चुनावी हवा बहते ही प्रचार का बाजार कुछ यों गरम होता है कि नेता उठतेजागते सिर्फ जनता और उस के वोटों से कनैक्शन ढूंढ़ने लगते हैं. रैलियां, पदयात्रा और घरघर हाथ जोड़ने के अलावा आज के नेताओं में जनता से जुड़ने का नया शगल कुलांचें मार रहा है. हर कोई इंटरनैट पर ही वोट जुगाड़ू नीति अपना रहा है. पढि़ए शाहिद ए चौधरी का लेख.
ज्योंज्यों 2014 के लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सभी राजनीतिक पार्टियां और उन के नेता प्रचार के हर आधुनिक तरीके, खासकर इंटरनैट पर अपनी मौजूदगी बढ़ाने को ले कर बेकरार नजर आ रहे हैं. भले ही कहा जाता हो कि 2004 में एनडीए के गठबंधन वाली वाजपेयी सरकार ने इलैक्ट्रौनिक प्रचार की अति के चलते मुंह की खाई थी, बावजूद इस के 2009 के आम चुनावों में भी देश की दोनों प्रमुख पार्टियों, भाजपा और कांगे्रस के चुनावी मोरचों में एक बड़ा मोरचा वर्चुअल दुनिया का ही मोरचा था. लेकिन इस के बावजूद राजनेता यह भी कहने से नहीं चूकते कि चुनाव टैलीविजन या इंटरनैट से नहीं बल्कि लोगों के बीच जमीनी रिश्तों के जरिए जीते जाते हैं.
अपने को हाईफाई या मौडर्न दिखाने के बजाय देश के आम मतदाताओं के अनुकूल शायद यह दिखाने का ही पाखंड था कि मई 2009 में जब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने यूपीए-2 की सत्ता संभाली, तो डिप्लोमैट से नएनए राजनेता बने शशि थरूर को भी मंत्री बनाया गया क्योंकि समझा गया कि इस से मंत्रिमंडल में ताजगी दिखेगी साथ ही, लिखनेपढ़ने का शौक रखने वाले शशि थरूर जैसे नेताओं के चलते कांगे्रस को ही नहीं, मंत्रिमंडल को भी मौडर्न, प्रयोगशील और वैश्विक नजरिए वाला समझा जाएगा.
लेकिन जब एक दिन अपनी शख्सीयत के अनुरूप शशि थरूर ने एक मजाक में ट्वीट कर डाला कि हवाईजहाज की इकोनौमी क्लास में सफर करना जानवरों के साथ सफर करने जैसा है तो उन को यह इतना भारी पड़ा कि मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. यह सितंबर 2009 की बात है. मगर तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. अब शशि थरूर की सोशल मीडिया गतिविधियों की न सिर्फ कांगे्रसी तारीफ कर रहे हैं बल्कि आज के युग में मतदाताओं से जुड़ने के लिए इसे आवश्यक समझते हुए स्वयं भी ट्वीटर व फेसबुक पर दिखाई दे रहे हैं.
एक जमाना था जब सियासी बहसबाजियां, पान के खोखों, चाय की दुकानों, महल्लों के नुक्कड़ों व गांव की चौपालों पर हुआ करती थीं. हालांकि आज भी ये स्थान राजनीतिक चर्चा से रहित नहीं हुए हैं लेकिन टैलीविजन व इंटरनैट ने काफी हद तक लोगों को घर की चारदीवारी के भीतर समेट दिया है, इसलिए सियासी गुफ्तगू के नए मंच खुल गए हैं – टैलीविजन के न्यूज चैनल और इंटरनैट के सोशल मीडिया नैटवर्क.
टैलीविजन न्यूज चैनलों पर तो एंकर अपनी पसंद के वक्ताओं को आमंत्रित करते हैं और किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी बात अधिक कहते हैं व नेताओं की बात कम सुनते हैं, जिस से बहस अकसर अच्छी डिबेट बनने के बजाय आरोप- प्रत्यारोप तक सिमट जाती है और बेनतीजा समाप्त हो जाती है. इस पर किसी ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘बैठकें ऐसे व्यक्तियों का जमावड़ा होती हैं जो व्यक्तिगत तौर पर कोई बदलाव नहीं ला सकते, लेकिन मिल कर तय करते हैं कि कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता.’
इस के विपरीत सोशल मीडिया नैटवर्क एक ऐसे मंच के रूप में उभरा है जहां नेताओं को किसी से आमंत्रण का इंतजार नहीं रहता, वे स्वयं अपनी बात रख सकते हैं और अपने संभावित मतदाताओं से विचारों का आदानप्रदान कर सकते हैं. यही कारण है कि इंटरनैट पर भारतीय नेताओं की मौजूदगी में निरंतर वृद्धि होती जा रही है. राजनीतिक दल भी औपचारिक रूप में अपनी उपस्थिति इंटरनैट पर ही दर्ज कर रहे हैं.
अब से कुछ वर्ष पहले तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि वित्त मंत्री बजट से संबंधित प्रश्नों का उत्तर गूगल हैंगआउट पर देंगे या 80 वसंत पार कर चुके लालकृष्ण आडवाणी (जो फिल्म समीक्षक भी रह चुके हैं) ब्लौग लिखेंगे. हम में से अधिकतर को यह भी विश्वास नहीं था कि हमारे मंत्री औनलाइन हो कर जनता से ऐसे बात करेंगे जैसे कभी टाउन हाल में किया करते थे.
इस में शक नहीं है कि आज ट्वीटर व फेसबुक राजनीतिक चर्चा की नई ‘चाय की दुकान’ बन गए हैं और जो नेता इस नए माध्यम पर अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज करना चाहते हैं वे सोशल मीडिया की ताकत को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं, भले ही इस के कारण उन्हें कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है, जैसा कि जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कई बार अनुभव कर चुके हैं.
समय की मांग
बहरहाल, अभी तक यह साबित नहीं हो सका है कि सोशल मीडिया मतदाताओं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, को किस हद तक अपनी राय बदलने या बनाने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन खबर में रहने के लिए इस की आवश्यकता जगजाहिर हो चुकी है. सोशल मीडिया के संभावित प्रभाव या समय के साथ चलने की जरूरत के कारण भाजपा अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय में तकरीबन 30 लोगों को बैठाए हुए है कि वे उस के सोशल मीडिया औपरेशन की निगरानी करें. भाजपा के अधिकतर टौप नेताओं का आधिकारिक फेसबुक पेज व ट्वीटर हैंडल है, जबकि लालकृष्ण आडवाणी सहित कुछ नेता ब्लौग भी लिखते हैं.
कांगे्रस की ट्वीटर और फेसबुक पर भी मौजूदगी आधेअधूरे मन से ही है लेकिन अब वह भी धीरेधीरे सोशल मीडिया नैटवर्क के महत्त्व को समझती जा रही है. इसलिए उस ने सोशल मीडिया योजना टीम का गठन किया है, जिस में उस ने अपने युवा नेताओं को शामिल किया है. कुछ युवा कबीना मंत्री भी सोशल मीडिया को ले कर अति उत्साहित हैं.
अभी इस बात का सही अंदाजा नहीं हो सका है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सोशल मीडिया कितना प्रभावी है लेकिन जिन नेताओं का जनाधार ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है वे भी इंटरनैट पर अपनी उपस्थिति निरंतर बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. मसलन, बीजू जनता दल के सांसद बैजयंत पांडा का चुनाव क्षेत्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंधित है, लेकिन हर मुद्दे पर उन के ट्वीट देखे जा सकते हैं.
सवाल यह है कि अभी जब ज्यादातर भारतीय इंटरनैट पर हो रही सियासी चर्चाओं में हिस्सा नहीं लेते तो फिर आज के खद्दरधारी सोशल मीडिया नैटवर्क में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे हैं? दरअसल, इस के 2 महत्त्वपूर्ण कारण हैं. एक यह कि आम जनता की तरह हमारे नेता भी पश्चिम से बहुत प्रभावित रहते हैं. अमेरिका व यूरोप के नेताओं ने सोशल मीडिया की कला पर महारत हासिल कर ली है. वे अपने मतदाताओं तक सफलतापूर्वक पहुंच रहे हैं. यह तरीका भारतीय नेताओं को भी प्रेरित कर रहा है.
दूसरा यह कि भारतीय नेता तेजी से महसूस कर रहे हैं कि अगर वे सोशल मीडिया के जरिए 100 या चंद हजार व्यक्तियों को भी अपने दृष्टिकोण से प्रभावित कर देते हैं तो यह भी पर्याप्त होगा, ये मुट्ठीभर लोग भी अवाम की राय बनाने में सहयोगी हो सकते हैं, जैसा कि अन्ना हजारे या दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में देखने को मिला कि छोटी सी मुहिम इंटरनैट पर आरंभ हुई, कुछ लोग दिल्ली व अन्य महानगरों से सड़कों पर टोपी ओढ़े (मैं भी अन्ना) या मोमबत्ती जलाते नजर आए और इन की गतिविधियों को पिं्रट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने सुर्खियां बनाया, जिस से पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ व बलात्कारियों को सख्त सजा देने की मांग का माहौल बना.
इस दृष्टि से देखा जाए तो सोशल मीडिया नैटवर्क की फिलहाल भारत में पहुंच सीमित हो सकती है लेकिन इस के जरिए अवाम की राय बनाने व उसे एक दिशा देने में सफलता मिल सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अपनी साइबर योजना बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियां औनलाइन गुरुओं की मदद ले रही हैं. इस के अतिरिक्त अपनी विचारधारा से संबंधित कारणों के चलते स्वतंत्र रूप से भी बहुत से युवा इंटरनैट पर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं.
युवाओं को रिझाने की कोशिश
गौरतलब है कि युवा व पहली बार वोट करने वालों को आकर्षित करने के लिए 2009 में भाजपा ने अपनी साइबर योजना बनाई थी. आज भाजपा के पास इंटीगे्रटेड व विस्तृत डिजिटल योजना है. इस की रोशनी में भाजपा 2014 के आम चुनाव के लिए इंटरनैट का भरपूर लाभ उठाने के प्रयास में है. उस ने प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का डिजिटल प्रोफाइल तैयार कराया है. भाजपा की योजना सोशल मीडिया पर साइबर यूजर्स को माइक्रो टारगेट करने की भी है. जिस का अर्थ यह है कि यूजर के प्रोफाइल की समीक्षा की जाए और उसे बताया जाए कि वह क्या सुनना चाहता है.
कांगे्रस भी अब इंटरनैट के महत्त्व को समझने लगी है. कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह साइबर योजना बनाने में जुटे हुए हैं. इस के मुख्य बिंदुओं को तो अभी उजागर नहीं किया गया है लेकिन लगता यह है कि इस में भाजपा जैसे ही हथकंडे होंगे.
व्यक्तिगत तौर पर कुछ नेता भी अपनी पार्टी का इंटरनैट पर बचाव करने, प्रचार करने या मतदाताओं तक पहुंचने के नए तरीकों को अपना रहे हैं. मसलन, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले व श्रीलंका के तमिलों के मुद्दे पर द्रमुक की बहुत थूथू हुई थी. इसलिए उस के विधायक एस एस शिवशंकर अपना ज्यादा समय फेसबुक पर अपनी पार्टी का बचाव करने में गुजारते हैं. शिवशंकर के इंटरनैट पर 3,700 दोस्त व लगभग 4,600 फौलोअर हैं. वे आरोपों व आलोचनाओं का अपनी तरफ से अच्छा जवाब देने का प्रयास करते हैं. साथ ही, अपनी पार्टी की विचारधारा जैसे सामाजिक न्याय आदि का भी प्रचार करते हैं.
इसी प्रकार राज्यसभा में रिकौर्ड 98 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज करने वाले सांसद राजीव चंद्रशेखर का कहना है, ‘‘इंटरनैट परंपरागत मीडिया की तरह नहीं है कि जहां केवल एकतरफा बात कही जाती है. सोशल मीडिया पर आप जो कुछ कहते हैं उस का आप को जवाब भी सुनना पड़ता है. यह उन लोगों का माध्यम नहीं है जो अपनी स्थिति के बारे में निश्चित नहीं हैं क्योंकि यहां पर आप को अपना बचाव करना पड़ेगा और आलोचनाओं को भी बरदाश्त करना पड़ेगा.’’
उधर, कानून व्यवस्था पर अपनी ढीली पकड़ के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सख्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है लेकिन जब सोशल मीडिया की बात आती है तो उन के चाहने वाले कम नहीं हैं. फेसबुक पर उन के तकरीबन 23,190 दोस्त हैं और ट्वीटर पर तकरीबन 7,581 फौलोअर. अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की वैबसाइट को फिर से डिजाइन कराया है. वे सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं, लेकिन उन के ट्वीट ज्यादातर पृथ्वीदिवस या कुंभ के प्रभावी प्रबंधन तक सीमित हैं.
जब 3 वर्ष पहले मुंबई प्रदेश युवा कांगे्रस की जिला महासचिव प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीटर जौइन करने का फैसला किया तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि उन्हें राहुल गांधी की ‘चियर गर्ल’ घोषित कर दिया जाएगा या उन पर व्यक्तिगत हमला किया जाएगा. ध्यान रहे कि जब आप राजनीति पर ट्वीट करते हैं तो प्रतिक्रिया सीधे व त्वरित होती है. आप को कुछ लोग पूरी तरह से उधेड़ देते हैं, लेकिन कुछ समर्थन में भी खड़े हो जाते हैं. आप को हिम्मत दिखाने की जरूरत होती है. चतुर्वेदी को अकसर मौत व गैंगरेप की धमकियां इंटरनैट पर मिलती हैं, लेकिन फिर भी वे दृढ़ता से अपनी पार्टी के लिए काम किए जा रही हैं. इसलिए फेसबुक पर उन के 872 दोस्त हैं व ट्वीटर पर 15,311 फौलोअर.
बहरहाल, अगर किसी राजनीतिक दल की शोहरत व स्वीकृति का अंदाजा केवल सोशल मीडिया के आधार पर लगाया जाए तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) सब से लोकप्रिय है क्योंकि उस पर ट्रैफिक भाजपा व कांगे्रस से कहीं अधिक है. वैबसाइट को वरीयताक्रम प्रदान करने वाली एलेक्सा के अनुसार, ‘आप’ वरीयताक्रम में 1,170वें स्थान पर हैं जबकि भाजपा का स्थान 9,320 है और कांगे्रस 2,05,019 स्थान पर है. इसी तरह नेताओं में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की वैबसाइट का वरीयताक्रम भारत में 1,799 है, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वैबसाइट 47,478वें स्थान पर है.
वहीं, अब तक देखने में यह आ रहा है कि इंटरनैट पर जो लोकप्रियता हासिल होती है वह असल चुनावी मैदान में देखने को नहीं मिलती है. ‘आप’ इंटरनैट पर विख्यात होने के बावजूद राजनीतिक शक्ति नहीं है. 2009 में भाजपा ने युवा व पहली बार वोट करने वाले मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए साइबर योजना बनाई थी लेकिन जनता ने कांगे्रस गठबंधन को फिर से सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया.
फेंकू बनाम पप्पू
फिलहाल, साइबर संसार में फेंकू (नरेंद्र मोदी) बनाम पप्पू (राहुल गांधी) युद्ध छिड़ा हुआ है, लेकिन जमीनी हकीकत यह नजर आ रही है कि 2014 का आम चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के दम पर लड़ा जाएगा और वे ही नई सरकार के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.
बहरहाल, आज भले ही मतदाताओं को प्रभावित करने में सोशल मीडिया नैटवर्क की कोई विशेष भूमिका न हो लेकिन जिस तेजी से वह राजनीतिक चर्चा में नुक्कड़, चाय की दुकानों आदि का स्थान लेता जा रहा है, उसे देखते हुए यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में इस की भूमिका भारत में भी वैसी ही होगी जैसी कि अमेरिका या अन्य विकसित देशों में है. शायद इसी के लिए हमारे नेता अभी से तैयारी कर रहे हैं.
सोशल मीडिया को भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका अदा करने के लिए अपने अंदर सकारात्मक परिवर्तन लाने होंगे. यह परिवर्तन इसलिए भी आवश्यक हैं क्योंकि इंटरनैट पर आज जिस तेजी से फैसले सुनाए जा रहे हैं, हिंसक मानसिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है, धार्मिक असहिष्णुता को परवान चढ़ाया जा रहा है, उस से न समाज में परिवर्तन आ सकता है और न ही देश की राजनीति को सही दिशा दी जा सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अभिनेता शाहरुख खान व टीवी एंकर राजदीप सरदेसाई जैसी शख्सीयतें ट्वीटर को अलविदा कर रही हैं.
आज सोशल मीडिया नैटवर्क, कम से कम राजनीति के दृष्टिकोण से दोराहे पर खड़ा है. उसे सही रास्ता दिखाने की जरूरत है ताकि वह आम जनता के लिए उपयोगी हो सके.