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हुस्न और कार का क्रेज

आटोमोबाइल की दुनिया में नई तकनीक और हाइटैक फीचरों से लैस कार और मोटरसाइकिल का जलवा अगर कहीं दिखता है तो वह है आटो एक्सपो. रंगीन गाडि़यों और खूबसूरत मौडलों से सजा यह मेला हर खासोआम के लिए आकर्षण के ढेरों इंतजाम मुहैया कराता है.

इस बार के आटो एक्सपो 2014 में 24 देशों से 1,500 कंपनियों ने 50 से अधिक वैश्विक ब्रैंड पेश किए. इस के अलावा 58 नई कार के साथसाथ 9 कौन्सैप्ट और 12 पर्यावरण अनुकूल गाडि़यों ने इस आटो एक्सपो को खास बना दिया.

साल दर साल सुपर कार और बाइक के मामले में हाइटैक होता आटो एक्सपो इस बार कुछ जुदा अंदाज में नजर आया. यानी पिछली बार की तरह इस का वेन्यू प्रगति मैदान नहीं बल्कि ग्रेटर नोएडा में रहा. इस से इस एक्सपो को बड़ा प्लेटफौर्म मिला. 5 से 11 फरवरी के दौरान चले इस एक्सपो में करीब साढ़े 5 लाख लोगों ने शिरकत की. इतना ही नहीं, मेले के दौरान अक्षय कुमार, सचिन तेंदुलकर और प्रियंका चोपड़ा जैसे कलाकारों की मौजूदगी ने इस की रौनक में चारचांद लगा दिए. इस आटो एक्सपो की खासीयत यह भी रही कि विश्वप्रसिद्ध ब्रैंड हार्ले डेविडसन ने पहली बार भारत में बनी बाइक भी शोकेस की. ?इस ने रफ्तार के शौकीन युवाओं का दिल जीत लिया.  

समलैंगिकता – अपराधों को निमंत्रण

रवि (बदला हुआ नाम) पुलिस गिरफ्त में अपने किए पर माफी मांग कर खुद को छोड़ने की गुहार लगा रहा था. गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में रहने वाला रवि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. उस के परिवार में पत्नी व 1 बेटा है. उस की जिंदगी में वह सबकुछ था जिन के हर कोई सपने देखता है, लेकिन रवि के मन में कुछ और ही हसरतें थीं.

अप्राकृतिक संबंध बनाने के लिए उस ने एक साथी की खोज शुरू कर दी. वैबसाइट के जरिए उस का संपर्क डेविड से हुआ. बातचीत के बाद दोनों ने अंतरंग संबंध बना लिए. पैसे वाले एक इंजीनियर के संबंधों से डेविड के मन में लालच ने जन्म ले लिया. उस ने संबंध बनाते समय रवि की कुछ नग्न तसवीरें उतार लीं. रवि के तब होश उड़ गए जब डेविड ने उस की तसवीरें उजागर करने के बदले रुपयों की मांग की.

रवि ने बदनामी से बचने के लिए अपनी पत्नी के 10 लाख रुपए के आभूषण डेविड के हवाले कर दिए.

रवि ने पुलिस को बताया कि 2 बदमाशों ने हथियारों की नोंक पर उस से आभूषण लूट लिए. उस का मकसद पत्नी की नजरों में पाकसाफ बने रहना था. पुलिस ने जांच की और कौल डिटेल के जरिए डेविड तक पहुंची, तो सारा राज खुल गया. लिहाजा, पुलिस ने रवि को गिरफ्तार कर लिया.

समलैंगिक रिश्तों में गंवाई जान

हंसमुख स्वभाव के एमबीबीएस, एमडी डा. अक्षय राजवंशी का उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में अपना अस्पताल था. उन की पत्नी प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञा थीं. अकसर रात 8 बजे तक घर पहुंचने वाले डा. अक्षय उस दिन देर रात तक घर नहीं पहुंचे. स्टाफ के अनुसार, वे लेबररूम में आराम करने गए थे. किसी काम से जब नर्स अंजुम लेबररूम में पहुंची, तो अक्षय की लाश नग्नावस्था में पड़ी हुई थी. इस हालत में डा. अक्षय को देख कर वह चौंक गई. इस बात की जानकारी तुरंत पुलिस को दी.

कुछ देर बाद मौके पर पुलिस पहुंच गई. डा. अक्षय के बराबर में पड़े अंडरवियर व पेंट पर वीर्य के धब्बे थे. रूम में अंगरेजी शराब की बोतल व सिगरेट के पैकेट पड़े थे. शुरुआती जांच में पता चला कि हीटर के तार से डा. अक्षय का गला घोंट कर हत्या की गई है.

शराब व सैक्स से शुरू हुई जांच में पुलिस ने लड़कियों जैसे हावभाव वाले युवक नूर मोहम्मद उर्फ चांदनी व साबिर को गिरफ्तार कर लिया. चांदनी लंबे अरसे से समलैंगिक रिश्तों का आदी था. समलैंगिकों की महफिल में उसे चांदनी के नाम से जाना जाता था. वह डांस पार्टियों में गानेबजाने का काम करता था. अक्षय राजवंशी भी समलैंगिक थे. चांदनी के शरीर में एलर्जी हो गई. उस ने अपने एक समलैंगिक साथी से सलाह ली, तो उस ने उस की मुलाकात डा. अक्षय से करा दी.

अगले दिन डा. अक्षय ने उसे आने के लिए कहा. वह आया तो डा. अक्षय उसे अपने प्राइवेट रूम में ले गए और शराब पी कर कामोत्तेजक दवाइयां खा कर उस के साथ शारीरिक संबंध बनाए. चलते समय खुश हो कर अक्षय ने उसे कुछ रुपए भी दिए. अगले दिन भी उसे अक्षय ने बुलाया और संबंध बनाए. एक दिन अक्षय ने चांदनी को फोन कर के बुलाया, लेकिन चांदनी ने तबीयत खराब का बहाना बनाया, तो उस से अपने जैसे किसी और को भेजने के लिए कहा. चांदनी ने अपने गे साथी साबिर को जाने के लिए तैयार कर लिया.

डा. अक्षय उसे अपने लेबररूम में ले गए. दोनों ने साथ शराब पी. डा. अक्षय ने उस के साथ शारीरिक संबंध बनाए. साबिर जाने की जिद करने लगा, लेकिन अक्षय उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए. इस बीच साबिर के मन में लालच भी आ गया. अक्षय की जिद से जब वह बौखला गया, तो उस ने हीटर का तार निकाल कर अक्षय के गले में फंदा बना कर कस दिया. नशे के चलते अक्षय ज्यादा विरोध नहीं कर सके और उन की मौत हो गई. उस के बाद साबिर अक्षय के गले से सोने की चेन, 4 अंगूठियां, मोबाइल फोन और पर्स निकाल कर वहां से निकल लिया. डा. अक्षय के ऐसे रिश्ते न होते तो उन्हें जान न गंवानी पड़ती.

सहेली के सीने में दागी गोली

समलैंगिक रिश्तों से स्त्रीपुरुष दोनों ही अछूते नहीं हैं. गोंडा जिले के महल्ला इस्माइलगंज निवासी 36 वर्षीया खूबसूरत दीपा सिंह (शादीशुदा) अपने घर में थी. तभी उस की सहेली सुमन, जोकि ग्राम कटरा शबाजपुर की प्रधान थी, कार में सवार हो कर चालक शिवम मिश्रा को ले कर वहां आई और दीपा के सीने में गोली दाग कर उस की हत्या कर दी. पुलिस ने सुमन को गिरफ्तार कर लिया. हत्या की जो वजह उस ने कुबूली उस से पुलिस और समाज दोनों ही दंग रह गए. सुमन व दीपा के समलैंगिक रिश्ते थे. बेवफाई से बौखला कर उस ने अपराध को जन्म दिया.

निकाह बना जान का दुश्मन

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 2 युवकों के बीच गहरी दोस्ती थी. दोस्ती समलैंगिक रिश्तों में बदल गई. बात तब खुली जब जमील (बदला हुआ नाम) एसएसपी के सामने अपनी व अपने परिवार की जान की सुरक्षा की फरियाद ले कर पेश हुआ. वह बेगम की भूमिका में था जबकि दूसरा साथी शौहर. दोनों ने गुपचुप ढंग से निकाह भी कर लिया था. बीवी बना जमील इन रिश्तों से ऊबने लगा और दूरियां बनाने लगा. उस के साथी ने विरोध के साथ उसे धमकाना शुरू किया तो वह पुलिस की शरण में आ गया. पुलिस ने दखल दे कर युवक को परेशान न करने की हिदायत दे कर मामले को किसी तरह निबटाया.

अदालत ने भी माना अपराध

कानूनी मान्यता समलैंगिकों को भले ही मिल गई हो लेकिन उस से उपजता इस तरह का अपराध समाज के लिए भी घातक ही कहा जाएगा. समलैंगिकता का कानूनी अधिकार पाने के लिए लड़ाई चल रही है. मौलिक अधिकारों का दावा कर के अदालत के दरवाजे पर ऐसे रिश्तों की दावेदारी पहुंची, तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की तरफदारी करने वालों को देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 28 जनवरी को यह कह कर झटका दे दिया कि समलैंगिकता अपराध ही रहेगी. भारतीय दंड विधान की धारा 377 वैधानिक है संसद चाहे तो इसे कानून की किताब से हटा सकती है. समलैंगिक रिश्ते से बहुत से अपराध पैदा होते हैं क्योंकि इस में दोनों साथी, चाहे मर्द हों या औरतें, बराबर की हैसियत के होते हैं और ऐसे में झगड़ा होना स्वाभाविक है. 

भारत भूमि युगे युगे

आजम की वीआईपी भैंसें
भैंस हमेशा से ही दूध के जरिए पैसा उगलने वाली मशीन रही है जिस के गुमने या चोरी होने पर पुराने जमाने के पशुपालकों को गश आ जाता था और वे नजदीकी पंडित, छोटेमोटे तांत्रिक या ओझा के पास भागते थे. वह 11 रुपए ले कर जिस दिशा की तरफ इशारा कर देता था, पशुपालक उसे ढूंढ़ने के लिए सपरिवार उधर चल पड़ता था. भैंस मिल जाती थी तो मान लिया जाता था कि पंडितजी बड़े सिद्ध हैं, वरना लोग खुद को ही कोस कर रह जाते थे.
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री आजम खान की भैंसें गुमीं तो खासा बवाल मचा, जिस से साबित यही हुआ कि भैंसें भी वीआईपी होती हैं और आजकल इन की खोज पुलिस वाले और कुत्ते करते हैं. शुक्र की बात यह रही कि भैंसें मिल गईं.
 
इश्तिहार और सियासत
एक मध्यवर्गीय मुसलिम युवती जैसी दिखनी चाहिए, वैसी गोआ की हसीबा बी अमीन हैं, जो कांग्रेस के इश्तिहार में खड़ी पूरी गंभीरता और आत्मविश्वास से कहती नजर आती हैं कि कट्टर सोच नहीं, युवा जोश चाहिए.
हसीबा चंद दिनों में ही ऐसी लोकप्रिय हो गईं कि उन पर पीडब्लूडी घोटाले में लिप्त होने का इलजाम लग गया और दूसरा यह भी कि कथित तौर पर वे जेल भी जा चुकी हैं. कट्टर सोच और युवा जोश चुनावी मुद्दे बनें, न बनें, हसीना जरूर चमक गई हैं. मुमकिन है उन्हें कांग्रेस चुनाव भी लड़ा डाले. 
घोटालेबाजी बड़ी बात या मुद्दा नहीं है, झंझट इस बात की है कि भाजपा किसी मुसलिम युवती को इस तरह के इश्तिहार में भी नरेंद्र मोदी के बगल में खड़ा नहीं कर सकती क्योंकि शायद ही कोई युवती इस के लिए तैयार हो.
 
संत की रासलीला
दुष्कृत्य को भी संत, बाबा और पुजारियों ने हमेशा से ही ईश्वरीय कार्य मान कर संपन्न किया है. त्रेता, द्वापर तो दूर की बात है कलियुग और उस में भी बीते 2 साल ऐसे प्रसंगों व उदाहरणों से भरे पड़े हैं. बद्रीनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी केशव नम्बूदरी ने छेड़छाड़ करने के पहले शराब पीने की औपचारिक कार्यवाही पूरी की. फिर अपनी हैसियत के मुताबिक एक होटल व्यवसायी धनाढ्य महिला को आमंत्रित कर बलपूर्वक छेड़ा, जिस ने छिड़ने से इनकार कर दिया. नतीजतन, पंडितजी आलीशान होटल से सीधे अपने असल मुकाम तिहाड़ जेल पहुंच गए.
केशव युवा हैं. उन का नाम ही कृष्ण का पर्यायवाची है जो रास रचाने और गोपियों से छेड़छाड़ व प्रणय के लिए जाने व पूजे जाते हैं. ऐसे में वे बहक गए तो हैरत किस बात की. देशभर के धर्मगुरु यही कर रहे हैं, मानो यह उन का हक हो. धर्मग्रंथ भी कहते हैं कि स्त्री भोग की वस्तु है. लेकिन यदि वह जागरूक हो तो खतरा भी बन जाती है.
 
अडि़यल आडवाणी
राजनीतिक कैरियर खत्म करने का सम्मानजनक रास्ता है कि जिसे निबटाना हो उसे राज्यसभा भेज दो, जो वाकई वृद्धाश्रम है. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो इस सजा या इनाम को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया लेकिन बुजुर्ग भाजपाई लालकृष्ण आडवाणी अड़ गए कि नहीं, राज्यसभा में नहीं जाऊंगा.
अब नरेंद्र मोदी खेमा अभी इतना ताकतवर भी नहीं हुआ है कि बातबात पर रूठ कर माहौल बिगाड़ने वाले आडवाणी की नई नाराजगी मोल ले. लिहाजा, खामोश रहा. इस से यह साफ हुआ कि अभी प्रधानमंत्री पद का मसला पूरी तरह सुलझा नहीं है और आडवाणी जैसे अनुभवी नेता पर पुराने टोटके नहीं चलेंगे.
 

राजन की घोषणा के बाद ढह गया बाजार

अमेरिकी राहत पैकेज को कम करने की घोषणा दुनियाभर के शेयरबाजारों के लिए संवेदनशील साबित हुई है और इस घोषणा के बाद दुनियाभर के बाजार धड़ाम से गिर गए. दूसरा असर जनवरी में ऊंचाई का नया रिकौर्ड कायम करने वाले भारतीय शेयर बाजार पर भी पड़ा और रिकौर्ड ऊंचाई हासिल करने के महज कुछ ही सत्रों के बाद बौंबे बाजार यानी बीएसई का सूचकांक 26 जनवरी को 21 हजार के स्तर से गिर गया. बाजार का सूचकांक 427 अंक टूटा और सूचकांक 5 माह के न्यूनतम स्तर पर चला गया. बाजार में 3 सितंबर के बाद की यह सब से बड़ी गिरावट रही है.

इस के एक दिन बाद, 27 जनवरी को रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने महंगाई का हवाला दे कर अल्पकालिक ऋण दरों में एकचौथाई प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी. इस का सीधा असर बाजार पर पड़ा और सूचकांक 620 अंक टूट गया. दूसरी तरफ 2013 में बुनियादी उद्योग की विकास दर भी 2.1 प्रतिशत रही, जो पिछले 10 साल में सब से कम है, उस का भी बाजार पर बुरा असर हुआ. रुपया भी इस दौरान इस सप्ताह के न्यूनतम स्तर पर रहा.

बाजार में गिरावट का यह सिलसिला फरवरी में भी जारी रहा और 3 फरवरी को बाजार 305 अंक फिसल गया. इस के 2 दिन बाद लगातार 8 सत्र की गिरावट के बाद बाजार में कुछ सुधार हुआ लेकिन देखना यह है कि यह स्थिति कब तक बनी रह सकती है.       

अफसरों ने बैंकों के 23 हजार करोड़ रुपए डुबो दिए

हाल में दिल्ली के एक प्रमुख अंगरेजी अखबार ने सूचना के अधिकार यानी आरटीआई के तहत खुलासा किया है कि सब से विश्वसनीय माने जाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भी 3 साल में 23 हजार करोड़ रुपए का घपला हुआ है. इन पैसों का बैंक के पास कोई हिसाबकिताब नहीं है. इस तरह का घोटाला हर साल हो रहा है लेकिन उस की किसी को खबर नहीं है.

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जितनी राशि डकार गए हैं उस से सब के लिए शिक्षा के संकल्प की सरकारी योजना ‘सर्व शिक्षा अभियान’ को सुचारु रूप से चलाया जा सकता था. बैंकों में घपले का सब से बड़ा खेल इंडियन ओवरसीज बैंक में हुआ है जिस ने अप्रैल 2010 से सितंबर 2013 के बीच 3,033 करोड़ रुपए डुबोए हैं. मजे की बात यह है कि इस अवधि में बैंक को 2,848 करोड़ रुपए का लाभ हुआ है. इस के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के सब से बड़े स्टेट बैंक औफ इंडिया का स्थान है जिस ने 2,722 करोड़ रुपए गंवाए हैं. हालांकि बैंक ने उस अवधि में करीब 40 हजार करोड़ रुपए का लाभ भी अर्जित किया है. केनरा बैंक को 2,394 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है जबकि यूबीआई ने 1,775 तथा यूसीओ बैंक ने 1,491 करोड़ रुपए डुबोए हैं.

सवाल है कि रुपए कहां गए, तो इस का संकेत मई 2013 में इंडियन बैंक के पूर्व अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक एम गोपालकृष्णन की चेन्नई में हुई गिरफ्तारी से मिल जाता है, उन पर सीबीआई के विशेष जज ने नियमों का उल्लंघन कर के तथा सुरक्षा की पर्याप्त गारंटी के बिना भारी ऋण स्वीकृत करने के आरोप लगाए हैं.

तय है कि प्रबंध निदेशक महोदय ने पैसे खा कर ही नियम तोड़े हैं. इन मामलों की पड़ताल से ही खुलासा हुआ है कि अधिकारियों ने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर के ऋण आवंटित किया. खूब पैसे डकारे और ऋण की वसूली नहीं कर सके. कंपनियां भाग गईं और बैंक को चूना लग गया. इस तरह से बड़े स्तर पर सरकारी बैंकों से पैसों का घोटाला हुआ है.

27 सरकारी बैंकों के 6 हजार कर्मचारियों पर सीबीआई इस घोटाले को ले कर कड़ी निगाह रखे हुए है. घोटालों पर लगाम कसने का यही तरीका है कि जो नियम तोड़े, उसे ही तोड़ डालो.

 

पार्टियों का 2 हजार करोड़ रुपए का विज्ञापन बाजार

सामान्य आदमी के लिए यह हैरान कर देने वाली खबर है कि जिन राजनीतिक दलों को उस ने राष्ट्र की उन्नति के लिए उन की नीतियों पर भरोसा किया उन का मकसद आम आदमी की तरक्की नहीं बल्कि सत्ता का सुख भोगना है. इन दलों के बीच सत्ता हासिल करना बड़ी प्रतिद्वंद्विता बन गई है और सामान्य आदमी के भरोसे ही लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है इसलिए चुनाव आते ही सभी दल मतदाताओं को लुभाने, भरमाने अथवा गुमराह करने के लिए हथकंडा अपनाना शुरू कर देते हैं. आगामी

चुनाव में उतरने वाले दलों ने सिर्फ विज्ञापन दे कर अपनी छवि का दिग्दर्शन कराने के लिए 2 हजार करोड़ रुपए से अधिक बाजार में झोंक दिए हैं. इन में सब से ज्यादा कांगे्रस और भाजपा 500-500 हजार करोड़ रुपए विज्ञापन बाजार में फेंक रही हैं. शेष 1 हजार करोड़ रुपए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (यू), तेलुगु देशम पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, अखिल भारतीय अन्ना द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल खर्च कर रहे हैं. इस का बड़ा हिस्सा टीवी चैनलों के पास जा रहा है. अखबारों को भी खासे विज्ञापन मिल रहे हैं लेकिन पत्रिकाओं को कम विज्ञापन मिल रहे हैं.

विज्ञापन मुहिम में मोबाइल कंपनियों को शामिल किया जा रहा है. होर्डिंग्स आदि पर भी काफी पैसा खर्च हो रहा है. इस के लिए मैडिसन वर्ड, रेडीफ्यूजन, गे्र ग्रुप जैसी कई एजेंसियां दिनरात एक किए हैं. विज्ञापन तैयार करने के लिए विशेष टीम जुटी हैं जो जानती हैं कि उन्हें किस आइडिया से लोगों को आकर्षित करना है.

अनुमान लगाया जा सकता है जिस सत्ता के लिए इस तरह की मारामारी हो रही हो उसे हासिल करने के बाद स्वाभाविक रूप से पैसा वसूल पहले होगा और जनता को दिखाए सपने दिवास्वप्न ही बने रहेंगे.?

 

बीमा कंपनियों के नए उत्पादों की भरमार

सरकार की कोशिश बीमा कंपनियों के उत्पादों को जनोपयोगी बनाने की है और इस के लिए भारतीय बीमा नियामक विकास प्राधिकरण यानी इरडा ने कमर कस ली है. इरडा ने बीमा कंपनियों को सख्ती से नियमों का अनुपालन करने को कहा है और इस के लिए ताजा दिशानिर्देश जारी किए हैं जिस के कारण इस साल बीमा क्षेत्र के बाजार को लुभाने के लिए 400 से अधिक बीमा उत्पाद बाजार में आएंगे.

नए साल की शुरुआत में ही कई उत्पाद लौंच किए जा चुके हैं. जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसी बड़ी कंपनी नए दिशानिर्देश के तहत जीवन सरल, जीवन आनंद, जीवन मधुर जैसी योजनाओं को वापस ले कर उन की जगह कई नई योजनाएं लौंच कर चुकी है.

आईसीआईसीआई पू्रडैंशियल, एचडीएफसी लाइफ, मैक्स लाइफ, रिलायंस लाइफ, पीएनबी मेटलाइफ जैसी कंपनियां भी बाजार में नए उत्पाद उतारने की घोषणा कर चुकी हैं. बीमा कंपनियोें के उत्पाद विश्वसनीय और ग्राहक के अनुकूल हों तभी बड़ी संख्या में लोगों को बीमा उत्पादों से जोड़ा जा सकता है. हर व्यक्ति का भविष्य सुरक्षित रहे, इस के लिए बीमा कंपनियों में ईमानदारी व उन के उत्पाद आमजन के अनुकूल होने चाहिए और इस काम में इरडा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.

 

धूधू जल उठी गार्टन कैसल

बौलीवुड की सुपरहिट फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में दिखाया गया चांचड़ भवन यानी ब्रिटिश काल की ऐतिहासिक धरोहर ‘गार्टन कैसल’ में लगी हाल की आग से ऐतिहासिक इमारतों का वजूद व गौरव एक बार फिर से संकट में आ गया है. कैसे, बता रहे हैं विजयेंद्र शर्मा.

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला का गौरव मानी जाने वाली ऐतिहासिक धरोहर ‘गार्टन कैसल’ धूधू कर जल उठी. ब्रिटिशकाल का सचिवालय व मौजूदा समय में महालेखाकार कार्यालय के रूप में इस्तेमाल हो रहे गार्टन कैसल से 28 जनवरी को करीब तड़के साढ़े 3 बजे आग की लपटें उठती दिखाई दीं और देखते ही देखते 2 मंजिलें खाक हो गईं. महालेखाकार कार्यालय के 266 में से

70 कमरे राख हो गए और करोड़ों रुपए की संपत्ति स्वाहा हो गई. इस भीषण अग्निकांड में लाखों कर्मचारियों से जुड़ा रिकौर्ड भी स्वाहा हो गया. आग की चपेट में कर्मचारियों की पैंशन का ओरिजनल रिकौर्ड, स्टेट वाउचर, पेपरबिल, कुछ जीपीएफ का रिकौर्ड, एचबीए रिकौर्ड, औडिट रिकौर्ड सहित अन्य अहम कागजात भी जल गए.

महालेखाकार कार्यालय के जो 70 कमरे आग की भेंट चढ़े उन में एंटीक फ्लोर के 30 कमरे थे, जिन में औडिट व पैंशन फंड से संबंधित रिकौर्ड था. कर्मचारियों का जीपीएफ से संबंधित कुछ रिकौर्ड भी जल गया, जबकि बचा हुआ रिकौर्ड आग बुझाने के लिए इस्तेमाल की गई पानी की बौछारों से खराब हो गया.

उधर, महालेखाकार कार्यालय के कर्मचारियों व अफसरों का कहना है कि जीपीएफ से जुड़ा कर्मचारियों का रिकौर्ड कंप्यूटर में सेफ है. ये कंप्यूटर आग भड़कने से पहले सुरक्षित बाहर निकाले जा चुके थे. कंप्यूटर, फाइनैंस वाउचर, सर्विस बुक, इंस्पैक्शन रिकौर्ड भी आग की भेंट चढ़ गया लेकिन यह रिकौर्ड भी कार्यालय के पास बैकअप के रूप में उपलब्ध है. सब से बड़ी बात यह है कि महालेखाकार के चारों सर्वर फेस, जिन में कंप्यूटर से जुड़ा रिकौर्ड रखा जाता है, वे सेना के जवानों की मदद से सुरक्षित निकाल लिए गए थे.

गौरतलब है कि होटल लैंडमार्क के सुरक्षाकर्मी, उस के बाद एक टैक्सी चालक ने एजी औफिस में आग लगने की सूचना दमकल केंद्र, मालरोड को दी. हैरत की बात है कि महालेखाकार कार्यालय में तैनात चौकीदारों को आग लगने की कोई भनक नहीं थी. 4 बजे के करीब 12 फायर टैंडर गाडि़यों सहित 100 दमकल कर्मियों ने बचाव राहत कार्य शुरू किया. इस के बाद सेना के जवान व सेना की 1 फायर टैंडर गाड़ी भी बचाव कार्यों में शामिल हो गई. उस समय तक एंटीक की सीलिंग में ही आग की लपटें उठी थीं, लेकिन हवा के झोंकों ने बचाव व राहत दल की मुस्तैदी पर पानी फेर दिया. हवा से आग पूरी

2 मंजिलों में भड़क गई. आग पर काबू पाने के लिए फायर हाइड्रैंट भी रोड़ा बने. महालेखाकार कार्यालय के समीप हाइड्रेंट काम नहीं कर रहा था. मेन लाइन से पानी के कनैक्शन को जोड़ना पड़ा.

हालांकि आग बुझाने में पानी की कमी नहीं खली लेकिन भवन के चारों तरफ से 2 मंजिलों के 70 कमरों में भड़की आग पर काबू पाने में समय लग गया. आग की लपटों के थोड़ी शांत होने के बाद दमकल कर्मियों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर अंदर कमरों में जा कर आग को बुझाया. सुबह 4 बजे से शुरू हुआ बचाव व राहत कार्य कई घंटे चला और देर शाम तक ही आग पर काबू पाया जा सका. उधर, इस मामले में चीफ फायर अफसर भोपाल चौहान का कहना है कि महालेखाकार कार्यालय में आग लगने की सूचना

मिलते ही 12 दमकल गाडि़यां व 100 दमकलकर्मी मौके पर पहुंच गए थे. सोलन, ठियोग, मालरोड, छोटा शिमला, बालूगंज से फायर टैंडर गाडि़यां बचाव राहत कार्य के लिए बुलाई गई थीं. भयंकर आग की लपटों पर काबू पाने वाले बचाव व राहत दल के कई कर्मियों को चोटें भी आईं.

प्रधान महालेखाकार सतीश लुंबा का कहना है कि ब्रिटिश काल के इस ऐतिहासिक भवन में आग लगने से उन्हें बेहद दुख है. इस भवन से 1947 तक ब्रिटिश की हुकूमत चलती थी. ब्रिटिश सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी इसी भवन में थी. भारत सरकार का सचिवालय भी इसी भवन में हुआ करता था. 1947 के बाद एजी पंजाब व 1971 के बाद एजी हिमाचल का इस भवन में कार्यालय था. यह धरोहर देश की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है. आग से जो रिकौर्ड नष्ट हो गया है उसे दोबारा हासिल करने में समय लग सकता है.

यहीं से चलती थी सरकार

19वीं शताब्दी में निर्मित गार्टन कैसल भवन से किसी समय देश की सरकार चला करती थी. ब्रिटिश हुकूमत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला थी और उस समय यह भवन अंगरेजों का सचिवालय हुआ करता था. इस भवन का नामकरण इस के मालिक गार्टन आईसीएस ने 1840 में किया था. उन की मृत्यु के बाद कई लोगों के हाथों में यह भवन रहा. इस के बाद सर जेम्स वाकर के पास यह भवन रहा.

1900 में भारत सरकार ने इस भवन को 1.20 लाख रुपए में खरीदा. इस भवन को इंपीरियल सिविल सचिवालय बनाने के लिए कर्नल सर एस एस जैकाब ने डिजाइन तैयार किया. मेजर एच एफ चेस्त्री, जो उस समय अभियंता, आवासीय थे, के पर्यवेक्षण में इस भवन को तैयार किया गया. 1947 में आजादी के बाद इस भवन में पंजाब एजी का कार्यालय हुआ करता था. 1971 के बाद यहां पर हिमाचल प्रदेश महालेखाकार कार्यालय शुरू हुआ.

इमारतों का वजूद संकट में

कभी ब्रिटिशकालीन राजधानी रहे शिमला की उन ऐतिहासिक इमारतों का वजूद व गौरव फिर से संकट में है, जिन से शिमला की पहचान बरकरार है. भीषण अग्निकांडों की भेंट चढ़ चुकी इमारतों को सहेजने का कार्य अभी तक भी कागजों में ही है. इस की जीवंत मिसाल शिमला का वाकर हौस्पिटल (सेना), केंद्रीय विद्यालय इमारत, सेना का मैस, पश्चिमी कमान की इमारत हैं. हैरानी की बात है कि इन इमारतों को संरक्षित रखने के लिए हैरिटेज कमेटी का गठन तो हुआ, मगर इन में एहतियातन क्या कदम उठाए जाने चाहिए, उस की कभी भी किसी को फिक्र नहीं रही. कभी निजी भूमालिकों का हस्तक्षेप कह कर बात को चलता किया जाता है तो कभी अन्य कारणों को गिना कर खानापूर्ति हो जाती है.

अभी तक हैरिटेज कमेटी ने करीब 90 इमारतों को ही धरोहर की श्रेणी में सूचीबद्ध किया है. इन में जाखू स्थित कांगे्रस के संस्थापक ए ओ ह्यूम का कभी औफिशियल आवास रहा ‘रौथनी कैसल’ भी इस की मिसाल है.

थ्री इडियट्स की यादें

बौलीवुड की सुपरहिट फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में जो चांचड़ भवन दिखाया गया था वह गार्टन कैसल ही था. यहां फिल्म का वह सीन शूट किया गया था जिस में रणछोड़ दास चांचड़ यानी आमिर खान की तलाश में उस के 2 दोस्त राजू और फरहान उस के पुश्तैनी घर शिमला पहुंचते हैं, जहां उन्हें रणछोड़ दास की हकीकत का पता चलता है. फिल्म में आमिर खान को उस के दोस्त रैंचो के नाम से पुकारते दिखाए गए हैं.

निवेश हो वहां अच्छा रिटर्न मिले जहां

पूंजी निवेश का जोखिम किसी भी बैंकिंग स्कीम या अन्य व्यवस्था में उम्र, बाजार के उतारचढ़ाव और निवेश के स्वरूप पर निर्भर करता है. ऐसे में किन स्कीमों में निवेश करें जिस से अधिकतम रिटर्न मिले, बता रही हैं ममता सिंह.

निवेश में आप का झुकाव इक्विटी की ओर है तो एक बात तय है कि शेयर बाजार में उतारचढ़ाव से आप की नींद उड़ रही होगी. हालांकि निवेश के पोर्टफोलियो में इक्विटी का शामिल होना अहम है लेकिन इक्विटी की हिस्सेदारी निवेशक के जोखिम लेने की क्षमता, उम्र और निवेश के लक्ष्य के आधार पर तय होनी चाहिए. इस के साथ ही, आप के पोर्टफोलियो में फिक्स्ड इन्कम वाले इंस्ट्रूमैंट का शामिल होना भी बहुत जरूरी है.

फिलहाल डैट इंस्ट्रूमैंट में निवेश करना आप के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि बाजार में इस के कई सारे प्रोडक्ट उपलब्ध हैं. इन में निवेश से आप अच्छा रिटर्न कमा सकते हैं.

फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट

इक्विटी में निवेश करने से निश्चित तौर पर अच्छा रिटर्न मिलता है. वहीं, जब बाजार में अनिश्चितता बरकरार हो तो निवेशक अपनी पूंजी को सुरक्षित रखना चाहते हैं. अगर आप की उम्र ज्यादा है और आप रिटायरमैंट की ओर बढ़ रहे हैं तो ज्यादा जोखिम लेना आप के लिए उपयुक्त नहीं है. इस स्थिति में फिक्स्ड इन्कम वाले इंस्ट्रूमैंट का चुनाव करना ठीक रहता है.

सर्टिफाइड फाइनैंशियल प्लानर अजय बजाज के मुताबिक, बाजार में फिक्स्ड इन्कम वाले कई निवेश विकल्प मौजूद हैं जिन में निवेश कर के एक ओर निवेशक जहां अच्छा रिटर्न कमा पाएंगे वहीं दूसरी ओर वे टैक्स की बचत भी कर सकते हैं.

फिक्स्ड डिपौजिट बेहतर विकल्प

भारतीय निवेशकों के लिए फिक्स्ड डिपौजिट हमेशा से ही निवेश के लिए बेहतरीन विकल्प रहा है. इन में सब से खास बात है कि आप को निश्चित दर पर रिटर्न मिलेगा और जोखिम बिलकुल नहीं है. हालांकि इस निवेश से मिलने वाले ब्याज पर निवेशकों को टैक्स चुकाना पड़ता है. ऐसे में जो लोग निचले टैक्स स्लैब में आते हैं उन के लिए यह निवेश का बेहतरीन विकल्प है, खासतौर पर वे लोग भी, जो रिटायरमैंट के नजदीक हैं, इस में निवेश कर सकते हैं.

बैंक की जिन एफडी का लौकइन पीरियड 5 साल का होता है उन पर आयकर अधिनियम की धारा 80सी के तहत टैक्स छूट का फायदा भी मिलता है. इस के बावजूद बैंक के फिक्स्ड डिपौजिट में निवेशकों को उतना रिटर्न नहीं मिलता जितना कौर्पोरेट एफडी में मिलता है.

कौर्पौरेट एफडी की बात करें तो इस की ब्याज दरें बैंक एफडी से 1 से 2 फीसदी ज्यादा हैं. इस के बावजूद निवेशकों को उन कौर्पोरेट एफडी में निवेश से बचना चाहिए जिन की रेटिंग अच्छी न हो, फिर चाहे उस पर आप को 15 फीसदी तक रिटर्न ही क्यों न दिया जा रहा हो. जिस एफडी की रेटिंग अच्छी है पर रिटर्न थोड़ा कम हो, उस में निवेश करने में भी समझदारी है.

कौर्पोरेट बौंड डिबैंचर्स

बड़ी कंपनियां अपने फंड की जरूरत को पूरा करने के लिए बौंड जारी करती हैं. आमतौर पर इन बौंड के रिटर्न पर निवेशक को टैक्स चुकाना पड़ता है हालांकि कई बार सरकार कुछ कंपनियों को छोटे निवेशकों के लिए टैक्स फ्री बौंड जारी करने की अनुमति भी देती हैं. बौंड द्वारा कमाए गए मुनाफे पर निवेशक की आय के स्लैब के हिसाब से टैक्स चुकाना पड़ता है.

निवेशकों को इस तरह के इंस्ट्रूमैंट में निवेश करने से पहले यह जान लेना चाहिए कि मैच्योरिटी पर पैसा वापस मिलेगा या नहीं. कहने का मतलब है कि बौंड जारी करने वाली कंपनी की रीपेमैंट क्षमता के बारे में जानकारी होनी बहुत जरूरी है. वरिष्ठ नागरिकों को काफी उच्च रेटिंग वाले बौंड में निवेश करना चाहिए.

डाइवर्सिफाइड म्यूचुअल फंड

डेट इंस्ट्रूमैंट के बीच फिक्स्ड इन्कम म्यूचुअल फंड सब से ज्यादा डाइवर्सिफाइड फंड है. इस में मौजूदा ब्याज दरों और शेयर बाजार के उतारचढ़ाव को देखते हुए आमतौर पर निवेशकों को फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान, शौर्ट टर्म डेट फंड और गिल्ट फंड में निवेश करने की सलाह दी जाती है.

निवेशकों के लिए ये सह योजनाएं बेहतर मानी जाती हैं क्योंकि इन में एफडी से ज्यादा ब्याज मिलता है और मैच्योरिटी पीरियड के लिए भी 3 महीने से 3 साल का विकल्प मौजूद होता है. फंड हाउस ने कुछ ऐसी स्कीमें भी लौंच की हैं जिन का मैच्योरिटी पीरियड 370 से 390 दिन के बीच है. इन में निवेश करने से टैक्स के साथ महंगाई को भी समायोजित करने का मौका मिलता है.

हाइब्रिड या स्ट्रक्चर्ड प्रोडक्ट

कई फंड हाउस और प्राइवेट बैंक ऐसे हाइब्रिड प्रोडक्ट औफर कर रहे हैं जिन में डेट इंस्ट्रूमैंट की ज्यादा हिस्सेदारी होती है और इक्विटी का हिस्सा कम होता है. इन में कर्ज पर आधारित हाइब्रिड ऐंड स्कीम शामिल होती हैं. कैपिटल प्रोटैक्शन फंड और मंथली इन्कम प्लान इसी श्रेणी में आते हैं.

जानकार मानते हैं कि इस तरह का निवेश करने में एक ओर जहां आप का निवेश डेट इंस्ट्रूमैंट के जरिए सुरक्षित रहता है वहीं दूसरी ओर इक्विटी में निवेश से आप का रिटर्न भी बढ़ता है. इस पर भले ही ज्यादा रिटर्न न मिलता हो पर इस से होने वाले टैक्स फायदे और कम जोखिम के चलते यह छोटे निवेशकों के लिए पसंदीदा विकल्प है. विशेषज्ञों की मानें तो निवेशकों को अपने कुछ निवेश का कम से कम 20 से 40 फीसदी हिस्सा फिक्स्ड इंस्ट्रूमैंट पर लगाना चाहिए.

बरतें सावधानी

बाजार में उतारचढ़ाव हो रहा हो तो अपनी सारी निवेश राशि फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट में निवेश नहीं करनी चाहिए. बाजार में जोखिम ज्यादा दिखाई दे तो फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट का अनुपात बढ़ा दें. इस दौरान इक्विटी में निवेश जारी रखें. इस से लंबी अवधि में आप को लाभ होगा. इस तरह के इंस्ट्रूमैंट में निवेश करने से पहले मार्केट रिसर्च करना न भूलें क्योंकि किसी इंस्ट्रूमैंट में मिलने वाला 8 से 9 फीसदी रिटर्न भले ही आप को शुरुआत में लुभावना लगे लेकिन हो सकता है टैक्स के बाद यह रिटर्न कम हो जाए. आप को फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट की जानकारी न हो तो किसी विशेषज्ञ की मदद लें. बाजार में सुधार दिखने लगे तो फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट और इक्विटी में निवेश के अनुपात को बदल लें क्योंकि फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट जहां आप को पूंजी की सुरक्षा देते हैं वहीं लंबे समय तक इन पर निर्भर होना आप के रिटर्न को घटा सकता है.

नौकरशाहों की सियासत

नेताओं के करीब रहने वाले ज्यादातर नौकरशाहों के मन में जब सियासी महत्त्वाकांक्षा हिलोरें मारती है तो वे सियासतदां बनने को निकल पड़ते हैं. सवाल है कि अब तक जितने भी नौकरशाह सियासी अखाड़े में कूदे हैं उन में से कितनों ने ढर्रे पर घिस रही सियासत को बदला है या फिर देश का कोई भला किया है? पड़ताल कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

‘मैं चाहूं तो अपनी नौकरी छोड़ कर नेता बन सकता हूं लेकिन तुम लोग आईएएस या छोटामोटा अफसर भी नहीं बन सकते हो.’ यह डायलौग भाजपा के नेता यशवंत सिन्हा ने एक नेता से तब कहा था जब वे आईएएस अफसर थे और झारखंड के गिरिडीह जिले में कमिश्नर थे. यशवंत सिन्हा की तरह कई नौकरशाह नौकरी छोड़ कर या नौकरी से रिटायर होने के बाद सियासत के अखाड़े में कूदते रहे हैं. सब से ताजा मिसाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह की है जिन्होंने हाल ही में इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए. इसी तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं, जिन्होंने रैवेन्यू सर्विस की अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर राजनीति की राह पकड़ी और काफी जल्दी उन्हें कामयाबी भी मिल गई.

सवाल यह उठता है कि नौकरशाहों का सियासत में आने का ट्रैंड क्यों बढ़ रहा है? क्या उन के राजनीति में आने से राजनीति या देश का कोई भला हो रहा है? वे लोग आम नेताओं से खुद को कितना अलग साबित कर पाते हैं? नौकरशाही के उन के अनुभवों का पार्टी या सरकार चलाने में कोई फायदा मिल पाता है? सिस्टम को बदलने की आवाज बुलंद कर राजनीति में उतरे नौकरशाह सिस्टम को बदल पाते हैं या फिर खुद ही बदल कर घिसेपिटे सिस्टम में शामिल हो कर मलाई जीमने लगते हैं?

रिटायर्ड आईएएस अफसर कमला प्रसाद कहते हैं कि सिस्टम को बदलने की बात करना और सिस्टम में शामिल हो कर सिस्टम को बदलने की कोशिश करना दोनों अलगअलग चीज हैं. ज्यादातर नेता, मंत्री, विधायक, सांसद खुद ही नौकरशाहों की सलाह के मुताबिक काम करते हैं. सारा सिस्टम असल में नौकरशाह ही चलाते हैं, वही योजनाएं बनाते हैं. विधायिका तो केवल उसे संसद या विधानसभा में पास करती है. अगर कहीं भी कोई सुधार की गुंजाइश है तो नौकरशाह ही तटस्थ हो कर वह कर सकता है.

राजनेता के हर काम के पीछे वोट की राजनीति होती है. नेता वही काम करते हैं या वही बोलते हैं जिन से उन का वोटबैंक मजबूत हो या फिर जिन से उन की राजनीति चमक सके. नौकरशाहों के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है, अगर कोई अफसर राजनीति में शामिल होता है तो उस की भी वही मजबूरी हो जाती है कि पार्टी की सोच और वोटबैंक के हिसाब से ही काम करे. ऐसे में नेता बने अफसरों से कोई खास बदलाव लाने की उम्मीद करना बेमानी ही है. एक भी ऐसे नौकरशाह का नाम जबान पर नहीं आता है जिस ने सियासत में उतरने के बाद सियासी पार्टी की सोच और शक्ल बदल दी हो.

बदलते रंगढंग

केंद्रीय गृह सचिव पद से रिटायर होने के बाद राजकुमार सिंह की बोली और रंगढंग बदल गए. ‘भाजपा में ही क्यों शामिल हुए’ के जवाब में वे कहते हैं कि भाजपा इकलौती पार्टी है जो आंतरिक सुरक्षा, भ्रष्टाचार और देशहित जैसे मसलों पर बेहतर तरीके से काम कर सकती है.

1975 बैच के बिहार कैडर के आईएएस अफसर राजकुमार सिंह के रिटायर होते ही उन की सियासी मंशा को भांपते हुए सब से पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी सरकार से जुड़ने का न्यौता दिया था. नीतीश ने बुनियादी ढांचे की तरक्की से जुड़े मसलों पर मुख्यमंत्री के सलाहकार बनाने की कोशिश की थी, पर देशभर में नरेंद्र मोदी के नाम की बनती और बहती हवा के बीच सिंह ने भाजपा में शामिल होना ज्यादा मुनासिब समझा. उन्होंने सोचा कि भाजपा में शामिल हो कर उन की सियासी नैया जल्द ही मंजिल पा सकेगी.

नेताओं के आसपास हर समय रहने वाले नौकरशाहों के मन में अकसर सियासी महत्त्वाकांक्षाएं हिलोरें लेने लगती हैं. कई ऐसी मिसाल हैं कि नौकरशाह नौकरी छोड़ कर या रिटायरमैंट के बाद नौकरशाही की सारी अकड़ छोड़ कर सियासत के अखाड़े में कूद पड़े. भाजपा नेता और कई बार केंद्रीय मंत्री रहे यशवंत सिन्हा और फिलवक्त लोकसभा अध्यक्ष पद पर बैठीं मीरा कुमार ने 1973 बैच की आईएफएस की नौकरी छोड़ सियासत की कमान थामी थी.

जदयू के राज्यसभा सांसद और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे एन के सिंह, नीतीश सरकार के सांस्कृतिक सलाहकार और 1976 बैच के आईएफएस अफसर पवन कुमार वर्मा, झारखंड के जमशेदपुर से सांसद और आईपीएस अफसर रहे अजय कुमार, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रह चुके व पूर्व आईएएस अजीत जोगी, राजस्थान के सवाई माधोपुर से कांगे्रस सांसद और 1969 बैच के आईएएस नमो नारायण मीणा और पी एल पुनिया जैसे ढेरों नाम हैं जो नौकरशाही के ठाटबाट और धमक को छोड़ सियासत के मैदान में कूदे हैं.

समाजसेवा की भावना नहीं

समाजविज्ञानी हेमंत राव का मानना है कि जो भी नौकरशाह रिटायरमैंट के बाद या रिटायरमैंट से कुछ साल पहले वीआरएस ले कर राजनीति के अखाड़े में उतरते हैं, वे समाज या देश की सेवा करने के लिए कतई नहीं उतरते. वैसे लोग सियासत को आफ्टर रिटायरमैंट स्कीम की तरह ही इस्तेमाल करते हैं. ज्यादातर नौकरशाह रिटायर होने के बाद या तो घर पर आराम से रह कर अपनी प्रौपर्टी की देखभाल करते हैं या फिर किसी प्राइवेट कंपनी में सलाहकार जैसा कोई पद ले कर बैठ जाते हैं. कुछेक ही ऐसे नौकरशाह होते हैं जिन की सियासी महत्त्वाकांक्षाएं हिलोरें मारती हैं और सुर्खियों में बने रहने व कोई सियासी पद पाने के लालच में किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ जाते हैं. रिटायरमैंट के बाद भी मलाई जीमने की मंशा से ही नौकरशाह सियासत के मैदान में हाथ आजमाते हैं, न कि इस के पीछे समाजसेवा जैसी कोई भावना काम करती है.

साल 2010 में नीतीश कुमार ने उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर आर सी पी सिन्हा को सियासत के मैदान में उतारा था. आर सी पी सिन्हा उन के सलाहकार के तौर पर काम कर रहे थे. नौकरी छोड़ने के बाद नीतीश ने इनाम के रूप में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना दिया और जनता दल (यूनाइटेड) का राष्ट्रीय महासचिव का पद भी दे दिया. आर सी पी सिन्हा के अलावा, योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे एन के सिंह, आईएफएस अफसर पवन कुमार वर्मा और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक रहे मंगला राय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के थिंकटैंक के रूप में काम कर रहे हैं.

अब तक जितने भी नौकरशाह राजनीति में उतरे, उन लोगों ने राजनीति और देश का क्या भला किया? क्या वे पुरानी ढर्रे पर चल रही सियासत और सरकार चलाने के तौरतरीकों में थोड़ा भी बदलाव ला सके? इन सवालों के जवाब में अफसरशाही छोड़ सियासत में उतरे भाजपा के बडे़ कद वाले नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि राजनीति अपने ढंग से और अपने घिसे- पिटे ढर्रे पर ही चलती है. इस में बदलाव की कोशिश करने वाला खुद ही बदल जाता है या फिर दरकिनार कर दिया जाता है.

दरअसल, सियासत के बाहर खड़े हो कर काफी कुछ बदलने का दावा करने वाले ढेरों लोग उस के भीतर जाने के बाद सियासत के बनेबनाए खांचे में ही खुद को सैट और फिट कर लेते हैं. सियासी दलों के बनेबनाए खांचे से इतर कोई भी आज तक न कुछ कर पाया न ही कर सकेगा, क्योंकि राजनीति का फंडा यही होता है कि न हम बदलेंगे न देश को बदलने देंगे.

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