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ईश्वरीय नियम नहीं हैं संविधान सुरक्षा की गारंटी

हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है क्योंकि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने तैयार संविधान पर हस्ताक्षर किए थे. यह पहली बार भारत के इतिहास में हुआ था कि जनता के चुनेअनचुने प्रतिनिधियों ने एक मत से कहा था कि वे किसी और देश के दिए कानूनों, किसी ईश्वर के दिए कानून, किसी पैगंबर, देवीदेवता, प्रचारक की किताबों या विचारों पर नहीं, खुद लंबी बहसों के बाद तैयार या नियमों के संग्रह के अंतर्गत देश को चलाएंगे.

यह दिन महत्त्व का था और आज भी है हालांकि आज देश की जनता ने इस संविधान के लागू होने की तिथि 26 जनवरी के स्थान पर धार्मिक दिनों को फिर से ज्यादा मान्यता देनी शुरू कर दी, है दीवाली, क्रिसमस, ईद ज्यादा आम आदमी के निकट के बजाय गणतंत्र दिवस के.

संविधान के अनुसार शासन को चलाने का अर्थ है कि हमें अपने ऊपर विश्वास है कि हम खुद ऐसे सर्वमान्य नियम बना सकते हैं जो सब के हितों की रक्षा करते हैं और न शासकों को जरूरत से ज्यादा अधिकार देते हैं और न जनता को अराजकता की छूट देते हैं.

संविधान के बनने के दौरान और बाद भी बहुत से ऐसे प्रयास हुए हैं कि संविधान को किसी तरह गौण साबित कर दिया जाए और उस के ऊपर तथाकथित ईश्वरीय नियम जो केवल सुनने को मिले पर जिन को कभी लागू किया था इस का कोई प्रमाण नहीं है. यह भी कोशिश की गई कि संविधान का सहारा ले कर सत्ता में आ जाओ और फिर संविधान को धता बता दो. 1975 से 1977 के  बीच ऐसा खुल्लमखुल्ला हुआ पर अब हाल के सालों में संविधान को इतना तोड़ामरोड़ा जा रहा है कि वह अपनी शक्ल और अपना मुख्य ध्येय जनता की शासकों से सुरक्षा-को भूलने लगा है.

यह राहत की बात है कि शासकों के हर ऐसे प्रयास को जनता कभी जोर से या कभी धीरेधीरे विफल करती रहती है. आज जैसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदू धर्म समर्थक पार्टी पौराणिक सा राज स्थापित करना चाहती है, राज्यों के चुनाव इस प्रयास को पंचर कर देते हैं. देश में कितने ही राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें इस बात का प्रमाण हैं कि संविधान के सहारे एक सोच वाली पार्टी के पर काटे जा सकते हैं. हर साल बढ़ता चुनावों में मतदान यह संकेत देता है कि चाहे जिस पार्टी को जनता चाहे वह यह बताना नहीं भूलती कि जो जीता है वह संविधान के लिए जनता के वोट के सहारे जीता है.

सभी सरकारें संविधान को पूर्ण अधिकार का अंकुश मानती हैं क्योंकि जो जीत कर शासक बन जाता है वह अपने को सर्व शक्तिशाली मानने लगता है, चाहे केंद्र की बात हो या राज्य की. संविधान के दिए गए मत के अधिकार उसे फिर वापस आम आदमी बना सकते हैं, यह कई बार साबित हो चुका है. देश की जनता को धार्मिक, पारंपरिक उत्सवों से कहीं ज्यादा संवैधानिक उत्सवों को मनाना चाहिए क्योंकि वे ही सुरक्षा की गारंटी देते हैं.

मकान मालिक अब मुझ से किराए से ज्यादा पैसे मांग रहे हैं, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरे घर में कुछ हफ्तों से मरम्मत का काम चल रहा था, जिस के चलते हमें बगल वाले घर में किराए पर रहना पड़ रहा था. अब हम वापस अपने घर आ गए हैं. किराए के घर में रहने के जितने पैसे बन रहे थे, मकान मालिक अब उस से ज्यादा पैसा मांग रहे हैं. उन का कहना है कि जितने दिन हम उन के घर में रहे, हम ने उन की दीवारें गंदी कर दीं, उन की पपड़ी छुड़ा दी, वुडन फ्लोर पर स्क्रैचेस लगा दिए. अब उन सब की मरम्मत के लिए उन्हें एक्स्ट्रा पैसे चाहिए. ऐसा भी होता है भला? हम ने तो एक्स्ट्रा पैसे देने से साफ इनकार कर दिया है, लेकिन उन का कहना है कि वे तब तक किराए के पैसे नहीं लेंगे जब तक कि उन्हें पूरे पैसे नहीं मिल जाते. समझ नहीं आ रहा क्या करें.

जवाब

जिस समय आप ने घर किराए पर लिया था, क्या तब इस तरह का कोई एग्रीमैंट साइन किया था जिस में लिखा हो कि आप किराए के अलावा किसी भी तरह का हर्जाना भरेंगे ? यदि नहीं, तो आप को डरना नहीं चाहिए और न ही एक्स्ट्रा पैसे देने चाहिए. आज नहीं तो कल, वे अपना किराया ले ही लेंगे. उस के लिए आप को टैंशन लेने की आवश्यकता नहीं है.

क्यों जरूरी है चबा-चबा के खाना ?

खाने के अच्छे पाचन के लिए हमेशा हिदायत दी जाती है कि हम खाने को अच्छे से चबा कर खाएं. पर जिस तरह की लोगों की लाइफस्टाइल हो गई है, इन कायदों का पालन काफी मुश्किल हो गया है. पर अच्छे सेहत के लिए जरूरी है कि हम अच्‍छे से भोजन चबा कर खाएं, जिससे पेट में रसायन का स्राव होता है और खाना अच्‍छे से हजम हो जाता है. इसके साथ ही आप को जल्‍दी जल्‍दी भूख भी नहीं लगती और वजन भी नियंत्रण में रहता है.

कैसे चबाना चाहिए खाना?

  • भोजन के चबाने के भी कई कायदे हैं. बेहतर होता है कि हम भोजन को एक साथ ना खा कर बल्कि उसके छोटे-छोटे टुकडे कर के खाएं. खाने को तब तक चबाना चाहिए जब तक वो आपके मुंह में घुल ना जाए. एक और बात जो आपको ध्यान देनी चाहिए कि भले ही खाना सूखा या गीला उसे कभी भी तुरंत ना निगलें.
  • धीरे धीरे भोजन चबाने से मुंह में बनने वाले लार से भोजन मुलायम हो जाता है और पाचन क्रिया और आसान हो जाती है.
  • चबा चबा कर खाने के अपने फायदे भी हैं, जो भोजन के बेहतर पचने के अलावा और भी ज्यादा जरूरी हैं.
  • जब आप धीरे धीरे खाना खाते हैं तो आपका दिमाग आपको एक सिग्नल भेजता है कि अब आपका पेट भर चुका है. और आप ओवर इटिंग नहीं करते हैं.
  • भोजन को चबाते वक्‍त मुंह से अधिक लार निकलती है. भोजन चबाते वक्‍त उसमें मिला विटामिन और पौष्टिक तत्‍व सभी आ कर लार के साथ मिल जाते हैं जिससे हमें ऊर्जा मिलती है. यदि आहार ठीक प्रकार से ना चबाया गया तो पाचन में कठिनाई पैदा होगी और पेट दर्द तथा गैस की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो जाएगी.
  • यदि आप ठीक प्रकार से खाना चबाएंगे तो यह आपके मुंह को भी फायदा पहुंचाएगा. मुंह की लार मुंह की बदबू और कीटाणुओं से लड़ने में मददगार होती है. इसमें हाइड्रोजन कार्बोनेट होता है जो कि प्‍लेग को पैदा होने से रोकता है. लार दातों में फसे भोजन के कड़ को भी साफ करता है.

दिल धड़कने दो : पुरुष और स्त्री के उथलपुथल मन की कहानी

एक

सुबह 6 बजे का अलार्म बजा तो तन्वी उठ कर हमारे 10 साल के बेटे राहुल को स्कूल भेजने की तैयारी में व्यस्त हो गई. मैं भी साथ ही उठ गया. फ्रैश हो कर रोज की तरह 5वीं मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट में राहुल के बैडरूम की खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. कुछ दूर वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के फ्लैट में उस के बैडरूम की भी लाइट जल रही थी.

इस का मतलब वह भी आज जल्दी उठ गई है. कल तो उस के बैडरूम की खिड़की का परदा 7 बजे के बाद ही हटा था. उस की जलती लाइट देख कर मेरा दिल धड़का, अब वह किसी भी पल दिखाई दे जाएगी. मेरे फ्लैट की बस इसी खिड़की से उस के बैडरूम की खिड़की, उस की किचन का थोड़ा सा हिस्सा और उस के फ्लैट का वाशिंग ऐरिया दिखता है.

तभी वह खिड़की के पास आ खड़ी हुई. अब वह अपने बाल ऊपर बांधेगी, कुछ पल खड़ी रहेगी और फिर तार से सूखे कपड़े उतारेगी. उस के बाद किचन में जलती लाइट से मुझे अंदाजा होता है कि वह किचन में है. 10 साल से मैं उसे ऐसे ही देख रहा हूं. इस सोसायटी में उस से पहले मैं ही आया था. वह शाम को गार्डन में नियमित रूप से जाती है. वहीं से मेरी उस से हायहैलो शुरू हुई थी. अब तो कहीं भी मिलती है, तो मुसकराहट और हायहैलो का आदानप्रदान जरूर होता है. मैं कोई 20-25 साल का नवयुवक तो हूं नहीं जो मुझे उस से प्यारव्यार का चक्कर हो. मेरा दिल तो बस यों ही उसे देख कर धड़क उठता है. अच्छी लगती है वह मुझे, बस. उस के 2 युवा बच्चे हैं. वह उम्र में मुझ से बड़ी ही होगी. मैं उस के पति और

बच्चों को अच्छी तरह पहचानने लगा हूं. मुझे उस का नाम भी नहीं पता और न उसे मेरा पता होगा. बस सालों से यही रूटीन चल रहा है.

अभी औफिस जाऊंगा तो वह खिड़की के पास खड़ी होगी. हमारी नजरें मिलेंगी और फिर हम दोनों मुसकरा देंगे.

औफिस से आने पर रात के सोने तक मैं इस खिड़की के चक्कर काटता रहता हूं. वह दिखती रहती है, तो अच्छा लगता है वरना जीवन तो एक ताल पर चल ही रहा है. कभी वह कहीं जाती है तो मुझे समझ आ जाता है वह घर पर नहीं है… सन्नाटा सा दिखता है उस फ्लैट में फिर. कई बार सोचता हूं किसी की पत्नी, किसी की मां को चोरीछिपे देखना, उस के हर क्रियाकलाप को निहारना गलत है. पर क्या करूं, अच्छा लगता है उसे देखना.

तन्वी मुझ से पहले औफिस निकलती है और मेरे बाद ही घर लौटती है. राहुल स्कूल से सीधे सोसायटी के डे केयर सैंटर में चला जाता है. मैं शाम को उसे लेते हुए घर आता हूं. कई बार जब वह मुझ से सोसायटी की मार्केट में या नीचे किसी काम से आतीजाती दिखती है तो सामान्य अभिवादन के साथ कुछ और भी होता है हमारी आंखों में अब. शायद अपने पति और बच्चों में व्यस्त रह कर भी उस के दिल में मेरे लिए भी कुछ तो है, क्योंकि रोज यह इत्तेफाक तो नहीं कि जब मैं औफिस के लिए निकलता हूं, वह खिड़की के पास खड़ी मुझे देख रही होती है.

वैसे कई बार सोचता हूं कि मुझे अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिए. क्यों रोज मैं उसे सुबह देखने यहां खड़ा होता हूं  फिर सोचता हूं कुछ गलत तो नहीं कर रहा हूं… उसे देख कर कुछ पल चैन मिलता है तो इस में क्या बुरा है  किसी का क्या नुकसान हो रहा है

तभी वह सूखे कपड़े उतारने आ गई. उस ने ब्लैक गाउन पहना है. बहुत अच्छी लगती है वह इस में. मन करता है वह अचानक मेरी तरफ देख ले तो मैं हाथ हिला दूं पर उस ने कभी नहीं देखा. पता नहीं उसे पता भी है या नहीं… यह खिड़की मेरी है और मैं यहां खड़ा होता हूं. नीचे लगे पेड़ की कुछ टहनियां आजकल मेरी इस खिड़की तक पहुंच गई हैं. उन्हीं के झुरमुट से उसे देखा करता हूं.

कई बार सोचता हूं हाथ बढ़ा कर टहनियां तोड़ दूं पर फिर मैं उसे शायद साफसाफ दिख जाऊंगा… सोचेगी… हर समय यहीं खड़ा रहता है… नहीं, इन्हें रहने ही देता हूं. वह कपड़े उतार कर किचन में चली गई तो मैं भी औफिस जाने की तैयारी करने लगा. बीचबीच में मैं उसे अपने पति और बच्चों को ‘बाय’ करने के लिए भी खड़ा देखता हूं. यह उस का रोज का नियम है. कुल मिला कर उस का सारा रूटीन देख कर मुझे अंदाजा होता है कि वह एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां है.

औफिस में भी कभीकभी उस का यों ही खयाल आ जाता है कि वह क्या कर रही होगी. दोपहर में सोई होगी… अब उठ गई होगी… अब उस सोफे पर बैठ कर चाय पी रही होगी, जो मेरी खिड़की से दिखता है.

औफिस से आ कर मैं फ्रैश हो कर सीधा खिड़की के पास पहुंचा. राहुल कार्टून देखने बैठ गया था. मेरा दिल जोर से धड़का. वह खिड़की में खड़ी थी. मन किया उसे हाथ हिला दूं… कई बार मन होता है उस से कुछ बातें करने का, कुछ कहने का, कुछसुनने का, पर जीवन में कई इच्छाओं को, एक मर्यादा में, एक सीमा में रखना ही पड़ता है… कुछ सामाजिक दायित्व भी तो होते हैं… फिर सोचता हूं दिल का क्या है, धड़कने दो.

दो

सुबह 6 बजे का अलार्म बजा. मैं ने तेजी से उठ कर फ्रैश हो कर अपने बैडरूम की लाइट जला दी. समीर भी साथ ही उठ गए थे.

वे सुबह की सैर पर जाते हैं. मैं ने बैडरूम की खिड़की का परदा हटाया. अपने बाल बांधे. जानती हूं वह सामने अपने फ्लैट की खिड़की में खड़ा होगा, आजकल नीचे लगे पेड़ की कुछ टहनियां उस की खिड़की तक जा पहुंची हैं. कई बार सोचती हूं वह हाथ बढ़ा कर उन्हें तोड़ क्यों नहीं देता पर नहीं, यह ठीक नहीं होगा. फिर वह साफसाफ देख लेगा कि मैं उसे चोरीचोरी देखती रहती हूं. नहीं, ऐसे ही ठीक है. तार से कपड़े उतारते हुए मैं कई बार उसे देखती हूं, कपड़े तो मैं दिन में कभी भी उतार सकती हूं, कोई जल्दी नहीं होती इन की पर इस समय वह खड़ा होता है न, न चाहते हुए भी उसे देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाती हूं.

मैं ने कपड़े उतारते हुए कनखियों से उसे देखा. हां, वह खड़ा था. मन हुआ हाथ हिला कर हैलो कर दूं पर नहीं, एक विवाहिता की कुछ अपनी मर्यादाएं होती हैं. मेरा दिल जोर से धड़कता है जब मैं महसूस करती हूं वह अपनी खिड़की में खड़ा हो कर मेरी तरफ देख रहा है. स्त्री हूं न, बहुत कुछ महसूस कर लेती हूं, बिना किसी के कुछ कहेसुने. मैं समीर और अपने बच्चों के नाश्ते और टिफिन की तैयारी मैं व्यस्त हो गई.

तीनों शाम तक ही वापस आते हैं. मेरी किचन के एक हिस्से से उस की खिड़की का थोड़ा सा हिस्सा दिखता है, जिस खिड़की के पास वह खड़ा होता है वह शायद बैडरूम की है. किचन में काम करतेकरते मैं उस पर नजर डालती रहती हूं. सब समझ आता रहता है, वह अब तैयार हो रहा है. मुझे अंदाजा है उस के कमरे की किस दीवार पर शीशा है. मैं ने उसे वहां कई बार बाल ठीक करते देखा है.

जानती हूं किसी के पति को, किसी के पिता को ऐसे देखना मर्यादासंगत नहीं है पर क्या करूं, कुछ है, जो दिल धड़कता है उस के सामने होने पर. 10 साल से कुछ है जो उसे कहीं देखने पर, नजरें मिलने पर, हायहैलो होने पर दिल धड़क उठता है. वह अपनी कामकाजी पत्नी की घर के काम में काफी मदद करता है, बेटे को ले कर आता है, घर का सामान लाता है, कभी अपनी पत्नी को छोड़ने और लेने भी जाता है… सब दिखता है मुझे अपने घर की खिड़की से. कुल मिला कर वह एक अच्छा पति और अच्छा पिता है. कई बार तो मैं ने उसे कपड़े सुखाते भी देखा है… न मुझे उस का नाम पता है न उसे मेरा पता होगा. बस, उसे देखना मुझे अच्छा लगता है. मैं कोई युवा लड़की तो हूं नहीं जो प्यारव्यार का चक्कर हो. बस, यों ही तो देख लेती हूं उसे. वैसे दिन में कई बार खयाल आ जाता है कि क्या काम करता है वह  कहां है उस का औफिस  वह औफिस से आते ही अपनी खिड़की खोल देता है. मुझे अंदाजा हो जाता है वह आ गया है, फिर वह कई बार खिड़की के पास आताजाता रहता है. वह कई बारछुट्टियों में बाहर चला जाता है तो बड़ा खालीखाली लगता है.

10 साल से यों ही देखते रहना एक आदत सी बन गई है. वह दिखता रहता है पेड़ की पत्तियों के बीच से. दिल करता है उस से कुछ बातें करूं, कुछ कहूं, कुछ सुनूं पर नहीं जीवन में कई इच्छाओं को एक मर्यादा में रखना ही पड़ता है… कुछ सामाजिक उसूल भी तो हैं, फिर सोचती हूं दिल का क्या है, धड़कने दो.

प्रतिवचन : त्याग की उम्मीद सिर्फ स्त्री से ही क्यों की जाती है ?

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पीड़ित के पक्ष में नहीं खड़ा जूडिशियल सिस्टम

पिछले साल संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने देश के न्यायविदों के सामने एक चिंता जाहिर की थी. उन्होंने कहा था कि जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का होना और कमजोर वर्गों के नागरिकों को जेल में लम्बे साल तक रखा जाना बहुत चिंताजनक है.

राष्ट्रपति की उसी चिंता पर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने एक साल बाद 26 नवम्बर को संविधान दिवस के अवसर पर बोलते हुए कहा, “मैं राष्ट्रपति को भरोसा दिलाना चाहता हूं कि हम यह सुनिश्चित करने के लिए लगातार काम कर रहे हैं कि कानूनी प्रक्रिया आसान और सरल हो जाए ताकि नागरिक अनावश्यक रूप से जेलों में बंद न रहें.”

न्याय तक सभी की पहुंच को सुगम बनाने के लिए पूरी न्याय प्रणाली को नागरिक केंद्रित बनाने की जरूरत है. न्याय पाने की राह में होने वाला खर्च और भाषा न्याय चाहने वाले पीड़ित लोगों के लिए बहुत बाधाएं हैं.

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने कार्यक्रम में मौजूद आम लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा आप के लिए हमेशा खुले रहे हैं और आगे भी खुले रहेंगे. लोगों को कभी भी कोर्ट आने से डरने की जरूरत नहीं है और इसे अंतिम उपाय के रूप में नहीं देखना चाहिए. न्यायपालिका के प्रति लोगों की आस्था हमें प्रेरित करती है. शीर्ष अदालत शायद दुनिया की एकमात्र अदालत है जहां कोई भी नागरिक सीजेआई को पत्र लिख कर उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक तंत्र को गति दे सकता है.

चीफ जस्टिस की बातें सुनने में तो बड़ी मधुर और राहत देने वाली लगती हैं लेकिन जमीन पर रहने वाले गरीबों को देश का न्याय तंत्र कितना न्याय देता है यह कोई छुपी हुई बात नहीं है.

1985 में जौनपुर में एक 10 बीघे जमीन की विल का मुकदमा शुरू हुआ था जो अभी तक सब से निचले पायदान चकबंदी अधिकारी के पास है. इस जमीन पर 2 लोगों ने क्लेम किया और दोनों ने अपनी अपनी विल चकबंदी अधिकारी के समक्ष पेश की. 37 सालों में यह नहीं तय हो पाया कि असली विल कौन सी है. मान लीजिए आज इस का फैसला हो जाए तो उस के बाद मामला सीओ के पास से एसओसी के पास, फिर डीडीसी के पास, फिर हाई कोर्ट और उस के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा. यानी अभी 35-40 साल और लग जाएंगे या इस से भी ज्यादा. परिवार की सेकंड जेनेरेशन मुकदमा लड़ रही है. इसी स्पीड से काम हुआ तो शायद थर्ड जेनेरशन या फोर्थ जेनेरशन भी इस मुकदमे को ढोएगी.

ऐसे ही एक मामला पंचकूला का है. 1971 की लड़ाई में पकिस्तान में बम फेंक कर पाकिस्तानी फौजियों के बंकर ध्वस्त करने वाले कर्नल कबोत्रा के मकान पर 2000 से अपराधी तत्वों ने कब्जा जमा रखा है. ये मकान पंचकूला में है. दुश्मनों को धूल चटाने वाले कर्नल साहब 23 साल से अदालत के चक्कर लगा रहे हैं कि किसी तरह उन को उन का मकान वापस मिल जाए. यही उन के जीवन भर की जमापूंजी है.

23 साल से वे केस लड़ रहे हैं और अभी तक उन का मामला पंचकूला के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में है. यहां से जाने कब निकलेगा. निकल कर चंडीगढ़ हाई कोर्ट जाएगा और फिर सुप्रीम कोर्ट. कर्नल साहब न्याय की उम्मीद छोड़ चुके हैं.

भारत में न्यायप्रणाली की हालत यह है कि यहां 5 करोड़ केसेस डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्याय की आस में फाइलों में बंद धरे हैं. 5 करोड़ केसेस का मतलब है 5 करोड़ परिवार न्याय की आस में बैठे हैं. आमतौर पर एक परिवार में औसतन 6 सदस्य होते हैं तो करीब 30 करोड़ लोग न्याय की आस लगाए बैठे हैं. 30 करोड़ का मतलब एक अमेरिका, 15 आस्ट्रेलिया, 7 कनाडा, डेढ़ ब्राजील यानी इतने लोग भारत में न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काट रहे हैं.

इन 5 करोड़ केसेस के अलावा करीब इतने ही केस देश में चल रही सामानांतर न्याय व्यवस्था – तहसील, एसडीएम औफिस, एडीएम औफिस, डीएम औफिस, कमिश्नर औफिस में भी चल रहे हैं जो जमीनों की चकबंदी, खसरा-खतौनी, संपत्ति ट्रांसफर आदि से जुड़े हैं. गांव-देहात का एक आदमी अपना मुकदमा अगर चकबंदी अधिकारी के पास दर्ज कराता है तो अगले 10-15 साल तक वह न्याय की आस में चकबंदी अधिकारी का चक्कर काटता है.

20-25 साल में अगर वह किसी तरह पैसे खर्च कर के वहां से निकल गया तो आगे उस को डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, फिर हाई कोर्ट और उस के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जूझना पड़ता है. उम्र बची और पैसे हुए तो लड़ता है वरना मुकदमे का भार अगली पीढ़ी के सिर मढ़ कर सिधार जाता है. उस के बेटे या नातीपोते उस मुकदमे से जूझते हैं.

संविधान दिवस के अवसर पर चीफ जस्टिस द्वारा दिया गया भाषण सुनने में बहुत अच्छा और उम्मीद जगाने वाला तो था मगर उम्मीद की किरण तब फूटेगी जब न्याय व्यवस्था में तेजी और उचित बदलाव आएगा. हम आज भी अंग्रेजों के जमाने के कानून और न्याय व्यवस्था पर टिके हुए हैं. जो व्यवस्था भारत के लोगों को न्याय देने के लिए बनी ही नहीं थीं. जो व्यवस्था भारत के लोगों को लूटनेबांटने के लिए थी, अभी भी वही जूडिशियल सिस्टम चल रहा है. जब सोच और व्यवस्था वही है तो लोगों को न्याय मिलेगा कैसे?

हम 2023 में भी 1860-61 का पीनल कोड और पुलिस एक्ट पर चल रहे हैं. गवाहों के बयान 1872 के कानून से हो रहे हैं. हम ने सब कुछ वर्ल्ड क्लास कर लिया, वर्ल्ड क्लास हाईवे, शौपिंग मौल, एयरपोर्ट बना लिए मगर अपने जस्टिस सिस्टम को अन्य देशों के जस्टिस सिस्टम से तुलना करने की कभी कोशिश नहीं की.

अमेरिका में कौन सा अच्छा कानून है जिस से पीड़ित को तुरंत न्याय मिल सकता है, सिंगापूर में क्या व्यवस्था है इस को जानने और अपनाने की कोई कोशिश नहीं की. कनाडा में रेंट का मामला एक डेट में खतम होता है. सिंगापुर में कुछ दिन पहले एक व्यक्ति के पास 900 ग्राम गांजा पाया गया तो उस को तुरंत फैसला सुना कर फांसी दे दी गई. दोबारा वहां किसी की हिम्मत नहीं होगी नशीले पदार्थ रखने और उसका सेवन करने की अथवा ड्रग स्मगलिंग की, मगर भारत में चाहे ड्रग तस्करी हो, माफिया राज हो, ह्यूमन ट्रैफिकिंग हो या चोरी, डकैती, फिरौती, बलात्कार, ह्त्या, ना पीड़ित को जल्दी न्याय मिलता है न अपराधी को सजा.

भारत में जूडिशियल सिस्टम की कोई एकाउंटबिलिटी नहीं है. किसी के साथ न्याय हो अन्याय हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. निर्दोष को जेल हो जाए, जज की कोई एकाउंटबिलिटी नहीं है. दोषी की बेल हो जाए जज की कोई एकाउंटेबिलिटी नहीं है. लाखों लोग जेल में सड़ रहे हैं, लाखों भ्रष्टाचारी और अपराधी बाहर घूम रहे हैं इस का जिम्मेदार न्यायतंत्र है.

हर केस में 2 पक्ष होते हैं एक पीड़ित और दूसरा अपराध करने वाला. जो पीड़ित है वो चाहता है जल्दी न्याय मिल जाए मगर जो अपराधी है वो वो चाहता है कि उस के खिलाफ जो मुकदमा है वो लंबा चले. भारत का न्यायतंत्र अपराधी के पक्ष में खड़ा है. तारीख पर तारीख लगाता चला जाता है. बलात्कारी चाहता है कि उस का मुकदमा 30 साल चले तो जज साहब 30 साल चलाते हैं.

भूमाफिया गरीब की जमीन पर कब्जा करके मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बना कर फ्लैट बेच बेच कर अपनी जेबें भर लेता है और गरीब सालोंसाल अपनी जमीन वापस पाने के लिए मुकदमा लड़ता रहता है. वर्तमान न्यायिक सिस्टम बलात्कारी के पक्ष में है, भूमाफिया के पक्ष में है, ड्रग स्मगलर के पक्ष में है, ह्यूमन ट्रैफिकिंग के पक्ष में है और ऐसे तमाम अपराधियों के पक्ष में है जो चाहते हैं कि मुकदमा पचासों साल तक चलता रहे.

संविधान दिवस के अवसर पर नैशनल ला यूनिवर्सिटी दिल्ली के प्रोफैसर अनूप सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि मौलिक वादों के परीक्षण से पता चलता है कि मृत्युदंड के मामलों में लगभग 40 फीसदी अभियुक्त बरी हो गए जो कि चिंता का विषय है. न्यायालयों का कार्य साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर आधारित है. यदि साक्ष्य दूषित होंगे तो कोई भी न्यायालय उचित न्याय नहीं कर सकता. साक्ष्यों की खराब गुणवत्ता, जो अकसर अपराधी तत्वों द्वारा पुलिस को पैसे खिला कर खराब करवाई जाती है, निर्दोषों के साथ अन्याय का कारण बनती है और पीड़ित को न्याय नहीं मिलता.

दरअसल, जस्टिस सिस्टम दवा की तरह काम करता है. अगर दवा स्ट्रांग और अच्छी होगी तो बीमारी तुरंत ठीक होगी, दवा खराब होगी तो बीमार की हालत और खराब कर देगी. हमारा न्यायतंत्र एक्सपायरी दवा दे रहा है, जो समाज को और ज्यादा बीमार बना रही हैं.

दक्षिण भारत में अचानक खास क्यों हो गए वी पी सिंह

मंडल यानी पिछड़ी जातियों के सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले मंडल के मसीहा वी पी सिंह को उत्तर भारत की राजनीति में लावारिस हालत में छोड़ दिया गया था. उन की प्रतिमा अब तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में लगाई गई है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने मूर्ति के अनावरण समारोह में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया. 2024 के लोकसभा चुनाव पिछड़ों के मुद्दे पर जिस तरह से केन्द्रित होते दिख रहे हैं, उस से वीपी सिंह अहम होते जा रहे हैं.

1988-89 में देश में एक नारा खूब सुनाई पड़ता था ‘राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है’. इस नारे में जिस राजा का जिक्र किया जाता था वह थे उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की मांडा रियासत के रहने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह. आजादी के बाद रियासतों और राजाओं को विलेन की नजरों से देखा जाता था.

विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति कांग्रेस से शरू हुई थी. वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे. उन के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में चंबल के डाकुओं का बहुत आतंक था. डाकुओं ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के बड़े भाई जस्टिस चन्द्र शेखर प्रताप सिंह और उन के 14 साल के बेटे की हत्या कर दी गई थी.

मुलायम के साथ सहज रिश्ते नहीं रहे

मुख्यमंत्री के तौर पर दस्युओं के सफायें लिए विशेष अभियान चला रहा था. इस के विरोध में डाकुओं ने वी पी सिंह के परिवार को ही निशाना बना लिया था. करीब 2 साल वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. समाजवादी पार्टी (उस समय लोकदल) के नेता मुलायम सिंह यादव वी पी सिंह के दस्यु उन्मूलन अभियान के विरोधी थे. वीपी सिंह और मुलायम सिह यादव के बीच संबंध अच्छे नहीं थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह लोकदल के नेता चौधरी अजीत सिंह का समर्थन करते थे.

विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के दूसरे ऐसे मुख्यमंत्री थे जो देश के प्रधानमंत्री भी बने. उन के अलावा चौधरी चरण सिंह पहले नेता थे जो यूपी के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बने. कभी कांग्रेस नेता और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेहद करीबी रहे वीपी सिंह ने 1987 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हरा कर देश के प्रधानमंत्री बने थे.

प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह का नाम इतिहास में दर्ज हो गया. इस का कारण था ‘मंडल आयोग’ को लागू करना. 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने देश की 52 फीसदी पिछड़ी जातियों के आर्थिक और सामाजिक स्तर का अध्ययन करने के लिए वी पी मंडल की अगुवाई में एक आयोग का गठन किया था जिसे मंडल आयोग कहा गया. मंडल आयोग ने बहुत सारी सिफारिशों के साथ मुख्य तौर पर कहा कि पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाए.

कमंडल के मुकाबले आया मंडल

आयोग ने 1980 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की तब तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इंदिरा गांधी बैठ चुकी थी. वह इस रिपोर्ट को लागू करके अगड़ी जातियों को नाराज नहीं करना चाहती थी लिहाजा मंडल आयोग की सिफारिशी ठंडे बस्ते में चली गई. मंडल आयोग की सिफारिशों की याद वी पी सिंह को तब आई जब उन के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का आंदोलन तेज कर दिया.
भाजपा के कमंडल यानी अगड़ी जातियों की राजनीति का मुकाबला करने के लिए वी पी सिंह ने सोचा कि अगर वह मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर देगें तो 52 फीसदी पिछड़ा वर्ग उन के साथ खड़ा होगा. जिस से लोकसभा चुनाव में उन को जीत हासिल हो जाएगी. मंडल बनाम कंमडल की लड़ाई में वी पी सिंह देाहरी मात खा गए. उन की कुर्सी भी गई और उन की आगे की राजनीति भी खत्म हो गई.

पिछड़ी जातियों के नेताओं ने मुंह मोड़ा

वी पी सिंह की सरकार में भाजपा उन की सहयोगी पार्टी थी. उस ने अपना समर्थन वापस ले लिया. जिस से केन्द्र में वी पी सिंह सरकार गिर गई. कांग्रेस के सहयोग से चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने. मंडल के मसीहा विश्वनाथ प्रताप सिंह की पार्टी 1991 के लोकसभा चुनाव हार गई. उन की राजनीति यहीं पर खत्म हो गई. मंडल से उभरे पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव जैसे नेताओं ने मंडल के मसीहा के रूप में वी पी सिंह को कभी स्थापित नहीं किया.

लालू प्रसाद यादव कांग्रेस के साथ हो गए तो मुलायम सिंह यादव इधरउधर की राजनीति करते यूपी में अपनी पार्टी को मजबूत करते रहे. इस के बाद मुलायम सिंह यादव बसपा के साथ मिला कर 1993 और लोकदल के साथ मिल कर 2004 में मुख्यमंत्री बने. 2012 में समाजवादी पार्टी ने बहुमत की सरकार बनाई. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सब से बड़ी पार्टी रही.

अपनी सरकार के दौर में मुलायम सिह यादव और अखिलेश यादव दोनों ने ही कई समाजवादी नेताओं जैसे जनेश्वेर मिश्र और डाक्टर राममनोहर लोहिया के नाम पर बड़ेबड़े पार्क और अस्पताल बनावाए. कभी मंडल के मसीहा कहे जाने वाले वीपी सिंह के नाम को याद नहीं किया. उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह वह दौर था जब सभी राजनीतिक दल अपने अपने महापुरूषों को स्थापित कर रहे थे.

अपनी पार्टी चलाने में रहे विफल

उस दौर में वीपी सिह के साथ राजनीतिक अछूत जैसे व्यवहार किया गया. कांग्रेस की नाराजगी स्वाभाविक थी. भाजपा के वह प्रबल विरोधी थे. बसपा सवर्ण होने के नाते उन से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती थी. अगड़ी जातियों के लोग उन से नाराज थे क्योंकि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था जिस का प्रभाव अगड़ी जातियों पर पड़ा था. उस समय तमाम अगड़ी जातियों के युवकों ने आत्मदाह तक कर लिया था.

मंडल आयोग की जिन पिछड़ी जातियों के लिए वह लड़े उन सभी ने दूध में गिरी मक्खी की तरह वीपी सिंह को बाहर फेंक दिया था. उन का अपना जनता दल तमाम दलों का दलदल बन गया था. राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल और जनता दल सेक्यूलर जैसे टुकडे इधरउधर बिखरे रहे. एक ऐसा नेता जिस ने सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी अपने अंतिम दिनों में वह लावारिस सा हो गया था.

33 साल के बाद क्यो याद आये वीपी सिंह

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने वी पी सिंह की एक प्रतिमा चेन्नई में लगाई. उस के अनावरण समारोह में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया. इस के साथ ही साथ वी पी सिंह की पत्नी सीता सिंह और उन के बेटों अजय और अभय सिंह को गणमान्य लोगों की हैसियत से आमंत्रित किया. एमके स्टालिन के पिता करूणानिधि के साथ भी वी पी सिंह के अच्छे रिश्ते थे.

वैसे तो यह कार्यक्रम दक्षिण भारत का है. इस की गूंज देशभर में हो इस के लिए सूचना और जनसंपर्क विभाग चेन्नई के द्वारा देश के हर इलाके के अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन दे कर मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अपने संदेश में कहा ‘वीपी सिंह के प्रोत्साहन के कारण हमारी सरकार सामाजिक न्याय की यात्रा बिना किसी समझौते के काम कर रही है’. जो काम उत्तर भारत के नेता नहीं कर सके उस को करने का हौसला दक्षिण भारत के नेता ने दिखाया.

वी पी सिंह के इस अचानक महिमामंडन के पीछे 2 प्रमुख वजहे हैं. पहली वजह यह है कि जिस तरह से भाजपा ने पिछले कुछ सालों में महात्मा गांधी, अम्बेडकर, कांशीराम, सरदार पटेल जैसे तमाम महापुरूषों को अपने पाले में खीचने का काम किया, उस तरह से वह वीपी सिंह को अपने पाले में नहीं कर सकती. 2024 की लड़ाई पिछड़ी जातियों को लेकर है ऐसे में मंडल के मसीहा वी पी सिंह का नाम मददगार हो सकता है.

अखिलेश स्टाालिन की दोस्ती क्या रंग दिखाएगी

दूसरी वजह यह है कि इंडिया गठबंधन में छोटे दलों का एक धड़ा ऐसा है जो हमेशा से गैर कांग्रेसवाद या तीसरे मोर्चे की लड़ाई लड़ता रहा है. वह भाजपा के विरोध में कांग्रेस के साथ खड़ा है लेकिन कांग्रेस से अलग धारा में दिखना चाहता है. ऐसे दलों के नेता आपसी तालमेल से अपना अस्तित्व दिखाना चाहते हैं. 5 राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद इंडिया गठबंधन में उस का प्रभाव पहले से अधिक बढ़ जाएगा. ऐसे में क्षेत्रीय नेता अपनी एकता और ताकत को दिखाना चाहते हैं.
एमके स्टालिन और अखिलेश यादव के बीच दोस्ती जैसा यह व्यवहार कांग्रेस के लिए चेतावनी जैसा है. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और अखिलेश यादव के बीच जो संवाद हुआ वह सब के सामने हैं.

अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में अपने प्रत्यशी चुनाव मैदान में उतार कर कांग्रेस को सबक सिखाने की बात कही. लोकसभा चुनाव को ले कर अखिलेश की राय साफ है कि वह उत्तर प्रदेश में तभी समझौता करेंगे जब कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में लोकसभा की 15 सीटें देगी. ऐसे में अब स्टालिन और अखिलेश की दोस्ती क्या रंग खिलाएगी यह देखने वाली बात है ?

धार्मिक इवेंटबाजी से किस तरह निकम्मा बना रही सरकार

क्या आप को मालूम है आज कार्तिक पूर्णिमा है. आज के दिन का विशेष महत्व है. एक समय की बात है कि आज के दिन सृष्टि के पालक भगवान विष्णु सभी जीवों को कुछ न कुछ भेंट दे रहे थे लेकिन एक चीज चुपचाप उन्होंने अपने पैरों के नीचे दबा कर रख ली. लक्ष्मीजी ने यह देख लिया और विष्णुजी से इस रहस्य को जानने की जिद की तो विष्णुजी ने बताया कि ‘हे देवी, मैं ने अपने पैरों के नीचे सुखशांति को दबा लिया है जो किसी दुर्लभ मनुष्य को ही मिलेगी.’

सुखसुविधाएं तो हर किसी के पास हो सकती हैं लेकिन ये उसी को मिलेगी जो मेरी प्राप्ति के लिए तत्पर होगा. कहते हैं कि उसी दिन से लक्ष्मीजी ने श्री हरि के चरणों की सेवा शुरू कर दी क्योंकि व्यक्ति सारी सुख, सम्पत्ति से सुसज्जित हो किन्तु शांति ही न हो तो उस की सारी सुख सम्पत्ति व्यर्थ हो जाती है.

एक हम हैं जो सुखसम्पत्ति एवं धन को ही लक्ष्मीजी की कृपा समझते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि लक्ष्मीजी की कृपा उसी पर है जो अपना धन सम्पत्ति वैभव को श्रीहरि चरणों की सेवा में लगाए अथवा उस के पूर्व जन्मों की वजह से जो कुछ मिला है वह पुण्य क्षीण होते ही सम्पत्ति का अभाव हो जाएगा.

पूजापाठ और दानदक्षिणा के माने

सोशल मीडिया पर प्रवाहित हो रही आज की इस कहानी का सार यह है कि अगर आप ने रोज की तरह आज भी पूजापाठ नहीं किया, मंदिर जा कर जेब ढीली नहीं की तो आप के गरीब होने के पूरे पूरे चांस हैं. अब अगर गरीब होने से बचने अपनी कमाई या इकट्ठा किए गए पैसे का कुछ फीसदी चढ़ाना भी पड़े तो सौदा घाटे का नहीं. ठीक वैसे ही जैसे रामगढ़ वाले मुट्ठीभर अनाज गब्बर सिंह के गिरोह को दे दिया करते थे एवज में वे गब्बर के ताप से बचे रहते थे.

अव्वल तो सालभर ही ऐसे डरावने लुभावने किस्से कहानियां किसी न किसी जरिये आम लोगों तक पहुंचा कर पंडेपुजारी वसूली कर ही लेते हैं लेकिन हिंदी महीनों में श्रावण के बाद कार्तिक का महीना विशेष उपजाऊ होता है. आज कार्तिक पूर्णिमा का पूजापाठ दान हो रहा है तो कल मंदिरों में विष्णु तुलसी विवाह सम्पन्न हुआ था. 2 दिन बाद गणेश चतुर्थी आ जाएगी.

देशभर के मंदिरों की तरह भोपाल के मंदिरों में भी खासी भीड़ थी. जो भगवान भक्तों की शादियां कराता है उस की शादी के गवाह बनने लोग भक्त वेताब थे. लिहाजा मंदिरों में समारोहपूर्वक सम्पन्न हुए आयोजनों में उन्होंने पैसा भी चढ़ाया और छुट्टी के दिन के बेशकीमती 8 घंटे भी जाया किए. एवज में मिली चंदे के तेल आटे और दीगर सामानों से बनी सब्जी पूरी जिसे आजकल भंडारा कम प्रसादी ज्यादा कहा जाता है.

भंग होती सुख शांति

हर दूसरे चौथे दिन होने वाले इन धार्मिक आयोजनों की कलश यात्राओं का भार महिलाओं के नाजुक कंधों पर होता है जो भेड़बकरियों की तरह पैदल गातेबजाते जूनून में चलती रहती हैं. इन के घर के पुरुषों को भी इस पर कोई खास एतराज नहीं होता क्योंकि वे खुद विकट के अंधविश्वासी और धर्म भीरु होते हैं.

कुछेक तार्किक, व्यवहारिक और समझदार लोग ही हैं जो इस हकीकत को समझते हैं लेकिन पत्नियों सहित मां और बहनों की जिद के आगे उन्हें झल्लाते हुए नतमस्तक हो जाना पड़ता है क्योंकि ये बेवजह की कलह नहीं चाहते वक्त और पैसे के साथ मूड भी खराब करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं.

इन अज्ञानियों को ऐसे ही मौकों पर एहसास होता है कि सचमुच में सुखशांति तो विष्णु ने चालाकी दिखाते अपने पैरों के नीचे दबा ली थी, जो आज तक वहीं दबी हुई है अब यदि कलह दुख और टेंशन से बचना है तो खामोशी से अपनी लक्ष्मी का कहा मान लो नहीं तो वह चंडी बन कर जीना मुहाल कर देगी.

विष्णुजी चाहते तो सुखशांति सभी को दे सकते थे लेकिन उस से धर्म का धंधा और पंडों का रोजगार नहीं चलता इसलिए उन्होंने और उन के दलालों ने अपने सुखशांति और मुफ्त की मलाई का इंतजाम कर लिया जो मूलत डर पर टिका है.

यथा राजा तथा प्रजा

धर्म का धंधा बारहमासी है लेकिन इन दिनों 24*7 फलफूल रहा है. इस को हवा सरकारें राजनैतिक दल और नेता भी जमकर दे रहे हैं. इस से होता यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा सवाल नहीं करता कि महंगाई और बेरोजगारी क्यों है, भ्रष्टाचार क्यों बढ़ रहा है, सरकार जनता की जायदाद क्यों चंद पूंजीपतियों के हाथों में सौंप रही है वगैरह वगैरह.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसीलिए मथुरा जा कर कहते हैं कि यहां वही आता है जिसे कृष्ण बुलाते हैं. वे काशी, तिरुपति, उज्जैन और शिर्डी भी जाते हैं और प्रवचन से करने लगते हैं जिस से जनता सुख शांति महसूसती रहे, अपनी बुनियादी जरूरतों और अधिकारों के लिए आक्रामक होना तो दूर की बात है सजग और सतर्क भी न हो पाए. लोग पैसा और वक्त रोजरोज के धार्मिक इवेंट्स में बर्बाद करते रहें यही सरकार की इकलौती कामयाबी है.

काशी में देव दीवाली धूमधाम से मनाई जा रही है. 22 जनवरी को अयोध्या में एतिहासिक खर्चीला समारोह होगा जिस की तैयारियां जोरशोर से चल रही हैं. इस बीच ढेरों पूर्णिमाएं अमावस्याएं, चतुर्थियां, पंचमियां और अष्टमी नौवमियां आएंगी जब लोगों को बताया जाएगा कि वे दुखी और परेशान क्यों हैं और इन से बचने का रास्ता कहां है.

लोग यह अफीम चाट कर सुस्त पड़ जाएंगे और जब फिर से चैतन्य होंगे तब तक अगली खुराक तैयार कर ली जाएगी.

सुलझते रिश्ते : जुदा हुए प्रेमियों के मिलन की दिल छूती कहानी

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मखमली दंश

आज फिर बसंती बुआ का मन रहरह कर घबरा रहा था. कमरे की छोटी सी खिड़की से वह आसमान की ओर नजरें टिकाए खड़ी थी. बिजली कौंध रही थी. जैसे ही बादलों की गरजती आवाज धरती से टकराती तो उन के कलेजे को चीर जाती. किसी अनहोनी का डर उन्हें अंदर तक हिला देता. अपने सपनों का गांव उन्हें किसी भूतिया गांव सरीखा लगता.

पलभर में बूढ़ी आंखें बहुत दूर तक पहुंच जातीं. क्या कुछ नहीं था उन के जीवन में…पिताजी भले ही खेतीबाड़ी करने वाले अनपढ़ इंसान थे, लेकिन व्यावहारिक बुद्धि में पढ़ेलिखों से ज्यादा विवेकशील और समझदार. बचपन में नहीं पढ़ सके तो क्या, समय के साथसाथ कानूनी मसलों में भी विशेषज्ञता हासिल कर ली थी उन्होंने. और जहां गांव की लड़कियों की शादी 15-16 साल में कर दी जाती, वहां उन्होंने अपनी बेटी बसंती की शादी 21 साल होने के बाद ही की.

वे देशभक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति थे इसलिए 24 साल का युवा सेना में लांस नायक हरिवीर उन्हें अपनी बेटी बसंती के लिए पसंद आ गया था. भले ही उस का घर टिहरी में था, जो समय की नजाकत को समझते हुए उस वक्त चमोली जिले से काफी दूर लगता था क्योंकि आवाजाही के साधन कम थे. आज की तरह हर घर में वाहन कहां थे, सड़कों का जाल भी आज की तरह नहीं बिछा हुआ था. बसंती की जवानी के दिनों में तो एक संकरी सङक हुआ करती थी, जिस के एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़ और दूसरी तरफ नदी बहती थी. इक्कादुक्का बसें होती थीं लेकिन बहुत ही संभल कर चलना होता था. जरा सी चूक हुई तो नदी में समा जाने का डर रहता था.

बसंती की मां उसे इतनी दूर भेजने को तैयार नहीं थीं. उन का सोचना था कि आसपास के किसी गांव में ही बेटी को ब्याह दिया जाय ताकि समयसमय पर मिलती रहेंगी पर पिता दूरदर्शी थे. हालांकि प्रदेश की राजधानी तब लखनऊ थी लेकिन देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार सरीखे शहर तब भी उन्नत और सुविधा संपन्न ही थे और टिहरी से देहरादून की दूरी बहुत अधिक नहीं.

बसंती शादी के बाद ससुराल चली गई. लगभग 18 महीने हुए थे. वह 3-4 महीने की गर्भवती थी. तभी टिहरी में भागीरथी और तेलंगाना नदी के संगम पर बांध का निर्माण शुरू हो गया था. बहुत सारे गांवों के डूब क्षेत्र में आने का डर था इसलिए वक्त की नजाकत को देखते हुए लोगों को विस्थापित करने का काम शुरू कर दिया गया था. हालांकि गांव के लोगों ने इस परियोजना के विरोध में अहिंसात्मक आंदोलन चलाया लेकिन आम लोगों की एक न चली. बांध का निर्माण होना तय था. यह परियोजना का आखिरी चरण में था.

यों विचार तो आजादी पाने के 15 साल बाद ही शासन के मन में आ गया था. बस, योजना को पंख नहीं लग पा रहे थे. मंजूरी में कोई न कोई व्यवधान आ ही जा रहा था. वर्षों लग गए थे लोगों को समझाने, मनाने, डराने और अपनी जड़ों से तोड़ कर अलहदा बसाने में. आखिरकार, पुराने शहर की कोख से एक नए शहर का जन्म हुआ पर इस प्रक्रिया में पुराना शहर झील में समा कर अपने अस्तित्व को खो बैठा था.

बसंती के सासससुर भी आखिरी समय तक डटे रहे. लेकिन आखिरकार उन के लिए हटना जरूरी हो गया था. गर्भावस्था के आखिरी समय में बसंती बूढ़े सासससुर के साथ कहां जाती? पति उस वक्त सिक्किम में पोस्टेड थे. बसंती बुआ के पिताजी ऐसे समय में संकटमोचन बन कर आए. गांव में उन के 2 घर थे. दुश्वारी के इन पलों में उन्होंने अपनी बेटी को ही नहीं बल्कि उस के बूढ़े सासससुर को भी अपने घर में आश्रय देने का निश्चय किया क्योंकि कुछ लोगों को वहीं शहर के दूसरे छोर में तो कुछ लोगों को देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार के आसपास जमीन आवंटिन की जा रही थी. हमेशा गांव में रहे बसंती बुआ के सासससुर ने वहां जाने से बिलकुल मना कर दिया था. वे आखिरी समय तक अड़े रहे.

आंदोलन अपनी जगह था पर कंपनी ने निर्माण कार्य शुरू कर दिया था. पानी भरना और झील का बनना जारी था. कई मकान जबरन खाली करवा दिए गए और कई लोगों ने खुद ही डर से खाली कर दिए. धीरेधीरे कई गांव डूब क्षेत्र में आ गए और पुरानी टिहरी का घंटाघर भी इस की भेंट चढ़ गया। विस्थापित लोगों को आननफानन में धनराशि दी गई ताकि वे सुरक्षित जगहों में अपने मकानों का निर्माण कर सकें।

बसंती के पिताजी टिहरी पहुंच गए थे. उन्होंने बसंती के ससुर से विनती की कि अपनी बहू की खातिर वे लोग उन के साथ चमोली चलें. ऐसी हालत में यहां रहना खतरे से खाली नहीं. लेकिन सामाजिक रस्मोंरिवाज को ध्यान में रखते हुए शायद बसंती के ससुर ऐसा करने के लिए राजी नहीं थे. ‘समाज क्या कहेगा’ वाली बात सब से पहले सामने आ रही थी. लोग भी तो कहते न कि बहू को मायके जा कर रहना पड़ रहा है.

बसंती के पिता अपने समधी की इस कश्मकश को समझ रहे थे,”कुछ मत सोचो ठाकुर साहब, यह परिस्थिति की मांग है. सबकुछ ठीक हो जाने पर आप अपने घर लौट जाएंगे. अभी नया घर बनने में काफी समय लगेगा. जाड़ों का मौसम आ रहा है. कहां रहेगी बसंती नवजात के साथ?”

अपनी बेटी की फिक्र करना हर मातापिता के लिए जायज है और बसंती के ससुर ने इस बात का बुरा भी नहीं माना,”आप से एक विनती करता हूं, राणाजी कि बसंती को कुछ समय के लिए आप अपने साथ ले जाएं. आप सही कह रहे हैं कि यहां पर इस के और नवजात के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी. हम लोग अपना कुछ न कुछ इंतजाम देख लेंगे और फिर सब कुछ सामान्य होने पर बसंती को लेने मैं खुद आ जाऊंगा.”

काफी आग्रह करने के बावजूद भी बसंती के ससुर उस के पिता के साथ चलने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर राणाजी बसंती को ले कर अपने गांव वापस लौट आए. बसंती की सास ने देहरादून में आवंटित जमीन में मकान बनवा कर रहने से बिलकुल ही इनकार कर दिया. पैसा बड़े बेटे के अकाउंट में ट्रांसफर करवा दिया था. लोगों ने समझाया भी कि बड़ा शहर है, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं भी सबकुछ वहां पर हैं पर वह टस से मस नहीं हुए।

नगर के ऊंचाई वाले क्षेत्र में नया टिहरी बस कर तैयार हो रहा था. उन्होंने अपने किसी करीबी रिश्तेदार के मकान में ही 2 कमरे किराए पर ले कर वहीं समय गुजारने की ठान ली. बसंती की सास रोज टकटकी लगा कर खिड़की से झील के पानी को देखती, जहां उस का घर समाधिस्थ हो गया था. झील में अब इक्कादुक्का नावें तैरतीं दिखाई देतीं. 24 सौ मेगावाट की जल विद्युत परियोजना के निर्माण के लिए बनाए गए इस डैम में लगभग 40 गांव डूब गए थे और 80 के लगभग गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए थे.

इधर बसंती के पिता के गांव में कामचलाऊ सबकुछ था. खेती, अनाज, कुछ जानवर जिस के बल पर यहां के गांव आबाद थे वरना तो पलायन की मार ने दूरदराज के गांवों को अपनी चपेट में ले लिया था. लेकिन स्वास्थ्य सुविधा नहीं के बराबर थी. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की मदद से तय समय पर बसंती ने एक बेटे को जन्म दिया. 2-3 दिन पहले उस के पति हरिवीर भी 1 महीने की छुट्टी ले कर आ गए थे.

समय का कुचक्र ऐसा चला कि गंगोत्री यात्रा के दौरान एक दुर्घटना में कई दूसरे श्रद्धालुओं के साथसाथ बसंती के सासससुर भी मारे गए. ससुराल की तरफ से बसंती अनाथ हो गई. प्रेम रखने वाले सासससुर ही नहीं रहे तो क्या करती, पलट कर कभी टिहरी की तरफ नहीं गई. वहां न घर, न कोई परिवार का सदस्य. कुछ सालों में पुत्री और पुत्र के रूप में 2 संतानें और हुईं. ये तीनों ही अपने नाना के घर में ही पल कर बड़े हुए.
बसंती के जेठ रिटायर हो कर शहर से गांव आ गए थे और उन्होंने आवंटित भूमि में मकान बना लिया. ऐसा करते समय बसंती के पति से राय लेनी जरूरी नहीं समझी और और न ही उन को हिस्सेदार बनाने की कोई पहल की. हरिवीर भी सोचते रहे कि बड़ा भाई है, जब जरूरत होगी हमारा हिस्सा दे देगा. बसंती मायके में ही रह गई. 45 साल की उम्र में उस के पति भी सेना से रिटायर हो कर आ गए थे.

आवंटित भूमि में 2 कमरे बनाने की चाह रखते हुए बड़े भाई से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. फिर वे भी चमोली जिले में ही चले आए. 3 बच्चों में से 2 ऋषिकेश और दिल्ली में छोटीछोटी नौकरी करते थे जबकि बेटी का ससुराल पौड़ी श्रीनगर के पास ही कीर्ति नगर में था.

युवा बसंती अब बूढ़ी हो चली थी. गांवभर की बसंती बुआ थी वह. बुआ ने अपनी तमाम उम्र इसी गांव में काट दी थी. पिता का घर छोड़ कर अब उन्होंने इसी गांव में कुछ दूरी पर अपना छप्पर डाल लिया था.

बसंती बुआ के पिता अपने दामाद हरिवीर को बताते, “पहले तिब्बत से व्योपार होता था. धीरेधीरे सब खत्म हो गया। विकास की होड़ ने नदी, नाले, पहाड़ किसी को भी नहीं बख्शा.”

जहां तक नजर पड़ती, मखमली हरियाली और हरेभरे पर्वतों के बीच से कलकल बहते झरनों का कदमकदम पर आत्मसात होता. पर्यटक मंत्रमुग्ध थे. मैदानी क्षेत्रों में इन दिनों गरमी भी तो बहुत बढ़ गई थी. आजकल पैसे की कमी तो नहीं सब के पास अपने वाहन हैं. नहीं तो 20-25 सीटर टूरिस्ट बस भी तो है. 2-4 परिवार मिलजुल कर इन्हें बुक करा कर निकल पड़ते हैं पहाड़ की शांत व सुंदर वादियों की ओर।

टूरिस्ट सीजन चल रहा था. सालभर यही 2-4 महीने कमाई के होते. वरना तो सन्नाटा पसरी रहती इस पूरे इलाके में. बर्फबारी होने के दौरान लोग सुरक्षित जगहों में चले जाते थे. पूरे जिले में चल रहा तमाम अनियंत्रित निर्माण कार्य संवेदनशील लोगों के माथे पर बल लाने के लिए काफी था. बसंती बुआ के पिता यह सब देखदेख कर हैरानपरेशान होते लेकिन उन की कौन सुनता. हर किसी को स्टे होम या होटल बना कर इनकम बढ़ाने का सुरूर चढ़ गया था. लोगों ने अपने घरों को थोड़ा विस्तार दे कर उसी में होमस्टे खोल दिए थे. कुछ निर्माण तो गुपचुप तरीके से बिना किसी अनुमति के भी किए गए थे. पर्यटकों की भरमार तात्कालिक लाभ जरूर प्रदान करती. जिस के पास कुछ नहीं, वह भी मक्के को उबाल कर या भून कर चटपटा नमक लगा कर पर्यटकों को देता तो अच्छीखासी कमाई कर लेता पर दीर्घकाल के लिए यह अभिशाप ही कहा जा सकता है.

दुखी मन ले कर बसंती बुआ के पिताजी भी 2 साल पहले गुजर गए. मां अकेली रह गई थीं. बसंती बुआ और अगलबगल में रहने वाले रिश्तेदार ही देखभाल करते. बसंती बुआ ने अपने साथ आ कर रहने को कहा लेकिन बूढी मां को यह मंजूर नहीं था. पति की यादें जो बसी थीं इस घर में. बूढ़ी धीरेधीरे अपने दिनप्रतिदिन के काम खुद ही किया करती.

कच्ची युवावस्था की पहाड़ियां. सड़क निर्माण के लिए पेड़ों का कटान. मिट्टी का बहना लाजिमी है. रेलवे लाइन के लिए सुरंगों को खोदना. धरती अंदर ही अंदर कुपित थी. यह आक्रोश साल दर साल कौलेस्ट्रौल की तरह धरती की धमनियों में परत बना रहा था.

हाल के वर्षों की तरह इस बार भी बरसात ने रौद्र रूप दिखाया. इलाके में 2 बार बादल फटने की घटनाएं हो चुकी थीं. बसंती बुआ के मायके के दोनों मकान बहुत जर्जर हो चुके थे. उस के पति ने कई बार उन से कह दिया था कि उस घर में अकेली बूढ़ी मां का रहना खतरे से खाली नहीं है.

“बसंती, अपनी मांजी से हमारे साथ आ कर रहने को कहो.”

“पूरी उम्र मां ने उस घर में गुजार दी. अब कहां आएगी हमारे साथ? मैं ने कई बार कहा, सुनती ही नहीं,” बुआ ने उदास हो कर बोली.

जगहजगह बहुत नुकसान हुआ था. पुल धाराशाई, रास्ते बंद, सवारियां बह गईं. खेती उजड़ गई, खानेपीने के लाले पड़ गए. बसंती बुआ का दिल्ली वाला बेटा हफ्ताभर छुट्टी ले कर आया था पर यहीं फंसा रह गया. नेटवर्क जीरो. औफिस के काम में अड़चन आ रही थी पर जाने के रास्ते बंद थे.

उस दिन सुबह से ही रुकरुक कर बारिश हो रही थी. शाम ढलते ही बारिश ने मूसलाधार रुख अख्तियार कर लिया था. बिजली सप्लाई या तो रोक दी गई होगी या कुछ खराबी आ गई थी. दूरदूर तक पहाड़ियों में अंधेरा पसर गया था.

रात के लगभग 12 बज रहे थे. नींद सभी की आंखों से कोसों दूर थी, उसे बुलाने भर की नाकाम कोशिश हो रही थी. तभी अचानक इतनी जोर की आवाज आई कि सभी लोग अचकचा कर उठ गए. मोबाइल फोन लगभग डिस्चार्ज होने के कगार पर था. बसंती बुआ के पति ने अपने सिरहाने रखा टौर्च उठा कर जलाया जिस की रोशनी भी मरियल सी हो रही थी. शायद बैटरी कमजोर हो गई थी. लालटेन का ही एकमात्र सहारा था अब.

किसी अनहोनी की आंशका दूरदूर तक फैले सांयसांय करते अंधेरे ने पहले ही दे दी थी. बसंती बुआ के हाथ में लालटेन थी, उन के पति ने टौर्च थामा था और बेटा मोबाइल ले कर लकड़ी के क्षतविक्षत हो चुके खोखले दरवाजे को खोलते हुए बाहर पहुंचते हैं. लालटेन, टौर्च और मोबाइल तीनों की रोशनी मिल कर भी घुप्प अंधेरे का सामना करने में नाकाफी साबित हो रही थी. तीनों बसंती बुआ की मां के घर की तरफ बढ़े जो बमुश्किल डेढ़ से 2 सौ मीटर की दूरी पर घुमावदार मोड़ पर था. अचानक सब से आगे चल रहे बुआ के बेटे संदीप का पैर टकराया और वह मुंह के बल गिर कर गीली और पथरीली मिट्टी में लोटपोट हो गया. किसी तरह खुद को संभाल कर उठा और मां और पिताजी को सावधानी से चलने की हिदायत देते हुए नानी के घर की तरफ बढ़ा. नानी के घर में जानवरों के रहने का गुठियार ध्वस्त हो गया था. आगे बढ़ कर कुछ करने की स्थिति नहीं बन पा रही थी. वे तीनों निरीह बन कर देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे.

घर का मुख्यद्वार भी मलबे के ढेर में दबा था. संदीप कुछ नंबरों पर फोन मिलाया लेकिन बात नहीं हो पाई. लाचारी और हताशा दिलोदिमाग पर हावी हो रही थी लेकिन यह अवसर हताशा को उखाड़ फेंक कर साहस दिखाने का था.

बसंती बुआ आवाज लगाने की कोशिश करती है,”मां.. मांजी…” उन का गला चोक हो गया था और आवाज गले में ही धंसी जा रही थी.

संदीप ने हिम्मत कर के जोर से पुकारा,” नानी, कहां हो? हिम्मत रखना. हम यहीं पर हैं. अभी आप तक पहुंचते हैं.”

प्रतिउत्तर में कोई स्वर नहीं उभरा. तभी बसंती बुआ को किसी जानवर के मिमियाने की आवाज सुनाई दी. उन के इशारा करने पर संदीप उस ओर बढ़ा. किसी तरह मिट्टी के ढेर को हटाता आगे बढ़ा. एक नन्हीं सी बकरी सांसों के लिए लड़ रही थी. संदीप ने उसे बाहर निकाला. पशुधन के साथसाथ मुख्य चिंता नानी की थी. कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. आपातकाल में सब से बड़ा सहायक मोबाइल फोन भी इस वक्त खुद असहाय नजर आ रहा था.

धुंधलका सा वातावरण हो चुका था. झीने आवरण में लिपटा अंधेरा इस बात की तसदीक कर रहा था कि इसे चीर कर उजाला जल्द ही हाजिर होगा. पर मन के अंधेरों का क्या? उम्मीदों के दीए रातभर थरथरा कर अब बुझने लगे थे. इस नाउम्मीदी के बीच अपनी मां के बचे होने की उम्मीद बसंती बुआ को अभी भी थी. यही जीवन का फलसफा है शायद.
संदीप ने पुलिस के नंबर पर फोन मिलाया. जल्द पहुंचने का आश्वासन मिला. भूस्खलन की जानकारी टीम को दूसरे सूत्रों से पहले ही हो चुकी थी. आसपास के दूसरे एरिया में भी भारी तबाही मची थी. आसपास के 2-3 गांव तबाह हो गए थे. बीएसएफ, बीआरओ, सेना की भी मदद ली जा रही थी. जवानों ने जान जोखिम में डाल कर काररवाई शुरू कर दी थी. अंतिम सांसें गिनती हुई बसंती बुआ की मां मानो उन्हीं के इंतजार में थी. मिट्टी में सनी शुष्क आंखों से उसे निहारने लगी. अस्पताल ले जाने की कोशिशों के बीच ही दम तोड़ दिया. बसंती बुआ की आंखों से आंसू का एक कतरा भी नहीं बहा.

रोशनी बढ़ने के साथ ही स्थिति स्पष्ट होती जा रही थी. हर तरफ बरबादी का मंजर था. यह पहाड़ इतना निर्दयी भी हो सकता है क्या? पिछले कुछ सालों में बद्रीनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी हुई थी जिस की वजह से अंधाधुंध रेल के डिब्बों जैसे छोटेछोटे भवन दरकती, भुरभुरी कच्ची पहाड़ियों में होमस्टे, होटल की शक्ल ले चुके थे. बसंती बुआ के पिता ने इस अवैध और अवैज्ञानिक निर्माण का बहुत विरोध किया था. संबंधित पुलिस अधिकारी और जिला न्यायालय तक वह इस शिकायत को ले गए थे पर जीत पूंजीवाद की ही हुई. सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़तेलड़ते एक दिन वह जिंदगी की लड़ाई हार गए थे और आज यह भवन आपदा की चपेट में आ कर धराशाई हो गया था.

बसंती बुआ ने गांव को डूबतेउभरते देखा था. कभी टिहरी गांव भी डूबा था. लोग दुखी थे, उदास थे. उन के आंसुओं के खारे पानी के बल पर टिहरी झील बन गई थी. फिर तो धीरेधीरे आंसू भी सूख गए. इधरउधर विस्थापित होने पर जड़ों से बिछड़ने का दुख बच्चों और युवाओं को तो ज्यादा नहीं पर बुजुर्गों को दंश दे गया था.

आज फिर इस तबाही के बाद बुआ अब गांव में नहीं रहना चाहती थीं. बेटे से ताऊजी को फोन कर इस बाबत बताने को कहा कि वे लोग भी अब देहरादून ही जा कर रहना चाहते हैं.

ताऊ का दोटूक जवाब था,” जब मकान बनाने के लिए पैसे और मेहनत की जरूरत थी, उस वक्त गांव का प्रेम उमड़ रहा था, अब सबकुछ बनाबनाया तैयार है तो तुम्हें पच नहीं रहा।”

बस फिर क्या था? बेटा बोला, “कुछ समय और इंतजार करो. मैं ने गुड़गांव में जो फ्लैट बुक किया था, उस का पजेशन शायद अब मिलने की उम्मीद है. फिर वहीं चल कर रहोगे आप दोनों.”

पाईपाई जुटा कर, कुछ पैसे पिता से ले कर कई सालों से फ्लैट बुक करा कर, पैसे फंसा कर वह भी कोरी उम्मीद में जी रहा था. शायद उम्मीद ही जिंदगी का सिलसिला है वरना जीना ही दुश्वार हो जाए. उसे दिल्ली जाना ही था. नौकरी में इतनी छुट्टी कहां?

छप्पर तले रह गए थे 2 बुजुर्ग अकेले. मखमली वादियां कभीकभी जीवन का सब से गहरा घाव दे जाती हैं. एक ऐसा दंश जिसे इंसान ताउम्र नहीं भूल पाता. पीढ़ियां रोती हैं, मातम मनाती हैं लेकिन अपनी भोग विलासितापूर्ण जीवनशैली को बदलने के लिए भी तैयार नहीं. यही तो विडंबना है.

केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाते हुए एक गांव फिर दफन हो चुका था. आपदा में जान गंवाने वालों का सामूहिक दाहसंस्कार कर दिया गया था. मलबे के भीतर जिंदगी की खोज अंधेरा होने की वजह से बंद कर दी गई थी. कुछ बची हुई या अधमरी जानों की चीखपुकार भी अब बंद हो चुकी थी. वादी में सन्नाटा पसरा था.

रोज शाम ढले बसंती बुआ और उन के पति धरती की गोद में बैठ कर सामने पहाड़ियों को ताकते रहते थे. यही अब उन के माईबाप थे. वातावरण में वीरानी छाई थी. न बूढ़ों की डांटफटकार थी, न बच्चों का शोरगुल, न युवाओं का जोश. वक्त के थपेड़ों की चोट खाखा कर कठोर हो गए झुर्रियां पड़े उन गालों में जब कभी आंसुओं की नमी तैरा करती तो शुष्क पहाड़ियों की तलहटी पर ग्लेशियरों के पिघलने से नमी का एहसास दिलातीं.

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