देश की वर्तमान राजनीति में राजनेता अपनी सैद्धांतिक, वैचारिक और व्यावहारिक जमीन पूरी तरह से खोते जा रहे हैं. वे धर्म, राज्य, जाति और इलाकों के नाम पर राजनीतिक बिसात बिछा कर सत्ता पाने की ख्वाहिश पाले बैठे हैं. देश के हर कोने तक पैठ बनाने वाले देश में एक भी सर्वमान्य नेता का न होना स्वतंत्र भारत के राजनीतिक भविष्य के स्याह चेहरे को उजागर करता प्रतीत हो रहा है. पेश है कपिल अग्रवाल का लेख.

अब जबकि आम चुनाव में सालभर भी नहीं बचा है, स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र दल आपस में टांग खिंचाई में लगे हुए हैं. किसी भी दल में इतनी कूवत नहीं है कि वह अकेले दम पर चुनाव लड़ कर पूर्ण बहुमत से राज कर ले, यहां तक कि कांगे्रस व भाजपा जैसे तथाकथित देशव्यापी दलों की भी अकेले चलने की हिम्मत नहीं है. आज हिंदुस्तान इतना बंट चुका है कि कोनेकोने में छोटेछोटे गुटों के नेता अपनेअपने उम्मीदवार खड़े कर चुनाव में कूदते हैं और 2-3 सीटें भी हाथ लग गईं तो बादशाह बन जाते हैं.

आजादी के 66 साल बाद आज हिंदुस्तान की धरती पर एक भी ऐसा दल व नेता नहीं है जिस की देश के कोनेकोने में पैठ हो. इस फेहरिस्त में राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी से ले कर मायावती व मुलायम सिंह यादव सभी नेताओं के नाम आते हैं. इन को भिन्नभिन्न मौकों पर आजमाया जा चुका है, सारे के सारे फ्लौप रहे हैं.

कहते हैं असली नेता, ताकत, योग्यता, कार्यकुशलता, दोस्त व सगेसंबंधी की पहचान मुसीबत या विपरीत परिस्थितियों में होती है. यह उक्ति हर कद्दावर नेता पर लागू होती है. मोदी को ही लें. कर्नाटक में भाजपा के लिए अत्यंत विपरीत परिस्थितियां थीं और सबकुछ हराहरा नहीं था, फलत: मोदी कुछ नहीं छील पाए. गत वर्ष संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती विरोधी लहर का फायदा न तो राहुल गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व उठा पाया और न ही नरेंद्र मोदी का विकास मौडल. यानी राहुल गांधी अमेठी व मोदी गुजरात के बाहर लगभग जीरो हैं. बेसिरपैर के मुद्दों को ले कर तनाव व कलह का वातावरण बना देना और अच्छेखासे चल रहे राजकाज को बरबादी के कगार पर पहुंचा देना नेताओं का ‘प्रिय’ खेल है.

बिहार इस का ताजा उदाहरण है, जहां अच्छेखासे चल रहे गठबंधन को बेसिरपैर के मुद्दों के चलते तोड़ डाला गया. सोचने वाली बात है कि एक ओर नीतीश कुमार उस भाजपा की मदद से सरकार चलाने में जरा भी कष्ट का अनुभव नहीं करते जिस के नेतृत्व में अयोध्या की विवादास्पद बाबरी मसजिद गिराई गई, उस कांगे्रस के भी मुरीद हैं जिस के सान्निध्य में वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे हुए, पर उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ी जबरदस्त नफरत है जिन के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात में वर्ष 2002 में दंगे व नरसंहार हुए थे.

यहां सब से बड़ी बात यह है कि बाबरी मसजिद विध्वंस व सिख विरोधी दंगों में क्रमश: भाजपा व कांगे्रस का हाथ स्पष्ट रूप से तमाम राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय जांचों में सिद्ध हो चुका है पर मोदी तमाम जांचों में अब तक बेदाग सिद्ध हुए हैं. दरअसल, आपसी विश्वास व एकता की कमी भारत के बहुलवादी हिंदू समाज की नैसर्गिक मूल विशेषता है जिस का खमियाजा आज तक हमारा देश कदमकदम पर भुगत रहा है पर दलों व नेताओं को इस बात की जरा भी चिंता नहीं है. गुजरात दंगों के बाद से मीडिया व तमाम विरोधियों के षड्यंत्रकारी, अनर्गल प्रचार के बावजूद मोदी लगातार चुनाव जीतते चले आ रहे हैं, इस के बावजूद नीतीश जैसे नेता कष्ट का अनुभव कर रहे हैं.

सिख विरोधी दंगे हों या मुसलमान विरोधी दंगे, कानून की नजर में दोनों एक जैसे हैं. नेताओं ने अलगअलग पैमाने क्यों बना रखे हैं? गनीमत यह है कि नेताओं व दलों को सत्ता तक पहुंचाने या न पहुंचाने का फैसला करने का अधिकार जनता को मिला हुआ है और तभी यह देश बचा भी हुआ है, वरना हालात का अंदाज सहजता से लगाया जा सकता है.

अलगअलग मोरचे पर हर इंसान का प्रदर्शन अलगअलग होता है. लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में तो असफल रहे, पर रेलमंत्री के तौर पर उन का कार्यकाल बेहद सफल रहा. नीतीश रेल मंत्रालय में तो कामयाब नहीं हो पाए, मगर बिहार की गद्दी रास आ गई. जिस समय नीतीश को बिहार मिला उस वक्त बिहार लगभग बरबादी के कगार पर था. खजाना खाली व चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था व लूटखसोट का माहौल था. ऐसे में बिहार को संभालना व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना नीतीश की योग्यता व कार्यकुशलता का एक बड़ा अच्छा व ज्वलंत नमूना है.

एक प्रकार से नीतीश ने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी है. दूसरी ओर मोदी को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी है, क्योंकि जब उन्होंने गुजरात की पहली बार गद्दी संभाली थी तो हालात ज्यादा खराब नहीं थे. एक प्रकार से बहुत ठीकठाक साम्राज्य उन्हें विरासत में मिला था. पकीपकाई खीर खाने व खुद बना कर खाने में अंतर तो होता ही है. यानी मोदी को अभी अपनी प्रशासनिक योग्यता सिद्ध करनी है.

नीतीश काफी अक्खड़, अवसरवादी व दंभी स्वभाव के हैं. मार्च 2000 में जब भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात आई तो 65 भाजपाई विधायकों के साथ सुशील कुमार मोदी मुख्यमंत्री पद की शपथ के लिए मुकर्रर हो गए थे, पर ऐन वक्त पर केवल 35 विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गए. इसी प्रकार कुल 7 साल तक चली भाजपा व जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू की सरकार पर अपनी पार्टी का पूर्ण क्या आधा बहुमत भी न होने के बावजूद नीतीश राजा बने रहे.

दूसरी ओर तमाम राजनीतिज्ञ व राजनीतिशास्त्र के कई पंडित मोदी को कुटिल राजनीतिज्ञ मगर तानाशाही प्रवृत्ति वाला मानते हैं. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति विभाग के एक विशेषज्ञ विश्लेषक का मानना है कि मोदी की राजनीति व योग्यता राज्य स्तर तक तो ठीक है पर राष्ट्र स्तर पर नहीं. राज्य स्तर पर विरोध बेहद सीमित होता है और शासक को पूर्ण निरंकुशता का लाभ मिलता है, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इस के बिलकुल उलट होती है. उन के मुताबिक मोदी इस में सक्षम नहीं हैं.

जहां तक राहुल गांधी की बात है, 10 साल से वे कांगे्रस को मजबूत करने में लगे हुए हैं परंतु किसी भी मोरचे पर कोई उल्लेखनीय उपलब्धि उन के खाते में नहीं है. चूंकि अभी तक कोई प्रशासनिक पद (मुख्यमंत्री या मंत्री) उन्होंने नहीं लिया है इसलिए यह कसौटी अभी अबूझ है.

दरअसल राजनीति, पार्टी व सरकार तीनों अलगअलग विधाएं हैं और इस में औलराउंडर होना लगभग नामुमकिन सा है. लाखों में कोई विरला ही होता है जो तीनों विधाओं को साधने में माहिर होता है. कांगे्रस में जहां एक परिवार विशेष का प्रभुत्व कई दशकों से लगातार (बीच के कुछ सालों को छोड़ कर) चलता चला आ रहा है वहीं भाजपा कदमकदम पर अंतर्विरोध व कलह में डूबी हुई है.

अगर कांगे्रस की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष ने जिसे चाहा प्रधानमंत्री बना दिया, जिसे चाहा राष्ट्रपति बना दिया. योग्यता, जनाधार, विरोध, मतभेद सब एक तरफ और पार्टी अध्यक्ष की निजी राय एक तरफ. इस संदर्भ में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व तृणमूल कांगे्रस की एकता व अनुशासन और अखंडता काबिलेतारीफ है. पार्टी प्रमुख व उन के फैसलों के स्तर पर इन में आंतरिक मतभेद लगभग न के बराबर हैं.

दूसरी ओर भाजपा ऐसे नेताओं की पार्टी बन कर रह गई है जो उसी प्रकार लड़ते हैं जैसे स्कूल में छात्र क्लास में आगे बैठने की सीट के लिए लड़ते हैं. अपनेआप को देखे बिना कोई भी अपनी सीट छोड़ना नहीं चाहता. कोई भी अपनी स्थिति से टस से मस होने को राजी नहीं. यानी देश के राजनीतिक हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे डेढ़ दशक पहले थे. परिस्थितियां बदल रही हैं, माहौल बदल रहा है, पर जो नहीं बदल रहे हैं वे हैं हमारे दल, जिन का रवैया, सोच व कार्यप्रणाली आज भी बिलकुल वैसी ही है जैसे आज से 30 साल पहले थी.

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