने के बाद उन्हें उम्मीद हो गई थी कि रेणू के केस का फैसला आज ही हो जाएगा और वह उन के पक्ष में ही रहेगा। पर मेरी ओर से ऐसा कोई आश्वासन न मिल पाने से वे फिर से हताश नजर आने लगे थे।

‘‘काकाजी, आप भरोसा रखें, मैं बहुत जल्दी फाइल देख लूंगा…’’ मैं उन्हें आश्वस्त करना चाह रहा था।

काकाजी थके कदमों से बाहर चले गए थे। वे 2-3 दिन बाद मुझे मेरे औफिस के सामने बैठे दिखे थे। चपरासी को भेज कर मैं ने उन्हें अंदर बुला लिया था. उन के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी। काम की व्यस्त फाइल नहीं देख पाया था। मैं मौन रहा। चपरासी ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया, “काकाजी, कुछ खाएंगे क्या?” मैं  उन से बोल नहीं पा रहा था कि मैं फाइल नहीं देख पाया हूं पर काकाजी समझ गए थे।

वे बगैर कुछ बोले औफिस से निकल गए थे। फाइल का पूरा अध्ययन कर लिया था। यह तो समझ में आ ही गया था कि रेणूजी के साथ अन्याय हुआ है पर फाइल में लगे कागज रेणूजी के खिलाफ थे। दरअसल, रेणू को उन के पिताजी ने एक मकान शादी के समय दिया था। शादी के बाद जब तक हालात अच्छे रहते आए तब तक रेणू ने कभी उस मकान के बारे में जानने और समझने की जरूरत नहीं समझी. उन के पति यह बता देते कि उसे किराए पर उठा रखा है. पर जब रेणू की अपने ससुराल में अनबन हो गई और उन्हें अपने पति का घर छोड़ना पड़ा तब अपने पिताजी द्वारा दिए गए मकान का ध्यान आया। उन्होंने अपने पति से अपना मकान मांगा ताकि वे रह सकें पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया। रेणू ने मकान में कब्जा दिलाए जाने के लिए एक आवेदन कलैक्टर की कोर्ट में लगा दिया. रेणू को नहीं मालूम था कि उन के पति ने वह मकान अपने नाम करा लिया है। कागजों और दस्तावेजों के विपरीत जा कर मैं फैसला दे नहीं सकता था.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं काकाजी को क्या बोलूंगा।

वृद्धाश्राम के एक कार्यक्रम में मैं ने पहली बार रेणूजी को देखा था। आश्रम की ओर से पुष्पगुच्छ भेंट किया था उन्होंने मुझे। तब तक तो मैं  समझ नहीं पाया था कि यही रेणूजी हैं पर कार्यक्रम के बाद जब मैं लौटने लगा था तो गेट पर काकाजी ने हाथ दे कर मेरी गाड़ी को रोका था। उन के साथ रेणूजी भी थीं,”अक्षत, मैं और रेणू गांव जा रहे हैं. हम ने फैसला कर लिया है कि हम दोनो वहीं साथ में रहेंगे,” काकाजी के बूढ़े चेहरे पर लालिमा नजर आ रही थी। मैं ने रेणूजी को पहली बार नख से सिर तक देखा था। बुजुर्नियत से ज्यादा उन के चेहरे पर परेशानी के निशान थे पर वे बहुत खूबसूरत रही होंगी यह साफ झलका रहा था।

“सुनो बेटा, अब हमें तुम्हारे फैसले से भी कुछ लेनादेना नहीं है, जो लगे वह कर देना। उन्होंने रेणू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था।

“तुम ने मेरी अधूरी कहानी पढ़ी थी न. वह आज पूरी हुई,” काकाजी के कदमों में नौजवानों जैसी फुरती दिखाई दे रही थी। काकाजी के ओझल होते ही मेरी निगाह आश्रम के गेट पर कांटों के बीच खिले गुलाब पर जा टिकी।

शिकायतनामा : भाग 3

कंजूसी की भी हद होती है. रात अनुष्का, पिता विश्वनाथ को फोन कर के सुबकने लगी, “पापा, आप ने कैसे आदमी से मेरी शादी कर दी. एकदम जड़बुद्वि के हैं. मेरी सुनते ही नहीं.’’ फिर एक के बाद उस ने सारा किस्सा बयां कर दिया. सब सुन कर विश्वनाथ को भी तीव्र क्रोध आया. मगर चुप रहे यह सोच कर कि बेटी दिया है.

‘‘तुम से जितना बन पड़ता है, करो,’’ पिता विश्वनाथ का स्वर तिक्त था.

‘‘सास को यहां लाने की क्या जरूरत थी? 3 बेटे अच्छी नौकरियों में हैं. सब अपनेअपने बेटेबेटियों की शादी कर के मुक्त हैं. क्या अपनी मां को नहीं रख सकते थे? यहां कितनी दिक्कत हो रही है. किराए का मकान. वह भी जरूरत के हिसाब से लिए गए कमरे. जबकि उन तीनों बेटों के निजी मकान हैं. आराम से रह सकती थीं वहां.’’

‘‘अब मैं उन की बुद्वि के लिए क्या कहूं’’ विश्वनाथ ने उसांस ली.

गरमी की छुट्टियां हुईं. अनुष्का अपने बेटे को ले कर मायके आई. कृष्णा उसे मायके पहुंचा कर अपने भाईयों से मिलने चला गया. ससुराल में रुकने को वह अपनी तौहीन समझता. भाईयों का यह हाल था कि वे सिर्फ कहने के भाई थे, कभी दुख में झांकने तक नहीं आते. इतनी ही संवेदनशीलता होती तो जरूर अपनी मां की खोजखबर लेते. वे सब इसी में खुश थे कि अच्छा हुआ, कृष्णा ने मां को अपने पास रख लिया. अब आराम से अपनीअपनी बीवियों के साथ सैरसपाटे कर सकेंगे.

दो दिनों बाद कृष्णा अनुष्का को छोड़ कर इंदौर अपनी नौकरी पर चला गया. मां को दूसरे के भरोसे छोड़ कर आया था, इसलिए उस का वापस जाना जरूरी था. बातचीत का दौर चलता, तो जब भी समय मिलता अनुष्का अपना दुखड़ा ले कर विश्वनाथ के पास बैठ जाती.

एक दिन विश्वनाथ से रहा न गया, बोले, ‘‘तुम यहीं रह जाओ. कोई जरूरत नहीं है उस के पास जाने की.”

अनुष्का ने कोई जवाब नहीं दिया. बगल में खड़ी अनुष्का की मां कौशल्या से रहा न गया, “आप भी बिनासोचे समझे कुछ भी बोल देते हैं.’’ अनुष्का की चुप्पी बता रही थी कि यह न तो संभव था न ही व्यावहारिक. भावावेश में आ कर भले ही पिता विश्वनाथ ने कह दिया हो मगर वे भी अच्छी तरह जानते थे कि बेटी को मायके में रहना आसान नहीं है. फिर पतिपत्नी के रिश्ते का क्या होगा? अगर ऐसा हुआ तो दोनों के बीच दूरियां बढ़ेंगी जिसे बाद में पाट पाना आसान न होगा.

अनुष्का की आंखें भर आईं. उसे लग रहा था वह ऐसे दलदल में फंस गई है जहां से निकल पाना आसान न होगा. आज उसे लग रहा था कि रुपयापैसा ही महत्त्वपूर्ण नहीं, बल्कि आदमी का व्यावहारिक व सुलझा हुआ होना भी जरूरी है. पिता विश्वनाथ को आदर्श मानने वाली अनुष्का को लगा, पापा का सुलझापन ही था जो तमाम आर्थिक परेशानियों के बाद भी उन्होंने हम सब भाईबहनेां को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि समाज में सम्मान के साथ जी सकें. वहीं, कृष्णा के पास रुपयों के आगमन की कोई कमी नहीं तिस पर उन की सोच हकीकत से कोसों दूर है.

पिता विश्वनाथ की जिंदगी आसान न थी. सीमित आमदनी, उस पर 3 बेटियों ओैर एक बेटे की परवरिश. वे अपने परिवार को ले कर हमेशा चिंतित रहते. मगर जाहिर होने न देते. उन के लिए औलाद ही सबकुछ थे. पत्नी कौशल्या जब तब अपनी बेटियों को डांटतीफटकारती रहती जिस को ले कर पतिपत्नी में अकसर विवाद होता. बेटियों का कभी भी उन्होंने तिरस्कार नहीं किया. उन का लाड़प्यार उन पर हमेशा बरसता रहता. इसलिए बेटियां उन के ज्यादा करीब थीं. यही वजह थी कि बेटियां आज भी अपने पिता को अपना आदर्श मानतीं. जब बेटा हुआ तो मां कौशल्या का सारा प्यार उसी पर उमड़ने लगा. यह अलग बात थी कि जब उन की तीनों बेटियां अपने पैरों पर खड़ी हो गईं तो उन की नजर उन के प्रति सीधी हो गई.

एक महीना रहने के बाद अनुष्का कृष्णा के पास वापस इंदौर जाने की तैयारी करने लगी तो अचानक एक शाम विश्वनाथ को क्या सूझा, कहने लगे, ‘‘क्या तुम्हारी मां मुझ से खुश थीं?” सुन कर क्षणांश वह किंकर्तव्यविमूढ हो गई. अनुष्का मां की तरफ देखी. उन की आंखें सजल थीं. मानो अतीत का सारा दृश्य उन के सामने तैर गया हो. वे आगे बोले, ‘‘जब वह मुझ से खुश नहीं थी तो तुम कैसे अपने पति से अपेक्षा कर सकती हो वह हमेशा तुम्हें खुश रखेगा?’’

पिता की बेबाक टिप्पणी पर अनुष्का को कुछ कहते नहीं बन पड़ा. वह तो अपने पिता को आदर्श मानती थी. वह तो यही मान कर चलती थी कि उस के पिता समान कोई हो ही नहीं सकता. बेशक पिता के रूप में वे सफल थे मगर क्या पति के रूप में भी वे उतने ही सफल थे? क्या उन्होंने हमेशा वही किया जो कौशल्या को पसंद था? शायद नहीं. वे आगे बोलते रहे, ‘‘यह लगभग सभी के साथ होता है. पत्नी अपने पति से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करती है. पर खुशी का पैमाना क्या है? क्या कृष्णा शराबी या जुआरी है? कामधाम नहीं करता या मारतापीटता है? सिर्फ विचारों और आदतों की भिन्नता के कारण हम किसी को नापंसद नहीं कर सकते? जब एक गर्भ से पैदा भाईयों में मतभेद हो सकते हैं तो पतिपत्नी में क्यों नहीं.’’

अनुष्का को अपने पिता से यह उम्मीद न थी. उन के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज बना दिया. अभी तक उसे यही लग रहा था कि कृष्णा जो कुछ कर रहा है वह एक तरह से उस पर मनोवैज्ञानिक अत्याचार था. उन के कथन ने एक तरह से उसे भी कुसूरवार बना दिया. आहत मन से बोली, “पापा, जब ऐसी बात थी तो फिर आप ने मुझे क्यों मायके में ही रहने की सलाह दी?’’

वे किंचिंत भावुक स्वर में बोले, ‘‘एक पिता के नाते तुम्हारा दुख मेरा था. पुत्रीमोह के चलते मैं ने तुम्हें यहां रहने की सलाह दी. मगर यह व्यावहारिक न था. काफी सोचविचार कर मुझे लगा कि शायद मैं तुम्हें गलत रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हूं. बड़ेबुजर्ग का कर्तव्य है कि पतिपत्नी के बीच की गलतफहमियां अपने अनुभव से दूर करें, न कि आवेश में आ कर दूरियां बढ़ा दें, जो बाद में आत्मघाती सिद्व हो.’’

अनुष्का पर पिता विश्वनाथ की बातों का असर पड़ा. उस ने मन बना लिया कि अब से वह कृष्णा को भी समझने का कोशिश करेगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें