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मेरे पापा

एक बार मुझे किसी आवश्यक कार्य से
 1 दिन के लिए मायके (देवास) जाना पड़ा. 6 बजे शाम को मैं वहां पहुंची. दूसरे दिन 1 बजे बस से वापस (भोपाल) आना था.
बरसात के दिन थे. जिस दिन मैं देवास पहुंची उस दिन घनघोर बरसात हुई. उस बरसते पानी में पापा बाजार जाने की जिद करने लगे. रात का समय था. पापा को आंखों से कम दिखाई देने लगा है. इस कारण हम सभी ने उन्हें बाजार जाने से मना किया. लेकिन हाथ में छाता लिए, एक हाथ में छड़ी पकड़े, झोला लटकाए वे घर से निकल पड़े. थोड़ी देर में वे घर वापस आए तो पूरी तरह भीग चुके थे. ठंड के कारण पूरा शरीर कांप रहा था. मां तो पापा पर बुरी तरह झल्ला उठीं. परंतु पापा ने बाजार जाने का कारण नहीं बतलाया.
उस दिन रातभर बारिश होती रही. मैं ने देखा, पापा उस रात यह सोच कर सो नहीं पाए कि उन की बिटिया इस बरसते पानी में कैसे वापस जाएगी. मैं सुबह जल्दी उठ कर भोपाल जाने की तैयारी करने लगी. जल्दी खाना खा कर मां से बतियाने लगी. तभी पापा कमरे में आए और मां से बोले, ‘‘इस के लिए पकौड़ी बना दो.’’ फिर मेरे सिर पर प्यारभरा हाथ फेर कर बोले, ‘‘इसे तुम्हारे हाथ की पकौड़ी पसंद हैं न. कल रात बरसते पानी में बेसन लेने ही तो गया था. फिर न जाने कब इस का आना होगा.’’
पापा की उम्र 76 वर्ष है. इस उम्र में भी उन्हें मेरी पसंद का कितना खयाल है. यह देख मेरी आंखें नम हो गईं. इतने प्यारे हैं मेरे पापा.
भावना भट्ट, भोपाल (म.प्र.)
 
मेरी एमएससी की फाइनल परीक्षा थी. पापा का ट्रांसफर हो गया था. वे पंजाब चले गए थे. मैं 1 साल के लिए होस्टल में रह रही थी. पूरा साल खूब मेहनत की थी और आशा थी कि उस का फल भी बढि़या ही मिलेगा.
पहले 2 पेपर बढि़या हो गए लेकिन तीसरा पेपर अच्छा नहीं हुआ.  2 पेपर बाकी थे. बहुत घबराहट हो रही थी. मन हुआ कि परीक्षा छोड़ दूं. मैं ने अपने पापा को पत्र लिख कर बताया कि एक पेपर अच्छा नहीं हुआ है और मैं निराश हो कर परीक्षा छोड़ना चाहती हूं.
पत्र मिलते ही पापा ने मुझे फोन पर समझाया कि घबराते नहीं हैं, सालभर की मेहनत है. साथ ही, उन्होंने बहुत लंबा सा पत्र भी लिख कर भेजा. पत्र में समझाया कि जीवन में हारजीत, हानिलाभ तो होते रहते हैं. निराश होने से किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता और कहा कि परीक्षा छोड़ कर नहीं आना है.
मैं ने परीक्षा दी और अच्छे नंबरों में पास हो गई व शीघ्र ही अच्छी नौकरी भी लग गई. आज पापा तो नहीं हैं पर उन के द्वारा दी गई सीख मुझे हर काम में सफलता दिलाती है.
कमलेश नागरथ, गे्रटर कैलास, (न.दि.) 
 

उजली चांदनी

उजलीउजली आज चांदनी
धीमेधीमे ढलने दो
 
महकीमहकी शबनमी बूंदें
रोज न यों उजली होती हैं
 
साथसाथ इन शहराहों में
मुझे हौलेहौले चलने दो
 
पलकों पर महके ख्वाब सजते हैं
आंखों में सतरंगी सपने पलते हैं
 
कुछ पल को घर में रुक जाओ
तुझे दीद का सदका करने दो
 
रेशमी तन पर अनूठी
नमी बिखरती है
 
तेरे चेहरे पर चंदनिया 
शर्मायी सी उतरी है
 
इन तारों को आज जमीं पर
मेरे साथसाथ ही चलने दो.
उर्मिला जैन ‘प्रिया’
 

हमारी बेड़ियां

मेरी जेठानीजी की जिंदगी का आखिरी वक्त था. जेठानीजी के मम्मीपापा और भाईबहन नहीं थे. उन की भाभी थीं पर वे आने की स्थिति में नहीं थीं. कानपुर से जेठानीजी के चचेरे भाई और भाभी आए हुए थे.
सुबह के समय जेठानीजी के भाई मुझे बुला कर बोले, ‘‘तुम मेरी पत्नी के साथ बाजार चली जाओ क्योंकि इन्हें यहां का बाजार पता नहीं है. पर्ची में लिखा सभी सामान खरीदवा देना. सूती साड़ी वैसी ही दिलवाना जैसी दीदी पहनती थीं.’’
मैं साथ चल दी. रास्ते में मुझे पता चला कि इस समय जेठानीजी को जो वस्त्र पहनाया जाएगा या जो सामग्री प्रयोग होगी, वह मायके की होनी चाहिए.
शादी के बाद लड़की की सभी जिम्मेदारी उन के पति या ससुराल वाले उठाते हैं तो फिर विदा के इन आखिरी पलों में मायके पर आश्रित क्यों? वह भी ऐसे भाई पर जो अचानक जल्दी में अपनी दीदी के आखिरी दर्शन को आया हो?
यह संस्कार या सामाजिक बेड़ी मुझे बहुत कष्टकारी लगी. दूसरों को मानसिक पीड़ा न पहुंचाने के लिए यदि ऐसी मान्यताओं को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए, तभी समाज जागरूक कहलाएगा.
रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)
 
मेरी चाचीजी की मृत्यु के बाद उन के  अस्थिकलश विसर्जन के लिए उन के बेटे और परिवार के कुछ लोगों को बनारस जाना था.
बूआ का कहना था कि अस्थिविसर्जन बनारस में न किया जाए. कुछ वर्ष पहले ऐसा करने पर तीसरे और चौथे दिन ही परिवार में 2 लोगों की मृत्यु हो गई थी.
इस बात की शंका से यह तय हुआ कि यह काम इलाहाबाद जा कर संगम में ही किया जाना चाहिए. रेलवे आरक्षण न होने के कारण कार द्वारा इलाहाबाद जाना तय हुआ. जून का महीना था. 12 बजे दिन में इलाहाबाद के घाट पर पहुंच कर यह कार्य संपन्न हुआ. वापसी में धूप और गरमी से परेशान सब की तबीयत खराब हो गई. अंधविश्वास से बंधे लोग मुफ्त में अपनी राय दे कर दूसरों को भी भ्रमित कर देते हैं.
नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)
 
मेरी बहन जब अपने नवनिर्मित घर में एक गुरुजी को ले कर आई तो वे बोले, ‘‘बेटा, वैसे तो तुम्हारा घर बहुत अच्छा है परंतु घर के एक हिस्से में दोष है जिस को दूर करने के लिए तुम सवा माह तक बाल खोल कर हवन करो और पंडितों को 5 वस्तुओं का दान करो.’’
उस ने वैसा ही किया. एक दिन हवन करते समय उस के बाल हवन की आग की चपेट में आ गए और कुछ आग उन के कपड़ों में भी लगी. उन्हें बड़ी मुश्किल से मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सका.
प्रतिभा अग्निहोत्री, उज्जैन (म.प्र.) 

प्रेम गली अति सांकरी (अंतिम किस्त)

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे पापा की प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. सभी टोनेटोटकों के बावजूद मां उसे घर से बाहर नहीं निकाल पाईं. लेकिन मां द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर उसे घर छोड़ना पड़ा और इस तरह पापा दो परिवारों के मुखिया बन कर रह गए. लेकिन पापा ने हम से पल्ला झाड़ लिया. पढि़ए शेष भाग…

छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं.

पापा ने जो किया था वह एक सम्माननीय और संतुलित व्यक्ति का व्यवहार नहीं था. अपनी वासनात्मक लालसाएं पूरी करने के लिए पापा ने इस घर के 4 जनों को दिनरात घुलते चले जाने को विवश किया था. विवाहेतर संबंध तो ठीक थे मगर उस पर यह अतिरेक और कुचेष्टा कि उन की रखैल मिस्ट्रैस को इस घर में सम्मान मिले और वह हमारे साथ भी रहे. दैहिक जरूरतों के सामने घर जैसी पवित्र जगह को युद्ध की रणभूमि बना डाला था ऐसे में तो कुंठा और दमन ही हाथ आना था.

यह तो बहुत ही मार देने वाला काम था. मां की हिम्मत थी कि पिछले इतने सालों से वे किसी तरह घर को जोड़ कर के रखे हुए थीं. वे पस्त हो जातीं, टूट जातीं या भाग कर मायके चली जातीं तो हम बच्चों का भविष्य खराब हो जाता.

लगभग 1 साल बाद मां को मोटी रकम मिल गई और पापा को तलाक मिल गया. ‘उस ने’ अगले ही महीने पापा से शादी कर ली. मां ने पापा को माफ कर दिया यह समझ कर कि गलती तो उस युवती की है जो एक अधेड़ व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती.

तब मैं तय नहीं कर पाई कि सच में सारी गलती ‘उस की’ ही थी. क्या मां या पापा कुसूरवार नहीं थे? त्रिकोणीय संबंधों में अगर 1 को बलि का बकरा बनना पड़ता है तो बाकी के 2 लोग भी ज्यादा देर तक ऐसे अनैतिक संबंध को सहजता से नहीं जी पाते.

 

जल्दी ही उस मायावी औरत से पापा का मोहभंग हो गया. जब तक उस से पापा की शादी नहीं हुई थी तब तक पापा में उसे सारा आकर्षण दिखता था. गलत पते की चिट्ठी की तरह पापा 1 साल बाद हमारे घर के चक्कर लगाने लगे. भरापूरा घर, जिसे वे एक जवान नई औरत के लिए लात मार कर चले गए थे, अब हम बच्चेबच्चियों को देखने के बहाने फिर आने लगे थे.

पापा हमारे जन्मदिन पर बढि़या तोहफे लाते, हमें कपड़े ले कर देते. हमारे कालेज के बारे में पूछते. मेरे छोटे भाई में उन्हें खास दिलचस्पी रहती. हमें यकीन नहीं होता कि ये हमारे वही पापा हैं जिन्होंने हम से बात तक करनी बंद कर दी थी क्योंकि हम हमेशा मां की तरफदारी करते थे.

मां के मन की स्थिति कोई खास निश्चित नहीं थी कि अब पापा को ले कर वे क्या सोचती थीं. ‘उस ने’ जब पापा को हासिल कर लिया तभी से उन के रिश्ते के अंत का काउंटडाउन शुरू हो गया.

हम दोनों बहनों ने अच्छे संस्थानों से डिगरी ले ली थी और हमें अच्छी जौब मिल गई थी. पापा हम दोनों को ले कर कुछ ज्यादा ही वात्सल्य दिखाने लगे थे. मां के प्रति उन के मन में सोया प्यार जागने लगा था. अपनी मिस्ट्रैस की परवा कम ही करते थे. मां तो कहती कि

अब इस बूढे़ का दिल लगता है, दफ्तर की किसी अन्य स्त्री पर आ गया है

और हमारी आड़ ले कर यह अपनी मिस्ट्रैस से जान छुड़ाना चाहता है.

हो सकता है मां की बातों में कुछ सचाई हो मगर हमें अब सारा मामला समझ में आने लगा था. पापा इतनी ऊंची पोस्ट पर थे, अच्छा कमाते थे, फिर मां की उन से एक दिन भी नहीं बनी. क्या मां का कोई दोष नहीं था? मेरी बड़ी बहन का मानना था कि मां के हर समय शक करते रहने से पापा ऐसे बन गए.

खैर, मां और पापा का कोई समझौता नहीं हो सका. पापा पेंडुलम की तरह इधर से उधर, उधर से इधर आतेजाते रहे. मां ने उन्हें कोई तबज्जुह न दी. मां अब धार्मिक व अंधविश्वासी हो गई थीं. मेरे छोटे भाई ने जब डिगरी हासिल कर ली तो मां का ध्यान पूरा ईश्वर में लग गया. वे हर दुखसुख से ऊपर उठ गई थीं.

घर के मामलों में उन्होंने रुचि लेनी बंद कर दी थी. हमारी शादी के बारे में भी उन्होंने कभी सीरियसली नहीं सोचा. उन्होंने सबकुछ पापा और वक्त पर छोड़ दिया था. कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता है, यह मां को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था.

मां को मालूम था कि पापा अब भी घर में रुचि लेते हैं. मां को एक निश्चित रकम हर महीने मिल जाती. हम बच्चे भी अच्छा कमा रहे थे, कारों में घूमते थे.

जब मेरी बहन ने अपने दोस्त के साथ रहने का फैसला किया तो उस ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं मां को सारी बातों के बारे में ब्रीफ करूं. उस में हिम्मत नहीं थी यह सब कहने की. पापा को तो हम इतनी अंतरंग बातें कभी न बता सकते थे.

वे तो एक अवांछित मेहमान की तरह हफ्ते में 2-3 बार आते. खाने का समय होता तो खाना खा लेते. ज्यादातर वे संडे को आते या तब आते जब हम बच्चों में से कोई एक घर पर होता. मां से अकेले मिलने वे कभी नहीं आए. अब अजीब सा, नीरस सा रिश्ता बचा रह गया था दोनों के बीच में.

अब वे शराब बहुत पीने लगे थे. उन की मिस्ट्रैस की हमें कोई खबर नहीं थी, न ही कभी वे उस के बारे में बताते और न ही हमें कोई जिज्ञासा थी कुछ जानने की. हम उसे हमारा घर बरबाद करने में सौ फीसदी जिम्मेदार मानते थे. मां की असहनीय उदासी और तिलतिल कर जवानी को गलाने के पीछे पापा की मिस्ट्रैस का ही हाथ था.

बड़ी बहन के अफेयर और घर छोड़ कर जाने के फैसले के बारे में मैं ने मां से जिस दिन बात की उस दिन उन का मौन व्रत था. मां आजकल ध्यान शिविरों, योग कक्षाओं और धर्मगुरुओं के प्रवचनों में बहुत अधिक शिरकत करने लगी थीं.

मैं ने डरतेडरते बात शुरू की, ‘मां, शिखा के बारे में आप को बताना था.’

मां ने मुसकरा कर मुझे इशारे से सबकुछ कहने के लिए कहा. उन के होंठों पर बहुत दिनों बाद मैं ने हलकी मुसकराहट देखी. मैं थोड़ा कांप गई. लगता था कि शिखा की बात उन से छिपी हुई नहीं है.

मेरी बहन ने कहा था कि जो लोग धर्म में बहुत गहरी आस्था रखने लगते हैं और अत्यधिक पूजापाठ करने लगते हैं, उन्हें अपने प्रियजनों की बहुत सारी बातें पहले से ही पता चल जाती हैं. इसीलिए मेरी बहन ने मां से खुद कुछ पूछना या अपने होने वाले पति के बारे में बताना उचित नहीं समझा. उसे डर था कि कहीं मां उस के होने वाले पति के बारे में कोई अप्रिय भविष्यवाणी ही न कर दें तो फिर एक शक का बीज उस के मन में उगने लगेगा.

मां हम बच्चों की शादी से डरती क्यों थीं. शादी से उन का विश्वास उठ गया था जैसे. आखिरकार ‘शादी’ वह सामाजिक बंधन या करार है जो 2 लोग आपस में मिल कर करते हैं. उन्हें उम्मीद होती है कि उन की शादी हमेशा कायम रहेगी. अकसर ऐसा होता नहीं है. हालात बुरी तरह बिगड़ सकते हैं और बिगड़ते भी हैं. शादियां भ्रष्ट भी

हो जाती हैं. दूसरा आदमी या दूसरी औरत एक अच्छे जोड़े में दरार पैदा कर सकती है.

फिर भी इतिहास गवाह है कि शादी वह नायाब और चिरायु सामाजिक करार है जो हर युग, हर कौम और हर संस्कृति में कारगर व सफल रहा है. विवाह हमारे जीवन को स्थायित्व देता है मगर साथ ही, हम में कुछ लोगों को यह स्थायित्व डराता भी है. अपने जीवनसाथी के सामने शर्तहीन समर्पण हमें डराता है, संशय से भर देता है. हम सोचते हैं कि अगर उस ने हमारी निजता का मान न रखा या हमारी कसौटी पर खरा न उतरा या वह हमारे लिए सुपात्र सिद्ध न हुआ तो फिर हम कहीं के न रहेंगे.

 

विवाह स्मृतियों का एक पिटारा ही तो है जिस में अगर अच्छी और सुखद यादों के चित्र ज्यादा समेटे हुए हों तो उस विवाह को कामयाब कहा जा सकता है. विवाह पलों में सिमट सकता है, यह और बात है कि किन पलों को भुला दिया जाए और किन लमहों की यादों को करीने व खूबसूरती से संजोया जाए.

अब मैं जान गई हूं कि छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. एक कहावत है कि पत्थर अंतिम चोट से टूटता है मगर पहले की गई चोटें भी बेकार नहीं जातीं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं. इसीलिए भी शादी नहीं करनी चाहिए कि बच्चे चाहिए. बच्चे तो गोद भी लिए जा सकते हैं. किसी काल्पनिक सुरक्षा के लिए शादी करना बेकार है क्योंकि कोई ऐसी चीज है ही नहीं.

शादी में 2 अनजान लोग सारी उम्र साथ गुजारने का प्रण लेते हैं और एक धुंधले आकर्षण के साथ सारा जीवन साथ रहने को तैयार हो जाते हैं. कुछ डरपोक लोगों के लिए यह एक खतरनाक खेल है. कुछ अन्य के लिए यह एक मूर्खतापूर्ण कदम है. एक तर्कहीन यात्रा है. कुछ मान लेते हैं कि शादी एक पागलपन है, हताशा से उपजी विवशता है और अनिश्चितताओं से परिपूर्ण है.

मेरी बहन ने प्रेम कर के बिना किसी औपचारिक रस्म, कसम या शादी के अपने दोस्त के साथ रहने का मन बना लिया था. उसे विश्वास था कि टिकना हुआ तो यह बंधन भी खूब चलेगा वरना मांपापा की शादी में कितनी कसमें, रस्में और रिश्तेदार जुड़े थे, वह तो एक दिन भी ठीक से नहीं निभ पाई. बहन अपनी जगह ठीक थी.

मां बताती थीं कि पहले महीने के बाद से उन का पति उन का नहीं हो पाया. मगर अब समय बदल गया था. ऐसा आज समाज में व्यापक पैमाने पर हो रहा है. वर्जनाएं टूट रही हैं और हमारी नई पीढ़ी नए प्रयोग करने को तत्पर व आमादा है.

पापा अपनी दुनिया में मस्त थे और मां अपने दुख में त्रस्त थीं. ऐसे में हम दोनों बहनें शादी की उम्र से काफी आगे निकल गई थीं. अपनी उम्र के तीसरे दशक में जा कर हर कुंआरी लड़की एक आखिरी जोर लगाती है कि कोई जीवनभर का साथी मिल जाए. उम्र के तीसरे दशक के अंत में और चौथे दशक के शुरू होने तक उस का सौंदर्य अपने उतार पर आने लगता है. बालों में चांदी उतरने लगती है. सोने सी काया निढाल और परेशान सी दिखने लगती है.

मेरी बहन मुझ से कहती, ‘क्या करूं, कितने सालों से हम अपने लिए कोई फैसला लेने से रुके हुए हैं. घर का माहौल तो ठीक होने से रहा. क्यों न अब अपनी जिंदगी किसी रास्ते पर लगाई जाए.’

उस का मानना था कि प्रेम की कोई हद नहीं. प्रेम के समक्ष विवाह का कोई मेल नहीं. जो लोग प्रेम नहीं समझते वे कूपमंडूक हैं. जिंदगी केवल भावनाओं व आवश्यकताओं से ही नहीं चलती. रिश्तों में संवेदना और संजीदगी होनी चाहिए और एकदूसरे के प्रति एक मुकम्मिल प्रतिबद्धता भी.

मां का मौन सबकुछ कह गया.

बिना किसी औपचारिक विदाई के मेरी बहन ने अपने होने वाले पति के साथ रहना शुरू कर दिया. मुझे अपने प्यार के बारे में मां को बताना ठीक नहीं लगा. मैं भी उस दिन की राह तकने लगी जब मैं भी पक्के मन से फैसला कर के अपने प्रेमी निकुंभ के साथ उस के फ्लैट में चली जाऊंगी.

प्रेम के मामले में मैं कच्ची थी, नवीना थी, नवस्फुटा थी. मेरे कोमल हृदय की सारी नवीन और उग्र वासनाएं पंख फैला कर उड़ना चाहती थीं मगर मुझे अभी रास्ता मालूम नहीं था.

वह कहता था कि मैं बला की खूबसूरत हूं. ऐसा मुझे कई नौजवान कह चुके थे. मैं सुंदर थी, अच्छी डीलडौल की थी. भरीपूरी छातियां असल में लड़की के गले में लटकता फांसी का फंदा होता है जो उसे उन लड़कों की नजर में चढ़ा देता है जो उसे अपनी रबड़ की गुडि़या बनाना चाहते हैं. लड़की के हुस्न की तारीफ तब तक है जब तक उस में मर्द को अपनी ओर खींचने की कोशिश होती है. एक बार उस की छातियां लटक जाएं या सूख जाएं तो फिर उस से वितृष्णा उपजती है.

कुतूहल और अनभिज्ञतावश जरा दो कदम आगे की ओर अग्रसर होती तो लाज, डर और मां के लिहाज के मारे वापस लौट आती. मैं अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए व्याकुल थी मगर मां को छोड़ कर जाती तो मां की देखभाल कौन करता. वे तो दिनरात मीरा की तरह अपने कथित भगवान की भक्ति में ही खोई रहतीं. बहुत कम बोलतीं. मेरा भाई बहुत पहले ही विदेश चला गया था.

मेरी जिंदगी सरपट भाग रही थी. अब मैं और किसी राजकुमार का इंतजार नहीं कर सकती थी, कोई बड़े खानदान का रईस या फिल्मी हीरो की तरह

बांका सजीला. एक बार जिस के साथ प्यार हो गया अब तो उसी के लिए जीनामरना था.

मेरा हीरो आज के जमाने का बिंदास आशिक था, वह शादी के खिलाफ था. मैं अपने कौमार्य को कब तक बचाती. मेरी उम्र मेरे हाथों से फिसलती जा रही थी. फिर एक दिन मैं उस की रौ में बह ही गई. अपने बैडरूम में ले जा कर उस ने धीरेधीरे अपने और मेरे कपड़े निकाले और बड़ी खूबसूरत व कलात्मक ढंग से मुझे प्यार किया. उस ने कोई घबराहट, हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दिखाई.

उस ने आहिस्ताआहिस्ता मेरे बदन को यों सहलाया जैसे मैं इस दुनिया की सब से नायाब और कीमती चीज हूं. वह मुझे दीवानगी और कामुकता के उच्च शिखर तक ले गया और फिर वापस लौट आया. मैं इस दुनिया में कहीं बहुत ऊपर तैर रही थी. वह बड़े सधे ढंग से इस खेल का निर्देशन कर रहा था. खुद पर उस का नियंत्रण लाजवाब था. ठीक वक्त पर वह रुका. हम दोनों एकसाथ अर्श पर पहुंचे.

पापा ने मेरी बहन को तो कभी कुछ नहीं कहा मगर जब मेरे लवर से संबंध बने और वह जब अकसर घर आने लगा तो पापा ने एक दिन मुझे आड़े हाथ लिया. बहस होने लगी. मैं विद्रोह की भाषा में बोल पड़ी. पापा की मिस्ट्रैस को ले कर मैं ने कुछ उलटासीधा कह दिया. पापा ने मेरी खूब धुनाई कर दी. प्यार करने वाले तो पहले ही इतने पिटे हुए होते हैं कि उन्हें तो एक हलका सा धक्का ही काफी होता है उन की अपनी नजर से नीचे गिराने के लिए. पापा ने जब मुझे पीटा तब भी मां कुछ नहीं बोलीं. अब वे पूरी तरह से गूंगी हो चुकी थीं. कई बार मैं ने सोचा कि उन्हें किसी बढि़या ओल्डऐज होम में भरती करवा दूं. मां को पैसे की किल्लत न थी.

इस कशमकश में कब मेरे बालों में सफेदी उतर आई, पता ही नहीं चला. मां के गुजर जाने के बाद घर में मैं अकेली ही रह गई. सब लोगों ने अपनेअपने घोंसले बना लिए थे. सब लोग आबाद हो गए थे. एक मेरी और पापा की नियति में दुख लिखे थे.

पापा काफी वृद्ध हो गए थे. अपनी मिस्ट्रैस और उस से हुई बेटी से उन की कम ही बनती थी. पापा कभीकभार हमारे घर आते. अपने औफिस की एक अन्य बूढ़ी औरत के घर में रहते थे. मां के गुजर जाने के बाद पापा की वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गई थी. मां को जो खर्च देते थे वह भी बच जाता था.

फिर एक दिन पापा भी इस दुनिया से कूच कर गए. मेरी बहन विदेश चली गई थी. पापा की मौत के बारे में सुन कर 1 साल बाद आई. हम ने एकदूसरे को सांत्वना दी. भाई ने तो बरसों पहले ही हम लोगों से नाता तोड़ रखा था. वह बहुत पहले घर को बेचना चाहता था. मगर मैं यहां रहती थी. उस ने सोचा

था कि मैं इस मकान को अकेले ही हड़प लूंगी.

 

मैं भला मां को छोड़ कर कहां जाती. अपने मकान में मैं जैसी भी थी, सुख से रहती थी. मेरी नौकरी कोई खास बड़ी नहीं थी. दरअसल, अपने इश्क की खातिर मैं ने यह शहर नहीं छोड़ा था, इसलिए मेरी तरक्की के साधन सीमित थे यहां.

मैं अजीब विरोधाभास में थी. अपने आशिक के घर में जा कर नहीं रह सकती थी. मेरे जाने के बाद मां की हालत खराब हो जाती. वह पापा के कारण यहां आने से कतराता था. फिर भी हम ने कहीं दूसरी जगह मिलने का क्रम जारी रखा. हमारे प्यार की इन असंख्य पुनरावृत्तियों में हमेशा एक नवीनता बनी रही. हम ने एकदूसरे से शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. हमारे इश्क में शिद्दत बनी रही क्योंकि हमारे प्यार की अंतिम मंजिल प्यार ही थी.

उस के सामने मेरी कैफियत उस बच्चे के समान थी जो नंगे हाथों से अंगार उठा ले. उस ने मेरे विचारों, मेरी मान्यताओं और मेरी समझ को उलटपलट कर रख दिया था, जैसे बरसात के दौरान गलियों में बहते पानी का पहला रेला अपने साथ गली में बिखरे तमाम पत्ते, कागज वगैरह बहा ले जाता है.

मैं भी एक पहाड़ी नदी की तरह पागल थी, बावरी थी, आतुर थी. मुझे बह निकलने की जल्दी थी. मुझे कई मोड़, कई ढलान, कई रास्ते पार करने थे. मुझे क्या पता था कि तेजी से बहती हुई नदी जब मैदानों में उतरेगी तो समतल जमीन की विशालता उस की गति को स्थिर कर देगी, लील लेगी. उस के साथ रह कर मुझे लगा कि मैं फिर से जवान हो गई हूं. मेरी उम्र कम हो गई है. फिर उस की उम्र देख कर बोध होता कि मैं गलत कर रही हूं. प्यार तो समाज की धारा के विरुद्ध जा कर ही किया जा सकता है.

मैं डर गई थी समाज से, पापा से, अपनेआप से. कहीं फंस न जाऊं, हालांकि उस से जुदा होने को जी नहीं चाहता था मगर उस के साथ घनिष्ठ होने का मेरा इरादा न था या कहें कि हिम्मत नहीं थी.

 

मैं तो उसे दिल की गहराइयों से महसूस कर के देखना चाहती थी. मगर वह तो मेरे प्यार के खुमार में दीवानगी की हद तक पागल था. तभी तो मैं डर कर अजीब परस्पर विरोधी फैसले करती थी. कभी सोचती आगे चलूं, कभी पीछे हटने की ठान लेती. एक सुंदर मौका, जब मैं किसी को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करती थी, मैं ने जानबूझ कर गंवा दिया.

मैं ने उसे अपमानित किया. उसे बुला कर उस से मिलने नहीं गई. वह आया तो मैं अधेड़ उम्र के सुरक्षित लोगों से घिरी बतियाने में मशगूल रही. उस की उपेक्षा की. आखिरकार, मैं ने अपनेआप को एक खोल में बंद कर लिया, जैसे अचार या मुरब्बे को एअरटाइट कंटेनरों में बंद किया जाता है. अब मुझे इस उम्र में जब मैं 58 से ऊपर जा रही हूं, उन क्षणों की याद आती है तो मैं बेहद मायूस हो जाती हूं. मैं सोचती हूं कि मैं ने प्यार नहीं किया और अपनी मूर्खता में एक प्यार भरा दिल तोड़ दिया.

बच्चों के मुख से

मैं नीलगिरी शहर में अपने परिवार से दूर रह कर नौकरी करता हूं. मेरी पत्नी 2 बच्चों व मेरे मातापिता के साथ लखनऊ में रहती है. मैं साल में 2 बार होली और दीवाली के मौके पर लखनऊ जाता हूं.
पिछली दीवाली को जब मैं लखनऊ गया तो धनतेरस के अवसर पर मेरी पत्नी ने वाश्ंिग मशीन लेने की इच्छा जाहिर की. मैं वाश्ंिग मशीन घर ले आया.
मेरी पत्नी ने वाशिंग मशीन में कपड़े डाल कर, उस के ऊपर ढक्कन लगा दिया और मशीन चालू कर दी. कुछ समय बाद ढक्कन खोल कर देखा तो कपड़े एकदम साफ हो गए. कपड़ों को ड्रायर में डाल दिया. कुछ समय बाद कपड़े सूख भी गए.
इन सब कार्यों को मेरा 6 वर्षीय बेटा शशांक बड़े ध्यान से देख रहा था. जब पत्नी ने उस से स्नान करने को कहा तो वह कहने लगा कि मम्मी, मुझे भी वाश्ंिग मशीन के अंदर डाल दो, ऊपर से ढक्कन लगा कर मशीन चालू कर दो. मैं भी साफ हो जाऊंगा. उस की बात सुन कर हम सब हंसने लगे.
विवेक कुमार यादव, नीलगिरी (तमिलनाडु)
 
एक रोज रात को हम दूरदर्शन पर  प्रसारित समाचार देख रहे थे. उस समाचार बुलेटिन में यह बारबार दोहराया जा रहा था : ‘भारी वर्षा से दिल्ली और एनसीआर का तापमान गिरा.’
हमारा नन्हा दिव्यांश कहने लगा, ‘यह दूरदर्शन वाले कभी भी पूरी खबर नहीं देते. वे यह तो बता रहे हैं कि तापमान गिरा है परंतु यह नहीं बता रहे कि इस के गिरने से उन्हें कितनी चोटें आईं या उसे किस अस्पताल में दाखिल कराया गया.’
बच्चे के मुख से यह सुन हम हंस पड़े.
ओमदत्त चावला, पश्चिम विहार (न.दि.)
 
कुछ समय पहले मैं अपने बेटे प्रतीक को ले कर मायके जमालपुर (बिहार) पहुंची. प्रतीक को गोद में लिए मैं ने मां के चरणस्पर्श किए. 
बेटा 3 वर्ष का था. उसे गोद में देखते ही अम्मा बिफर कर बोलीं, अरे, यह क्या? मेरा नाती इतना सूख क्यों गया है? खानेवाने का ध्यान नहीं रखती?
मां मुझे फटकार लगाने के मूड में थीं कि प्रतीक बीच में ही तपाक से बोल उठा, ‘‘नहींनहीं नानी, ऐसी बात नहीं है. मम्मी तो हमें ठूंसठूंस कर जबरदस्ती खिलाती रहती हैं. दरअसल, अभी मैं गाड़ी से आया न, उसी से सूख गया हूं. मम्मा जब मुझ को नहलाएंगी तो मैं गीला हो जाऊंगा.’’
उस की बात सुन कर घर के सभी सदस्य ठहाका मार कर हंस दिए.
डा. श्वेता सिन्हा, धनबाद (झारखंड) 

दोस्त

 
बुरे हैं वे दोस्त 
जो खूबियों पर दाद दें
वो दुश्मन अच्छा है 
जो खामियों पर नजर रखे
 
फुटकर में बेचता हूं मैं 
अपनी जिंदगी
खरीद ले कोई मगर 
संवार कर रखे.
बलवीर सिंह पाल

दिन दहाड़े

मैं सुबहसुबह डेयरी पर दूध लेने गई. वहां 14-15 साल की एक लड़की थी. मैं ने उसे 100 रुपए का नोट दिया व 1 लिटर दूध लिया.
उस ने मुझे कम पैसे लौटाए, तो पूछने पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप ने 50 रुपए का नोट दिया था.’’ पर चूंकि मेरे पास अकेला 100 रुपए का नोट था इसलिए मैं भी अड़ी रही कि नहीं, मैं ने 100 रुपए का ही नोट दिया है.
उस लड़की ने आगेपीछे व बौक्स में फिर देखा और कहा, ‘‘नहीं आंटी, आप ने मुझे 50 रुपए का नोट दिया है,’’ उस ने 50 रुपए का नोट दिखाते हुए कहा, जो उस के बौक्स में पहले से पड़ा हुआ था. तब मैं ने उस से कहा, ‘‘रुको, मैं अंदर आ कर देखती हूं.’’
इस पर वह झट से नीचे झुकी और बोली, ‘‘हां आंटी, नोट पैर के पास पड़ा हुआ है. मुझे दिखा नहीं.’’
करीब 20 दिन बाद फिर मैं उसी डेयरी पर दूध लेने गई. वही लड़की बैठी हुई थी. मैं ने फिर 100 रुपए का नोट दिया और 1 लिटर दूध लिया. उस ने मुझे कम पैसे दे कर कहा, ‘‘आंटी, आप ने 50 रुपए का नोट दिया है.’’
मुझे पिछली बार की घटना याद आई और बहुत तेज गुस्सा भी आया. मैं ने उस से कहा, ‘‘अभी 20 दिन पहले भी तुम ने मुझ से यही कहा था कि आंटी, आप ने 50 रुपए का नोट दिया है जबकि 100 रुपए का नोट तुम्हारे पैर के पास मिला,’’ मेरे ऐसा कहने पर वह जोरजोर से रोने लगी. दुकान पर लोग इकट्ठे होने लगे तो सब से बोली कि आंटी मुझे 50 रुपए का नोट दे कर कहती हैं कि 100 रुपए का नोट दिया है और मुझे झूठा साबित कर रही हैं. दुकान पर भीड़ जमा होने के कारण मैं कुछ न बोल पाई और घर आ कर सोचती रही कि इतनी छोटी लड़की किस तरह बड़ी होशियारी से अपने से बड़ों को ठग रही है.
उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)
 *
एक दिन शाम के समय एक अधेड़  सज्जन मेरी मैडिकल शौप पर आए और लगभग 180 रुपए की दवाएं खरीदीं. और जब भुगतान की बारी आई तो  उन्होंने सारी जेबें टटोल कर लगभग  30 रुपए निकाले और बोले, ‘‘मेरे पास अभी केवल 30 रुपए ही हैं. अगर आप मुझ पर विश्वास करें तो 150 रुपए मैं कल दे जाऊंगा.’’ मेरे इनकार करने पर उन्होंने अपनी जेब से केस सहित चश्मा निकाला और बोले, ‘‘पैसों के एवज में आप कृपा कर के मेरा चश्मा रख लें, मैं कल बाकी पैसे दे कर अपना चश्मा वापस ले जाऊंगा.’’
मैं ने उन की उम्र का लिहाज करते हुए उन की बात पर भरोसा कर के चश्मा रख कर दवाएं दे दीं. वह दिन था और आज का दिन है, वे आज तक अपना चश्मा लेने नहीं आए. इस तरह उन्होंने बैठेबिठाए मुझे
150 रुपए का चूना लगा दिया.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.) 

बाकी यादें

आंगन का वो पेड़ नहीं है
कुएं की वो मेड़ नहीं है
छिपाछिपी का खेल थम गया
जाने कब मैं बड़ा हो गया
 
उस के मुखड़े को देखदेख के
आंगन, चांद उतर आता था
उस की धानी चूंदर से ले कर
धरती का रंग बदल जाता था
 
अलमारी में कागज के नीचे
मिले, आज कुछ कागज पीले
स्याही थोड़ी फैल गई थी
पर रंगों में कमी नहीं थी
 
पीला वर्क भी कथा कह गया
स्पर्श पुराना नया हो गया
स्मृतियों का लगा था मेला
बारबार फिर आया रेला
 
छलता, एहसास उस क्षण का
छूना अधरों से अधरों का
विस्मय रहस्य कुछ पल का
पिघल जाना दो जानों का
 
कुछ संदेश अधूरे थे
कुछ वाक्य हुए न पूरे थे
कुछ तो है रीतारीता
कुछ तो है बीताबीता.
डा. राजीव जैन
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