विकास की राह पर अग्रसर हो रहे मुल्क के ज्यादातर हिस्से अतिक्रमण के कैंसर से जूझ रहे हैं. रेलवे लाइन, बाजार, गलीनुक्कड़ से ले कर राजमार्गों तक फैले इस अतिक्रमणरूपी कैंसर की पूरी कहानी पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव के इस लेख में.

भोपाल रेलवे स्टेशन से ट्रेन जब चलती है तब उस की रफ्तार महज 30 किलोमीटर प्रति घंटा होती है जबकि 3-4 साल पहले तक यह गति 110 किलोमीटर प्रति घंटा हुआ करती थी. रफ्तार धीमी होने की वजह रेलवे ट्रैक के दोनों तरफ नाजायज तरीके से बनी हजारों झुग्गियां और कच्चे मकान हैं. वे कब, कैसे और क्यों उग आए, इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं, अगर है भी तो सिर्फ सूचनात्मक कि यह अतिक्रमण है. इस अतिक्रमण से यात्रियों की सुरक्षा को खतरा है. इतना ही नहीं, इन नाजायज कब्जों से रेलवे ट्रैक कमजोर भी हो रहा है.

यह समस्या अकेले भोपाल की नहीं, बल्कि पूरे देश की है. राजधानी दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में रेलवे ट्रैक के नजदीक इफरात से झुग्गियां देखने को मिल जाती हैं. वजीरपुर, सरायरोहिल्ला, दयाबस्ती, आजादनगर, तिलक ब्रिज, ओखला, शकूरबस्ती, निजामुद्दीन, किशनगंज आदि स्टेशनों के आसपास की पटरियों पर बनी झुग्गियां रेलवे के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं.

दिल्ली अरबन शैल्टर इंप्रूवमैंट बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली की 60 हैक्टेअर जमीन पर तकरीबन 46,693 झुग्गियां नाजायज तरीके से बनी हुई हैं. इन में लगभग 10 हजार सेफ्टी जोन में यानी रेलवे ट्रैक के 15 मीटर अंदर हैं. दिल्ली से आनेजाने वाली ट्रेनों में बैठे मुसाफिर धीमी गति के लिए भले ही रेलवे को जिम्मेदार ठहरातेकोसते रहें पर यह हकीकत उन्हें नहीं मालूम रहती कि नाजायज कब्जे वाली झुग्गियों और कच्चे मकान हटाने के लिए रेलवे दिल्ली सरकार को करोड़ों रुपए का भुगतान कर चुका है. एक झुग्गी हटाने के लिए रेलवे दिल्ली सरकार को 1,07,590 रुपए देता है पर भुगतान करने के बाद भी अतिक्रमण नहीं हटाया जा रहा, जिस का खमियाजा आम यात्रियों को भुगतना पड़ता है.

इसी तरह मुंबई के बांद्रा पूर्व इलाके में रेलवे ट्रैक से लगभग सटी हजारों झुग्गियां दिखती हैं. कई जगह तो 3 या 4 मंजिले मकान भी बन चुके हैं पर कहीं भी न तो पानी की व्यवस्था है न कूड़ा फेंकने की उचित व्यवस्था. कूड़े के ढेर के पास एक तख्ती में लिखा है, ‘यह संपत्ति रेलवे की है.’ सालों से वहां रहने वाला अब्दुल समद शेख बताता है कि नवपाड़ा का यह क्षेत्र पहले इतनी आबादी वाला नहीं था. 1993 में दंगे के बाद यहां आ कर लोग इसलिए बस गए क्योंकि यहां का माहौल शांत है. पहले 5 हजार लोग रहते थे अब 35 हजार रहते हैं. यहां न तो सफाई है न आनेजाने की सुविधा, बारिश में पूरा इलाका गंदगी से भरा रहता है. बीएमसी यानी बृहनमुंबई महानगर पालिका की गाडि़यां कभीकभी आती हैं.

मुंबई में रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी बताते हैं कि वैस्टर्न लाइन में झुग्गियां कम हैं. सैंट्रल और  हार्बर लाइन में सब से अधिक हैं. बांद्रा, कुर्ला, सायन, थाणे, मानखुर्द, गोवंडी, वडाला आदि ऐसे स्थान हैं जहां करीब डेढ़ लाख लोग इन झुग्गियों में रहते हैं.

मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन के पास बसी झुग्गीबस्ती में जन्मे और वहीं पलेबढ़े रेलवे कमेटी के सदस्य व समाजसेवक तनवीर अहमद शेख बताते हैं कि यह इलाका कभी गांव के क्षेत्र में आता था पर अब यह शहर बन चुका है. यह पहले हमारी जमीन थी, रेल लाइन बाद में आई है. किसी को भी हटाने से पहले रेलवे नोटिस देता है. अगर लोग नहीं हटते तो पुलिस बल का प्रयोग किया जाता  है.

झुग्गियों में रहने वाले लोग बिल्डरों को पैसा दे कर बड़ीबड़ी बिल्ंिडगें खड़ी कर लेते हैं. इस से सभी को करोड़ों रुपए तो मिल रहे हैं पर व्यवस्थित काम नहीं होता. गटर जाम हो जाता है, ऊपर पानी भर जाता है, बीमारियां फैलती हैं. इस क्षेत्र के नीचे से हजारों तार एक स्थान से दूसरे स्थान पर रेलवे द्वारा ले जाए गए हैं. क्षेत्रीय सांसद प्रिया दत्त ने पिछले साल 5 महिला और 5 पुरुष शौचालय बनवाए हैं पर इस के बावजूद लोग ट्रैक पर गंदगी करते हैं.

हादसों को न्योता

बिहार की बात करें तो ज्यादातर इलाकों में भी रेलवे लाइन के आसपास सैकड़ों झुग्गियां उग आई हैं. दूरदराज के इलाकों की छोडि़ए, पटना के आसपास के इलाकों में भी रेल पटरियों के किनारे बसी झुग्गियां हर समय हादसों को न्योता देती रहती हैं. रेल लाइनों पर झुग्गियों के बच्चे हुड़दंग मचाए रहते हैं. न बच्चों को और न ही उनके मांबाप को यह चिंता है कि रेलगाड़ी के नीचे आने से जान जा सकती है. बच्चों और जानवरों को हटाने के लिए रेलगाड़ी का ड्राइवर सीटी बजातेबजाते परेशान रहता है, जिस से गाड़ी अपनी सही चाल से नहीं चल पाती. हादसे के बाद होने वाले उपद्रव मारपीट और तोड़फोड़ के डर से ड्राइवर गाड़ी की सीटी लगातार बजाने और टे्रन को रुकरुक कर चलाने को मजबूर है. नतीजा यह होता है कि रेलगाडि़यां लेटलतीफी का शिकार होती रहती हैं.

पटना-दीघा रेल लाइन के किनारे कई सालों से झोंपडि़यां बनी हुई हैं. उन्हें हटाने की हिम्मत न स्थानीय प्रशासन में है, और न ही रेल महकमे में है. इतना ही नहीं, पटना के बेलीरोड, हौल्ट तबेला और दीघा घाट हौल्ट शराब व शराबियों के अड्डे में तबदील हो गए हैं. पुनाईचक हौल्ट का बुकिंग काउंटर ध्वस्त हो गया है, जबकि शिवपुरी हौल्ट बुकिंग काउंटर पर गायभैंस बांधे जा रहे हैं. पूर्वमध्य रेलवे के इस मार्ग पर बदइंतजामी की इंतहा साफ नजर आती है.

ऐसा ही हाल दानापुर अनुमंडल से गुजरने वाली रेल लाइनों का है. हर हादसे के बाद रेलवे अफसरों की नींद टूटती है और वे पटरियों के आसपास बनी झोंपडि़यों को हटाने का ऐलान करते हैं. मामले के ठंडे होते ही वे भी ठंडे पड़ जाते हैं. दानापुर राजकीय मध्य विद्यालय में पढ़ने वाली संजना कुमारी कहती है कि अगर रेलवे के अफसर उस के घर को हटाने की कोशिश करेंगे तो वह जान दे देगी. उस का परिवार पिछले कई सालों से इंदिरा आवास की मांग कर रहा है, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

बिहार के कई जिलों में कई दशकों से गरीब लोग रेलवे की खाली जमीन पर या रेल लाइनों के किनारे झोंपड़ी बना कर जिंदगी गुजार रहे हैं. उन झोंपडि़यों में रहने वाले हर पल मौत का सामना करते हुए जिंदगी बिता रहे हैं. रेलवे उन्हें हटाने की जिद करता है तो वे मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं.

सजता है बाजार

तकरीबन यही हाल पश्चिम बंगाल का भी है. पश्चिम बंगाल के सियालदह, मध्यमग्राम, बारासात, विधाननगर, हृदयपुर, दुर्गापुर, बिराटी और दमदम जैसे रेलवे स्टेशनों के प्लेटफौर्मों से यात्रियों का ट्रेन पर चढ़ना व उतरना मुहाल रहता है. प्लेटफौर्म में चाय, बीड़ी, पान, सिगरेट की दुकान से ले कर फूल, सब्जी, फल, प्लास्टिक के सामान और खिलौने तक की दुकानें सजी होती हैं. लगभग हर रोज यात्रियों और प्लेटफौर्म के दुकानदारों से हाथापाई, गालीगलौज की नौबत होती है.

प्लेटफौर्मों में अतिक्रमण के बारे में पूर्व रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी समीर गोस्वामी का कहना है, ‘‘अतिक्रमण हटाना पुलिस का काम है. रेलवे महज उन का सहयोग कर सकता है.’’ वहीं इस बारे में एसआरपी सियालदह, तापस रंजन घोष का कहना है, ‘‘रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण है तो इसे हटाने का बीड़ा रेलवे को ही उठाना होगा. हां, हम उन का साथ दे सकते हैं.’’ जाहिर है कि अतिक्रमण हटाने के सवाल पर रेलवे और पुलिस एकदूसरे पर जिम्मेदारी डाल कर पल्ला झाड़ लेते हैं और यात्रियों को इस का खमियाजा भुगतना पड़ता है.

कोलकाता और उस के उपनगरों में लोगों के लिए सड़क पर चलना दूभर है. खासतौर पर उत्तर, मध्य और दक्षिण कोलकाता में. पूर्वी कोलकाता के हाथीबागान, श्याम बाजार, धर्मतल्ला, गडियाहाट, कालेज स्ट्रीट और मध्य कोलकाता के रवींद्र सदन, बिड़ला तारामंडल, नंदन और एसएसकेएम अस्पताल के आसपास की मुख्य सड़कें सदियों से हौकरों के कब्जे में हैं. त्योहारों के दौरान तो हाल और भी बुरा होता है. फुटपाथों में बाकायदा इन की दादागीरी चलती है. कीमत पूछ कर अगर किसी ने सामान न खरीदा तो ये फुटपाथी हौकर फिकरे कसने से ले कर गालीगलौज तक पर उतर आते हैं.

सत्ता पलटाता अतिक्रमण

पश्चिम बंगाल में 1960 में पहली बार राज्य की कांग्रेसी सरकार ने फुटपाथों को हौकरों के कब्जे से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था. उस समय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआईएम कांग्रेसी सरकार के इस अभियान के खिलाफ सड़क पर उतरी और पहली बार हौकरों को संगठित किया. फुटपाथों के अतिक्रमण के खिलाफ जुलूस, धरना, प्रदर्शन शुरू हुआ. वैसे भी कांग्रेस शासन में नक्सलवाद के खिलाफ अभियान में सरकार की छवि दागदार हो चुकी थी.

इस के बाद अतिक्रमण विरोधी सरकारी अभियान से मामला पूरी तरह से पलट गया. हौकरों और उन के परिवार का वोटबैंक सीपीआईएम के पाले में आ गया. अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई. यह विडंबना ही है कि बंगाल की सत्ता किस के हाथों में हो, अन्य कई बातों के साथ एक हद तक इस पर निर्भर करती है कि राज्य के हौकरों का वोट किस के पाले में है. 1977 से 2011 तक राज्य विधानसभा चुनाव जीतनेजिताने में हौकरों की अहम भूमिका रही है.

अब सत्ता पर काबिज होने के 2 साल बाद ममता बनर्जी ने हौकरों के अतिक्रमण को हटाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘संग्राम समिति के नाम पर फुटपाथों पर कब्जा बरदाश्त नहीं किया जाएगा,’’ गौरतलब है कि वाममोरचा शासन में ‘औपरेशन सनशाइन’ के दौरान ममता बनर्जी ने ही हौकरों को संगठित कर हौकर संग्राम समिति का गठन किया था. लेकिन अब तक भस्मासुर हो चुके हौकरों ने ममता बनर्जी पर आंखें तरेरते उन के हरीश मुखर्जी रोड स्थित आवास में हौकर संग्राम समिति ने चक्काजाम किया तो पलटवार करते हुए ममता भी सड़क पर उतर आईं और कहा, ‘‘किसी भी कीमत पर सड़क व फुटपाथ का अतिक्रमण नहीं होने दिया जाएगा. मैं भी बाघेर बच्चा (बाघ की पैदाइश) हूं. लड़ना बखूबी जानती हूं.’’ अतिक्रमण व हौकर समस्या पर सीपीएम नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘औपरेशन सनशाइन का विरोध इन्हीं ममता बनर्जी ने किया था और अब इन बेचारे हौकरों का क्या दोष, बाघ का बच्चा बन कर हौकर उन्मूलन के लिए मुख्यमंत्री सड़क पर उतरे, यह तो बड़ी हास्यास्पद बात है. बहरहाल, बाघ हो या बाघ का बच्चा, दोनों ही हौकरों के लिए खतरनाक हैं.’’

लगभग 3 दशकों तक सत्तासुख भोग लेने के बाद वाम मोरचा सरकार ने 1995 में कोलकाता के फुटपाथों से अतिक्रमण हटाने का काम शुरू किया, जिसे ‘औपरेशन सनशाइन’ नाम दिया गया. कोलकाता नगर निगम, सीपीएम के कैडर और पुलिस बटालियन के संयुक्त प्रयास से फुटपाथ और सड़कों से अतिक्रमण हटाया जाने लगा. तब हौकर ममता बनर्जी की शरण में गए. ममता बनर्जी ने हौकरों को संगठित किया. उन्होंने हौकरों के 32 संगठनों को एकजुट कर ‘हौकर संग्राम समिति’ का गठन किया और वाम मोरचा के औपरेशन सनशाइन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया.

हालांकि वाम मोरचा सरकार ने अतिक्रमण हटाने के अभियान को बंद नहीं किया, लेकिन विपक्ष की राजनीति के दबाव में आ कर औपरेशन सनशाइन अभियान को शिथिल जरूर कर दिया. इस से औपरेशन सनशाइन की चपेट में आए हौकरों को फिर से फुटपाथों पर कब्जा करने का मौका मिल गया. लेकिन 2000 में कोलकाता नगर निगम तृणमूल के हाथों में चले जाने के बाद 2000-2005 तक कोलकाता के लगभग 80 प्रतिशत फुटपाथों पर हौकरों का अतिक्रमण हो गया.

क्या हैं परेशानियां

आवाजाही में दिक्कत के अलावा रेल पटरियों के किनारे के बेजा कब्जों से दूसरा बड़ा नुकसान रखरखाव और मरम्मत का है. झुग्गियों में रहने वाले लोग पटरियों के आसपास ही शौच करते हैं. ऐसे दृश्य लगभग पूरे देश में देखे जा सकते हैं. इस से नुकसान यह है कि अगर कोई सिग्नल भी खराब हो जाए तो कर्मचारी गंदगी के चलते उसे ठीक करने जाने से मना कर देता है. इस बाबत अधिकारी उस पर दबाव बनाएं तो बात मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की हो जाती है और विभिन्न रेल यूनियनें हाथ में झंडे और तख्तियां ले कर हायहाय करने लगती हैं कि देखो, हम से शौच साफ कराई जा रही है. यानी इन नाजायज झोंपड़ों में रह रहे लोगों की फैलाई गंदगी को साफ कराने में ही रेलवे को सालाना करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं. इसलिए रेलवे शराफत से राज्य सरकारों को झुग्गी हटाने के लिए तयशुदा राशि देने को तैयार रहता है.

आम जनता में इच्छाशक्ति के अभाव के अलावा राजनीति और घूसखोरी के चलते ये अतिक्रमण कभी दूर हो पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. हां, इतना जरूर है कि जब भी स्पीड कम होगी तो ट्रेन में सफर कर रहे लोग रेलवे को बदस्तूर कोसते रहेंगे जबकि उन को प्रशासन या नगर निगम की अतिक्रमण में खलनायकी भूमिका का पता नहीं चलेगा.

रेलवे खुद क्यों ये नाजायज कब्जे नहीं हटा पाता, इस पर मुंबई रेलवे के एक जनसंपर्क अधिकारी का कहना है कि अतिक्रमणकारियों को नोटिस भेजा जाता है जिस से कुछ लोग हट जाते हैं अन्यथा पुलिस बल का प्रयोग, राज्य सरकार की सहायता से किया जाता है. इस के अलावा झुग्गीझोंपड़ी वाले इलाके के दोनों तरफ रेलवे ट्रैक बना कर छोड़ दिया जाता है. बाद में लोग खुद ही हट जाते हैं. नाजायज तरीके से बसे ऐसे लोगों को हटाने में कई बार रेलवे प्रशासन भी लाचार दिखता है क्योंकि उन्हें हटाने पर लोग जमीन की मांग करते हैं.

नाजायज कब्जे हटाए जाने के सवाल पर रेल अधिकारियों के बयानों में विरोधाभास साफ दिखता है. बात भोपाल की करें तो रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी केके दुबे का कहना है कि वे अतिक्रमणकारियों के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा एफआईआर दर्ज कराने का ही काम कर सकते हैं. इस के पहले रेलवे ने जिला प्रशासन व नगर निगम को इस मामले में पत्र भी लिखे थे. यानी झंझट यह है कि किस विभाग की जमीन कहां तक और कितनी है? सेफ जोन के नाजायज कब्जे रेलवे हटा सकता है.

वहीं, दिल्ली रेल मंडल के जनसंपर्क अधिकारी अजय माइकल की मानें तो रेलवे अपनी जमीन से अतिक्रमण हटाने की कोशिश करता रहता है. मई 2012 से ले कर इस साल मार्च तक दिल्ली में रेलवे ने 1337 झुग्गियां हटा कर लगभग 3.87 हैक्टेयर जमीन अतिक्रमणमुक्त कराई.

रेलवे की हद सेफ जोन यानी उस की जमीन तक ही है. इस के बाद जमीन निजी या सरकारी होना शुरू हो जाती है. हैरत की बात यह है कि वह भी अतिक्रमण रहित नहीं होती. नाजायज कब्जों की हालत देख यह तय कर पाना मुश्किल है कि देश में कुल जायज कब्जे ज्यादा हैं या नाजायज की तादाद ज्यादा है.

यत्र, तत्र, सर्वत्र

भोपाल उतरें या दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जाएं, कुछ कदम चलने के बाद रेलवे के नाजायज कब्जे सरीखे दूसरे नाजायज कब्जे नई शक्ल में दिखने लगते हैं. ये कब्जे ‘सर्वधर्म समभाव’ की तरह हैं, होर्डिंग्स और इश्तिहारों की तरह हैं और कभीकभी तो लगता है कि ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं. एक बार को नाजायज कब्जे तो आम लोगों के बगैर रह लें पर आम लोग शायद इन के बिना नहीं रह सकते.

भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के एक चौराहे पर से जिला प्रशासन और नगर निगम ने कुछ नाजायज कब्जे किसी खास वजह से हटा डाले तो वहां से रोजाना गुजरने वालों को दिक्कत होने लगी.

दफ्तर जाने वाले एक मुलाजिम के अनुसार, मैं मोटरसाइकिल से जाता हूं, चौराहे के बायीं तरफ नाजायज कब्जे वाली कच्ची दुकानें थीं जहां से मैं संभल कर निकलता था और मान कर चलता था कि बायीं तरफ कच्चे चबूतरे होने की वजह से कोई ओवरटेक नहीं करेगा. पर कब्जे हटने के तीसरे दिन ही मेरा एक्सिडैंट हो गया क्योंकि मैं भूल गया था कि अब बायीं तरफ की जगह खाली हो गई है. हादसे वाले दिन मैं रोजाना की तरह धीमी रफ्तार से जा रहा था कि एकाएक बायीं तरफ से दूसरी बाइक वाला प्रकट हो गया और टक्कर हो गई. दोनों को मामूली चोटें लगीं.

बात कहनेसुनने में मजाक लग सकती है पर है हकीकत कि आम लोग रोजरोज एक परेशानी यानी नाजायज कब्जा को बरदाश्त करने के आदी हो गए हैं. इसे ले कर लोग परेशानी के क्षणों में सरकार को, मेयर को, कलैक्टर को, पुलिस वालों को और जितने संबंधितअसंबंधित विभाग हो सकते हैं, को दिल से कोसते हैं. पर परेशानी के वक्त इन विभागों से ज्यादा अतिक्रमणकारियों को भी कोसते हैं कि कैसे जाहिल और बेहूदे लोग हैं जो हरकहीं कब्जा कर लेते हैं और परेशानी हम जैसों को उठानी पड़ती है. और यह झल्लाहट केवल शहरी लोगों की ही नहीं है, देहातों व कसबों के लोग भी अतिक्रमण से परेशान हैं.

जाहिर है अतिक्रमण एक राष्ट्रीय मानसिकता बन चुका है. देहातों में खाली पड़ी जमीन पर मढि़या यानी छोटा मंदिर पूजापाठ करने के बहाने जमीन पर कब्जा करने की नीयत से बनाए जाते हैं.

इतना ही नहीं, हाइवे से ले कर तंग गलियों तक में नाजायज कब्जे हैं जिन से यातायात अवरुद्ध होता है और घंटों जाम लगा रहता है. लाखों, करोड़ों का ईंधन धुआं बन कर उड़ जाता है पर नाजायज कब्जा ज्यों का त्यों रहता है.

दरअसल, बेजा कब्जा बनाए रखने के लिए घूस खाई जाती है. अतिक्रमण हटाने का जिम्मा स्थानीय निकायों का होता है जिन के इंस्पैक्टरों की तोंदें घूस की रकम से फूल रही हैं. नाजायज कब्जे वाला इन्हें दैनिक, साप्ताहिक या मासिक घूस, वह भी अग्रिम देता है. भोपाल में कई दफा यह बात उजागर भी हो चुकी है.

पूर्व कोलकाता हौकर संग्राम समिति के अध्यक्ष शक्तिमान घोष का कहना है कि अपना और परिवार का पेट भरने के लिए हौकरों को ट्रेड यूनियन के नेता से ले कर राजनीतिक पार्टियों के नेता, पुलिस, स्थानीय पार्षद तक सब का ‘मुंह भरना’ पड़ता है. शक्तिमान यह भी बताते हैं कि सिर्फ कोलकाता में हर साल 265 करोड़ रुपए रिश्वत में हौकरों को देने पड़ते हैं और यह रकम उन के कारोबार का एक तिहाई है. वहीं, बंगाल हौकर यूनियन का कहना है कि वह कारोबार करने का अधिकार पाने के लिए निगम को किराया और दूसरे कर देने को भी तैयार है पर सरकार को इंतजाम करने पड़ेंगे. यूनियन ने सरकार से हौकरों को विशेष परिचयपत्र देने की मांग की. परिचयपत्र मिल जाने से वे रिश्वत देने से बच जाएंगे.

गुमटी, कच्चीपक्की दुकानें, मकान, झुग्गियां जब नाजायज तरीके से बनते हैं तो परेशानी आम लोगों को ही होती है. लेकिन लोगों के असंगठित होने और परेशानी तात्कालिक कह लें या अल्पकालिक होने के कारण कोई सशक्त विरोध दर्ज नहीं कराया जाएगा. बातबात पर उपभोक्ता फोरम, थानों और अदालतों में जाने वाले जागरूक लोगों की हिम्मत भी इन नाजायज कब्जों को देख पस्त हो जाती है और वे इन के आगे नतमस्तक हो जाते हैं. अब तो सरकारें भी नाजायज कब्जों को जायज बनाने के लिए शुल्क लेने लगी हैं. जान कर हैरानी होती है कि कई कालोनियां तक, जो नाजायज कब्जे की जमीन पर बनी थीं, वहां अब खासी आबादी बसने लगी है. यह गुत्थी कोई नहीं सुलझा पाता कि जब नाजायज कब्जे हो रहे होते हैं तब सरकार और उस के महकमे कहां सो रहे होते हैं?

हथियार डालते लोग

लोगों ने नाजायज कब्जों और कब्जाधारियों से इस हद तक समझौता कर रखा है कि घर से बाहर सड़क पर चंद कदमों की दूरी पर भी कोई नाजायज कब्जा दिखे तो अपना रास्ता बदल लेंगे पर उसे हटाने के लिए अपनी तरफ से कोई किसी तरह की पहल नहीं करता. कोई भी बेकार के झगड़े में नहीं पड़ना चाहता, परेशानी उठाना उसे मंजूर होता है.

तकनीकी तौर पर नाजायज कब्जों से हैरानपरेशान लोगों को यह समझानेफुसलाने की कोशिश की जाती है कि लोग देहातों से शहर की तरफ भाग रहे हैं, उन्हें जहां जमीन खाली दिखती है झुग्गी बना लेते हैं, रोजगार के लिए कहीं भी सब्जीतरकारी या इस्तरी करने की दुकान खोल लेते हैं. इन की तादाद इतनी ज्यादा है कि किसकिस को हटाया जाए और हटा भी दिया जाए तो ये जाएंगे कहां. कहीं न कहीं तो कच्ची ही सही, चारदीवारी खड़ी करेंगे यानी नाजायज कब्जा करेंगे ही.

मान लीजिए, आप के घर के सामने किसी तथाकथित गरीब ने झोंपड़ा बना लिया है और यदि वह नाजायज कब्जों का गणित जानते हैं कि कल को 1 कमरे का यह घर 2 का हो जाएगा. कुछ दिनों बाद इस के बगल में 1 और झोपड़ा खड़ा हो जाएगा. फिर देखते ही देखते खाली पड़ी पूरी जमीन झुग्गियों से पट जाएगी. आप कार्यवाही करने की सोचेंगे. पुलिस थाने जाएंगे तो बेरुखी से कहा जाएगा कि अतिक्रमण हटाना हमारा काम नहीं, नगर निगम का काम है. अगर आप नगर निगम के दफ्तर जाएंगे, वहां से आप को मशवरा दिया जाएगा कि पहले थाने में रिपोर्ट लिखाएं कि कब्जाधारी कौन है?

बहलानेफुसलाने वाले ये लोग दरअसल घूसखोर सरकारी मुलाजिम हैं जिन्हें नाजायज कब्जों के एवज में तगड़ी घूस मिलती है. इसीलिए आम लोगों को नहीं मालूम कि नाजायज कब्जे हटाने की जिम्मेदारी किस की है.

जाहिर है आप ‘औफिस औफिस’ धारावाहिक के मुसद्दीलाल बनना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि इस में वक्त और पैसा तो जाया होगा ही साथ ही नवगठित बेनाम झुग्गी यूनियन वाले आप के दुश्मन बन जाएंगे, अब आप डरेंगे इस बात से कि कहीं ये आप को परेशान न करने लगें.

जाएं तो कहां जाएं

साफ है, आम लोगों को नहीं मालूम कि इन परेशानियों से कैसे बचा जाता है, अलबत्ता इन कलपते लोगों को कुछ दिनों बाद यह ज्ञान प्राप्त होता है कि इस में उन सभी की मिलीभगत थी जिन्हें कार्यवाही करनी चाहिए थी और ये कब्जे फलां नेता और बिल्डर के इशारे पर हुए थे. नेताओं के लिए कुछ महीनों बाद ये वोट और बिल्डर के लिए कुछ सालों बाद नोट उगलने वाली मशीन बन जाते हैं.

ठीक यही हाल बाजारों का है. हर नाजायज कब्जे वाली जगह, जिस के सरकारी होने से आप को चलनेफिरने तक में परेशानी होती है और आम आदमियों को परेशान करती रहती है.

जानलेवा नाजायज कब्जे बाजार और शहर की खूबसूरती बिगाड़ें, किसी को फर्क नहीं पड़ता, न चिंता या परवा रहती. यह सारा खेल नोटों और वोटों का है. सभी प्रमुख दलों ने झुग्गीझोंपड़ी प्रकोष्ठ बेवजह नहीं बना रखे और यूनियनें भी बेवजह नहीं बनाई जातीं.

हकीकत तो यह है कि आम आदमी नाजायज कब्जों को ले कर हताश हो चुका है, इसलिए परेशानियों से जूझते इन्हें स्वीकृति दे चुका है. इन से परेशान लोगों का कोई संगठनयूनियन नहीं बनती. रेलवे या दूसरे विभाग कुछ कर पाएंगे, यह दूर की बात है. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट तक के आदेश तक असरहीन साबित हो चुके हैं. कोर्ट द्वारा बारबार राज्य सरकारों की खिंचाई के बावजूद देशभर में अवैध धर्मस्थल सीना तान कर खड़े हैं.

अजीब तो यह है कि देश में श्मशानों तक में अतिक्रमण है. जिंदगी भर अतिक्रमण की मार से जूझता आदमी मरने के बाद चार कंधों पर जब श्मशान पहुंचता है तो वहां भी वह इस समस्या से दोचार होने को मजबूर होता है.   

-साथ में मुंबई से सोमा घोष, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति और कोलकाता से साधना शाह      

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