नारी मुक्ति की मुहिम में महिला उत्पीड़न पर आग उगलने वालों की आज एक फौज सी खड़ी हो गई है. नारी मुक्ति के सही माने समझे बिना यह फौज नारी मुक्ति के वास्तविक उद्देश्य से भटक गई है. पत्रपत्रिकाओं में नारी मुक्ति पर आजकल जो लिखा जा रहा है और प्रचारकों द्वारा जो कहा जा रहा है उसे पढ़ और सुन कर लगता है जैसे नारी को पुरुष से लड़ने के लिए तैयार किया जा रहा हो. 

महिला उत्पीड़न पर लिखने और आग उगलने वालों की एक फौज सी खड़ी हो गई है. नारी विमर्श नामक एक नई लेखन विधा भी पैदा हो गई है. उपन्यास और कहानियां छप रही हैं, समाचारपत्रों में स्तंभ छप रहे हैं. इन में नारी मुक्ति को समझने की चेष्टा कम, पुरुष पर आक्रमण करने का हठ अधिक होता है. नारी मुक्ति का अर्थ होता जा रहा है, पुरुष से टक्कर लेने की ताकत. इस से स्त्रीपुरुष एकदूसरे को संदेह की नजर से देखने और अपना वैवाहिक जीवन खराब करने पर उतारू हो रहे हैं.

नारी देह के दुरुपयोग का सवाल भी बारबार उठ रहा है. इस पर लिखने वालों को लिखने का मसाला तो मिलता है पर गलतफहमियां भी पैदा हो रही हैं. जो बलात्कारी है, जो देह व्यापार करता है, उस के खिलाफ रिपोर्ट करने पर उसे दंडित किया जाता है. बहुत सी घटनाओं की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं होती है, पर इस का अर्थ यह नहीं कि समाज में नारी पूरी तरह असुरक्षित और पुरुष की दासी है.

सच पूछें तो नारी जितनी सुरक्षित हमारे संस्कारों के चलते हमारे परिवारों में है उतनी आजाद और सुरक्षित किसी अन्य देश में नहीं है. विवाह होते ही वह घर की मालकिन बन जाती है, और प्रतीक की भाषा में बोलें तो उसे घर की चाबी भी थमा दी जाती है. इस पर कोई कहे कि यह तो पुरुष की चालाकी है तो यह तो बस एक फेर है समझ का.

वास्तविक मुक्ति

इसी के चलते आज हमें नारी की आजादी का मतलब यह समझाया जा रहा है कि मर्द से मुकाबला करो, मर्द जैसी हो जाओ, मर्द की नाक काटो और मर्द से वे सारे काम कराओ जो तुम खुद करती हो. आज का पढ़ालिखा और संवेदनशील पुरुष अपनी पत्नी के काम में अब कितना हाथ बंटाने लगा है, इस परिवर्तन की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाती है.

मुक्ति के नाम पर आज नारी को अपने कर्तव्य से भटकाने वाली बातें बहुत की जा रही हैं. उस की समस्या को ठीकठीक समझने की कोशिश बहुत कम हो रही है. उस के अधिकार के बचाव का प्रयास भी कम ही हो रहा है. मुक्ति का पूरा आंदोलन एक नारा बन कर रह गया है. उस के प्राकृतिक, स्वाभाविक गुणों की अनदेखी कर पुरुष से लोहा लेने की बात कही जा रही है. उसे यह क्यों नहीं समझाया जा रहा है कि आर्थिक आजादी में ही उस की वास्तविक मुक्ति है और वह यह अच्छी शिक्षा से ही प्राप्त कर सकती है.

आज की जो उपन्यास लेखिकाएं स्त्री स्वतंत्रता को अपना विषय बना कर लिख रही हैं, वह उन के निजी अनुभव पर आधारित है. ये लेखिकाएं तर्कों का जो पहाड़ पुरुष के खिलाफ खड़ा करती हैं वह स्त्री स्वतंत्रता में बाधक ही होता है. 

नारी मुक्ति के बारे में हाल ही में एक आंकड़ा छपा था. उस में कहा गया था कि भारत की करीब 93 प्रतिशत नारियां मुक्त नहीं हैं. उन्हें पुरुष के आधिपत्य में जीना पड़ता है. आंकड़ा तैयार करने वालों को यह कैसे मालूम? क्या हर नारी शोषित, पीडि़त और पुरुष की हवस का शिकार है? सच में देखा जाए तो कोई पीड़ा है तो स्त्रीपुरुष दोनों की है. आर्थिक संकट हो या कोई बड़ा रोग, वह दोनों का है.

आजकल यह कहते रहने का एक फैशन सा चल पड़ा है कि स्त्री को हम केवल एक ‘देह’ मानते हैं. इसीलिए उस के लिए हम साड़ी, कपड़े और जेवर आदि खरीदते हैं. उस के विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं का ध्यान नहीं रखते. जिन परिवारों में औरत की कोई अपनी आमदनी नहीं है उन परिवारों में यह कुछ हद तक सही हो सकता है पर इसे नारी जीवन का एक अकाट्य सत्य मानना मात्र एक हठधर्मिता है. नारी जब शराब पिए, सिगरेट पिए, मर्द की तरह ट्रक चलाए क्या तभी वह आजाद कही जाएगी?

नारी की मुक्ति के लिए लड़ने वाले अधिकतर लोग दरअसल अपना कोई सामाजिक, राजनीतिक अथवा साहित्यिक हित साध रहे हैं. किसी व्यावसायिक मकसद के लिए भी वे इस विषय को प्रमोट कर रहे हैं. इस मुहिम में नारियां ही अधिक हैं और इसे खेद का विषय माना जाना चाहिए कि वे इस में सब से बड़ी बाधा पुरुष को ही मानती हैं. आप अगर कामकाजी हैं तो इस में आप को पुरुष का प्रोत्साहन जरूर मिलना चाहिए और मिल भी रहा है. तभी आप कामकाजी हैं, पर अगर पूर्णकालिक गृहिणी हैं तो मुक्ति के नारेबाजों की चाल में पड़ कर घरगृहस्थी की अवहेलना करना मुक्ति का पर्याय बिलकुल नहीं है.

मुक्ति का सही अर्थ समझें तो महिलाओं को शिक्षा और निर्णय का पूरा अधिकार मिलना चाहिए. प्रेम का, भ्रमण का, अभिव्यक्ति का और न्याय का भी पूरा अधिकार होना चाहिए. अपने ढंग से घर चलाने, बच्चे पालने, मायके वालों से मिलने, पत्रव्यवहार करने, बेटेबेटी के लिए बहूदामाद चुनने में भी उन की इच्छा का पूरा ध्यान रखना चाहिए.

महिलाओं को उन रूढि़यों और दकियानूसी विचारों से भी मुक्त होना होगा जिन की शिकार वे सदियों से रही हैं और जिन के चलते उन का शोषण होता है. नारी मुक्ति के थोथे प्रचार से बचते हुए वे अपने चूल्हेचौके के अलावा आधुनिक जीवन के खुले माहौल को भी देखें. अपना जीवन संवारने की दिशा में वे कोई नया, सार्थक कदम उठाएं.

वे पुस्तकें और पत्रपत्रिकाएं भी नियमित रूप से पढ़ती रहें ताकि विचारों की खिड़की खुली रहे. इस से उन्हें व्यावहारिक जीवन में आने वाली समस्याओं से जूझने के रास्ते मिलेंगे. 

संपत्ति की खरीद और बिक्री से ले कर आयकर के नियमों को भी वे जानें, तो यह भी मुक्ति की एक राह होगी. दुख की बात है कि उन्हें उपभोक्ता अधिकारों और महिला आयोगों की कार्यप्रणाली के बारे में भी बहुत कम ज्ञान है. बहुत सी महिलाएं तो रेल अथवा हवाई टिकट खरीदने के लिए रिजर्वेशन फौर्म तक नहीं भर पातीं. 

निम्नवर्गीय महिलाएं, जो कम शिक्षित हैं उन्हें भी चैक काटना, ड्राफ्ट बनवाना, मनीऔर्डर फौर्म भरना आदि आना चाहिए. मुक्ति का नारा बुलंद करने वाली मुक्तिवादी नारियां और नारी मुक्ति या नारी कल्याण के लिए संघर्ष कर रहे लोग उन्हें यह सब सिखाने का प्रयास क्यों नहीं करते? वे यह सब करें तो ज्यादा बेहतर होगा.      

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