उत्तरपूर्व  के राज्यों में शिक्षा तो पहुंच गई पर रोजगार नहीं पहुंचे, इसलिए उच्चशिक्षा व नौकरियों के लिए उत्तरपूर्वी पहाड़ी इलाकों के युवा भारी संख्या में देश के दूसरे शहरों में आ रहे हैं. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहर, जो बाहर वाले लोगों को कुछ प्यार से तो कुछ मजबूरन अपना लेते हैं, उत्तरपूर्वी युवाओं से खफा रहते हैं. गोरे रंग के परे उन्मुक्त व खुले विचारों वाले इन कर्मठ युवाओं को अकसर बड़े पैमाने पर खुलेआम गुस्से और हिंसा का सामना करना पड़ता है.

दिल्ली में सभ्य से लाजपत नगर इलाके में नीडो तानिया नाम के युवा की बेरहमी से पिटाई, जिस से उस की मृत्यु हो गई, यह जताती है कि जो रंग, जाति, क्षेत्र का भेदभाव हम लोगों में कूटकूट कर भरा हुआ है वह तो अमेरिका में भी शायद कालों के प्रति न होगा.

हम अपना गुणगान कर लें कि यह देश सब संस्कृतियों का समावेश कर लेता है पर सच यह है कि यहां अपने से थोड़ा अलग अपने ही लोगों को मजाक का, वह भी फूहड़ मजाक का, निशाना बनाया जाता है.

जो भेदभाव इंगलैंड व अमेरिका में भारतीयों ने डौट बस्टरों के रूप में सहा होगा उस से कई गुना उत्तरपूर्व के ये पहाड़ी लोग लगातार सह रहे हैं और देश की कोई संस्था, कोई राजनीतिक दल, कोई समाजसेवी संगठन इन के लिए कुछ करने को तैयार नहीं है.

उत्तरपूर्व के इलाके वैसे गरीब हैं पर वहां के युवा थोड़े सलीके वाले हैं व साफसुथरे रहते हैं और यही उन को दूसरे लोगों से अलग करता है. बिहारी, उडि़या जहां हर तरह का अपमान पी जाते हैं वहीं पतली आंखों वाले पर मजबूत काठी के ये युवा मुकाबला करने को तैयार रहते हैं और इन की झड़पें अब कुछ ज्यादा होने लगी हैं. इन्हें अकसर चीनी समझ कर चिंकी कह दिया जाता है और कहने वाले यह नहीं समझ पाते कि वे किस तरह की चिंगारी लगा रहे हैं.

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