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दंभियों के हाथ शासन

कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की हार का अनुमान पार्टी को पहले से ही था और उस के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई साल पहले साफ कह दिया था कि माइनिंग ठेकेदारों को अरबों बनवाने के आरोपों से घिरे उस के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को पद छोड़ना ही होगा चाहे कर्नाटक भाजपा के हाथ से निकल जाए. भाजपा को उम्मीद थी कि वह 10-20 सीटों को खोएगी पर परिणामों ने 70 सीटें छीन कर उस को सकते में डाल दिया.

भारतीय जनता पार्टी कहती रहे कि यह नुकसान येदियुरप्पा द्वारा अपनी कर्नाटक जनता पक्ष पार्टी बनाने के कारण हुआ पर यह तो पक्का है कि जो वोट येदियुरप्पा को मिले वे भारतीय जनता पार्टी की नीतियों के तो नहीं थे. येदियुरप्पा किसी भी तरह से महान भारतीय संस्कृति का ढोल नहीं बजा रहे और न ही मुसलिम दलित विरोध की छाप उन में है.

कर्नाटक में जीत कर कांग्रेस में कोई खास खुशी नहीं, सिर्फ संतोष है कि एक और बार पिटने से बचे. कांग्रेस के नेता वैसे ही आरोपों से घिरे हैं. अदालतों में रोज फटकार पड़ रही है और लोकसभा व राज्यसभा में जवाब देने को उन के पास शब्द नहीं रहते. आम जनता बेईमानी के कांडों से त्रस्त है और उस की हालत उस मेमने की तरह है जो शेर के पंजों में फंस गई है. 2014 में कांग्रेस का साथ जनता खुशीखुशी देगी, इस का?भरोसा तो कर्नाटक की जीत भी नहीं दिला सकती.

कर्नाटक में कांग्रेस की सीटें 42 बढ़ गईं पर उसे मतप्रतिशत में केवल 1.86 प्रतिशत की वृद्धि मिली है. यानी भाजपा से परेशान मतदाता भी कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर रहे.

कांग्रेस के लिए साल के अंत तक मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़  विधानसभाओं के चुनाव भी चुनौतियां रहेंगे पर कर्नाटक की जीत का मतलब है कि कांग्रेसी चुनावी दंगल में कम से कम मुंह लटका कर नहीं उतरेंगे.

अफसोस की बात है कि चुनावी प्रणाली अच्छे, शरीफ नेताओं को उतारने का काम बिलकुल नहीं कर पा रही. जनता के पास पर्याय नहीं होता या जनता जानबूझ कर बेईमानों का साथ देती है. कुछ भी कहिए पर चुनावी आंच में से जली लकड़ी, जो काली हो चुकी है, निकल रही है, लोहा फौलाद बन कर नहीं निकल रहा. चुनाव सही नेता नहीं, बेईमान व भ्रष्ट नेता पैदा कर रहे हैं. देश का शासन जनप्रतिनिधियों के नहीं क्रूर, दंभी, जनस्वामियों के हाथों में बंध गया है

पाकिस्तान में चुनाव

पाकिस्तान में चुनावों के जरिए सत्ता बदली, टैंकों और बंदूकों के बल पर नहीं, यही इस चुनाव की खासीयत रही है जिस में नवाज शरीफ की पार्टी बहुमत के करीब पहुंची. आखिरी दिन तक लग रहा?था कि कहीं कोई ऐसी बात न हो जाए कि चुनावों का रंग बेरंग हो जाए जैसे पिछले चुनावों से पहले बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी. चुनावों में आम लोगों की हत्याएं तो हुईं पर नेताओं में से सिर्फ इमरान खान के एक स्टेज से खुदबखुद गिर कर गहरी चोट लगने से थोड़ी चिंता हुई.

भारत के लिए पाकिस्तान में शांति और लोकतंत्र बहुत जरूरी है क्योंकि वर्ष 1947 के विभाजन के बाद दोनों देशों की राजनीति की धुरी में पाकिस्तान रहा है. कश्मीर का मसला तो गंभीर है ही, पाकिस्तान का लगातार भारत में आतंकी भेजना भारत की शांति के लिए खतरा बना हुआ है. लोकतंत्रों में आमतौर पर शासकों के अपने खुद के ही इतने पचड़े होते हैं कि वे दूसरों के कामों में दखल कम देते हैं.

पाकिस्तान में लोकतंत्र और कानून का राज होने का मतलब है कि वहां सेना और मुल्ला की ताकत कम होना जो दोनों ही भारत के बहाने अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. इस बार के चुनावों में न तो भारत को ज्यादा कोसा गया और न ही कश्मीरी लौलीपौप दिलाने की लंबीचौड़ी बात की गई. लोगों की मांग बिजली, व्यवस्था, गरीबी, नौकरियां आदि की रही.

जब जनता की सुनी जाने लगे तो सरकार के हाथ निरर्थक कामों से हट जाते हैं. रिश्वतखोरी तो चलेगी, बेईमानी भी होगी पर देश का पैसा बेकार में अफगानिस्तान या भारत में आग लगाने में इस्तेमाल न होगा. अगर नवाज शरीफ अपने वादे के अनुसार देश में प्रधानमंत्री का राज चला सकें और सेना को दखल न देने दें तो दुनिया का सब से खतरनाक देश कुछ चमक दे सकेगा और भारत राहत की सांस ले सकेगा.

 

कुछ पुराने पत्र

कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा
एक युग मेरी आंखों में
चलचित्र सा चलता रहा

मैं समझा था समझ लोगे
मगर तुम कब समझ पाए
मगर क्यों दोष दूं तुम को
हम भी तो न कह पाए

जो भेज न पाए जिन्हें
लिखलिख कर मैं रखता रहा
कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा

तुझे चाहत तो थी मेरी
मुझे चाहत थी बस तेरी
मगर कर न सका पूरी
वो जो शर्त थी तेरी

धनुष तेरे स्वयंवर का
मैं दूर से तकता रहा
कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा.

ढहा भाजपा का किला

भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को ले कर कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही थी, कर्नाटक चुनाव के बाद वे मुद्दे गौण होते दिखे. वहीं, जीत का दावा ठोंकने वाले भाजपा के स्टार प्रचारक और पीएम पद के प्रबल दावेदार नरेंद्र मोदी बुरी तरह से फ्लौप हो गए हैं. ऐसे में भाजपा का राजनीतिक भविष्य कैसा होगा

राजनीति लड़ाई के किसी मैदान से कम नहीं होती है. एक भी गलत कदम जीती बाजी को पलटने की क्षमता रखता है. भाजपाइयों का नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में आगे बढ़ाने का कदम कुछ ऐसा ही है. इस से भाजपा की अगुआई वाले एनडीए गठबंधन में दरार पैदा हो गई है. खुद भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लिस्ट लंबी हो गई है. नरेंद्र मोदी के अलावा लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि के नाम समर्थकों द्वारा सुझाए जा रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के समर्थक मानते हैं कि राजनाथ सिंह ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच दूरियां पैदा कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कुरसी हासिल कर ली थी, उसी तरह से केंद्र में वे लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी के बीच दूरियां पैदा कर के प्रधानमंत्री की कुरसी हासिल कर लेंगे.

जिस दिन से भाजपा में प्रधानमंत्री पद की दौड़ शुरू हुई है, एक के बाद एक 3 प्रदेशों से सत्ता उस के हाथों से निकल चुकी है. शह और मात के इस खेल में भाजपा के 3 मुख्यमंत्री उत्तराखंड के भुवन चंद्र खंडूरी, हिमाचल प्रदेश के प्रेम कुमार धूमल और कर्नाटक के जगदीश शेट्टार चुनावी युद्ध में परास्त हो गए हैं.

भाजपा की इस नाकामी से कांगे्रस को अपने ऊपर लगे आरोपों को धोने का मौका मिल गया कि देश में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है.

कर्नाटक चुनाव के पहले भाजपा यह दावा कर रही थी कि इस चुनाव में कांगे्रस की सचाई सामने आ जाएगी. भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में भ्रष्टाचार को भुनाने के लिए येदियुरप्पा को हटाया. इस के बाद ताश के पत्तों की तरह पहले सदानंद गौड़ा, फिर जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाया.

इतने उलटफेर के बाद भी भाजपा को जब अपनी नाव डूबती नजर आई तो उस ने गुजरात के योद्धा और प्रधानमंत्री पद के प्रबल उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए बुलाया.

नरेंद्र मोदी का जादू यहां नहीं चला. इस से एक बात यह साबित हो गई कि नरेंद्र मोदी का असर गुजरात के बाहर नहीं है. नरेंद्र मोदी को पता था कि कर्नाटक चुनाव से उन के वजन को तौला जाएगा इसलिए उन्होंने अपनी रणनीति के तहत प्रचार के लिए 3 शहरों बेंगलुरु, मंगलौर और बेलगाम को चुना. ये कर्नाटक के वे हिस्से थे जहां भाजपा की पकड़ मजबूत थी.

बेंगलुरु शहर की पहले 28 सीटें भाजपा के पास थीं. नरेंद्र मोदी के प्रचार के बावजूद भाजपा को महज 12 सीटें ही मिलीं. इसी तरह से मंगलौर और बेलगाम में भाजपा को पहले के मुकाबले कम सीटें ही हासिल हो सकीं.

नरेंद्र मोदी कर्नाटक चुनावों से अपने कद को बढ़ाना तो चाहते थे, पर उन्होंने इस चुनाव से जुड़ी किसी जिम्मेदारी को पूरा नहीं किया. नरेंद्र मोदी भाजपा की केंद्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य थे. इस के बावजूद कर्नाटक में उम्मीदवार तय करने की पार्टी की किसी मीटिंग में वे शामिल नहीं हुए. नरेंद्र मोदी ने जो प्रचार किया, वह नाममात्र के लिए था.

मुश्किलें अभी और भी हैं

वर्ष 2013 में भाजपा के लिए मुश्किलों का दौर यहीं खत्म होता नहीं दिख रहा है. लोकसभा चुनाव के पहले इस साल के अंत तक मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने हैं. मोटे तौर पर देखें तो इन 4 राज्यों में कांगे्रस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं. राजस्थान और दिल्ली में कांगे्रस की सरकार है. इन चुनावों का असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी तीसरी पारी खेल रहे हैं. गुजरात चुनाव के पहले भाजपा में नरेंद्र मोदी के बराबर उन का वजन तौला जा रहा था. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबी नेताओं में शिवराज सिंह चौहान का नाम लिया जाता था. इस के बाद भी भाजपा की केंद्रीय संसदीय बोर्ड में नरेंद्र मोदी को शामिल किया गया, शिवराज चौहान को किनारे कर दिया गया. भाजपा जिस तरह से नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग कर रही है उस में शिवराज सिंह चौहान की उपेक्षा हो रही है.

एक तरह से देखें तो शिवराज सिंह चौहान भी नरेंद्र मोदी की तरह 3 बार चुनाव जीत कर सरकार बना चुके हैं. चौथी बार भी वे अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे. जिस तरह से उन की उपेक्षा पार्टी में की गई उस से उन का मनोबल टूटा है. ऐसे में मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.

छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार भी अच्छा काम कर रही है. वे भी लंबे समय से प्रदेश में सरकार चला रहे हैं. शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह दोनों ही बिना किसी दाग के सरकार चला रहे हैं. उन पर नरेंद्र मोदी जैसा दाग नहीं लगा है. इस के बावजूद भाजपा में इन 2 नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा अपना जादू चलाने में सफल होगी, यह बात सवालों के घेरे में है.

दिल्ली में शीला सरकार के खिलाफ आम आदमी पार्टी के प्रचार से ऐसा लग रहा है जैसे वहां विपक्ष के रूप में भाजपा नहीं केवल आम आदमी पार्टी ही रह गई है. ऐसे में वोटों का गणित कहीं एक बार फिर शीला दीक्षित के लिए निर्णायक न बन जाए. इस से भाजपा की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.

राजस्थान में कांगे्रस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ कोई ऐसा बड़ा मामला नहीं है जिस से भाजपा अपने लिए कोई बड़ी उम्मीद देख सके. कुल मिला कर देखें तो इन चारों राज्यों में भाजपा को बहुत बढ़त हासिल होती नजर नहीं आ रही है. कांगे्रस इस का लाभ उठाने की पूरी कोशिश करेगी.

कर्नाटक में भाजपा की हार के 3 प्रमुख कारण थे. नेताओं में तालमेल का अभाव, केंद्रीय नेताओं का हस्तक्षेप और येदियुरप्पा विवाद. इन में से पहले 2 कारण मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में भी कायम हैं. कांगे्रस ने इसी कमी को मुद्दा बनाया और चुनाव जीत लिया.

उत्साह में कांगे्रस

कर्नाटक में कांगे्रस की जीत के साथ ही पार्टी के चेहरे पर गायब मुसकान वापस आ गई. उस के नेताओं ने नारा लगाना शुरू कर दिया कि ‘कर्नाटक तो ?ांकी है पूरा देश अभी बाकी है.’

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांगे्रस अभी तक बैकफुट पर थी. कर्नाटक चुनाव के बाद पार्टी में उत्साह बढ़ गया है. अब वह नरेंद्र मोदी के मसले पर भी नए सिरे से हमले तेज करेगी.

वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश और बिहार चुनाव की हार का ठीकरा जिस तरह से राहुल गांधी के सिर पर फोड़ा गया था, उस से उबरने का मौका उन को मिल गया है. अब मोदी और राहुल की तुलना में राहुल कमजोर नहीं दिखेंगे.’’

कांगे्रस नरेंद्र मोदी पर निशाना साध कर यह साबित करने की कोशिश करेगी कि स्थायी सरकार देने के लिए कांगे्रस को वोट दें. नरेंद्र मोदी के नाम पर जिस तरह से भाजपा के अंदर और उस के सहयोगियों में एकमत नहीं है उस से कांगे्रस को लाभ होता दिख रहा है.

भाजपा और कांगे्रस के बिना तीसरा मोरचा भी चुनाव के पहले कोई शक्ल लेता नहीं दिखेगा. ऐसे में यह साफ लग रहा है कि स्थायी सरकार के नाम पर जनता कांगे्रस को प्राथमिकता दे सकती है.

योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘कांगे्रस सरकार पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लग रहे हैं उन से गांधी परिवार पूरी तरह से खुद को अलग रखने में सफल रहा है. गांधी परिवार पर आरोप लगाने के जो काम हुए वे सफल नहीं हुए. ऐसे में हो सकता है कि कांगे्रस मनमोहन सिंह को दांव पर लगा कर नई चाल चल दे. कांगे्रस पार्टी भ्रष्टाचार का ठीकरा मनमोहन सिंह की सरकार पर डाल दे और खुद को पाकसाफ साबित करने की कोशिश करे.’’

राहुल गांधी के लिए अच्छी बात यह है कि कर्नाटक में स्टार प्रचारक के रूप में उन्होंने 9 जिलों में प्रचार किया. इन जगहों पर राहुल गांधी ने 60 से ज्यादा उम्मीदवारों के लिए वोट मांगा. यहां के काफी उम्मीदवार चुनाव जीत भी गए.

उत्तर प्रदेश कांगे्रस की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, ‘‘भाजपा जिस मोदी फैक्टर की दुहाई पूरे देश में दे रही थी, कर्नाटक में वह ध्वस्त हो गया है. राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद हुए पहले चुनाव में पार्टी को बड़ी जीत मिली है.’’

कर्नाटक चुनाव से कांगे्रस और भाजपा की ही तरह उत्तर प्रदेश की 2 पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भी सबक मिला है. समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार सीपी योगेश्वर चन्नापटना सीट से विजयी हुए हैं.

सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं, ‘‘कर्नाटक में सपा को सीट मिलने का यह मतलब है कि लोकसभा चुनावों में तीसरे मोरचे को वोटर पसंद करने लगे हैं.’’ बसपा सुप्रीमो मायावती के प्रचार के बाद भी बसपा कोई सीट जीतने में सफल नहीं हो पाई. कर्नाटक की कई सीटों पर दलित बड़ी संख्या में हैं. इस के बाद भी मायावती वहां पर अपना प्रभाव नहीं बना पाईं.

दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से हो कर गुजरता है, ऐसा इस राज्य में लोकसभा की सब से ज्यादा सीटें होने के चलते कहा जाता है. भाजपा के लिए दिक्कत यह है कि उस की वहां के वोटरों पर पकड़ ढीली है. इसी प्रदेश के राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष हैं, यदि उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए तो पार्टी को कुछ फायदा जरूर मिलेगा.

पार्टी का कट्टर तबका चाहता है कि हिंदुत्व के चैंपियन नरेंद्र मोदी को प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया जाए और उन की कट्टर छवि को पूरे राज्य में भुनाया जाए.

प्रदेश की मौजूदा सपा सरकार के दौर में भाजपा भावनाओं को भड़काने में सफल होगी, इस में संशय है. गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में संप्रदायवाद पर जातिवाद हावी है और सपा व बसपा इस के शातिर खिलाड़ी वहां मौजूद हैं, जबकि कांगे्र्रस सभी तबकों को साथ ले कर राजनीति करती है.

नारी शक्ति की बात करने वाली भाजपा ने सुषमा स्वराज को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष तब बनाया जब कांगे्रस ने राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में महिलाओं को आगे कर दिया था. जब प्रधानमंत्री पद की बात आई तो लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का नाम कहीं पर भी आगे नहीं किया गया. शिवसेना और खुद लालकृष्ण आडवाणी द्वारा तारीफ किए जाने के बाद भी सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं बनाया गया. नरेंद्र मोदी जैसे विवादास्पद नेता का नाम आगे कर के भाजपा चौतरफा मुश्किलों में घिर गई है. खुद नरेंद्र मोदी की चमक गुजरात के बाहर फीकी पड़ गई है.

कर्नाटक चुनाव ने इस पर अपनी मोहर लगा दी है. ऐसे में कब तक भाजपा प्रधानमंत्री पद की दौड़ में अपने मुख्यमंत्रियों को चुनावी समर में खेत करती रहेगी, यह लाख टके का सवाल है. प्रधानमंत्री बनाने से पहले भाजपा को ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतनी होंगी, इस के लिए मुख्यमंत्रियों का सहयोग जरूरी होगा. जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का गुणगान कर के दूसरे मुख्यमंत्रियों की उपेक्षा की जा रही है, उस से साफ है कि भाजपा ने सबक नहीं सीखा है. भाजपा में एक नेता का न होना उस के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाला है.

आम जनता की जीत

लोकसभा का क्वार्टर फाइनल माने जाने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जाहिर तौर पर भले ही सत्तारूढ़ भाजपा हारी और कांगे्रस पार्टी जीती लेकिन वास्तव में यह जीत राज्य के आमजन की है.

कर्नाटकवासियों का मानना है कि लोकतंत्र जीता है और भ्रष्टतंत्र हारा है. भाजपा ने अपने शासन के दौरान घोटाले पर घोटाले किए और उन पर परदा डालने के लिए वह मुख्यमंत्री बदलती रही. सरकार चलाने की उस की नीति दोषपूर्ण रही है. वह संपन्न वर्ग को बढ़ावा देती रही जबकि पिछड़े, गरीब व अल्पसंख्यकों को उस ने उचित तवज्जुह नहीं दी.

कोई और विकल्प न होने के चलते पिछड़े, गरीब व अल्पसंख्यकों ने भारी तादाद में कांगे्रस के पक्ष में मतदान किया. नतीजतन, वह बहुमत से विजयी हुई.

लोकसभा के क्वार्टर फाइनल के बाद इसी वर्ष सेमी फाइनल होना है यानी 4 राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं. इन चुनावी राज्यों में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. पहले 2 राज्यों में कांगे्रस की तो दूसरे 2 राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और उन चुनावों के बाद अगले वर्ष लोकसभा का फाइनल होगा यानी देशभर में आम चुनाव होंगे. कर्नाटक की यह हारजीत शायद फाइनल पर अपना असर छोड़े और तब प्रदेश से चुने जाने वाले ज्यादातर सांसद कांगे्रस के ही हों.

-साथ में अशोक कुमार

रेल घूस कांड

मामाभांजे पवन कुमार बंसल और विजय सिंगला की घोटाला ऐक्सप्रैस को घूस कांड के खुलासे ने भले ही पटरी से उतार दिया हो लेकिन इस ऐक्सप्रैस में सवार व मुनाफे में हिस्सेदार रिश्तेदारों, अफसरशाहों और हमराजों पर शिकंजा कसना बाकी है. पढि़ए घूसखोरों के इस पूरे कुनबे की पड़ताल करती रिपोर्ट.

देश के नियोजित और सब से खूबसूरत व आधुनिक शहर चंडीगढ़ की राजनीतिक आबोहवा में इन दिनों भ्रष्टाचार की गंध घुली हुई है. शहर के राजनीतिक हलकों में जबरदस्त गहमागहमी दिखाई दे रही थी. यहां से लोकसभा के लिए चुन कर भेजे गए सांसद व रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भविष्य पर निर्णय की घड़ी का इंतजार था. वजह थी, इस शहर के नुमाइंदे रेल मंत्री के महकमे में प्रमोशन व पोस्टिंग को ले कर खरीदफरोख्त का परदाफाश होना. बंसल के रिश्तेदार बिचौलिए की भूमिका निभाते रंगेहाथों पकड़े गए. मामले में बंसल सहित रिश्तेदारों की गरदन सीबीआई के शिकंजे में फंस गई.

10 मई को शाम के करीब साढ़े 6 बजे चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में मुर्दनी छाई हुई थी तो सैक्टर 33 में मेन मार्केट के सामने स्थित भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय कमलम में बैठे लोगों के चेहरे खिले हुए थे. चंडीगढ़ प्रदेश भाजपा के महासचिव चंद्रशेखर समेत दूसरे पदाधिकारियोें की निगाहें मीटिंग हौल में लगे टैलीविजन सैट पर लगी हुई थीं. ये लोग एक नैशनल न्यूज चैनल पर अपने पूर्व सांसद व राष्ट्रीय लीगल सैल के प्रभारी सत्यपाल जैन को प्रतिद्वंद्वी पवन  कुमार बंसल के खिलाफ जोरदार तर्क देते हुए देख रहे थे.

रेल मंत्री का हटना अंतिम लक्ष्य नहीं

पवन बंसल को मंत्री पद से हटवा कर आप का मकसद पूरा हो गया?
यह हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं था. यह एक पड़ाव है. अब हम चाहते हैं कि सीबीआई बंसल से पूछताछ कर के कठोर कार्यवाही करे.

बंसल के खिलाफ आप जो दस्तावेज पेश कर रहे हैं, क्या उन में उन की गिरफ्तारी के पर्याप्त सुबूत हैं?
देखिए, कई बार सीबीआई सुबूत जुटाने के लिए आरोपी को गिरफ्तार करती है, कई बार सुबूत होने के बाद. यह एक प्रक्रिया है. हम चाहते थे कि पहले रेल मंत्री पद से हटें क्योंकि इस पद पर रहते जांच एजेंसी खुल कर निष्पक्ष तरीके से आरोपियों से पूछताछ नहीं करती. अब जब बंसल हट गए हैं तो सीबीआई रेल मंत्रालय के अधिकरियों और खुद बंसल से बिना किसी हिचक, भय के जबतब पूछताछ करेगी.

पवन बंसल का परिवार और रिश्तेदार उन की राजनीतिक हैसियत का फायदा उठा कर आगे बढ़े और बड़ी संपत्ति इकट्ठा करने में लगे थे?
बंसल शुरू से ही कांग्रेसी रहे हैं. वे भटिंडा के तपामंडी से चंडीगढ़ आए. उन के पिता लाला प्यारेलाल बंसल आढ़त का काम करते थे. पवन बंसल ने यहां हाईकोर्ट में वकालत शुरू की और केंद्र की राजनीति में जगह बनाई. उन के राजनीतिक रुतबे के कारण ही परिवार और रिश्तेदारों की आर्थिक उन्नति हुई है.

तभी न्यूज चैनलों पर पवन बंसल के इस्तीफे की ब्रेकिंग न्यूज चल पड़ी. माहौल और ज्यादा खुशनुमा हो गया था. एक कार्यकर्ता खुशी और जोश में चिल्ला पड़ा, ‘गए बंसल जी’. दूसरा बोला, ‘अभी मामला थोड़ा और चलने देते.’

चंडीगढ़ भाजपा के महासचिव चंद्रशेखर कहते हैं, ‘‘आज ही हम ने प्रैस कौन्फ्रैंस की है जिस में पवन बंसल के खिलाफ सुबूत दिए हैं. सीबीआई के सैक्टर 30 स्थित औफिस में जा कर दस्तावेज भी सौंपे हैं.’’

भाजपा कार्यालय से निकल कर करीब 7 बजे जब हम सैक्टर 28 ए स्थित पवन बंसल की कोठी नंबर 64 के सामने पहुंचे तो 2 पुलिस जिप्सियां, एक बड़ी गाड़ी सहित पचासों पुलिसकर्मी कोठी के आसपास तैनात थे क्योंकि 4-5 मई को विपक्षी भाजपा के नेता और पार्टी की विद्यार्थी इकाई एबीवीपी के कार्यकर्ता बंसल के घर के बाहर प्रदर्शन कर चुके थे. कोठी से 500 मीटर पहले ही कोने पर पुलिस ने बैरीकेड्स लगा रखे थे.

सड़क के दोनों ओर शानदार कोठियों के बावजूद खाकी वरदीधारियों के अलावा कोई भी आमजन नजर नहीं आया. घर के भीतर खामोशी थी. कोई हलचल नहीं. मुख्य दरवाजे के सामने आगंतुकों से मिलने के लिए बना कार्यालय बाहर से स्पष्ट दिख रहा था, पर यहां भी कोई न था. अंदर 3 लग्जरी गाडि़यां जरूर दिखाईर् दे रही थीं.

कोठी के दोनों तरफ तैनात पुलिसकर्मियों से पूछताछ करने पर पता चला कि बंसल की पत्नी और बेटे दिल्ली गए हुए हैं. फिलहाल घर पर बंसल की बहू और बच्चे ही हैं. लगभग 12 फुट लंबे और 6 फुट ऊंचे बेशकीमती लकड़ी के दरवाजे व बाहर दोनों ओर बने चौकीदार कक्ष के साथ 1 हजार वर्गगज में बनी हलके पीले रंग की शानदार कोठी में रहने वालों की समृद्घि का अंदाजा लगाया जा सकता है.

दरअसल, 3 मई को सीबीआई ने चंडीगढ़ के सैक्टर 28 ए स्थित घर और 28 सी स्थित पवन बंसल के भांजे विजय सिंगला के औफिस में छापा मारा और अगले दिन गिरफ्तार कर के उन्हें दिल्ली लाया गया तो राजनीतिक हलकों में भूचाल सा आ गया. आम लोग भी स्तब्ध रह गए.

उधर, रेल मंत्री ने साफ इनकार कर दिया कि उन का अपने भांजे से कोई लेनादेना है. विजय सिंगला पर आरोप था कि उस ने अपने मामा पवन बंसल के रेल महकमे की चौथी सब से बड़ी कुरसी के लिए 10 करोड़ रुपए में सौदा कर लिया था. विजय सिंगला रेलवे बोर्ड के सदस्य महेश कुमार को सदस्य (इलैक्ट्रिकल) बनाना चाहता था. पेशगी के तौर पर 90 लाख रुपए लेते हुए वह पकड़ा गया. बाकी पैसा उसे बाद में मिलने वाला था. मामले में सीबीआई ने बेंगलुरु के व्यवसायी मंजूनाथ, बिचौलिए संदीप गोयल समेत करीब 10 लोगों को भी धर पकड़ा.

विपक्ष भाजपा सहित अन्य दलों ने संसद में सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी. संसद नहीं चलने दी गई. विपक्ष पहले से ही कोयला घोटाले में स्टेटस रिपोर्ट बदलने पर कानून मंत्री अश्विनी कुमार के इस्तीफे पर अड़ा हुआ था. अब रेल मंत्री पद से पवन बंसल को हटाने की मांग जोरशोर से उठने लगी. विपक्ष किसी भी तरह नहीं माना तो संसद का बजट सत्र निर्धारित समय से 2 दिन पहले ही 8 मई को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया.

पहले से ही भ्रष्टाचार को ले कर बुरी तरह घिरी मनमोहन सरकार पर आफत और बढ़ गई. मामले की तह खुलने लगी तो मंत्री और उन के रिश्तेदारों की समृद्घि का राज बाहर आने लगा.

भाजपा नेता सत्यपाल जैन ने दस्तावेज पेश किए जिस में पवन बंसल के बेटे अमित बंसल, मनीष और भतीजे राजेश व विक्रम विभिन्न कंपनियों में निदेशक के तौर पर दिखाए गए हैं.

आरोप है कि वर्ष 1991 में चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पवन बंसल के परिवार और रिश्तेदारों की संपत्तियां तेजी से बढ़ने लगीं. वर्ष 2005 में स्थापित बंसल परिवार की पंचकूला और हिमाचल प्रदेश के बड्डी में स्थित थियोन फार्मास्युटिकल लिमिटेड का टर्नओवर तेजी से बढ़ने लगा. इस कंपनी में पवन बंसल की पत्नी मधु बंसल, बेटे अमित व मनीष डायरैक्टर हैं. इस कंपनी का वर्ष 2008 में टर्नओवर 15.35 करोड़ रुपए का था जो वर्ष 2012 में अप्रत्याशित तौर पर 152 करोड़ रुपए पहुंच गया.

बंसल का अंधविश्वासी टोटका

रेलवे घूस कांड में बुरी तरह फंसे पवन बंसल और उन का परिवार रिश्तेदारों की भ्रष्ट करतूतों के चलते बच नहीं पाया, इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उन के द्वारा किया गया अंधविश्वासी टोटका भी जगजाहिर हो गया.

10 मई को दिल्ली में अशोक रोड स्थित अपने सरकारी आवास में बकरे का टोटका करते हुए वे टैलीविजन चैनलों की नजरों में चढ़ गए. उन के आवास के बाहर एक सफेद बकरी लाई गई जिसे बंसल ने चारा खिलाया और पीठ पर हाथ फेरा. इस बीच पत्नी मधु बंसल ने पति पर लगी कथित बुरी नजर उतारी.

ये सब हरकतें देख टीवी चैनलों पर चर्चा गरम हो गई कि पवन बंसल ने कुरसी बचाने के लिए बकरे का टोटका किया. लेकिन यह रास नहीं आया. शाम होतेहोते सोनिया गांधी ने पवन बंसल को हटाने का अपना निर्णय सुना दिया.

यही नहीं, इसी बीच इन्होंने इवा हैल्थकेयर और आईएसआईएस पैकेजिंग कंपनी भी बना ली. पवन बंसल का परिवार ही नहीं, रिश्तेदारों ने भी इस दौरान करीब 10 कंपनियां खड़ी कर लीं. सत्यपाल जैन कहते हैं कि कम से कम 10 कंपनियां बंसल के रिश्तेदारों की हैं जिन में वे डायरैक्टर या शेयरहोल्डर हैं. 

42 वर्षीय विजय सिंगला स्वयं 8 कंपनियों में डायरैक्टर हैं. इन कंपनियों में जेटीएल इन्फ्रा लिमिटेड, जगन रीयल्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, बंसी रौनक एनर्जी ग्रुप लिमिटेड, मीराज इन्फ्रा लिमिटेड, जगन इंडस्ट्रीज, चेतन इंडस्ट्रीज प्रमुख हैं.

विजय सिंगला और परिवार मूलत: भटिंडा के हैं. उस के पिता मीठन लाल का यहां छोटा सा व्यवसाय था पर वर्ष 1991 में पवन बंसल के चंडीगढ़ से चुनाव जीतने के बाद से ही विजय सिंगला का आर्थिक उत्थान शुरू हुआ. मामा पवन बंसल की राजनीतिक सत्ता का फायदा उठा कर विजय सिंगला ने रियल एस्टेट, सीमेंट, पैकेजिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर और स्टील व्यवसाय शुरू कर दिए. इन व्यवसायों में वह लगातार आगे बढ़ता गया.

आरोप है कि विजय सिंगला ने महेश कुमार को रेलवे बोर्ड में सदस्य (इलैक्ट्रिकल) बनाने का भरोसा दिलाया था. इस के लिए बेंगलुरु के मंजूनाथ की कंपनी जीजी ट्रौनिक्स 10 करोड़ रुपए देने को तैयार थी. यह कंपनी रेलवे सिगनल प्रोडक्ट और रेलवे कंपोनैंट बनाती है. दूसरे आरोपी संदीप गोयल की कंपनी पिरामिड इलैक्ट्रौनिक्स चंडीगढ़ रेलवे के लिए इलैक्ट्रिक का सामान तैयार करती है.

मंजूनाथ महेश कुमार को इस पद पर इसलिए लाना चाहता था ताकि उस की कंपनी को रेलवे का बड़ा ठेका मिल सके.

संदीप गोयल महेश कुमार और मंजूनाथ के बीच पैसा देने का मुख्य सूत्रधार था. सीबीआई ने दिल्ली के 2 व्यापारी समीर संधीर और राहुल यादव व फरीदाबाद के सुशील डागा को भी गिरफ्तार कर लिया. सुशील डागा मंजूनाथ का सहयोगी था जिस ने 90 लाख रुपए की व्यवस्था की जिसे सिंगला को देने के लिए चंडीगढ़ पहुंचाना था.

असल में इस मामले का खुलासा रेलवे को माल सप्लाई करने वाली औद्योगिक लौबी के बीच प्रतिस्पर्धा का नतीजा है. यह लौबी अपनेअपने उम्मीदवार को आगे लाने और दूसरे को पीछे धकेलना चाहती थी. चूंकि  टैलीकौम, सिगनल के साथसाथ बिजली प्रोजैक्ट रेलवे बोर्ड के सदस्य (इलैक्ट्रिकल) के अधीन रहते हैं और इन से संबंधित निर्णय करने के अधिकार उसे प्राप्त हैं. टैंडर और प्रोजैक्टों को मंजूरी देने का फैसला लेने का अधिकार भी सदस्य (इलैक्ट्रिकल) को होता है. मालूम हो कि माल की आपूर्ति में भारी कमीशन बंधा रहता है.

रेलवे के ठेकेदारों और निर्माता लौबी को इस बात का रंज था कि एक सीनियर और क्लीन व्यक्ति रेलवे बोर्ड में उच्च पद पर नहीं पहुंच पाता. लिहाजा, इस सौदेबाजी का पता चलने पर सीबीआई को सूचना दी गई. नतीजतन, सीबीआई संबंधित लोगों के टैलीफोन को रिकौर्ड करने में लग गई. करीब 2 महीने की मशक्कत के बाद आखिर सीबीआई ने पवन बंसल के रिश्तेदारों को धर दबोचा.

खबर है कि 21 अप्रैल को विजय सिंगला ने रेल मंत्री के दिल्ली स्थित अशोक रोड आवास पर महेश कुमार की पवन बंसल से मुलाकात कराई थी. सरकारी आवास पर इस मुलाकात के बाद महेश कुमार के प्रमोशन की फाइल को पहिए लग गए और 10 दिन बाद ही उसे नई नियुक्ति मिल गई. लेकिन यह पद रेलवे बोर्ड में किसी दूसरे सदस्य (स्टाफ) का था. महेश कुमार यह पद (इलैक्ट्रिकल) चाहता था क्योंकि रेलवे में यह पद अधिक मलाईदार माना जाता है.

रेल मंत्री से रिश्ते के चलते गिरफ्तार पवन बंसल का भांजा विजय सिंगला थोड़े से समय में ही अथाह संपत्ति का मालिक बन बैठा. उस के ठाट देखने लायक हैं. सैक्टर 28 ए के 105-106 नंबर के विशाल स्विस स्टाइल बंगले पर 11 मई को सन्नाटा था. आसपास के बंगले पर नाम व नंबर लिखे थे पर विजय सिंगला  के बंगले से नाम व नंबर शायद हटा दिए गए. बंगले के अंदर बने चौकीदार के केबिन से शीशे के बाहर एक लड़का ?ांक रहा था. पूछने पर उस ने बताया कि यहां कोई नहीं है. हालांकि अंदर लंबीलंबी 3 गाडि़यां खड़ी थीं. 10-10 फुट के करीब 25 फुट के फासले पर बने 2 दरवाजों वाला यह मकान अंगरेजों के शाही महल जैसा दिखाई देता है.

सामने सैक्टर 28 सी में गुरुद्वारे के सामने विजय सिंगला के कई औफिस बने हुए हैं. औफिस छोटेछोटे हैं पर चंडीगढ़ जैसे शहर में करोड़ों की कीमत से कम नहीं हैं. ये उस के पुराने औफिस हैं. चंडीगढ़ शहर और आसपास विजय सिंगला की संपत्ति का विशाल साम्राज्य फैला हुआ है.

दोपहर 1 बजे हम इंडस्ट्रियल एरिया, फेस 1 में, जहां सिंगला का मौल बन रहा है, पहुंचे. चंडीगढ़ रोडवेज डिपो के सामने और वैस्टसाइड मौल के पीछे दोतरफा चौड़ी सड़क पर निर्माणाधीन सिंगला के अक्रोपौलिस मौल को देख कर आंखें चौंधिया गईं. करीब 4 एकड़ में बन रहे सैकड़ों दुकानें व औफिस वाले इस मौल के निर्माण का काम विजय की गिरफ्तारी के बाद भी जारी था.

अंदर काम कर रहे लोगों से पूछा गया कि क्या यह विजय सिंगला का मौल है तो कहा गया कि हमें कुछ पता नहीं है लेकिन रोडवेज निदेशक के कार्यालय के सामने लगा बोर्ड कहता है कि प्लौट नंबर 68 पर स्थित यह मौल मीराज इन्फ्रा लिमिटेड का है. प्लौट चारों तरफ से कवर किया हुआ था.

इस के अलावा विजय सिंगला की डेरा बस्सी में कुछ इकाइयां भी लगी हैं लेकिन यहां रहने वालों में किसी को पता नहीं है कि कौन सी इकाई पवन बंसल के भांजे विजय सिंगला की है. अलबत्ता, उस की कंपनी द्वारा मुख्य रोड के बाईं ओर बनाए जा रहे फ्लैट जरूर नजर आते हैं. सिंगला ने डेरा बस्सी में एक स्कूल के लिए जगह ली थी लेकिन उस पर विवाद चल रहा है.

सत्यपाल जैन कहते हैं कि ये सभी कंपनियां पवन बंसल के दिल्ली की राजनीति में अभ्युदय के बाद अस्तित्व में आई हैं. बंसल के भतीजे चेतन बंसल की कंपनी के पास रेल नीर का ठेका है जो रेलवे को रेल नीर सप्लाई करती है.

पवन बंसल वर्ष 2006 में वित्त राज्यमंत्री बने थे और उन के बेटों ने थियोन फार्मास्युटिकल कंपनी वर्ष 2005 में बनाई थी. बंसल सितंबर 2009 में संसदीय मामलात के राज्यमंत्री और फिर रेल मंत्री बने. वित्त राज्यमंत्री के कार्यकाल में उन्होंने अपने परिवार के औडिटर सुनील गुप्ता को केनरा बैंक का डायरैक्टर बना दिया. इस दौरान सुनील गुप्ता ने परिवार की कंपनियों के लिए वित्त जुटाने का काम किया.

आरोप है कि बंसल परिवार की कंपनी की आयकर रिटर्न से पता चलता है कि वर्ष 2010-2011 के वित्त वर्ष में केनरा बैंक कंपनी का एकमात्र ऋणदाता था.

प्रदेश भाजपा महासचिव चंद्रशेखर कहते हैं कि पवन बंसल से जुड़ी कंपनियों ने वार्षिक बैलेंस शीट में जिन कंपनियों से लोन लिया दर्शाया है, वास्तव में लोन देने वाली कंपनियों ने ऐसा कोई भी लोन देना अपनी बैलेंस शीट में नहीं दर्शाया. मीराज इन्फ्रा लिमिटेड जो पवन बंसल से संबधित है, ने रिद्धि इंडस्ट्रीज से 2.79 करोड़ रुपए का लोन लिया जबकि रिद्धि इंडस्ट्रीज की खुद की कुल संपत्ति ही केवल 1.1 लाख है और कंपनी ने बैलेंस शीट में 31 मार्च, 2012 को ऐसे किसी लोन को नहीं दर्शाया है.

इसी तरह मीराज इन्फ्रा ने अपनी बैलेंस शीट में मोतिया टाउनशिप लिमिटेड से 30 लाख शेयर आवेदन के तौर पर दिखाए हैं, पर मोतिया टाउनशिप लिमिटेड ने अपनी बैलेंस शीट में ऐसे किसी आवेदन को नहीं दर्शाया. मीराज इन्फ्रा ने अपनी बैलेंस शीट में बिहार ट्यूब्स लिमिटेड से शेयर आवेदन के 20 करोड़ रुपए दिखाए हैं जबकि केंद्रीय कंपनी मामलात मंत्रालय की आधिकारिक वैबसाइट पर बिहार ट्यूब्स लिमिटेड नाम से कोई कंपनी पंजीकृत ही नहीं है.

चंडीगढ़ के एक बुजुर्ग कहते हैं कि शहर में पवन बंसल की राजनीतिक जमीन को तैयार करने में यहां के स्थानीय नेताओं ने योगदान दिया. परिणामस्वरूप वे राष्ट्रीय राजनीति में अहम मुकाम हासिल कर सके. उन्हें योगदान देने वाले सभी पीछे रह गए.

वर्ष 1991 में बंसल ने पहला लोकसभा चुनाव जीता. उस के बाद 1996 और 1998 में वे लगातार 2 बार चुनाव हार गए.

गौरतलब है कि पवन बंसल के रिश्तेदारों द्वारा मंत्री की हैसियत का फायदा उठाने का मामला नया नहीं है. लगभग हर मंत्री अपने परिवार और रिश्तेदारों के लिए कुछ न कुछ जरूर करते हैं पर यह अलग बात है कि ज्यादातर मामले उजागर नहीं हो पाते. सत्ता की काली कोठरी की कालिख लगे बिना कोई नेता नहीं रह सकता.

पिछले दिनों शारदा चिटफंड घोटाले में पी चिदंबरम की पत्नी का नाम सामने आया था. इस से पहले कोल ब्लौक आवंटन में श्रीप्रकाश जायसवाल द्वारा अपने रिश्तेदार की कंपनी को कोल ब्लौक आवंटन, केंद्रीय मंत्री रहे संतोष बगडोदिया द्वारा अपने भाई की कंपनी को कोल ब्लौक आवंटन कराने जैसे मामले बाहर आते रहे हैं. शशि थरूर द्वारा आईपीएल की कोच्चि टीम अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को दिलाने के मामले ने तूल पकड़ा था.

जहां रिश्ते काम नहीं आते, वहां कौर्पोरेट घराने मंत्रियों के रिश्तेदारों से रिश्ते गांठने में कामयाब हो जाते हैं. रक्षा सौदे के घोटाले में पिछले दिनों पूर्व वायुसेना अध्यक्ष एसपी त्यागी के रिश्तेदारों का नाम सामने आया था.

इस से पहले एनडीए सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य (गोद ली गई बेटी के पति) का नाम सत्ता के बिचौलिए के रूप में सामने आया था.

रेल मंत्रालय में कुरसी की खरीद मामले में पवन बंसल घाघ नेता की तरह सीधे नहीं जुड़े दिखाई पड़ते लेकिन उन के परिवार को मिल रहे फायदे दिखाई दे रहे हैं. असल में यह कमी हमारी सत्ता के सिस्टम में है. किसी व्यापारी को अपना काम कराने के लिए क्यों किसी दलाल के पास जाना पड़े? पद पाने के लिए क्यों घूस देनी पड़े?

तुलसी कुमार

पार्श्वगायिका तुलसी कुमार भले ही बौलीवुड के जानेमाने घराने से ताल्लुक रखती हों पर इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ कड़ा संघर्ष किया बल्कि अपने पिता गुलशन कुमार के सपनों को साकार भी कर दिखाया.

म्यूजिक कैसेट के माध्यम से संगीत को आम लोगों तक पहुंचाने की मुहिम चला कर ‘टी सीरीज’ को एक खास मुकाम पर पहुंचाने वाले गुलशन कुमार का सपना था कि उन की बेटी तुलसी कुमार गायन में नाम कमाए. पिता के सपनों को पूरा करने के लिए ही तुलसी ने सुरेश वाडेकर से संगीत की तालीम लेनी शुरू कर दी थी. आज तुलसी कुमार को इस बात की खुशी है कि उन्होंने अपने पिता के सपनों को साकार कर दिया है. इन दिनों वे फिल्म ‘आशिकी 2’ में 2 गीतों  ‘हम मर जाएंगे…’ और ‘पिया आए न…’ को ले कर चर्चा में हैं.

अपने कैरियर को किस तरह से देखती हैं?

मु?ो लगता है कि मेरा कैरियर सही दिशा की ओर अग्रसर है. इस की मुख्य वजह यह है कि मैं बहुत ही चुनिंदा काम कर रही हूं. श्रोताओं को जिस तरह के गाने पसंद आ रहे हैं उसी तरह के अर्थपूर्ण और कर्णप्रिय गीतों को गाने की कोशिश कर रही हूं. मैं ने ज्यादातर रोमांटिक गीत ही गाए हैं जिन्हें लोगों ने बहुत सराहा है.

टी सीरीज आप के घर की संगीत कंपनी है. इस के बावजूद पार्श्वगायन के क्षेत्र में आप को अपेक्षित सफलता नहीं मिली?

मु?ा में और दूसरे गायकों में बहुत बड़ा फर्क है. मु?ो खुद की मार्केटिंग करनी नहीं आती. मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देती हूं. मैं नहीं चाहती कि लोग कहें कि सिर्फ टी सीरीज के कारण तुलसी कुमार गायिका बन गई. दूसरे गायकों की तरह मैं न तो स्टेज शो करती हूं और न ही रिऐलिटी शो में हिस्सा लेती हूं.

पर आप ज्यादातर टी सीरीज की फिल्मों में ही गाती हैं?

ऐसा नहीं है. मैं ने टी सीरीज की फिल्मों के अलावा अन्य प्रोडक्शन हाउस की फिल्मों के लिए भी गीत गाए हैं. इन में ‘दबंग 2’, ‘वंस अपौन अ टाइम इन मुंबई’, ‘डैंजरस इश्क’ ‘बिट्टू बौस’ प्रमुख हैं.

रिऐलिटी शो को ले कर आप की राय क्या है?

नए गायकों के लिए यह एक अच्छा प्लेटफौर्म है. जब मैं 12 साल की थी तब रिऐलिटी शो ‘सारेगामापा’ में मेरे पापा जज बने थे. पर वह अलग दौर था. अब रिऐलिटी शो में न तो उस तरह के प्रतिभावान गायक आ रहे हैं और न ही गायकी में गुणवत्ता रह गई है.

आप को नहीं लगता कि ये टैलेंट बेस्ड रिऐलिटी शो युवापीढ़ी को भटका रहे हैं?

मैं ऐसा नहीं मानती. रिऐलिटी शो में किसी को जोड़ने से पहले औडिशन के जरिए उस की प्रतिभा का आकलन किया जाता है. जिन के अंदर प्रतिभा नहीं होती है उन्हें रिऐलिटी शो के साथ नहीं जोड़ा जाता है. ऐसे में वे अन्य क्षेत्र में कोशिश कर सकते हैं. इस में भटकाव कहां हुआ?

फिल्म ‘आशिकी’ का निर्माण आप के पिता गुलशन कुमार ने किया था. उस वक्त की कुछ यादें दिमाग में हैं?

उस वक्त मेरी उम्र 6 साल थी. पापा घर पर रिकौर्डेड गाना ले कर आते थे और हम सभी को सुना कर राय मांगते थे. उस वक्त मेरे पापा ने फिल्म के संगीत पर काफी मेहनत की थी.

गानों का चयन किस आधार पर करती हैं?

हकीकत यही है कि अभी तक मैं उस मुकाम पर नहीं पहुंची जहां मैं खुद गानों का चयन कर सकूं. फिलहाल संगीतकार मेरे पास जिन गानों के औफर ले कर आते हैं उन्हीं में से मैं कुछ बेहतर गीत चुन कर गाती हूं.

आप के म्यूजिक अलबम भी कम आते हैं?

2009 में मेरा एक अलबम ‘लव हो जाए’ आया था. उस के बाद से कोई नया अलबम नहीं आया. वैसे भी हिंदी अलबमों का बाजार अब नहीं रह गया है. लेकिन मेरे अलबम लगातार आ रहे हैं. हाल ही में मेरे तमिल व तेलुगू भाषा में अलबम आए हैं. बहुत जल्द मेरा एक पंजाबी अलबम आने वाला है.

आप को नहीं लगता कि हिंदी अलबमों का बाजार भले खत्म हो गया हो मगर पंजाबी गीतों के अलबमों का बाजार अभी भी बना हुआ है?

इस की मूल वजह यह है कि हिंदी अलबम के गीतों को कोई प्रमोट नहीं करता. टीवी चैनल या रेडियो भी उन्हीं गीतों को बजाते हैं जिन में स्टार होते हैं. इस के अलावा इंटरनैट पर डाउनलोड कर के सुनने वाले हिंदी श्रोता बाजार से अलबम खरीदना नहीं चाहते. मगर पंजाबी अलबम धड़ल्ले से बिक रहे हैं क्योंकि पंजाबी श्रोता अभी भी लौयल हैं. वे आज भी हर अलबम खरीद कर गीत सुनते हैं.

परिवार में आप का सब से बड़ा आलोचक कौन है?

मेरी मां मेरी सब से बड़ी आलोचक हैं. आज मैं जिस मुकाम पर पहुंची हूं वह मां और मेरे भैया भूषण कुमार की हौसलाअफजाई से ही संभव हो पाया है. जब मैं 13-14 साल की थी तभी मेरे पापा नहीं रहे थे. उस के बाद मु?ो मां और भैया का बहुत सहारा मिला. मेरी मां हर गीत को सुनने के बाद कहती हैं कि इस में कुछ कमी है, अभी कुछ और अच्छा हो सकता था.

आप किस गायक की फैन हैं?

लता मंगेशकर, आशा भोंसले व कविता कृष्णामूर्ति के गाने बहुत सुनती हूं. पर मैं ने कभी किसी की नकल नहीं की.

टी सीरीज के साथ संबंध होने के कारण आप किस तरह की बंदिशें महसूस करती हैं?

बंदिशें तो नहीं कह सकती लेकिन बहुत सोचसम?ा कर बोलना पड़ता है. मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं कि मैं एक संगीतमय परिवार का हिस्सा हूं. मेरे पापा ने संगीत को जनजन तक पहुंचाने के लिए जो रणनीति अपनाई थी, उस की तारीफ लोग आज भी दिल से करते हैं.

‘गिप्पी’

‘गिप्पी’ करण जौहर की पिछली फिल्म ‘स्टुडैंट औफ द ईयर’ का एक्सटैंशन लगती है. फिल्म की कहानी निर्देशिका सोनम नायर ने ही लिखी है. गुरप्रीत कौर उर्फ गिप्पी (रिया विज) शिमला में अपनी मां पप्पी (दिव्या दत्ता) और?भाई के साथ रहती है. उस के पिता दूसरी शादी करने वाले हैं. वह मोटी है, पढ़ाई में फिसड्डी है, 9वीं कक्षा में पढ़ती है. उस का कोई ब्रौयफ्रैंड भी नहीं है. शम्मी कपूर पर फिल्माए गए गाने सुनना और उन गानों पर डांस करना उसे अच्छा लगता है. कक्षा में रोजाना उसे अपनी सहपाठी समीरा (जयती मोदी) से चुनौती मिलती रहती है. एक दिन गिप्पी की मुलाकात अपने से बड़े लड़के अर्जुन (ताहा शाह) से होती है. वह उसे अपना बौयफ्रैंड समझने लगती है लेकिन एक झटके में ही उस की यह गलतफहमी दूर हो जाती है. स्कूल में उसे समीरा से हैडगर्ल बनने की चुनौती मिलती है, जिसे वह स्वीकार कर लेती है. वह हैडगर्ल बन भी जाती है लेकिन उसे लगता है कि वह जैसी है ठीक है. वह खुल कर जीना चाहती है. इसलिए वह हैडगर्ल का खिताब समीरा को दे देती है.

फिल्म की यह कहानी एकदम सीधीसपाट है. कहीं कोई टर्न और ट्विस्ट नहीं हैं. फिल्म की गति भी काफी धीमी है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म की खासीयत यही है कि निर्देशिका ने गिप्पी को शरीर से तो यंग दिखाया है, मगर उस की बातें तौरतरीके बच्चों वाले दिखाए हैं. अपने कमरे का दरवाजा बंद कर के शम्मी कपूर पर फिल्माए गए गानों पर उस का डांस करना अच्छा लगता है. लेकिन उस की संवाद अदायगी काफी कमजोर है.

निर्देशिका ने फिल्म शुरू करने से पहले रिया के घर जा कर उस के साथ एक महीना बिताया. इस से उसे रिया को समझने में मदद मिली.

समीरा के किरदार में जयती मोदी का काम भी अच्छा है. उसे एक आत्मविश्वास से भरी लड़की के रूप में दिखाया गया है, जो न सिर्फ समझदार है बल्कि उस में और?भी बहुत सी खूबियां हैं.

इस फिल्म में दर्शकों को शम्मी कपूर की फिल्मों के बहुत से गाने सुनने को मिलेंगे. फिल्म ‘जंगली’ के एक गाने पर रिया विज का स्टेज पर परफौर्म करना सुहाता है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

इस फिल्म को देखने के बाद मातापिताओं को अपने टीनऐजर्स बच्चों को समझने में मदद मिलेगी.

फुरकान की उड़ान

इन दिनों विदेशी धरती पर पलेबढ़े लोगों का बौलीवुड के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. लगभग हर माह एकदो कलाकार विदेशी धरती से बौलीवुड में कदम रख रहे हैं. अब लंदन में पढ़ाई कर चुके कुवैत निवासी फुरकान मर्चेंट भी बौलीवुड से जुड़ने के लिए मुंबई पहुंच चुके हैं. और फिल्मकार राहत काजमी ने उन्हें अपनी जम्मू में फिल्माई गई फिल्म ‘आइडैंटिटी कार्ड’ में टिया बाजपेयी के साथ हीरो बना दिया है.

 

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