वैंडी डौनिगर की किताब ‘द हिंदूज’ को नष्ट करने के पैंगुइन पब्लिशिंग कंपनी के फैसले से हैरान होने की जरूरत नहीं है. विदेशी प्रकाशकों से यह आस करना ही गलत है कि वे कट्टर धर्मांध लोगों से लड़ेंगे. सरिता ने ऐसे बीसियों मुकदमे झेले हैं और आज भी झेले जा रहे हैं. यह तो प्रकाशक की निष्ठा पर निर्भर है कि वह विचारों की स्वतंत्रता में कितना विश्वास रखता है.

हर धर्म चाहता है कि उस की खामियां न निकाली जाएं. इस पुस्तक ‘द हिंदूज’ का दिल्ली की एक अदालत में विरोध करने वाली तथाकथित संस्था का संचालक एक टैलीविजन बहस में हिंदू धर्म के बारे में अज्ञान पर अज्ञान परोस रहा था और कई अंगरेजीदां महानुभाव चुपचाप सहन कर रहे थे.

उस ने कहा कि पुस्तक में कहा गया है कि शिवलिंग एक पुरुष का उन्नत लिंग है, जोकि झूठ है. किसी ने उस के कथन का विरोध नहीं किया जबकि यह सत्य नहीं है. जिसे संदेह है वह शिव पुराण पढ़ ले. महाभारत पढ़ ले. अगर संस्कृत नहीं आती तो पटरियों पर बिकने वाली सभी शिवभक्ति महिमा की किताबें पढ़ ले जिन में इस तरह की बातें मानी गई हैं.

इस तरह की बातें हर धर्म की पुस्तकों में भरी हैं क्योंकि ये पुस्तकें तब लिखी गई थीं जब नैतिकता के मापदंडों में स्त्रीपुरुष संबंध नहीं आते थे. आज उन्हीं पुस्तकों पर धर्म को चलाना गलत है और अगर वैंडी डौनिगर इस बात को अंगरेजी में सामने लाती हैं तो उन की आलोचना नहीं की जा सकती.

कठिनाई यह है कि धर्म के ठेकेदार असल में धर्म के दुकानदार हैं, उन्हें ग्राहकों के बीच अपनी छवि येनकेन प्रकारेण चमकानी होती है. धर्मग्रंथों में आधुनिक नैतिकता के मुकाबले अनैतिकता के प्रसंग एक के बाद एक भरे पड़े हैं. धर्म के दुकानदार जिन में राजनीतिक दलों और आश्रमों व संस्थाओं के मालिक शामिल हैं, इन्हीं पुस्तकों को दिखा कर अपना हर स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं.

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