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बच्चों के मुखसे

हमारी बालकनी के निचले हिस्से में कबूतर ने अंडे दिए. उस में से बच्चे निकल आए. ये सारी प्रक्रिया मैं और मेरा 4 साल का बेटा रोज देखते और उन के बारे में बातें करते. कबूतर का वह बच्चा बड़ा होता गया. उस के छोटेछोटे पंख निकलते रहे और एक दिन वह उड़ गया. जब मेरे बेटे ने मुझ से कबूतर के बच्चे के बारे में पूछा तो मैं ने उसे बताया कि वह तो उड़ गया. तब वह बड़ी देर तक सोचते हुए बोला, ‘‘ठीक है मम्मी, जब मेरे भी पंख आ जाएंगे तो मैं भी उड़ जाऊंगा.’’ यह सुन कर मैं ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

बीना, गोल मार्केट (दिल्ली)

 

मेरा ढाई वर्षीय नाती अक्षत बहुत नटखट और हाजिरजवाब है. उसे मिट्टी खाना अच्छा लगता है. हम उसे रोकते हैं तो वह छिप कर खाने की कोशिश करता है. एक दिन वह दीवार खुरच कर खा रहा था. मुझे आते देख कर डर गया और पास की दीवार पर बैठी छिपकली को दिखा कर अपनी तोतली आवाज में कहने लगा, ‘‘नानी, मैं ने नहीं, उछ ‘छुपली’ ने मिट्टी खाई है.’’ उस की मासूम सफाई और भोली सूरत पर हम सब हंस पड़े.

निर्मला राम, पटना (बिहार)

 

एक दिन मैं अपने कमरे में बच्चों को पढ़ा रही थी. देवरानी खाना बना रही थी. सासूमां मेरी देवरानी की 3 साल की बेटी रोशनी को दुलार कर रही थीं. वे गा रही थीं : चल मेरी चक्की शानोशान, आटा पीसना मेरा काम, पीसूंगी, पिसवाऊंगी, रोटियां पकाऊंगी, भैया को खिलाऊंगी, भैया जाएगा पढ़ने, डाक्टर बन कर आएगा. इस पर रोशनी बोली, ‘‘दादीमां, मैं रोटी नहीं पकाऊंगी, बड़ी मम्मी की तरह पढ़ कर मैडमजी बनूंगी.’’ आंगन में जितने लोग थे, ठहाके लगाने लगे.

पारुल देवी, मुजफ्फरपुर (बिहार)

 

हम परिवार सहित सब टीवी पर ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ देख रहे थे. लड़कियों के साथ छेड़छाड़ के मामले में उक्त धारावाहिक फिल्माया गया था, जिस में अपराधी लड़कों को पुलिस हथकड़ी पहना कर ले जा रही थी. तभी मेरे पुत्र ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘डैडी, पुलिस ने इन के हाथ में हथकड़ी क्यों लगाई है?’’ तो मैं ने कहा, ‘‘ताकि ये भाग न सकें.’’

तभी मेरे पुत्र प्रसन्न ने कहा कि हाथ में हथकड़ी लगाने से क्या होगा. यदि इन्हें भागने से रोकना है तो पैरों में हथकड़ी लगानी चाहिए. लोग हाथ से थोड़े ही भागते हैं. उस की इस त्वरित प्रतिक्रिया को सुन कर हम सब हंसे बिना न रह सके.

आशीष जयकिशन, राजनादगांव, (छग.)

उधार

बहुत दिन से मैं ने देखी नहीं है धूप

कैसी होती है, भूल सी गई हूं

थोड़ी रोशनी उधार दे दो न तुम

 

अंधेरे तहखानों में छूट रही हैं सांसें

सीलन और उमस फैली है चारों ओर

अपनी खुशबू उधार दे दो न तुम

 

सन्नाटों ने घेरा है मुझ को

तन्हाई में घूमती हूं उदास

ये मुस्कुराहट उधार दे दो न तुम

 

परेशान हूं न जाने क्यों

पशेमां हूं अपने आप पर

थोड़ी जिंदगी उधार दे दो न तुम

 

चाहती हूं फिर लौट आए

वो जो मेरा खो गया था

मेरा बचपन उधार दे दो न तुम

 

जो तुम दोगे कोई न दे सकेगा ‘उधार’

लौटा सकूंगी तुम्हारा सबकुछ

यह जानती नहीं

 

जो भी तुम दोगे रखूंगी संभाल कर

क्या तुम दोगे बस, थोड़ा प्यार

मुझे उधार.

 – अर्चना भारद्वाज

 

शौर्टकट रोमियो

‘शौर्टकट रोमियो’ एक सुपरहिट तमिल फिल्म ‘थिरिट्टू पयाले’ की रीमेक है. तेज रफ्तार वाली इस रोमांटिक थ्रिलर फिल्म में भरपूर मसाले हैं, मारधाड़ है, सैक्स है और जानीपहचानी कहानी है. हां, अगर कुछ नया है तो केन्या सफारी मसाईमारा की खूबसूरत लोकेशंस, जिन्हें देख कर आप को थोड़ाबहुत अच्छा लग सकता है.

फिल्म की कहानी सूरज (नील नितिन मुकेश) नाम के एक नौजवान की है. वह अपने परिवार से उपेक्षित हो कर अपने मामा के पास रहने आता है. एक दिन वह एक रईस की बीवी मोनिका (अमीषा पटेल) और उस के दोस्त आशीष (जतिन ग्रेवाल) का एक अश्लील वीडियो शूट कर लेता है. वह मोनिका को ब्लैकमैल करता है. मोनिका सूरज की हर बात मान लेती है, साथ ही वह एक जाल भी बुनती है. सूरज अपने दोस्तों के साथ ऐयाशी करने के लिए केन्या जाता है जहां उस की मुलाकात शैरी (पूजा गुप्ता) से होती है. वह सूरज को अपने प्रेमजाल में फंसा कर इंडिया लौट आती है. अब शुरू होता है मोनिका और सूरज के बीच चूहेबिल्ली का खेल. इधर, मोनिका के पति को उस की पत्नी और आशीष के अवैध संबंधों की जानकारी हो जाती है. वह आशीष को जान से मार डालता है. उसे यह शक होता है कि उस की बीवी के संबंध सूरज से हैं, इसलिए वह सूरज को भी मरवा देता है.

फिल्म की कहानी में कई टर्न्स और ट्विस्ट हैं. अमीषा पटेल नैगेटिव किरदार में नहीं जमी है. नील नितिन मुकेश ने बुरा आदमी बनने का अभिनय किया है. उस ने खूब मारधाड़ भी की है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा है.   

बजाते रहो

कुछ समय पहले अक्षय कुमार की एक फिल्म रिलीज हुई थी-‘स्पैशल 26’, जिस में अक्षय कुमार अपने साथियों के साथ मिल कर नकली सीबीआई इंस्पैक्टर बन कर भ्रष्ट मंत्रियों व अफसरों के यहां रेड डाल कर करोड़ों रुपए लूट कर ले जाता है. ‘बजाते रहो’ इसी ‘स्पैशल 26’ का बैड वर्जन है. इस फिल्म में भी पब्लिक को धोखा दे कर उन से करोड़ों लूटने वाले एक शख्स की खूब बजाई गई है. माफ कीजिए, उसे लूट कर कंगाल बना दिया गया है.

‘बजाते रहो’ को कौमेडी की चाशनी में लपेट कर बनाया गया है. कहींकहीं फिल्म ‘खोसला का घोंसला’ जैसी लगती है, जिस में एक परिवार धोखा खाने के बाद बिल्डर से बदला लेता है. कैसे एक फ्रौड और चालाक आदमी भोलेभाले लोगों को कम समय में अपने रुपए दोगुने करने का लालच दे कर उन की गाढ़ी कमाई हड़प लेता है, यही इस फिल्म का विषय है. फिल्म में इस बात को कौमेडी में जरूर बताया गया है परंतु इस में तीखेपन का अभाव है. लगता है जैसे कोई कौमेडी सर्कस देख रहे हैं.

सभरवाल (रवि किशन) एक भ्रष्ट बिजनैसमैन है. अपने ही बैंक में घोटाला कर के वह अपने बैंक मैनेजर बावेजा पर इलजाम लगा देता है. सदमे में बावेजा मर जाता है. उस की पत्नी जसबीर (डौली आहलूवालिया) और बेटा सुक्खी (तुषार कपूर) अपने दोस्तों बल्लू (रणवीर शौरी) और मिंटू (विनय पाठक) के साथसाथ अपनी प्रेमिका मनप्रीत (विशाखा सिंह) के साथ मिल कर सभरवाल को बेवकूफ बना कर उस से 15 करोड़ रुपए लूटते हैं और उस पैसे को उन लोगों में बांट देते हैं जिन का पैसा डूब गया था.

फिल्म में नया तो कुछ नहीं है लेकिन फिर भी यह कुछ उत्सुकता बनाए रहती है. फिल्म में कुछ ही सीन हैं जिन में कौमेडी ?ालकती है, बाकी फिल्म तो एकदम फिल्मी है, बेवकूफियों से भरी. गनीमत है कि फिल्म की लंबाई कम है. निर्देशक ने फिल्म की गति बनाए रखी है. डौली आहलूवालिया को दर्शक ‘विक्की डोनर’ में देख चुके हैं. इस फिल्म में उस का काम प्रभावशाली है. विनय पाठक का काम भी अच्छा है. रणवीर शौरी भी ठीकठाक है. तुषार के छोेटे भाई की भूमिका में हुसैन साद का अभिनय काफी अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है परंतु एक आइटम सौंग ‘मैं नागिननागिन नाचूंगी…’ अच्छा बन पड़ा है.

इसक

विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘रोमियो जूलियट’ पर आधारित फिल्म ‘इसक’ काफी कमजोर है. निर्देशक ने  ‘इसक’ (उत्तर प्रदेश में कई जगह ‘इश्क’ को ‘इसक’ ही बोला जाता है) को बहुत ज्यादा खूनखराबे के बीच डैवलप किया है. फिल्म का क्लाइमैक्स दुखांत है. दर्शक शायद ही इसे स्वीकार कर पाएं. इस के अलावा फिल्म लंबी और सुस्त है. दर्शक फिल्म खत्म होने का बेसब्री से इंतजार करते हैं.

रोमियो जूलियट की तरह की इस फिल्म में भी मिश्रा और कश्यप 2 परिवार हैं. दोनों परिवारों को बनारस का दिखाया गया है. दोनों ही परिवार रेत के अवैध खनन का कारोबार करते हैं. इसीलिए दोनों ही परिवारों में दुश्मनी है. एक नेता अपना हित साधने के लिए दोनों के बीच सेतु का काम करता है. शहर में नक्सलियों का भी दबदबा है. इसीलिए गोलीबारी, खूनखराबा वहां आम है. इस खूनखराबे के बीच प्यार का अंकुर फूटता है. मिश्रा परिवार का राहुल (प्रतीक बब्बर) कश्यप परिवार की बच्ची (अमायरा दस्तूर) से इश्क कर बैठता है. बच्ची के मामा तीता सिंह (रवि किशन) को उन दोनों का प्यार नहीं सुहाता और वह राहुल के खून का प्यासा हो जाता है. वह राहुल को घेर कर ललकारता है परंतु राहुल उसे मार डालता है और फरार हो जाता है. फरार होने से पहले राहुल बच्ची से गुपचुप शादी कर चुका होता है. उधर, बच्ची की सौतेली मां (राजेश्वरी सचदेव) बच्ची की शादी कश्यप परिवार के एक पुलिस इंस्पैक्टर प्रीतम से तय कर देती है. प्रीतम नक्सलियों के नेता (प्रशांत नारायण) के साथ मिल कर राहुल को घेर लेता है और उसे मार डालता है. राहुल को मरा देख बच्ची खुद को गोली मार लेती है.

फिल्म की इस कहानी में रोमियो जूलियट के प्यार की गहराई नजर नहीं आती. फिल्म आम मुंबइया फिल्मों जैसी है मगर निर्देशक ने बनारस के घाटों के माहौल, वहां का रहनसहन और भाषा को विस्तार से दिखाया है. बनारस के एक घाट पर एक साधु (मकरंद देशपांडे) के हवा में ऊपर उठ जाने के दृश्य यह साबित करते हैं कि वहां के पंडे और साधु किस तरह लोगों को मूर्ख बनाते हैं. फिल्म में खूनखराबा भरा पड़ा है. इनसानी फितरतों और चालबाजियों को फिल्म में  विस्तार से दिखाया गया है.

प्रतीक बब्बर के अभिनय में पहले की अपेक्षा निखार आया है. उसे ऊंचीऊंची छतों से बालकनियों में कूदते और दीवारों पर चढ़तेउतरते दिखाया गया है. इस से वह प्रेमी कम बाजीगर ज्यादा लगता है. अमायरा दस्तूर एकदम बच्ची ही लगी है. उस में मैच्योरिटी दिखाई नहीं दी. प्रेम प्रसंगों के दौरान भी वह ठंडी रही है. रवि किशन का उग्र अभिनय चौंकाता है. सौतेली मां की भूमिका में राजेश्वरी सचदेवा ने कमाल की ऐक्टिंग की है. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है. छायांकन अच्छा है. छायाकार ने बनारस के घाटों की अच्छी फोटोग्राफी की है.

 

बुढ़ापे में शादी जरूरत सहारे की

उस समय सलोनी जायसवाल की उम्र करीब 45 साल थी. उन के पति की मृत्यु हो गई. उन्नाव की रहने वाली सलोनी के कोई संतान नहीं थी. पति के न रहने पर घरपरिवार का उपेक्षाभाव और भी ज्यादा बढ़ गया था. सलोनी को लग रहा था जैसे पति के साथ उन की खुशियां भी खत्म हो गईं. बच्चे होते तो शायद उन का सहारा मिलता.  परिवार और समाज की नजरों में विधवा किसी अभिशाप से कम नहीं होती है. उम्र के इस दौर में जीवनसाथी का साथ छूट जाना मौत से बदतर महसूस होने लगा था.

उपेक्षा के इसी भाव से दुखी सलोनी एकाकीपन का शिकार हो गईं. परिवार के लोग उन को बीमार मान कर उन से दूर रहने लगे. ऐसे में करीब 4 साल पहले सलोनी को सहारा दिया वीनस विकास संस्थान की डा. निर्मला सक्सेना ने.  वीनस विकास संस्थान लखनऊ के जानकीपुरम इलाके में एक वृद्धाश्रम चलाता है. डा. निर्मला सक्सेना को जब सलोनी की हालत का पता चला तो वे उन को अपने साथ लखनऊ ले आईं.  वृद्धाश्रम में कुछ दिनों तक अपनी ही उम्र की महिलाओं के साथ रह कर सलोनी को कुछ अच्छा महसूस होने लगा. उन की तबीयत भी मानसिक रूप से बेहतर होने लगी और वे खुश भी रहने का प्रयास करने लगीं. धीरेधीरे समय बीतने लगा. सलोनी को एक बार फिर मजबूत सहारे की तलाश होने लगी. अपने मन की बात सलोनी ने डा. निर्मला सक्सेना से कही. शुरुआत में उन की बात को सुन कर सभी को थोड़ी हंसी आई. वृद्धाश्रम में काम करने वाले दूसरे लोगों ने तो मान लिया कि सलोनी की मानसिक हालत फिर से खराब होने लगी है. इस उम्र में कहीं कोई ऐसी बात करता है. लेकिन  डा. निर्मला सक्सेना को लगा कि सलोनी की इच्छा उचित है. वे इस प्रयास में लग गईं कि सलोनी को सदासदा के लिए अपनाने वाला कोई आगे आए.

उन की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे 60 साल की सलोनी के लिए दूल्हा खोजा जाए. उन्होंने अपने जानने वालों और वृद्धाश्रम में काम करने वालों को दूल्हा तलाश करने में जुटा दिया. 60 साल की दुलहन के लिए दूल्हा तलाश करना सरल काम नहीं था.  वृद्धाश्रम में काम करने वाले एक व्यक्ति कोे पता चला कि हरदोई जिले में कृष्ण नारायण गुप्ता रहते हैं. उन की उम्र 62 साल की है. उन की पत्नी की मौत  3 साल पहले हो चुकी है. उन के 3 बेटे और बहू हैं. वे अपनी मिठाई की दुकान चलाते हैं. वे शादी करना चाहते हैं. हरदोई में लोग उन को कान्हा सेठ के नाम से जानते हैं. इस बात का पता चलते ही डा. निर्मला सक्सेना ने हरदोई जा कर उन से बात की. वे उन के घरपरिवार के लोगों से मिलीं. बेटेबहू से बात की. किसी को भी इस शादी से कोई परेशानी नहीं होने वाली थी.

कान्हा सेठ भी सलोनी को अपनी पत्नी बनाने के लिए उत्साहित हो गए. वे समय तय कर के एक दिन सलोनी को देखने के लिए लखनऊ आ गए. सलोनी और कान्हा सेठ ने एकदूसरे को देखा और फिर तय हो गया कि अब बची जिंदगी वे एकसाथ काटेंगे. शादी की तारीख 24 फरवरी तय हो गई. अब शादी की तैयारी करने का जिम्मा डा. निर्मला सक्सेना पर आ पड़ा था. वे अपनी टीम और कुछ सामाजिक लोगों के साथ शादी की तैयारी करने में जुट गईं. अपनी शादी की बात सुनते ही सलोनी ने कहा कि वे अपना मेकअप किसी ब्यूटीपार्लर में ही कराएंगी.

फैशन डिजाइनर और ब्यूटीशियन रीमा श्रीवास्तव ने सलोनी का मेकअप किया और लहंगाचुनरी उपलब्ध कराई. मेकअप देख कर कोई कह नहीं सकता था कि सलोनी की उम्र 60 साल है.  24 फरवरी को सलोनी और कान्हा सेठ ने एकदूसरे को जयमाला पहना कर पतिपत्नी के रूप में कुबूल कर लिया. इस खुशी में दोनों ने सब से पहले एकदूसरे को रसगुल्ला खिलाया. शादी की खुशी में शामिल होने के लिए हेल्पेज इंडिया के डायरैक्टर ए के सिंह और उत्तर प्रदेश समाज कल्याण विभाग के लोग भी शामिल हुए. शादी के बाद कान्हा सेठ अपनी पत्नी सलोनी को ले कर अपने घर गए. वहां दोनों हंसीखुशी से अपना जीवन बिता रहे हैं.

शादी के बाद डा. निर्मला इस शादीशुदा जोडे़ से मिलने के लिए हरदोई उन के घर गईं जहां सलोनी अपने मायके जैसे वृद्धाश्रम को याद कर रही थी.  दरअसल, सभी को अपने जीवन में एक सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा जीवनसाथी के रूप में ही हो सकता है.   

सपना साकार हुआ – अंकित कुमार सिंह

मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथसाथ दिल में कामयाबी हासिल करने का जज्बा भी हो तो मंजिलें खुद चल कर आती हैं. इसी फलसफे पर चल कर अंकित कुमार सिंह ने सिविल सेवा परीक्षा 2012 में सफलता अर्जित की है. पेश हैं उन की कामता प्रसाद मौर्या से हुई बातचीत के मुख्य अंश.

पिछले दिनों ‘संघ लोक सेवा आयोग’ ने ‘सिविल सेवा परीक्षा 2012’ के परिणाम घोषित कर दिए. इस में सर्वोच्च स्थान पाने वालों में प्रथम स्थान केरल की सुश्री हरिथा वी कुमार, दूसरा स्थान केरल विश्वविद्यालय से एमबीबीएस कर चुके डा. वी श्रीराम और तृतीय स्थान सुश्री स्तुति चरन का रहा.  सिविल सेवा परीक्षा-2012 में अनुसूचित जाति (संखवार) के अंकित कुमार सिंह का नाम भी शामिल है. उन्होंने तृतीय प्रयास में इस परीक्षा में 686वां स्थान हासिल किया है.

आप अनुसूचित जाति से संबंध रखते हैं. आप को कैसा महसूस हो  रहा है?

मैं अनुसूचित जाति के संखवार समुदाय का पहला व्यक्ति हूं, जो आईएएस/आईपीएस बनेगा. मेरी इस सफलता पर न केवल मेरा बल्कि मेरे परिवार और समाज का सपना पूरा हुआ है. मेरा मानना है कि कोई भी चीज असंभव नहीं है. यदि मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथ प्रयास किया जाए, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होती है.

आप ने इस परीक्षा के लिए मुख्य विषय क्याक्या चुने थे?

हालांकि मैं ने औयल टैक्नोलौजी में बीटैक किया है लेकिन आईएएस परीक्षा के लिए मैं ने भूगोल और हिंदी साहित्य को मुख्य विषय के रूप में चुना. इस में मुझे सफलता मिली. 

इस परीक्षा में सफलता हासिल करने का अनुभव किस प्रकार का रहा?

मैं ने अपनी आईएएस की परीक्षा की तैयारी और सफलता हासिल करने के बाद पाया कि क्या नहीं पढ़ना चाहिए इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए. प्रश्नावली में विज्ञान, इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान से जुड़े प्रश्न होते हैं. उन की तैयारी बहुत ही सावधानी के साथ की जानी चाहिए. तैयारी करते समय इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए तैयारी की जाए. इस के लिए दैनिक समाचारपत्रपत्रिकाओं, टीवी, रेडियो आदि को ध्यान से पढ़ना और सुनना चाहिए.

काफी उम्मीदवार मुख्य परीक्षा तो पास कर लेते हैं लेकिन साक्षात्कार में असफल हो जाते हैं. आप का साक्षात्कार कैसा रहा?

मेरे साक्षात्कार बोर्ड के चेयरमैन आईएमजी खान थे. मेरा साक्षात्कार लगभग 25 मिनट तक चला. इस दौरान मुझ से मेरी पृष्ठभूमि, शिक्षा व ज्वलंत विषयों पर प्रश्न पूछे गए. मुझ से लखनऊ में स्थित बटलर पैलेस के बारे में पूछा गया, क्योंकि मैं ने हरकोर्ट बटलर टैक्नोलौजिकल इंस्टिट्यूट, कानपुर (उ.प्र.) से औयल टैक्नोलौजी में प्रथम श्रेणी में बीटैक किया था. बटलर उत्तर प्रदेश के प्रथम गवर्नर थे. इस के अलावा मुझ से इंटरव्यू में इलाहाबाद की विशेषताएं पूछी गईं. एक सदस्य ने तो यह पूछा, महाराष्ट्र मराठियों के लिए है. इस को कहां तक सही या गलत मानते हैं? दूसरे सदस्य ने पूछा कि आप आईएएस क्यों बनना चाहते हैं? इस प्रश्न का मैं ने उत्तर दिया कि इस के माध्यम से मुझे गरीब, पिछड़े इंसानों के लिए कुछ करने का बड़ा मौका मिलेगा.

आप कानपुर के रहने वाले हैं. क्या कानपुर से संबंधित कोई प्रश्न भी इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों ने पूछा?

हां, एक सदस्य ने मुझ से पूछा कि कानपुर सीवेज ट्रीटमैंट प्लांट किस सिद्धांत पर काम करता है? लेकिन इसे मैं सही तरह से बोर्ड को समझा नहीं सका. हां, बोर्ड के सदस्यों ने मेरा पूरा सहयोग किया. मैं ने यह महसूस किया है कि इंटरव्यू बोर्ड के समक्ष वही बोला जाए जिस की आप को सही जानकारी है, उसे ईमानदारी के साथ रखें, लेकिन किसी भी रूप में झूठी जानकारी न दें.

आप अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं?

मेरा जन्म 19 फरवरी, 1987 को ग्राम मोहाना, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश के संखवार परिवार में हुआ था. पिता राज संजीवन संखवार, उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद में कनिष्ठ लेखा अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं और मेरी मां एक गृहिणी हैं. उन्होंने एमए तक शिक्षा हासिल की है. मेरी 2 बहनें हैं जिन में से एक एमटैक कर चुकी है और आईएएस की तैयारी कर रही है. दूसरी छोटी बहन ने अभी 12वीं की परीक्षा दी है. वह चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहती है.

आप ने शिक्षा कहां से हासिल की?

मैं ने पहली से 5वीं तक की पढ़ाई सरस्वती शिशु मंदिर, रतनलाल नगर, कानपुर से की. इस के बाद कक्षा 6 से 12वीं तक की पढ़ाई चाचा नेहरू स्मारक इंटर कालेज, गोविंद नगर, कानपुर से पूरी की. मैं ने वर्ष 2009 में ‘हरकोर्ट बटलर टैक्नोलौजिकल इंस्टिट्यूट’, कानपुर से ‘औयल टैक्नोलौजी’ में प्रथम श्रेणी में बीटैक की डिगरी हासिल की. अचानक परिस्थितियां बनीं तभी मैं ने एमटैक करने के बजाय आईएएस की तैयारी करना जरूरी समझा और फिर इस के लिए कानपुर से दिल्ली आ गया.

आईएएस अधिकारी बनने की प्रेरणा आप को किस से मिली?

बचपन में मेरे पिताजी का सपना था कि वे आईएएस बनें, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होने के कारण वे इस में सफल नहीं हो सके. परिवार के भरणपोषण के लिए मात्र डेढ़ बीघा जमीन से गुजारा होना असंभव था. इसलिए पढ़ाई ही एकमात्र सहारा थी, जिस से परिवार का भरणपोषण संभव हो सकता था. वे चाहते थे कि उन के बच्चे इस दिशा में आगे बढ़ें. इसीलिए उन्होंने हम सभी भाईबहनों को बेहतर शिक्षा दिलाई. उन की इच्छा थी कि उन का बेटा वह अधूरा कार्य जरूर पूरा करे जिसे वे नहीं कर सके. इसलिए मैं ने आईएएस की तैयारी के लिए मन बनाया.

दलितों के समक्ष कौन सी समस्या नजर आती है?

पहले अनुसूचित जाति में शिक्षा का बहुत अभाव था. लोग जातीय भेदभाव के चलते पढ़ नहीं पाते थे. लेकिन बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ के नारे से निश्चित रूप से दलित समाज में बदलाव आया है. जिन के पास साधन है उन्होंने बेहतर शिक्षा हासिल की है और कर रहे हैं. लेकिन फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है. मैं अपने सेवाकाल के दौरान जितना संभव हो सकेगा, इस समाज के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास की दिशा में सहयोग करने का सार्थक प्रयास करूंगा.

आज के दौर में अधिकांश बच्चे और युवा मोबाइल, मीडिया और मनी के चलते भटकाव की स्थिति में हैं, क्या आप इस से सहमत हैं?

यह सही है कि यह दौर मीडिया, मोबाइल और मनी के चलते भटकाव पैदा करने वाला है लेकिन यदि मातापिता के संस्कार ठीक हैं और बच्चों का लालनपालन उन की देखरेख में बेहतर तरीके से होता है, तो बच्चे या युवा इस दौर में भी बेहतर कर सकते हैं. मातापिता को चाहिए कि वे बच्चों के साथ ज्यादा समय दें, क्या चीज गलत है और क्या सही, इस बात का एहसास कराएं. युवा वर्ग को चाहिए कि वह दुनिया की चकाचौंध में फंस कर दूसरों की देखादेखी न करे. जितना और जैसा है, उसी में अपनेआप को ढालते हुए अपने शौक पूरे करे.

धर्म के रहनुमाओं का पाखंडी तमाशा

पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास का ऐसा भव्य आयोजन है जो वनसंपदा और जनता की मेहनत की कमाई से फलताफूलता है. देश की आर्थिक संपदा को बरबाद करते इस पाखंड को धर्म के ठेकेदारों ने धर्मभीरुओं को पापपुण्य और मोक्ष का लालच दे कर किस तरह राष्ट्रीय व धार्मिक आयोजन में तबदील कर दिया है, बता रहे हैं सुरेश प्रसाद.

भारत अंधविश्वासों का देश है. ये अंधविश्वास यहां के पर्वत्योहारों में झलकते हैं. ऐसे उत्सवों में से एक है ओडिशा के पुरी की विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा. आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को हर वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन किया जाता है. रथयात्रा का दर्शन करने के लिए देशविदेश से लाखों लोग आते हैं और यहां के अंधविश्वास में विभोर हो जाते हैं. इस रथयात्रा में लाखों लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. इस बार यह रथयात्रा 10 जुलाई से 18 जुलाई तक चली.

पुरी के जगन्नाथ मंदिर के बारे में यह धारणा है कि यहां कथित ‘भगवान’ कृष्ण, जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं और उन के साथ उन की बहन सुभद्रा व उन के बड़े भाई बलभद्र (बलराम) भी विराजते हैं. किंवदंती है कि एक बार सुभद्रा के आग्रह पर दोनों भाई उन्हें भ्रमण कराने के लिए द्वारका ले गए थे. उसी यात्रा की याद में हर वर्ष यह भव्य रथयात्रा निकाली जाती है. माना जाता है कि आज के दिन कथित भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर जाते हैं.

रथयात्रा के दौरान सब से आगे बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ चलता है. उस के पीछे सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलम’ व सब से पीछे जगन्नाथ का रथ ‘नंदिघोष’ चलता है. हर रथ में  4 काष्ठ के अश्व व सारथी रहते हैं. अर्थात रथ में सजीव घोड़े न हो कर लकड़ी के बने घोड़ों का इस्तेमाल होता है. सारथी भी पंडेपुजारी न हो कर लकड़ी के ही होते हैं.

वनसंपदा का अपव्यय

लकड़ी से बनाए गए जगन्नाथ का रथ 35 फुट लंबा, 35 फुट चौड़ा व 45 फुट ऊंचा होता है. बलभद्र का रथ 44 फुट लंबा व 43 फुट ऊंचा होता है. जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए, बलभद्र के रथ में 14 व सुभद्रा के रथ में 12 पहिए होते हैं. हर रथ का भार 60 टन से भी अधिक होता है. ये रथ प्रतिवर्ष नए बनाए जाते हैं. इन के निर्माण में लकड़ी का भारी अपव्यय होता है क्योंकि हर साल इन के निर्माण में टनों लकड़ी बरबाद हो जाती है. वनसंपदा की बरबादी का आलम यह है कि तीनों रथों पर जो मूर्तियां विराजमान होती हैं वे भी काष्ठनिर्मित होती हैं और इन मूर्तियों को हरेक मलमास (लीप इयर) में बदला जाता है, यानी पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में जमींदोज कर नई लकड़ी मूर्तियों का निर्माण किया जाता है.

हरेक रथ के निर्माण में लगभग 60 टन लकड़ी लगती है. मूर्तियां हर 3 साल (हिंदू कैलेंडर के मुताबिक हर 3 साल पर मलमास या लीप इयर होता है) बाद बदली जाती हैं. अगर 3 मूर्तियों का वजन सम्मिलित रूप से 60 टन मान लें तो औसतन प्रतिवर्ष 20 टन लकड़ी उस में भी लगी, यानी प्रतिवर्ष 3 रथ व मूर्ति में 200 टन लकड़ी इस्तेमाल हुई. इस तरह इस धार्मिक आयोजन में करोड़ों रुपए यों ही बरबाद होते हैं. यह कीमत सिर्फ कच्चे माल (महज लकड़ी) की ही हुई. इतनी लकडि़यां जुटाने के लिए हर वर्ष सैकड़ों पेड़ काटने पड़ते होंगे. इस तरह अकेले पुरी की रथयात्रा पर ही लगभग करोड़ों की वनसंपदा प्रतिवर्ष नष्ट हो रही है.

गौरतलब है कि पुरी की रथयात्रा के समानांतर देशभर में रथयात्राओं का आयोजन किया जाता है. सो, देशभर में वनसंपदा की क्षति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. एक ऐसे ‘बीमारू’ राज्य ओडिशा में, जहां की लगभग दोतिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही हो, प्रतिवर्ष करोड़ों की वनसंपदा नष्ट करना, वह भी धर्म व अंधविश्वास के नाम पर, बेवकूफी नहीं तो और क्या है? उस पर तुर्रा यह कि हम विश्व की ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने को आतुर हैं. क्या देश का पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस तरफ ध्यान नहीं देता? वनों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी जब ईंधन के लिए लकड़ी काटते पाए जाते हैं तब वनरक्षक उन पर गोली तक चला देते हैं. उन गरीब आदिवासियों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू हो जाता है और उन्हें दंडित किया जाता है.

दूसरी तरफ रथयात्रा के आयोजन के नाम पर धार्मिक लुटेरे प्रतिवर्ष सैकड़ों पेड़ काट डालते हैं तो सरकार चूं तक नहीं बोलती. क्या इन धार्मिक लुटेरों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू नहीं होता? यह नक्सलवाद देशभर में अकारण ही अपने पैर पसार रहा है. नक्सलियों में ज्यादातर गरीब आदिवासी हैं. अगर उन की उपेक्षा होगी तो उन के पास और क्या चारा रह जाता है, क्योंकि उन की रोजीरोटी पर ये धार्मिक लुटेरे हावी हो जाते हैं.

रथ खींचने की होड़

ऐसा अंधविश्वास है कि इस रथयात्रा में रथों को खींचने से सारे पाप धुल जाते हैं और मरणोपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है कि देशविदेश से आए कथित श्रद्धालुओं के बीच रथ खींचने की होड़ लगी रहती है ताकि उन के सारे कुकर्म माफ हो जाएं यानी रथ खींचो और पापमुक्त हो जाओ. कई बार तो रथयात्रा के दौरान भगदड़ मच जाती है और लोगों की जानें तक चली जाती हैं. काष्ठ मूर्ति पर भारी सुरक्षा व्यय हर बार की तरह इस बार भी रथयात्रा के लिए प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए. इस बार सुरक्षा को ले कर रैपिड ऐक्शन ऐंटी टैरेरिस्ट स्क्वायड और कोस्ट गार्ड के जवानों को तैनात किया गया. पूरे रास्ते पर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए.

दिमागी दिवालिएपन का नजारा

पुरी की रथयात्रा के अलावा पूरे देश में अपनीअपनी अलग रथयात्राओं की धूम रहती है. पुरी के अलावा मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद सहित कई दूसरे शहरों व कसबों में भी जगन्नाथ यात्रा धूमधाम से निकाली जाती है. गुजरात के मुख्यमंत्री अहमदाबाद के जमालपुर स्थित मंदिर के बाहर रथयात्रा के मार्ग को बुहारते हैं.

मीडिया भी रथयात्रा के कब्जे में

धार्मिक उत्सवों के प्रसारण में खबरिया चैनल एकदूसरे से होड़ लेते दिखाई  देते हैं. कई चैनल तो इस का सीधा प्रसारण भी दिखाते हैं. एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी धर्म के उत्सवों का सीधा प्रसारण नहीं होना चाहिए क्योंकि इस से अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है. और तो और, लोग कथित ‘मोक्षप्राप्ति’ के  लिए अनर्गल क्रियाकलापों (मसलन, रथ खींचना वगैरह) के प्रति प्रेरित  होते हैं.  देश का संविधान जहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की सीख देता है वहीं देश का मीडिया लोगों में धार्मिक उत्सवों के प्रसारण के जरिए अंधविश्वास फैला रहा है.

मजे की बात तो यह है कि कोई  भी सांसद संसद में इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलता, जबकि अपने वेतनभत्ते बढ़ाने के लिए पक्षविपक्ष के सभी सांसद एक हो जाते हैं. हों भी क्यों न, जनता अंधविश्वासी बनी रहेगी तो वह माननीयों के घोटालों को भी ‘ईश्वरीय प्रकोप’ मान बैठेगी.

रथयात्रा का औचित्य

सब से महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि  21वीं सदी के तकनीकी युग में ‘रथयात्रा’ जैसे खर्चीले आयोजनों का औचित्य क्या है? ईश्वर को क्या वास्तव में काष्ठ निर्मित रथों की जरूरत है? लोग काष्ठ के रथ को पूज रहे हैं या फिर अपने इष्ट को? इन रथों के निर्माण पर जो वनसंपदा नष्ट हो रही है, आखिर वह संपदा है तो ओडिशा के लोगों की ही न.  सवाल यह भी है कि क्या एक ही बार निर्मित रथों से हर साल रथयात्रा  का आयोजन नहीं किया जा सकता? आखिर एक इंसान की उम्र भी 100 साल आंकी गई है, तो रथों की उम्र महज  3 साल क्यों? क्या ये रथ भी 100 साल इस्तेमाल नहीं किए जा सकते? जबकि इन रथों पर स्वयं ईश्वर विराजते हैं? ये ईश्वर अपने पुण्यप्रताप से इन रथों को अनंतकाल तक इस्तेमाल योग्य क्यों नहीं बना देते?

अंतिम सवाल यह है कि देवीदेवताओं को भला पर्यटन करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? वे तो ‘सर्वव्यापी’ होते हैं व ‘सर्वशक्तिमान’ भी. फिर ये रथों की यात्रा क्यों करें व उन रथों को जनता क्यों खींचे? उन के जो परमभक्त (पंडेपुजारी) हैं वे ही रथों को खींचें और उन रथों के निर्माण पर सार्वजनिक धन का दुरुपयोग न किया जाए.  बेहतर यह होगा कि हम ऐसे मूर्खतापूर्ण आयोजनों से बाज आएं और गरीबी मिटाने व खुशहाली के लिए काम करें, जोकि रथयात्राओं से नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से ही संभव हो सकेगी.

हमारी बेडि़यां

हमारे घर में बहुत दिनों से प्रथा चली आ रही थी कि घर में कोई भी शुभ कार्य संपन्न करने से पहले ‘कुलदेवता’ की पूजा होती और उस पूजा में कुलदेवता को एक सफेद ‘भेड़’ की बलि दी जाती थी.  मेरी मां और पिताजी देवर और ननद की शादीब्याह से ले कर हम बहनों के मुंडन तक कुलदेवता को सफेद भेड़ की बलि देते रहे. जब दीदी की शादी की बारी आई, पिताजी 15 दिन पहले ही सब काम छोड़ कर सफेद भेड़ खोजने निकल गए. कुछ दिनों के बाद पिताजी बहुत बीमार हो कर खाली हाथ वापस आ गए. पिताजी की तबीयत इतनी खराब हो गई कि उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा.

इधर घर में बेटी का ब्याह उधर अस्पताल में पिताजी की नाजुक स्थिति. मां से नहीं रहा गया. पिताजी की बिगड़ती हालत देख, मां मन में कुछ सोच कर पिताजी से बोलीं, ‘‘मैं ने सफेद भेड़ का इंतजाम कर लिया है. अब आप को कुछ करने की जरूरत नहीं. आप जल्दी से ठीक हो जाइए.’’ पिताजी आश्वस्त हो गए और शादी तक धीरेधीरे स्वस्थ हो कर घर आ गए.  मां ने सफेद भेड़ की जगह सफेद मोम का भेड़ कुलदेवता को अर्पण कर नई शुरुआत की.

डा. स्वेता सिन्हा, मैथन (झारखंड)

 

मेरे देवर की शादी थी. जब दुलहन को ले कर बरात वापस आई तो भद्रा लग चुकी थी. मेरी सास ने कहा कि इस लगन में वधू प्रवेश अशुभ होता है. इसलिए नवदंपती को होटल में ठहरा दिया गया. शादी का सामान भी होटल में था. रात में जब वे सो रहे थे तो सारा कीमती सामान चोरी हो गया. पुलिस भी कुछ नहीं कर पाई. उस शादी को हम आज तक नहीं भूले हैं.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

 

उत्तर प्रदेश में नागपंचमी के त्योहार को गुडि़या के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन बहनें सुबह से कपड़े की सुंदरसुंदर गुडि़याएं बनाती हैं और दोपहर में घर के बाहर फेंक देती हैं. भाई लोग डंडी से इन गुडि़यों को इतना पीटते हैं कि उन के अंग अलगअलग हो जाते हैं.  मैं सोचती कि यह कैसा त्योहार है कि इतनी मेहनत से बनी गुडि़या को भाई लोग पीटपीट कर बरबाद करते हैं. मां से इस संदर्भ में बात की तो वे टाल गईं. परंतु मेरी दादी ने बताया कि इस के पीछे पुरुषों की मानसिकता होती है कि यदि ससुराल में लड़कियों को कष्ट होता है या पुरुषों द्वारा प्रताडि़त होती हैं तो इस के लिए वे तैयार रहें. उन में सहने की शक्ति हो.  शहरों में यह प्रथा कम हो रही है पर गांवों में अब भी देखने को मिलती है.

उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

भारत भूमि युगे युगे

दलितब्राह्मण भाईभाई

समाज व देशभर से दबदबा टूटने के अलावा और भी कई वजहें हैं जिन के चलते ब्राह्मण समुदाय दुखी है. नई वजह पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें भाजपा प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करने को उतारू है. बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में हालिया संपन्न ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन में बदली भाषा का इस्तेमाल किया.  नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखते हुए उन्होंने कुछ ऐसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया जिस की उम्मीद उन से नहीं थी. माया को मालूम है कि दलितों और ब्राह्मणों में भाषा का भी बड़ा फर्क है. लिहाजा, बजाय तीर्थयात्रा के चलन को कोसने के उन्होंने मोदी की क्षेत्रीय मानसिकता को कोसा. दलितों के पास अभी तीर्थयात्रा करने लायक पैसा भी नहीं है लेकिन अगर वाकई भाईचारा पनप पाया तो दलित भी सशुल्क वैतरणी पार करने में सवर्णों की बराबरी करने लगेंगे.

 

ज्योति धुन

किसी भी प्रदेश के सब से लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहने का रिकौर्ड बनाने वाले पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की जन्मशती इस साल मन रही है. माकपा मार्क्सवाद का दुखद और सीधासादा अंत देखने को तैयार नहीं है, इसलिए ज्योति बसु को उस ने देवता सरीखा बना दिया है. लोगों की थोड़ीबहुत दिलचस्पी ज्योति बसु में तो है पर माकपा और मार्क्सवाद में कतई नहीं.  दूसरी बड़ी दिक्कत बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं, जिन की अप्रिय बातों और घटनाओं के बाद भी उन की लोकप्रियता घट नहीं रही है. बहरहाल, इस फीकी जन्मशती से बंगाल के लोग हैरान हैं कि माकपा ज्योति बसु की आड़ क्यों ले रही है.

 

पांच रुपए पर बवाल

नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित 11 अगस्त की हैदराबाद रैली का शुल्क 5 रुपए रखने पर कांग्रेस की तिलमिलाहट स्वाभाविक है पर विरोधाभास की बात इस मामले में यह है कि राजनीतिक दलों व नेताओं पर आरोप लगते रहते हैं कि वे पैसे दे कर भीड़ खरीदते हैं. इस मामले में उलटा हो रहा है कि भीड़ से ही पैसा लिया जा रहा है.  यह पैसा हालांकि राममंदिर निर्माण के चंदे सरीखे सा अरबों रुपए का नहीं है पर भाजपाइयों को इस बात का भी गहरा तजरबा है कि सिर्फ हाथ जोड़ने से कोई भक्त नहीं हो जाता, भक्त वह होता है जो जेब भी ढीली करे. तभी श्रद्धारूपी वोट मिलता है. काला पैसा ठिकाने लगाने का जरिया तो इसे नहीं माना जा सकता पर हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव जरूर इस से प्रेरणा लेते खासा पैसा बटोर सकते हैं जो कानपुर सीट से सपा के उम्मीदवार हैं.

 

कौकपिट में अभिनेत्री

कौकपिट क्या होता है, यह आम लोग नहीं जानते और जो जानते हैं वे इतना भर बता सकते हैं कि जैसे पुराने  जमाने की खटारा बसों में बोनट होता था, कुछकुछ वैसा ही हवाईजहाज में कौकपिट होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि बस ड्राइवर अपनी मरजी से बोनट पर सवारी बिठा सकता है पर पायलट कौकपिट में नहीं.  बीते दिनों हैदराबाद-बेंगलुरु फ्लाइट में एअर इंडिया के 2 पायलटों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री निथाया मेनन को बैठाया तो एवज में उन्हें निलंबित होना पड़ा. कौकपिट आम यात्रियों के लिए सुरक्षा कारणों से नहीं होता पर दिल और मनमानी पर किसी का जोर नहीं चलता. सफर चाहे बस का हो, रेल का या फिर हवाईजहाज का, हर किसी की ख्वाहिश होती  है कि बगल में कोई खूबसूरत बाला हो  पर निथाया मेनन पायलटों के लिए बला साबित हुई.

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