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आम चुनाव 2014 – उत्तर प्रदेश में चौदह की चौसर

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के लिए सभी दल जनता की 14 कोसी परिक्रमा करने में जुटे हैं. दिल्ली की जीत से उत्साहित आम आदमी पार्टी के आम चुनाव में ईमानदार नेताओं को उम्मीदवार बनाने की घोषणा ने मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है. पढि़ए शैलेंद्र सिंह की खास रिपोर्ट.

लोकसभा चुनाव 2014 की चौसर यानी शतरंज की बिसात बिछ चुकी है. सभी दलों ने अपनेअपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए हैं. हर चुनावक्षेत्र में अपने जनाधार को बढ़ाने और बचाने की जुगत लगाई जा रही है. दरअसल, लोकसभा चुनावों की नजर से उत्तर प्रदेश सब से बड़ा किला है. यहां की 80 सीटों से ही दिल्ली की गद्दी का वारिस तय होता है.

यह उत्तर प्रदेश की ताकत का ही कमाल था जो कांग्रेस ने यूपीए 2 की पारी बिना वामपंथी दलों के भी पूरी कर ली. ममता बनर्जी ने भी जब आंखें दिखाईं तो उन की भी परवा कांग्रेस ने नहीं की और उन के बिना सरकार चला ली.

इन 80 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें अपनी झोली में डालने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच कांटे की टक्कर है. अब आम आदमी पार्टी यानी आप ने इन दलों की धड़कनों को और बढ़ा दिया है. 80 सीटों के इस किले पर कब्जा करने के लिए पार्टियों को केवल विरोधियों से ही नहीं टकराना, अपने दलों के भीतरघातियों से भी मुकाबला करना है.

भाजपा के चौक वाले बाबूजी

नेताओं के एकदूसरे को पटकनी देने के किस्से खूब सुनाई दे रहे हैं. सब से पहले राजधानी लखनऊ की सीट से जुड़ा एक किस्सा सुनाते हैं. भाजपा के लिए राजधानी लखनऊ की सीट सब से खास हो गई है. इस के 2 कारण हैं. पहला, राजधानी की सीट जीतने का संदेश दूर तक जाता है. दूसरा, यहां से पहले भाजपा के बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव लड़ा करते थे. इस सीट से चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बने थे.

भाजपा में यह टोटका भी चल रहा है कि जो लखनऊ से जीतेगा, वही देश का प्रधानमंत्री बनेगा.  यही वजह है कि कभी यहां से नरेंद्र मोदी का नाम सामने आता है तो कभी राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का नाम चलता है. भाजपा के इस चूहाबिल्ली के खेल ने लखनऊ के सांसद और भाजपा नेता लालजी टंडन के दिल की धड़कन बढ़ा दी है. 

भाजपा में कई नेताओं को प्यार और सम्मान से ‘बाबूजी’ के नाम से पुकारा जाता है. इन में एक नाम लालजी टंडन का है. कई बाबूजी होने से उन को ‘चौक वाले बाबूजी’ के नाम से पुकारा जाता है. चौक लखनऊ की पुरानी नवाबी बस्ती है. यहीं लालजी टंडन का पुश्तैनी मकान है. वे सांसद बनने के पहले यहीं से विधायक हुआ करते थे. भाजपा में लालजी टंडन अपने को पार्टी के बडे़ नेता अटल बिहारी वाजपेयी का उत्तराधिकारी समझते हैं. ऐसे में उन का टिकट काटा नहीं जा सकता है. जब तक टंडन अपना नाम यहां से वापस नहीं लेंगे तब तक दूसरे किसी नेता के लिए जगह कैसे बनेगी. भाजपा में बीच का रास्ता निकालने वालों की कमी नहीं है. ऐसे ही एक नेता ने लालजी टंडन से कहा कि अब आप चुनावी राजनीति से बाहर आइए. पार्टी की सरकार बनेगी तो आप को किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाएगा.

टंडन पुराने नेता हैं. अपनी पार्टी के हर अंदाज को भलीभांति जानतेसमझते हैं. वे राज्यपाल तो बनना चाहते हैं पर लखनऊ की सीट से टिकट भी अपने बेटे के लिए चाहते हैं. वर्तमान हालात में जब पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार जैसे बडे़ नाम लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बनाना चाह रहे हों तो लालजी टंडन के बेटे के लिए टिकट मिलना मुश्किल था. यह सोचसमझ कर टंडन ने फिलहाल राज्यपाल वाले विकल्प को बंद कर सक्रिय राजनीति में रह कर लखनऊ से चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. ऐसी ही उठापटक के दिलचस्प किस्से हर दल में सुने जा रहे हैं.

हमें प्रधानमंत्री कब बनाओगे

नरेंद्र मोदी के बाद उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव दूसरे नेता हैं जो अपने को प्रधानमंत्री पद का सब से बड़ा दावेदार मानते हैं. लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए मुलायम सिंह ने सपा के विक्रमादित्य मार्ग स्थित कार्यालय पर कार्यकर्ताओं के साथ एक मीटिंग का आयोजन किया. जब सब पदाधिकारी जुट गए तो मुलायम ने उन से पूछा, ‘‘तुम लोगों ने विधानसभा चुनाव के बाद अखिलेश को मुख्यमंत्री बना दिया अब यह बताओ कि हम को प्रधानमंत्री कब बना रहे हो?’’

कार्यकर्ताओं ने वादा किया कि लोकसभा चुनाव के बाद वे ही प्रधानमंत्री बनेंगे. मुलायम सिंह यादव ने अभी कुछ समय पहले अपना 75वां जन्मदिन मनाया है. कार्यकर्ता जब उन को बधाई देने, मुंह मीठा कराने गए तो मुलायम ने कहा कि उन को 75वें जन्मदिन पर 75 लोकसभा की सीटों का उपहार पार्टी की ओर से चाहिए.

मुलायम सिंह यादव के बड़े बेटे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो अपने पिता को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर ही रहे हैं, उन के छोटे बेटे प्रतीक यादव भी अपनी पत्नी अपर्णा यादव के साथ लोकसभा चुनाव के प्रचार में जुट गए हैं. अपर्णा यादव गायिका भी हैं. वे लखनऊ महोत्सव और सैफई महोत्सव में अपने गाने की मिठास का एहसास करा चुकी हैं. अब वे उत्तर प्रदेश के लोगों से सपा को वोट देने और मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए गाना सुनाने की तैयारी में हैं. 

अपर्णा ने बौलीवुड सिंगर वाजिद अली के साथ मिल कर एक गाना गाया है. इस गाने के बोल हैं, ‘आओ मिल कर देश बचाएं, नेताजी को दिल्ली लाएं.’ यह गाना एक सीडी के रूप में तैयार किया गया है. अपने पति प्रतीक यादव के साथ अपर्णा ने यह सीडी लखनऊ में जारी की.

सीडी के इस गाने से प्रभावित हो कर प्रतीक यादव तो यहां तक कह गए कि सपा को उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर जीत हासिल होगी. अब यह सीडी उत्तर प्रदेश के लोगों पर कितना प्रभाव डाल सकेगी, यह तो चुनाव के बाद ही पता चल सकेगा.

राहुल की बारी

कांग्रेस ने सोनिया और राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी को राजनीति में ला कर केंद्र में अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की पूरी कोशिश की. 10 साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी राहुल गांधी में वह आत्मविश्वास नहीं आ सका कि वे अपने बल पर कांग्रेस को चुनाव जितवा सकें. लगातार कई चुनावों से इस बात की परीक्षा भी हो रही है. लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए काफी महत्त्व रखते हैं. राहुल गांधी को देश का अगला पीएम बनाने की भरसक कोशिश की जा रही है. देशभर में विज्ञापन के जरिए टीवी और अखबारों में  उन के लिए कैंपेनिंग की जा रही है. हालांकि पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर प्रकाशित हुए राहुल गांधी के साक्षात्कार को ले कर देशभर में उन की काफी आलोचनाएं हुईं. किसी ने उन्हें सियासत में अपरिपक्व बताया तो कोई इन की पीएम पद की दावेदारी पर सवाल खड़ा करता दिखा. लेकिन शायद कांग्रेस को उन सब बातों से कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है. वह बढ़चढ़ कर लोकसभा चुनाव के लिए राहुल गांधी के लिए प्रचार की तैयारियों में मसरूफ है. बहरहाल, सभी दलों की सेनाएं आगे बढ़ रही हैं और कांग्रेसी राहुल गांधी को आगेआगे पेश कर रहे हैं. ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि उन का करिश्मा लोगों पर कितना असर डालता है.

‘आप’ का ताप

दिल्ली विधानसभा चुनाव की जीत और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनावों को ले कर उत्साहित है. वह उत्तर प्रदेश के सभी दलों के खास नेताओं के सामने अपने मजबूत प्रत्याशी उतारने की तैयारी में है. ‘आप’ नेता संजय सिंह प्रत्याशियों के चयन में लगे हैं. मुख्य गणित दिल्ली में ‘आप’ के रणनीतिकार बना रहे हैं. अमेठी से कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ कुमार विश्वास को मैदान में उतारा है.

भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ ‘आप’ अपने किसी दमदार व्यक्ति को तलाश रही है. केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के खिलाफ ममता बनर्जी का विवादित कार्टून बनाने वाले असीम त्रिवेदी का नाम सामने आ रहा है. कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ मजबूत प्रत्याशी उतारने की घोषणा करने वाली ‘आप’ ने समाजवादी पार्टी के नेताओं के खिलाफ अपने पत्ते नहीं खोले हैं. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि ‘आप’ का थिंकटैंक मुलायम सिंह के खिलाफ हमले से बच रहा है हालांकि ‘आप’ ने मुलायम के खिलाफ पूर्व नौकरशाह बाबा हरदेव सिंह को चुनावी मैदान में उतारा है. मायावती के खिलाफ वे मोरचा नहीं खोलना चाहते जबकि सही माने में उत्तर प्रदेश में बिना माया और मुलायम का मुकाबला किए जीत नहीं मिलने वाली है.

हाथी मेरे साथी

जानवरों में हाथी की अपनी एक खासीयत होती है. वह बिना दूसरों की परवा किए अपनी राह पर चलता रहता है. हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न है. विधानसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग ने पार्कों और स्मारकों में लगी हाथी की मूर्तियों को कपडे़ से ढकवा दिया था ताकि उन को देख कर जनता बसपा को वोट न दे सके. मूर्तियों के ढकने से ज्यादा प्रभाव मायावती सरकार की गलत नीतियों ने डाला था. जनता ने बसपा के हाथी के बजाय सपा की साइकिल की सवारी करना बेहतर समझा और बहुमत से सपा की सरकार बन गई. उत्तर प्रदेश की जनता ने सपा को वोट तो दिया पर 2 साल से कम समय में ही उस का मोह सपा सरकार से भंग हो गया है. 

इस के चलते एक बार फिर हाथी की मस्त चाल लोगों पर असर डालने लगी है. ऐसे में लोकसभा चुनाव में बसपा के हाथी की चाल देखने वाली होगी. जहां दूसरे दल लोकसभा की हवाहवाई तैयारियों में लगे हैं वहीं बसपा चुपचाप अपना काम कर रही है. बसपा ने सब से पहले अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के नाम तय कर दिए हैं. ऐसे में उस की लड़ाई को गंभीरता से देखा जा रहा है. लोकसभा चुनाव में सब से मुख्य मुकाबला बसपा और भाजपा के बीच होने की संभावना है. बीच में ‘आप’ ने आ कर राजनीतिक दलों में खलबली मचा दी है. प्रदेश के दूसरे छोटेछोटे दल भी लोकसभा चुनाव में वोट काटने का काम कर बड़ों का खेल बिगाड़ सकते हैं.

बहरहाल, प्रदेश में 80 सीटों को ले कर सभी दलों ने अपनेअपने पांसे फेंकने शुरू कर दिए हैं. आम आदमी पार्टी ने हर दल के बड़े नेताओं को घेरने का दिलचस्प दांव चला दिया है. नेता भले ही इस दांव पर अभी चित न हुए हों पर उन के दिल की धुकधुकी तो बढ़ ही गई है.  

केजरी (की ) वाल- कांग्रेस भाजपा के सपनों पर सवाल

देश की राजनीति में ऐतिहासिक बदलाव के साथ दिल्ली में आई ‘आप’ की सरकार 49 दिनों में ही भ्रष्ट और निकम्मी व्यवस्था की बलि चढ़ गई. सरकार बनते ही अरविंद केजरीवाल की आक्रामक कार्यशैली से घबराए भाजपा व कांग्रेस ने इस बार संविधान और नियमकानूनों की आड़ में उम्मीदों से भरी आम आदमी पार्टी की सरकार को लील लिया. पेश है जगदीश पंवार का यह विश्लेषण.

देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई पार्टी अपनी सत्ता बचाने के लिए हाथपैर मारने के बजाय बेईमान, भ्रष्ट और अकर्मण्य व्यवस्था में परिवर्तन के लिए कुरसी को ठुकरा कर विपक्ष को ललकारते हुए दिखाई दे रही हो और सरकार के जाने के लिए सफाई विपक्षी दलों को देनी पड़ रही हो.

दशकों से नियमकायदों के नाम पर चलाई जा रही भ्रष्ट, अकर्मण्य, बेईमान और उलझाऊ व्यवस्था का नमूना एक बार फिर 14 फरवरी को दिल्ली में उस समय देखने को मिला जब एक चुनी हुई बहुमतप्राप्त आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की सरकार को नियमकायदों के नाम पर जनलोकपाल बिल पेश नहीं करने दिया गया. संविधान और नियमकायदों के नाम पर रची गई जिस बेईमान और अकर्मण्य व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल सियासी मैदान में उतरे थे, उसी व्यवस्था ने महज 49 दिन पुरानी उन की सरकार को लील लिया. लेकिन अरविंद केजरीवाल नियमकायदों के नाम पर गूंथे गए चक्रव्यूह में फंसने के बजाय उसे भेदने का इरादा जाहिर करते व सत्ता की परवा न करते हुए चुनावी मैदान में आ खड़े हुए हैं. उन्होंने एक बार फिर परंपरागत राजनीतिक दलों के सामने चुनौती पेश कर दी है.

केजरीवाल पर तरहतरह के आरोप लगाए जा रहे हैं. विपक्ष द्वारा केजरीवाल पर भाग खड़े होने का आरोप लगाया गया. कहा गया कि केजरीवाल अब सत्ता के फंदे से मुक्ति चाहते हैं. वे वादों से भाग रहे हैं और उन की निगाह केंद्र के सिंहासन पर है. विपक्ष ने आम आदमी पार्टी को अयोग्य, सत्ता चला पाने में नाकाबिल साबित करने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहा. यह वही विपक्ष है जिस ने कभी अपने गिरेबां में नहीं झांका. आप को नकारा बताने वाले भाजपा जैसे दल भूल जाते हैं कि जिन राज्यों में उन की सरकारें हैं वहां कितना भ्रष्टाचार फैला है. लेकिन केजरीवाल तो असल में भागे नहीं हैं, दशकों से बेईमान, निकम्मी व्यवस्था ने उन को उलझाने की कोशिश की पर उन्होेंने संविधान और नियमकायदों के नाम पर रचे गए चक्रव्यूह में फंसने के बजाय बाहर आ कर उसे भेदने के लिए जनता के सामने जाना उचित समझा.

आखिरी मुद्दे में था केंद्र सरकार का एक नियम, जिस के मुताबिक दिल्ली सरकार को कोई भी विधेयक पेश करने से पहले उपराज्यपाल या केंद्र सरकार की अनुमति लेनी जरूरी है. केजरीवाल सरकार का कहना था कि इस से पहले शीला दीक्षित सरकार ने एक के बाद एक 13 विधेयक बिना उपराज्यपाल या केंद्र की मंजूरी के पारित करवाए थे लेकिन कांग्रेस और भाजपा जनलोेकपाल विधेयक को असंवैधानिक तरीके से रखने की बात कहती रहीं. आखिरकार, विधेयक को पेश करने पर वोटिंग हुई, जिस में पक्ष में 27 जबकि विपक्ष में 42 वोट पड़े.

लोकतंत्र का नायक

28 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में बतौर मुख्यमंत्री शपथ लेने वाले केजरीवाल का कार्यकाल इतना उथलपुथल भरा रहा कि आधेअधूरे राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए भी वे पूरे देशभर  में चर्चित रहे. उन की नीतियों, फैसलों पर देश की निगाहें लगी रहीं. मीडिया में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी से ज्यादा चर्चा केजरीवाल की होने लगी. 8 दिसंबर को जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए तो अचानक मीडिया को लोकतंत्र का नया हीरो मिल गया.

केजरीवाल देश की राजनीति की नई उम्मीद बन कर उभरे लेकिन इस से विपक्षी दलों, खासतौर से भाजपा को खतरा नजर आने लगा. तमाम राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत के साथ उन्हें नाकाम साबित करने के प्रयास शुरू कर दिए. भाजपा और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय दल ‘आप’ पर हमलावर होने लगे. केजरीवाल सरकार की बातबात पर आलोचना की जाने लगी.

व्यवस्था को चुनौती

केजरीवाल सरकार ने अपने थोड़े से समय में जो कुछ किया, उस से घबराए और बौखलाए विपक्ष द्वारा उन के हर कदम को नौटंकी करार दिया जाने लगा. विपक्ष उन्हें अराजक साबित करने पर तुल गया.

केजरीवाल के फैसलों से भ्रष्ट, बेईमान व्यवस्था की चूलें हिलने की आशंका पैदा हो गई. इस व्यवस्था को पालपोस रहे राजनीतिक दलों ने पूरे जोरशोर से केजरीवाल में जबरदस्ती कमियां निकालनी शुरू कर दीं.

असल में केजरीवाल के कुछ कड़े कदमों से कांगे्रस और भाजपा के नेताओं में खलबली मच गई. व्यवस्था में रह कर व्यवस्था के खिलाफ काम करना भ्रष्ट, बेईमान व्यवस्था को रास नहीं आया और कदमकदम पर अड़ंगेबाजी शुरू कर दी गई. केजरीवाल के ज्यादातर फैसले व्यवस्था को चुनौती देने वाले रहे. उन्होंने कांग्रेस के कुछ नेताओं पर सीधा हमला बोला. बेईमानी को उजागर करने वाले कदम उठाए. ऐसे में कांग्रेस व विपक्ष को डर था कि अगर सत्ता  में ‘आप’ रही तो उन की सभी कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा जनता के सामने खुल जाएगा.

जनलोकपाल विधेयक बिना केंद्र या उपराज्यपाल की अनुमति के पारित करने का प्रस्ताव रखने का विपक्ष समेत उपराज्यपाल ने विरोध किया लेकिन केजरीवाल ने विधेयक के लिए अनुमति को गैरजरूरी बताया. कांग्रेस और भाजपा ने लगातार नियमों के उल्लंघन का मामला उठा कर कानूनी जाल बिछाना शुरू कर दिया था.

पूरे किए वादे

रामलीला मैदान में केजरीवाल सरकार ने जब शपथ ली थी तो सरकार के एजेंडे में 18 कार्यों की सूची थी. सत्ता में आने के कुछ घंटों बाद ही दिल्ली सरकार ने घरेलू इस्तेमाल के लिए 400 यूनिट तक की बिजली खपत में 50 फीसदी तक दाम कम करने का आदेश दे दिया. इस के साथ ही बिजली वितरण कंपनियों के खिलाफ सीएजी औडिट का आदेश पारित किया गया. इस से पहले बिजली कंपनियां अदालत के नाम पर औडिट न कराने की बात कहती रहीं लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने औडिट पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. 20 हजार लिटर पानी मुफ्त देने का ऐलान किया गया.

8 जनवरी को भ्रष्टाचार की शिकायत दर्ज कराने के लिए हैल्पलाइन शुरू की गई. इस में शुरुआती 20 दिनों में 1 लाख से ज्यादा शिकायतें आईं. नर्सरी दाखिले में निजी स्कूलों की मनमानी को रोकने के लिए शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने हैल्पलाइन की शुरुआत की. सभी सरकारी अस्पतालों में जेनेरिक दवाएं अनिवार्य करने का फैसला किया गया. सरकार ने डीटीसी ड्राइवर, कंडक्टर, स्कूल टीचर, सहित कई विभागों के ठेका कर्मचारियों को पक्का करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया. समिति को 1 महीने के अंदर रिपोर्ट देने को  कहा गया था.

रसोई गैस मूल्यवृद्धि मामले में पैट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली, पूर्व मंत्री मुरली देवड़ा और उद्योगपति मुकेश अंबानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का आदेश दिया गया. इस के लिए 4 प्रमुख लोगों ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से शिकायत की थी.

दिल्ली में वीआईपी कल्चर खत्म करना प्राथमिकता में था. स्वयं केजरीवाल ने लालबत्ती लगी गाड़ी लेने से मना कर दिया. केजरीवाल खुद अपनी गाड़ी से चलते थे. सुरक्षा का कोई तामझाम नहीं. रेड लाइट पर आम जनता की तरह रुकते थे. अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों और सरकारी अफसरों की गाडि़यों से लालबत्ती उतरवा दी. मंत्रियों के लिए बने बंगले खाली ही रहे.

खिसियाए विपक्षी दल

जनलोकपाल के माध्यम से कांग्रेस के पिछले 15 साल और नगर निगम में भाजपा के 7 साल के शासन में हुए घोटालों की जांच होनी थी. केजरीवाल सरकार ने टैंकर माफिया राज खत्म करने की पहल की. राजनीतिक दलों की शह पर दिल्ली में टैंकर माफिया सक्रिय था. इस से लोगों को पानी नहीं मिल पाता था. इसे खत्म करने के लिए इन्हें संरक्षण देने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही का अभियान चलाया गया. जल बोर्ड के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कदम उठाए गए और बड़ी संख्या में तबादले किए गए.

ऐंटी करप्शन ब्रांच का चेहरा बदल दिया गया जिसे दिल्ली की जनता जानती नहीं थी. इस विभाग में ईमानदार अफसरों के लिए केंद्रीय गृहमंत्रालय को लिखा गया पर केंद्र की ओर से सकारात्मक जवाब नहीं दिया गया. यहां भी केंद्र ने निकम्मापन दिखाया और जनहित से जुड़े काम को पूरा न होने दिया.

केजरीवाल सरकार ‘स्वराज बिल’ भी लाना चाहती थी. स्वराज बिल स्थानीय विकास का बजट व एजेंडा जनता के हाथ सौंपने का बिल है. इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए आप सरकार रैजिडैंट वैलफेयर एसोसिएशन की भागीदारी योजना का बजट शून्य करने की तैयारी में थी. कानून बनने पर स्वराज बिल निगम पार्षदों के बजट को भी शून्य कर देता. इस के अनुसार, आबादी के हिसाब से महल्ला सभाएं बनाई जातीं. 1 हजार परिवार पर 1 महल्ला सभा के हिसाब से दिल्ली में करीब 3 हजार महल्ला सभाएं होतीं. उन के अपनेअपने स्थानीय सचिवालय होते. वे अपने प्रतिनिधि चुनतीं. विधायक और पार्षद इस के अनिवार्य सदस्य होते. महल्ला सभाएं प्राप्त धन का अपनी योजनाओं के मुताबिक आवंटन कर खर्च कर सकतीं.

विवादों का साया

वहीं, सरकार के खाते में कुछ विवाद भी जुड़े. दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती का अफ्रीकी महिलाओं पर ड्रग और सैक्स रैकेट में शामिल होने का आरोप लगाया गया और पुलिस कार्यवाही न होने पर दिल्ली सरकार को रेल भवन पर धरने पर बैठना पड़ा था. इसे ले कर विपक्ष ने अरविंद केजरीवाल सरकार पर अराजकता का आरोप लगाया. केजरीवाल ने दिल्ली में चल रहे ड्रग और सैक्स रैकेट पर  कार्यवाही न करने पर पुलिस के कुछ अफसरों को हटाने की मांग की थी पर केंद्रीय गृह मंत्रालय टस से मस नहीं हुआ. उलटे, दिल्ली सरकार को ही दोषी ठहराने पर तुल गया. सोमनाथ भारती पर एफआईआर दर्ज करा दी गई. उन्हें दिल्ली महिला आयोग की ओर से नोटिस भिजवाया गया. जनलोकपाल बिल पारित न होने देने के कारण विधानसभा में जोरशोर से भारती को हटाने की मांग उठाई गई. दरअसल ‘आप’ सरकार के बहुत तेजी से किए गए कामों से भाजपा व कांग्रेस को अपनी सियासी जमीन खिसकती नजर आई. सत्ता के भूखे इन दलों को ‘आप’ की ईमानदारी नागवार गुजरी. इसलिए नियमकायदों की आड़ में उन्होंने अपना असली रंग दिखा दिया.

देश के 95 प्रतिशत व्यापारी, किसान, दुकानदार और आम लोग ईमानदारी से काम करना चाहते हैं. लेकिन वह पूरी तरह से ऐसी बना दी गईर् है कि व्यवस्था इन सब को चोर, बेईमान की तरह देखती है. हर छोटेछोटे सरकारी काम के लिए सरकारी तंत्र के पास कागजातों की लंबी फेहरिस्त होती है. ये सब कागज देने के बाद भी लोगों का काम नहीं हो पाता, जब तक कि मोटी रिश्वत न दी जाए. सरकारी कामों में तमाम तरह की अडं़गेबाजी जानबूझ कर लगाई  जाती है ताकि घूस मिल सके.

इस देश का आम आदमी रोजीरोटी, पहनने को कपड़े, सिर पर छत, बिजली, पानी, बच्चों की पढ़ाईलिखाई, बीमार का इलाज, परिवार व बच्चों की सुरक्षा और एक अच्छी न्याय व्यवस्था चाहता है. लेकिन आजादी के 65 सालों बाद भी यह संभव नहीं हो पाया है. राजनीतिक और सरकारी तंत्र ने मिल कर ऐसा स्वार्थी ढांचा विकसित कर लिया है कि बिना घूसखोरी के कोई काम नहीं होता.

देश की राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था में बुराइयां भरी पड़ी हैं लेकिन देश व समाज चलाने वालों को बुराइयां नहीं दिख रहीं. वे इन्हें संस्कृति, सामाजिक, संवैधानिक परंपराएं कह कर गर्व करते हैं. व्यवस्था को बड़े व्यवस्थित तरीके से व्यवस्था के नाम पर भ्रष्ट किया गया. संसद से ले कर सचिवालय तक ऐसी व्यवस्था है जिसे सरकारी तंत्र कहा जाता है. और यह तंत्र जनता के लिए बनाया गया है लेकिन इसी सरकारी तंत्र में पहुंच कर पढ़ालिखा व्यक्ति भी अकर्मण्य हो जाता है.

केजरीवाल ने इस काजल की कोठरी में कदम रखा तो उन्होंने गंदगी को ढकने से इनकार कर दिया, जैसा कि दूसरे दल और उन के नेता करते रहे हैं. इस गंदगी की सफाई करने का इरादा जता कर जनता को बताने बाहर आ गए कि देखो, ये लोग सफाई होने नहीं देंगे.

केजरीवाल ने जिस सत्तातंत्र पर हमला किया है वह इस देश के साधारण लोगों का कोई समूह नहीं है जो इस नेता को स्वीकार कर ले. वह एक बहुत सुव्यवस्थित और संगठित भ्रष्टतंत्र है. वह ऐसी व्यवस्था है जो हर ईमानदार को बहुत प्यार से भ्रष्टाचार का संस्कार सिखाने में सक्षम है. सत्तातंत्र केजरीवाल को भी समझाने की कोशिश कर रहा है कि वे सुविधा न ले कर व्यवस्था को कमजोर कर रहे हैं. लेकिन केजरीवाल मजबूती से, सादगी से यथार्थ की जमीन पर खड़े हो कर इस व्यवस्था को ही ललकार रहे हैं.

संविधान के नाम पर जनलोकपाल बिल पारित न किए जाने के इस टकराव को देखा जाए तो इस में जीत अरविंद केजरीवाल की ही हुई है. पोल खुली है तो राजनीतिक दलों की उस निकम्मी, बेईमान सोच की खुली है जो जनता और देश के नाम पर हांहां तो करती रहती है पर काम नहीं करती. नियमकायदों के नाम पर अड़ंगे डालती रहती है. कांग्रेस और भाजपा दोनों कहती हैं कि वे तो जनलोकपाल बिल पारित कराने को तैयार थीं पर यह संवैधानिक तरीके से रखा जाना चाहिए था. अगर यह संवैधानिक नहीं था तो क्या कांग्रेस और भाजपा ने मिल कर केंद्र या उपराज्यपाल को लिखा कि वह आदेश रद्द किया जाए ताकि हम  मिल कर भ्रष्टाचार को खत्म करने वाला जनलोकपाल बिल पास कराने में सहयोग करें.

कांग्रेस व भाजपा एकजुट

असल में राजनीतिक दल चाहते ही नहीं कि जमीजमाई भ्रष्ट व्यवस्था पर कोई आंच आए. यही कारण है कि इस मामले में चोरचोर मौसेरे भाई की तर्ज पर कांग्रेस और भाजपा दोनों मिल कर एकजुट दिखाई दीं. व्यवस्था का फायदा उठा रहे लोग केजरीवाल के काम को किसी भी तरह से खारिज कर दें पर जिस व्यवस्था को आजादी के 65 साल बाद भी देश स्वीकार नहीं कर पाया है, केजरीवाल की उसी व्यवस्था को बदलने की जिद है. और देश भी यही चाहता है. लोकतंत्र में जनता की इच्छा बड़ी होती है या केंद्र सरकार के तानाशाही आदेश. दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल बिल पेश न करने देना लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं, तानाशाही नजर आई.

ऐसे तानाशाहीपूर्ण आदेशों, नियमकायदों को क्या हटाया नहीं जाना चाहिए. ये कानून लोकतंत्र के बजाय तानाशाही को प्रश्रय देते प्रतीत होते हैं.  

स्कूल, शिक्षक और छात्र

सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए बच्चों को न भेजे जाने पर काफी चर्चा होती है. कहा जाता है कि लोग सरकारी स्कूलों में बच्चों को नहीं भेजते क्योंकि वहां शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं और बच्चों का भविष्य नहीं बनता. यह तर्क असल में लचर है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक दरअसल निजी अंगरेजी माध्यम स्कूलों के अध्यापकों से ज्यादा योग्य होते हैं और ज्यादा वेतन भी पाते हैं. पक्की नौकरी के लालच में उन्हें कठिन परीक्षाएं देनी होती हैं, इंटरव्यू से गुजरना होता है. ऐसे में उन की शैक्षिक स्थिति अच्छी ही होती है.

यही नहीं, 12वीं कक्षा के बाद जिन शिक्षा संस्थानों के आगे लंबी लाइनें लगती हैं वे आमतौर पर सरकारी या लगभग पूरी तरह सरकारी सहायता से चलने वाले होते हैं. दिल्ली के सैंट स्टीफन या श्रीराम कालेज हों, मौलाना आजाद मैडिकल कालेज या इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी, लाइनें इन्हीं के बाहर लगती हैं और सिफारिशें भी यहीं के लिए लगवाई जाती हैं. और जब यहां के सरकारी शिक्षक अच्छी शिक्षा दे सकते हैं तो सरकारी स्कूलों के क्यों नहीं?

इस का कारण अच्छीखराब शिक्षा नहीं. असल में आजादी के बाद जब सरकारी स्कूलों में सभी वर्गों के बच्चे आने लगे तो उन में पिछड़ी व अछूत जातियों के बच्चे भी पहुंचने लगे. यद्यपि तब आरक्षण का बोलबाला न था पर स्कूलों के लिए इन बच्चों को मना करना मुश्किल था. इसलिए मातापिताओं ने अलग स्कूलों की राह अपनाई और अंगरेजों द्वारा छोड़े गए मिशनरी स्कूलों को गले लगाया.

ईसाई मिशनरियों के लिए यह धंधा फायदे का था तो उन्होंने धड़ाधड़ स्कूल खोले. उन्हीं की तर्ज पर अंगरेजी माध्यम के निजी स्कूल भी खुलने लगे और धीरेधीरे अंगरेजी माध्यम के स्कूलों का बोलबाला हो गया. अंगरेजी तो तब एक बहाना थी पर बाद में यह विशिष्टता की निशानी भी बनने लगी.

वर्ष 1950 के बाद के 10-20 सालों तक हिंदीभाषी व अंगरेजी भाषा के माध्यम के स्कूलों से पढ़ कर निकलने वालों की योग्यताओं में अंतर न था.

कालेजों में आमतौर पर संपन्न घरों के बच्चे ही पहुंचते थे क्योंकि पिछड़े व अछूत घरों के बच्चे 2-4 साल स्कूल में बिता कर कोई न कोई काम करने लग जाते. कालेजों में आज भी जो पिछड़े व दलित पहुंच रहे हैं वे ज्यादातर आरक्षण के कारण ही पहुंच रहे हैं पर जब वे कालेज की शिक्षा पूरी कर के निकलते हैं तो अंगरेजी माध्यम के बच्चों जैसे होते हैं. वे शिक्षा के स्तर पर उन के मुकाबले में कहीं से भी पीछे नहीं होते.

समस्या दरअसल, जाति की है माध्यम की नहीं, न ही सरकारी व निजी की. सरकारी स्कूलों पर नकेल कसी जा सके तो हर हाल में बेहतर नागरिक पैदा किए जा सकते हैं, अनुशासनहीनता और शिक्षा में घपलेबाजी के बावजूद.      

कलम पर प्रहार

वैंडी डौनिगर की किताब ‘द हिंदूज’ को नष्ट करने के पैंगुइन पब्लिशिंग कंपनी के फैसले से हैरान होने की जरूरत नहीं है. विदेशी प्रकाशकों से यह आस करना ही गलत है कि वे कट्टर धर्मांध लोगों से लड़ेंगे. सरिता ने ऐसे बीसियों मुकदमे झेले हैं और आज भी झेले जा रहे हैं. यह तो प्रकाशक की निष्ठा पर निर्भर है कि वह विचारों की स्वतंत्रता में कितना विश्वास रखता है.

हर धर्म चाहता है कि उस की खामियां न निकाली जाएं. इस पुस्तक ‘द हिंदूज’ का दिल्ली की एक अदालत में विरोध करने वाली तथाकथित संस्था का संचालक एक टैलीविजन बहस में हिंदू धर्म के बारे में अज्ञान पर अज्ञान परोस रहा था और कई अंगरेजीदां महानुभाव चुपचाप सहन कर रहे थे.

उस ने कहा कि पुस्तक में कहा गया है कि शिवलिंग एक पुरुष का उन्नत लिंग है, जोकि झूठ है. किसी ने उस के कथन का विरोध नहीं किया जबकि यह सत्य नहीं है. जिसे संदेह है वह शिव पुराण पढ़ ले. महाभारत पढ़ ले. अगर संस्कृत नहीं आती तो पटरियों पर बिकने वाली सभी शिवभक्ति महिमा की किताबें पढ़ ले जिन में इस तरह की बातें मानी गई हैं.

इस तरह की बातें हर धर्म की पुस्तकों में भरी हैं क्योंकि ये पुस्तकें तब लिखी गई थीं जब नैतिकता के मापदंडों में स्त्रीपुरुष संबंध नहीं आते थे. आज उन्हीं पुस्तकों पर धर्म को चलाना गलत है और अगर वैंडी डौनिगर इस बात को अंगरेजी में सामने लाती हैं तो उन की आलोचना नहीं की जा सकती.

कठिनाई यह है कि धर्म के ठेकेदार असल में धर्म के दुकानदार हैं, उन्हें ग्राहकों के बीच अपनी छवि येनकेन प्रकारेण चमकानी होती है. धर्मग्रंथों में आधुनिक नैतिकता के मुकाबले अनैतिकता के प्रसंग एक के बाद एक भरे पड़े हैं. धर्म के दुकानदार जिन में राजनीतिक दलों और आश्रमों व संस्थाओं के मालिक शामिल हैं, इन्हीं पुस्तकों को दिखा कर अपना हर स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं.

धर्म की नैतिकता के जो ढोंग भगवाधारी पीटते हैं वे तो हर पीली किताब में भी मिल जाएंगे, उस के लिए धर्मग्रंथों को खंगालना जरूरी नहीं. वैंडी डौनिगर जैसे लेखक हतप्रभ रह जाते हैं जब उन्हें ग्रंथों के सत्य रूप को उजागर करने का दोषी ठहराया जाता है क्योंकि वास्तव में हिंदू धर्म का सत्य बड़ा वीभत्स व घृणित है.

वैंडी डौनिगर की प्रकाशक विदेशी कंपनी है, इसलिए उस ने जल्दी ही धोती खोल दी. वरना भारतीय अदालतें 10-15 साल जूते घिसटवाने के बाद सत्य को जान कर इस तरह के फालतू के मुकदमे खारिज कर ही देती हैं. पर 10-15 साल की कवायद तो है ही, जो विदेशी प्रकाशकों को मंजूर नहीं, जो केवल पैसा कमाने को भारत आते हैं.

 

खतरनाक भेदभाव

उत्तरपूर्व  के राज्यों में शिक्षा तो पहुंच गई पर रोजगार नहीं पहुंचे, इसलिए उच्चशिक्षा व नौकरियों के लिए उत्तरपूर्वी पहाड़ी इलाकों के युवा भारी संख्या में देश के दूसरे शहरों में आ रहे हैं. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहर, जो बाहर वाले लोगों को कुछ प्यार से तो कुछ मजबूरन अपना लेते हैं, उत्तरपूर्वी युवाओं से खफा रहते हैं. गोरे रंग के परे उन्मुक्त व खुले विचारों वाले इन कर्मठ युवाओं को अकसर बड़े पैमाने पर खुलेआम गुस्से और हिंसा का सामना करना पड़ता है.

दिल्ली में सभ्य से लाजपत नगर इलाके में नीडो तानिया नाम के युवा की बेरहमी से पिटाई, जिस से उस की मृत्यु हो गई, यह जताती है कि जो रंग, जाति, क्षेत्र का भेदभाव हम लोगों में कूटकूट कर भरा हुआ है वह तो अमेरिका में भी शायद कालों के प्रति न होगा.

हम अपना गुणगान कर लें कि यह देश सब संस्कृतियों का समावेश कर लेता है पर सच यह है कि यहां अपने से थोड़ा अलग अपने ही लोगों को मजाक का, वह भी फूहड़ मजाक का, निशाना बनाया जाता है.

जो भेदभाव इंगलैंड व अमेरिका में भारतीयों ने डौट बस्टरों के रूप में सहा होगा उस से कई गुना उत्तरपूर्व के ये पहाड़ी लोग लगातार सह रहे हैं और देश की कोई संस्था, कोई राजनीतिक दल, कोई समाजसेवी संगठन इन के लिए कुछ करने को तैयार नहीं है.

उत्तरपूर्व के इलाके वैसे गरीब हैं पर वहां के युवा थोड़े सलीके वाले हैं व साफसुथरे रहते हैं और यही उन को दूसरे लोगों से अलग करता है. बिहारी, उडि़या जहां हर तरह का अपमान पी जाते हैं वहीं पतली आंखों वाले पर मजबूत काठी के ये युवा मुकाबला करने को तैयार रहते हैं और इन की झड़पें अब कुछ ज्यादा होने लगी हैं. इन्हें अकसर चीनी समझ कर चिंकी कह दिया जाता है और कहने वाले यह नहीं समझ पाते कि वे किस तरह की चिंगारी लगा रहे हैं.

उत्तरपूर्व के पर्वतीय इलाकों पर चीन की निगाहें गड़ी हैं क्योंकि इन में से कई इलाकों पर तिब्बत का राज रहा है. अंगरेजों ने इन्हें जीत कर भारत में मिला दिया था. इन से दुश्मनी कर हमारे बेवकूफ नागरिक एक वर्ग को इस तरह नाराज कर रहे हैं कि कल को ये अलग प्रदेश होने की या चीन में मिलने की मांग करने लगें तो संभालना मुश्किल हो जाएगा.

अफसोस यह है कि उद्दंड, गुंडई में उस्ताद, गालियों से भरे मुंह वालों को रोकने वाले या समझाने वाले अच्छे नेता अब गायब हो गए हैं. हमारा समाज आज भटकने लगा है क्योंकि जो नेता बनता है वह जनता के बीच रहना नहीं, जनता पर शासन करना चाहता है. वह इन जलते मुद्दों को बुझाने में झुलसना नहीं चाहता, रिश्वत से हाथ गरम करना चाहता है. नीडो तानिया की हत्या देश को बहुत महंगी पड़ सकती है.

 

‘आप’ के खिलाफ बड़े दल

आखिरी दिनों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की छानबीन कुछ ज्यादा ही की जा रही थी. इस में आश्चर्य की बात नहीं है. भारतीय जनता पार्टी और कांगे्रस, जिन की कई राज्यों में सरकारें हैं, मीडिया पर काफी अंकुश लगाए रख सकती हैं. टैलीविजन चैनलों की डोर तो केंद्र के सूचना व प्रसारण मंत्रालय के हाथ में है ही, ज्यादातर दैनिक समाचारपत्र सरकारी विज्ञापनों के बल पर चल रहे हैं. वे जानते हैं कि अरविंद केजरीवाल जैसे को एक हद तक ही सहन किया जा सकता है.

आम आदमी पार्टी के नेता व कार्यकर्ता किसी दूसरे ग्रहों से नहीं आए हैं. वे इसी देश की उपज हैं और जानते हैं कि सत्ता का उपयोग तभी है जब दुरुपयोग किया जा सके. अगर सत्ता मिलने पर वे उस का दुरुपयोग करने लगें तो बड़ी बात नहीं है. समाजसेवी संस्थाओं का हाल हम देख ही सकते हैं.

तप, त्याग, संयम, निष्काम कर्म, ईश्वरीय सत्ता में विश्वास आदि के प्रवचन देने वाले भगवाधारी संतों की संपत्तियों का विवरण आएदिन दिखता है. आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं में से कुछ अगर महान नेताओं और महान संतों की डगर पर चलने लगते तो आश्चर्य न होता पर इस का अर्थ यह नहीं था कि सब काजल की कोठरी में रंग गए थे.

काफी दिनों से आम आदमी पार्टी के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा था ताकि जनता मुख्य पार्टियों तक ही अपने को सीमित रखे जो निरंतर अपने चहेतों को खुली छूट देती हैं कि कमाओ और वोट जमा करो.

कांगे्रस सीधे पैसा लेना चाहती है तो भारतीय जनता पार्टी धर्म की दुकानों को प्रोत्साहित कर के उन्हें अमीर बना कर उन से अपने भंडार भरना चाहती है. दोनों के लिए शक्ति का महत्त्व है क्योंकि इसी से पैसा बनेगा.

आम आदमी पार्टी वर्षों से पक रही खीर में मक्खी का काम कर रही थी और इसे निकाल फेंकना खीर खाने वालों की बरात के लिए अब पहला काम था. उस के लिए यह प्रयोग जितनी जल्दी खत्म हो उतना अच्छा. जयप्रकाश नारायण की और अन्ना हजारे की क्रांतियों के सिस्टम को मौत के घाट उतारा ही जा चुका है. ऐसे में ‘आप’ किस खेत की मक्खी है, सवाल उठना ही था और उसे खत्म करना ही था.

आम आदमी पार्टी की अगली डगर काफी कठिन है. उसे अब लोकसभा चुनावों में रिश्वतखोरी की तो बात करनी ही होगी, अपने कार्यकाल की सफाई भी देनी होगी. अगर वह सत्ता में न जाती और भारतीय जनता पार्टी को बाहर से समर्थन दे कर उस की नाक में दम रखती तो शायद ज्यादा सफल होती.

बहरहाल, जनता अब भी रिश्वतखोरी, लूट और कट्टरता व अलगाववाद का विरोध करने को तैयार हो सकती है. भाजपा और कांग्रेस के पास तो करोड़ों समर्थक हैं जबकि ‘आप’ से नए समर्थकों को जोड़ने के लिए अरविंद केजरीवाल के पास समय कम है. यह गनीमत है कि अब उन्हें प्रशासनिक मुद्दों में उलझना न पड़ेगा.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, जनवरी (द्वितीय) 2014

‘केजरीवाल और नौकरशाही’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पढ़ कर मन खुश हुआ. आम आदमी पार्टी को ले कर सभी राजनीतिक दल अप्रत्याशित रूप से हैरान हैं. वे सोच रहे हैं कि एक अदना सा आदमी आम जनता के समर्थन से सरकार की सत्ता तक पहुंच सकता है तो उन के दिन तो लगभग लदने वाले हैं.

आप ने बिलकुल सटीक बात कही कि केजरीवाल को अपने राजनीतिक विरोधियों से तो इतना खतरा भले ही न हो लेकिन सब से ज्यादा खतरा नौकरशाही से है. यह नौकरशाही कभी नहीं चाहेगी कि आम जनता जागरूक हो क्योंकि इस से उन की रिश्वतखोरी बंद हो जाएगी.

छैल बिहारी शर्मा ‘इंद्र’, छाता (उ.प्र.)

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‘केजरीवाल और नौकरशाही’ के तहत आप के विचार पढ़े, शतप्रतिशत सत्य हैं. कारण स्पष्ट भी है, जिस तरह आदमखोर बन जाने पर किसी जानवर को किसी भी प्रहार से डर नहीं लगता है उसी तरह देश की जड़ों में मट्ठा डालता भ्रष्टाचार दोचार दिनों में तो फलाफूला है नहीं, जोकि आननफानन ही खत्म हो जाएगा. इस के लिए न तो किसी जनप्रतिनिधि के पास जादू की छड़ी है (जैसा कि स्वयं अरविंद केजरीवाल भी कहते हैं) और न ही आम आदमी के पास इतना दमखम है कि वह रातदिन अपने सभी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों को त्याग कर इन भ्रष्टाचारियों के पीछे लट्ठ ले कर पड़ा रहे, ताकि दीमक समान रातदिन देश के प्रशासनिक ढांचे को चाट रहा यह रोग खत्म किया जाए. बेशक, हम यह कह सकते हैं कि ‘असंभव कुछ भी नहीं, मगर एक अति कड़वा सच यह भी है कि इस के लिए एक लंबी अवधि जरूर चाहिए जोकि किसी अवसरवादी समर्थन (कांगे्रस के सहयोग) से तो मिल नहीं सकती.’

टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (दिल्ली)

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संपादकीय टिप्पणी ‘नौकरानी पर लड़ते दो देश’ पढ़ी. सचमुच, एक विचित्र बात सामने आई. देवयानी को उस की नौकरानी संगीता रिचर्ड की शिकायत पर अमेरिकी पुलिस ने गिरफ्तार किया था. संगीता रिचर्ड देवयानी से अमेरिकी कानूनों के अनुसार वेतन और सुविधाएं मांग रही थी और कुछ ज्यादा ही उग्र हो रही थी, तभी देवयानी ने पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय से उस के खिलाफ एक आदेश ले लिया था. अमेरिकी पुलिस का यह रवैया है कि वह दूसरे देशों, खासतौर पर एशियाई और गरीब देशों, के नागरिकों के साथ अकसर दुर्व्यवहार करती रहती है. अमेरिकी पुलिस किसी भी शिकायत पर गंभीर कार्यवाही उसी तरह करती है जिस तरह भारतीय पुलिस करती है पर हमारी पुलिस कुछ लिहाज भी जरूर करती है.

यह मामला गंभीर इसलिए भी है कि अगर घरेलू नौकर ले जाने पर पाबंदी लग गई तो कोई भारतीय राजनयिक विदेशी नौकरी पर जाएगा ही नहीं. भारत सरकार व अमेरिकी सरकार को असलियत जान कर आपस में मिलबैठ कर इस मुद्दे का पटाक्षेप कर के आपसी संबंध बनाने पर जोर देना चाहिए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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आमजन की भावना

जनवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘जनक्रांति से निकली ‘आप’ की सरकार’ बहुत पसंद आया. यह ‘आप’ ही की नहीं, हमारी भी आवाज है. कहा जाता है ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’. यानी ज्यादा दबाव से ज्वालामुखी फूट जाता है, धरती में दरारें पड़ जाती हैं. फिर यहां तो हाड़मांस का बना इंसान है, जिस की अपनी कुछ भावनाएं, अपेक्षाएं हो सकती हैं, जो न पूरी होने पर उपरोक्त रूप ले सकती हैं.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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लेख ‘जनक्रांति से निकली आप की सरकार’ पढ़ा. यह बात सही है कि वर्तमान समय में भारतीय जनमानस में राजनीतिक दलों को ले कर घोर निराशा व्याप्त है, लेकिन केजरीवाल की टीम ने नई आशा का संचार कर दिया है. ऐसा ही आशावाद जेपी आंदोलन और 90 के दशक में वीपी सिंह के उदय के समय देश में देखा गया था. तब लगा था कि अब सकारात्मक परिवर्तन होंगे, लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ पहले जैसा ही हो गया था, कहना चाहिए कि और बदतर हो गया था.

अत: ‘आप’ पार्टी को बड़ी सतर्कता और धैर्य के साथ अपने कदम बढ़ाने चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार नामक दीमक ने देश के हर तंत्र को खोखला कर दिया है. आप पार्टी को जिस तरह का जनसमर्थन मिला है वह इसलिए है कि लोगों को लग रहा है कि दशकों बाद ऐसा दल आया है जो ईमानदार, निडर तथा भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई दे रहा है.

यह सचाई है कि भ्रष्टाचार को आज हमारे समाज में आम स्वीकृति मिल चुकी है तथा यह मान लिया गया है कि चाहे कोई भी काम हो बगैर लिएदिए पूरा नहीं हो सकता है. यहां तक कि यह स्थिति हो गई है कि लेने वालों से ज्यादा बड़ी भूमिका देने वालों की दिखाई देने लगी है. लोग आदतन जहां जरूरत नहीं है वहां भी रुपए देने की पहल करते दिखाई देते हैं.

भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों के लेनदेन तक ही सीमित नहीं रह गया, आम व्यवहार या स्वभाव में भी आ गया है. परिणामस्वरूप इस का प्रभाव सरकारी के साथसाथ प्राइवेट संस्थानों में भी दिखाई देने लगा है, जिस के कारण कामचोरी, मक्कारी, चापलूसी, जमाखोरी, मिलावटखोरी जैसी कुप्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है और देश का बहुत नुकसान हुआ है.

अंतत: आवश्यकता है कि भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार किया जाए जोकि ऊपर से नीचे की ओर फैली हुई हैं. व्यवस्था में इस तरह परिवर्तन किए जाएं कि चाह कर भी कोई भ्रष्टाचार न कर पाए. इस के लिए उन यूरोपीय देशों की कार्यप्रणालियों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए जहां भ्रष्टाचार न के बराबर है, और इस तरह के कदम उठाए जाने चाहिए जो हमारे देश के परिवेश के अनुकूल हों व व्यावहारिक हों, हालांकि कार्य कठिन है, लेकिन केजरीवाल टीम अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को कुछ वर्षों तक सीमित रख कर भ्रष्टाचार मुक्त राज्य दिल्ली को बना कर देश के सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर सकती है. बस जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति की, जो टीम केजरीवाल में दिखाई दे रही है.

सुधीर शर्मा, इंदौर (म.प्र.)

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सुविधा और जरूरत

‘जनक्रांति से निकली ‘आप’ की सरकार’ लेख में पूर्व सरकार और नई सरकार के बारे में काफीकुछ लिखा गया है. मगर आम आदमी की राय के नाम पर आप सरकार के मुखिया कुछ गलत निर्णय पर डांवांडोल भी हो जाते हैं जिस का एक उदाहरण कुछ लोगों के कहने पर उन्हें ‘भगवान दास रोड’ पर दिए जाने वाले निवास को ठुकरा देना भी है.

इस संदर्भ में एक किस्सा याद आ रहा है. एक युवक जूता खरीदने बाजार गया तो साथ में मित्र भी चल पड़ा. वह जूता पसंद करता, मित्र टोक देता, ‘अच्छा नहीं है.’ अंत में मित्र ने उसे अपनी पसंद का जूता खरीदवाया. घर आ कर युवक सोचने लगा, ‘जूता मुझे अपनी सुविधानुसार खरीदना चाहिए था जबकि मैं मित्र की पसंद अपने ऊपर लाद रहा हूं.’ ठीक इसी प्रकार निवास के संबंध में अरविंद केजरीवाल को अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यह निवास ले लेना चाहिए था, न कि किन्हीं लोगों के कहने पर उसे ठुकरा देते.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (दिल्ली)

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बच्चों की परवरिश

जनवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘जब बच्चे सुनाएं खरीखरी’ पढ़ा. आजकल बच्चों के पालनपोषण में भी पश्चिम की नकल की जा रही है. बच्चों को मातापिता का प्यार, ध्यान और वक्त की जरूरत होती है जबकि आज के व्यस्त मातापिता यही नहीं दे पाते. ऐसे बच्चे बड़े हो कर अपराधी, विकृत मानसिकता वाले बन जाते हैं. हमारा उच्चमध्य वर्ग पश्चिम की बुराइयां अपना रहा है. बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं परंतु मांबाप के बीच के झगड़ों का उन पर बुरा प्रभाव पड़ता है. जब बच्चों को घर में प्यार नहीं मिलता तो वे बाहर प्यार ढूंढ़ते हैं. गलत लोगों की दोस्ती से अपराधी बन जाते हैं. इस से बचने के लिए हमें बच्चों को भारतीय रीतिरिवाजों के अनुसार पालना चाहिए.

आई पी गांधी, करनाल (हरियाणा)

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इंसान से अधिक जानवर भरोसेमंद

जनवरी (द्वितीय) अंक में छपा लेख ‘कुत्ता एक सच्चा पहरेदार’ पढ़ कर अच्छा लगा. कहते हैं, कुत्ता पालने से इंसान तनाव से दूर रहते हैं, ज्यादा स्वस्थ जीवन जीते हैं. बहुत से लोग कुत्ते को पालतू बनाना चाहते हैं परंतु उन्हें उन की जाति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती. क्या ही अच्छा हो, अगर पालतू जानवरों पर विशेष जानकारी देने हेतु ‘सरिता’ में एक नियमित कौलम शुरू किया जाए.

पत्रिका में प्रकाशित ‘बीस साल पहले’ की कहानी पढ़ कर बहुत मजा आता है. उसे फिर से दोबारा पढ़ कर लगता है कोई मनपसंद रसीली मिठाई खाने को मिल गई हो. इस से बीस साल पहले की सामाजिक स्थिति, रुपए की तब की कीमत, परंपराओं का ज्ञान होता है. क्यों नहीं कहानी के नए चित्रों के बजाय वही पुराने चित्र भी हों.

मंजू अग्रवाल, जोधपुर (राजस्थान)

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जनवरी (द्वितीय) अंक शानदार रहा. सभी कहानियां बढि़या लगीं पर वैसी हलचल न मचा पाईं जैसी अमूमन सरिता के दूसरे अंकों में होती है. घरेलू हिंसा पर बेबाक बात करना बहुत जरूरी हो गया है. नारी आजादी, नारी मुक्ति, नारी विमर्श आदि शोर से काम नहीं चलने वाला. एक बड़े दरवाजे में था छोटा सा दरवाजा और असल हकीकत और थी लेकिन सब का था अंदाज और. आज हालात ऐसी बातें बयान करते हैं कि लगता है हिंसा सहन करना, घुटघुट कर जीना क्या यही स्त्रीत्व के माने हैं? नारी का समाजशास्त्र कौन समझेगा? आंकड़े कहते हैं कि तकरीबन 5 हजार महिलाएं प्रतिदिन भारत में घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं. और जो चीखें दबी रह जाती हैं उन का क्या?

पूनम पांडे, अजमेर (राज.)

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आशा की नई किरण

जनक्रांति से निकली ‘आप’ की सरकार यानी आम आदमी पार्टी की हुकूमत ने देश की राजनीति को झकझोर दिया. लगभग पूरी तरह से राजनीतिक आबोहवा को दूषित कर देने वाले अधिकांश सियासी दलों के बीच आम आदमी पार्टी का उद्भव देश की खुशहाली के लिए आशा की नई रोशनी पैदा करता है. अरविंद केजरीवाल और उन की टीम के सदस्यों ने विकास के जिस मौडल की रूपरेखा जनता के समक्ष प्रस्तुत की है उस पर लोगों ने अपनी मुहर भी लगानी शुरू कर दी है. अब तक राजनेताओं द्वारा वंशवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, मंदिरमसजिद और हिंदूमुसलिम मतभेदों से भरी थाली जनता को परोसी जाती थी जिसे ग्रहण करना उस की मजबूरी थी.

हकीकत में इस देश की आम जनता चाहे दलित हो या सवर्ण, हिंदू हो या मुसलिम, युवा हो या बुजुर्ग, स्त्री हो अथवा पुरुष सब राजनीतिक नेताओं के बिछाए पाखंडी जाल में उलझ कर छटपटा रहे हैं. ऐसी अवस्था में आम आदमी पार्टी का क्षितिज पर आना लोगों के लिए तिनके जैसा सहारा बनता जा रहा है.

सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)

 

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