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कैटरीना रितिक की बैंगबैंग

बार्बी डौल कैटरीना  ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था तो उन के नाम को कोई नहीं जानता था. फिर ऐसा लगा जैसे कोई जादू की छड़ी घूमी और एक ही पल में कैट सब से फेमस अदाकारा बन गईं. आखिर उन की इस सफलता का राज क्या है? लोग कहते हैं कि सलमान का सब से बड़ा हाथ है कैट को पहचान दिलाने में. अक्षय कुमार ने भी उन्हें प्रमोट किया है, पर कैट इन सभी बातों से सहमत नहीं हैं. वे कहती हैं कि न सल्लू न अक्की, इंडस्ट्री में  हर इंसान की सफलता के पीछे उस की  कड़ी मेहनत और क्षमताओं का हाथ होता है. पर इस समय तो मैडम रणबीर को छोड़ कर रितिक के साथ ‘बैंगबैंग’ की शूटिंग में व्यस्त हैं.?

 

आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हर सियासी दल प्रचार के रथ पर सवार हो कर झूठे विकास और खोखले वादों का ढोल पीटने में मसरूफ है. प्रचार में जाति, धर्म, क्षेत्र, धनबल और बाहुबल के घिसेपिटे मुद्दे हैं जबकि जनता से जुड़े सामाजिक मसले गायब हैं. मौकापरस्ती, विकास के फर्जी आंकड़ों और धर्म व क्षेत्र की बिसात पर बिछे चुनाव प्रचार की असलियत से परदा उठा रहे हैं जगदीश पंवार.
16वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव की रणभेरी बजते ही मजेदार राजनीतिक मजमेबाजी शुरू हो गई है. कमाल की कलाबाजियां देखी जा रही हैं. राजनीतिबाजों के बचकाने, मूर्खाने और जोकराने अंदाज खूब लुभा रहे हैं. तमाम चोर ईमानदारी पर प्रवचन दे रहे हैं. बेईमान बेईमानी के खिलाफ जबकि  झूठे, काहिल और भ्रष्टाचारी सचाई व नैतिकता के भाषण देते घूम रहे हैं. ठग परोपकारी ईमानदार की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं. एकता, भाईचारे के नारे हैं तो दूसरी ओर जातीयता, सांप्रदायिकता के मंत्र पढे़ जा रहे हैं, एकदूसरे के अंतर्विरोध और टांगखिंचाई के नजारे हैं.
भारतीय राजनीति में जीत के लिए सब से असरदार तत्त्व जाति, धर्म, क्षेत्र, धनबल, बाहुबल जैसे पुराने हथियार मौजूद हैं. पुराने सियासी ठग फिर से ताल ठोंक रहे हैं. परस्पर विरोधी जबानी जंग जारी है. गालियों का शोर है. देश में बड़ा ही विचित्र दृश्य उपस्थित है.
चारों ओर मौकापरस्ती है. दलबदल का खेल खुल कर खेला जा रहा है. महज सत्ता के लिए नेता इधर से उधर हो रहे हैं. नीतियां, सिद्धांत ताक पर हैं.
खोखले वादे
चुनावों की इस आपाधापी में अगर गायब हैं तो वे हैं इस देश, समाज और जनता की असली तरक्की से जुड़े सामाजिक मुद्दे. लगता है राजनीतिक दलों को सामाजिक मुद्दों से सरोकार नहीं है. तरक्की के नाम पर एअरपोर्ट, चमचमाती सड़कें, पुल, मैट्रो, कंप्यूटर, इंटरनैट, मौल्स, ऊंची इमारतों के निर्माण जैसी उपलब्धियां गिनाई जा रही हैं. दशकों से शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, भोजन, रोजगार की हालत ज्यों की त्यों है. जमीनी हकीकत सरकारों के विकास के  झूठे कागजी आंकड़ों की पोल खोल रही है.
राजनीतिक दलों के प्रचार में वही पुराने खोखले वादे हैं, थोथे नारे हैं.  झूठी लहर पैदा करने के तमाम प्रपंच रचे जा रहे हैं. गलतियों पर घडि़याली आंसू बहाए जा रहे हैं. मतदाताओं के सामने भ्रमजाल के पासे फेंके जा रहे हैं.  झूठे सब्जबाग में जनता फंसती भी दिखाई दे रही है.
भाजपा का दावा
चुनावी प्रचार में देश की 2 सब से बड़ी पार्टियों में से भारतीय जनता पार्र्टी आगे दिख रही है. वह खुद को सत्ता की सब से प्रबल दावेदार मान रही है. पार्र्टी नेताओं का दावा है कि उन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की हवा बह रही है और चुनाव नजदीक आतेआते यह बहाव सुनामी में बदल जाएगा. लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं में अंदरूनी कलह भी जारी है.
भाजपा धार्मिक प्रतीकों, भावनाओं के जरिए वोट पाना चाहती है. धर्म को भुनाने में माहिर भाजपा ने उत्तर प्रदेश में दर्जनों रथनुमा वाहनों को जनता के बीच उतारा है ताकि धर्मभीरु लोग रथों को देख कर पार्टी को वोट दें.
संप्रग सरकार से पहले केंद्र में भाजपा राज कर चुकी है. तब पार्टी अयोध्या में राममंदिर का वादा कर के सत्ता में आई थी. 28 दलों का कुनबा जोड़ कर भाजपा की अगुआई में एनडीए की गठबंधन सरकार बनी. यह बात अलग है कि बीचबीच में कुछ दल छोड़ कर जाते रहे पर जोड़तोड़ कर के इस गठबंधन ने सत्ता में करीब 6 साल पूरे कर लिए. उस दौरान 2004 के आम चुनावों से पहले उसे लगा कि उस की सरकार ने देश में बहुत विकास करा दिया है. भाजपा ने खुद ही ‘फील गुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया पर विकास का गुब्बारा हवा से भरा हुआ निकला. उस कार्यकाल में कोई सामाजिक मुद्दा नहीं उठाया गया.
भाजपा द्वारा मोदी की  झूठी लहर उत्पन्न करने की कोशिशें की जा रही हैं. इस के लिए संघ का पूरा अमला और पार्टी के गोएबल्स यानी आईटी विभाग से जुड़े महारथी सोशल मीडिया से ले कर टैलीविजन चैनलों और प्रिंट मीडिया तक में पैठ बनाने, डरानेधमकाने व विरोधी पार्टी के भारी पड़ते प्रचार को ले कर हल्ला मचाने के लिए तैनात हैं. मोदी के प्रचार का कोई भी हथकंडा हाथ से जाने नहीं दिया जा रहा है. देशभर में चाय पार्टियों का दौर चला. चाय पिला कर वोट पाना मतदाताओं को घूस देने की श्रेणी में आ गया और चुनाव आयोग ने डंडा दिखाया तो अब नए तरीके खोजे जा रहे हैं.
भाजपा या कांग्रेस बनारस जैसे धार्मिक अंधविश्वास के गढ़ों को तोड़ने की कोई बात नहीं कर रहीं. बनारस को बेंगलुरु बनाने की योजना नहीं है. उन के अनुसार तो बस मंदिरों का विकास हो.
केजरी के सवाल
मोदी पर दंगों के अलावा कौर्पोरेट घरानों से सांठगांठ करने के आरोप भी लग रहे हैं. आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल भाजपा के मोदी और कांग्रेस के राहुल गांधी पर बारबार आरोप लगा रहे हैं कि उन का अंबानी से क्या रिश्ता है? उन के हवाई जहाज, हैलिकौप्टर दौरों का खर्र्च कौन उठा रहा है? केजरीवाल कहते हैं कि उन के हवाई दौरों का खर्च अंबानी और अडानी उठा रहे हैं लेकिन उन के इस आरोप का न तो राहुल गांधी से जबाव देते बनता है न मोदी से.
भाजपा के बाद कांग्रेस चुनाव प्रचार में खूब धन  झोंक रही है. देशभर में कैंपेन के लिए पार्टी ने अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी को उतारा है लेकिन देश की सब से पुरानी पार्टी के पास से भी तरक्की के वास्तविक मुद्दे गायब हैं.
भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस के पास कहने को कुछ नहीं है. इसी वजह से उस के प्रति देश में गुस्से का माहौल है. राहुल गांधी अपने परिवार के बलिदान की कहानियों के साथ सरकार के विकास कार्यों का बखान भी करते हैं पर महंगाई, भ्रष्टाचार से ले कर उन सामाजिक मसलों पर मौन हैं जिन में असली विकास छिपा हुआ है.
राहुल गांधी कुलियों, रेहड़ीपटरी वालों, महिलाओं, आटो वालों, नमक मजदूरों से मिल रहे हैं पर उन के लिए क्या करेंगे, कुछ पता नहीं. वे बदलाव की बातें तो करते हैं पर कैसे करेंगे, इस का जवाब उन के पास नहीं है. राहुल उन लोगों से यह नहीं पूछ रहे हैं कि वे लोग बीड़ी, तंबाकू, शराब का सेवन करते हैं तो उस में कितना धन खर्च कर देते हैं, उसे बंद करना चाहिए.
राहुल गांधी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर प्राइमरी के जरिए लोकसभा उम्मीदवारों का चयन कर रहे हैं पर इस से घूमफिर कर वही पुराने ठग सामने आ रहे हैं. पार्टी नए, योग्य उम्मीदवारों को सामने नहीं ला पाई. नए विचारों, नए लोगों को चुनावों में नहीं लाया जा रहा, पुरानों से ही काम चलाया जा रहा है.
चुनावों से ऐन पहले देश की एक बहुत बड़ी जाट बिरादरी को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर लिया गया है. महज जाटों का वोट पाने की खातिर.
कांग्रेस के बहुप्रचारित नारों पर गौर करें, ‘तोड़ें नहीं, जोड़ें’, ‘मैं नहीं, हम’ और ‘कट्टर सोच नहीं, युवा जोश’ आदि. चुनावी सभाओं, रैलियों में इन नारों के साथ सामाजिक सुधार कैसे करेंगे, इस पर कांग्रेस के नेता विस्तार से खुलासा नहीं करते. सिर्फ थोथे नारे ही नारे हैं.
तीसरा मोरचा
तीसरे मोरचे की बात करें तो हर 5 साल बाद यह सर्कस जुटता है. बीचबीच में टूटता जाता है. मोरचे की बात करने वाले नेताओं के पास सिर्फ एक एजेंडा है, सत्ता पाना. इस में सब के सब प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं. इस बार 11 दलों को मिला कर बने मोरचे से जयललिता निकल गईं. वामदलों की अगुआई में बने मोरचे की हवा निकल गई. इन क्षत्रपों में से कोई भी 30 से 35 सीटें जीतता हुआ नहीं दिखता. अब तो यह कहा जाने लगा है कि मोरचा चुनाव के बाद बनेगा.
देश में विकास के पुल भ्रष्टाचार के खंभों पर टिके हुए हैं. दागी जनप्रतिनिधियों पर कांग्रेस और भाजपा मौन हैं. एडीआर की मौजूदा रिपोर्ट के अनुसार, इस समय कांग्रेस के 48, भाजपा के 46, शिवसेना के 8, जद-यू के 7, बसपा के 6, सपा के 6, डीएमके के 4, अन्नाद्रमुक के 4, तृणमूल के 3, कांग्रेस के 3, सीपीआई के 3 व अन्य 21 सांसद दागी हैं. इसी तरह विधानसभाओं में 1 हजार से अधिक विधायक अपराधी हैं.
मुद्दे
कोई भी पार्टी यह नहीं कहती कि धर्म के नाम पर अरबों रुपए की जो सब्सिडी दी जा रही है वह बंद कर के शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे जरूरी कामों में खर्च की जानी चाहिए.
एक भी दल लोकतांत्रिक तौरतरीके से संचालित नहीं है. भाजपा की नीतियां और नेतृत्व संघ द्वारा थोपा जाता है. कांग्रेस एक परिवार की छतरी के नीचे खड़ी है. क्षेत्रीय दलों में व्यक्तियों और परिवारों की तानाशाही कायम है. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, राजद, शिवसेना, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, अकाली दल जैसे दलों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है.
राजनीतिक दलों ने विकास का अर्थ सिर्फ ऊपरी दिखावा मान लिया है. गरीबी, पिछड़ापन, शिक्षा, स्वास्थ्य, छुआछूत, धार्मिक व जातीय भेदभाव, धार्मिक अंधविश्वास, भ्रष्टाचार, नशाखोरी, जुआ, सट्टेबाजी, अकर्मण्यता, धार्मिक कट्टरता, महिलाओं के प्रति पुरातन सोच, पर्यावरण जैसे मुद्दों को ले कर राजनीतिक दलों के पास कोई नीति नहीं है. चुनावों में इन मसलों पर कोई चर्चा ही नहीं होती. राजनीतिक दलों के एजेंडे में ये विषय होते ही नहीं हैं क्योंकि इन्हें अनावश्यक मान लिया गया है.
चुनावों में कोई भी दल संसद में अंधविश्वास उन्मूलन बिल लाने की बात नहीं कर रहा है. धार्मिक व्यापार, धंधेबाजी, ठगी,  झूठी भविष्यवाणियों के प्रचार, कार्यक्रमों पर रोक की मांग नहीं की जा रही. शिक्षा में असमानता, क्वालिटी में सुधार का एजेंडा नहीं है. नशाखोरी रोकने की बातें जनता के बीच चुनावी प्रचार में नहीं कही जा रहीं. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं, कन्याभ्रूण हत्या, लैंगिक भेदभाव, समलैंगिक संबंधों में आजादी, सामाजिक अपराधों के पीछे के कारण, धर्म के नाम पर बढ़ती अकर्मण्यता रोकने, पर्यावरण, लाटरी, सट्टा, जुआ जैसे मुद्दों पर हर राजनीतिक दल चुप है.
बुराइयों को बढ़ावा
राजनीतिक दल और सरकारें देश में व्याप्त सामाजिक बुराइयों में कमी लाने की कोशिशें करने के बजाय उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं. देश में शराब व अन्य नशों को बंद करने के वादों के बजाय चुनावों में मतदाताओं को शराब बांटी जाती है.
राजनीतिक दलों के पास कोई ठोस और सही शिक्षा नीति नहीं है. शिक्षा के मानदंड आज भी वही हैं जो वर्णव्यवस्था में आधारित थे. गरीबों, दलितों, पिछड़ों के लिए स्कूलों में भेदभाव व्याप्त है. पैसे वालों के लिए शिक्षा है पर केवल बिकाऊ डिगरियां हैं. आंकड़े बताते हैं कि विश्व के टौप शिक्षण संस्थानों की सूची में विश्वगुरु भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. होंगे भी कैसे? हमारी शिक्षा की ऊंची दुकानें केवल लूट कारोबार की स्थली हैं जो अधपढे़, परचूनी व्यापारियों द्वारा चलाई जा रही हैं.
यह ठीक है कि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आंदोलन चलाना सरकारों का नहीं, सामाजिक संगठनों का काम है पर सामाजिक संगठनों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों पर सरकारें कानून बना कर रोकथाम तो कर सकती हैं. महाराष्ट्र में जादूटोना जैसे अंधविश्वास पर अंधश्रद्धा निर्मूलन संस्था द्वारा वर्षों से आंदोलन चलाया जा रहा है. वहां मांग की जाती रही कि इसे रोकने के लिए कानून बनाया जाए पर हर दल की सरकार ने इस पर अड़ंगेबाजी लगाई. पिछले साल इस संस्था के प्रमुख डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या किए जाने के बाद महाराष्ट्र विधानसभा में बिल लाया गया पर अभी तक हत्या करने वालों को पकड़ा नहीं जा सका.
सामाजिक मुद्दों की अनदेखी कर के कोई भी पार्टी तरक्की का दावा नहीं कर सकती. यह काम राजनीतिक दल नहीं कर सकते. ये सामाजिक मुद्दे तो जनता को वोट मांगने के लिए आने वालों के सामने उठाने चाहिए. जो इन पर काम करने को राजी हो, उसे ही चुनना चाहिए.

टोटल सियापा

‘सियापा’ पंजाबी का शब्द है, जिस का मतलब है रोनाधोना. पंजाबी भाषा में कहें तो सियापा तब किया जाता है जब घर में कोई बुरी घटना घटी हो. ‘टोटल सियापा’ फिल्म, जैसा कि टाइटल से स्पष्ट है, में सिर्फ सियापा है, इस के अलावा कुछ नहीं.

फिल्म के हीरोहीरोइन अली जफर और यामी गौतम ज्यादा जानेपहचाने नहीं हैं. अली जफर की 2-3 फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं, जिन में ‘मेरे ब्रदर की दुलहन,’ ‘लंदन पैरिस, न्यूयार्क’ और ‘चश्मे बद्दूर’ प्रमुख हैं. यामी गौतम फेयर ऐंड लवली क्रीम के विज्ञापन से फिल्मों में आई है और उस की एक फिल्म ‘विक्की डोनर’ प्रदर्शित हो चुकी है.

फिल्म में इस जोड़ी ने दर्शकों को बहुत ज्यादा आकर्षित नहीं किया है. ‘टोटल सियापा’ की कहानी एकदम सपाट है, फिल्म की रफ्तार भी धीमी है.

अमन (अली जफर) और आशा (यामी गौतम) लंदन में रहते हैं और एकदूसरे को पसंद करते हैं. आशा एक दिन अमन से अपने घर चलने को कहती है. अमन उस के घर नहीं जाना चाहता क्योंकि उसी दिन उसे लंदन पुलिस ने पाकिस्तानी होने के नाते पूछताछ के लिए रोका था. आशा की जिद करने पर वह आशा के साथ चला जाता है. आशा की मां (किरन खेर) एक पाकिस्तानी को अपना दामाद नहीं बनाना चाहती. आशा के भाई को भी पाकिस्तानियों से नफरत है. आशा के पिता (अनुपम खेर) उस वक्त घर में नहीं हैं. अमन वहीं आशा के घर में रुक जाता है. लेकिन जब आशा के पिता आते हैं तो पूरे घर में सियापा शुरू हो जाता है.

इस फिल्म में यामी गौतम ओवरऐक्ंिटग की शिकार हुई है. अनुपम खेर के किरदार को ज्यादा मौका नहीं मिला है, किरन खेर की ऐक्टिंग अच्छी है. फिल्म का निर्देशन साधारण है, गीतसंगीत में दम नहीं है. छायांकन ठीक है.

क्वीन

कंगना राणावत की एक फिल्म आई थी ‘तनु वेड्स मनु’. उस फिल्म में कंगना ने खुल कर ऐक्टिंग की थी. उस का खिलंदड़ापन और डांस दर्शकों ने खूब ऐंजौय किए थे. कंगना का वही खिलंदड़ापन आप ‘क्वीन’ में भी पाएंगे. वैसे फिल्म देखते वक्त वह कहीं से भी क्वीन नहीं लगती. दिल्ली की एक मिडल क्लास लड़की लगती है, न कोई मेकअप, न चेहरे पर लुनाई. घर में दादी, मांबाप और भाई की हां में हां मिलाने वाली, ज्यादा अंगरेजी आती नहीं, क्योंकि ज्यादा पढ़ीलिखी जो नहीं है. लेकिन फिर भी है बहुत स्वीट. यह ‘क्वीन’ आप को निराश नहीं करेगी, आप को हंसाएगी और खुश कर देगी.

पूरी फिल्म कंगना ने संभाल रखी है. क्या आप ने कभी सुना है कि कोई लड़की अकेली ही अपने हनीमून पर विदेश गई हो, वह भी हनीमून के लिए पाईपाई जोड़ कर, बैंक में रखे पैसे ले कर? नहीं न. ‘क्वीन’ में आप देखेंगे तो मजा आएगा.

फिल्म की कहानी की शुरुआत होती है शादी के माहौल से. रानी (कंगना) की शादी लंदन से लौटे युवक विजय (राजकुमार राव) से तय हुई है. घर में मेहमान जुटे हैं. मेहंदी की रस्म हो रही है. तभी शादी से एक दिन पहले विजय शादी से मना कर देता है. रानी पर मानो पहाड़ टूट पड़ता है. जब आंसू सूखते हैं तो सब से पहले वह शादी के लिए पैक किए गए लड्डू खाती है, उस के बाद तय करती है कि बैंक में जोड़े गए पैसे निकाल कर अकाउंट बंद करा कर वह पैरिस और एम्सटर्डम अकेली ही हनीमून मनाने जाएगी. उस के मम्मीपापा उसे जाने देते हैं. पैरिस में उसे काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है. तभी उस की मुलाकात वहां एक हाफ इंडियन लड़की विजयलक्ष्मी (लिजा हेडन) से होती है, जो एक होटल में काम करती है. उस का एक बेटा भी है, जो उस के बौयफ्रैंड से है. रानी उस के साथ खुल कर मिलती है, मस्ती करती है और खिलखिलाती है.

अब रानी एम्सटर्डम रवाना होती है. वहां उसे 3 युवकों के साथ कमरा शेयर करना पड़ता है. इन युवकों में एक जापानी है, एक अंगरेज और एक अफ्रीकी. जल्दी ही ये तीनों उस के दोस्त बन जाते हैं. इधर दिल्ली में राजेश की अक्ल ठिकाने आती है तो वह रानी को ढूंढ़ता हुआ एम्सटर्डम पहुंचता है. वह रानी को वापस चलने को कहता है मगर रानी उसे समझाबुझा कर लौटा देती है. कुछ दिनों बाद दिल्ली वापस लौट कर रानी राजेश को सगाई की अंगूठी लौटा कर बे्रकअप कर लेती है. अब वह आत्मविश्वास से भरपूर लगती है.

फिल्म की इस कहानी में रानी के आत्मविश्वास को सिलसिलेवार डैवलप होते दिखाया गया है. कंगना राणावत ने अपनी बेहतरीन ऐक्ंिटग से अपने किरदार को संवारा है. शुरू में तो वह एकदम सीधीसादी लड़की लगी है लेकिन पैरिस पहुंच कर मानो उस के सपनों को पर लग जाते हैं. वहां वह शराब पीती है, सड़कों पर अपनी दोस्त के साथ मस्ती करती है, डांस करती है. और तो और, एक गुंडे द्वारा उस का पर्स छीनने पर उस का मुकाबला भी करती है. वह अपनी वर्जिनिटी को भूल कर लिप टु लिप किस भी करती है. निर्देशक विकास बहल ने यह सब बहुत खूबसूरती से दिखाया है.

निर्देशन अच्छा है. कहानी व पटकथा भी कसी हुई है. क्लाइमैक्स में रानी जब राजेश को गले लगाती है तो लगता है जैसे सबकुछ ठीक हो गया. लेकिन जब वह सगाई की अंगूठी लौटाती है तो दर्शक सन्न रह जाते हैं.

फिल्म को कई जगह जबरन खींचा गया लगता है. लिजा हेडन का काम भी अच्छा है. राजकुमार राव कंगना के मुकाबले कमजोर है. गानों का फिल्मांकन अच्छा है परंतु गाने याद नहीं रह पाते. छायांकन अच्छा है. पैरिस और एम्सटर्डम की लोकेशनें सुंदर बन पड़ी हैं.

 

गुलाब गैंग

बौलीवुड में दलितों और निम्नजाति वालों पर उच्च जाति वालों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों पर तो कई फिल्में बनी हैं परंतु पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर ज्यादा फिल्में नहीं बन पाई हैं, यदाकदा किसी फिल्म में इस तरह की एकाध घटना दिखा दी जाती है. लेकिन ‘गुलाब गैंग’ में निर्देशक सौमिक सेन ने महिलाओं द्वारा अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने की बात कही है.

महिलाओं पर हो रहे अत्याचार आज की बात नहीं है. ये अत्याचार तो पौराणिक काल से होते आए हैं. हमारे धर्मग्रंथ महिलाओं को निकृष्ट बताते हैं, उन्हें पाप की गठरी तक कहा गया है. यजुर्वेद में तो महिलाओं की तुलना पशुओं तक से की गई है और उन का घोड़े से संभोग कराने की बात कही गई है.

यथा : महीधरभाष्य: तौ त्वमहं च

उभौ चतुर: पद: पादनांवा संप्रसारयाव तव द्वौ यम द्वौ एवं संवेशन प्रकार… अधीवासेनाश्वमहिष्यौ छादयति अध उपरिष्टाच्चाच्छाद-नक्षमंवासोऽधीवास:… महिषी स्वयमेवाश्व शिश्नमाकृष्य स्वयोनौ स्थापयति. अश्वदेवत्यम्. वाजी अश्वो रेतो दधातु मयि वीर्य स्थापयतु कीदृशोऽश्व: वृषा सेक्ता रेतोधा: रेतो  दधातीति रेतोधा: वीर्यस्य धारयिता.    (यजुर्वेद 23/21)

अर्थात हे घोड़े और मुख्य पत्नी, तुम दोनों 2-2 टांगों को फैलाओ. फिर अध्वर्यु कहता है कि यज्ञभूमि को ढक दो, शामियाना वगैरह लगा दो. तब यजमान की मुख्य पत्नी घोड़े के लिंग को खींच कर अपनी योनि में स्थापित करती है और कहती है कि यह वीर्य सींचने वाला घोड़ा मुझ में वीर्य स्थापित करे.

महिलाओं से जबरन बलात्कार तो हमारे देवता भी किया करते थे. इंद्र देवता ने भेष बदल कर ऋषि पत्नी अहल्या के साथ अनैतिक संबंध बनाए थे. धर्म के नाम पर नियोग प्रथा और देवदासी प्रथा के कारण महिलाओं का खूब यौन शोषण हुआ. हमारे धर्मग्रंथ आज भी महिलाओं को दासी मानते हैं और शादी के वक्त उन्हें यह शिक्षा दी जाती है कि दासी बन कर पति व सासससुर की सेवा करना.

आज भी हमारे देश में कई जगहों पर महिलाओं को नंगा कर के गांव में घुमाया जाता है. दहेज न लाने पर उन्हें जलाया जाता है. और तो और, शहरों में भी पढ़ेलिखे लोग अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते हैं. कई महिलाओं के चेहरों पर तेजाब फेंक कर उन्हें बदशक्ल बना दिया जाता है.

धर्म के धंधेबाज हर समय महिलाओं को यह कह कर बहकाते रहते हैं कि यह सब तो तुम्हारे भाग्य में लिखा है और भाग्य के लिखे को कोई नहीं टाल सकता. महिला दिवस पर प्रदर्शित हुई यह पहली फिल्म है जिस की दोनों प्रमुख किरदार महिलाएं हैं. फिल्म दर्शकों को बांधे तो रखती है परंतु कहींकहीं इस की धीमी गति दर्शकों को खलती है.

निर्देशक ने यह संदेश दिया है कि महिलाओं को अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को चुपचाप सहन नहीं करना चाहिए बल्कि उस का डट कर विरोध करना चाहिए. यह फिल्म महिलाओं को गुलामी की जंजीर से निकल कर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है. इस फिल्म की कहानी उन औरतों की कहानी है जो मर्दों के जुल्मों से तंग आ कर हाथों में हथियार उठा लेती हैं.

कहानी उत्तर भारत के एक गांव की है, जहां रज्जो (माधुरी दीक्षित) महिलाओं के लिए एक आश्रम चलाती है. इस आश्रम में मर्दों के जुल्मों से पीडि़त महिलाएं अपना कुटीर उद्योग चलाती हैं. रज्जो इन महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है. रज्जो का बढ़ता प्रभाव गांव की प्रभावशाली राजनीतिबाज सुमित्रा देवी (जूही चावला) को खटकने लगता है. वह रज्जो को बहलाफुसला कर अपनी राजनीति चमकाना चाहती है. परंतु रज्जो उस के प्लान पर पानी फेर देती है. सुमित्रा और उस के गुर्गे रज्जो के गुलाब गैंग को खत्म करने के लिए हमला कर देते हैं. हमले में गुलाब गैंग की कई सदस्याएं मारी जाती हैं. रज्जो सुमित्रा के पेट में कटार घोंप देती है. पुलिस उसे पकड़ लेती है. उसे सजा हो जाती है. सुमित्रा बच जाती है परंतु अदालत उसे सरकारी पद के दुरुपयोग, धोखाधड़ी और हथियारों से लैस उस के गुर्गों द्वारा हमला करने के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा सुनाती है.

फिल्म की यह कहानी वास्तविक जीवन से प्रेरित लगती है. यह कहानी गांव में रहने वाली एक अनपढ़ महिला  संपत पाल की कहानी से प्रेरित है, जिस ने गांव की कुछ औरतों को संगठित कर बुंदेलखंड में ‘गुलाबी गैंग’ गठित किया था. उस के इस ‘गुलाबी गैंग’ पर डौक्यूमैंट्री फिल्म भी बन चुकी है. मध्यांतर से पहले फिल्म बहुत धीमी है लेकिन क्लाइमैक्स जोरदार है. माधुरी दीक्षित ने जबरदस्त ऐक्शन दृश्य दिए हैं. जूही चावला नैगेटिव रोल में है. कई दृश्यों में तो वह माधुरी पर भारी पड़ी है. अन्य महिला किरदारों में तनिष्ठा, प्रियंका बोस और दिव्या जगदाले ने भी अच्छा परफौर्म किया है.

फिल्म का निर्देशन ठीकठाक है. निर्देशक ने संपत पाल के ‘गुलाबी गैंग’ से अपनी इस फिल्म को अलग ही रखा है. उस ने इस फिल्म को मसाला रीमिक्स जैसा बनाया है, जिस में इमोशंस तो हैं, साथ ही राजनीति है, होली है, औरतों की दास्तान है, कोर्ट सीन है, सरकारी राशन की चोरबाजारी है और गोलीबारी भी है. निर्देशक ने फिल्म में कई जगह द्विअर्थी गालियों का भी इस्तेमाल किया है. फिल्म का संगीत कमजोर है. छायांकन अच्छा है.

खेल खिलाड़ी

नंबर वन विराट 
वर्ष 2011 की वर्ल्ड चैंपियन भारतीय टीम का प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है. टीम इंडिया को पहले दक्षिण अफ्रीका उस के बाद न्यूजीलैंड और फिर एशिया कप में हार का मुंह देखना पड़ा. बात हार और जीत की नहीं है, बात जोश और जज्बे की है जो इस समय भारतीय क्रिकेटरों में गायब है. 
पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर ने एक दैनिक अखबार के अपने कौलम में लिखा है कि अगर विदेशी धरती पर हार का सिलसिला यों ही चलता रहा तो अगले वर्ष आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में होने वाले विश्वकप को जीतने की उम्मीद कम है.
गावस्कर की यह बात बिल्कुल सत्य है क्योंकि विदेशी धरती पर भारतीय बल्लेबाज घुटने टेकते नजर आते हैं वहीं गेंदबाजों का भी बुरा हाल है. टीम इंडिया की गेंदबाजी हमेशा से ही कमजोर कड़ी रही है. देश हो या विदेश, हर जगह हमारे गेंदबाज रन लुटाने में माहिर हैं जिस का फायदा विपक्षी टीम को मिलता है.
मौजूदा समय में भारतीय क्रिकेट बुरे दौर से गुजर रहा है, यह तो पक्का है क्योंकि खिलाडि़यों को अब खेल प्रशासन ने अपनी उंगलियों पर नचाने की कवायद शुरू कर दी है. क्रिकेट प्रशासन से जुड़े लोग अपनी राजनीति को चमकाने और खेल संघों में कुरसी हथियाने के लिए पैसों से खेल रहे हैं, भला खिलाडि़यों के खेल से उन्हें क्या लेनादेना.
बहुत से खिलाड़ी इस बात से वाकिफ हैं लेकिन इस डर से कोई बोलता नहीं कि कहीं बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाए. टीम में अपनी जगह पक्की रहे और आकाओं की बात सुनते रहें इसी में भलाई है, यह सोच कर वे चुप रह जाते हैं.
बहरहाल, टीम इंडिया के लिए एक राहत की बात यह है कि विराट कोहली ने आईसीसी की रैंकिंग में नंबर वन की पोजीशन पर फिर से कब्जा जमा लिया है जबकि टीमों की रैंकिंग में भारतीय टीम अपने दूसरे स्थान पर बरकरार है. 
खेल पस्त, प्रशासन मस्त
खेलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की भूमिका बहुत अहम होती है लेकिन यदि हम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की बात करें तो पिछले 10 वर्षों में यूपीए सरकार ने खेलों का बेड़ा गर्क कर दिया.
वर्ष 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान घोटालों और भ्रष्टाचार के चलते अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी हो चुकी है. शायद यही वजह रही कि भारत को ओलिंपिक की मेजबानी नहीं मिली. ओलिंपिक की बात तो दूर, वर्ष 2018 में एशियाई खेलों की मेजबानी पर भी पानी फिर गया. 
खेलों का किस तरह से बेड़ा गर्क हुआ है इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीन एक ओलिंपिक में जितने पदक जीतता है उतने पदक शायद हम आजादी के बाद से अब तक नहीं जीत पाए हैं. राष्ट्रीय खेल हौकी का हश्र किसी से छिपा नहीं है. 
वर्ष 2008 में तो भारतीय हौकी ओलिंपिक में क्वालीफाई तक नहीं कर सकी. हौकी खिलाडि़यों और हौकी खेल संघों के बीच का विवाद गहराता गया. इस चक्कर में खेल का स्तर गिरता गया लेकिन इस में खिलाड़ी और खेल संघ इतना उलझ गए कि हौकी का स्तर दिनोंदिन गिरता गया और आज भी मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न देने के लिए हौकी खिलाड़ी सड़कों पर उतर कर अपनी नाराजगी जाहिर करते रहते हैं. 
अब तो आईपीएल की तर्ज पर हर खेल से कैसे पैसा कमाया जाए, इस की रणनीति ज्यादा बनने लगी है. खिलाडि़यों की नीलामी हो रही है और अब देश के लिए नहीं, बल्कि अपने मालिकों के लिए खेलना उन का लक्ष्य होता जा रहा है. खेल संघों में बैठे पदाधिकारियों को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खेल का स्तर गिरता जा रहा है. उन की कोई जवाबदेही भी नहीं है.  

सलाखों के पीछे बे-सहारा

सहारा और सेबी के बीच हुआ शह और मात का खेल आखिर सहारा प्रमुख सुब्रत राय की तिहाड़ यात्रा के साथ अंजाम पर पहुंच ही गया. निवेशकों का 20 हजार करोड़ रुपया गटक चुके सुब्रत का अदालत के आदेशों की बारबार अनदेखी करना और खुलेआम ठेंगा दिखाना भारी पड़ गया. सलाखों के पीछे बेसहारा हो चुके सहारा का साम्राज्य किस तरह के शिकंजे और संकट से गुजर रहा है, पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
 
28 फरवरी, 2014 का दिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के लिए किसी ऐतिहासिक दिन की तरह ही याद रखा जाएगा. इस दिन 68 हजार करोड़ के कारोबारी सुब्रत राय सहारा पहली बार पुलिस के शिकंजे में आए थे. 
लखनऊ पुलिस ने सहारा प्रमुख सुब्रत राय सहारा को 28 फरवरी की देर शाम रात 8 बजे सैशन कोर्ट के सामने पेश किया. जहां से उन को पुलिस हिरासत में वन विभाग के गैस्ट हाउस में भेज दिया गया. इस गैस्ट हाउस में सुब्रत राय के पहुंचते ही पूरा सरकारी अमला किनारे हो गया, वहां की व्यवस्था अघोषित रूप से सहारा के लोगों के हाथों में आ गई. पुलिस और वन विभाग के लोग केवल तमाशाई बने रहे. उक्त पिकनिक स्पौट को आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया. पुलिस सुब्रत राय के रसूख के आगे नतमस्तक नजर आई. लखनऊ से दिल्ली ले जाने के दौरान भी उन की पसंद की वीवीआईपी व्यवस्था की गई.
4 मार्च को सुब्रत राय सहारा को वहां से ले जा कर दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने उन को 11 मार्च तक के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया. सेबी ने अदालत के सामने अपनी बात रखते हुए कहा कि सहारा समूह अपनी देनदारी को ले कर गलत बयानी कर रहा है. सहारा का यह कहना गलत है कि उस की देनदारी 17,400 करोड़ की है. सेबी ने कहा कि सहारा की 2 कंपनियों ने 24 हजार करोड़ रुपए एकत्र किए थे जिस पर 15 फीसदी ब्याज लगा कर कुल रकम 34 हजार करोड़ रुपए बैठती है. सहारा ने अदालत में तर्क दिया कि उस के खिलाफ किसी निवेशक ने शिकायत नहीं की है. इस से पता चलता है कि निवेशकों का कंपनी पर विश्वास बना हुआ है. 2 करोड़ से ज्यादा निवेशक अभी भी हमारे साथ हैं. इस दलील पर कोर्ट ने सवाल किया कि क्या वास्तव में निवेशक हैं भी?
13 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रत राय को जमानत देने से मना कर दिया और अगली सुनवाई के लिए 25 मार्च तक की तारीख मुकर्रर कर दी. लेख लिखे जाने तक वे जेल में हैं..
काम न आई जोड़तोड़ 
सुब्रत राय को उन के किलेनुमा आवास सहारा शहर से सैशन कोर्ट में पेश किया गया. सुब्रत राय सहारा की गिरफ्तारी का नाटक लखनऊ पुलिस ने 28 फरवरी की सुबह 10 बजे शुरू किया और रात 8 बजे खत्म किया. सहाराश्री की गिरफ्तारी की पूरी कहानी फिल्मी नजर आई. इस में अदालत के फैसले की मजबूरी दिखी. 
लखनऊ पुलिस ने जिस तरह से गिरफ्तारी को अंजाम दिया. उस में उस की बेबसी साफ झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस सुब्रत राय सहारा को गिरफ्तार कर के कोर्ट के सामने पेश करने नहीं जा रही बल्कि उन की हिफाजत में लगी है. काश, पुलिस ऐसा ही हर गैरजमानती वारंट में गिरफ्तारी के समय करती.  
जिस तरह से पुलिस उन के सामने नतमस्तक दिखी और उन को सरकारी मेहमान की तरह कुक रैल पिकनिक स्पौट के गैस्ट हाउस में रखा गया उस पर सवाल उठने लगे हैं. इस को समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के साथ उन के नजदीकी रिश्तों को जोड़ कर देखा जा रहा है. 
राजनीतिक विश्लेषक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘सुब्रत राय सहारा के संबंध सभी दलों के नेताओं से हैं. मुलायम सिंह यादव उन के करीबी लोगों में हैं. जिस तरह से सुब्रत राय की गिरफ्तारी के समय लखनऊ पुलिस उन के सामने पेश आई उस से यह बात और भी पुख्ता हो गई है. यह चुनाव का साल है, जनता इन बातों को किस अंदाज में लेगी, यह चुनाव के बाद ही पता चल सकेगा.’’ मैग्सेसे अवार्ड पाने वाले समाजसेवी डाक्टर संदीप पांडेय और दूसरे लोगों ने सहारा को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दी गई सुविधा पर सवाल उठाए हैं.
सहारा शहर की रौनक
लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में सुब्रत राय का विशाल सहारा शहर बना है. जो सुब्रत राय सहारा का निवास स्थान है. यह किसी बड़े राजामहाराजा के किले से कम नहीं है. मजे की बात यह है कि सुब्रत राय सहारा को किलेनुमा यह ‘सहारा शहर’ बनाने के लिए जमीन सरकार ने लीज पर दे रखी है. यह जमीन 30-30 साल की लीज पर लखनऊ नगरनिगम द्वारा वर्ष 1993 में दी गई थी. इस में 2 बार लीज बढ़ाने की शर्त भी शामिल है. इस से जुड़ी कुछ जमीन आवासीय और कुछ ग्रीनबैल्ट के रूप में दी गई थी. कुछ समय के बाद 100 एकड़ जमीन लखनऊ विकास प्राधिकरण ने भी सहारा को दी थी. यह जमीन 100 रुपए के स्टांपपेपर पर 1 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से दी गई थी. 
कुछ समय के बाद एलडीए और नगरनिगम ने कुछ जमीन का भू उपयोग बदल कर इस को कानूनी जामा पहनाने का प्रयास किया था. भू परिवर्तन करने के एवज में ली जाने वाली रकम नहीं ली गई थी. 1999 में इस की जानकारी उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हुई तो उन्होंने सहारा शहर को ध्वस्त करने का आदेश दिया. धीरेधीरे सहारा ने यहां पर निर्माण करा लिया. इस निर्माण का नक्शा भी लखनऊ विकास प्राधिकरण से पास नहीं कराया. सहारा शहर का नक्शा लखनऊ नगरनिगम ने पास किया था जबकि नक्शा पास करने का अधिकार लखनऊ विकास प्राधिकरण को है. नगरनिगम ने सहारा का तलपट मानचित्र पास किया. 2007 में सहारा ने इस का नक्शा पास करने के लिए एलडीए में आवेदन किया. 23 फरवरी, 2007 में एलडीए बोर्ड की बैठक में नक्शा पास करने से मना कर दिया गया था. एलडीए ने इसे वापस नगरनिगम के पास भेज दिया था. उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार बनने के बाद सहारा ने नए सिरे से इस मामले की पैरवी शुरू कर दी. 
बुरे फंसे सुब्रत राय
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी के निवेशकों के 20 हजार करोड़ रुपए वापस न करने के मामले में सेबी और सहारा के बीच शह और मात का खेल सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. इस मामले में सहारा कह रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वह 5,120 करोड़ रुपए सेबी को दे चुका है. 
सहारा का दावा है कि 2 हजार करोड़ रुपए के अतिरिक्त बाकी की धनराशि वह खुद निवेशकोें को वापस कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट इस बात को सही नहीं मान रहा है. ऐसे में वह सहारा प्रमुख सहित दूसरे निदेशकों रविशंकर दुबे, वंदना भार्गव और अशोक राय को अदालत के सामने पेश होने का आदेश दे चुका था. 26 फरवरी को सुब्रत राय सहारा अदालत में सुनवाई के दौरान हाजिर नहीं हुए. रविशंकर दुबे, वंदना भार्गव और अशोक राय अदालत के सामने पेश हुए. सुब्रत राय सहारा के वकील राम जेठमलानी ने अदालत में कहा कि सुब्रत राय की मां बहुत बीमार हैं, किसी भी वक्त उन की सांस थम सकती है. इसलिए वे बिस्तर पर उन का हाथ थामे बैठे हैं. अदालत ने उन की कोई भी दलील सुनने से इनकार कर दिया. अदालत ने सुब्रत राय सहारा के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया.  
अदालत के इस फैसले के खिलाफ सहारा ने जनमत संग्रह जैसा एक अभियान चलाया. इस के तहत 27 फरवरी को जब सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला समाचारपत्रों में छपा तो उसी दिन सहारा ने पूरे मसले को अपनी तरह से पेश करने के लिए सभी बडे़ अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशित कराया. ‘हमारा निवेदन’नाम से प्रकाशित इस विज्ञापन में पाठकों से अनुरोध किया गया था कि कृपया अपने 5-7 मिनट दे कर इस पृष्ठ को पूरा अवश्य पढ़ें. हम आप के अत्यधिक आभारी रहेंगे. इस विज्ञापन में 25 फरवरी की अदालत में हुई बहस को मुद्दा बनाया गया था. एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सवालों के घेरे में ठहराने की कोशिश की गई थी. सहारा ने पहली बार ऐसा नहीं किया था. इस के पहले 17 मार्च, 2013 को भी ऐसा ही  विज्ञापन ‘बस बहुत हो गया’ प्रकाशित कराया था.  
इस विज्ञापन में सहारा ने सेबी को अप्रत्यक्ष रूप से धमकाने का काम किया है जो एक तरह से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना सा दिखता था. इस विज्ञापन में सहारा के प्रबंध कार्यकर्ता सुब्रत राय सहारा ने कहा था कि हमारा किसी भी तरह का दोष न होते हुए भी सेबी जानबूझ कर गलत आदेश पारित कर के हमें बदनाम करता आ रहा है जिस से पिछले 34 साल में मेहनत से अर्जित की गई छवि को नुकसान हो रहा है. यही नहीं, सहारा ने सेबी को टीवी चैनल पर खुली बहस करने के लिए चुनौती भी दी थी. उन्होंने कहा है कि सेबी को इस तरह का कोई अधिकार ही नहीं है, न ही उस के पास कोई आधार है. इस विज्ञापन में यह आरोप भी लगाया गया था कि सेबी बदले की भावना से काम कर रहा है. सेबी को जवाब देने के लिए सहारा ने जिस विज्ञापन ‘बस बहुत हो गया’ का सहारा लिया था वह किसी धमकी से कम नहीं लगता है. जब अदालत में इतने गंभीर लैवल पर मामला चल रहा हो तो ऐसे काम फैसले को प्रभावित करने की श्रेणी में आते हैं. बेहतर होता कि सहारा ये बातें अदालत में कहता जहां उस की बात को पूरी गंभीरता के साथ सुना जाता. 

क्या है पूरा मामला
सेबी यानी सिक्योरिटी ऐंड एक्सचेंज बोर्ड औफ इंडिया ने निवेशकों का पैसा लौटाने में आनाकानी करने पर सहारा समूह के खिलाफ 15 मार्च, 2013 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी. याचिका में सेबी ने सहारा समूह के मुखिया सुब्रत राय की गिरफ्तारी की मांग की थी. जस्टिस के एस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने अप्रैल के पहले सप्ताह में इस की सुनवाई करने की तारीख तय कर दी थी. याचिका में सेबी ने यह भी कहा कि अदालत सुब्रत राय के देश छोड़ने पर रोक लगाए. सेबी ने सुब्रत राय के साथ ही साथ सहारा समूह के 2 और निदेशकों अशोक राय चौधरी व रविशंकर दुबे के खिलाफ भी गैरजमानती वारंट जारी करने का अनुरोध किया था. 
यह पूरा मामला निवेशकों के 24 हजार करोड़ रुपए लौटाने से जुड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट सहारा समूह की 2 कंपनियों सहारा इंडिया रियल एस्टेट कौर्पोरेशन और सहारा हाउसिंग इन्वैस्टमैंट कौर्पोरेशन द्वारा गलत तरीके से जुटाए गए 24 हजार करोड़ रुपए निवेशकों को लौटने का आदेश दे चुका है. इस के बाद भी सहारा इस रकम को लौटाने में आनाकानी कर रहा है. सेबी का कहना है कि सहारा सही जानकारी न दे कर उसे और अदालत दोनों को गुमराह कर रहा है. सेबी सहारा इंडिया रियल इस्टेट कौर्पोरेशन, सहारा हाउसिंग इन्वैस्टमैंट कौर्पोरेशन और सुब्रत राय सहित 3 अन्य निदेशकों के चलअचल खाते और संपत्ति जब्त करने की प्रक्रिया शुरू कर चुका है. 
34 साल में पहली बार किसी सरकारी विभाग ने सहारा समूह के खिलाफ इतने बडे़ लेवल पर पुख्ता प्रमाणों के साथ कार्यवाही की है. सेबी की कार्यवाही से अदालत भी सहमत नजर आती है. इस का प्रमाण तब मिला जब सहारा ने सुप्रीम कोर्ट से निवेशकों का पैसा लौटाने के लिए समय देने की मांग की. उस समय चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने सहारा समूह को फटकार लगाते हुए कहा कि उस ने पहले दिए गए आदेशों का पालन नहीं किया है. सहारा समूह को लग रहा था कि अगर सेबी की बात मानते हुए अदालत ने सुब्रत राय और दूसरे निदेशकों के देश छोड़ कर न जाने का आदेश दे दिया और उन का पासपोर्ट जमा कर लिया तो वह सहारा समूह की सब से बड़ी हार होगी. ऐसे में सहारा समूह ने सेबी के खिलाफ अदालत से बाहर धमकी देने जैसे विज्ञापन ‘बस बहुत हो गया’ को छपवाया. 
अगस्त 2012 में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अगुआई में बनी 3 सदस्यों की खंडपीठ ने सहारा को 3 करोड़ निवेशकों को 15 फीसदी ब्याज के साथ लगभग 24 हजार करोड़ रुपए वापस करने का आदेश दिया था. सहारा ने इस आदेश पर पुनर्विचार के लिए एक याचिका दाखिल की थी. 9 जनवरी, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के एस बालकृष्णन और जगदीश सिंह खेहर की खंडपीठ ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. ऐसेमें निवेशक बेचैन हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि उन का जमा पैसा कैसे वापस मिलेगा. 
आमनेसामने सेबी और सहारा
सहारा ग्रुप को निवेशकों का कितना पैसा चुकाना है इस को ले कर सेबी का आंकड़ा 34 हजार करोड़ रुपए के आसपास का है. इस के विपरीत सहारा का कहना है कि अब उस की देनदारी 17,400 करोड़ रुपए की है. उसे अब केवल 3,500 करोड़ रुपए ही लौटाने हैं. सहारा का मानना है कि वह सेबी के अधीन आता ही नहीं है. इस आधार पर उस ने सेबी को कोई भी जानकारी देने से इनकार कर दिया था. सहारा ग्रुप का कहना है कि कंपनी शेयर बाजार में पंजीकृत नहीं है इसलिए वह सेबी के अधीन नहीं आता है. दबाव में आने के बाद सहारा ने निवेशकों से जुडे़ तमाम तथ्य सीडी में डाल कर सेबी को दिए. यह सीडी पासवर्ड प्रोटैक्टेड थी जिस के चलते सेबी उन का विश्लेषण करने में नाकाम रहा. सीडी सेबी के किसी काम नहीं आ सकी. सेबी की आपत्ति पर सहारा ने निवेशकों से जुडे़ दस्तावेज ट्रकों में लाद कर सेबी को भेज दिए. उन का अध्ययन करना सेबी के लिए सरल नहीं था. 
सहारा के हजारों निवेशकों में से सेबी को केवल 68 प्रामाणिक निवेशक मिले हैं. सहारा का कहना है कि जिन छोटेबडे़ निवेशकों को भुगतान किया जा चुका है वे सेबी से संपर्क क्यों करेंगे? सेबी का आरोप है कि सहारा ने अपने निवेशकों के सही पते नहीं लिखे हैं. सहारा कहता है कि हमारे लाखों निवेशक चाय के ढाबे चलाने जैसे छोटेछोटे रोजगार करते हैं. वे सड़क के किनारे बैठते हैं. इन के पते उसी तरह के हो सकते हैं. इसी तरह गांव के लोगों के भी न मकान नंबर होते हैं और न ही उन का कोई महल्ला होता है. बड़ी संख्या में ऐसे निवेशक हैं जिन के अपने मकान नहीं हैं, इसलिए वे समयसमय पर अपने पते बदलते रहते हैं. सहारा का तर्क है कि हमारे एजेंट उन को जानते हैं, इसलिए जरूरत पड़ने पर उन लोगों तक पहुंच जाते हैं.  
सेबी के आरोपों के जबाव में सहारा दावा करता रहा है कि उस ने निवेशकों के पैसे वापस कर दिए हैं. सहारा के इस तर्क का जवाब देने के लिए असली निवेशकों ने भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया है. दिल्ली के रहने वाले रोशन लाल मौर्या ने दूसरे निवेशकों के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की और अदालत से गुहार लगाई कि उन के पैसे ब्याज सहित देने के लिए सहारा को आदेश दिया जाए.  
खतरे में साम्राज्य
‘जो दिखता है वह बिकता है’ इस मूलभाव के साथ काम करते हुए सुब्रत राय अपनी सल्तनत को आगे बढ़ाते गए. सुब्रत राय का जन्म बिहार के अररिया जिले में हुआ था. उन के पिता सुधीर चंद्र राय गोरखपुर की चीनी मिल में काम करते थे. इस कारण सुब्रत का बाकी समय गोरखपुर में बीता. सुब्रत का शुरुआती कारोबारी सफर जया नमकीन से शुरू हुआ था. इस कारोबार में उन की पत्नी स्वप्ना राय भी शामिल थीं. यह काम ठीक से चला नहीं. उस समय वे एक लैंब्रेटा स्कूटर से चला करते थे. इस के बाद सुब्रत राय ने मात्र 2 हजार रुपए की पूंजी से फाइनैंस कंपनी का काम शुरू किया. 1978 में सहारा इंडिया फाइनैंशियल कौर्पोरेशन नाम से पैरा बैंकिंग कंपनी शुरू हुई. साल 2011 में सहारा इंडिया फाइनैंशियल कौर्पोरेशन लिमिटेड के एक विज्ञापन में कहा गया कि कंपनी के पास जून 2011 तक 73 हजार करोड़ रुपए जमा हो चुके हैं. 34 साल में किसी भी गैरबैकिंग संस्थान के लिए यह एक बड़ी रकम है. 
गोरखपुर के कांग्रेसी नेता वीरबहादुर सिंह और बैडमिंटन के खिलाड़ी सैयद मोदी की दोस्ती से सहारा को आगे बढ़ने में मदद मिली. सुब्रत इस के बाद अपने साथ बड़ी से बड़ी हस्ती को जोड़ते गए और आगे बढ़ते गए. सुब्रत राय का पूरा प्रयास होता था कि हर क्षेत्र की बड़ी से बड़ी हस्ती उन के संपर्क में रहे. उन के साथ खड़ी नजर आए. इस के पीछे उन का अपना सिद्धांत काम करता था. 
सुब्रत राय का मानना था कि बडे़ आदमी को देख कर लोग मजबूती से भरोसा करने लगते हैं. सुब्रत ने मीडिया का लाभ लेने के लिए अपनी कंपनी शुरू की जिस में अखबार और न्यूज चैनल शामिल हैं. इस के अलावा राजनीति, खेल, फिल्म और दूसरे क्षेत्रों के बडे़बडे़ लोगों को अपने साथ जोड़ा.  
सुब्रत का सपना एक दिन देश का सब से बड़ा कारोबारी बनने का था. इस कारण उन्होंने सहारा एअरलाइंस भी शुरू की थी. यह बात और है कि सहारा को कुछ दिनों बाद इस को बेच देना पड़ा था. सहारा ने कंप्यूटर की भी एक कंपनी शुरू की थी वह भी बंद करनी पड़ी. इसी तरह सहारा यूनिक के नाम से चलने वाला प्रोडक्ट्स विभाग भी कम दिखने लगा है. सहारा क्यू शौप शुरू करने का कारण मिलावटी खाद्य सामग्री से लोगों को बचाने की योजना थी. सहारा क्यू शौप को ले कर शुरू से ही जिस तरह से सवाल उठने लगे हैं, उस से यह भी योजना फंसती दिखाई दे रही है. लंदन में होटल खोल कर सुब्रत ने अपने कारोबार को दुनिया में फैलाने का सपना जरूर देखा है पर जिस तरह से वे सेबी और सुप्रीम कोर्ट की गिरफ्त में फंसते नजर आ रहे हैं उस से उन का साम्राज्य खतरे में पड़ गया है. 
कर्मचारियों की बढ़ती चिंता
सहारा प्रमुख सुब्रत राय के बेटे सीमांतो राय ने अपने पिता की गिरफ्तारी के बाद दिल्ली में प्रैस कौन्फ्रैंस कर कहा कि उन के पिता हमेशा कानून का सम्मान करते हैं, इसलिए वे अदालत के सामने पेश होने को तैयार हैं. सीमांतो राय ने कहा कि सहारा प्रमुख की गिरफ्तारी से सहारा के कारोबार पर कोई फर्क नहीं पडे़गा. यह बात सही साबित नहीं हो रही. 
सहारा की गिरफ्तारी के बाद सहारा की 2 सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों का बाजार भाव गिर गया. सहारा समूह की 2 कंपनियां बौंबे स्टौक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं. इन में पहली, सहारा वन मीडिया इंटरटेनमैंट और दूसरी, सहारा हाउसिंग ऐंड फाइनैंस कौर्पोरेशन है. इन के शेयरों का बाजार भाव गिरने लगा है. यही नहीं, सहारा की विभिन्न कंपनियों में काम करने वाले 10 लाख से ज्यादा कर्मचारियों में हड़कंप मचा हुआ है. सभी को अपनी नौकरी की चिंता हो रही है.              
 

फिल्मों के रिलीज का स्ट्रगल आज भी है जूही चावला

एक तरफ जूही चावला फिल्म में पौलिटिकल लीडर का किरदार निभाती हैं तो दूसरी तरफ दावा करती हैं कि उन्हें राजनीति की समझ नहीं है. उन का मानना है कि वे अपने दिल से सोचती हैं, दिमाग से नहीं. हाल ही में उन के फिल्मी सफर सहित कई मुद्दों पर शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने उन से बातचीत की.
‘कयामत से कयामत तक’, ‘राजू बन गया जैंटलमैन’, ‘माई ब्रदर निखिल’, ‘आई एम’ सहित 100 से अधिक फिल्मों में अभिनय कर चुकीं जूही चावला पिछले कुछ समय से सिनेमाई परदे पर कम नजर आ रही थीं. हाल ही में वे अनुभव सिन्हा निर्मित और सौमिक सेन निर्देशित फिल्म ‘गुलाब गैंग’ में एक पौलिटिकल लीडर का निगेटिव किरदार निभाते हुए नजर आईं. वे स्टीवन स्पीलबर्ग की हौलीवुड फिल्म में भी अभिनय कर रही हैं. पेश है उन से हुई बातचीत के मुख्य अंश :
अपनी अब तक की कैरियर यात्रा को किस तरह से देखती हैं?
आज मैं आप के साथ होटल सन ऐंड सैंड में बैठ कर बात कर रही हूं. पर मुझे याद आ रहा है कि कभी मैं ने यहीं पर यश चोपड़ा के निर्देशन में फिल्म ‘डर’ की शूटिंग की थी. उस दिन मैं यश चोपड़ा की हीरोइन बन कर बेहद उत्साहित थी क्योंकि वह मेरे सपनों से कहीं बड़ी बात थी.
अंबाला में पैदा हुई. कुछ समय दिल्ली में रही. दिल्ली में मेरी मम्मी होटल ओबेराय में काम किया करती थीं. मेरे पिता इन्कमटैक्स डिपार्टमैंट में काम कर रहे थे. जब मैं 4 साल की थी, मेरी मां को मुंबई के ताज होटल में नौकरी मिल गई. फिर मेरे पिता ने अपना तबादला दिल्ली से मुंबई करा लिया और हम मुंबई आ गए.
जब मैं मुंबई के एच आर कालेज में पढ़ रही थी तो कालेज की मेरी सहेलियां ‘फेमिना मिस इंडिया’ के लिए फौर्म भर रही थीं तो मैं ने भी फौर्म भर दिया था. जबकि मैं पढ़ाकू लड़की मानी जाती थी. जब मैं ने फौर्म भरा था उस वक्त मुझे यह भी नहीं पता था कि किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए, किस तरह से मेकअप किया जाता है. पर मैं ‘मिस इंडिया’ बनी. वहीं से मुझे फिल्मों में काम करने का मौका मिला और मैं फिल्मों से जुड़ गई.
यदि आप के कैरियर पर नजर दौड़ाएं तो लगता है कि आप ने शादी के बाद सोचसमझ कर कुछ अलग ढर्रे की फिल्में करनी शुरू की हैं?
मुझे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ी. कुछ परिस्थितियां ऐसी पैदा हुईं  कि मुझे अलग तरह का काम मिलता
रहा. जब मैं शादी के बाद मां बनी तो स्वाभाविक था कि मुझे नाचगाने वाले किरदार मिलने नहीं थे. मेरे पास उस तरह की फिल्मों के औफर भी नहीं आ रहे थे. हीरोइन वाले किरदारों के औफर तो कम उम्र के कलाकारों के पास जा रहे थे तो समझ में आ गया कि कुछ अलग तरह का काम करना पड़ेगा.
ऐसे वक्त में मेरे पास जिन फिल्मों के औफर आए उन में से मुझे जो अच्छे लगे, मैं ने वे किए. ऐसे दौर में मैं ने अपनी जानपहचान के कलाकारों के साथ काम किया. मसलन, संजय सूरी के साथ मैं ने ‘झंकार बीट्स’ की. उसी दौरान संजय सूरी मेरे पास फिल्म निर्देशक ओनीर को ले कर आए. ओनीर ने मुझ से कहा कि वे ‘माई ब्रदर निखिल’ जैसी फिल्म बनाना चाहते हैं, उन के पास पैसे नहीं थे, कुछ नहीं था. पर फिल्म की विषयवस्तु और उन के अंदर कुछ करने के जज्बे को देख कर मैं ने काम करने को ले कर हामी भर दी.
आप को नहीं लगता कि यदि आज की तारीख में ‘माई ब्रदर निखिल’ जैसी फिल्में बनतीं तो वे ज्यादा दर्शकों तक पहुंच पातीं?
मैं ऐसा नहीं मानती. वैसे ‘माई ब्रदर निखिल’ आज तक किसी न किसी फिल्म फैस्टिवल वगैरह में दिखाई जाती रही है. पूरी दुनिया में कहीं न कहीं फिल्म का प्रदर्शन हो रहा है क्योंकि इस फिल्म की जो विषयवस्तु है वह बहुत ही उम्दा है. आप भी जानते होंगे कि यह फिल्म एड्स पर आधारित है. इसी वजह से यह फिल्म हमेशा चर्चा में रहती है.
आम चर्चा है कि अब सिनेमा में काफी बदलाव आ चुका है?
मुझे नहीं लगता. मुझे लगता है कि सिनेमा में कोई बदलाव नहीं आया. आज की तारीख में भी साधारण सी फिल्म को भी रिलीज करने के लिए
5-6 करोड़ रुपए चाहिए. और जब संदेशपरक फिल्म हो तो निर्माता इतना खर्च कहां से करेगा? इतना ही नहीं इस तरह की फिल्मों की रिकवरी भी नहीं है. सब से बड़ा सच यही है कि अच्छी फिल्मों की रिलीज करने का स्ट्रगल आज भी है. जब फिल्म अच्छे ढंग से रिलीज नहीं होती है तो उसे कमर्शियल सफलता नहीं मिलती. छोटे बजट और अच्छी फिल्मों को सुबह 9 बजे या रात 10 या 12 बजे का शो ही मिलता है. इस तरह के शो में दर्शक कैसे मिलेंगे?
लोग सोच रहे थे कि मल्टीप्लैक्स के आने के बाद बदलाव आएगा, पर वैसा कुछ नहीं हुआ.
तो छोटे बजट की फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने का क्या रास्ता हो सकता है?
मुझे लगता है कि अब वह वक्त आ गया है जब विदेशों की तरह हमारे देश में भी मुद्दों पर आधारित, मसलों पर आधारित, शिक्षाप्रद या छोटे बजट की फिल्मों के रिलीज के लिए अलग से सिनेमाहौल नियत किए जाएं.
फिल्म ‘गुलाब गैंग’ में आप सुमित्रा नामक पौलिटीशियन के किरदार में नजर आईं. आप के अनुसार राजनीति क्या है?
मैं हमेशा सुनती आई हूं कि पौलिटिक्स शतरंज के खेल की तरह है. मैं ने सुना कि पौलिटिक्स में एक पौलिटीशियन के लिए जरूरी होता है कि वह करता कुछ है, पर ध्यान उस का कहीं और होता है यानी कि कुल मिला कर टेढ़ामेढ़ा खेल है. इसलिए मेरा मानना है कि फिल्म ‘गुलाब गैंग’ का मेरा सुमित्रा का किरदार पूरी तरह से वास्तविक नहीं है. इस में कमर्शियल तत्त्व भी जोड़े गए हैं.
आप के अनुसार सुमित्रा और हमारे देश के रियल पौलिटीशियन में कितनी समानता है?
इस बारे में मैं कोई दावा नहीं कर सकती. यह बात दर्शक बता सकते हैं. पर सुमित्रा भी पौलिटीशियन है, तो पौलिटीशियन से कुछ तो समानता होगी. जहां तक सुमित्रा के मेकअप व पहनावे का सवाल है, तो मैं ने सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज व ममता बनर्जी से कुछ चीजें ली हैं. यानी कि वे साड़ी कैसे पहनती हैं, कैसे बाल बनाती हैं आदि. शायद, इन पौलिटीशियनों के पास मेकअप वगैरह करने के लिए समय नहीं होता है. इन का ध्यान कहीं और ही होता है. हमारी फिल्म ‘गुलाब गैंग’ पूरी तरह से एक कमर्शियल फिल्म है. पर कुछ चीजें रीयल लाइफ से ली गई हैं.
पर आप को नहीं लगता कि इन दिनों नारी शिक्षा को ले कर बहुत कुछ किया जा रहा है?
मेरा मानना है कि सदियों से जो चीजें चली आ रही हैं उन्हें बदलने में वक्त लगेगा. एक दिन में बदलाव नहीं आता. पर आप ने देखा होगा कि जिस तरह से लड़कियों को शिक्षा मिल रही है उसी तरह से वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ कर काम कर रही हैं. आज की तारीख में नारियों के खिलाफ अपराध बढ़े हैं या उन्हें ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है? सच कहूं तो मुझे नहीं पता कि हकीकत क्या है.
आप के अनुसार देश की सब से बड़ी समस्या क्या है?
हमारे देश की सब से बड़ी समस्या करप्शन है, जोकि नीचे से ऊपर तक है. यह तो हम सभी के खून का हिस्सा हो गया है. भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हर स्तर पर काम किया जाए. सिर्फ किसी को दोष देने से कुछ नहीं होगा.
माधुरी दीक्षित के साथ लंबे समय के बाद काम किया. क्या आप दोनों के बीच कोई अनबन थी?
हमारे बीच भला किस बात को ले कर अनबन होगी? अब हम लोग एकदूसरे की प्रतिस्पर्धा में नहीं हैं. 90 का दशक होता तो शायद हमारे बीच अनबन होती.
माधुरी दीक्षित फिल्मों में अभिनय करने के अलावा कई दूसरे काम कर रही हैं. आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहतीं?
मैं उन से बहुत अलग हूं. मैं उन की तरह महत्त्वाकांक्षी नहीं हूं. मगर मेरा पैशन संगीत है. मैं ने संगीत सीखा है. मैं पूरे विश्व में मोबाइल टावर के रेडिएशन के खिलाफ आवाज उठा रही हूं. लोगों में रेडिएशन को ले कर जागरूकता पैदा कर रही हूं.
आप स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ हौलीवुड फिल्म ‘द हंड्रैड फुट जर्नी’ कर रही हैं?
जी हां, इस फिल्म में मैं ओमपुरी की पत्नी का किरदार निभा रही हूं. यह एक कैमियो रोल है. फिल्म का विषय बहुत अच्छा है. फिल्म की कहानी भारत से शुरू हो कर फ्रांस तक जाती है.
शाहरुख खान के साथ कभी आप की बहुत अच्छी दोस्ती हुआ करती थी, पर अब वह टूट चुकी है?
माफ कीजिए, इस तरह की दोस्ती कभी नहीं टूटती. हम दोनों अपनेअपने कामों में व्यस्त हैं. इसलिए मुलाकातें नहीं हो पातीं. पर जब भी मुझे किसी चीज की जरूरत होगी, तो एक फोन पर शाहरुख खान मेरा साथ देंगे. द्य
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