मेरी जेठानीजी की जिंदगी का आखिरी वक्त था. जेठानीजी के मम्मीपापा और भाईबहन नहीं थे. उन की भाभी थीं पर वे आने की स्थिति में नहीं थीं. कानपुर से जेठानीजी के चचेरे भाई और भाभी आए हुए थे.
सुबह के समय जेठानीजी के भाई मुझे बुला कर बोले, ‘‘तुम मेरी पत्नी के साथ बाजार चली जाओ क्योंकि इन्हें यहां का बाजार पता नहीं है. पर्ची में लिखा सभी सामान खरीदवा देना. सूती साड़ी वैसी ही दिलवाना जैसी दीदी पहनती थीं.’’
मैं साथ चल दी. रास्ते में मुझे पता चला कि इस समय जेठानीजी को जो वस्त्र पहनाया जाएगा या जो सामग्री प्रयोग होगी, वह मायके की होनी चाहिए.
शादी के बाद लड़की की सभी जिम्मेदारी उन के पति या ससुराल वाले उठाते हैं तो फिर विदा के इन आखिरी पलों में मायके पर आश्रित क्यों? वह भी ऐसे भाई पर जो अचानक जल्दी में अपनी दीदी के आखिरी दर्शन को आया हो?
यह संस्कार या सामाजिक बेड़ी मुझे बहुत कष्टकारी लगी. दूसरों को मानसिक पीड़ा न पहुंचाने के लिए यदि ऐसी मान्यताओं को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए, तभी समाज जागरूक कहलाएगा.
रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)
 
मेरी चाचीजी की मृत्यु के बाद उन के  अस्थिकलश विसर्जन के लिए उन के बेटे और परिवार के कुछ लोगों को बनारस जाना था.
बूआ का कहना था कि अस्थिविसर्जन बनारस में न किया जाए. कुछ वर्ष पहले ऐसा करने पर तीसरे और चौथे दिन ही परिवार में 2 लोगों की मृत्यु हो गई थी.
इस बात की शंका से यह तय हुआ कि यह काम इलाहाबाद जा कर संगम में ही किया जाना चाहिए. रेलवे आरक्षण न होने के कारण कार द्वारा इलाहाबाद जाना तय हुआ. जून का महीना था. 12 बजे दिन में इलाहाबाद के घाट पर पहुंच कर यह कार्य संपन्न हुआ. वापसी में धूप और गरमी से परेशान सब की तबीयत खराब हो गई. अंधविश्वास से बंधे लोग मुफ्त में अपनी राय दे कर दूसरों को भी भ्रमित कर देते हैं.
नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)
 
मेरी बहन जब अपने नवनिर्मित घर में एक गुरुजी को ले कर आई तो वे बोले, ‘‘बेटा, वैसे तो तुम्हारा घर बहुत अच्छा है परंतु घर के एक हिस्से में दोष है जिस को दूर करने के लिए तुम सवा माह तक बाल खोल कर हवन करो और पंडितों को 5 वस्तुओं का दान करो.’’
उस ने वैसा ही किया. एक दिन हवन करते समय उस के बाल हवन की आग की चपेट में आ गए और कुछ आग उन के कपड़ों में भी लगी. उन्हें बड़ी मुश्किल से मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सका.
प्रतिभा अग्निहोत्री, उज्जैन (म.प्र.) 

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