सियासी दलों ने धर्म और जाति को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ कर हमेशा से ही अपना उल्लू सीधा किया है. लेकिन हाल ही में आए एक अदालती फैसले से जातिधर्म की मजबूत होती जड़ों पर पानी फिरता दिख रहा है. क्या है यह मामला, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

अंगरेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद जब देश आजाद हुआ  तो लगा कि जाति, धर्म और छुआछूत जैसे आडंबरों व कुरीतियों से समाज मुक्त हो सकेगा. सब को समान अधिकार और आगे बढ़ने के अवसर हासिल होंगे. लेकिन राजनीतिक दलों ने बड़ी चतुराई से जाति और धर्म को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ दिया. इस के बाद तो जाति और धर्म की कुरीतियों का विरोध कम होता गया. भले ही इस के खिलाफ बोलने वालों की तादाद लगातार कम होती गई हो पर दिल्ली प्रैस प्रकाशन समूह ने अपनी पत्रिकाओं, प्रमुख रूप से ‘सरिता’ और ‘सरस सलिल’ के जरिए जाति और धर्म की मजबूत होती जड़ों पर हमला जारी रखा. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने जनहित याचिका की सुनवाई करते जाति आधारित राजनीतिक रैलियों और सम्मेलनों पर रोक लगा  दी तो साबित हो गया कि कानून भी जातीयता को कठघरे में खड़ा कर रहा है. फौरीतौर पर राजनीतिक दलों ने भले ही अदालत के फैसले का स्वागत किया हो पर अंदरखाने वे इस की काट तलाशने में जुट गए हैं.

जाति और धर्म की दीवारें इतनी ऊंची हो गई हैं कि समाज के लोग इन में बंट कर रह गए हैं. इन ऊंची दीवारों के चलते ताजी हवा नीचे तक नहीं आ पा रही है जिस से समाज की सोच में सड़ांध सी आने लगी है. आजादी के पहले बात केवल जाति और धर्म की थी अब तो जाति के अंदर उपजातियों को ले कर भी खेल शुरू हो गया है.

सब से बड़ी बात यह कि जाति और धर्म को वोटबैंक बनाने वाले उन की तरक्की की नहीं, वोट की बात करते हैं. अपने हितों के लिए लोगों को बांटते हैं. इस वजह से समाज में दंगे, लड़ाई?ागडे़ और वैमनस्यता फैलती है. जातियों के भीतर ऊंची सोच वाले लोग फैल चुके हैं. वे अपनी जाति में नए मनुवादी बन बैठे हैं. ऐसे लोग अपनी ही जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ भले ही उठाते हों पर अपनी जाति के कमजोर लोगों से वैसे ही छुआछूत वाला व्यवहार करते हैं  जैसे ऊंची जातियों के लोग करते थे. आजादी के 66 साल के बाद भी देश में जाति और धर्म कमजोर नहीं हो सका जिस के कारण अदालत को यह फैसला करना पड़ा.

जातीयता पर सवाल

लखनऊ के रहने वाले वरिष्ठ वकील मोतीलाल यादव रोजरोज की जातीय रैलियों से खफा थे. समाज के लिए सही सोच रखने वाले मोतीलाल यादव ने इन जातीय रैलियों का पूरा अध्ययन किया. उन को लगा कि प्रदेश में जाति पर आधारित राजनीतिक रैलियों की बाढ़ आ गई है. सियासत करने वाले दल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सम्मेलन कराने के लिए रैलियों पर जोर देने में जुटे हैं. उन्होंने महसूस किया कि इस से सामाजिक समरसता और एकता को नुकसान हो रहा है.

अपनी बात कहने के लिए उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल के सामने अपनी याचिका दाखिल कर मांग की कि अदालत चुनाव आयोग से ऐसी रैलियों पर रोक लगाने का आदेश दे. ऐसी राजनीतिक रैलियां करने वाले राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने के लिए भी उन की ओर से मांग की गई.  इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने वकील मोतीलाल यादव की याचिका पर सुनवाई की और अपना फैसला देते हुए जाति आधारित राजनीतिक रैलियों व सम्मेलनों पर रोक लगा दी. अदालत ने मामले के पक्षकारों, केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, निर्वाचन आयोग और 4 राजनीति दलों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को नोटिस जारी किया है.

दरअसल, हर चुनाव के पहले राजनीतिक दल जातीय सम्मेलन और रैलियां करने लगते थे. बसपा ने खासतौर पर ऐसे सम्मेलनों की भरमार कर दी. 2014 के लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए बसपा की मुखिया मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित कर अपने को ब्राह्मणों का रहनुमा साबित करने की कोशिश की.

जातीयता बनी पहचान

बसपा ने 40 जिलों में इस तरह के ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन आयोजित किए. इस के लिए पार्टी के ब्राह्मण नेताओं-सतीश चंद्र मिश्र, ब्रजेश पाठक और रामवीर उपाध्याय को जिम्मेदारी दी गई थी. इस के जवाब में समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने शुरू किए. ब्राह्मण महापुरुष परशुराम के जन्मदिन पर छुट्टी की घोषणा भी कर दी.  जातीयता ने महापुरुषों के सामाजिक कामों को तय करने का पैमाना बदल दिया. इन महापुरुषों की पहचान उन की जाति से होने लगी. जिस महापुरुष का नाम सब से बड़ा था वह उतना ही बड़ा वोटबैंक बन गया. एक तरह से देखें तो राजनीतिक दलों ने इन महापुरुषों को जाति का ब्रांड ऐंबैसेडर बना दिया. 

डा. भीमराव अंबेडकर को जब संविधान बनाने वाली सभा का अध्यक्ष बनाया गया था तब उन की जाति को नहीं काबिलीयत को आधार बनाया गया था. जब दलित वोटों की राजनीति शुरू हुई तो उन को दलित वर्ग से जोड़ कर देखा जाने लगा. इस के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल को कुर्मी बिरादरी से जोड़ दिया गया.  राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने अपना पूरा जीवन जाति के मकड़जाल से लड़ने में लगा दिया पर वोटबैंक ने उन को भी जातीय खांचे में फिट कर दिया.

वोट के लिए महापुरुषों का महिमामंडन शुरू हुआ तो उन की मूर्तिपूजा का नया दौर शुरू हो गया. छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले जैसी दलित वर्ग की हस्तियां ही नहीं, शिवाजी, परशुराम, महाराणा प्रताप, दीनदयाल उपाध्याय जैसे अगड़ी जातियों के लोगों को भी वोटबैंक से तोला जाने लगा. इन की मूर्तियां लगाई जाने लगीं व इन के नाम के पार्क बन गए. समाजवादी पार्टी ने ऐसे लोगों के नाम पर छुट्टियों की घोषणा कर के इन के नाम पर वोट पाने का रास्ता निकाल लिया. परशुराम जयंती पर छुट्टी का ऐलान  कर के ब्राह्मणों का दिल जीतने की कोशिश की. इसी तरह से सिंधी बिरादरी के लिए चेट्टीचंद जयंती, पिछड़ों के लिए विश्वकर्मा जयंती, वैश्य बिरादरी के लिए अग्रसेन जयंती, कायस्थों के लिए चित्रगुप्त जयंती और दलितों के लिए वाल्मीकि जयंती के दिन छुट्टी देने का चलन शुरू हो गया.

जिस पार्टी का वोटबैंक उस जाति के महापुरुष के लिए उपयोगी नहीं होता है उस की उपेक्षा भी इसी दौर में देखी गई. बसपा सरकार ने कांशीराम की जयंती और पुण्यतिथि पर छुट्टी घोषित की थी. समाजवादी पार्टी की सरकार के समय  इन छुट्टियों को खत्म कर दिया गया. मुसलिम बिरादरी के लिए ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर छुट्टी शुरू कर दी गई.

जातीय रंग में डूबे दल

जब जातीय राजनीति की बात होती है तो सब से पहले सपा और बसपा जैसे दलों का नाम सब से ऊपर आता है. ऐसा नहीं है कि दूसरे दल दूध के धुले हैं. भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल (युनाइटेड) और झारखंड मुक्ति मोरचा जैसे तमाम दल इस रंग में रंगे नजर आते हैं.   90 के दशक में जब अगड़ी जातियां राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुंचने लगीं तो भाजपा ने बड़ी चतुराई से लोध बिरादरी के कल्याण सिंह को आगे किया. उमा भारती को भी ऐसे ही समय पर भाजपा की मुख्यधारा में लाया गया था. यह बात और है कि काम निकल जाने के बाद ये नेता फिर हाशिए पर ढकेल दिए गए.

बसपा से भ्रष्टाचार के आरोप में निकाले गए बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगाने में भाजपा ने देरी नहीं की थी. क्षत्रियों के लिए भाजपा ने महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मीबाई का उपयोग कर उन की मूर्तियां लगवाईं. उन के नाम पर अस्पताल खोले. कांग्रेस का नारा ‘जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’ होता है. इस के बाद भी वह चुनावों में जातीय राजनीति का उपयोग करने से पीछे नहीं हटती है. सैम पित्रोदा को चुनाव के समय बढ़ई बिरादरी का बताया जाता है. मुसलिमों को रिझाने के लिए आरक्षण देने की बात भी कही जाती है.

जाति का खेल पुराना है. 70 के दशक में जब कांग्रेस 2 गुटों में बंट गई तो उस समय की कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ब्राह्मण, दलित और मुसलिम गठजोड़ तैयार किया. उस के सहारे लंबे समय तक भारतीय राजनीति में अपना सिक्का जमाए रखा. इस के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह जब कांग्रेस से अलग हुए तो जातीय राजनीति में अगड़ों के आधार को तोड़ने के लिए पिछड़ी जातियों का सहारा लिया. उस के चलते ही मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं. इस के बाद का सारा राजनीतिक खेल दलित और पिछड़ी जातियों में सिमट गया.

जातीय कार्ड को काटने के लिए भाजपा ने धर्म का कार्ड खेल दिया. इस के बाद तो सदियों से दबी पड़ी जाति और धर्म की राजनीति सतह पर आ गई. वोट के लिए राजनीतिक दलों ने इस रंग को गहरा करने की हर चाल चलनी शुरू  कर दी.

फैसले का क्या होगा असर

अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या कोर्ट के फैसले के बाद जातीयता से नजात मिल सकेगी? वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘अदालत के फैसले से जातीय सम्मेलन और जातीय रैलियां रुक जाएंगी पर राजनीति को जातीयता से नजात नहीं मिल सकेगी. राजनीतिक दल बड़ी चतुराई से इस का उपयोग ढकेछिपे रूप में करना शुरू कर देंगे.’’

वे कहते हैं, ‘‘वोट की पूरी राजनीति ही जाति पर टिकी है. हर पार्टी अपने उम्मीदवार का चयन जाति और धर्म के आधार पर करती है. जिस क्षेत्र में जिस बिरादरी के वोट ज्यादा होते हैं वहां से उस बिरादरी के उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाता है. जाति के प्रभाव को खत्म करने के लिए खुद जनता को आगे आना होगा. उसे जाति और धर्म के नाम पर वोट देना बंद करना होगा. तभी जाति का यह खेल खत्म हो सकेगा.’’  राजनीतिक दलों ने वैसे तो अदालत के फैसले का स्वागत किया पर इस फैसले में पेंच डालना भी शुरू कर दिया है.  

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