हम गणना नहीं कर सकते कि भारत में छपने वाले समाचारपत्रों और पत्रिकाओं की संख्या कितनी है. इस संबंध में जो आंकड़े छपते रहते हैं उन से तसवीर बहुत गुलाबी लगती है. बताया जाता है कि विभिन्न भाषाओं में छपने वाले अखबारों की संख्या हजारों में है तो साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं भी इतनी हैं कि उन की गणना नहीं हो सकती. कई पत्रपत्रिकाएं तो लाखों की संख्या में छपती और बिकती हैं. कुल मिला कर ये करोड़ों में बिकते और अरबों का व्यापार करते हैं.

जाहिर है, उन्हें पढ़ने वाले करोड़ों की तादात में होंगे. पूरे शिक्षित अथवा अर्धशिक्षित, अपनी भाषा का कोई न कोई अखबार सभी पढ़ते हैं. शिक्षा और सूचना के प्रसार में पत्रिकाओं का योगदान भी कम नहीं है. एक तरह से देखें तो यह एक विस्फोट है जो भारत में इतने व्यापक रूप से पहली बार हो रहा है. अपनीअपनी दिलचस्पी और जरूरत के मुताबिक हम अपना कोई पत्र और पत्रिका चुन ही लेते हैं, और उन्हें पढ़ते रहने की हमारी एक आदत सी बन जाती है.

कुछ कठिनाई दूरदराज में रहने वाले उन पाठकों को होती है जहां पत्रपत्रिकाएं नहीं पहुंच पातीं या देर से पहुंचती हैं. उन्हें उन छोटेछोटे स्थानीय समाचारपत्रों को पढ़ कर अपनी भूख मिटानी पड़ती है जो आसपास के कसबों और जिलों से प्रकाशित होते हैं. उन की प्रसार संख्या चाहे बहुत कम हो, पर पाठकों के बीच उन की पैठ गहरी होती है. 2 से 4 पन्नों के इन अखबारों की संख्या कई हजार है.

इन अत्यंत स्थानीय दैनिकों और साप्ताहिकों में स्थानीय ‘मसाले’ का जम कर प्रयोग किया जाता है. उन का एकमात्र उद्देश्य होता है समाचारों को चटपटा बना कर पेश करना. अधिक महत्त्व की राष्ट्रीय खबरें भी देरसवेर उन में छप ही जाती हैं. सुबह या शाम को छपने वाले इन अखबारों का लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं. फिर नुक्कड़ों पर गुट बना कर पढ़ते और अपनीअपनी सोच के अनुसार टीकाटिप्पणी करते हैं.

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