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सीने में दर्द के हो सकते हैं कई अलग-अलग कारण

लोग यह नहीं जानते कि सीने में दर्द दिल के रोग के अलावा और भी महत्त्वपूर्ण कारण होते हैं. इन पर वे ध्यान नहीं देते और समस्या गंभीर होती चली जाती है.भारतीयों में हार्टअटैक का इस कदर खौफ समाया हुआ है कि जरा सा छाती में खिंचाव, दर्द या जलन की शिकायत हुई नहीं कि दौड़ पड़े निकट के डाक्टर के पास. तुरंत ईसीजी और ढेरों खून के टैस्ट आननफानन करवा डाले. पर नतीजा कुछ नहीं निकला. फिर भी संतोष नहीं हुआ, तो पास के किसी नर्सिंग होम या छोटे अस्पताल में जा कर भरती हो गए और वहां के आईसीयू में 4-5 दिन गुजारने के बाद तसल्ली मिली.

इलाज करने वाला डाक्टर तो पहले से ही तसल्ली में था, पर आप को चैन नहीं था. जब रोज सुबहशाम ईसीजी हुआ और ढेर सारे खून के अनापशनाप टैस्ट हुए और थोड़ी जेब ढीली हुई, तब जा कर आप के ऊपर आया हुआ तथाकथित हार्टअटैक का खतरा टला. पर इस के बाद दवाइयों का सिलसिला जो शुरू हुआ, उस ने थमने का नाम ही नहीं लिया.

इस तरह की घटनाएं देश के हर गलीनुक्कड़ पर रोजरोज दोहराई जा रही हैं. नतीजा यह हो रहा है कि हर सीने में दर्द की शिकायत करने वाला व्यक्ति अपनेआप को जानेअनजाने में दिल का मरीज समझने लगा है और इस का असर यह हो रहा है कि उस की दिनचर्र्या व रोजमर्रा के व्यवहार में ऐसा बदलाव आ रहा है मानो चंद दिनों में ही मौत का अचानक बुलावा आने वाला हो. यहां तक कि वसीयत तुरंत लिखवाने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया हो.

हार्टअटैक का ऐसा खौफ क्यों

इस के लिए काफी हद तक मीडिया विशेषकर टैलीविजन चैनल जिम्मेदार हैं. आएदिन हार्टअटैक के बारे में दहशत फैलाई जा रही है. अगर फलांफलां तेल खाने में इस्तेमाल नहीं किया तो हार्टअटैक निश्चित है. अपना बीमा करा लो, कहीं हार्टअटैक  न आ जाए और आप के परिवार वाले अनाथ न हो जाएं.

एक और भी कारण है कि अपने देश के हर गलीनुक्कड़ में जैसे हार्ट स्पैशलिस्ट की बाढ़ आ गई हो. हर फिजीशियन अपनेआप को हार्ट स्पैशलिस्ट लिखने लगा है. कहीं भी आप गलीमहल्ले या कसबे में निकल जाइए, फिजीशियन एवं हार्ट स्पैशलिस्ट के बोर्ड बड़ी संख्या में नजर आ जाएंगे. जब हर कोई हार्ट स्पैशलिस्ट बना जा रहा है तो दिल के मरीज भी उसी संख्या में पैदा होंगे ही.

हार्टअटैक का अंदेशा कब करें

अगर आप की उम्र 40 वर्ष या उस से ऊपर है और आप डायबिटीज के शिकार हैं व धूम्रपान या तंबाकू (जर्दा, खैनी, जाफरानी पत्ती, गुल) के आदि हैं और तेज चलते वक्त या सीढ़ी चढ़ने पर छाती की बाईं तरफ दर्द या हलका भारीपन उभरता हो या थोड़ा शारीरिक व्यायाम करने पर सांस फूलने लगे, तो दिल की बीमारी होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

खास बात यह होती है कि आराम करने से या चलते वक्त रुक जाने पर छाती का हलका दर्द व भारीपन गायब हो जाता है. दिल का दर्द चलते वक्त बाएं हाथ, बाईं गरदन व बाएं जबड़े में भी उभरता है.

सीने में दर्द की चिंता से मुक्ति पाने का एक ही रास्ता होता है. पहले अपनी टीएमटी जांच करवा लें. अगर परिणाम संदेहास्पद है तो स्ट्रैस इको (डोब्यूटामीन इन्ड्यूस्ड स्ट्रैस इको यानी डीआईएसई) करवा कर हार्ट की बीमारी होने के संदेह का निराकरण करें. पूर्णतया निश्चिंत होने के लिए सब से उत्तम जांच मल्टी स्लाइस सीटी कोरोनरी एंजियोग्राफी करवाएं. इस विशेष एंजियोग्राफी के लिए अस्पताल में भरती होने की जरूरत नहीं होती और न ही जांघ के जरिए तार डालने की आवश्यकता होती है.

हार्टअटैक की संभावना

अगर आप की उम्र 40 से कम है व वजन सीमा के अंदर है और आप डायबिटीज व ब्लडप्रैशर के शिकार नहीं हैं, साथ ही, धूम्रपान, मदिरापान व तंबाकू सेवन के शौकीन भी नहीं हैं, तो आप के छातीदर्द का दिल के रोग से संबंध होने की संभावना कम होती है. अगर छाती का दर्द विशेषकर दाईं तरफ है और नौर्मल सांस लेने में या छींक या खांसी होने पर छातीदर्द उभरता है तो दिल के रोग की संभावना सौ में 5 फीसदी होती है. अगर गरिष्ठ, मिर्चयुक्त मसालेदार खाने के बाद ही छाती में दर्द उभरता है, तो दिल के रोग की संभावना कम होती है. तब हमें दिल के अलावा अन्य रोगों से संबंधित जांच करवाने के बारे में सोचना चाहिए.

दिल के अलावा अन्य कारण

सीने में दर्द का सब से बड़ा कारण छाती की अंदरूनी दीवारों में सूजन का होना है. होता यह है, जब फेफड़ों की ऊपरी सतह पर स्थित झिल्ली में सूजन आ जाती है तो छाती की अंदरूनी दीवार में स्थित सूजी हुई सतह सांस लेते वक्त रगड़ खाती है, तो असहनीय दर्द होता है. इस अवस्था को मैडिकल भाषा में प्ल्यूराइटिस कहते हैं. यह प्ल्यूराइटिस छाती में पानी इकट्ठा होने का शुरुआती संकेत है.

प्ल्यूराइटिस का ज्यादातर कारण टीबी का इन्फैक्शन होता है. लोग छातीदर्द के लिए दर्दनिवारक गोलियों का सेवन करते रहते हैं और सही जांच व इलाज के अभाव में समस्या को और गंभीर बना देते हैं. अगर प्ल्यूराइटिस की समस्या को सही समय पर नियंत्रित न किया गया तो सीने में फेफड़े के चारों ओर पानी इकट्ठा हो जाता है. टीबी के अलावा न्यूमोनिया का इन्फैक्शन भी इस अवस्था को पैदा कर देता है. इस तरह की समस्या पर किसी थोरैसिक सर्जन यानी चेस्ट सर्जन से परामर्श लें.

मवाद भी सीने में दर्द का कारण

हमारे देश में सीने में दर्द मवाद यानी पस जमा हो जाने की घटना बहुत आम है. होता यह है कि न्यूमोनिया या अन्य फेफड़े का इन्फैक्शन जब पूरी तरह से नियंत्रित नहीं हो पाता है, तो फेफड़े के चारों ओर विशेषतया निचले हिस्से में इन्फैक्शन वाला पानी या मवाद इकट्ठा हो जाता है.

इस एकत्र हुए पस की मात्रा कम तो होती है, पर महीनों दिए जाने वाले तरहतरह के एंटीबायोटिक का असर नहीं होता. छाती में पस का जमाव  सीने में दर्द बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कारण होता है. इस में किसी थोरैसिक सर्जन से औपरेशन के जरिए सफाई कराने के बाद ही समस्या से नजात मिल पाती है.

सर्वाइकल स्पोंडिलाइटिस

देश में शारीरिक व्यायाम का नितांत अभाव है. लोग हाथपैर चलाना तो दूर, पैदल चलना भी भूलते जा रहे हैं. और तो और, टैलीविजन व कंप्यूटर के सामने एक ही शारीरिक मुद्रा में बैठे रहते हैं. ऐसी आरामतलब दिनचर्र्या का गरदन व छाती के ऊपरी हिस्से की रीढ़ की हड्डियों पर कुप्रभाव पड़ता है. व्यायाम के अभाव में रीढ़ की हड्डियों के जोड़ काफी सख्त हो जाते हैं और उन में लचीलापन खत्म हो जाता है.

परिणामस्वरूप, रीढ़ की हड्डी से हाथ, कंधे और छाती के हिस्से में जाने वाली नसों पर दबाव पड़ने लगताहै. इस के फलस्वरूप छाती और हाथ में दर्द उभरने लगता है और लोग इसे दिल का रोग व संभावित हार्टअटैक गलती से मान बैठते हैं व अनजाने में अप्रत्याशित हार्टअटैक की संभावना के मद्देनजर अपनी दिनचर्या में अनावश्यक आमूलचूल परिवर्तन करते हैं. इस से उन में आत्मविश्वास व उन की कार्यक्षमता दोनों में ही भारी कमी आती है. आप को चाहिए कि किसी थोरैसिक यानी चेस्ट सर्जन से सलाह लें.

पसलियों की कमजोरी

आजकल अकसर नवयुवक व नवयुवतियां छातीदर्द की शिकायत करते हैं. यह दर्द सामने की ओर ज्यादा होता है. यह दर्द पसलियों का होता है जो छींक या खांसी आने पर और बढ़ जाता है. अगर पसलियों के ऊपर झटका लगा तो ऐसा लगता है कि जान निकल गई. इस रोग को मैडिकल भाषा में पसलियों की कोस्टो कौन्ड्रायटिस कहते हैं. अकसर वे लोग जो दूध का नियमित या नहीं के बराबर सेवन करते हैं, इस बीमारी के शिकार होते हैं.

आजकल देखा गया है कि खून में विटामिन डी की मात्रा कम होने से भी पसलियों की बीमारी व छातीदर्द होता है. अगर आप प्रोटीनयुक्त संतुलित भोजन व विटामिन से भरपूर सलाद (न्यूनतम 300 ग्राम प्रतिदिन) व फल (300 ग्राम रोजाना) और आधा लिटर बिना मलाई वाले दूध का सेवन प्रतिदिन करते हैं, तो पसलियों की इस बीमारी व छातीदर्द से कोसों दूर रहेंगे.

कुछ लोगों को ठंडे खाद्य पदार्थों, जैसे कढ़ी, रायता, आइसक्रीम, व दहीबड़े के सेवन करने से छाती में दर्द उभर आता है. इस का कारण छाती की मांसपेशियों की ठंडी चीजों के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता है. ऐसे लोगों को चाहिए कि लगातार कई दिनों तक अत्यधिक ठंडे भोजन के सेवन से बचें. ऐसे लोग गरम चीजें खाएं और एक या दो दिनों के लिए दर्दनिवारक दवा ले लें.

खाने की नली में सूजन

अपने देश में चाटपकौड़े, तेल में भुने हुए खाद्य पदार्थों जैसे समोसे, दालमोठ आदि जैसी अनेक तेल से युक्त खाने की चीजों की भरमार है. लोग इन सब खाद्य पदार्थों को खुल कर खाते हैं और साथ में अचार, मिर्च व मसालों का भरपूर सेवन करते हैं. इस तरह से तो आंतों में सूजन व अल्सर की शिकायत होनी लाजिमी है.

छाती के अंदर स्थित खाने की नली (ईसाफैगस) में सूजन आने पर यह दिल के रोग होने या हार्टअटैक होने की संभावना होने की याद दिलाता है. मरीज को कुछ खाने के बाद छाती के बीचोंबीच भारीपन, दबाव व दर्द महसूस होता है. शराब का भयंकर सेवन भी आंतों की सूजन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. इस तरह की चीजों को सामान्य भाषा में गैस की संज्ञा देते हैं. कभीकभी छाती के अंदर स्थित खाने की नली का कैंसर भी छातीदर्द का कारण होता है.

समझदारी की बात

इन सब बातों को समझ लेने के बाद हर छातीदर्द को हार्टअटैक समझने की गलती न करें. अगर संदेह न दूर हो तो सुझाई गई जांचें जरूर करवा लें, अन्यथा अनजाने में संभावित हार्टअटैक के डर की वजह से आप की कार्यक्षमता व आत्मविश्वास पर बुरा असर पड़ेगा. इसलिए संदेह होने पर हार्टअटैक से संबंधित जांचें करवा कर निश्चिंत हो जाइए. और फिर किसी थोरैसिक सर्जन से परामर्श कर छातीदर्द के अन्य कारणों का निदान ढूंढ़ने की कोशिश करें, तभी आप मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ रहेंगे.

दूसरी शादी करने के बाद मुझे काफी अफसोस हो रहा है, बताएं अब मैं क्या करूं ?

 सवाल

मैं 36 वर्षीय विवाहिता हूं. हमदोनों पतिपत्नी की यह दूसरी शादी है. पहले पति से मेरी 1 बेटी मेरे साथ है. पति के 2 बच्चे हैं- 1 बेटी और 1 बेटा. दोनों बच्चे मेरी बेटी से बड़े हैं. पति ने विवाह पूर्व वादा किया  था कि मेरी बेटी को वे अपने बच्चों जैसा ही प्यार देंगे. वे अपने वादे पर अडिग भी हैं. मेरी बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, अपने बच्चों सा दुलार भी देते हैं, पर उन के बच्चे न तो मुझे मां का मान (दिल से) देते हैं और न ही मेरी बेटी से प्यार करते हैं. मेरी बेटी सहमीसहमी सी रहती है.

जवाब

आप के पति की सोच सही है. अभी आप लोगों को साथ रहते कम वक्त ही हुआ है. इस के अलावा लगता है शादी करने से पहले आप के पति ने अपने बच्चों को मानसिक स्तर पर तैयार नहीं किया. यदि विवाहपूर्व वे उन्हें विश्वास में लेते और बताते कि बच्चों की सही परवरिश  के लिए मातापिता दोनों का सहयोग जरूरी होता है. वे कई अवसरों पर अकेले इस जिम्मेदारी को नहीं निभा पाएंगे. इसीलिए उन के लिए नई मां ला रहे हैं जो उन्हें प्यारदुलार देगी, घरपरिवार में सहयोग देगी तो ज्यादा अच्छा रहता पर संभवतया उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसीलिए कठिनाई आ रही है.

अब भी स्थिति सामान्य हो सकती है बशर्ते आप धैर्य बनाए रखें. अपनी बच्ची के प्रति बच्चों की उपेक्षा को ज्यादा तूल न दें. देरसवेर वे सामान्य व्यवहार करने लगेंगे.

अपने दिमाग से यह विचार निकाल दें कि आप ने शादी कर के कोई गलती की है. बच्चे बड़े हो कर अपनीअपनी जिंदगी में मसरूफ हो जाएंगे तब आप को अकेलापन बांटने और दुखसुख में साथ देने के लिए किसी की अपेक्षा होगी. इसलिए आप ने जो कदम उठाया वह सही है.

प्रायश्चित्त : पति के धोखे से व्यथित पत्नी की व्यथा

आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है. मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते.

उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे, कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया. मैं ने उन वचनों को निभाया जो अग्नि को साक्षी मान कर लिए थे.

तीज का व्रत याद आने लगा. कितनी तड़प और बेचैनी होती है जब सारा दिन बिना अन्न, जल के अपने पति का साथ सात जन्मों तक पाने की लालसा में गुजार देती थी. गला सूख कर कांटा हो जाता. शाम होतेहोते लगता दम निकल जाएगा. सुधीर कहते, यह सब करने की क्या जरूरत है. मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ हूं. पर वह क्या जाने इस तड़प में भी कितना सुख होता है. उस का यह सिला दिया सुधीर ने.

बनारस रहना मेरे लिए असह्य हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भइया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है. क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भइया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं. सारी बौद्धिकता, कल्पनाशीलता, बड़ीबड़ी इल्म की बातें सब खोखली साबित हुईं. स्त्री का सौंदर्य मतिभ्रष्टा होता है यह मैं ने सुधीर से जाना.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बिला वजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्ग दर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी. खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभीअभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है. एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. एक पतिव्रता स्त्री की आस्था खंडित की है. मेरी बददुआ हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भरे कदमों से घर आई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. जिंदगी से जो भी शिकवाशिकायत थी सब दूर हो गई. उलटे मुझे लगा कि अगर ऐसा बुरा दिन न आता तो शायद मुझ में इतना आत्मबल न आता. जिंदगी से संघर्ष कर के ही जाना कि जिंदगी किसी के भरोसे नहीं चलती. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला. इस दौरान अकसर सुधीर का खयाल जेहन में आता रहा. कहां होंगे…कैसे होंगे?

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है. उन्होंने तो कभी झांकना भी मुनासिब नहीं समझा. तुम्हारा न सही हमारा तो खयाल किया होता. कोई अपने बच्चों को ऐसे दुत्कारता है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था.

मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भइया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

मैं विस्फारित नेत्रों से भैया को देखने लगी. वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भइया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भइया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था. वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया.

मजाक : एक भगोना केक

स्नेहा तिरेक में लेख के महानायक, मुख्य महापुरुष मित्र सोनुवाजी ने एक भगोना केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. आखिर क्यों? योंतो पिछले जन्म के पापों के आधिक्य से जीवन में अनेक चोंगा मित्रों की रिसीविंग करनी पड़ी, किंतु दैत्यऋण (दैवयोग के विपरीत) से हमारी भेंट मित्रों के मित्र अर्थात मित्राधिराज के रूप में प्रत्यक्ष टैलीफोन महाराज से हुई, जिन की बुद्धि का ताररूपी यश चतुर्दिक प्रसारित हो रहा था. दशोंदिशा के दिक्पाल उस टैलीफोन महर्षि के नैटवर्क को न्यूनकोण अवस्था में झुक झुक कर प्रणाम कर रहे थे. हमारे जीवन के संचित पुण्यों का टौकटाइम वहीं धराशायी हो गया क्योंकि हम ने उन से मित्रता का लाइफटाइम रिचार्ज करवा लिया था.

कला क्षेत्र में आयु की दृष्टि से भीष्म भी घनिष्ठ बडी बन जाते हैं लेकिन हमारे महापुरुष मित्र, भीष्म नहीं ग्रीष्म, प्रतिज्ञा किया करते हैं. हकीकत में वे महान भारतवर्ष की आधुनिक शिक्षा पद्धति के सुमेरू संस्थान एवं गुरुकल (प्रतिष्ठा कारणों से नाम का उल्लेख नहीं किया गया है) द्वारा उत्पादित एवं उद्दंडता से दीक्षित थे पर दीक्षित नहीं, किंतु ज्ञान के अत्यधिक धनी हैं, इतने धनी कि उन के आधे ज्ञान को जन्म के साथ ही स्विस बैंक के लौकरों में बंद करवाया गया. अन्यथा वे दुनिया कब्जा लेते और डोनाल्ड ट्रंप व जो बाइडेन को लोकतांत्रिक कब्ज हो जाता. हम उन की चर्चा करेंगे तो यह लेख महाकाव्य हो जाएगा. सो, मैं लेख को उन की एक जीवनलीला पर ही केंद्रित रखूंगा. उन की मित्रता में इतना सामर्थ्य था कि जब वे निषादराज के समान भक्तिभाव प्रकट करते थे तो सामने वाला मित्र एक युग आगे का दरिद्र सुदामा बन जाता था. कालांतर में यह हुआ कि हमारे एक अन्य पारस्परिक मित्र की जयंती की कौल आई तो रात्रि के 12 बजे देव, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व और दैत्यों ने बिना मोदीजी के आदेश के थालियां बजाईं और दीप जलाया. कहीं दीप जले कहीं दिल.

यह विराट दृश्य देख कर हमारा दिल सुलग उठा. उसी दिवस, स्नेहातिरेक में, लेख के महानायक व मुख्य महापुरुष मित्र ने केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. उन के संदर्भ में यह जनश्रुति भी प्रचारित है कि वे मिनिमम इनपुट से मैक्सिमम आउटपुट देने वाले ऋषि हैं. सो, वे अपनी बालकनी में ‘एक टब जमीन’ में ही ‘वांछित उत्प्रेरक वनस्पतियों’ की जैविक खेती भी करते थे. ‘एक टब जमीन’ की अपार सफलता के बाद देवाधिपति सोनुवा महाराज ने ‘एक भगोना केक’ के निर्माण की घोषणा की. इस महान कार्य के वे स्वयंभू, नलनील एवं विश्वकर्मा अर्थात ‘थ्री इन वन’ थे. वे तत्काल इस कार्य में मनोयोग से लगे, मानो इसी के लिए उन का जन्म हुआ हो. सर्वप्रथम उन्होंने अनावश्यक सामग्रियों के एकत्रीकरण में दूतों को भेज कर उन की अव्यवस्था की.

इस के बाद अपने ज्ञानचक्षुओं को खोल कर बैठ गए. वैसे तो वे स्वभाववश मनमोहन सिंह थे किंतु ग्रीष्म प्रतिज्ञाओं के बाद वे किम जोंग हो जाते थे. तब उन का विकट रूप देख कर मैं ने अनेक भूतों को मदिरा मांगते देखा क्योंकि वे पानी नहीं पीते. किसी अभागी भैंस के 2 लिटर दूध को एक भगोने में डाल कर उसे सासबहू सीरियल की कथा सुना कर पकाते रहे. तत्पश्चात उन्होंने मैनमेड ‘मिल्कमेड’ डाल कर उसे शेख चिल्ली की बुद्धि जैसा मोटा बना दिया. अब उसे अनवरत कई युगों तक फेंटते रहे. जब उन का कांग्रेस का चुनावचिह्न शक्तिहीन हुआ तब उन्होंने वह पेस्ट दूसरे बड़े भगोने के अंदर नीचे कंकड़पत्थर की भीष्म शैया बना कर रख दिया और उन भगोनों को भाग्य के भरोसे अग्निदेव को समर्पित कर के 2 घंटे की तीर्थयात्रा पर निकल गए. मैं उन की रक्षा में लक्षमण सा फील करता हुआ धनुषबाण ले कर बैठ गया. लगभग एक युग के अंतराल के बाद मैं ने उन से दूरभाष पर संपर्क स्थापित किया तो उन्होंने अग्नि को और प्रबल कर के कुछ क्षणों में आने को कह दिया. मैं उन के आशीष वचन सुन कर निश्ंिचत रहा. सोनुवा महाराज ने आते ही अपनी यज्ञ सामग्री का निरीक्षण किया तो अपने परिपक्व ज्ञानलोचनों से उसे अधपका पाया.

एक और देव पुरुष ने उसे ‘बीरबल का केक’ कहा. तब भी सोनुवाजी के आत्मविश्वास में रंच मात्र भी कमी न आई. वे चीन का विरोध करते हुए आधा किलो चीनी की समिधा ‘केकाकुंड’ में झोंक कर चल दिए और इधर सब स्वाहा होता रहा. 2 घंटे के एक और युग बीत जाने पर प्रलय के बाद जब सृष्टि जगी तो पाया गया कि उस यज्ञ की बेदी में समय के थपेड़ों के गहरे काले स्याह निशान पड़ गए, जिन्हें सोनुवा महाराज ने अपने विज्ञान की कार्बन डेटिंग से बताया कि अभागी काली भैंस के दूध के रंग के कारण से यह पदार्थ भी वही रंग ले कर कोयले में परिवर्तित हो गया है जो कि दूसरे देशों को निर्यात कर के हम लोग कई भगोने केक चीन से आयात करेंगे. हम उन की इस सफलता पर भूतपूर्व अदनान सामी की तरह फूल कर कुप्पा और भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह चुप्पा दोनों हो गए थे.

पर वास्तविक समस्या अब थी. कोयले की खान बने भगोनेरूपी पात्र अब एक बूंद पानी रखने के भी पात्र नहीं बचे. हम ने उन्हें इतना रगड़ा कि हाथ रगड़ गए. शायद आदि मानव के चकमक पत्थर रगड़ने के बाद विश्व इतिहास में यह रगड़ने की ऐसी दूसरी घटना थी. हालांकि, इस में बौस द्वारा कर्मचारी को रगड़ना नहीं सम्मिलित किया गया है. उस दिवस, विम बार और उस के समकक्ष सभी उत्पादों के विज्ञापन में आने वाली सुंदर महिलाएं सूर्पणखा के बराबर लगने लगीं. यद्यपि हम ने वह केक 70 कोनों का मुंह बना कर खाया भी और जन्मदिन वाले मित्र से कहा भी कि तुम ने जन्म ले कर अच्छा नहीं किया, अगर जन्म न लेते तो यह केक अस्तित्व में न आता. इस घटना से सोनुवा महाराज को पाककला से विरक्ति हो गई.

उन्होंने तत्काल स्वयं को किचन के किचकिचीय जीवन से मुक्त रखने का निर्णय ले कर सृष्टि पर उपकार किया. उन का माफीनामा जल्द ही संग्रहालय में रखवाया जाएगा जो मानवजाति को भोजन पर किसी भी ऐसे प्रयोग से हतोत्साहित करने का प्रमाणपत्र सिद्ध होगा. क्या उन का क्षमापत्र पढ़ कर काला हुआ पात्र उन्हें क्षमा करेगा? हम उन्हें भगोना बरबाद होने से लगे सदमे से बचाने में प्रयत्नशील हैं. इस के लिए 7 मित्रों की संसद में यह निर्णय हुआ है कि अब वह भगोना भी एक टब जमीन के साथ रखा जाएगा और उस में भी उसी वांछित उत्प्रेरक वनस्पति की खेती होगी जिसे वायु में उड़ा कर वातावरण को संतुष्टि मिलती है और हमारे मन को वह शक्ति जिस से हम इस केक को न याद कर पाएं और गाएं ‘एक भगोना केक, जल्दीजल्दी फेंक.’

कुत्तों के बहाने जी-20 की भड़ास

कुत्ता घोषित तौर पर निकृष्ट प्राणी है, क्योंकि वह काटने का अपना खानदानी स्वभाव या फितरत नहीं छोड़ पाता, ऐसे कुत्तों को कटखना कुत्ता कहा जाता है. कुत्ते 2 तरीकों से काटते हैं. पहला, घात लगा कर, दूसरे खुलेआम, जो अपेक्षाकृत कम नुकसानदेह होते हैं.

पहली किस्म के कुत्ते ज्यादा खतरनाक होते हैं, जो न जाने से कहां से रामसे ब्रदर्स की फिल्मों की चुड़ैल जैसे प्रकट होते हैं और ख्वाबोंखयालों में डूबे राहगीर को संभलने का मौका भी नहीं देते.

वैसे तो कुत्ते शरीर में कहीं भी अपने पैनेनुकीले दांत गड़ा सकते हैं, लेकिन इन के काटने का पसंदीदा हिस्सा पिंडली होता है, क्योंकि वहां तक ये आसानी से पहुंच जाते हैं और ज्यादा मांस होने के चलते उन्हें भी सुखद या क्रूर कुछ भी कह लें, अनुभूति होती है.

11 सितंबर, 2023 को देश की राजधानी दिल्ली का माहौल ठीक वैसा ही सूनासूना सा था, जैसा बरात विदा होने के बाद लड़की वालों के घर का होता है. सब थकेमांदे सो रहे थे. इस दिन जी-20 का तमाशा खत्म हो चुका था. कोई 4,500 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी सियासी और सरकारी हलकों में विश्वगुरु बनने का सपना सच होने का भ्रमनुमा जोश था, अफसोस इस बात का रहा होगा कि इस से ज्यादा फूंक कर अपनी और रईसी क्यों नहीं दिखा पाए.

कुत्तों का हालांकि इस अंतर्राष्ट्रीय जलसे से कोई सीधा ताल्लुक नहीं था, जिन्हें इस आयोजन की भव्यता के लिए गरीब दरिद्रों की तरह सड़कों से खदेड़ दिया गया था. हफ्तेभर इन कुत्तों और दरिद्रों ने कैसे गुजर की होगी, यह तो सरकार जाने, लेकिन इस दिन सब से बड़ी अदालत में कोई अर्जेंट हियरिंग नहीं हो रही थी. सो, जज साहबान और वकील साहबान हलकेफुलके मूड में थे.

इस दिन सुप्रीम कोर्ट में कुत्ते के काटने की देशव्यापी समस्या पर ख्वाहमख्वाह में सैमिनार हो गया, जिस में जजों, वकीलों, बाबुओं, पेशकारों और चकाचक वरदीधारी वाले दरबानों तक ने भी बतौर श्रोता और दर्शक ही सही उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया. साबित हो गया कि हर किसी के पास कुत्ता काटने को ले कर कोई न कोई मौलिक, अप्रकाशित और अप्रसारित संस्मरण है, जिसे मीडिया ने प्रसारित भी किया और प्रकाशित भी किया. यह और बात है कि सर्वोत्तम संस्मरण पर कोई नकद या उधार पुरस्कार नहीं दिया गया.

अदालत की कार्रवाई शुरू की जाए का उद्घोष होने से पहले ही सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की नजर सामने खड़े एक वकील कुणाल कुलकर्णी पर पड़ी, जिन के हाथों पर पट्टियां बंधी हुई थीं. कैसे लगी यह सहज जिज्ञासा उन्होंने जाहिर है यूं ही व्यक्त की, तो कुणाल का दुख फूट पड़ा. वे बोले कि बीती रात घर के पास 5 कुत्तों ने घेर कर काट लिया. सीजेआई ने उन्हें रजिस्ट्रार के जरीए इलाज की पेशकश की, तो वे बोले कि इलाज करा लिया है.

यहीं से कुत्ता संगोष्टी का अनौपचारिक उद्घाटन हुआ. अब तक बिना दलीलों के यह साबित हो चुका था कि कुछ कुत्तों ने उक्त वकील साहब को घेरने की साजिशाना प्लानिंग पहले से ही कर रखी थी और कुत्ते अकसर रात में घूमने वालों या मौर्निंग वाक करने वालों को ज्यादा काटते हैं.

हालांकि साबित तो यह भी हो चुका था कि उक्त वकील साहब ने यह जानते हुए भी कि उन के घर के आसपास भी आवारा कुत्ते घूमते हैं और कभी भी किसी को भी काट सकते हैं अपनी तरफ से कोई एहतियात नहीं बरती थी, जो घोर लापरवाही थी.

कुत्तों का कोई वकील होता तो यही कहता कि हमें काटने के लिए जानबूझ कर उकसाया गया था, नहीं तो समझदार लोग छड़ी ले कर चलते हैं. वे हमें हड़काते हैं, तो हम शराफत से उन का रास्ता छोड़ देते हैं.

खैर, बात आईगई हो ही रही थी कि चीफ जस्टिस के साथ बैठे जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी बोल उठे कि आवारा कुत्तों को ले कर इस तरह की समस्या एक गंभीर समस्या है. अदालतों का एक अलिखित कानून है कि जज साहबान जिस मसले पर जरा सी भी दिलचस्पी दिखाते हैं, तो मौजूद वकील सबकुछ भूलभाल कर उस मसले पर बोलना अपना फर्ज समझने लगते हैं. इस के पीछे उन का मकसद अदालत की खुशामद ही होता है और उस के सिवाय कुछ नहीं होता. इस तरह सत्य वचन महाराज की तर्ज पर समस्या को गंभीर साबित करने में सभी अपनेअपने तरीके से योगदान देते पूरा जोर भी लगा देते हैं.

बात अगर मौसम पर अदालत करती तो वकील लोग कहते कि जी सर, आज दिल्ली में उमस है, लेकिन थोड़ी बूंदाबांदी भी हुई. अब अदालत अगर अड़ जाती कि नहीं, उमस बहुत ज्यादा है, तो वकील कहते, ‘जी मी लौर्ड, इतनी सी बूंदाबांदी से कुछ नहीं होता, मारे उमस के बुरा हाल है. मुझे तो चक्कर से आने लगे हैं.’

अदालत संतुष्ट हो जाती और फिर गंभीर हो कर कहती, ‘हां तो कार्रवाई आगे बढ़ाई जाए.’

अदालत में मौजूद सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत का मूड देख बात को और विस्तार से यह कहते दिया कि आएदिन कुत्तों के काटने के गंभीर मामले सामने आ रहे हैं. यहां तक कि छोटे और अबोध बच्चों की मौत की खबरें काफी विचलित करती हैं. पिछले दिनों गाजियाबाद में एक 14 साल के बच्चे की रेबीज के संक्रमण से तड़प कर अपने पिता की गोद में ही दम तोड़ देने के मामले का हवाला उन्होंने दिया तो हर कोई भावुक हो उठा. बात थी भी भावुक होने वाली, क्योंकि यह मामला वाकई हृदय विदारक और संवेदनशील था.

माहौल को ज्यादा बोझिल होने से रोकने के लिए सीजेआई ने भी अपने ला क्लर्क पर कुत्तों द्वारा हमले का किस्सा सुनाया, तो मौजूद एक और वकील विजय हंसरिया ने उपयुक्त अवसर जानते सीजेआई से स्वतः संज्ञान लेने का अनुरोध कर डाला.

कुत्तों के काटने के मामले का टैक्निकल फाल्ट उजागर करते इन वकील साहब ने बताया कि ऐसे मामलों पर अलगअलग हाईकोर्ट के अलगअलग फैसलों से भ्रम की स्थिति बनी हुई है.

एक वकील के हाथ में पट्टी बंधी देख हमदर्दी क्या दिखाई, ये वकील तो घेरने ही लगे यह सोचते अदालत ने बात खत्म करने के अंदाज में कहा, ‘देखेंगे.’

हर कोई जानता है कि सब से बड़ी अदालत चाह कर भी कुछ नहीं कर पाएगी, क्योंकि बात यहां भी नफरत और मुहब्बत की है.

कुत्तों को चाहने वालों की देश क्या दुनिया में कहीं कमी नहीं है. लोग बच्चों की तरह कुत्तों को पालते हैं, अपने बिस्तर में उन्हें सुलाते हैं. उन के मुंह में मुंह डाल कर चूमाचाटी करते हैं, डाइनिंग टेबल पर साथ बैठा कर खाना खिलाते हैं, उन के स्मारक बनवाते हैं, उन के नाम पर करोड़ों की दौलत की वसीयत कर जाते हैं. और तो और छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले सहित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित कई जगह मंदिर भी बने हुए हैं, जिन में कुत्तों की पूजा होती है.

दुर्ग के धमधा में कुत्ते के मंदिर में कुत्ते की मूर्ति की पूरे विधिविधान से पूजा होती है. इस मंदिर के बारे में अंधविश्वासियों ने अफवाह फैला रखी है कि कुत्ता काट ले तो यहां आ कर पूजा करने से पीड़ित ठीक हो जाता है.

साबित होता है कि किसी एंटीरेबीज इंजैक्शन या दवाओं की जरूरत को नकारते इस देश में कुत्ते का मंदिर बना कर भी कमाई की जा सकती है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा.

डौग बाइट्स के दिनोंदिन बढ़ते मामलों पर ऐसी मानसिकता और माहौल देख निराशा ही हाथ लगती है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, कोई 1 करोड़, 70 लाख हर साल डौग बाईट का शिकार होते हैं, जिन में से तकरीबन 20,000 दम तोड़ देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के सैमिनार के बाद मीडिया ने कार्रवाई के कच्चे चावलों को उबाला तो शाम तक सोशल मीडिया ने उस में दाल मिला कर खिचड़ी ही बना डाली. रात होतेहोते सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के सम्मान में घरघर कुत्तों की चर्चा हुई. उस में भी समाधान कम संस्मरण ज्यादा थे.

किसी के अलीगढ़ वाले फूफाजी को कुत्ते ने काटा था, तो किसी की पूना वाली ननद पर सोसाइटी के कुत्ते का दिल आ गया था. हर जगह पड़ोस के मामले का भी उदाहरण जरूर दिया गया कि एक बार हमारे पड़ोस वाले टहलने जा रहे थे कि उन्हें कुत्ते ने काट खाया.

कुत्ता काटने के दर्जनों मामले सुप्रीम कोर्ट में और सैकड़ों हाईकोर्ट में चल चुके हैं, लेकिन हर बार मोहब्बतियों और नफरतियों के बीच तलवारें ऐसे खिचीं हैं कि अदालतें भी चकरा जाती हैं कि क्या फैसला या व्यवस्था दें, जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. अदालतों में कुत्तों की नसबंदी, पुनर्वास और विस्थापन पर बड़ी ठोस दलीलें कुत्ता प्रेमियों ने दी हैं.

ताजा मामला जी-20 के आयोजन के दौरान का ही है. हुआ यों कि देशी कुत्तों को विदेशी मेहमानों की नजर से बचाने के लिए एमसीडी ने कुत्तों को पकड़ कर पशु नसबंदी केंद्रों में नजरबंद किया, तो पशु प्रेमी बिफर कर अदालत तक जा पहुंचे.

पीएफए की ट्रस्टी अंबिका शुक्ला ने कुत्तों को पकड़ने की कार्रवाई को क्रूर और अनावश्यक बताया, तो एनसीआर के एक कुत्ता प्रेमी संजय महापात्रा यह कहते बिफर पड़े थे कि कुत्तों को जबरन घसीट कर बेरहमी से ले जाना समाज के लिए ठीक नहीं है. कुत्तों को भी इज्जत से रहने का हक है. अगर जी-20 शिखर सम्मेलन के बाद कुत्तों को इज्जत से वापस उन की जगह नहीं छोड़ा गया, तो लंबी लड़ाई लड़ी जाएगी.

यहां दिलचस्प तर्क तथ्य सहित दिल्ली के डौग लवर्स ने यह कहते दिया था कि पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम, 1960 और साल 2002 में हुए संशोधन के मुताबिक, कुत्तों को देश का मूल निवासी माना गया है. वे जहां चाहे रह सकते हैं. उन को हटाने और भगाने का अधिकार किसी के पास नहीं है. अगर कोई ऐसा करता पाया जाता है, तो उसे 5 साल तक की सजा हो सकती है.

लेकिन, असल बात कुछ और थी. घरघर चर्चा जी-20 की भी थी. लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि इस अश्वमेध यज्ञ से हमें क्या मिला. देशविदेश से गोरे, काले और सांवले राजामहाराजा आए और आहुतियां डाल कर चले गए. करोड़ों के पकवान भी उन्होंने डकारे और शाही तरीके से रहे.

हमारे पास इतना पैसा आया कहां से? नरेंद्र मोदी सरकार ने 10 साल से भी कम अरसे में 100 लाख करोड़ रुपए का जो कर्ज लिया, वह कहां गया. इस से भली तो मनमोहन सरकार थी, जिस ने 10 साल में महज 38 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया था. मोदी सरकार का कर्ज मार्च, 2024 तक 155 से और बढ़ कर 172 लाख करोड़ रुपए हो जाएगा, जो आखिरकार चुकाना तो हम ही को है, फिर इतनी फिजूलखर्ची क्यों?

चूंकि आस्था, निष्ठा और भक्ति जो डर के ही पर्याय हैं के चलते वे इस का विरोध नहीं कर सकते थे, इसलिए कुत्तों की चर्चा के बहाने अपनी भड़ास निकाली, जिस का मौका इत्तिफाक से सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दे दिया था. रही बात कुत्तों की, तो वे और उन का काटना शाश्वत है, था और रहेगा. कोई अदालत इस में कुछ नहीं कर सकती.

TMKOC : जेठलाल की खुली पोल, फैंस ने बताया कैसा है दिलीप जोशी का असली बर्ताव!

Dilip Joshi : छोटे पर्दे के सबसे पसंदीदा शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ के हर एक किरदार लोगों के दिलों में राज करते हैं. जेठालाल, दया, मेहता से लेकर टपू तक को लोगों का खूब प्यार मिलता है, लेकिन जैसा शो में इन लोगों का बर्ताव होता है. वैसा ही क्या इनका असल में भी बिहेविय होता है. इस बात को लेकर हमेशा फैंस के दिलों में सवाल रहते हैं.

‘जेठालाल’ का किरदार निभाने वाले ”दिलीप जोशी” को इस शो (taarak mehta ka ooltah chashmah) के माध्यम से घर-घर में पहचान मिली है. उनका किरदार बच्चों से लेकर बड़ो तक को अच्छा लगता है. लेकिन अब उनके ही एक फैन ने उनके बिहेविय पर सवाल खड़े कर दिए है.

असल जिंदगी में बहुत नकचढ़े हैं ‘जेठालाल’!

दरअसल, सोशल मीडिया पर ‘जेठालाल’ यानी ”दिलीप जोशी” (Dilip Joshi) के एक फैन ने दावा किया है कि असल जिंदगी में उनका बिहेविय बहुत ज्यादा असभ्य और रूड हैं. जेठालाल का ये फैन उनसे हाल ही में मिला था, जिसके बाद उसने बताया कि दिलीप जोशी का बर्ताव उनके साथ कैसा था.

फैन ने किया बड़ा दावा

आपको बता दें कि ‘जेठालाल’ के इस फैन ने इस बात का खुलासा रेडिट के एक थ्रेड पर किया है. जब उस फैस से सवाल किया गया कि कौन सा टीवी एक्टर सबसे ज्यादा रूड है और किस-किसने ऐसा एक्सपीरियंस किया है? तो इस सवाल का जवाब कई लोगों ने दिया. लेकिन सभी का ध्यान Sans174 नामक एक यूजर के जवाब पर गया.

दरअसल, Sans174 नामक एक यूजर ने ‘दिलीप जोशी’ (Dilip Joshi) के साथ अपने एक्सपीरियंस को शेयर किया. उन्होंने ‘जेठालाल’ को रूड बताया. हालांकि वहीं दूसरी तरफ उसने उनकी एक्टिंग की भी तारीफ की.

सोनम कपूर के भाई Harsh Varrdhan ने जूतों पर दिया ज्ञान, भड़के यूजर्स

Harsh Varrdhan Kapoor Troll : हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने अभिनेता ‘अनिल कपूर’ के बेटे ”हर्षवर्धन कपूर” को भी बॉलीवुड का हैंडसम हंक माना जाता हैं. उन्होंने अपनी एक्टिंग से कुछ ही समय में लाखों लोगों का दिल जीत लिया है. उन्होंने ‘मिर्जिया’, ‘थार’ और ‘रे’ जैसी कई उम्दा फिल्मों में काम किया है. इसके अलावा वह सोशल मीडिया पर भी काफा एक्टिव रहते हैं और अपनी जिंदगी से जुड़ी हर छोटी बड़ी अपडेट अपने फैंस के साथ साझा करते हैं. हालांकि इस बार उन्हें लोगों का प्यार मिलने की जगह उनकी कड़वी बातों को सुनना पड़ रहा है.

दरअसल, एक्टर हर्षवर्धन (Harsh Varrdhan Kapoor troll) कपूर ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक नोट लिखकर नकली स्नीकर्स पहनने वाले लोगों को फटकार लगाई है, जिसके बाद यूजर्स उन पर ही भड़क उठे.

हर्षवर्धन- नकली स्नीकर्स पहनने से बचें

बीते दिनों, हर्षवर्धन कपूर (Harsh Varrdhan Kapoor troll) ने अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर लिखा, ‘पता नहीं कि इसे किसे सुनने की जरूरत है, पर कृपया नकली स्नीकर्स पहनना बंद करें. अगर आपका कम बजट है तो भी आपके पास बहुत सारे बेहतरीन ऑप्शन हैं. हालांकि अगर कोई आपको गिफ्ट देता है, तो वो अलग बात है. फिर तो उसे पहनने में खुशी होगी लेकिन अगर आप अपना खुद का सामान खरीद रहे हैं तो कृपया करके ऐसा न करें. केवल और केवल ट्रस्टेड ब्रांड्स से ही खरीदें.’

एक्टर ने लड़कों को भी दी सलाह

इसके अलावा हर्षवर्धन (Harsh Varrdhan Kapoor troll) ने एक और नोट लिखा, जिसमें उन्होंने लड़कों से अपने लुक पर ध्यान देने की बात कही. एक्टर ने कहा, ‘किसी को भी महंगी चीजें पहनने की जरूरत नहीं है. हालांकि अच्छे कपड़ों के साथ-साथ अच्छे जूतों की जोड़ी को स्टाइल करना भी जरूरी है, लेकिन लुक बहुत मायने रखते है. इसलिए हर किसी को इस पर पूरा ध्यान देना चाहिए.’ इसी के साथ एक्टर ने ये भी कहा कि, ‘फैशन किसी की भी पर्सनैलिटी के बारे में बहुत कुछ बताता है. इसलिए लोगों को स्टाइल के बारे में सीखना चाहिए.’

लोगों ने लगाई हर्षवर्धन की क्लास

आपको बता दें कि जैसे ही हर्षवर्धन (Harsh Varrdhan Kapoor troll) की ये पोस्ट वायरल हुई. वैसे ही यूजर्स ने एक्टर की क्लास लगा दी. जहां एक यूजर ने लिखा, ‘जीजा की दुकान है न, तभी ये सब बोल रहा है.’ वहीं एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘इसलिए इतनी बकवास कर रहा है क्योंकि उसके जीजू का जूते का बिजनेस है.’ हालांकि एक्टर ने अभी तक अपने ट्रोलर्स को कोई जवाब नहीं दिया है.

उम्मीदों के प्रदेश में फंसी भाजपा

6 प्रदेशों की 7 विधानसभा सीटों के चुनावों में सबसे चौंकाने वाला फेरबदल उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा सीट का रहा है. जहां भाजपा की जबरदस्त हार हुई. घोसी उपचुनाव में जीत हासिल करने के लिए भाजपा ने अपने पूरे घोड़े खोल दिए थे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, केशव प्रसाद मौर्य से लेकर एक दर्जन कैबिनेट मंत्री यहां डेरा ड़ाले रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री एके शर्मा कई अफसर और दलबदल कर भाजपा में आए ओम प्रकाश राजभर घोसी सीट पर चुनावप्रचार कर रहे थे.

भाजपा को इस हार की उम्मीद न थी. अभी 2022 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं दारा सिंह चौहान को घोसी की जनता ने चुन कर विधानसभा भेजा था. उपचुनाव में दारा सिंह के साथ भाजपा का भारीभरकम संगठन, मंत्री और हाईकमान का चाणक्य जैसा दिमाग भी साथ था. कोढ़ में खाज यह कि सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का हिंदूविरोधी बयान भी था. इन सब के बाद भी भाजपा की हार हुई. समाजवादी पार्टी के नेता सुधाकर सिंह चुनाव जीत गए.

क्यों हुआ घोसी उपचुनाव

समाजवादी पार्टी के विधायक दारा सिंह चौहान के इस्तीफा देने के कारण घोसी में उपचुनाव हुआ. उपचुनाव के बोझ के लिए जनता दारा सिंह चौहान को ही जिम्मेदार मान रही थी. दारा सिंह चौहान की पहचान एक दबंग नेता की है. वे नौनिया चौहान नामक पिछड़ी जाति से आते हैं. करीब साढ़े 4 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक दारा सिंह चौहान पर कई आपराधिक मुकदमे लंबित हैं. उन पर चोरी, डकैती से जुड़े भी आरोप हैं. वैसे दारा सिंह चौहान का राजनीतिक कैरियर कांग्रेस से शुरू हुआ था.

2009 में दारा सिंह बसपा से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे. 2014 में बसपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव हार गए. इसके बाद दारा सिंह चौहान2015 में भाजपा शामिल हो गए. 2017 के चुनाव में भाजपा ने मधुबन विधानसभा से दारा सिंह को टिकट दिया. चुनाव जीत कर वे विधायक ही नहीं, मंत्री भी बने. योगी सरकार में उनके पास वन एवं पर्यावरण जैसा महतत्वोंपूर्ण विभाग था. 2022 में विधानसभा चुनाव के पहले वे भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल हुए. सपा के टिकट पर वे घोसी सीट से चुनाव भी जीतकर विधायक बन गए.

मंत्री की तो छोड़ो, विधायक भी नहीं रह गए

सत्ता में रहने के शौकीन दारा सिंह चौहान और ओम प्रकाश राजभर भाजपा नेता और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर भाजपा में आ गए. दारा सिंह चौहान और ओम प्रकाश राजभर को उम्मीद थी कि भाजपा उनको उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बना देगी. दारा सिंह चौहान ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया. जिसके बाद घोसी सीट खाली हो गई. भाजपा ने मंत्री तो नहीं बनाया बल्कि उनको फिर से घोसी उपचुनाव में प्रत्याशी बना दिया. उम्मीद थी कि जब वे उपचुनाव जीत जाएंगे तो उनको मंत्री बना दिया जाएगा. उपचुनाव में जनता ने सबक सिखा दिया. मंत्री तो क्या, अब वे विधायक भी नहीं रह गए.

घोसी उपचुनाव में दलबदल सबसे बड़ा मुददा बन गया था. वहां की जनता ने तय कर लिया था कि दलबदल करके बारबार चुनाव लड़ने वालों को सबक सिखाना जरूरी है. समाजवादी पार्टी के सुधाकर सिंह चुनाव मैदान में थे. दारा सिंह चौहान ने दलबदल के सारे रिकौर्ड तोड़ दिए थे. कांग्रेस से सपा, सपा से बसपा, बसपा से भाजपा, भाजपा से दूसरी बार सपा और अब एक बार फिर भाजपा में वापस लौटने के बाद दारा सिंह चौहान पर दलबदल की राजनीति भारी पड़ी.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक और नेता हैं ओम प्रकाश राजभर.वे भीदलबदल के माहिर हैं. वे भी भाजपा के साथ थे और दारा सिंह चौहान का प्रचार कर रहे थे. इनको दलबदल का मास्टर कहा जाता है. जनता को लगा कि एक हार से दोनों दलबदल करने वाले नेता सुधर जाएंगे. घोसी की हार ने दलबदल करने वाले नेताओं के साथ भाजपा को भी सबक सिखाने का काम किया है. दलबदल को जिस तरह से भाजपा बढ़ावा दे रही थी, जनता ने उसको भी चेतावनी दे दी है.

सपा ने बनाया दलबदल को मुद्दा

समाजवादी पार्टी ने जैसे ही देखा कि घोसी की जनता दलबदल को लेकर गुस्से में है, अखिलेश यादव ने चुनावी प्रचार में इस बात को ही मुददा बना लिया. अखिलेश ने कहा,‘घोसी के मतदाताओं ने मन बना लिया है, जो पलायन करने वाले हैं, जिन्होंने पलायन किया है, जिन्होंने लोकतंत्र में मत का विश्वास तोड़ा है, इस बार घोसी की जनता उन्हें सबक सिखाएगी.’

सपा के प्रत्याशी सुधाकर सिंह और दारा सिंह चौहान दोनों का राजनीतिक कैरियर लगभग 40 साल पुराना है. दारा सिंह चौहान ने मौके देख कर बारबार पार्टी बदली और सपा के सुधाकर सिंह हमेशा पार्टी के प्रति वफादार रहे.

सुधाकर सिंह की जीत ने एक और बात पर मोहर लगा दी है कि प्रदेश का ठाकुर योगी और भाजपा के साथ नहीं है. मैनपुरी के बाद घोसी में भी ठाकुरों ने सपा को वोट दिया है. घोसी चुनावप्रचार में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस उपचुनाव को ‘इंडिया’ गठबंधन का पहला चुनाव बताते हुए कहा था कि ‘घोसी विधानसभा का संदेश केवल उत्तर प्रदेश में नहीं है, घोसी विधानसभा के एकएक वोट का संदेश पूरे देश में जाने वाला है. जब से समाजवादी और देश के दल एक हो गए, जब से इंडिया गठबंधन बना है, लोग घबराए हुए हैं कि इंडिया गठबंधन कैसे बन गया.’ घोसी के चुनाव में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने भी सपा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया.

काम नहीं आई चाणक्य नीति

घोसी क्षेत्र में करीब 1 लाख मुसलिम मतदाता, 90 हजार से अधिक दलित मतदाता, 50 हजार राजभर, 50 हजार चौहान, 20 हजार निषाद, 15 हजार ठाकुर, 15 हजार भूमिहार, 8 हजार ब्राह्मण और 30 हजार वैश्य वोटर हैं. दारा सिंह चौहान पिछड़ी जाति से आते हैं. समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह क्षत्रिय हैं. दलबदल के मुददे में सारा वोट का गणित बिगड़ गया. बहुजन समाज पार्टी ने कोई अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. इसके बाद भी लगभग एक लाख दलित वोटों का साथ भाजपा को नहीं मिला.

घोसी में लगभग 50 हजार राजभर वोटर भी हैं. पिछले चुनाव में उन्होंने दारा सिंह चौहान  के लिए इसलिए वोट दिया था क्योंकि वे सपा के उम्मीदवार थे और सुहेलदेव भारतीय समाज समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर भी सपा गठबंधन के साथ थे. लेकिन अब दोनों भाजपा के साथ हो गए हैं. जनता दोनों के दलबदल से नाराज हो गई. ओम प्रकाश राजभर ने यादवों और योगीमोदी के खिलाफ जिस तरह के बयान दिए, उनको लोगों ने दिल में बिठा लिया.

घोसी की हार ने भाजपा के भीतर चल रही गुटबाजी को भी सामने लाने का काम किया.  केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा नेता अमित शाह को चाणक्य कहा जाता है. उत्तर प्रदेश में वे अपनी समानांतर सरकार और संगठन चलाने का काम कर रहे हैं. दारा सिंह चौहान और ओमप्रकाश राजभर जैसे कई बाहरी नेताओं को वे ज्यादा महत्त्व देते हैं जिससे भाजपा के मूल नेताओं में विरोध बढ़ने लगा है जिसका परिणाम घोसी में देखने को मिला है.

एक नजर में चुनाव परिणाम

विधानसभा क्षेत्र – प्रदेश  – पार्टी – विजेता

घोसी – उत्तर प्रदेश  – समाजवादी पार्टी -सुधाकर सिंह

डुमरी – झारखंड – जेएमएम – बेबी देवी

धनपुर – त्रिपुरा – भाजपा -बिदूं देबनाथ

बक्सनगर – त्रिपुरा – भाजपा –तफज्जुल हुसैन

बागेश्वर – उत्तराखंड – भाजपा – पार्वती दास

पुथिपल्ली – केरल – यूडीएफ – चांडी उम्मेन

धूपगुडी – पश्चिम  बंगाल – टीएससी – निर्मल चंद्र राय

घर से काम करना बेहतर या औफिस में ?

कोरोना के बाद से भारत समेत पूरी दुनिया में लोगों के काम करने के तौरतरीके में बदलाव आया है. आज यह सुविधा है कि आप रिमोट वर्क कर सकते हैं यानी औफिस जाने की जरूरत नहीं, बस घर पर अपने सिस्टम को लौगइन करो और सारा काम घर बैठेबैठे.

नोएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरु, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, चैन्नई जैसे बड़े शहरों के कौर्पाेरेट इसी तरह अपने कर्मचारियों से काम करवा रहे हैं. आजकल की युवा पीढ़ी इसे सहूलियत मान रही है क्योंकि इस में फौरमैलिटी है. आप चाहे अपने नोटिस एरिया में हैं, परिवार के साथ गपशप कर रहे हैं, जब चाहे उठ कर चाय पी रहे हैं पर साथ में काम भी कर रहे हैं.

वर्क फ्रौम होम में किसी तरह की फौरमैलिटी नहीं है कि आप को कैसे रहना है. आप बस काम कर रहे हैं, कंपनी को यह मैटर करता है.

लेकिन जहां यह सहूलियत देता है वहीं इसे ले कर कुछ समस्याएं भी हैं जैसे सोशल रिलेशन खत्म होना, पूरे दिन घर में बंधे रहना, काम के घंटे फिक्स न होना और सब से बड़ी बात वर्क एथिक का खत्म होना. ऐसे में युवाओं में असमंजस है कि उन के लिए घर में काम करना बेहतर है या औफिस में.

हम चाहे जितनी दुहाई दें कि यह कंप्यूटर और इंटरनैट का युग है, लेकिन समाज में हमारे दकियानूसी होने के चिह्न अब भी हर तरफ बिखरे हैं.

भले हम अपनी जीवनशैली में फायदे के लिए आधुनिक तकनीक का भी खूब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन हम सोच और सम झ के मामले में आधुनिकता को कहीं जगह नहीं देते. यही कारण है कि आज जबकि सेवा क्षेत्र का 90 फीसदी से ज्यादा काम औनलाइन हो चुका है और 80 फीसदी सेवा क्षेत्र के प्रोफैशनलों के लिए लैपटौप ही उन का दफ्तर बन चुका है, हिंदुस्तान में जो पुरुष सुबह घर से निकल कर एक तयशुदा जगह काम करने नहीं जाता, उसे इज्जत की निगाह से नहीं देखा जाता.

वैसे एक सच यह भी है कि भारत दुनिया के उन गिनेचुने देशों में से एक है जहां यूरोप और अमेरिका का सब से ज्यादा काम आउटसोर्स के जरिए किया जाता है. इस आउटसोर्सिंग में पूरे सौ फीसदी सेवा क्षेत्र का ही काम होता है. लेकिन जहां यूरोप के तमाम देशों में 45 फीसदी से ज्यादा कामगार, चाहे वे किसी भी जैंडर से हों, घर से काम करना पसंद करते हैं, वहीं हिंदुस्तान में चाह कर भी लड़के घर से काम करने को अपनी कामकाज की शैली का हिस्सा नहीं बना पाते या बनाना चाहते. इस की सब से बड़ी वजह है भारत का सांस्कृतिक समाज जो आज भी पुरुषों को मर्दानगी के खास आईने में देखता है.

अगर लड़का घर से काम करता है और भले सामान्य लोगों से ज्यादा कमाता है तो भी गलीमहल्ले से ले कर यारदोस्तों और रिश्तेदारों तक में उस का जिक्र बड़ी बेचारगी से होता है, ‘औरतों की तरह घर में पड़ा रहता है’, ‘जब भी घर जाओ, दरवाजा खोलते वही मिलता है. पूरा औरत बन चुका है’, ‘अरे, उसे कौन सी परेशानी है. वह तो दिनभर घर में ही रहता है. कपड़े धोने से ले कर घर की सफाई तक कर देता है…’ और फिर जोर का ठहाका.

घर से काम करने वाले युवकों के लिए आज भी इस तरह के व्यंग्य खूब सुनने को मिलते हैं. कुछ साल पहले इसी सामाजिक मनोस्थिति पर एक टैलीविजन शो ओपेरा भी बना था, ‘मिसेज तेंदुलकर’. दरअसल, हिंदुस्तानी समाज भले ही टैक हो चुका हो, हर हाथ में स्मार्टफोन आ गया हो. लेकिन सोचने और देखने वाली बात यही है कि हिंदुस्तान की सामाजिक सोच अभी भी धुर खेतीबाड़ी के दौर की ही है.
यही कारण है कि हर वह काम जो परंपरा से थोड़ा हट कर है, उसे बड़ी मुश्किल से स्वीकार करने की मनोस्थिति में आ पाता है हमारा समाज.

सामाजिक व सांस्कृतिक अड़चन

हालांकि तमाम मल्टीनैशनल कंपनियों ने इस सदी के शुरू में घर से काम करने की छूट दिए जाने की शुरुआत की थी लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक अड़चनों के चलते अंतत: उन्हें भी अपने कदम वापस खींचने पड़े हैं. लेकिन कोरोना के बाद रियलिटी बदली है. आज एम्पलौई और एम्पलौयर दोनों वर्क फ्रौम होम को तरजीह दे रहे हैं.

नाजिश परवेज मुंबई में एक एमएनसी में काम करती हैं. वे घर पर रहते हुए ही अपने दफ्तर का काम करती हैं. इस तरह उन्हें अपनी एक साल की बेटी आलिया को संभालने का मौका भी मिल जाता है और बिना रोजाना दफ्तर गए अपने काम का टारगेट भी सहजता से पूरा कर लेती हैं.

गौरतलब है कि दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में अगर किसी एम्पलौई को दफ्तर आनाजाना न पड़े तो उस के कम से कम 3 घंटे रोजाना सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट में खर्च होने से बच जाते हैं. इस तरह वह अपने हिस्से का काम घर से करने पर 3 घंटे पहले ही खत्म कर लेता है और इस तरह ये 3 घंटे उसे अपने निजी कामों के लिए मिल जाते हैं.

नाजिश आगे कहती हैं, ‘‘मैं दफ्तर जाने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती हूं, सिवा तब के जब कभीकभार बहुत जरूरी होता है. मैं सारा काम घर पर बैठ कर ही अपनी सुविधानुसार पूरा कर लेती हूं. वैसे भी मेरे बौस अपने दफ्तर में 3 माह में एक बार ही आते हैं. मेरे दफ्तर में हौट डैस्किंग सिस्टम है, इसलिए मेरे बैठने के लिए वहां कोई स्थायी स्थान भी नहीं है.’’

गौरतलब है कि हौट डैस्किंग सिस्टम दफ्तरों में एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिस में अनेक कर्मचारी एक ही वर्क स्टेशन या स्थल को अलगअलग समयावधि के दौरान इस्तेमाल करते हैं.

समय की बचत

घर पर रहते हुए दफ्तर का काम करने से कर्मचारियों खासकर महिला कर्मचारियों को काफी सुविधा होती है. जैसाकि हम सब जानते हैं हिंदुस्तान में आज भी कामकाजी महिलाएं अपने घर की जिम्मेदारियों का बो झ ढोते हुए ही अतिरिक्त कमाने के लिए घर से बाहर जाती हैं. ऐसे में जब उन का आनेजाने का समय बचता है तो यह कीमती समय न सिर्फ उन के कामकाज की गुणवत्ता को सुधारता है, बल्कि उन्हें दफ्तर में जाने के तनाव और उस दौरान खर्च होने वाले समय को बचा कर उन के घर के किए जाने वाले काम की भी भरपाई कर देता है, जिस से वे कामकाजी होते हुए भी शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा नहीं थकतीं.
लेकिन यह भी सच है कि इस तरह के काम महज बैंकिंग या वित्त अथवा दूसरे सेवा क्षेत्र के कामों तक ही सीमित हैं. इन कामों के तहत ऐसा कोई काम संभव नहीं है जिस में टीम वर्क की जरूरत हो, जिस में कई लोगों द्वारा एक काम को परख कर आखिरी शक्ल देनी हो या जिस का उत्पादन से सीधा संबंध हो. ऐसे कामों को घरों से करना संभव नहीं है. यही कारण है कि चाह कर भी सभी कामों को आउटसोर्स नहीं किया जा सकता.

बावजूद इस के, इस कार्यशैली से बहुत लोगों को काफी फायदा होता है. महिलाओं को ही नहीं, पुरुषों को भी इस से फायदा होता है. वे अपने काम में सही तरह से फोकस कर पाते हैं. वे अपने काम की मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही सुधार पाते हैं. लेकिन आजकल की लड़कियों को तो इस से भी आगे बढ़ कर अपने दैनिक जीवन को सही ढंग से पटरी पर बनाए रखने के लिए भी कामकाज की यह शैली मददगार साबित होती है. इसलिए अनेक वीमेन और्गेनाइजेशंस लंबे अरसे से इस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि ज्यादातर महिलाओं को फ्लैक्सिबल (लचीली) कार्यावधि प्रदान की जाए ताकि वे कार्य व व्यक्तिगत जीवन में संतुलन स्थापित कर सकें. आज 2023 के युग में यह संभव है कि लड़कियां बाहर जा काम कर सकें.

रिमोट वर्किंग कल्चर

कर्मचारियों को दफ्तर के छोटे से क्यूबिकल (पिंजरे) में काम करने से मुक्ति मिल रही है. कंपनियों को भी कई तरह का फायदा हो रहा है. उन्हें दफ्तर बनाने के लिए बड़ी जगह की जरूरत नहीं पड़ रही. कर्मचारियों को कार्य आवंटित कर दिया जाता है कि निर्धारित समय में वे अपना काम पूरा कर के दे दें. इस तरह कंपनियों का काम भी हो जाता है या वे अपनी सहूलियत से कर देते हैं.

आज नई पीढ़ी को उम्मीद है कि यह कार्य संस्कृति आने वाले दिनों में और मजबूत होगी और अपना विस्तार हासिल करेगी. आज लड़केलड़कियां कौर्पोरेट में काम कर रहे हैं. उन के पास असीम मौके हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देखादेखी देशी कंपनियां भी कदम बढ़ाने की शुरुआत कर चुकी हैं और उम्मीद है कि आने वाले दिनों में यह संस्कृति और तेजी से आगे बढ़ेगी. कोरोना खत्म हो चुका है. ऐसे में कंपनियों ने भले ही वर्कर्स को काम पर वापस बुलाना शुरू कर दिया है लेकिन यह सहूलियत भी रही हैं कि वे रोटेशनल घर से काम कर सकते हैं.

गौरतलब है कि पहले यहां एक महीने बाद फेस टू फेस मीटिंग का रिवाज था. हाल के दिनों में तमाम बीपीओ कंपनियां जो अपने कर्मचारियों को प्रैसक्रिप्शिंग का काम घर से करने के लिए देती थीं अब उन्हें दफ्तर में बुला कर काम करने के लिए कह रही हैं और केपीओ (नौलेट प्रोसैस आउटसोर्स) ऐसेसमैंट और सैटलमैंट का समय जहां पहले एक हफ्ता हुआ करता था, वहीं अब हर वर्किंग डे की शाम को होने लगा है.

डैस्कटौप शेयरिंग

ऐसे में सवाल है क्या भविष्य में रिमोर्ट वर्किंग कल्चर समाप्त हो जाएगा? क्या हिंदुस्तान जैसे देश में यह सही तरीके से अपनी जगह बनाने के पहले ही गायब हो जाएगा? ये सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि फ्लैक्सिबल कार्यावधि के संदर्भ में ज्यादातर भारतीय कंपनियों के पास अभी तक स्पष्ट नजरिया नहीं है. ऐसे में जबकि भारत स्थित तमाम कंपनियां चाहे वे यहां की हों या किसी विदेशी बड़ी कंपनी का हिस्सा हों, विदेशी चलन के आधार पर ही अपना रुख तय करती हैं.

हिंदुस्तानी बौस ज्यादातर यही चाहते हैं कि उन की टीम उन की सीधी निगरानी में काम करे. हालांकि लगभग सभी मानव संसाधन (एचआर) प्रमुख इस बात पर सहमत हैं कि जिन महिलाओं के बहुत छोटे बच्चे हैं उन को फ्लैक्सिबल कार्यावधि की आवश्यकता है, लेकिन वे साथ ही यह भी कहते हैं कि अगर महिला कर्मचारी बहुत रियायतों की मांग करेंगी तो वे अपने कैरियर में प्रगति नहीं कर पाएंगी और न ही टौप पर पहुंच पाएंगी.

फ्लैक्सिबल कार्यावधि या घर पर रह कर काम करने की शैली का मतलब है, अपने सहकर्मियों के साथ स्टेट औफ द आर्ट कम्युनिकेशन सिस्टम के तहत सहयोग करना. साधारण शब्दों में इस का अर्थ यह है कि इंटरनैट के जरिए सभी से संपर्क में बना रहा जाए और इस तरह अपने हिस्से का जरूरी काम आदानप्रदान के जरिए संभव बनाया जाए. इसे डैस्कटौप शेयरिंग भी कहते हैं.

फ्लैक्सिबल वर्क कल्चर के तहत काम करने वालों को अपने बहुत से सहयोगियों, चाहे वे बराबर के हों या वरिष्ठ हों, के साथ नियमित रूप से टच में भी रहना पड़ता है और कई बार वर्चुअल तकनीक के जरिए फेस टू फेस भी मीटिंग करनी होती है. इस के बावजूद अगर बात बिना आमनेसामने बैठने के संभव नहीं होती तो तय समय के पहले भी बौस के साथ या दूसरे जरूरी सहयोगी के साथ मीटिंग करने के लिए दफ्तर जाना पड़ता है, जो जरूरत के हिसाब से तय होता है, नियम से नहीं.

मरजी से कार्य

कहने का अर्थ यह है कि फ्लैक्सिबल कार्यावधि वास्तव में टैलीकम्युनिकेटिंग कार्यशैली है, जिस में कर्मचारी कार्य के लिए किसी केंद्रीय स्थान पर नहीं जाता है, बल्कि अपने घर, कौफी शौप या किसी अन्य स्थान से टैलीकम्युनिकेशन की मदद से कार्य करता है. किसी महिला कर्मचारी के घर और दफ्तर के बीच संतुलन साधने का आधार भर हो. इस के साथ और भी बड़ी और अहम बातें जुड़ी हुई हैं, जिन में एक बात कम्युनिकेबल टैक्नोलौजी की सीमा भी है. जाहिर है हर काम महज संचार तकनीक से संभव नहीं बनाया जा सकता.

इस बहस में एक हिस्सा यह भी है क्या अकेले काम करते हुए भी कोई कर्मचारी अपना निरंतर विकास कर पाता है, जैसाकि साथ में काम करने से संभव होता है? यह सवाल युवाओं के दिमाग को कचोट रहा है.

शायद यही वजह है कि जब याहू की सीईओ मारिसा मेयर ने कहा कि उन्हें प्रत्येक कर्मचारी रोजाना दफ्तर में दिखाई देना चाहिए तो वे केवल महिलाओं के खिलाफ आक्रामक नहीं हो रही थीं. वे एक ऐसी बुनियादी बहस को आधार दे रही थीं जिस से व्यक्तिगत हितों के साथसाथ नियोक्ता के हितों और कामकाज की गुणवत्ता पर भी बहस संभव हो सके, क्योंकि पुरुष कर्मचारियों पर यह आरोप भी है कि वे अकसर फ्लैक्सिबल समयावधि के तहत अपनी मरजी से कार्य करते हैं, जबकि महिलाएं मजबूरन ऐसा करती हैं. इसलिए अगर कार्यस्थल पर फिर से फ्लैक्सिबल कार्यावधि की जगह 9 से 5 शैली लौट आती है तो अधिकतर पुरुष थोड़ी नानुकुर के बाद भी बदली स्थिति को स्वीकार कर लेंगे, लेकिन ज्यादातर महिलाएं असहाय हो जाएंगी और उन्हें अपना कार्य भी छोड़ना पड़ सकता है.

इस में शक नहीं है कि लड़कियों को विशेष जरूरतों का सामना करना पड़ता है और इसलिए वर्क प्लेस को एक ऐसी व्यवस्था तो अपनानी ही पड़ेगी ताकि महिलाएं कार्य व घर को संतुलित कर सकें. यह सिर्फ समाज की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि कार्यबल में अधिक महिलाओं का होना अच्छा अर्थशास्त्र है. साथ ही, कंपनियों के लिए भी यह अच्छी बात है कि उन्हें प्रतिभा के विस्तृत पूल में से चयन का अवसर मिलता है.

लगभग एक दशक पहले घर से काम करने का विचार, फ्लैक्सिबल कार्यावधि और कार्य व जीवन में संतुलन का विचार एकदम नया था. लेकिन जब एमएनसी की भारतीय इकाइयां नए युग की टैक्नोलौजी के चलते इस कार्यशैली को अपनाने लगीं तो भारत के कौर्पोरेट जगत में बहुत से बदलाव आने लगे. लेकिन इस बदलाव को बरकरार रखने यानी फ्लैक्सिबल कार्यशैली को बढ़ावा देने के मामले में एक सब से बड़ी चुनौती यह आड़े आई कि कर्मचारी कार्य में अधिक लचीलेपन की मांग करने लगे.

कंपनी पर निर्भर

विदेशी कंपनियों के लिए तो इस मांग को स्वीकार करना आसान था, क्योंकि वे विकसित संसार की नीतियों का पालन कर रही थीं, लेकिन भारतीय कंपनियां इस मामले में अधिक सावधान रहीं और उन्होंने केवल व्यक्तिगत आधार पर ही इस शैली को अपनाया. इसलिए भारतीय संदर्भ में फ्लैक्सिबल कार्यावधि उसी कर्मचारी को मिलती है, जो कंपनी से इस बारे में सम झौता कर सके.

एक सर्वे के अनुसार, जिन भारतीय कंपनियों में कर्मचारियों को फ्लैक्सिबल कार्यशैली के तहत कार्य करने का अवसर मिला, उन में से 75 फीसदी पर यह मेहरबानी उन के बौस की बदौलत हुई थी. इस में कंपनी की नीति का कोई दखल नहीं था. दूसरे शब्दों में भारतीय कंपनियों ने फ्लैक्सिबल कार्यशैली को नीति के तौर पर कभी अपनाया ही नहीं. इसलिए यदि कंपनियां 9 से 5 की पुरानी कार्यशैली पर लौटने लगती हैं तो इस का भारतीय कंपनियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा.

दरअसल पश्चिम में फ्लैक्सिबल कार्यशैली को इसलिए तेजी से अपनाया गया क्योंकि वहां महिलाएं बड़ी संख्या में कार्यबल का हिस्सा हैं और अब चूंकि भारत में भी कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है, इसलिए यह अनुमान लगाना गलत न होगा कि यहां भी कंपनियों को फ्लैक्सिबल कार्यशैली अपनानी पड़ेगी ताकि कार्य व घर को संतुलित किया जा सके, भले ही याहू या कुछ अन्य अमेरिकी कंपनियों ने इस सिलसिले में 9 से 5 की पुरानी कार्यशैली को अपना लिया हो.

कहने का मतलब यह है कि भविष्य में भारत में यह मुद्दा कहीं ज्यादा तीखा हो सकता है बजाय उन पश्चिमी देशों के जहां व्यावहारिक रूप में आज यह कार्यशैली कहीं ज्यादा चलन में है. आज भी घर और मौलिक दोनों जगह काम करने की मनोदशा है कि क्या सही है.

ऐसा भी प्रतीत होता है कि इन दोनों शैलियों को ही अपनाया जाएगा, किसी पर विराम नहीं लगेगा, क्योंकि कार्यशैली इस बात पर अधिक निर्भर करती है कि कंपनी में किस किस्म का काम होता है व उसे किस किस्म के कर्मचारियों की जरूरत है.

सनातन पर तनातनी

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदयनिधि ने लेखकों के सम्मेलन में कह डाला है कि सनातन धर्म सामाजिक न्याय के विचार के विरुद्ध है और उसे डेंगू व मलेरिया की तरह समाप्त करना चाहिए. अपने राज्य के विचारक, समाज सुधारक पेरियार व भीमराव अंबेडकर का संदर्र्भ देते हुए उन्होंने कहा कि इस का, बस, विरोध काफी नहीं है. जैसा कि स्वाभाविक है, यह बयान आते ही ब्राह्मणवादी और उन के भक्तों की टोली सक्रिय हो गई और एक्स (पहले ट्विटर) पर बाढ़ आ गई कि यह देशद्रोही, धर्मद्रोही बयान देने की हिम्मत कैसे हुई.

आजकल सनातन धर्म की तूती ज्यादा ही जोर से मचाई जा रही है क्योंकि मोहन भागवत जैसे संघ प्रमुख ने कहना शुरू कर दिया कि हर भारतवासी हिंदू है. अगर मुसलिम, ईसाई, नास्तिक भी हिंदू हो गए तो उन्हें शुद्ध हिंदू धर्म चाहिए, इसलिए देशभर के मठों में वहां के महंत अब सनातन धर्म की बात करने लगे हैं जो सीधे पुराणों से लिया जाता है.

करुणानिधि के पौत्र एम के स्टालिन के पुत्र उदयनिधि ने सनातन धर्म के बारे में कुछ कहा है तो भाजपाभक्तों की टोली को बजाय गुस्सा होने के सनातन धर्म के गुण गिनाने चाहिए और बताना चाहिए कि कैसे यह ही सर्वश्रेष्ठ है. वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि सिवा संतों, देवीदेवताओं के नाम लेने के, सनातन धर्म, जैसे आज हमें विरासत में मिला है या जैसा हम पुराणों में पढ़ते हैं, में हमें कुछ खास नहीं मिलता. सनातन धर्म के लिए भक्त ब्रह्मा, विष्णु, शिव व उन के अवतारों और सैकड़ों ऋषियोंमुनियों के नाम ले सकते हैं पर उन्होंने सनातन धर्म की रक्षा के अलावा आम जनता के लिए क्या किया, शायद न बता पाए.

हर देवीदेवता का आचरण विवादास्पद रहा है. किसी ने अपनी स्त्री को छोड़ा, किसी ने भाईयों से युद्ध किया, किसी ने गुस्से में आ कर श्राप दिया, किसी ने जातिव्यवस्था की व्याख्या की. ये सब बातें आज नैतिकता और मानवता के तर्क की कसौटी पर दोषरहित साबित नहीं की जा सकतीं.

आजकल सनातन धर्म के इतिहास के बारे में कम सुनने को मिलता है क्योंकि जैसे ही पुराणों का संदर्भ देते हुए कोई बात कहता है, उस पर बीसियों मुकदमे ठोक दिए जाते हैं जिस से वह अदालतों के चक्कर लगातेलगाते परेशान हो जाए. सनातन धर्म की सत्यता की जांच करना आज जोखिम का काम है क्योंकि उदयनिधि रटालिन मुख्यमंत्री के पुत्र हैं, उन्हें पुलिस बेमतलब के मुकदमों में घसीट नहीं सकती.

अच्छा है, भक्त मंडली बजाय गिरफ्तारी की मांग करने के सनातन धर्म के 10-20 गुणों को बता कर देखे और निमंत्रित कर उन गुणों पर हर तरह की प्रतिक्रिया स्वीकारे. शास्त्रार्थ की परंपरा तो इस देश में पुरानी है. इसे अपनाने में क्या हर्ज है बजाय आईपीसी की धारा के 295ए के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कराने के.

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