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अपनों का सुख: बूढ़े पिता के आगे शुभेंदु को अपना कद बौना क्यों लग रहा था- भाग 1

खेतीकिसानी करने वाले 70 वर्षीय कृषक शिवजी साह अपनी 65 वर्षीया बीमार पत्नी सुनंदा के साथ झरिया जैसे छोटे शहर के एक गांव में रहते थे. जबकि उन का 25 वर्षीय इकलौता पुत्र शुभेंदु और उन की 22 वर्षीया बहू सुधा पुणे में नौकरी करते थे. दोनों अच्छा पैसा कमाते थे. लेकिन शुभेंदु भूल कर भी मातापिता को जीवनयापन के लिए एक रुपया नहीं भेजता था. वह सुधा के साथ उन्मुक्त जीवन जीने में सारा पैसा फूंक मार कर सिगरेट के धुएं की तरह उड़ा देता था. उन का दांपत्य जीवन अतिआधुनिकता की चकाचौंध में खोता जा रहा था.

रोजाना महंगे होटलों में खानापीना और नित्य नाइट क्लबों में वक्त बिताना उन की आदत सी बन गई थी. बीचबीच में दोनों अपने दोस्तों के साथ बार और पब में जा कर मस्ती लूटते थे. इसी क्रम में एक जाट ग्रुप के कुछ युवकों से शुभेंदु के दोस्तों का झगड़ा हो गया.

तब शुभेंदु ने अपने मोबाइल पर तुरंत किसी को घटना की सूचना दी. उस के बाद बीचबचाव के मकसद से वहां चला गया. जाट ग्रुप के युवक उसी की पिटाई करने लगे. जवाब में शुभेंदु भी उन के ऊपर अपने हाथ साफ करने लगा. दोनों तरफ से जम कर मारपीट होने लगी.

सूचना पा कर पुलिस घटनास्थल पर पहुंची. पुलिस को देखते ही झगड़ा करने वाले दोनों पक्षों के युवक भाग खड़े हुए. लेकिन शुभेंदु भाग नहीं सका और पुलिस के हत्थे चढ़ गया.

सुबह में सुधा को शुभेंदु के पकड़े जाने की खबर मिली तो वह हैरान रह गई. वह भागीभागी दत्तावाड़ी थाना पहुंची और थाना प्रभारी राजेश कुमार से मिल कर अपने पति को छोड़ने की गुहार लगाई.

“सर, मेरे पति शुभेंदु को छोड़ दीजिए. व़ह बिलकुल निर्दोष है. आज तक उस ने किसी से झगड़ा नहीं किया है. हम पर रहम कीजिए, सर.”

“मौका ए वारदात से पुलिस ने शुभेंदु को गिरफ्तार किया है. वह हर हाल में जेल भेजा जाएगा. तुम उसे जेल से जमानत करा लेना. वैसे भी, होली को ले कर कोर्ट 7 दिनों तक बंद रहेगा. अब जाओ यहां से.”

“सर, मेरे पति को थाना से ही छोड़ दीजिए. जो भी खर्चा लगेगा, मैं देने को तैयार हूं. जेल भेज दीजिएगा तो अकेले जीतेजी मर जाऊंगी. पुणे जैसे महानगर में हमारा कोई नहीं है.”

“शोभना, इसे बाहर निकालो, फालतू बकवास कर रही है.”

“प्लीज़ सर, प्लीज़ सर, हम पर दया कीजिए.”

थानेदार का आदेश पा कर लेडी कान्स्टेबल शोभना सुधा के पास गई और उसे इशारे से बाहर निकल जाने को कहा.

पब मालिक सुबोध वर्मा के लिखित बयान पर थाना में शुभेंदु सहित 5 अज्ञात लोगों पर तोड़फोड़, मारपीट और 50 हजार नकद राशि लूटने का मामला दर्ज किया गया. उस के बाद पुलिस ने शुभेंदु को जेल भेज दिया.

थाना से लौटने के बाद सुधा ने बड़े अरमान से सब से पहले अपने मायके में अपने बड़े भाई श्याम को फोन किया और वस्तुस्थिति की जानकारी दी. साथ ही, शुभेंदु को जेल से बाहर निकालने का आग्रह किया. लेकिन श्याम ने एक सप्ताह बाद पुणे आने की बात कही. उस का जवाब सुन कर वह औंधेमुंह बिस्तर पर गिर गई. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

पति के जेल चले जाने से उस का घर भूतों का डेरा बन गया था. हर तरफ सन्नाटा पसरा था. न खाने की सुध न सोने की फ़िक्र. हर समय शुभेंदु उस की आंखों में नाचता रहता था. इसी तरह उस के भाई श्याम के इंतजार में 2 सप्ताह बीत गए. लेकिन उस का भाई यह भी देखने नहीं आया कि उस की बहन सुधा किस हाल में है.

उस के सुख के साथी इस दुख की घड़ी में उसे देखते ही रास्ता बदल दिया करते थे. कुछ ने अगर हमदर्दी जताई तो निस्वार्थ भाव से नहीं, बल्कि सुधा पर आईं मुसीबत का लाभ उठा कर.

सुधा के एक मित्र थानापुलिस की दलाली करने वाले शिवशंकर ने केस कमजोर करने और शुभेंदु को थाने से घर लाने के लिए लिए 10 हजार रुपए लिए थे, लेकिन पुलिस ने शुभेंदु को नहीं छोड़ा. तब उस ने शिवशंकर से रुपए वापस मांगा तो उस ने थाने में खर्च हो जाने का बहाना बना दिया.

इतना ही नहीं, थाने से एफआईआर की कौपी निकालने के लिए सुधा ने एक हजार रुपए जब अपने करीबी दोस्त राजन बाबू को दिए तो 2 हफ्ते बाद भी नहीं मिल सकी. राजन बाबू जैसे शरीफ़ लोग प्रतिदिन उस से झूठ बोलते रहे कि एफआईआर की कौपी आजकल में मिल जाएगी. वह किन लोगों पर भरोसा करे, उसे समझ नहीं आ रहा था.

शाम को कौलबेल की आवाज सुन कर सुधा अपने बिस्तर से उठी और थकेमन से दरवाजा खोल दिया. सामने दाई मीणा खड़ी थी. उसे देख कर सुधा के मन को थोड़ी ठंडक पहुंची, क्योंकि मीणा उस के सुखदुख की साथी थी.

मीणा ने अंदर आने के बाद दरवाजा बंद कर लिया. किचन में जा कर कौफी बनाने लगी. इसी बीच, एक गिलास पानी देने सुधा के पास गई और बोली,

“मैम, सुना है कि शुभेंदु सर को जेल हो गई है तो अपने मित्र राजन बाबू किस दिन काम आएंगे? उन से मदद लेने में क्या कोई दिक्कत है?”

“क्या कहूं, दिमाग काम नहीं कर रहा है.”

“तो शुभेंदु सर जेल में सड़ते रहेंगे. परसों जेल में आप से मिल कर कितना रो रहे थे. क्या आप भूल गईं?”

“नहीं मीणा, भूली नहीं हूं. राजन बाबू को एफआईआर की कौपी निकालने के लिए एक हजार नकद रुपए दे दिया है. लेकिन 2 सप्ताह बीत गए. एफआईआर की कौपी नहीं मिल पाई है, अब किस से मदद ली जाए?”

“मैम, शुभेंदु सर के डैडीमम्मी को फोन कीजिए न. वे जरूर मददगार साबित होंगे. आखिर अपने लोग अपने नहीं होंगे तो कौन अपना होगा?”

“अपने भाई को फोन किया था, वह नहीं आया. अब किस मुंह से अपने ससुर को फोन करूं? आज से 20 वर्ष पहले अपनी बीमार सासुमां को छोड़ कर हम दोनों पुणे आ गए थे. पता नहीं वे किस हाल में होंगे.”

इतना कह कर सुधा चुप हो गई, जैसे कुछ सोच रही हो. तब मीणा किचन में चली गई.

अपने खयालों में खोई सुधा को लगा कि उस की सासुमां आवाज दे रही हैं-

‘अरे बहू, कहां हो, मारे दर्द के सिर फटा जा रहा है. जल्द मेरे पास आओ न. ठंडा तेल लगा कर थोड़ी मालिश कर दो. अरे, कहां मर गई रे. ओह.’

‘पता नहीं यह बुढ़िया कब मरेगी. रोज़ाना मुझे ही मरने के लिए कोसती रहती है,’ बहू सुधा ने अपनी सास पर अपने मन की भड़ास निकाली.

‘मुझे ही मरने के लिए बोल रही है. हे प्रकृति, कैसा जमाना आ गया है?’ बहू की आवाज सुन कर सुनंदा माथा पकड़ कर रोने लगी.

‘आई मांजी, मरे आप का दुश्मन. आप तो अमृत घट पी कर आई हैं, आप को कुछ नहीं होगा. हमेशा बकबक करना बंद कीजिए तो चैन मिले,’ बोलती हुई सुधा अपनी आंखें मोबाइल फोन से हटाई और चौकी पर लेटी अपनी सास सुनंदा की ओर देखा, जो दोनों हाथों से अपना सिर दबाए कराह रही थीं. उस ने स्टूल पर रखे हुए तेल की शीशी अपने बाएं हाथ में उठाई. शीशी का ढक्कन खोल कर दाएं हाथ की हथेली पर थोड़ा सा तेल लिया और अपनी सास के माथे पर डाल दिया. फिर दोनों हाथों की उंगलियों से ज़ोरज़ोर से मालिश करने लगी.

‘अरे बाप रे बाप, इतने जोर की मालिश. आज ही मार डालोगी क्या? रहने दो बहू, रहने दो. मेरी तो जान ही निकल जाएगी.’

‘सिरदर्द का बहाना करना तो कोई आप से सीखे. जब मालिश करने लगी तो आप ‘रहने दो रहने दो’ की रट लगाने लगीं. आप हमेशा मेरे नाक में दम किए रहती हैं. पता नहीं आप की यह बीमारी कब ठीक होगी.’

‘अरे बहू, मालिश कैसे की जाती है, मुझे तू सिखाएगी, वह भी बाल नोचनोच कर. खैर, जाने दे. तेरी दया की मुझे जरूरत नहीं. मुझे मेरी हालत पर छोड़ दो.’

‘ठीक है, ठीक है. कभी फिर न कहना मालिश के लिए.’

सुधा बीच में ही बोल कर अपने कमरे की ओर चली, तभी बाहर शुभेंदु और उस के ससुर शिव जी की बतकही सुनाई पड़ी. वह दरवाजा की ओट में छिप कर उन की बातें सुनने लगी. उस का पति शुभेंदु कह रहा था,

‘बैंक में काम का लोड बढ़ गया है. जिस के कारण रोजाना समय पर बैंक निकल जाना पड़ता है. शाम को बैंक से डेरा पहुंचने में लेटलतीफ़ हो जाती है. समय से खानापीना नहीं हो पाता है. जिस के कारण शारीरिक कमजोरी महसूस होती है. ऐसे हालात में सुधा को अपने साथ रखूंगा.’

‘लेकिन बेटा, तेरी मां तो बीमार है. अगर बहू तुम्हारे पास रहेगी तो तेरी मां की कौन देखभाल करेगा? उस की कुछ तो चिंता करो.’

‘मां को कुछ नहीं होगा, देखने से तो भलीचंगी लग रही हैं. आप हैं न, उन की देखभाल के लिए. कुछ रुपए भेज दूंगा, उन्हें किसी अच्छे डाक्टर से दिखा दीजिएगा. आज़ हम दोनों पुणे के लिए निकल जाएंगे.’

‘लेकिन बेटा, एकदो सप्ताह और ठहर जाते तो बहुत अच्छा होता,’ पुत्रमोह में शिवजी साह ने आग्रह किया.

साथी : भाग 1

‘‘आप अभी तक होटल में ही रह रही हैं? मगर क्यों?’’ यह कहने के साथ ही कपिल के हाथ क्षणभर को थम गए. प्याले पर उंगलियों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी. एक लड़खड़ाहट सी महसूस हुई उन में और होंठों तक आते न आते प्याला वापस टेबल से जा टकराया.

कविता करीब 2 महीने पहले कपिल के औफिस में दिल्ली ब्रांच से ट्रांसफर हो कर आई थी. निराला ही व्यक्तित्व था उस का, सब में घुलमिल कर भी सब से अलग. कुछ ही दिनों में उस ने खुद को यहां के परिवेश में इस कदर ढाल लिया कि नएपन का एहसास ही कहीं खो गया.

‘‘आप ने तो पहले कभी बताया ही नहीं कि अभी तक आप होटल में ही रह रही हैं,’’ कपिल ने अटकते हुए कहा.

‘‘वो, ऐसा है न कपिल साहब, कोई मन की जगह ही नहीं मिली अभी तक. अब दोचार दिन की बात तो है नहीं, क्या पता दोचार महीने रहना हो या दोचार साल, सोचती हूं दोचार जगह और देख लूं.’’

‘‘अभी तक आप को अपने रहने लायक कोई जगह ही पसंद नहीं आई? कमाल है. इतना बुरा भी शहर नहीं है हमारा. एक बात कहूं, तब तक आप मेरे घर में ही शिफ्ट क्यों नहीं कर लेतीं?’’ कहने के साथ ही कपिल स्वयं ही झेंप गया.

माना कि पिछले कुछ हफ्तों में वह औरों की अपेक्षा कविता के कुछ ज्यादा ही करीब आ गया है पर इस का मतलब क्या हुआ.

वह फिर बोला, ‘‘मेरा मतलब है कि मेरा घर बहुत बड़ा है और रहने वाले बहुत कम लोग हैं. जब तक आप का अपना कोई ठिकाना नहीं मिलता, आप भी वहां रह सकती हैं. वैसे भी मकान का वह हिस्सा उपेक्षित पड़ा हुआ है, घर से बिलकुल अलगथलग. मैं वादा करता हूं, मैं खुद मदद करूंगा आप के लिए घर ढूंढ़ने में. मुझे पूरा विश्वास है कि आप को जल्द अपना मनपसंद घर मिल जाएगा.’’

प्रस्ताव बुरा नहीं था. कविता मन ही मन मुसकराती रही. कहना तो चाहती थी कि चलिए, आप की बात मान ली मैं ने पर प्रत्यक्ष में कुछ न कह सकी.

‘‘अरे, आप तो किसी सोच में डूब गईं.’’

‘‘नहीं तो, मैं तो बस यह सोच रही थी कि क्या यह उचित होगा? लोग क्या कहेंगे?’’ कविता एकदम सकपका कर बोली.

‘‘अच्छा, आप भी सोचती हैं यह सब? आप कब से लोगों की परवा करने लग गईं? मैं इतने दिनों में आप को जितना जान सका हूं, इस से तो इसी

सोच में था कि आप के बारे में उचितअनुचित’, ‘लोग क्या कहेंगेजैसी बातों का कोई असर नहीं होता. मगर आप तो इन बातों के लिए बिलकुल विपरीत ही नजर आ रही हैं.’’

‘‘कपिल साहब, मेरी बात छोडि़ए, मुझे सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ कविता के स्वर में वही पुरानी बेफिक्री थी. साधारण सी कदकाठी वाली कविता इन्हीं विशेषताओं के कारण औरों से अलग दिखती थी. हलके रंग की प्लेन साड़ी, माथे पर छोटी सी काली बिंदी, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में चंद चूडि़यां, बस, यही था उस का साजशृंगार.

सच भी था, कोई फर्क नहीं पड़ता उसे इन बातों से. अगर फर्क पड़ता तो क्या वह किसी की परवा किए बिना अपना मायका और अपनी ससुराल छोड़ आती पर आज उस के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं.

‘‘बात सिर्फ मेरी होती तो और बात थी कपिल, मगर मेरे इस फैसले से तो आप भी प्रभावित होंगे ही न. बस, इसीलिए ही सोचना पड़ रहा है.’’

‘‘अजी, आप मेरी छोडि़ए, मुझे इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता. बस, आप हांकहें तो मां से इजाजत ले लूं. वैसे भी उन्हें तो कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती, बल्कि वे तो खुश होंगी.’’

हैरान रह गई कविता. उस के जेहन में सवाल उठे, मां से क्यों? क्या वह अकेला है? उस की पत्नी? कोई बच्चे नहीं हैं?

‘‘कहां खो गईं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस,’’ इस के आगे कुछ नहीं कह सकी वह. कहती भी तो क्या कपिल से तो कुछ पूछ ही नहीं सकती इस विषय में. उन्होंने तो एकदूसरे से वादा किया है कि वे एकदूसरे के अतीत में झंकने का कभी कोई प्रयास नहीं करेंगे, मगर यह कैसे संभव होगा? शर्तों के दायरे में दोस्ती? चलो, यही सही पर इस की शुरुआत कविता की तरफ से तो कतई नहीं होनी चाहिए. वह किसी भी कीमत पर कपिल जैसे दोस्त को खोना नहीं चाहती. कपिल के विषय में जितना कुछ भी पता था सिर्फ उसी से. उस ने कभी भी किसी और से कपिल के बारे में कुछ भी जानने की कोशिश नहीं की. न ही कभी किसी ने कुछ बताया. शायद बताने जैसा कुछ हो भी न. बहुत सारी बातें समय के साथसाथ अपनेआप ही पता चल गईं, जैसे वह बहुत रिजर्व रहता है, कम बोलता है, गिनेचुने लोगों के साथ उठताबैठता है. शादी हुई है? शायद नहीं, क्या पता, पता नहीं.’’

‘‘लीजिए, बातोंबातों में कौफी तो एकदम ठंडी हो गई,’’ कपिल कौफी की बेहाली पर हंस पड़ा. उस ने दोबारा कौफी और्डर की.

इस बार कौफी ठंडी करने का इरादा दोनों का ही नहीं था, सो दोनों ही खामोश थे. कविता की उंगलियां लगातार प्याले से ही खेलती रही थीं. शायद वह कुछ और ही सोच रही थी. कपिल के विषय में, उस के घर के विषय में या फिर कुछ और?

उसे अच्छी तरह याद है, कपिल के बहुत कहने पर जब वह पहली बार उस के घर गई थी तब भी मुलाकात सिर्फ उस की मां से ही हुई थी. वहां जा कर पता चला कि कपिल का ही जन्मदिन है आज. इस अवसर पर हर साल की तरह उस की मां सुनंदा देवी ने कुछ खास लोगों को ही आमंत्रित किया था, इस बार उन खास लोगों में वह भी शामिल थी.

मां ने ही सबकुछ अपने हाथों से रचरच कर बनाया था. कितने प्यार से खिला रही थीं सभी को. ममता की जीतीजागती मिसाल लग रही थीं वे. कविता तो देखती ही रह गई, क्या अभी भी इस धरती पर हैं ऐसे लोग?

अपनी अपनी तैयारी : भाग 1

‘‘आप ही बताइए मैं क्या करूं, अपनी नौकरी छोड़ कर तो आप के पास आ नहीं सकता और इतनी दूर से आप की हर दिन की नईनई समस्याएं सुलझ भी नहीं सकता,’’ फोन पर अपनी मां से बात करतेकरते प्रेरित लगभग झंझला से पड़े थे.

जब से हम लोग दिल्ली से मुंबई आए हैं, लगभग हर दूसरेतीसरे दिन प्रेरित की अपने मम्मीपापा से इस तरह की हौटटौक हो ही जाती है. चूंकि प्रेरित को अपने मम्मीपापा को खुद ही डील करना होता है, इसलिए मैं बिना किसी प्रतिक्रिया के बस शांति से सुनती हूं.

अब तक गैस पर चढ़ी चाय उबल कर पैन से बाहर आने को आतुर थी, सो, मैं ने गैस बंद की और 2 कपों में चाय डाल कर टोस्ट के साथ एक ट्रे में ले कर बालकनी में आ बैठी. कुछ ही देर में अपना मुंह लटकाए प्रेरित मेरी बगल की कुरसी पर आ कर बैठ गए और उखड़े मूड से पेपर पढ़ने लगे.

‘‘अब क्या हुआ, क्यों सुबहसुबह अपना मूड खराब कर के बैठ गए हो? मौर्निंग वाक करने का कोई फायदा नहीं अगर आप सुबहसुबह ही अपना मूड खराब कर लो,’’ मैं ने प्रेरित को कुछ शांत करने के उद्देश्य से कहा.

‘‘पापा कल पार्क में गिर पड़े, मां को गठिया का दर्द फिर से परेशान कर रहा है. अभी 15 दिन पहले ही तो लौटा हूं कानपुर से, डाक्टर से पूरा चैकअप करवा कर और जहां तक हो सकता था, सब इंतजाम कर के आया था. जैसेजैसे उम्र बढ़ेगी, नितनई समस्याएं तो सिर उठाएंगी ही न. यहां आने को वे तैयार नहीं. बिट्टू के पास जाएंगे नहीं तो क्या किया जाए? नौकरी करूं या हर दिन इन की समस्याएं सुलझता रहूं? इस समस्या का कोई सौल्यूशन भी तो दूरदूर तक नजर नहीं आता,’’ प्रेरित कुछ झंझलाते हुए बोले.

‘‘चलो, अब शांत हो जाओ और अच्छे मन से औफिस की तैयारी करो. आज वैसे भी तुम्हारी इंपौर्टेंट मीटिंग है. कल वीकैंड है, इन 2 दिनों में हमें अम्माबाबूजी की समस्याओं का कोई परमानैंट हल निकालना पड़ेगा वरना इस तरह की समस्याएं हर दूसरेतीसरे दिन उठती रहेंगी,’’ यह कह कर मैं ने प्रेरित को कुछ शांत करने का प्रयास किया और इस के बाद हम दोनों ही अपनेअपने औफिस की तैयारी में लग गए थे.

मैं और प्रेरित दोनों ही आईसीआईसीआई बैंक में सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर हैं. अभी हमें मुंबई शिफ्ट हुए 3 माह ही हुए थे. सो, बहुत अच्छी तरह मुंबई शहर से परिचित नहीं थे. हमारी इकलौती बेटी आरुषी 3 माह पहले ही 12वीं पास कर के वीआईटी वेल्लोर से इंजीनियरिंग करने चली गई. उस के जाने के बाद हम अकेले रह गए थे. हम तो अभी तक उस के जाने के दुख में ही डूबे रहते यदि हमारा ट्रांसफर मुंबई न हुआ होता. ट्रांसफर हो जाने पर शिफ्ंिटग में इतने अधिक व्यस्त हो गए हम दोनों कि बेटी का जाना तक भूल गए यद्यपि सुबहशाम उस से बात हो जाती थी.

हम दोनों को ही 10 बजे तक निकलना होता है, इसलिए 8 बजे मेड आ जाती है. टाइम के अनुसार सुशीला मेड आ गई थी. उसे नाश्ताखाने की कुछ जरूरी हिदायतें दे कर मैं बाथरूम में घुस गई.

नहातेनहाते वह दिन भी याद आ गया जब मैं पहली बार प्रेरित से मिली थी. मैं और प्रेरित दोनों ही इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से थे और अब भोपाल के आईआईएएम कालेज से फौरेस्ट मैनेजमैंट में एमबीए कर रहे थे. एक दिन कालेज के ग्रुप पर मैं ने एक मैसेज देखा, ‘इफ एनीवन इंट्रेस्टेड फौर यूपीएससी एग्जाम, प्लीज डी एम टू मी.’

मेरे मन के किसी कोने में भी यूपीएससी बसा हुआ था, सो, मैं ने दिए गए नंबर पर मैसेज किया और एक दिन जब कालेज की लाइब्रेरी में हम दोनों मिले तो अपने सामने लंबी कदकाठी, गौरवर्णीय, सलीके से ड्रैसअप किए सुदर्शन नौजवान को देखती ही रह गई. इस के बाद तो कभी कोचिंग, कभी नोट्स और कभी तैयारी के बहाने मिलनाजुलना प्रारंभ हो गया था और कुछ ही दिनों के बाद हम दोनों के बीच से यूपीएससी तो गायब हो गया और रह गया हमारा प्यार, एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें, एकदूसरे की तारीफ में पढ़े गए कसीदे और भविष्य की लंबीचौड़ी प्लानिंग.

भोपाल के कलिया सोत डैम के पास चारों ओर हरीतिमा से ओतप्रोत एक छोटी सी पहाड़ी पर नेहरू नगर में स्थित आईआईएफएम कालेज में हमारा प्यार पूरे 2 साल परवान चढ़ता रहा. कोर्स के पूरा होतेहोते हम दोनों का ही प्लेसमैंट आईसीआईसीआई बैंक में हो गया था और अब हम दोनों ही विवाह के बंधन में बंध जाना चाहते थे. चूंकि हम दोनों की जाति ब्राह्मण ही थी, इसलिए आश्वस्त थे कि विवाह में कोई बाधा नहीं आएगी. मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान थी और प्रेरित 2 भाई थे. उन का छोटा भाई प्रेरक (बिट्टू) मैडिकल की पढ़ाई कर रहा था. प्रेरित की मां एक होममेकर थीं और पापा एक राजपत्रित अधिकारी के पद से इस वर्ष ही रिटायर हुए थे.

मेरी मां एक मनोवैज्ञानिक काउंसलर और पापा बैंक मैनेजर थे. अभी उन के रिटायरमैंट में 2 वर्ष थे. हम दोनों ने ही घर में अपने प्यार के बारे में पहले ही बता दिया था. सो, अब औपचारिक मोहर लगनी ही बाकी थी. हम दोनों की मम्मियों ने फोन पर बातचीत भी कर ली थी. इसी सिलसिले में एक दिन प्रेरित के मम्मीपापा कानपुर से इंदौर मुझे देखने या यों कहें कि विधिवत रूप से गोद भराई की रस्म करने आए.

उन लोगों के आने की सूचना मात्र से ही मांपापा खुशी से दोहरे हुए जा रहे थे आखिर उन की इकलौती संतान के हाथ पीले होने का प्रथम चरण का आयोजन जो होने जा रहा था. आने वाले मेहमानों के लिए पूरे घर को पापा ने फूलों से सजा दिया था. मम्मी ने कांता मेड के साथ मिल कर डाइनिंग टेबल पर न जाने कितने व्यंजनों की लाइन लगा दी थी जिन के मसालों की महक से किचन ही नहीं, पूरा घर ही महक उठा था.

अतिथियों को कोई परेशानी न हो, इस के लिए पापा ने हमारे घर के पास में ही स्थित होटल रेडिसन में उन के रुकने की व्यवस्था कर दी थी. होटल से सुबह ही तैयार हो कर प्रेरित और उस के मम्मीपापा हमारे यहां आ गए थे.

चायनाश्ते के बाद मेरी गोदभराई की रस्म के तहत प्रेरित की मम्मी ने साथ लाए फल, मिठाई और कपड़ों के साथसाथ शगुन के नाम पर एक सोने की चेन मेरे गले में डाल दी थी. लंच के बाद जब सब लोग हंसीखुशी के माहौल में बातचीत कर रहे थे तभी प्रेरित की मम्मी मेरे मांपापा की ओर मुखातिब हो कर बोलीं, ‘आप लोग बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकती हूं?’

ख्वाब पूरे हुए : भाग 1 – नकुल की शादी से क्यों घर वाले नाराज थे?

“मन्नो, मन्नो.”

“हां, बोलो.”

“फुरसत मिल गई अपने काम से…? या अभी भी पिज्जा डिलीवरी के लिए और जाना है?”

“मन्नो, सुनो तो. यों मुझ पर गुस्सा तो मत करो प्लीज.”

“गुस्सा न करूं तो क्या करूं? रोजाना आधी रात के बाद घर लौटते हो. कभी सोचा है, आधी रात तक का मेरा वक्त कैसे बीतता है अकेले बिस्तर पर करवटें बदलतेबदलते?”

“सब समझता हूं मन्नो, लेकिन मैं करूं तो क्या करूं? घर बैठ जाऊं? पिछले महीने घर बैठा तो था. याद है या भूल गई? दो वक्त की रोटियों तक के लाले पड़ गए थे. इतनी मुश्किल से तो यह नौकरी मिली है. अब इसे भी छोड़ दूं?”

“दूसरी नौकरी तलाशोगे तब तो मिलेगी. तुम्हारी यह आधीआधी रात तक की नौकरी मुझे तो फूटी आंख नहीं सुहाती. दिनदिन की नौकरी करो ना, भलेमानसों की तरह. मैं भी तो नौकरी करती हूं. शाम को 7 बजतेबजते लौट आती हूं कि नहीं? अरे ढूंढ़ोगे तब तो मिलेगी न नौकरी. यों हाथ पर हाथ धर कर तो मिलने से रही नई नौकरी.”

“तो तुम्हारा मतलब है कि मैं हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहता हूं? बस, बस, अपनी नौकरी को ले कर ज्यादा उड़ो मत. तुम चाहती हो कि तुम्हारी इस 10,000 रुपए की नौकरी के दम पर मैं अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ दूं और फिर से सड़कों की खाक छानूं?”

“मेरी 10,000 रुपए की नौकरी तुम्हारी इस फूड डिलीवरी की नौकरी से लाख गुना बेहतर है. कम से कम समय पर घर तो आ जाती हूं मैं.”

“अब कितनी बार आधी रात घर लौटने को ले कर ताने सुनाओगी. बस भी करो यार. अपना स्यापा बंद भी करो. न चैन से खुद रहती हो और न ही मुझे रहने देती हो. जिंदगी नरक बन कर रह गई है.”

“नरक बनी है तुम्हारी करनी से. मेरा उस से क्या लेनादेना? शादी की थी यह सोच कर कि अकेले से दुकेले होंगे तो जिंदगी में सुकून आएगा.

लेकिन यहां तो तुम उलटी ही गंगा बहा रहे हो. बताना जरा, शादी के बाद क्या सुख दिया तुम ने सिवा कंगाली और अकेलेपन के?”

“मैं ने सुख नहीं दिया तो ढूंढ़ लेती कोई रईस आसामी, जो घर बैठाबैठा तुम्हारे सौसौ नखरे उठाता,” भीषण गुस्से से उबलते हुए अपने हाथ में थमा गजरा जमीन पर फेंकते हुए नकुल पत्नी मन्नो पर गरजा और करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा.

उधर मन्नो भी पति नकुल के आज पहली शादी की वर्षगांठ पर भी आधी रात के बाद घर लौटने को ले कर बेहद गुस्सा थी. अंतस का क्रोध आंखों की राह बह रहा था. मन में खयालों की उठापटक जारी थी.

आंखें मूंद कर सोने का असफल प्रयास करतेकरते मनपंछी कब अतीत के सायों में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

उस ने एक छोटे से शहर में सफाई कर्मचारी मातापिता के घर में जन्म लिया था. बचपन से ही मातापिता दोनों शहर के एक अपार्टमैंट के प्रांगण को बुहारने का काम करते. वह बचपन से ही एक परिष्कृत रुचि संपन्न लड़की थी. जैसेजैसे उम्र के पायदान पर चढ़ रही थी, मातापिता के सफाई के काम को ओछी नजर से देखती. बेहद संवेदनशील स्वभाव की थी वह. बचपन में जब भी सहेलियां आपस में अपने मातापिता, उन के कामकाज की बातें करतीं, मातापिता का सफाई कर्मचारी के तौर पर परिचय देने पर उन की नजरों में आए बदलाव को भांप जाती और इसे ले कर मन ही मन घुलती. 5वीं-6ठी कक्षा में आतेआते उस की कोई हमउम्र सहेली नहीं बची थी, जिस के साथ वह मन की बातें साझा कर पाती. यहां तक कि उसे अपने घर से लाया टिफिन भी अकेले ही खाना पड़ता. कोई भी सखी ऐसी न थी, जो उस के साथ खाना पसंद करती.
वक्त का कारवां कब रुका है? देखतेदेखते वह 11वीं कक्षा में आ पहुंची. तभी उस की नजरें अपनी ही कक्षा के एक सहपाठी नकुल से भिड़ीं. नकुल को पतलीदुबली, दोनों गालों पर डिंपल वाली, बड़ीबड़ी सीपीनुमा आंखों वाली, उदास सी अपनेआप में खोईखोई क्लास में पीछे अकेली बैठी मन्नो बहुत अच्छी लगती. ख्वाबोंखयालों की उम्र में वक्त के साथ दोनों ही एकदूसरे को दिल दे बैठे और अकसर दोनों स्कूल में एकसाथ देखे जाते.

बरसों से कक्षा की सहेलियों की उपेक्षा से व्यथित मन्नो को जैसे जीवनदान मिला. समय के साथ नकुल से उस की नजदीकियां बढ़ीं और दोनों एकसाथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे.दोनों ही बेहद भावुक स्वभाव के थे. सो, अब एकदूसरे से अलगअलग रहना दोनों को ही रास नहीं आ रहा था.

दोनों ने अपनेअपने घरों में एकदूसरे से विवाह की बात छेड़ी, लेकिन दोनों को ही इस शादी को ले कर जातिभेद की वजह से अपनेअपने मातापिता का सख्त प्रतिरोध सहना पड़ा.

दोनों के मातापिता ने उन के विवाह संबंध से साफसाफ इनकार कर दिया.

करेला और नीम चढ़ा, कच्ची उम्र और प्यार का जुनून, दोनों ने घर से भाग कर शादी करने का फैसला किया, लेकिन भूल गए कि जिंदा रहने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत होती है.

दोनों मन्नो और नकुल ने 12वीं की बोर्ड परीक्षा के बाद अपने घनिष्ठ दोस्तों के उकसाने पर आर्य समाज मंदिर में उन की मौजूदगी में एकदूसरे से ब्याह रचा लिया. नकुल ने अपनी मां को पहले से ही बता रखा था कि वह एक लड़की से प्यार करता है. उसे अपनी मां पर, उन के प्यार पर अटूट भरोसा था कि वह हर हाल में मन्नो को अपनी बहू के तौर पर अपना लेंगे. नकुल सोच ही न पाया कि उस के मातापिता उस से कमतर जाति की सफाई कर्मचारी मातापिता की संतान को अपनी बहू के रूप में हरगिज नहीं स्वीकारेंगे.

विवाह के बाद जब नकुल अपनी नवोढ़ा दुलहन को रोजमर्रा के कपड़ों में सिंदूर से भरी मांग के साथ पिता के घर की दहलीज पर पहुंचा, उस की मां और पिता ने उन दोनों के मुंह पर यह कहते हुए धड़ाम से दरवाजा बंद कर दिया कि, “हमारे घर में लोगों का मैला साफ करने वालों की लड़की के लिए कोई जगह नहीं.”

नकुल ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की कि वे मात्र एक आवासीय कालोनी के प्रांगण को बुहारने का काम करते हैं, मैला साफ करने का नहीं, लेकिन बेटे की इस नाफरमानी से बुरी तरह से रुष्ट पिता ने उन से अपने सारे रिश्ते तोड़ने की कसमें खाते हुए उन दोनों को अपने घर में घुसने तक की इजाजत नहीं दी.

दोनों पतिपत्नी उन के घर की ड्योढ़ी पर घंटों बैठेबैठे उन से दरवाजा खोलने की गुहार करते रहे, लेकिन पिता का मन नहीं पसीजा और थकहार कर नकुल मन्नो को अपने निस्संतान मामामामी के यहां ले गया, जिन का उस पर विशेष स्नेह था. मन्नो के मातापिता ने भी बेटी के इस निरंकुश आचरण से क्षुब्ध हो उस से सारे रिश्ते तोड़ लिए थे.

मामामामी के यहां वे दोनों करीब महीनेभर रहे. महीना बीततेबीतते मामामामी के व्यवहार में भी तुर्शी आने लगी और दोनों को ही एहसास हुआ कि अब अपनी लड़ाई लड़ने का वक्त आ गया है. सो, दोनों अपने लिए काम की तलाश करने लगे.

जानें क्यों लगती है बार बार भूख ?

भूख लगी है खाना लाओ, भूख लगी है खाना लाओ, क्या आपका पेट भी बार बार यही बात कहता है. अगर हां तो हो जाओ सावधान क्योंकि ये संकेत है आपके अंदर पल रही बीमारी का जैसे हाइपोग्लैकैमिया, डीहाइड्रेशन, ब्लड शुगर में  बदलाव, माइग्रेन जैसी बीमारी के शिकार भी हो सकते है.

कभी कभी हम अधिक तनाव में होते हैं तो भी हमें अधिक भूख लगती है क्योंकि जब आप ज्यादा तनाव में होते हैं तो कोर्टिसोल नाम का हार्मोन शरीर में बनना शुरू हो जाता है. जिस कारण अधिक भूख लगती है. इसके आलावा ज्यादा भूख लगने के कई और कारण भी हैं. इसके कारणों को पहचाने की बजाय कुछ लोग ओवर ईटिंग करने लगते हैं जिससे पाचन तंत्र कमजोर होने लगता है. अगर आपको भी खाना खाने के बाद पेट खाली लगता है तो इस समस्या को नजरअंदाज न करें.

अधिक भूख लगने के कारण

  • पोषक तत्वों की कमी

जब हमारे शरीर को भरपूर मात्रा में पोषण नहीं मिलता तब हमें ऐसा खाने की इच्छा होती है, जिसे खाने से हमें तुरंत एनर्जी मिल जाये. और जब तक वह कमी पूरी नहीं होती तब तक हमें बार बार भूख लगती रहती है.

प्रोटीन और फाइबर की कमी भोजन में प्रोटीन और फाइबर की मात्रा सही होनी चाहिए. खाने में इनकी कमी से व्यक्ति का पेट नहीं भरता और हर समय भूखे होने का अहसास होता रहता है. प्रोटीन और फाइबर युक्त भोजन खाने से पेट भरा- भरा लगाता है.

  • पानी की कमी के कारण

कुछ लोगों को कम पानी पीने की आदत होती है. जिस कारण उनके बाल और त्वचा पर गलत प्रभाव पड़ता है और बौडी डिहाईड्रेट हो जाती है और बार बार भूख लगती है. यह समस्या सर्दियों में अधिक होती है. इसके कारण हमारी त्वचा व बाल खुश्क होने लगते है.

  • हाइपोग्लैकैमिया

इसमें शरीर में ब्लड शुगर का लेवल कम हो जाता है जिसकी वजह से भूख ज्यादा लगती है ताकि शरीर उस खाने को ऊर्जा में परिवर्तित कर सके.

  •  कैलोरी की कमी

शरीर को कार्य करने के लिए संपूर्ण आहार की आवश्यकता होती है. कम कैलरी वाले भोजन का सेवन करने से ज्यादा भूख लगती है. हर पल ऐसा  लगता है जैसे खाना नहीं खाया. इस समस्या से राहत पाने के लिए कैलरी से भरपूर भोजन खाएं.

  • हाइपोथाइरौयडिज्म

थाइरौयड की वजह से शरीर में हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है जिस कारण लगातार भूख लगने लगती है और यह समस्या  हाइपोथाइरौयडिज्म भी हो सकता है.

कैसे करें बचाव

नट्स : जब भूख लगे तो नट्स खा  सकते है लेकिन बिना नमक के जैसे काजू, बदाम, अखरोट या मूंगफली इन्हें खाने से जल्दी भूख भी नहीं लगती और शरीर को भरपूर पोषण मिलता है.

सेब खाएं : सेब में भरपूर फाइबर और  जल की मात्रा होती है . सेब के छिलकों में पेक्टिन पाया जाता है, जो भूख को कम करने में मदद करता है.इसके सेवन से लबे समय तक भूख नहीं लगती.

अगर आपकी भूख पर कंट्रोल नहीं हो पा रहा है तो जरूरी है की गैस्ट्रो डौक्टर से इलाज कराएं क्योंकि यह समस्या आपको मोटापे का शिकार भी बना सकती है और साथ ही आप कई ऐसी बीमारियों घिर सकते हैं जिनका इलाज जल्दी से नहीं हो पाता.

सर्दियों में हाथ-पैरों को मुलायम रखने के लिए क्या करें ?

सवाल

सर्दी के मौसम की शुरुआत हो चुकी है. ऐसे में मेरे हाथ और पैर दोनों ही काफी रुखे-रुखे रहते हैं. मौइश्चराइजर लगाने के बाद भी ये सामान्य नहीं दिखते. इसलिए मुझे कोई उपाय बताइए, जिससे ये नर्ममुलायम बने रहें.

जवाब

हाथों और पैरों की स्किन में कोई औयल ग्लैंड्स नहीं होने के कारण इन्हें औयल देना पड़ता है. अत: इन्हें मुलायम और चिकना बनाए रखने के लिए इन्हें धोने के बाद हमेशा कोई थिक क्रीम लगाएं. यह आप की त्वचा में नमी बनाए रखने में मदद करेगी.

आप हाथपैर धोने के लिए कौन सा साबुन इस्तेमाल करती हैं इस पर भी ध्यान दें. ज्यादातर साबुन त्वचा को रूखा बना देते हैं, इसलिए लिक्विड सोप ही बेहतर है.

रात को सोने से पहले ब्रैंडेड मौइश्चराइजिंग क्रीम लगा कर सोना बेहतर रहेगा. आहार पर ध्यान दें और खूब पानी पीएं.

आरोही : विज्ञान पर भरोसा करती एक डॉक्टर की कहानी – भाग 1

शाम को 5 बजे थे, आज अविरल औफिस से जल्दी आ गए थे तो पतिपत्नी दोनों बैठ कर कौफी पी रहे थे. तभी अविरल ने कहा,‘’आरोही, अगले महीने 5 दिनों की छुट्टी है, चलो कश्मीर चलते हैं. एक दिन डल लेक में सैर करेंगे. बचपन से ही मुझे स्नो फौल देखने की बहुत बड़ी तमन्ना है. मैं ने वेदर फोरकास्ट में देखा था, श्रीनगर में स्नोफौल बता रहा है,” वह उम्मीदभरी नजरों से पत्नी के चेहरे की ओर देख रहा था.

आरोही आदतन अपने मोबाइल पर नजरें लगाए कुछ देख रही थी. अविरल आईटी की मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर हैं. उन की औफिस की व्यस्तता लगातार बनी रहती थी.

पत्नी डा. आरोही सर्जन है. वह एक बङे हौस्पिटल में डाक्टर है. उस ने अपने घर पर भी क्लीनिक खोल रखा है. इसलिए यहां भी मरीज आते रहते हैं. दोनों पतिपत्नी अपनीअपनी दिनचर्या में बहुत बिजी रहते हैं.

वह धीरे से बुदबुदाई,”क्या तुम कुछ कह रहे थे?”

“आरोही, तुम्हें भी सर्जरी से ब्रेक की जरूरत है और मैं भी 2-4 दिनों का ब्रेक चाहता हूं. इसलिए मैं ने पहले ही टिकट और होटल में बुकिंग करवा ली है.”

वह पति की बात को समझने की कोशिश कर रही थी क्योंकि उस समय उस का ध्यान अपने फोन पर था.

“आजकल लगता है कि लोग छुट्टियों से पहले से ही प्लानिंग कर के रखते हैं. बड़ी मुश्किल सेरैडिसन में रूम मिल पाया. एअरलाइंस तो छुट्टी के समय टिकट का 4 गुना दाम बढ़ा देते हैं…” अविरल बोल रहे थे.

“कहां की बुकिंग की बात कर रहे हो?

“तुम से तो बात करने के लिए लगता है कि कुछ दिनों के बाद मुझे भी पहले अपौइटमैंट लेना पड़ेगा,” वे रोषभरे स्वर में बोले.

फिर तल्खी भरी आवाज में बोले, “श्रीनगर…”

“श्रीनगर, वह भी दिसंबर में… न बाबा न… मेरी तो कुल्फी दिल्ली में ही जमी रहती थी और तुम कश्मीर की बात कर रहे हो…”

“’तुम्हारे साथ तो कभी कोई छुट्टी का प्लान करना ही मुश्किल रहता है… कहीं लंबा जाने का सोच ही नहीं सकते.”

अविरल के मुंह से श्रीनगर का नाम सुनते ही आरोही का मूड औफ हो गया था,”जब तुम जानते हो कि पहाड़ों पर जाने से मेरी तबियत खराब हो जाती है फिर भी तुम हिल्स पर ही जाने का प्रोग्राम बनाते हो. तुम्हें मेरी इच्छा से कोई मतलब ही नहीं रहता. मैं ने कितनी बार तुम से कहा है कि मुझे महाबलीपुरम जाना है. समुद्र के किनारे लहरों का शोर, उन का अनवरत संघर्ष देख कर मुझे जीवन जीने की ऊर्जा सी मिलती है. लहरों का गरजन मुझे बहुत आकर्षित करता है.”

“हद करती हो… रहती मुंबई में हो और सी बीच के लिए महाबलीपुरम जाना है?”

“तुम्हें कुछ पता भी है? यह शहर तमिलनाडु के सब से सुंदर और लोकप्रिय शहरों में गिना जाता है. यहां 7वीं और 8वीं शताब्दी में पल्लववंश के राजाओं ने द्रविड़शैली के नक्काशीदार अद्भुत भवन बनवाए थे, वह तुम्हें दिखाना चाहती हूं.”

“मुझ से बिना पूछे तुम ने क्यों बुकिंग करवाई जबकि तुम्हें मालूम है कि मुझे पहाड़ों पर जाना पसंद ही नहीं.”

“क्या तुम ने कसम खा रखी है कि तुम वहीं का प्रोग्राम बनाओगे जहां मुझे जाने में परेशानी होने वाली है?”

उन दोनों की शादी के 3 साल हो चुके थे. दोनों की पसंद बिलकुल अलगअलग है. इसी वजह से आपस में अकसर नोकझोंक हो जाया करती थी और फिर दोनों के बीच आपस में कुछ दिनों तक के लिए बोलचाल बंद हो जाती थी.

आरोही ने गाड़ी की चाबी उठाई और बोली,”अब बंद करो इस टौपिक को… कहीं नहीं जाएंगे… आओ, बाहर मौसम कितना सुहावना हो रहा है…चलते हैं, कहीं आइसक्रीम खा कर आते हैं. थोड़ा ठंडी हवा में बैठेंगे, आज के औपरेशन ने मुझे बिलकुल थका कर रख दिया है.”

अविरल ने साफ मना कर दिया, “मुझे तुम्हारी तरह भटकना पसंद नहीं.”

लगभग 15 दिनों तक दोनों के बीच बोलचाल बंद रही थी. एक दिन यों ही समझौता करने के लिए वह पति से कहने लगी,” अविरल, हमारे यहां लोग सर्जरी से बचने के लिए बाबाओं और हकीमों के पास चक्कर काटते रहते हैं और जब बीमारी बढ़ कर लाइलाज हो जाती है, तो डाक्टर से बारबार पूछते हैं कि डाक्टर यह ठीक तो हो जाएंगे न? पत्नी, बेटे के चेहरे की मायूसी देख कर मेरा दिल दुख जाता है. अवि प्लीज, थिऐटर में अमोल पालेकर का ड्रामा है. मैं ने औनलाइन टिकट बुक कर लिए हैं. रात में 8 से 10 तक का समय है.”

“मेरी तो जरूरी मीटिंग है.”

“उफ, अविरल तुम कितने बदल गए हो, पहले मेरे साथ आइसक्रीम पार्लर भी उछलतेकूदते चल देते थे. अब तो जहां कहीं भी चलने को कहती हूं, तो तुरंत मना कर देते हो.”

सुगंध : धन दौलत के घमंड में डूबे लड़के की कहानी – भाग 1

अपने दोस्त राजीव चोपड़ा को दिल का दौरा पड़ने की खबर सुन कर मेरे मन में पहला विचार उभरा कि अपनी जिंदगी में हमेशा अव्वल आने की दौड़ में बेतहाशा भाग रहा मेरा यार आखिर जबरदस्त ठोकर खा ही गया.

रात को क्लिनिक कुछ जल्दी बंद कर के मैं उस से मिलने नर्सिंग होम पहुंच गया. ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर से यह जान कर कि वह खतरे से बाहर है, मेरे दिल ने बड़ी राहत महसूस की थी.

मुझे देख कर चोपड़ा मुसकराया और छेड़ता हुआ बोला, ‘‘अच्छा किया जो मुझ से मिलने आ गया पर तुझे तो इस मुलाकात की कोई फीस नहीं दूंगा, डाक्टर.’’

‘‘लगता है खूब चूना लगा रहे हैं मेरे करोड़पति यार को ये नर्सिंग होम वाले,’’ मैं ने उस का हाथ प्यार से थामा और पास पड़े स्टूल पर बैठ गया.

‘‘इस नर्सिंग होम के मालिक डाक्टर जैन को यह जमीन मैं ने ही दिलाई थी. इस ने तब जो कमीशन दिया था, वह लगता है अब सूद समेत वसूल कर के रहेगा.’’

‘‘यार, कुएं से 1 बालटी पानी कम हो जाने की क्यों चिंता कर रहा है?’’

‘‘जरा सा दर्द उठा था छाती में और ये लोग 20-30 हजार का बिल कम से कम बना कर रहेंगे. पर मैं भी कम नहीं हूं. मेरी देखभाल में जरा सी कमी हुई नहीं कि मैं इन पर चढ़ जाता हूं. मुझ से सारा स्टाफ डरता है…’’

दिल का दौरा पड़ जाने के बावजूद चोपड़ा के व्यवहार में खास बदलाव नहीं आया था. वह अब भी गुस्सैल और अहंकारी इनसान ही था. अपने दिल के दौरे की चर्चा भी वह इस अंदाज में कर रहा था मानो उसे कोई मैडल मिला हो.

कुछ देर के बाद मैं ने पूछा, ‘‘नवीन और शिखा कब आए थे?’’

अपने बेटेबहू का नाम सुन कर चोपड़ा चिढ़े से अंदाज में बोला, ‘‘नवीन सुबहशाम चक्कर लगा जाता है. शिखा को मैं ने ही यहां आने से मना किया है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे, उसे देख कर मेरा ब्लड प्रेशर जो गड़बड़ा जाता है.’’

‘‘अब तो सब भुला कर उसे अपना ले, यार. गुस्सा, चिढ़, नाराजगी, नफरत और शिकायतें…ये सब दिल को नुकसान पहुंचाने वाली भावनाएं हैं.’’

‘‘ये सब छोड़…और कोई दूसरी बात कर,’’ उस की आवाज रूखी और कठोर हो गई.

कुछ पलों तक खामोश रहने के बाद मैं ने उसे याद दिलाया, ‘‘तेरे भतीजे विवेक की शादी में बस 2 सप्ताह रह गए हैं. जल्दी से ठीक हो जा मेरा हाथ बंटाने के लिए.’’

‘‘जिंदा बचा रहा तो जरूर शामिल हूंगा तेरे बेटे की शादी में,’’ यह डायलाग बोलते हुए यों तो वह मुसकरा रहा था, पर उस क्षण मैं ने उस की आंखों में डर, चिंता और दयनीयता के भाव पढ़े थे.

नर्सिंग होम से लौटते हुए रास्ते भर मैं उसी के बारे में सोचता रहा था.

हम दोनों का बचपन एक ही महल्ले में साथ गुजरा था. स्कूल में 12वीं तक की शिक्षा भी  साथ ली थी. फिर मैं मेडिकल कालिज में प्रवेश पा गया और वह बी.एससी. करने लगा.

पढ़ाई से ज्यादा उस का मन कालिज की राजनीति में लगता. विश्वविद्यालय के चुनावों में हर बार वह किसी न किसी महत्त्वपूर्ण पद पर रहा. अपनी छात्र राजनीति में दिलचस्पी के चलते उस ने एलएल.बी. भी की.

‘लोग कहते हैं कि कोई अस्पताल या कोर्ट के चक्कर में कभी न फंसे. देख, तू डाक्टर बन गया है और मैं वकील. भविष्य में मैं तुझ से ज्यादा अमीर बन कर दिखाऊंगा, डाक्टर. क्योंकि दौलत पढ़ाई के बल पर नहीं बल्कि चतुराई से कमाई जाती है,’ उस की इस तरह की डींगें मैं हमेशा सुनता आया था.

उस की वकालत ठीक नहीं चली तो वह प्रापर्टी डीलर बन गया. इस लाइन में उस ने सचमुच तगड़ी कमाई की. मैं साधारण सा जनरल प्रेक्टिशनर था. मुझ से बहुत पहले उस के पास कार और बंगला हो गए.

हमारी दोस्ती की नींव मजबूत थी इसलिए दिलों का प्यार तो बना रहा पर मिलनाजुलना काफी कम हो गया. उस का जिन लोगों के साथ उठनाबैठना था, वे सब खानेपीने वाले लोग थे. उस तरह की सोहबत को मैं ठीक नहीं मानता था और इसीलिए हम कम मिलते.

हम दोनों की शादी साथसाथ हुई और इत्तफाक से पहले बेटी और फिर बेटा भी हम दोनों के घर कुछ ही आगेपीछे जन्मे.

चोपड़ा ने 3 साल पहले अपनी बेटी की शादी एक बड़े उद्योगपति खानदान में अपनी दौलत के बल पर की. मेरी बेटी ने अपने सहयोगी डाक्टर के साथ प्रेम विवाह किया. उस की शादी में मैं ने चोपड़ा की बेटी की शादी में आए खर्चे का शायद 10वां हिस्सा ही लगाया होगा.

रुपए को अपना भगवान मानने वाले चोपड़ा का बेटा नवीन कालिज में आने तक एक बिगड़ा हुआ नौजवान बन गया था. उस की मेरे बेटे विवेक से अच्छी दोस्ती थी क्योंकि उस की मां सविता मेरी पत्नी मीनाक्षी की सब से अच्छी सहेली थी. इन दोनों नौजवानों की दोस्ती की मजबूत नींव भी बचपन में ही पड़ गई थी.

‘नवीन गलत राह पर चल रहा है,’ मेरी ऐसी सलाह पर चोपड़ा ने कभी ध्यान नहीं दिया था.

‘बाप की दौलत पर बेटा क्यों न ऐश करे? तू भी विवेक के साथ दिनरात की टोकाटाकी वाला व्यवहार मत किया कर, डाक्टर. अगर वह पढ़ाई में पिछड़ भी गया तो कोई फिक्र नहीं. उसे कोई अच्छा बिजनेस मैं शुरू करा दूंगा,’’ अपनी ऐसी दलीलों से वह मुझे खीज कर चुप हो जाने को मजबूर कर देता.

आज इस करोड़पति इनसान का इकलौता बेटा 2 कमरों के एक साधारण से किराए वाले फ्लैट में अपनी पत्नी शिखा के साथ रह रहा था. नर्सिंग होम से सीधे घर न जा कर मैं उसी के फ्लैट पर पहुंचा.

नवीन और शिखा दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे. इन दोनों ने प्रेम विवाह किया था. साधारण से घर की बेटी को चोपड़ा ने अपनी बहू बनाने से साफ मना कर दिया, तो इन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली थी.

चोपड़ा की नाराजगी को नजरअंदाज करते हुए मैं ने इन दोनों का साथ दिया था. इसी कारण ये दोनों मुझे भरपूर सम्मान देते थे.

चोपड़ा को दिल का दौरा पड़ने की चर्चा शुरू हुई, तो नवीन उत्तेजित लहजे में बोला, ‘‘चाचाजी, यह तो होना ही था.’’ रोजरोज की शराब और दौलत कमाने के जनून के चलते उन्हें दिल का दौरा कैसे न पड़ता?

‘‘और इस बीमार हालत में भी उन का घमंडी व्यवहार जरा भी नहीं बदला है. शिखा उन से मिलने पहुंची तो उसे डांट कर कमरे से बाहर निकाल दिया. उन के जैसा खुंदकी और अकड़ू इनसान शायद ही दूसरा हो.’’

‘‘बेटे, बड़ों की बातों का बुरा नहीं मानते और ऐसे कठिन समय में तो उन्हें अकेलापन मत महसूस होने दो. वह दिल का बुरा नहीं है,’’ मैं उन्हें देर तक ऐसी बातें समझाने के बाद जब वहां से उठा तो मन बड़ा भारी सा हो रहा था.

चोपड़ा ने यों तो नवीन को पूरी स्वतंत्रता से ऐश करने की छूट हमेशा दी, पर जब दोनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई तो बाप ने बेटे को दबा कर अपनी चलानी चाही थी.

नादानियां : भाग 1

प्रथमा की शादी को 3 साल हो गए हैं. कितने अरमानों से उस ने रितेश की जीवनसंगिनी बन कर इस घर में पहला कदम रखा था. रितेश से जब उस की शादी की बात चल रही थी तो वह उस की फोटो पर ही रीझ गई थी. मांपिताजी भी संतुष्ट थे क्योंकि रितेश

2 बहनों का इकलौता भाई था और दोनों बहनें शादी के बाद अपनेअपने घरपरिवार में रचीबसी थीं. सासससुर भी पढ़ेलिखे व सुलझे विचारों के थे.

शादी से पहले जब रितेश उसे फोन करता था तो उन की बातों में उस की मां यानी प्रथमा की होने वाली सास एक अहम हिस्सा होती थी. प्रथमा प्रेमभरी बातें और होने वाले पति के मुंह से खुद की तारीफ सुनने के लिए तरसती रह जाती थी और रितेश था कि बस, मां के ही गुणगान करता रहता. उसी बातचीत के आधार पर प्रथमा ने अनुमान लगा लिया था कि रितेश के जीवन में उस की मां का पहला स्थान है और उसे पति के दिल में जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

शादी के बाद हनीमून की योजना बनाते समय रितेश बारबार हरिद्वार, ऋ षिकेश, मसूरी जाने का प्लान ही बनाता रहा. आखिरी समय तक वह अपनी मम्मीपापा से साथ चलने की जिद करता रहा. प्रथमा इस नई और अनोखी जिद पर हैरान थी क्योंकि उस ने तो यही पढ़ा व सुना था कि हनीमून पर पतिपत्नी इसलिए जाते हैं ताकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त एकदूसरे के साथ बिता सकें और उन की आपसी समझ मजबूत हो. मगर यहां तो उलटी गंगा बह रही है. मां के साथ तीर्थ पर ही जाना था तो इसे हनीमून का नाम देने की क्या जरूरत है. खैर, ससुरजी ने समझदारी दिखाई और उन्हें हनीमून पर अकेले ही भेजा.

स्मार्ट और हैंडसम रितेश का फ्रैंडसर्किल बहुत बड़ा है. शाम को औफिस से घर आते ही जहां प्रथमा की इच्छा होती कि वह पति के साथ बैठ कर आने वाले कल के सपने बुने, उस के साथ घूमनेफिरने जाए, वहीं रितेश अपनी मां के साथ बैठ कर गप मारता और फिर वहां से दोस्तों के पास चला जाता. प्रथमा से जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं था. रात लगभग 9 बजे लौटने के बाद खाना खा कर वह सो जाता. हां, हर रात वह सोने से पहले प्रथमा को प्यार जरूर करता था. प्रथमा का कोमल हृदय इस बात से आहत हो उठता, उसे लगता जैसे पति ने उसे सिर्फ अपने बिस्तर में ही जगह दी है, दिल में नहीं. वह केवल उस की आवश्यकतापूर्ति का साधन मात्र है.

ऐसा नहीं है कि उस की सास पुरानी फिल्मों वाली ललिता पंवार की भूमिका में है या फिर वह रितेश को उस के पास आने से रोकती है, बल्कि वह तो स्वयं कई बार रितेश से उसे फिल्म, मेले या फिर होटल जाने के लिए कहती. रितेश उसे ले कर भी जाता है मगर उन के साथ  उस की मां यानी प्रथमा की सास जरूर होती है. प्रथमा मन मसोस कर रह जाती, मगर सास को मना भी कैसे करे. जब पति खुद चाहता है कि मां उन के साथ रहे तो फिर वह कौन होती है उन्हें टोकने वाली.

कई बार तो उसे लगता कि पति के दिल में उस का एकछत्र राज कभी नहीं हो सकता. वह उस के दिल की रानी सास के रहते तो नहीं बन सकती. उस की टीस तब और भी बढ़ जाती है जब उस की बहन अपने पति के प्यार व दीवानगी के किस्से बढ़ाचढ़ा कर उसे बताती कि कैसे उस के पति अपनी मां को चकमा दे कर और बहाने बना कर उसे फिल्म दिखाने ले जाते हैं, कैसे वे दोनों चांदनी रातों में सड़कों पर आवारगी करते घूमते हैं और चाटपकौड़ी, आइसक्रीम का मजा लेते हैं. प्रथमा सिर्फ आह भर कर रह जाती.

हां, उस के ससुर उस के दर्द को समझने लगे थे और कभी बेकार में चाय बनवा कर, पास बैठा कर इधरउधर की बातें करते तो कभी टीवी पर आ रही फिल्म को देखने के लिए उस से अनुरोध करते.

दिन गुजरते रहे, वह सब्र करती रही. लेकिन जब बात सिर से गुजरने लगी तो उस ने एक नया फैसला कर लिया अपनी जीवनशैली को बदलने का.

प्रथमा को मालूम था कि राकेश मेहरा यानी उस के ससुरजी को चाय के साथ प्याज के पकौड़े बहुत पसंद हैं, हर रोज वह शाम की चाय के साथ रितेश की पसंद के दूसरे स्नैक्स बनाती रही है और कभीकभी रितेश के कहने पर सासूमां की पसंद के भी. मगर आज उस ने प्याज के पकौड़े बनाए. पकौड़े देखते ही राकेश के चेहरे पर लुभावनी सी मुसकान तैर गई.

प्रथमा ने आज पहली बार गौर से अपने ससुरजी को देखा. राकेश की उम्र लगभग 55 वर्ष थी, मगर दिखने में बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व है उन का. रितेश अपने पापा पर ही गया है, यह सोच कर प्रथमा के दिल में गुदगुदी सी हो गई.

राकेश ने जीभर कर पकौड़ों की तारीफ की और प्रथमा से बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मोगाम्बो खुश हुआ. अपनी एक इच्छा बताओ, बच्ची. कहो, क्या चाहती हो?’’

वो जलता है मुझ से : विजय को तकलीफ क्यों होने लगी थी ? – भाग 1

‘‘सुपीरियरिटी कांप्लेक्स जैसी कोई भी भावना नहीं होती. वास्तव में जो इनसान इनफीरियरिटी कांप्लेक्स से पीडि़त है उसी को सुपीरियरिटी कांप्लेक्स भी होता है. अंदर से वह हीनभावना को ही दबा रहा होता है और यही दिखाने के लिए कि उसे हीनभावना तंग नहीं कर रही, वह सब के सामने बड़ा होने का नाटक करता है. ‘‘उच्च और हीन ये दोनों मनोगं्रथियां अलगअलग हैं. उच्च मनोग्रंथि वाला इनसान इसी खुशफहमी में जीता है कि सारी दुनिया उसी की जूती के नीचे है. वही सब से श्रेष्ठ है, वही देता है तो सामने वाले का पेट भरता है. वह सोचता है कि यह आकाश उसी के सिर का सहारा ले कर टिका है और वह सहारा छीन ले तो शायद धरती ही रसातल में चली जाए. किसी को अपने बराबर खड़ा देख उसे आग लग जाती है. इसे कहते हैं उच्च मनोगं्रथि यानी सुपीरियरिटी कांप्लेक्स.

‘‘इस में भला हीन मनोगं्रथि कहां है. जैसे 2 शब्द हैं न, खुशफहमी और गलतफहमी. दोनों का मतलब एक हो कर भी एक नहीं है. खुशफहमी का अर्थ होता है बेकार ही किसी भावना में खुश रहना, मिथ्या भ्रम पालना और उसी को सच मान कर उसी में मगन रहना जबकि गलतफहमी में इनसान खुश भी रह सकता है और दुखी भी.’’ ‘‘तुम्हारी बातें बड़ी विचित्र होती हैं जो मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती हैं. सच पूछो तो आज तक मैं समझ ही नहीं पाया कि तुम कहना क्या चाहते हो.’’

‘‘कुछ भी खास नहीं. तुम अपने मित्र के बारे में बता रहे थे न. 20 साल पहले तुम पड़ोसी थे. साथसाथ कालिज जाते थे सो अच्छा प्यार था तुम दोनों में. पढ़ाई के बाद तुम पिता के साथ उन के व्यवसाय से जुड़ गए और अच्छेखासे अमीर आदमी बन गए. पिता की जमा पूंजी से जमीन खरीदी और बैंक से खूब सारा लोन ले कर यह आलीशान कोठी बना ली. ‘‘उधर 20 साल में तुम्हारे मित्र ने अपनी नौकरी में ही अच्छी इज्जत पा ली, उच्च पद तक पहुंच गया और संयोग से इसी शहर में स्थानांतरित हो कर आ गया. अपने आफिस के ही दिए गए छोटे से घर में रहता है. तुम से बहुत प्यार भी करता है और इन 20 सालों में वह जब भी इस शहर में आता रहा तुम से मिलता रहा. तुम्हारे हर सुखदुख में उस ने तुम से संपर्क रखा. हां, यह अलग बात है कि तुम कभी ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि आज की ही तरह तुम सदा व्यस्त रहे. अब जब वह इस शहर में पुन: आ गया है, तुम से मिलनेजुलने लगा है तो सहसा तुम्हें लगने लगा है कि उस का स्तर तुम्हारे स्तर से नीचा है, वह तुम्हारे बराबर नहीं है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है.’’ ‘‘ऐसा ही है. अगर ऐसा न होता तो उस के बारबार बुलाने पर भी क्या तुम उस के घर नहीं जाते? ऐसा तो नहीं कि तुम कहीं आतेजाते ही नहीं हो. 4-5 तो किटी पार्टीज हैं जिन में तुम जाते हो. लेकिन वह जब भी बुलाता है तुम काम का बहाना बना देते हो.

‘‘साल भर हो गया है उसे इस शहर में आए. क्या एक दिन भी तुम उस के घर पर पहले जितनी तड़प और ललक लिए गए हो जितनी तड़प और ललक लिए वह तुम्हारे घर आता रहता था और अभी तक आता रहा? तुम्हारा मन किया दोस्तों से मिलने का तो तुम ने एक पार्टी का आयोजन कर लिया. सब को बुला लिया, उसे भी बुला लिया. वह भी हर बार आता रहा. जबजब तुम ने चाहा और जिस दिन उस ने कहा आओ, थोड़ी देर बैठ कर पुरानी यादें ताजा करें तो तुम ने बड़ी ठसक से मना कर दिया. धीरेधीरे उस ने तुम से पल्ला झाड़ लिया. तुम्हारी समस्या जब यह है कि तुम ने अपने बेटे के जन्मदिन पर उसे बुलाया और पहली बार उस ने कह दिया कि बच्चों के जन्मदिन पर भला उस का क्या काम?’’ ‘‘मुझे बहुत तकलीफ हो रही है राघव…वह मेरा बड़ा प्यारा मित्र था और उसी ने साफसाफ इनकार कर दिया. वह तो ऐसा नहीं था.’’

‘‘तो क्या अब तुम वही रह गए हो? तुम भी तो यही सोच रहे हो न कि वह तुम्हारी सुखसुविधा से जलता है तभी तुम्हारे घर पर आने से कतरा गया. सच तो यह है कि तुम उसे अपने घर अपनी अमीरी दिखाने को बुलाते रहे हो, अचेतन में तुम्हारा अहम संतुष्ट होता है उसे अपने घर पर बुला कर. तुम उस के सामने यह प्रमाणित करना चाहते हो कि देखो, आज तुम कहां हो और मैं कहां हूं जबकि हम दोनों साथसाथ चले थे.’’ ‘‘नहीं तो…ऐसा तो नहीं सोचता मैं.’’

‘‘कम से कम मेरे सामने तो सच बोलो. मैं तुम्हारे इस दोस्त से तुम्हारे ही घर पर मिल चुका हूं. जब वह पहली बार तुम से मिलने आया था. तुम ने घूमघूम कर अपना महल उसे दिखाया था और उस के चेहरे पर भी तुम्हारा घर देखते हुए बड़ा संतोष झलक रहा था और तुम कहते हो वह जलता है तुम्हारा वैभव देख कर. तुम्हारे चेहरे पर भी तब कोई ऐसा ही दंभ था…मैं बराबर देख रहा था. उस ने कहा था, ‘भई वाह, मेरा घर तो बहुत सुंदर और आलीशान है. दिल चाह रहा है यहीं क्यों न आ जाऊं…क्या जरूरत है आफिस के घर में रहने की.’ ‘‘तब उस ने यह सब जलन में नहीं कहा था, अपना घर कहा था तुम्हारे घर को. तुम्हारे बच्चों के जन्मदिन पर भागा चला आता था और आज उसी ने मना कर दिया. उस ने भी पल्ला खींचना शुरू कर दिया, आखिर क्यों. हीन ग्रंथि क्या उस में है? अरे, तुम व्यस्त रहते हो इसलिए उस के घर तक नहीं जाते और वह क्या बेकार है जो अपने आफिस में से समय निकाल कर भी चला आता है. प्यार करता था तभी तो आता था. क्या एक कप चाय और समोसा खाने चला आता था?

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