सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए बच्चों को न भेजे जाने पर काफी चर्चा होती है. कहा जाता है कि लोग सरकारी स्कूलों में बच्चों को नहीं भेजते क्योंकि वहां शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं और बच्चों का भविष्य नहीं बनता. यह तर्क असल में लचर है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक दरअसल निजी अंगरेजी माध्यम स्कूलों के अध्यापकों से ज्यादा योग्य होते हैं और ज्यादा वेतन भी पाते हैं. पक्की नौकरी के लालच में उन्हें कठिन परीक्षाएं देनी होती हैं, इंटरव्यू से गुजरना होता है. ऐसे में उन की शैक्षिक स्थिति अच्छी ही होती है.
यही नहीं, 12वीं कक्षा के बाद जिन शिक्षा संस्थानों के आगे लंबी लाइनें लगती हैं वे आमतौर पर सरकारी या लगभग पूरी तरह सरकारी सहायता से चलने वाले होते हैं. दिल्ली के सैंट स्टीफन या श्रीराम कालेज हों, मौलाना आजाद मैडिकल कालेज या इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी, लाइनें इन्हीं के बाहर लगती हैं और सिफारिशें भी यहीं के लिए लगवाई जाती हैं. और जब यहां के सरकारी शिक्षक अच्छी शिक्षा दे सकते हैं तो सरकारी स्कूलों के क्यों नहीं?
इस का कारण अच्छीखराब शिक्षा नहीं. असल में आजादी के बाद जब सरकारी स्कूलों में सभी वर्गों के बच्चे आने लगे तो उन में पिछड़ी व अछूत जातियों के बच्चे भी पहुंचने लगे. यद्यपि तब आरक्षण का बोलबाला न था पर स्कूलों के लिए इन बच्चों को मना करना मुश्किल था. इसलिए मातापिताओं ने अलग स्कूलों की राह अपनाई और अंगरेजों द्वारा छोड़े गए मिशनरी स्कूलों को गले लगाया.
ईसाई मिशनरियों के लिए यह धंधा फायदे का था तो उन्होंने धड़ाधड़ स्कूल खोले. उन्हीं की तर्ज पर अंगरेजी माध्यम के निजी स्कूल भी खुलने लगे और धीरेधीरे अंगरेजी माध्यम के स्कूलों का बोलबाला हो गया. अंगरेजी तो तब एक बहाना थी पर बाद में यह विशिष्टता की निशानी भी बनने लगी.
वर्ष 1950 के बाद के 10-20 सालों तक हिंदीभाषी व अंगरेजी भाषा के माध्यम के स्कूलों से पढ़ कर निकलने वालों की योग्यताओं में अंतर न था.
कालेजों में आमतौर पर संपन्न घरों के बच्चे ही पहुंचते थे क्योंकि पिछड़े व अछूत घरों के बच्चे 2-4 साल स्कूल में बिता कर कोई न कोई काम करने लग जाते. कालेजों में आज भी जो पिछड़े व दलित पहुंच रहे हैं वे ज्यादातर आरक्षण के कारण ही पहुंच रहे हैं पर जब वे कालेज की शिक्षा पूरी कर के निकलते हैं तो अंगरेजी माध्यम के बच्चों जैसे होते हैं. वे शिक्षा के स्तर पर उन के मुकाबले में कहीं से भी पीछे नहीं होते.
समस्या दरअसल, जाति की है माध्यम की नहीं, न ही सरकारी व निजी की. सरकारी स्कूलों पर नकेल कसी जा सके तो हर हाल में बेहतर नागरिक पैदा किए जा सकते हैं, अनुशासनहीनता और शिक्षा में घपलेबाजी के बावजूद.