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सरबजीत सिंह

पाकिस्तानी सीमा में अवैध प्रवेश से शुरू हुआ सरबजीत का सफर यातना भरी सजा, माफी की गुहार और भारत व पाकिस्तान के अस्पष्ट रवैए के उलझे गलियारों से गुजरता हुआ दर्दनाक मौत पर खत्म हुआ. पर क्या यह मौत सच में शहादत थी?

‘‘वह अपने देश जिंदा वापस नहीं लौट सका.’’ भारतीय रक्षा क्षेत्र में बसे एक गांव वाह तारा सिंह में रहने वाले 70 वर्षीय हट्टेकट्टे सरदार गुरदीप सिंह ने 23 साल पहले घटी इस घटना को कुछ इसी तरह बयां किया. गुरदीप सरबजीत के उन खास दोस्तों में हैं जिन के साथ सरबजीत का अधिकांश समय गुजरता था.

अमृतसर से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित जिला तरनतारन के भिखीविंड गांव का निवासी 24 वर्षीय सरबजीत एक खूबसूरत और हट्टाकट्टा नौजवान था. उस के परिवार में उस के पिता, पत्नी सुखप्रीत कौर, 2 बेटियां स्वप्नदीप कौर व पूनम के अलावा उस की बड़ी बहन दलबीर कौर थी जबकि मां का देहांत हो चुका था. बाद में बेटे के सदमे में पिता की भी मौत हो गई.

जब वह पाकिस्तान सीमा पर नशे की हालत में पकड़ा गया उस समय उस की बड़ी बेटी स्वप्नदीप 3 वर्ष की और छोटी बेटी पूनम 23 दिन की थी. पकड़े जाने के बाद सरबजीत को शुरुआती दिनों में इस बात का पूरा यकीन था कि उसे सरहद पार करने की बड़ी सजा नहीं मिलेगी और वह जल्दी ही छूट कर अपने घर वापस आ जाएगा. लेकिन पाकिस्तान में सरबजीत पर भारतीय जासूस होने का आरोप लगा कर मुकदमा चलाया गया और उस के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया गया.

उसे वर्ष 1990 में फैसलाबाद व लाहौर में हुए सीरियल बम धमाकों का आरोपी मंजीत सिंह बता कर 14 लोगों की मौत का जिम्मेदार ठहराया गया. सरबजीत खुद को निर्दोष बताता रहा लेकिन पुलिस ने उस की एक  नहीं सुनी.

वर्ष 1991 में सरबजीत को फांसी की सजा सुनाई गई. पिछले 23 सालों से वह लाहौर की कोट लखपत जेल में सजा काट रहा था. इस बीच सरबजीत की रिहाई के लिए दाखिल की गई हर दया याचिका को खारिज कर दिया गया. 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी उस की दया याचिका ठुकरा दी. सरबजीत की रिहाई के लिए भारत पाकिस्तान से बात करता रहा.

इस बीच भारत सहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति भी सरबजीत के साथ जुड़ चुकी थी. वर्ष 2008 में पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की फांसी पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी थी. शायद इसलिए कि वह जानती थी कि मामला ?ाठा और नकली है.

सरबजीत की रिहाई के लिए उस के परिवार समेत, भारत सरकार व भारतपाक के कई मानवाधिकार संगठन लगातार प्रयास कर रहे थे लेकिन वह रिहा नहीं किया गया. 26 अप्रैल, 2013 को सरबजीत के साथ जेल में सजा काट रहे कैदियों में से 2 कैदियों अमीर आफताब व मुदस्सर ने किसी बात पर कहासुनी के बाद सरबजीत पर ईंट व ब्लेड से जानलेवा हमला कर दिया. इस हमले में सरबजीत के सिर पर गंभीर चोटें आईं और वह कोमा में चला गया. 2 मई को लाहौर के जिन्ना अस्पताल में सरबजीत ने दम तोड़ दिया.

उस के शव को तिरंगे में लपेट कर विशेष भारतीय विमान से स्वदेश लाया गया. पंजाब सरकार द्वारा उस के पैतृक  गांव भिखीविंड में पूरे राजकीय सम्मान के साथ उस का अंतिम संस्कार किया गया और 3 दिन के राजकीय शोक की घोषणा क ी गई. पंजाब सरकार ने उस के परिवार को 1 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद देने व उस की दोनों बेटियों को सरकारी नौकरियां देने का वादा किया.

अपने वादे के मुताबिक 11 मई को पंजाब सरकार ने सरबजीत के परिवार को 1 करोड़ रुपए की राशि का चैक भी दे दिया और बड़ी बेटी को नायब तहसीलदार और छोटी बेटी को टीचर की नौकरी देने की भी घोषणा की गई. प्रधानमंत्री राहत कोष से उस के परिवार को 25 लाख रुपए की मदद देने की घोषणा की गई. गांव में सरबजीत के नाम पर एक सरकारी अस्पताल बनाए जाने पर विचार चल रहा है. राजनीतिक दल लोगों की इन भावनाओं को अपनेअपने पक्ष में भुनाने के प्रयास में सरबजीत को ले कर एक से बढ़ कर एक बयान दे रहे हैं. सत्ता व विपक्ष में बैठी सरकार में इस मुद्दे पर श्रेय लेने की होड़ सी दिखी.

पाकिस्तान पुलिस की बर्बरता

2  मई को एक भारतीय नागरिक सरबजीत की अर्थी भारत की सीमा में लाई गई

 तो 10 मई को एक पाकिस्तानी बाशिंदे सनाउल्लाह का जनाजा पाकिस्तान भेजा गया. सरबजीत पाक जेल में और सनाउल्लाह भारत की जेल में सजा काट रहे थे. दोनों देशों की जेल अधिकारियों की मौजूदगी में उन पर जानलेवा हमले कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया.

दरअसल, हर देश की जेलों में कैदियों के साथ पुलिस व कैदियों द्वारा अमानवीय व्यवहार होते हैं जैसा सरबजीत व सनाउल्लाह के साथ हुआ. हमारे देश में भी ऐसा है. यदि सरबजीत नशीली दवाओं की तस्करी में पकड़ा गया था या गलती से भटक कर पाकिस्तान पहुंच गया था या जासूस था तो उसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए थी और उस के बाद उसे रिहा कर देना चाहिए था.

लेकिन पाक पुलिस 23 साल तक उस के साथ बर्बर व्यवहार करती रही. उसे मानसिक व शारीरिक यातनाएं दी गईं. बहन दलबीर बताती हैं कि सरबजीत उन्हें अपनी आपबीती सुनाता था कि किस तरह पुलिस उलटा लटका कर उस के तलवों को डंडों से पीटा करती थी और उसे अधमरी हालत में यों ही लटका हुआ मरने के लिए छोड़ जाते थे. उसे सर्दियों में कंबल नहीं दिया जाता था. कभी सिर में लगाने को तेल नहीं देते थे, साबुन नहीं देते थे. सूखा खाना देते थे जो गले के नीचे नहीं उतरता था.

सरबजीत की बेटी स्वप्नदीप ने बताया कि जब वह वर्ष 2008 में अपने पिता से मिलने गई तो जेल अधिकारियों का रवैया सरबजीत व उन के प्रति अच्छा था. जेल अधिकारियों ने खुद उन्हें बताया था कि सरबजीत अच्छा इंसान है और वे चाहते हैं कि वह जल्द ही छूट कर अपने देश वापस चला जाए. सरबजीत की पत्नी सुखप्रीत के अनुसार, वे जो कुछ सामान भी सरबजीत के लिए भेजतीं अथवा ले कर जातीं, सरबजीत सब को बांट देता था. जेल में वह सब की मदद करता था. जेल के लोग मानते थे कि वह एक अच्छा कारीगर है जो हर काम कर लेता है. सरबजीत के वकील औवेस शेख कहते हैं,‘‘सरबजीत सिंह एक नेक इंसान था. वह बहुत शांत और अच्छे व्यवहारेशा तैयार रहता था.’’

लुधियाना के पुरुषोत्तम सिंह का कहना है कि वर्ष 1973 में वे जासूस के तौर पर सेना में भरती हुए थे. वर्ष 1974 में भिखीविंड कालड़ा छीना पोस्ट से वतन लौटते समय पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें कोट लखपत जेल में रखा गया. वर्ष 1986 को उन्हें रिहा कर दिया गया. करीब 12 सालों तक जेल में अनेक यातनाएं सहने वाले पुरुषोत्तम कहते हैं, ‘‘मु?ो वहां अंधेरी कोठरी में रखा जाता था, जहां दिनभर सिर्फ गालियां और 2 रोटियां मिलती थीं.’’

गुरदासपुर के ही कस्बा भैणी मियां खां केगोपाल दास वहां की जेलों में 27 साल कैदी रहे. वर्ष 2011 में रिहा हो कर वे भारत लौटे हैं. वे बताते हैं, ‘‘पाक जेलों में कैदियों के साथ इतना बुरा बरताव किया जाता है कि वे पागल हो जाते हैं.’’

अपना देश हो या विश्व के देश, सभी जेलों में कैदियों के साथ इसी तरह के अमानवीय व्यवहार किए जाते हैं, जिन की घोर निंदा होनी चाहिए.

इधर देशवासी सरबजीत की मौत पर आंसू बहा रहे हैं कि सरबजीत जंग जीत कर चला गया, शहीद हो गया. उस ने पाकिस्तान में एक भारतीय नागरिक होने की सजा भुगती. उस की 60 वर्षीय बहन दलबीर कौर पाकिस्तान के खिलाफ जंग आरंभ करने का आह्वान कर रही हैं और भारत सरकार को कोस रही हैं कि उस ने राष्ट्रीय अस्मिता और जनता की भावनाओं को नहीं सम?ा. पंजाब सरकार ने भी लगे हाथों सरबजीत को शहीद घोषित कर के दलित किसानों की सहानुभूति हासिल कर ली. राष्ट्रीय नेताओं ने सरबजीत को सलामी दी. बस, फिर क्या था, देश की मीडिया ने भी उसे हीरो बना दिया.

सरबजीत की इस तथाकथित शहीदी पर देश की राजनीतिक पार्टियां अपने वोटों की खातिर चुप हैं और जनता पाकिस्तान की हरकतों के कारण आहत व क्रोधित है.

शहीद कौन

देश की रक्षा और उस की अस्मिता की रक्षा के लिए प्राणों की बलि देने वाला सैनिक शहीद कहलाया जाता है. सरबजीत ने अपनी छोटी सी भूल की बड़ी सजा भुगती, पाकिस्तान पुलिस के ?ाठे आरोप और अत्याचार सहे. इसलिए उस के साथ सब की सहानुभूति तो अवश्य होनी चाहिए लेकिन यह सम?ा से परे है कि जिस शख्स के हाथ में न बंदूक थी और न ही सिर पर कफन बांध कर वह देश के लिए लड़ा, महज पाकिस्तान सीमा में अवैध रूप से पकड़े जाने, जेल में 23 साल कैद रहने और पुलिस की बर्बरता सहने से वह शहीद कैसे बन गया?

शहीद कहलाने के लिए इतना ही जरूरी नहीं है कि कोई देशवासी उस देश में मारा गया जिस के साथ हमारे संबंध कभी सौहार्दपूर्ण नहीं रहे. ऐसे में यह राष्ट्रीय अस्मिता और जनता की भावनाओं का मुद्दा कैसे बन गया?

अगर सरकार और देश उसे शहीद मान रहे हैं तो फिर सरकार को यह स्वीकार करने में भी ?ि?ाकना नहीं चाहिए कि वह हमारा जासूस था. उस की पूरी कहानी देश के सामने लानी चाहिए. कब, कैसे और कहां उसे ट्रेनिंग दे कर और किस मिशन के लिए पाकिस्तान भेजा गया था. लेकिन अगर सरकार उसे जासूस नहीं मान रही है तो फिर शहीद किस आधार पर मान बैठी है? उसे पाकिस्तान सरकार के जुल्मों का शिकार माना जा सकता है पर देशसेवा नहीं. सरकार के इन 2 विरोधाभासी विचारों में राजनीतिक दांवपेंच की बू आती है. 

वह भिखीविंड गांव का एक आम दलित किसान था जो यहां के अधिकांश मर्दों की तरह खेतों पर काम करता था और शाम ढलते ही नशा करता था. उसे अपनी इसी गलती का खमियाजा भुगतना पड़ा. यही नहीं, खबरों के मुताबिक वह पाकिस्तान की जेल में अपनी सारी कमाई सिगरेट में उड़ा देता था और अपने साथी कैदियों से पैसे उधार ले कर सिगरेट पीता था.

सरबजीत के पिता उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन विभाग में नौकरी करते थे व अपने परिवार के साथ आगरा में रहते थे. नौकरी से रिटायर्ड होने के बाद वे परिवार के साथ भिखीविंड गांव आ बसे. सरबजीत की बड़ी बहन दलबीर कौर पढ़ीलिखी थी तो खादी ग्रामोद्योग में नौकरी करने लगी लेकिन सरबजीत 10वीं जमात भी पास नहीं कर पाया. फेल हो जाने के बाद उस ने पढ़ाईलिखाई छोड़ दी.

उस के बाद वर्ष 1983 में पड़ोस के गांव की सुखप्रीत कौर से उस की शादी कर दी गई. जल्द ही वह 2 बेटियों का पिता बन गया.

वह गांव के जाट सिख सरदार मजेंदर सिंह के खेतों में मजदूरी करता था. मजेंदर सिंह और सरबजीत हमउम्र होने के कारण अच्छे दोस्त बन गए थे. दोनों का उठनाबैठना, खानापीना आदि साथ होता था. गांव में जाट सिखों की तूती बोलती है. उन की खेती की लंबीचौड़ी जमीनों पर दलित किसान मजदूरी कर के अपना पेट पालते हैं. यहां के ऊंचेऊंचे मकान जाट सिखों की पहचान हैं और कच्चे मकान बदहाल दलित किसानों की कहानी कहते हैं. गांव के कुछ खेत बौर्डर से मिले हैं जहां इस गांव के लोगों क ो सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक खेतों में काम करने की इजाजत मिलती है. यहां के लोगों की जीविका का साधन अधिकतर खेतीबाड़ी ही है.

सरबजीत का परिवार गांव में ही एक किराए के मकान में रहता था. उस की मां का देहांत हो चुका था. वह अपने पिता, बहन, पत्नी व दोनों बेटियों के साथ रहता था.

पंजाब की लस्सी के साथसाथ यहां के लोगों की दारू की लत भी दूरदूर तक मशहूर है. हर घर में शाम ढलते ही मर्द शराब के नशे में चूर हो जाते हैं. स्थानीय लोग कहते हैं कि मनोरंजन आदि के साधनों की यहां कमी है. इसलिए खेतों पर काम कर के थकेहारे किसान थोड़ीबहुत मौजमस्ती के लिए शाम को शराब पीते हैं. गांव की नई पीढ़ी भी इस नशे की चपेट में लगभग पूरी तरह फंस चुकी है. अधिकतर युवा बेरोजगार हैं जो दिनभर खाली घूमते हैं. ऐसे में वे नशे की लत के शिकार आसानी से हो जाते हैं.

शराब के अलावा नशे की अन्य सामग्री तथाकथित तौर पर पंजाब की सरहद से भारत में पहुंचाई जाती है.

संभव है कि इन नशीली सामग्री को कुछ स्थानीय लोगों द्वारा गांव में ला कर बेचा जाता है. यह भी संभव है कि कुछ बेरोजगार युवक इस में लिप्त हों और उन्होंने इसे अपना धंधा बना लिया हो.

 स्थानीय लोग इस नशे के आदी होने के पीछे पाकिस्तान का हाथ बतातेहैं. वे कहते हैं कि पाकिस्तान पंजाब की आने वाली नस्ल को नशे में डुबो देना चाहता है तो क्या किसी दूसरे देश की सरहद में नशे का यह कारोबार दशकों तक एकतरफा चलता आ रहा है? उधर से मुफ्त में गांजा, अफीम, चरस वगैरा इधर फेंका जाता हो, ऐसा संभव नहीं है. अगर वे उधर से नशे की पुडि़यां भारत की सरहद में फेंकते हैं तो इधर से पैसों की पुडि़यां भी अवश्य फेंकी जाती होंगी.

स्थानीय लोगों की मानें तो बौर्डर सिक्योरिटी फोर्स की नाक के नीचे यह सब चलता हो और उन्हें पता भी न चले, यह संभव नहीं, इसलिए उन की मिलीभगत के बिना यह धंधा उस क्षेत्र में पनपना नामुमकिन है, जहां चिडि़या भी पर न मार सके या हम यह मानें कि हम भारतीय सरहद पर भी दलाली खाते हैं और जब कोई नशे में सरहद पार चला जाता है तब हल्ला मचाते हैं और पाकिस्तानी सरकार को बहाना मिल जाता है यह कहने का कि उन्होंने एक गुप्तचर पकड़ लिया. सरबजीत के परिवार का दर्द स्वाभाविक है, लेकिन अब सरबजीत की कैद और मौत से बहन दलबीर भाई की इस तथाकथित शहादत के नाम पर राजनीति में अपने लिए नई राहें भी तलाशने का प्रयास कर रही हैं. कई राजनीतिक पार्टियों की तरफ से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए प्रस्ताव भी मिल रहे हैं जिन पर वे विचार कर रही हैं. भविष्य में वे सरबजीते क ो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने की बात कह रही हैं. लगता है कि वे भविष्य में भी देशवासियों की संवेदनाओं को भुनाती रहना चाहती हैं.

हालांकि दलबीर कौर के लिए राजनीति कोई नई बात नहीं है. वर्ष 1980 में वे कांग्रेस पार्टी से जुड़ी थीं और अपने गांव में कांग्रेस के लिए कार्य करती थीं. इस के बाद कांग्रेस से उन का मोह भंग हुआ और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया.

दलबीर कौर केअनुसार, जब वे कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं तो कांग्रेस ने उन से खुन्नस निकालने के लिए उन के परिवार के साथ एक गंदा खेल खेला.

दलबीर के शब्दों में, यदि कांग्रेस ने मेरे परिवार के साथ यह गंदा खेल न खेला होता तो मेरा भाई आज इस तरह घर नहीं लौटता. हालांकि वह गंदा खेल क्या है, इस पर दलबीर कुछ नहीं कहना चाहतीं. लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस के गले लग कर फूटफूट कर रोईं. कांग्रेस ने भी उन्हें सरबजीत के बहाने ही सही, गले लगाने में देर नहीं लगाई. इधर, नरेंद्र मोदी भी सरबजीत के लिए आंसू बहा रहे हैं.

एक तरफ सरबजीत के मुद्दे को विभिन्न राजनीतिक पार्टियां अपनेअपने फायदे के लिए भुनाने में लगी हुई हैं तो दूसरी तरफ दलबीर कौर पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय जनता के आक्रोश का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रही हैं. करीबी लोगों का कहना है कि दलबीर कौर राजनीति में आ कर सरबजीत जैसे लोगों के लिए कुछ करना चाहती हैं जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं. सवाल यह है कि इन 23 सालों में सरबजीत की आवाज मीडिया के द्वारा देश ही नहीं पाकिस्तान में भी खूब सुनाई दी लेकिन क्या कभी दलबीर कौर ने सरबजीत के अलावा किसी और बेगुनाह के बारे में बात की जो पाकिस्तान की जेलों में कैद हैं.

सरबजीत के मुद्दे को ले कर सरकार की चुप्पी कई बड़े सवाल खडे़ करती है. आखिर इस मसले पर सरकार इतनी नरम क्यों है? आखिर वह दलबीर कौर के सामने घुटनों के बल क्यों खड़ी है? यदि सरबजीत को शहीद कहा जा रहा है तो वह भारतीय जासूस था और अगर वह  जासूस था तो प्रत्येक  देश अपने देश की जासूसी करने वाले के साथ नरम रुख से पेश नहीं आता. यदि वह मादक पदार्थों की तस्करी में लिप्त था तो वास्तव में वह गैरकानूनी काम कर रहा था. लेकिन यदि यह मान लिया जाए कि वह नशे की हालत में पाकिस्तान की सीमा में घुस गया तो यह सरबजीत की स्वयं की गलती या बेवकूफी है जिस की  सजा उस ने भुगती. इस के लिए कोई और नहीं वह खुद और उस का परिवार दोषी है. इस में राष्ट्रभावना अथवा देश का बहादुर बेटा होने का कोई तुक नहीं.

वैसे, किसी भी बेगुनाह, चाहे वह किसी भी देश का हो, को सजा मिलना न्याय के खिलाफ  और अमानवीय है, इस की कड़े शब्दों में निंदा होनी चाहिए. यदि विश्व का इतिहास देखें तो कितने ही बेगुनाहों ने दूसरे देशों की जेलों में सिर्फ संदेह की बिना पर आजीवन कारावास व मौत की सजाएं भुगती हैं. कोई किसी देश की सरहद में अवैध रूप से दाखिल होता है तो निसंदेह उसे लंबी सजाएं काटनी पड़ती हैं. हाल ही में भारतीय नागरिक चमेल सिंह की पाक जेल में पिटाई के बाद मौत हो गई. इसलिए यह एक अकेले सरबजीत की कहानी नहीं है.

भारत और पाकिस्तान की जेलों में सजा काट रहे सैकड़ों कैदी हैं, इन में कितने गुनाहगार हैं और कितने बेगुनाह, कोई नहीं जानता. विदेशों की ही नहीं, यदि हम अपने देश की जेलों में बंद कैदियों की बात करें तो हजारों कैदी सिर्फ शक के  आधार पर लंबी सजाएं काट रहे हैं. वर्षों उन पर मुकदमे चलते हैं और जब वे बेगुनाह साबित होते हैं तब तक उन की आधे से अधिक जिंदगी जेल की कोठरियों में गुजर चुकी होती है.

कई बार भटक कर लोग गलती से दूसरे देशों की सीमा में पहुंच जाते हैं. उन के साथ कू्रर व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए. पाकिस्तान के एक स्थानीय वकील ने एक मामले को उजागर करते हुए बताया कि किस तरह मानसिक  रूप से विक्षिप्त चंडीगढ़ का एक व्यक्ति अपनी पत्नी से ?ागड़ा करने के बाद पाकिस्तान के पेशावर में पकड़ा गया. वहां पूछताछ में उस ने पुलिस को बताया कि वह अफगानिस्तान जा रहा था. उसे वापस भारत भेज दिया गया.

इसी तरह एक 11 वर्षीय पाकिस्तानी लड़का भारतीय सीमा में पकड़ा गया जो शाहरुख खान से मिलने के लिए भारत आ रहा था. ऐसे हजारों मामले हैं जिन के बारे में कभी किसी को पता ही नहीं चलता और लंबे समय तक बेगुनाह लोग दूसरे देश की जेलों में सड़ते रहते हैं.

हाल ही में पाकिस्तान ने भारत की विभिन्न जेलों में बंद अपने 47 कैदियों को रिहा करने की मांग की है, जिन की सजा पूरी हो चुकी है. भारत व पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संयुक्त प्रयास से भारतीय जेल में 13 सालों से बंद 3 पाकिस्तानी मछुआरों को मार्च 2013 में रिहा कर दिया गया. इन मछुआरों पर धारा 120बी, 121,121ए, 489 ए, सैक्शन 25ए व फौरनर्स ऐक्ट के तहत आरोप तय किए गए थे.

पूर्व राजनयिक व उपराज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने अपने एक लेख में एक ऐसे व्यक्ति का जिक्र किया है जिसे शक के चलते पिछले 4 सालों से दार्जिलिंग के करेक्शनल होम में रखा गया है. इस लेख में गोपालकृष्ण ने इस करेक्शनल होम में बिताए गए अपने 1 घंटे के अनुभवों को बांटते हुए लिखा है कि साल 2006 में जब उन्होंने इस होम में लगभग 1 घंटा बिताया तो देखा कि यहां 60 लोगों को रखा गया था जिन में अधिकतर अंडरट्रायल थे. इन 60 में से 6 आईएसआई के एजेंट होने के संदिग्ध थे. इन में 2 पाकिस्तानी थे. इन 2 में से 1 हैदराबाद सिंध का था जिस ने अपनी कहानी सुनाते हुए बताया कि वह वैध तरीके से वाघा बौर्डर से भारत अपने रिश्तेदारों से मिलने और अजमेर शरीफ देखने आया था. उस ने बताया कि उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि वह वीजा खत्म हो जाने के 1 दिन बाद अपने देश लौट रहा था और इसलिए उसे गिरफ्तार कर लिया गया.

ऐसा भारत या पाकिस्तान में ही नहीं, हर देश में हो रहा है, जहां संदिग्ध लोग सजाएं काट रहे हैं. पुलिस उन के साथ बर्बर व्यवहार करती है. उन का गलत इस्तेमाल कर उन पर अनेक ?ाठे आरोप लगा देती है.

ऐसे बहुत कम मामले हैं जब लोग बेगुनाह होने पर रिहा कर दिए जाते हैं. अधिकांश तो उन्हीं देशों में मर जाते हैं. विश्व के कई हिस्सों में मछलियां पकड़ते समय जलीय सीमा को ले कर असमंजस की स्थिति में मछुआरे दूसरे देश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं जहां उन्हें गिरफ्तार कर के उन के साथ युद्धबंदियों जैसा सुलूक किया जाता है. दो देशों के बीच आपसी रिश्ते मधुर न होने के कारण इन मछुआरों को खोजा नहीं जाता और ये वहां जेलों में सड़ते रहते हैं. पिछले 60 सालों से पाकिस्तान व भारत के मछुआरे भी अनजाने में एकदूसरे की जलीय सीमा में घुस जाते हैं जहां वे कैद कर लिए जाते हैं और लंबा समय जेलों में बिताते हैं.

अपनी जान को जोखिम में डाल कर दूसरी सीमा में मछलियां पकड़ने के लिए निकलना क्या मूर्खता नहीं है. दार्जिलिंग में जो पाकिस्तानी व्यक्ति पिछले 4 सालों से सिर्फ इसलिए कै द है कि वह वीजा खत्म होने के बाद अपने देश लौटने की कोशिश कर रहा था तो इसे सरासर बेवकूफी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 

ऐसे मामले ही सरकार का निकम्मापन दर्शाते हैं. यदि सरकार कठोर प्रयास करती तो सरबजीत व पाकिस्तान जेलों में कैद उस जैसे अन्य कैदी रिहा हो सकते थे. लेकिन सरकार ने इस मुद्दे को कभी गंभीरता से लिया हो, ऐसा लगता नहीं. न्यूयार्क में 16 सितंबर 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की मुलाकात में एक मुद्दा सरबजीत की रिहाई का भी उठा था. मुशर्रफ 5 सालों से परवेज मुशर्रफ से ले कर आसिफ अली जरदारी तक किसी पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने भारत की ओर से की गई अपील पर सुनवाई नहीं की.

बीते साल अप्रैल में भारत आए पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के आग्रह और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भारत ने अजमेर जेल में बंद पाक नागरिक डाक्टर खलील चिश्ती को तो रिहा कर पाकिस्तान भेज दिया लेकिन मनमोहन सिंह व आसिफ अली जरदारी की मुलाकात में सरबजीत पर किए गए भारतीय आग्रह पर पाकिस्तान ने फैसला नहीं किया. वर्ष 2012 में तत्कालीन विदेश मंत्री एस एमात्मक  नतीजे आ सकते हैं. लेकिन भारत की ओर से की गई हर कोशिश नाकाम साबित हुई. पाकिस्तान सरबजीत के मामले में भारत को हर बार गच्चा देता रहा. सरबजीत का परिवार और अधिकांश लोग इस के लिए सरकार के ढुलमुल रवैए को दोषी मानते हैं.

एक दैनिक अखबार के संपादकीय में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में सरबजीत पर हुए हमले पर लिखा गया, ‘सरबजीत की मौत पर पाकिस्तान यह नहीं कह सकता कि लाहौर की कोट लखपत जेल में उसे गैर सरकारी तत्त्वों ने निशाना बनाया क्योंकि जेल अधिकारियों की मिलीभगत के बगैर उस पर ऐसा संगीन हमला संभव नहीं था.’

संपादकीय में आगे लिखा है, ‘भारत सरकार ने कभी भी ऐसा प्रदर्शित नहीं किया कि सरबजीत की सुरक्षा या उस की रिहाई उस के एजेंडे में है. सरकार अपने नागरिकों की परवा नहीं करती, बल्कि वह अपने मानसम्मान की भी फिक्र नहीं करती तो फिर सीधे तौर पर यह हमारी सरकार की नाकामी है.’

दरअसल, दोनों देशों के हाई कमीशन निकम्मे हैं जो अपने देश के बेगुनाह लोगों के लिए कुछ ठोस उपाय नहीं कर सकते. यदि सरबजीत बेकुसूर था तो 23 सालों के लंबे वक्त में हमारी सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक भी ईमानदार पहल क्यों नहीं की? इसे मानवीय पहलू से देखने के बजाय सिर्फ राजनीतिक लाभहानि की दृष्टि से देखा गया. ऐसे मामलों में दोनों देशों की कूटनीतिक विफलता सामने आती है.

जानेमाने स्तंभकार हृदयनारायण दीक्षित सरबजीत के मामले में हीलाहवाली के लिए देश की सरकार को दोषी मानते हैं. उन्होंने लिखा है, ‘‘पाकिस्तान भारत में घुसपैठ कराता है, पाकिस्तान में आतंकी  ट्रेनिंग कैंप हैं, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बात भी स्वत: सिद्ध है, बावजूद इस के भारत निरीह, लाचार, असहाय और बेबस क्यों है?’’

उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘पाकिस्तानी जेलें भारत के निर्दोष कैदियों से भरी हुई हैं. कुछ समय पहले तत्कालीन विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने राज्यसभा में बताया था कि पाकिस्तान की जेलों में 793 भारतीय बंद हैं. इन में 582 गरीब मछुआरे हैं, शेष 211 साधारण नागरिक हैं. इन निर्दोष लोगों को पाकिस्तानी जेल में सड़ने देना और भारतपाक शीर्ष वार्त्ताओं में मजे लेना भारतीय राजनयिकों की लत है.’’

वे आगे लिखते हैं, ‘‘सैकड़ों भारतीय कैदी अब भी पाकिस्तान की जेलों में यातनाओं के शिकार हैं. मूलभूत प्रश्न है कि भारत सरकार ने इन के लिए क्या किया? डाक्टर खलील चिश्ती की रिहाई के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री से वार्त्ता की थी. सरबजीत के लिए डा. मनमोहन सिंह ने क्या प्रयास किए? असल में भारत की पाक नीति में ही सारा दोष है. दिल्ली के सिंहासन की कमजोरी ने राष्ट्र को आहत किया है.’’

सरबजीत की मौत पर बुद्धिजीवी वर्ग के साथसाथ पूरे देश की यही प्रतिक्रिया है कि सरकार ने यदि ठोस प्रयास किए होते तो सरबजीत की रिहाई मुमकिन थी.  सरबजीत सिंह गुनाहगार था या बेगुनाह, यह कोई नहीं जानता. दोनों देशों के अपनेअपने तर्क हैं. लेकिन सरबजीत अब तथाकथित शहीद है. उसे वह दर्जा दे दिया गया है जो पजांब के स्वतंत्रता सेनानी शहीद भगत सिंह को दिया गया है. अब शहीद सरबजीत सिंह और भगतसिंह में कोई अंतर नहीं है. भविष्य में स्कूलों में शहीद सरबजीत सिंह की जीवनी का भी एक चैप्टर शामिल किया जा सकता है अथवा स्वतंत्रता दिवस पर सरबजीत सिंह की समाधि पर जा कर सरकारी व गैरसरकारी लोग श्रद्धांजलि अर्पित करें तो हैरानी की बात नहीं. यानी समय बदलने के साथसाथ शायद शहीद के माने भी बदल गए हैं.

पाकिस्तानी सीमा में अवैध प्रवेश से शुरू हुआ सरबजीत का सफर यातना भरी सजा, माफी की गुहार और भारत व पाकिस्तान के अस्पष्ट रवैए के उलझे गलियारों से गुजरता हुआ दर्दनाक मौत पर खत्म हुआ. पर क्या यह मौत सच में शहादत थी? पढि़ए बुशरा की यह रिपोर्ट.

भारत व पाकिस्तान की सरहद जिस के दोनों ओर बसे नजदीकी गांवों के लोग जब कभी उसे पार करने की गलती कर बैठते हैं तो उन का सकुशल वापस लौटना मुश्किल होता है.

एक शहीद सैनिक की तरह तिरंगे में लिपटा सरबजीत का शव कई सवाल खड़े करता है.

(बाएं से दाएं) दलबीर कौर (बहन), सुखप्रीत कौर (पत्नी), पूनम व स्वप्नदीप (बेटियां) : नशा करने से पहले सरबजीत ने काश एक बार अपनों के बारे में सोचा होता. क्या भाई की मौत में दलबीर कौर अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रही हैं? सरबजीत की अंतिम यात्रा देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि समय बदलने के साथसाथ शहीद के माने भी बदल गए हैं. सरबजीत का दोस्त सरदार मजेंदर सिंह. सरबजीत का दोस्त सरदार मजेंदर सिंह. भिखीविंड स्थित सरबजीत का घर, जहां अब उस की यादें ही रह गई हैं.

संजय दत्त, कानून, सजा

संजय दत्त को अपराध करने के 20 साल बाद सजा देने और जेल में जाने के फैसले को न्याय नहीं अन्याय कहा जाएगा. यह अन्याय संजय दत्त के साथ नहीं, पूरे देश और उस की जनता के साथ है कि एक ऐसा व्यक्ति जिस ने हथियार रखने जैसा अपराध किया और 19 साल तक आजाद घूमता रहा. अगर वह अपराधी संजय दत्त न हो कर कोई पेशेवर अपराधी होता तो क्या जनता के लिए गंभीर खतरा न होता? क्या हजारों ऐसे अपराधी खुलेआम नहीं?घूम रहे होंगे?

विवाद इस बात का नहीं है कि संजय दत्त को माफी दी जाए या नहीं बल्कि इस बात पर उठना चाहिए कि न्याय करने में देर करने वालों को समाज और उस का कानून अपराधी क्यों नहीं माने. किसी भी अपराध के पीडि़तों को पहला सुकून तब मिलता है जब अपराधी को सजा मिल जाए और सजा ऐसी कि वह पीडि़त को दोबारा प्रताडि़त न कर सके. अगर समाज ऐसी न्याय व्यवस्था नहीं तैयार कर पा रहा जिस में पीडि़त को संतोष मिल सके और जनता को भरोसा मिले कि देश में कानून का राज चल रहा है तो दोषी सरकार, पुलिस, नेता, अदालतें और न्यायाधीश सभी हैं.

संजय दत्त और उस जैसे दूसरों को इस तरह के मामलों में राहत मिलनी चाहिए जिन में मामले वर्षों चलते रहे हों और पुरानी गवाहियों के आधार पर फैसले दिए जाने हों. इन मामलों में जमानत पर वर्षों से छूटे लोगों को जेल भेजना बिलकुल गलत है चाहे वह डाकू मंगल सिंह हो, सुखराम हो या संजय दत्त. जब वर्षों तक एक अपराधी समाज में खुलेआम घूम रहा हो पर समाज के लिए खतरा न हो तो उसे सजा दे कर कानूनी कागजी कार्यवाही करना, मरी मक्खी मारने जैसा है.

देश की अदालतों में लाखों ऐसे मुकदमे भी लंबित हैं जिन में वर्षों से अभियुक्तों पर अपराध सिद्ध नहीं हुआ पर जमानत न मिलने के कारण वे जेलों में सड़ रहे हैं. यह भी अमानवीय है, जनता के साथ अपराध है. संजय दत्त का मामला तो सिर्फ झकझोरने के लिए है कि 20 वर्ष बाद अपराधी या निरपराधी सिद्ध करने का आखिर अर्थ क्या है? हम किसी संवैधानिक, कानून के राज में रह रहे हैं या काले राज में, जहां पुलिस, जेल और कानून की धौंस चलती हो, जो मनमरजी करते हों.

होना तो यह चाहिए कि इस तरह के सभी अपराधियों को सस्पैंडेड सजा दी जाए यानी जब तक वे फिर गुनाह न करें, आजाद रहें. उन्हें अपराधी माना जाए पर जेल काटना ही इकलौता उपाय न हो. क्या ऐसा कानून बनाना कठिन है

इन्हें भी आजमाइए

सफर के दौरान हैंड सैनिटाइजर, फेस वाइप्स व वैट टिश्यूज का प्रयोग करें क्योंकि हर जगह साबुन और पानी न मिलने से आप को चेहरा व हाथ साफ करने में आसानी होगी.

यात्रा के लिए बैग पैक करते समय हलका सामान नीचे व भारी चीजों को ऊपर रखें. ऐसा करने से पूरा सामान बैग में आसानी से आ जाएगा.

टाई पर सिलवटें न पड़ें, इस के लिए टाई को उलटी तरफ से रोल करें. रोल करने की शुरुआत पतले किनारे से करें. रोल करने के बाद टाई को जुराब में रखें.

यदि साक्षात्कार या नौकरी के लिए यात्रा कर रहे हों तो सभी कागजात पहले से ही चैक कर के फाइल में रख लें.

यात्रा की पैकिंग में बैल्ट को रोल कर के रखने के बजाय सूटकेस के घेरे में चारों तरफ रखें. इस से जगह बचेगी.

यात्रा के दौरान फर्स्टएड बौक्स से सिरदर्द, पेटदर्द, उल्टी, जुकाम, सर्दी, खांसी की दवा, ऐंटीसेप्टिक क्रीम व बैंडेड रखना न भूलें.

यात्रा के सामान में एक छोटे पाउच में सूईधागा व कुछ बटन अवश्य रखें ताकि जरूरत पड़ने पर उधड़ी सिलाई व टूटे बटनों को टांका जा सके.

ऐसा भी होता है

मेरी दोस्त अपने बेटे के लिए लड़की खोज रही थी. कई जगहों से रिश्ते आए. उन में से एक लड़की और उस का परिवार उस को व उस के बेटे को बहुत पसंद आया. बात आगे बढ़ी. एक बार मेरी सहेली और उस के पतिदेव उस लड़की के परिवार से जा कर मिल कर भी आ गए. वे लोग इंदौर में रहते थे. जब सबकुछ ठीक लगा तो यह तय हुआ कि लड़की चूंकि दिल्ली में ही नौकरी करती है और अपनी सहेली के साथ वहीं रहती है और लड़का गुड़गांव में है तो दोनों एक बार मिल लें.

मेरी सहेली ने अपने बेटे को फोन कर के बता दिया कि वह लड़की तुम से मिलेगी और उस का फोन नंबर भी दे दिया. नियत समय पर दोनों एक थ्री स्टार होटल में मिले.

यहां तक तो ठीक था पर मुश्किल तब हो गई जब उस मुलाकात के बाद वह लड़की अपने घर नहीं पहुंची. न घर वालों से उस ने बात की और न ही अपनी सहेली को कुछ बताया, बस गायब हो गई.

सब फिक्रमंद हो गए, सब से ज्यादा तो लड़का घबरा गया. उसे लगा, लोग उस के ऊपर उंगली न उठाएं कि कहीं उस ने कुछ कह तो नहीं दिया, कुछ कर तो नहीं दिया.

गनीमत हुई कि लड़की के परिवार वाले समझदार निकले और उन्होंने दोष लड़के वालों को नहीं दिया. शायद वे अपनी बेटी के बारे में कुछकुछ जानते थे. पूरे 4 दिन बाद उस लड़की ने अपने परिवार वालों को फोन किया और बताया कि वह एक लड़के से प्यार करती है और उस ने उस लड़के से कोर्ट में जा कर शादी भी कर ली है. मेरी सहेली और उस के पति ने सिर पकड़ लिया और खैर मनाई कि उन के बेटे की जिंदगी बच गई. अनीता सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

मेरे विद्यालय के पास एक सज्जन के यहां बेटी की शादी थी. उन्होंने पार्क में टैंट लगा कर शादी की व्यवस्था की थी. परंतु उस दिन अचानक इतना पानी बरसा व  हवा इतनी तेज चली कि टैंट गिर गया. उन की समझ में नहीं आ रहा था क्या करें. बगल में विद्यालय के प्रधानाचार्य से उन्होंने बात की कि विद्यालय में एक रात बरात ठहरने दी जाए. प्रधानाचार्य ने मना किया लेकिन प्रशासनिक दबाव में आ कर उन्हें विद्यालय के कुछ कमरे व आंगन देना पड़ा.

शादी के बाद दूसरे दिन जब विद्यालय खुला तो पता लगा कि बरातियों ने काफी नुकसान किया हुआ था. नल वगैरह तोड़ दिए थे. जगहजगह पान खा कर थूका हुआ था. सिगरेट के टुकड़े व शराब की बोतलें इधरउधर बिखरी थीं. ब्लैकबोर्ड पर गालियां लिखी हुई थीं. यह सब देख कर मन क्षुब्ध हो गया कि शिष्ट शिक्षा स्थल में भी लोग अपनी अभद्रता दिखाने से बाज नहीं आते. उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

बच्चों के मुख से

मेरा नाती विहान, जिसे हम सब प्यार से विहू कह कर बुलाते हैं, अभी 2 साल का नहीं हुआ है लेकिन बहुत बोलने लग गया है. उस की एक मजेदार आदत है, यदि उस को कोई भी चीज दिखा कर पूछो, विहान, यह किस का है? तो फौरन 2 बार बोलेगा, ‘विहू का है, विहू का है.’
एक दिन मेरी दीदी का बेटा विहान के लिए एक गेंद ले कर आया, जिस से दिनभर वह खेलता रहा. शाम को जब उस के पापा आए तो उन्होंने पूछा, ‘‘यह गेंद कौन लाया?’’

मैं ने उन्हें बताया कि दीदी का बेटा आया था, वह ही लाया था. उन्होंने शायद ठीक से सुना नहीं पलट कर फिर से पूछा, ‘‘किस का बेटा?’’

विहान ने बस इतना सा सुना और बोलना शुरू कर दिया, ‘‘विहू का बेटा, विहू का बेटा.’’

उस का इतना कहना था कि हम सब खिलखिला कर हंस दिए.  अनीता सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

मेरा पोता मानिक साढ़े 3 साल का है. वह हाजिरजवाब है. वह जब भी मौल घूमने जाता तो खिलौनों की दुकान पर जिद कर के कुछ न कुछ ले लेता. एक दिन उस की मम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, हर बार खिलौने के लिए जिद नहीं करते, जब भी तुम खिलौने की दुकान देखो, अपनी आंखें बंद कर लिया करो.’’
हम सब मौल घूमने गए. मेरी बहू को एक नैकलैस पसंद आ गया और उसे खरीदने के लिए वह मेरे बेटे से बारबार कहने लगी. बेटे ने कहा, ‘‘इस बार नहीं, फिर कभी खरीद लेना.’’ इतने में मेरा पोता झट से बोला, ‘‘मम्मा, आप भी ज्वैलरी की दुकान आने पर अपनी आंखें बंद कर लिया करो, जिद मत किया करो.’’ उस की बात सुनते ही हम सब की हंसी छूट गई. परमजीत कौर, मोहाली (पंजाब)

मैं ने अपने 4 साल के बेटे राजू को अपने दोस्त को ‘उल्लू का पट्ठा’ बोलते सुना, तो मैं अचंभित हो गई. घर में तो ऐसे कोई बोलता नहीं, यह कहां से सीख आया? मैं ने उस से पूछा, ‘‘राजू, तू ने यह बोलना कहां से सीखा?’’
उस ने कहा, ‘‘बंटी रोज मुझे कहता है.’’
मैं ने उसे समझाया, ‘‘बेटा, उल्लू डरावना और गंदा दिखने वाला पक्षी है, इसलिए ‘उल्लू का पट्ठा’ बोल कर चिढ़ाने से दूसरों को बुरा लगता है.’’

‘‘तो फिर मैं क्या बोलूं, मिट्ठू का पट्ठा बोल सकता हूं क्या?’’ सुन कर मैं चकित हो गई. मैं ने उसे बांहों में भर कर कहा, ‘‘हां बेटा, जरूर कहना. मिट्ठू तो सब का प्यारा पक्षी है न.’’ शालिनी व्यास, उदयपुर (राज.)

सफर सुहाना अनजाना

एक बार हम अपने रिश्तेदार की शादी  में शामिल होने के लिए कार से गुहाना गए. हम काफी सारे लोग थे और सभी अपनीअपनी कार से चले. सभी कारें आगेपीछे होने के कारण ठीक से रास्ता पता न होने पर भी हम सही जगह पहुंच गए.
परंतु वापसी के समय काफी रात हो गई और जब चलने लगे तो पता चला कि सभी कारें अभीअभी निकल गईं. बस, हमारी ही कार रह गई. किसी तरह हम वहां से चले परंतु रास्ता न पता होने की वजह से हम भटक गए और ऐसी जगह पहुंच गए जहां पर घर तो बहुत सारे थे परंतु गली अंदर से बंद थी. रात का 1 बज रहा था और हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम किधर की तरफ जाएं, किस से पूछें, डर भी बहुत लग रहा था.

तभी पता नहीं कहां से एक व्यक्ति अपनी कार से वहां से जा रहा था. इतनी रात को हमें देख कर रुक गया. जब हम ने उस से रास्ता भूल जाने की बात कही तो उस ने हमें जी टी रोड का रास्ता समझाया, जो काफी मुश्किल था. 

कुछ दूरी पर जा कर फिर अटक गए जहां 2 रास्ते थे. हमें समझ ही नहीं आया कि किधर जाएं परंतु शायद उस व्यक्ति को हमारी समस्या पता चल गई थी कि हम अच्छे से समझ नहीं सके हैं, इसलिए वह कार ले कर आ गया और बोला, ‘‘आप लोग मेरी कार के पीछेपीछे आओ, मैं आप को जी टी रोड तक छोड़ देता हूं.’’ उस ने हमें सही राह दिखाई. हम सभी ने उन सज्जन का बहुतबहुत धन्यवाद किया. आज भी उस सफर की याद आती है तो उस के लिए दिल से अनेक दुआएं निकलती हैं. पूनम जैन, पानीपत (हरियाणा)

हम लोग ग्वालियर से भोपाल आ रहे थे. ट्रेन विदिशा स्टेशन पर रुकी. हमारे सामने वाली सीट पर बैठे अंकल अपनी पत्नी के लिए अमरूद लेने ट्रेन से नीचे उतरे. ट्रेन बहुत कम समय के लिए रुकी थी. ट्रेन धीरेधीरे चलने लगी. अंकलजी अमरूद ले कर दौड़ते हुए चढ़ने लगे. उन का पैर ट्रेन की सीढ़ी से फिसल गया. सब लोग चिल्लाने लगे, ‘‘अरे, अंकलजी गिर गए.’’ आंटीजी भी बहुत घबरा गईं क्योंकि वे खिड़की से उन्हें देख रही थीं. तभी किसी ने ट्रेन की चैन खींच कर गाड़ी को रुकवा दिया.

अंकलजी प्लेटफार्म की दीवार और ट्रेन के बीच सकुशल खड़े थे. किसी ने ट्रेन रुकते ही कहा, ‘‘अरे, अंकलजी तो बिलकुल ठीक हैं.’’ और वहां उपस्थित सभी लोगों के चेहरों पर खुशी छा गई. हम लोग अपनी सीट पर वापस आए, देखा तो आंटीजी बेहोश थीं. हमारे ही कंपार्टमैंट में एक महिला ने ग्लूकोज का पानी उन्हें पिलाया. उन्होंने 2-3 मिनट बाद आंखें खोलीं और अंकलजी को खुद के सामने सुरक्षित पा कर खुश हो गईं.अल्पिता घोंगे, भोपाल (म.प्र.)

दिन दहाड़े

60 वर्ष की आयु होने पर मैं सेवानिवृत्त हो गया. उस के 3 महीने बाद राज्य सरकार ने आधे वेतन 15 हजार रुपए मासिक पर मुझे पुनर्नियुक्ति प्रदान कर दी और मेरा पदस्थापन मेरे निवास स्थान अजमेर शहर से 100 किलोमीटर दूर मालपुरा में कर दिया.
इस आयु में भी मैं ने कड़ी मेहनत से नौकरी कर 6 माह में 90 हजार रुपए जमा कर लिए, जिस में से 85 हजार रुपए नकद ले कर मैं बैंक में जमा करवाने गया. किसी कारणवश बैंक ने पैसे खाते में जमा करने से इनकार कर दिया. मैं मायूस हो कर बैंक से बाहर निकल आया.

घर लौटने के लिए अपनी बाइक के हैंडिल पर पैसों का बैग लटका कर मैं बाइक स्टार्ट करने ही वाला था कि मेरी जेब में रखे मोबाइल पर किसी का फोन आ गया. मैं बातें करने में व्यस्त था कि तभी सामने से एक लड़का आया और बोला, ‘‘बाबूजी, आप की जेब से पैसे गिर गए हैं.’’

मैं ने देखा तो मेरे दाएं पैर के पास 10-10 के 3 नोट पड़े थे. मैं ने सोचा कि जेब से मोबाइल निकालते समय नोट मेरी जेब से गिर गए होंगे.

मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए और उस लड़के की बातों में आ कर जैसे ही मैं उन नोटों को उठाने के लिए झुका और नोट जेब में रखने लगा तभी मेरी निगाह बाइक के हैंडिल पर पड़ी. देखा तो मेरा बैग और वह लड़का दोनों ही गायब थे. मुशर्रफ खान मेव, अजमेर (राज.)

मेरे पिताजी की मृत्यु हुई तो मैं ने एक प्रतिष्ठित दैनिक के राजस्थान संस्करण में शोक संदेश प्रकाशित करवाया.

कुछ दिनों बाद उस में प्रकाशित मेरे मोबाइल नंबर पर जयपुर से बड़े आत्मीय शब्दों में एक फोन आया. मैं ने उन सज्जन का परिचय पूछा तो उन्होंने कहा कि हम गीता प्रैस, गोरखपुर के जयपुर के प्रतिनिधि हैं. अगर आप शोक प्रकट करने वालों को गीता प्रैस की पुस्तक ‘गीता सार’ उपहार में देंगे तो अच्छा लगेगा. कीमत पूछने पर उन्होंने पुस्तक की कीमत 6 रुपए प्रति पुस्तक बताई. जब मैं ने उन से अपने बड़े भाई साहब से सलाह कर के निर्णय लेने की बात कही तो वे बारबार मुझ से पुस्तक खरीदने के लिए अनुरोध करने लगे. आखिरकार मैं ने उन्हें 200 पुस्तकों का और्डर दे दिया.

नियत दिन को सोडाला बस स्टैंड पर उन्होंने मेरे भतीजे अभिमन्यु को और्डर की गई पुस्तकों का पैकेट सौंप दिया. घर आने पर जब हम ने पैकेट खोला तो उस में 2 रुपए मूल्य की छोटी सी पुस्तिका ‘सत्संग की कुछ सार बातें’ निकलीं. और जब हम ने उन पुस्तकों की गिनती की तो वे सिर्फ 160 ही निकलीं.

इस धोखाधड़ी के लिए जब हम ने जयपुर के नंबर पर फोन किया तो पहले तो उन्होंने रूखे स्वर में बात की और बाद में फोन ही नहीं उठाया. गिरधारी सिंह, गंगापुरसिटी (राज.)

आप के पत्र

सरित प्रवाह, मार्च (प्रथम) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘अपराध, अपराधी और मृत्युदंड’ पढ़ी. इस विषय पर आप ने काफी विस्तार में कानूनी प्रक्रिया और देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को समझाने की कोशिश की है. मेरा यह मानना है कि गुनाहगार को, चाहे वह आतंकवादी हो या रेपिस्ट, सजा तो मिलनी ही चाहिए. यदि फैसला ठीक और जल्दी सुना दिया जाता है तो इस का असर जरूर पड़ेगा और देश में अपराध कम होंगे. बच्चे को मांबाप गलती करने पर उसी समय सजा देते हैं, इसलिए बच्चा संभल भी जाता है.

कुछ अपराधों के लिए मृत्युदंड अत्यंत आवश्यक है. किसी की हत्या होने पर उस को वापस तो नहीं लाया जा सकता. किसी लड़की या औरत का रेप होने के बाद उस का जीवन तो बरबाद हो ही जाता है.

मानसिक रूप से वह हमेशा अपने को हीन समझती रहती है. अकसर मांबाप भी उस का साथ नहीं देते. ऐसे में बलात्कारी को सजाएमौत दिया जाना पीडि़त महिला के लिए बेकार साबित होता है. 16 दिसंबर के हादसे के बाद जिस से भी मेरी इस विषय पर चर्चा हुई है, सभी का यही कहना है कि अभी तक तो आरोपियों को फांसी लगा भी देनी चाहिए थी.

मैं आप की बात से सहमत हूं कि आपसी विवादों को सुलझाने के समाज ने काफी तरीके बना रखे हैं. लेकिन क्या ये तरीके अपने देश में कारगर साबित हुए हैं या हो सकते हैं? बातचीत करतेकरते हम ने इतना समय व्यतीत कर दिया कि अब हर अपराधी बलवान दिखाई देता है मेरी आप से विनती है कि हमें अब किसी भी हालत में अफजलों, कसाबों, वीरप्पनों जैसे अपराधियों के बचाव की सिफारिश नहीं करनी चाहिए.

आज हर प्रदेश अपने अफजलों को बचाने में लगा है. हाल ही में उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है. वैसे तो संसद में प्रधानमंत्री के 6 मार्च के बयान के बाद देश की हर महिला को चैन से बैठ जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने हर महिला के सम्मान और सुरक्षा की गारंटी स्वयं संभाली है. ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

संपादकीय टिप्पणी ‘अपराध, अपराधी और मृत्युदंड’ में आप ने अफजल गुरू को फांसी की सजा से संबंधित कानूनी दांवपेंचों को बारीकी से कुरेदा है. डा. मनमोहन सिंह की सरकार को सुपर फास्ट टै्रक बना कर राजीव गांधी के हत्यारों के गरेबान तक तुरंत पहुंचना चाहिए. अपराध की दुनिया में कोई भी दोषी कितनी भी चतुराई से कानून को उलझा दे परंतु उस दोषी व्यक्ति को एक दिन सजा तो अवश्य मिलेगी.

यों तो 16 दिसंबर वाली घटना के अपराधियों को भी तुरंत प्रक्रिया में बांधना चाहिए. अभिव्यक्ति का अधिकार तो समस्त मानव जाति को मिल चुका है. देश ही नहीं, विदेशों में भी शोहरत पा चुके आशीष नंदीजी ने जातिपांति के अभिशप्त देश को बिना झेले ही उलटासीधा बता दिया.

गैरजिम्मेदारी की बयानबाजी कभीकभी इंसान को मूर्ख बना देती है. कहने को लोग कह ही देते हैं कि मीडिया वालों ने मेरे विचार को तोड़मरोड़ कर पेश किया. अरे भाई आशीष नंदीजी, आप को भ्रष्टाचार के तराजू से क्या मोलभाव करना है, बुद्धिमानी से साहित्य को पढ़ो और आगे की सुध लो. डा. जसवंत सिंह जनमेजय, (दिल्ली)

संपादकीय टिप्पणी ‘अपराध, अपराधी और मृत्युदंड’ पढ़ी. आतंकवाद से सारी दुनिया त्रस्त है. जहां तक भारत की बात है, महात्मा गांधी की हत्या के रूप में शुरू हुआ आतंकवाद आज चरमोत्कर्ष पर है.

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या, पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वैद्य की हत्या, मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के अलावा संसद पर हमला, कारगिल युद्ध, मुंबई हमला आदि में जानमाल की भीषण क्षति के बीच वी पी सिंह सरकार में गृहमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया की रिहाई स्पष्ट रूप से आतंकवादियों के मनोबल को बढ़ावा देना साबित हुई. इस के अलावा न्याय में विलंब व सरकार की इच्छाशक्ति में कमी के कारण तो जनता में निराशा की स्थिति घर करने लगी है.

ऐसी स्थिति में पहले मुंबई हमले का दोषी अजमल कसाब, फिर संसद हमले का मास्टरमाइंड अफजल गुरू को फांसी देर से ही सही, राष्ट्रहित में उचित कदम है. इस के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही संप्रग-2 की सरकार बधाई की पात्र है. कटु सत्य है जहर को जहर से ही मारा जा सकता है.

कानून के तहत विधि व्यवस्था बनाए रखने हेतु अपराधियों में खौफ पैदा करने के लिए कठोर कानून के रूप में फांसी जरूरी है. उम्मीद है राष्ट्रपति प्रणब दा कसाब व गुरू की तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारों के साथसाथ दिल्ली कार बम विस्फोट के दोषियों को भी शीघ्र ही फांसी दिए जाने की इजाजत देंगे. कृष्णकांत तिवारी, भोजपुर (बिहार)

‘अपराध, अपराधी और मृत्युदंड’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी अत्यंत रोचक, सामाजिक, सामयिक व ज्ञानवर्द्धक है. यह बिलकुल सत्य है कि अपराध की तैयारी करते समय अपराधी को न अपराध करने के दौरान मौत का भय रहता है और न अपराध के बाद दंड का. अपराधी को जेल केवल आम आदमी को सुरक्षा देने के लिए होती है कि अपराधी अब समाज से दूर है, उसे जेल में ही रखा जाए या मृत्युदंड दे दिया जाए, इस का कोई असर दूसरे अपराधी पर नहीं पड़ता. क्योंकि जब वे आतंक या अपराध को अंजाम देने निकलते हैं तब ही से मरने को तैयार होते हैं.

कितनों को अपराध के दौरान मार डाला जाता है, इस की गिनती करना कठिन है क्योंकि अपराधियों में जब आपसी रंजिश के कारण हत्याएं होती हैं तो अधिकांश मामलों में लाश का पता तक नहीं होता और मृत अपराधी के रिश्तेदार मुंह बंद रखते हैं.

अपराधियों को किसी भी तरह का दंड का भय नहीं होता. उन में केवल अपने कुकृत्य से मिलने वाले आनंद को पाने की इच्छा प्रबल रहती है. अगर उन के मन में किसी तरह का भय होता तो 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली गैंगरेप घटना या जो आएदिन इस तरह की घटनाएं देश में हो रही हैं, न घटतीं. अपराधी अगर पहले से सोच ले कि मुझे अमुक अपराध करने पर कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी तो वह अपराध करने का दुस्साहस नहीं करेगा. कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

आलोचना किसलिए

मार्च (प्रथम) अंक के अग्रलेख ‘नेता और नौकरशाह, भ्रष्टाचार का अटूट गठबंधन’ में आप ने कैग की भ्रष्टाचार और वित्तीय करप्शन रोकने में भूमिका पर अच्छा प्रकाश डाला है. कैग अपनी रिपोर्ट सरकार यानी मंत्रिपरिषद को नहीं, संसद को राष्ट्रपति के माध्यम से सौंपता है. सरकार का दखल न होने से कैग औडिट रिपोर्ट सटीक और विश्वसनीय होती है. संविधान के नियमों के अनुरूप जारी कैग अडिट रिपोर्ट का मुख्य लक्ष्य जनधन का अपव्यय उजागर करना ही होता है. राजनीतिक दल मीडिया में कैग की आलोचना कर जनता के बीच इमेज खराब कर के क्या हासिल करना चाहते हैं? कैग नहीं, राजनीतिक दलों को तो जनता के वोट चाहिए. इसलिए सरकार ऐसे काम क्यों नहीं करती जिस से औडिट विभाग को औब्जैक्शन ही न मिले.  संजय समयक, जबलपुर (म.प्र.)

पद की जरूरत क्या है

मार्च (प्रथम) अंक में प्रकाशित कहानी ‘गोधूलि में घुप अंधेरा’ में पढ़ा कि किस तरह कहानी के मुख्य पात्र को उस के पिता ने 12-13 साल की आयु में ही अपनी तनख्वाह पकड़ाते हुए कहा, ‘घर संभालो, मेरे बस का नहीं है ये सब’ और इसी अंक में छपे लेख ‘भाजपा का मिशन 2014’ के ये शब्द, ‘रामभक्त भाजपा में’ एक स्वर भी ऐसा नहीं उठा, जिस ने पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण अडवाणी का नाम पीएम पद हेतु लिया हो. सभी दूसरे नामों को ही प्रस्तुत करते रहे.

दरअसल, 21वीं सदी में आज सभी राजनीतिक दल युवाओं का गुणगान ही नहीं, बल्कि अपनेअपने परिजनों को ही युवाओं के नाम पर वारिस तक घोषित कर रहे हैं, ऐसे में भी लालकृष्ण आडवाणी का नाम उक्त पद के लिए घोषित किया जाना क्या अनुचित न होता? सही तो यही होता कि समय की मांग के अनुसार, अब स्वयं आडवाणी को ही कहानी के पात्रों के अनुसार आगे कहना चाहिए था कि अब तो भाजपा को भी किसी युवा या उपयुक्त उम्र के किसी योग्य कार्यकर्ता को ही पीएम पद हेतु आगे लाना चाहिए.

लालकृष्ण आडवाणी या लेखक को यह नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी ने कांग्रेस में सरकार बनने के बाद भी कोई पद नहीं लिया था, तो क्या उन का पद घट गया था? नहीं, बल्कि ठीक उसी तरह उन की उपयोगिता और महत्ता बाकी रही थी. यों भी आडवाणीजी की उम्र अब पथ प्रदर्शक या फिर संरक्षक बनने की है, प्रधानमंत्री बनने की नहीं. टी डी सी गाडेगावलिया (न.दि.)

चीनी छात्र

मार्च (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘अमेरिकी कालेजों में बढ़ते चीनी छात्र’ पढ़ा. पता चला इन दिनों यूएसए में सब से अधिक चाइनीज स्टूडैंट्स ऐडमिशन ले रहे हैं. ऐसे लोग यह सोच रहे हैं कि चीन सुपर रिच हो गया है. मुझे लगता है चीन को इस पर गर्व नहीं शर्म करनी चाहिए. मैं ने हिस्ट्री में पढ़ा है कि पिछली सदी में चाइनीज स्टूडैंट्स जापान में उच्च शिक्षा के लिए जाते थे. पर वहां उन से पैसा ऐंठा जाता था. ठीक वैसा अभी भी हो रहा है. चाइनीज कोई भी काम नया नहीं करते बल्कि वैस्टर्न की मात्र नकल करते हैं. नकल, पैसे व बल से चाइना कभी सुपर पावर नहीं बन सकता. इतना पैसा होने के बाद भी चीन ने कोई बड़ा आविष्कार नहीं किया है, जैसे हम भारतीय जीरो के आविष्कार पर गर्व करते हैं.

चीन में फर्स्ट कंप्यूटर अबैकस के अतिरिक्त कुछ नहीं. पड़ोसी देशों की जमीन पर बुरी नजर बैठाए चाइना के शैतान होने के नाते उस से सभी डरते हैं. कुल मिला कर यह साबित हो जाता है कि चीन हो या एशियाई देश, पश्चिमी देशों के सामने सभी नतमस्तक हैं.

भ्रष्ट और भ्रष्टाचार

मार्च (प्रथम) अंक का अग्रलेख ‘नेता और नौकरशाह, भ्रष्टाचार का अटूट गठबंधन’ और एक लेख ‘शिक्षक भरती घोटाला, बुरे फंसे चौटाला’ पढ़े. देखा जाए तो दोनों एक ही तसवीर के 2 रूप हैं. ऐसे घोटालों के कारण ही हमारा देश, जो कभी ‘सोने की चिडि़या’ कहलाता था, ‘लुटेरों के देश’ के नाम से जाना जाता है. बेशक हमारे देशवासियों की याददाश्त कमजोर है, जो एक के बाद दूसरे घोटाले के आते ही, पिछले सभी घोटाले उन के मनमस्तिष्क से लुप्त हो जाते हैं.

इसी का फायदा ये घोटालेबाज उठाते रहते हैं और बिना किसी भी डर या दंडात्मक खौफ के वे और भी दुस्साहस के साथ और बड़े घोटालों में संलिप्त हो जाते हैं. इस सभी के लिए हमारी कानून (दंड) व न्यायिक प्रक्रिया कम दोषी नहीं, क्योंकि गंभीर से गंभीर लूट के मामले में भी धीमी गति वाली प्रक्रिया अपनाई जाती है.

‘कैसे कम हो भ्रष्टाचार’ के शीर्षक वाले बौक्स के अंतिम पैरे में जिन सुझावों का उल्लेख किया गया है उन्हें वास्तव में अमलीजामा पहनाया जाए तो निसंदेह भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डाल कर, भ्रष्टाचारियों की नाकों में नकेल डाली जा सकती है.

हम मात्र दंड व न्याय प्रक्रिया पर दोषारोपण कर के भी तो नहीं बैठ सकते क्योंकि जो भी कुछ करवाना है वह निर्भर तो आखिर उसी गठबंधन यानी ‘नेता और नौकरशाह’ पर करता है, जो ‘चोरचोर मौसेरे भाई’ बन कर एकदूसरे का साथ निभाते नजर आते हैं. ऐसे में जब यह पढ़ने को मिलता है कि ‘ओम प्रकाश चौटाला जैसे नेता किसी नेता को सलाखों के पीछे पहुंचाया गया है’ तो अब तो ‘ऊंट की अपनी ऊंचाई का पता चल ही जाएगा.’ यहां अगर यह मान लिया जाए कि यह हमारी न्याय व्यवस्था ही है, जो किसी भी गठबंधन पर अपना हथौड़ा चलाने में सक्षम है, तो गलत नहीं होगा. ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)
शैलेश पवार

भारत भूमि युगे युगे

गहलोत की गफलत

नरेंद्र मोदी, शीला दीक्षित, नीतीश कुमार, शिवराज सिंह चौहान, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और जे जयललिता जैसे मुख्यमंत्रियों के सुर्खियों में रहने की कुछ वजहें होती हैं. नहीं होतीं तो ये खुद ही पैदा कर लेते हैं. लेकिन इस मामले में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दुख सहज समझा जा सकता है कि बेवजह मीडिया उन का बयान तक नहीं छापता. यह दीगर बात है कि छपने लायक बयान उन्होंने बीते 4 सालों में दिया ही नहीं.

अवसाद में डूबे सूखे प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रदेश का बजट पारित करने के बाद उस का तकरीबन 5वां हिस्सा इश्तिहारों में ही फूंक डाला. देशभर के अखबारों में उन के फोटो सहित बजटीय उपलब्धियों के इश्तिहार छपे. इस का मतलब यह नहीं कि उन के खाते में कोई उपलब्धि दर्ज हो गई हो बल्कि उन की भड़ास पर जम कर चांदी उस मीडिया ने काटी जो तगड़ी रकम डकारने के बाद भी उन्हें भाव नहीं दे रहा.

नीतीश का भड़ास शो

हजारों बिहारियों की भीड़ दिल्ली ले जा कर नीतीश कुमार ने वाहवाही तो लूट ली पर हकीकत में उन के इस भड़ास शो की वजह नरेंद्र मोदी थे. लिहाजा, इस का श्रेय नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए. पिछले साल बिहार में ही नीतीश का जम कर सार्वजनिक विरोध हुआ था और इस साल गुजरात में मोदी को जबरदस्त समर्थन मिला.

यह लड़ाई अधिकारों की नहीं है, विकास के मौडल्स की भी नहीं है और न ही राजनीतिक है, बल्कि व्यक्तिगत है जिस में नीतीश मात खा रहे हैं. बेहतर तो तब होता जब नीतीश अपने और बिहार के संसाधनों के बूते पर बिहार को चमकाएं. दिल्ली जा कर हल्ला मचाने से कुछ नहीं होने वाला.

जनता का पैसा बरबाद

मार्च के महीने में तरहतरह के टैक्स भरते कराहते लोगों ने संसद की तरफ ध्यान तो दिया कि वहां गरमागरम बहस चल रही है कि बेनी प्रसाद वर्मा ने मुलायम सिंह यादव को फिर उलटासीधा कुछ कह दिया, जिस पर सियासी माहौल बिगड़ गया है और हमेशा की तरह एक बार फिर यूपीए सरकार दिक्कत में पड़ गई है.

इस तरह की बहस जब संसद में होती है तो उस का खर्च भी आम आदमी ही उठाता है जिस के दिए टैक्स से सरकार चलती है. जागरूकता का अभाव ही इसे कहा जाएगा कि लोग कभी सरकार को इस बाबत नहीं कोसते कि हमारे पैसे का दुरुपयोग मत करो. बेनी व मुलायम जैसे मुद्दों पर संसद में चर्चा हो तो उस वक्त का संसद का खर्च इन नेताओं से ही वसूला जाना चाहिए.

देवता बनाने की कवायद

अभी से अंबेडकर जयंती मनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं. दलितों के अलावा इस बार सवर्ण हिमायती दल भी भीमराव अंबेडकर को भगवान की तरह पूजते दिखेंगे. एक खतरनाक साजिश देश में पनप रही है जिस के तहत 15-20 साल बाद अंबेडकर आदमी न रह कर देवता बना दिए जाएंगे.

इस साजिश के माने साफ हैं कि दलितों को अंबेडकर के नाम पर इतना बरगला दो कि वे अपनी बदहाली भूल अंबेडकर की प्रतिमाओं को पूजते पहले की तरह सवर्णों की ज्यादती को प्रसाद मान लें.

मायावती ने नोएडा और लखनऊ में तो उन के बुद्धनुमा विशाल मंदिर बनवा ही लिए हैं. सवर्ण भी खुश हैं और इस में भाग भी इसलिए लेते हैं कि उन के भगवान की मूर्तियां अछूतों के स्पर्श से बची रहेंगी. रैदास, कबीर, फुले जैसे कई दलित दार्शनिक भी इसी साजिश के तहत देवता बनाए जा रहे हैं और जयंतियों की भव्यता में इन चिंतकों का मूल दर्शन लोग भूलते जा रहे हैं.

दुनिया का अजूबा पेट्रा

वास्तुकला के शौकीन पर्यटकों के लिए दुनिया के 7 अजूबों में शामिल जौर्डन का ऐतिहासिक प्राचीन शहर पेट्रा एक विश्व विरासत स्थल के रूप में प्रसिद्ध है.  इस के दीदार के लिए दुनियाभर से पर्यटक यहां का रूख करते हैं. पेश हैं कुछ झलकियां :

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