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केरल आंखों में भर लो नजारे

जहां देश के ज्यादातर राज्य आधुनिकता की आंधी में कंकरीट के जंगलों में तब्दील हो रहे हैं वहीं केरल ने आज भी अपने प्राकृतिक सौंदर्य को बचा कर रखा है. भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित यह राज्य पर्यटन की दृष्टि से बेहद मनोहारी है. यहां प्रकृति के रमणीय दृश्यों का खजाना है.
मुन्नार
यह एक हिल स्टेशन है. यहां का ठंडा, सुखद मौसम तनमन को शांत कर शीतलता का एहसास कराता है. यह हिल स्टेशन एक जमाने में दक्षिण भारत के पूर्व ब्रिटिश प्रशासकों का ग्रीष्मकालीन रिजोर्ट हुआ करता था. दूरदूर तक फैले चाय के बागान, नीलकुरुंजी, प्रपात और बांध यहां की खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं. ट्रैकिंग एवं माउंटेन बाइकिंग के लिए भी यह आदर्श स्थल है.
दर्शनीय स्थल
इरविकुलम नैशनल पार्क : मुन्नार से 15 किलोमीटर दूर इरविकुलम नैशनल पार्क है. यहां आप लुप्तप्राय प्राणी नीलगिरि टार को निकट से देख सकते हैं. चीता, सांभर, बार्किंग डियर, भीमकाय मलबार खरगोश आदि वन्यजीव भी यहां देखे जा सकते हैं. 12 वर्षों में एक बार खिलने वाला नीलकुरुंजी नामक पौधा यहां के वन की खासीयत है. यह स्थानीय पौधा जब पहाड़ों की ढलान पर पनपता है तो पहाड़ नीली चादर में लिपटा सा लगता है.
पल्लिवासल : यह केरल का पहला हाइड्रोइलैक्ट्रिक परियोजना स्थल है. यह मुन्नार से 8 किलोमीटर की दूरी पर है. 
माट्टुपेट्टी : यह मुन्नार से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. रोज गार्डन, हरीभरी घास के मैदान, बड़ीबड़ी गाएं यहां की खासीयत हैं. यहां आप नौकाविहार का भी आनंद उठा सकते हैं. 
मरयूर, चिन्नार वन्यजीव अभयारण्य, देवीकुलम चिलिरपुरम, चीत्वारा, मीनूली, आनमुड़ी राजमला आदि भी यहां के आसपास के अन्य दर्शनीय स्थल हैं.
कोवलम
यह केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां के कोवलम बीच, द लाइटहाउस बीच और हवाह बीच मशहूर हैं. यहां सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य देखने के लिए सैलानियों का जमघट लगा रहता है. यहां रेत पर धूप स्नान, तैराकी, जड़ीबूटियों से बने तेल से शरीर की मालिश, क्रूजिंग जैसे असंख्य आकर्षण उपलब्ध हैं. 
दर्शनीय स्थल
श्री चित्रा आर्ट गैलरी : प्रसिद्ध नेपियर म्यूजियम के पास यह आर्ट गैलरी है. यहां रवि वर्मा, रियोरिक पेंटिंग्स के अलावा राजपूत, मुगल, तंजावूर स्कूल की पेंटिंग्स का अच्छा संकलन है. चीन, जापान, तिब्बत, बाली से एकत्र की गई पेंटिंग्स भी यहां देखने को मिलती हैं.
नेय्यार डैम : यह तिरुअनंतपुरम से 32 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां का मगरमच्छ फार्म और लायन सफारी पार्क भी दर्शनीय है.
अलप्पुझा
केरल के सामुद्रिक इतिहास में अलप्पुझा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. अलप्पुझा बीच पर्यटकों की पसंदीदा जगहों में से एक है. नौका दौड़, बैकवाटर टूरिज्म, कौपर उद्योग, समुद्री उत्पाद के लिए भी यह शहर विख्यात है. यहां समुद्र में घुसा हुआ पोनघाट 137 साल पुराना है. विजया बीच पार्क की मनोरंजक सुविधाएं बीच का खास आकर्षण हैं. यहां पास ही एक पुराना लाइट हाउस भी है.
यहां हाउसबोट की सैर पर्यटकों के लिए एक रोमांचक अनुभव होता है.
इन हाउसबोटों में अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं. शयन- कक्ष, आधुनिक टौयलेट, आरामदेह बैठक, रसोईघर भी मौजूद हैं. अगर आप की दिलचस्पी खुद मछली पकड़ कर खाने में है तो यहां फिशिंग की भी सुविधा है.
अन्य दर्शनीय स्थल
कृष्णपुरम म्यूजियम : यह अलप्पुझा से कोल्लम रूट पर 47 किलोमीटर की दूरी पर है. केरल की सब से बड़ी म्यूरल पेंटिंग ‘गजेंद्र मोक्षम’ इस संग्रहालय में सुरक्षित रखी है. 
पातिरामनल : यह वेबनाट झील का सब से छोटा व खूबसूरत द्वीप है. यह ‘सैंड औफ मिडनाइट’ के नाम से भी जाना जाता है. यहां आप दुर्लभ पक्षियों के दर्शन भी कर सकते हैं.
कुट्टनाड : संसार में शायद ही ऐसी कोई जगह होगी जहां समुद्रतल से भी नीचे खेती की जा रही है. लेकिन कुट्टनाड ऐसी ही जगह है. इसे केरल का ‘राइस बाउल’ भी कहते हैं. यहां की खास फसल धान है. 
थेक्कड़ी
थेक्कड़ी यहां का सब से अहम पर्यटन स्थल है. यहां तरहतरह के वन्यजीव देखे जा सकते हैं. यह 777 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है जिस में 360 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र घना जंगल है. 1978 में इसे टाइगर रिजर्व का दरजा मिला था. यहां की झील में बोट में सैर कर के वन्यजीव को निकट से देख पाने का मौका भी मिलता है. झील के आसपास हाथियों के टहलने का दृश्य भी मनमोहक होता है. 
दर्शनीय स्थल
कुमली : यह थेक्कड़ी से 4 किलोमीटर दूर है. यह एक शौपिंग जोन है, साथ ही साथ यह सुगंधित व्यंजनों का केंद्र भी है.
मुरीकड़ी : यह थेक्कड़ी से 5 किलोमीटर दूर है. यहां इलायची, कौफी, कालीमिर्च के बाग दर्शनीय हैं.
वंडिपेरियार : यह थेक्कड़ी से 14 किलोमीटर दूर है. इस खास ट्रेड सैंटर में कई टी फैक्टरियां हैं.
कुट्टिकानम : यह थेक्कड़ी से 40 किलोमीटर दूर स्थित है. इस हिल स्टेशन का ठंडा व सुखद मौसम किसी को भी यहां दोबारा आने के लिए आमंत्रित करता है. यहां जलप्रपात के नीचे स्नान करने का आनंद भी उठाया जा सकता है.
कोच्चि
कोच्चि शहर केरल के केंद्र भाग में स्थित है. यह इस राज्य की व्यापारिक राजधानी है. यहूदी, पुर्तगाली, यूनानी, अरब, रोमन व्यापारी व्यापार के लिए यहां आयाजाया करते थे. इसलिए यहां के स्थानीय लोगों के जीवन पर उन की संस्कृति का प्रभाव आज भी देखा जा सकता है. कोच्चि संसार के सब से पुराने व विख्यात बंदरगाहों में एक है. यह ‘अरब सागर की रानी’ के नाम से विख्यात है. पैलेस, किले, झील, नृत्य, ऐतिहासिक स्मारक, लंबे समुद्री तट साथ ही साथ गगनचुंबी इमारतें, मौल कोच्चि का चेहरा बदल रहे हैं. प्राचीन व नवीन का समृद्ध मिश्रण यहां की खूबी है.
दर्शनीय स्थल
मट्टानचेरी : एरणाकुलम से बस द्वारा 30 मिनट के भीतर मट्टानचेरी पहुंचा जा सकता है. मट्टानचेरी के आसपास अनेक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल हैं. 
जू टाउन : ऐतिहासिक स्मारक जूविश सिनगेग के चारों ओर का इलाका जू टाउन नाम से जाना जाता है.  
चाइनीज फिश्ंिग नैट : वास्कोडिगामा स्क्वायर से आप टीक व बांस की लकडि़यों से बने चाइनीज फिश्ंिग नैट की कतारों का अच्छा नजारा देख सकते हैं. 
अन्य दर्शनीय स्थल
परिक्षित नंबुरान म्यूजियम, म्यूजियम औफ केरला हिस्ट्री, आर्ट गैलरी, बोलगाटी पैलेस, सांताक्रूज बसिलिका डच सिमिट्री, बिशप हाउस, गुंडु द्वीप के अलावा यहां और भी बहुत से दर्शनीय स्थल हैं.

कर्नाटक शिल्प, संस्कृति और सौंदर्य का प्रतीक

अच्छा होता यदि भारत में देशाटन की परंपरा को महज धार्मिक भावनाओं की नींव पर रख कर विकसित न किया गया होता. फिर इस निर्धन देश के छोटेछोटे शहरों से ले कर सुदूर गांवों तक में रहने वाले नागरिक सैलानीपन के नाम पर अपने मन में केवल चारों धाम की यात्रा के सपने न संजोते. धर्म के दुकानदारों ने रामेश्वरम से ले कर कैलास पर्वत तक और द्वारका से ले कर गंगासागर तक तीर्थस्थलों को बेच कर सैलानियों की सोच को परंपरागत तीर्थस्थानों तक सीमित रख दिया. 
आज का समृद्ध और शिक्षित वर्ग पर्यटन के आनंद को धार्मिक अंधविश्वास के अलावा अंगरेजों द्वारा विकसित किए हुए पर्वतीय हिल स्टेशनों को छोड़ कर अन्य रमणीक स्थलों को अनदेखा कर देता है क्योंकि ऐसी हर जगह में जहां प्रकृति ने उन्मुक्त सुंदरता तो लुटाई है पर पहुंचने, रुकने और ठहरने की साधारण सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. पर्यटन सुविधाओं के अभाव ने एक भेड़चाल वाली मनोवृत्ति को बढ़ावा दिया है जिस के वशीभूत इस वर्ग के सैलानी को गरमी में केवल शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली, कश्मीर और दार्जिलिंग जैसे हिलस्टेशन ही दिखते हैं और सर्दियों में गोआ के समुद्रतट.
मनमोहक सौंदर्य
रमणीक स्थल यदि कोई खोजना चाहे जिन के प्राकृतिक सौंदर्य के आगे हमारे ख्यातिप्राप्त पर्यटन स्थल भी फीके लगें तो उत्तरी कर्नाटक के समुद्रतट पर बिखरे हुए अनमोल रत्नों की तरफ उसे उन्मुख होना चाहिए. 
गोआ के खूबसूरत समुद्रतट तक को तो बहुत सारे लोग पहुंचते हैं पर वहां उमड़ी भारी भीड़ उत्साह फीका कर देती है. सैलानी यदि दक्षिण दिशा में गोआ से थोड़ा ही अर्थात केवल डेढ़दो सौ किलोमीटर और आगे जाएं तो उत्तर कर्नाटक के रमणीक समुद्रतट पर बिखरे हुए बेहद खूबसूरत छोटेछोटे शहर, कसबे और गांव अपने अद्भुत सौंदर्य से उन्हें सम्मोहित कर देंगे. चांदी सी चमकती रेत वाले समुद्रतट जिन्हें उद्योगजन्य प्रदूषण का अभिशाप नहीं झेलना पड़ा है, इन तटों के विस्तार को बीचबीच में तोड़ती हुई छोटीछोटी नदियां जो समुद्र तक गजगामिनी सी मंथर गति से आ कर उस में निस्तब्ध हो कर विलीन हो जाती हैं और अचानक कहींकहीं इस धरातली एकरसता को भंग करते हुए अकेले निर्जन में प्रहरी की तरह तना खड़ा हुआ कोई प्रकाश स्तंभ (लाइट हाउस), ये सब कुल मिला कर एक ऐसे अछूते सौंदर्य की संरचना करते हैं जिन से अनूठी शांति का एहसास होता है. इन्हीं के बीचबीच में मछुआरों के छोटेछोटे गांव अचानक याद दिला देते हैं कि बिना बाजारवाद के दंश का अनुभव कराने वाले बाजार भी हो सकते हैं. 
ठहरने, रहने, खानेपीने की 2-3 सितारों वाली भी सुविधाएं कोई खोजे तो निराशा हाथ लगेगी. पर अनेक छोटे से ले कर मध्यम श्रेणी के शहर ऐसे रमणीक स्थलों से दूर नहीं हैं. वहां ठहर कर समुद्रतट के राजमार्ग से पर्यटक आसानी से ऐसे शांत स्थानों तक आ सकते हैं और थोड़ा भी पैदल सैर करने वालों के लिए तो असीम संभावनाओं से भरा हुआ है यह क्षेत्र. 
आंखें चुंधिया जाएं
उत्तरी कर्नाटक का तटीय क्षेत्र कारवार से ले कर उडुपी तक इतने ठिकानों से भरा हुआ है कि प्रकृति प्रेमी पर्यटकों की आंखें चुंधिया जाएं. दिसंबर के अंत और जनवरी के प्रथम सप्ताह में तटीय कर्नाटक का मौसम गोआ के जैसा ही गुलाबी होता है और यह ही आदर्श मौसम है इस क्षेत्र में पर्यटन के लिए. समुद्रतट पर धूप में पसरे रहने वाला मौसम, अलस्सुबह और देर शाम को ठंडी हवा में हलकी सी झुरझुरी महसूस करने वाला मौसम, रात में तारोंभरे आकाश को निहारते हुए मीठी यादों में खो जाने वाला मौसम. 
अप्रैल, मई के महीनों में इस क्षेत्र में सुबह 10-11 बजे से ले कर सूर्यास्त तक तो दिन गरम होते हैं पर समुद्रतट पर सुबह सुहानी ही रहती है और शाम होते ही समुद्र की तरफ से आने वाली पछुवा हवाएं दिन के ताप को दूर भगा देती हैं. जून का महीना आते ही मानसूनी हवाएं और बादलों से भरा आकाश, बारिश की झड़ी, एक अनोखा सौंदर्य भर देती हैं.
लुभावना कारवार
गोआ से कर्नाटक की सीमा में प्रवेश करने के 15 किलोमीटर के अंदर ही कारवार आ जाता है. इतने महत्त्वपूर्ण समुद्री और तटीय मार्ग पर बसा है यह शहर कि इब्न बतूता की यात्रा वृत्तांत में भी इस का जिक्र है. अरब, डच, पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंगरेज सभी इस से गुजरे. आज भी कारवार एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह है. भारतीय नौसेना का एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना होने के अतिरिक्त गोआ से ले कर चिकमंगलूर क्षेत्र की खदानों से लौह अयस्क भेजने के लिए भी कारवार के बंदरगाह की महत्ता है. 
सैलानियों के लिए इस नितांत व्यापारिक शहर के तट से थोड़ी ही दूर पर कुरुम गढ़ द्वीप है. इस द्वीप पर श्वेत बालू के विस्तृत तट पर समुद्रस्नान और तैराकी के अतिरिक्त सैलानी मोटरबोट में भी घूम सकते हैं. सागर के अंदर मोटरबोट आप को निकट से डौल्फिन के जल में अठखेलियां करते हुए समूहों के भी कभीकभार दर्शन करा सकती है. 
पश्चिमी घाट के पर्वतों से उतर कर कारवार पहुंच कर काली नदी अरब सागर में जिस स्थान पर विलीन हो कर अपनी यात्रा समाप्त करती है उसी के निकट सदाशिव गढ़ के पुराने दुर्ग में इतिहास के पन्ने आज के सूनेपन में फड़फड़ाते हुए से लगते हैं. काली नदी में मछली के शिकार के शौकीनों को अपना शौक पूरा करने के अवसर खूब मिलते हैं.
कारवार से लगभग 100 किलोमीटर आगे मुर्देश्वर के समुद्रतट पर ऊंची शिवमूर्ति स्थापित है. इस के विशाल आकार को प्रतिबंधित करता है बीसमंजिला गोपुरम जो शिवमूर्ति के नीचे प्रतिष्ठित शिवमंदिर का प्रवेशद्वार है.
अद्भुत है मुर्देश्वर 
मुर्देश्वर में आप केवल प्रकृति के सान्निध्य में अपने नित्यप्रति के मानसिक तनाव भूल कर कुछ उन्मुक्त आनंद के क्षण खोजते हुए आए
हैं. एक अच्छा होटल, वातानुकूलित कमरे, स्वादिष्ठ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन इत्यादि भी चाहिए तो मुर्देश्वर में वे सभी सुविधाएं मिल जाती हैं. 
मुर्देश्वर का समुद्रतट, स्नान करने और किनारे रेत में लेटने का मजा लेने के लिए किसी भी अच्छे रिजोर्ट से पीछे नहीं. यही नहीं, यदि आप साइकिल से या पैदल 10-15 किलोमीटर की दूरी तय कर के वनाच्छादित सह्याद्रि पर्वत की चढ़ान तक पहुंच सकते हैं तो फिर ट्रैकिंग के लिए कई सुरम्य चढ़ाइयां आप को मिल जाएंगी.
मुर्देश्वर तक कोई आए और वहां से केवल 70-80 किलोमीटर दूर जा कर भारत का सब से विशाल और ऊंचा प्रपात जोग फौल्स देखे बिना वापस जाए, यह कैसे संभव है. कर्नाटक के पूरे तटीय क्षेत्र का पर्यटन भले ही सर्दियों में अधिक आनंद दे पर जोग प्रपात का अद्वितीय सौंदर्य सिर्फ बारिश के मौसम में ही अपने चरमोत्कर्ष पर होता है. लेकिन बारिश में सड़कें इतनी अच्छी दशा में नहीं रहतीं और घूमनेफिरने का आनंद सिमट जाता है. 
जोग प्रपात की भव्यता कम ही दिखे पर कुछ तो होगी ही, इसलिए हम ने जनवरी के महीने में भी जोग प्रपात देखने का निर्णय ले लिया. पर
वहां जा कर निराशा ही हाथ लगी. श्मशान में जैसे बहुत दुनियादार व्यक्ति भी कुछ देर के लिए दार्शनिक बन जाता है वैसे ही जोग प्रपात के संकुचित असहाय से लगते स्वरूप को देख कर मन में एक अवसाद सा उठा.
जोग प्रपात की भव्यता
बारिश के मौसम में इतनी ऊंचाई से इतनी विशालकाय, चौड़ी छाती वाला प्रपात कितना भीषण निनाद करता हुआ नीचे गिरता होगा, कैसा अविस्मरणीय प्रभाव डालता होगा, इस की कल्पना करना कठिन नहीं था, पर अपनी निराशा से कहीं अधिक दुख हुआ उन कुछ विदेशी पर्यटकों को देख कर जिन्हें पर्यटन व्यवसाय में लगी कंपनियां जोग प्रपात के वर्षा ऋतु का स्वरूप चित्रों में दिखा कर यहां तक खींच लाई थीं. वे सिर्फ ठगा सा महसूस ही नहीं कर रहे थे बल्कि स्पष्ट शब्दों में कहने से भी हिचक रहे थे कि उन्हें बेवकूफ बनायागया था.
यदि समय हो तो 100 किलोमीटर और दक्षिण जा कर उडुपी भी घूम आएं, समुद्र तट तो वहां है ही पर उत्सुकता यह जानने की भी होती है कि आखिर क्या है वहां जो डोसा, इडली, वडा, सांभर सबकुछ खा कर अघाने वाला पारखी भी एक बार कहता जरूर है कि उडुपी के रैस्टोरैंट्स की बात ही कुछ और है. 
 

शाही अंदाज में हैदराबाद का सुहाना सफर

पिछले साल मईजून में हम हैदराबाद घूमने गए थे. तपतेसुलगते वे दिन आंध्रप्रदेश की राजधानी में जा कर इतने मनोरम बन जाएंगे, कल्पना भी नहीं की थी. राजीव गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट से बाहर आते ही हरेभरे वृक्षों और फूलों से सरोकार हुआ तो तनबदन में ताजगी भर गई. एक तरफ पुराना शहर अपने बेजोड़ स्थापत्य से हमें लुभा रहा था, वहीं दूसरी ओर हाईटैक सिटी दिग्भ्रमित कर रही थी.
हैदराबाद 500 साल पहले बसा था. आज यह आंध्रप्रदेश की राजधानी है. मूसी नदी के किनारे बसे हैदराबाद और सिकंदराबाद को ट्विन सिटीज के नाम से जाना जाता है. यहां रेल मार्ग, सड़क मार्ग व हवाई मार्ग से जाया जा सकता है. यह तीनों रूट से वैलकनैक्टेड है.
गोलकुंडा फोर्ट
पहला कदम रखा हम ने गोलकुंडा फोर्ट पर. हैदराबाद के इस किले को कुतुबशाही शासकों ने बनवाया था.
हम ने प्रवेश किया मुख्य दरवाजे से. इस का नाम फतेह दरवाजा है. यह इतना बड़ा है कि हाथी पर बैठा हुआ आदमी आराम से निकल जाए. ऊंची दीवारों और कई दरवाजों वाला यह किला अनूठा है. किले में 87 परकोटे हैं जिन पर खड़े हो कर सुरक्षाप्रहरी पहरा देते थे.
गोलकुंडा की दास्तान हो और उस में कोहिनूर की चर्चा न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता क्योंकि विश्वविख्यात कोहिनूर हीरे का असली घर गोलकुंडा किला है. यह दुनिया का सब से दुर्लभ और सब से बेशकीमती हीरा है, जो अब ब्रिटेन की महारानी के ताज में जड़ा हुआ है.
चारमीनार
हैदराबाद का नाम सुनते ही चारमीनार जेहन में आती है. ढलती शाम में चारमीनार का सौंदर्य देखते ही बनता है. हैदराबाद के व्यस्ततम बाजार लाड बाजार के बीचोबीच खड़ी यह इमारत कुतुबशाह द्वारा 1591 में बनवाई गई थी. चारमीनार के एक कोने पर स्थित देवी का मंदिर कौमी एकता को दर्शाता है.
लाड बाजार
चारमीनार के आसपास बहुत सारी दुकानों से बना है यह बाजार. यहां की रौनक सुबहशाम देखते ही बनती है. तंग गलियों में दुकानों और दुकानों में टूरिस्ट व लोकलाइट्स. समूचा बाजार नायाब हैदराबादी मोतियों और चूडि़यों से अटा पड़ा है. जम कर होने वाले मोलभाव में कभी सैलानी बाजी मार ले जाते हैं तो कभी दुकानदार.
हुसैन सागर लेक
हैदराबाद जिस तालाब के किनारे बसा हुआ है वह है हुसैन सागर लेक. हजरत हुसैन शाह वली ने 1562 में मूसी नदी की सहायक नदी पर इसे बनवाया था. तालाब के बीचोबीच एक पत्थर से बनी विशालकाय गौतम बुद्ध की मूर्ति ध्यान खींचती है. हुसैन सागर में बोटिंग, वाटर स्पोर्ट्स होते हैं. यहां आसपास के गार्डन में बच्चों के लिए झूले, टौयट्रेन, म्यूजिकल फाउंटेन आदि चीजें देखने लायक हैं. शाम को यहां पर रोज लाइट एवं साउंड शो होता है जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है.
बिड़ला मंदिर
हुसैन सागर तालाब के दक्षिणी कोने में स्थित काला पहाड़ के कोने पर बिड़ला मंदिर बना है. 1976 में बिड़ला ग्रुप द्वारा इसे बनवाया गया था. मंदिर का स्थापत्य दक्षिण भारतीय है.
सलारजंग संग्रहालय
मूसा नदी के उत्तरी तट पर भारत का तीसरा सब से बड़ा म्यूजियम सलारजंग संग्रहालय है. यह लाजवाब है. एक पूरा दिन भी इसे देखने के लिए कम पड़ता है.
जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1951 में उद्घाटित यह संग्रहालय अपनी नायाब और अनमोल चीजों के लिए प्रसिद्ध है. अगर आप हैदराबाद गए और आप ने यह म्यूजियम नहीं देखा तो आप बहुत कुछ खोएंगे. सेमी सरक्युलर शेप में बने इस भवन में 38 गैलरियां हैं. इस दोमंजिले संग्रहालय के हर कमरे पर नंबर लिखा है. एकएक कर के आप हर कमरे का अवलोकन कर सकते हैं. संग्रहालय को बड़े प्यार और जतन से नवाब यूसुफ अली खान ने बनवाया था.
नवाब का संग्रहालय
सलारजंग के पास ही है नवाब का संग्रहालय. यह संग्रहालय सलारजंग से छोटा होते हुए भी आप को बांधे रखेगा. सलारजंग से यहां तक आने के लिए आप रिकशा या आटो ले सकते हैं. पुरानी हवेली में बने इस म्यूजियम में आखिरी निजाम की व्यक्तिगत चीजों का अच्छा संकलन है. 1930 की बनी रौल्स रौयस, मार्क जगुआर कारों को देख कर आप रोमांचित हो उठेंगे. निजाम का हीरों व सोने का कलैक्शन आंखें चुंधिया देता है.
एक बड़े हौल में रखी उन की पोशाकें देखते ही बनती हैं. प्राचीन वैभव, रईसी और शान देख कर आंखें विस्मित सी हो जाती हैं. कुछ देर के लिए बाहरी दुनिया से आप कट कर इतिहास की बांहों में समा जाते हैं.
चौमहला पैलेस
नवाब के महल से थोड़ी दूरी पर ही चौमहला पैलेस स्थित है. लगभग 200 वर्ष पूर्व बना चौमहला पैलेस 4 महलों से मिल कर बना है. इन में आफताब
महल सब से आलीशान है. यहां का स्थापत्य व सौंदर्य अनूठा है.
नेहरू जूलौजिकल पार्क
यों तो हैदराबाद में कई पार्क हैं लेकिन नेहरू जूलौजिकल पार्क का जवाब नहीं. 1,300 एकड़ क्षेत्र में फैला यह पार्क पशुपक्षियों की असंख्य प्रजातियों से भरा है. लौयन सफारी पार्क, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम और बच्चों की टे्रन इस जूलौजिकल पार्क की दूसरी विशेषताएं हैं. 1963 में खुला यह पार्क अपनी बोट राइड और माइग्रेटरी बर्ड्स के लिए भी प्रसिद्ध है.
हाईटैक सिटी
हैदराबाद के प्राचीन वैभव को चुनौती देता इस का हाईटैक सिटी का हिस्सा गगनचुंबी इमारतों का है. आधुनिक हैदराबाद को देख कर ऐसा लगता ही नहीं कि आप भारत में हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के द्वारा स्थापित शहर के इस हिस्से में आईटी कंपनियों के औफिस हैं. कुछ पार्क व रैस्टोरैंट भी हैं. आधुनिकता के इस सम्मिश्रण को देख कर आंखें चुंधिया जाती हैं.
क्या खरीदें : हैदराबाद प्रसिद्ध है अपने मोतियों के लिए. जांचनेपरखने का तरीका भी दुकानदार ही बताते हैं. हैंडीक्राफ्ट आइटमों, मोती और कीमती रत्नों के जेवर, यहां के राईस पर्ल और बसरा पर्ल सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं. कांच की हैदराबादी चूडि़यां मन मोह लेती हैं. यहां की कढ़ाई की गई हैंडीक्राफ्ट आप लोगों को तोहफे में दे सकते हैं.
भाषा : अधिकांश लोग स्थानीय भाषाओं के अतिरिक्त हिंदी व अंगरेजी समझते व बोलते हैं, इसलिए भाषा की कोई खास दिक्कत नहीं है.
इतिहास : हैदराबाद का इतिहास कुतुबशाही कुल की स्थापना से शुरू हुआ. 1518 में बहमनी राज्य से कुली कुतुबशाह ने सत्ता छीन कर गोलकुंडा का राज्य बसाया. कालांतर में यहां का वैभव देख कर औरंगजेब ने आक्रमण किया और कब्जा कर लिया. औरंगजेब के बाद आसफ शाह प्रथम ने स्वयं को निजाम घोषित किया और फिर हैदराबाद उन्नति करता गया.
शहर में आनेजाने के लिए : हैदराबाद के भ्रमण के लिए आप टैंपो, आटो, साइकिल रिकशा, सिटी बस और कैब का इस्तेमाल कर सकते हैं.

मध्य प्रदेश प्रेम, प्रकृति, परंपरा का अद्वितीय संगम

भारत की हृदयस्थली कहे जाने वाले मध्य प्रदेश में शेरों की दहाड़ से ले कर पत्थरों में उकेरी गई प्रेम की मूर्तियों का सौंदर्य वहां जाने वाले के मन में ऐसी यादें छोड़ जाता है कि दोबारा जाने के लिए उस का मन ललचाता रहता है.
बांधवगढ़ नैशनल पार्क में टाइगर देखने से ले कर ओरछा के महलों व खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों में आप वास्तविक भारत को खोज सकते  हैं. इस राज्य का इतिहास, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक विरासत और यहां के लोग इसे भारत के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन स्थलों में से एक बनाते हैं. यहां आने वाले सैलानियों के लिए प्रदेश का टूरिज्म विभाग विशेष तौर पर मुस्तैद रहता है ताकि पर्यटकों को किसी तरह की असुविधा न हो. इस बार मध्य प्रदेश को नैशनल टूरिज्म अवार्ड से सम्मानित किया गया है. मध्य प्रदेश के पर्यटन राज्यमंत्री सुरेंद्र पटवा को दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित समारोह में केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने सर्वोत्तम पर्यटन प्रदेश का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया.   
दर्शनीय स्थल
मांडू 
खंडहरों के पत्थर यहां के इतिहास की कहानी बयां करते हैं. यहां के हरियाली से भरे बाग, प्राचीन दरवाजे, घुमावदार रास्ते बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं.
रानी रूपमती का महल एक पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ है जो स्थापत्य का एक बेहतरीन नमूना है. यहां से नीचे स्थित बाजबहादुर के महल का दृश्य बड़ा ही विहंगम दिखता है, जोकि अफगानी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है. मांडू विंध्य की पहाडि़यों पर 2 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है. यहां के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिंडोला महल, शाही हमाम और नक्काशीदार गुंबद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं.
नीलकंठ महल की दीवारों पर अकबरकालीन कला की नक्काशी भी काबिलेतारीफ है. अन्य स्थलों में हाथी महल, दरियाखान की मजार, दाई का महल, दाई की छोटी बहन का महल, मलिक मुगीथ की मसजिद और जाली महल भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं.
धार से 33 और इंदौर से 99 किलोमीटर दूर स्थित मांडवगढ़ (मांडू) पहुंचने के लिए इंदौर व रतलाम नजदीकी रेलवे स्टेशन हैं. बसों से भी मांडू जाया जा सकता है. नजदीकी एअरपोर्ट (99 किलोमीटर) इंदौर है.
ओरछा 
16वीं व 17वीं शताब्दी में बुंदेला राजाओं द्वारा बनवाई गई ओरछा नगरी के महल और इमारतें आज भी अपनी गरिमा बनाए हुए हैं. स्थापत्य का मुख्य विकास राजा बीर सिंहजी देव के काल में हुआ. उन्होंने मुगल बादशाह जहांगीर की स्तुति में जहांगीर महल बनवाया जो खूबसूरत छतरियों से घिरा है. महीन पत्थरों की जालियों का काम इस महल को एक अलग पहचान देता है.
इस के अतिरिक्त राय प्रवीन महल देखने योग्य है. ईंटों से बनी यह दोमंजिली इमारत है. इस महल की भीतरी दीवारों पर चित्रकला की बुंदेली शैली के चित्र मिलते हैं. राजमहल और लक्ष्मीनारायण मंदिर व चतुर्भुज मंदिर की सज्जा भी बड़ी कलात्मक है. फूल बाग, शहीद स्मारक, सावन भादों स्तंभ, बेतवा के किनारे बनी हुई 14 भव्य छतरियां भी देखने योग्य स्थल हैं. 
यह ग्वालियर से 119 किलोमीटर और खजुराहो से 170 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां छोटा रेलवे स्टेशन है.
सांची
भारत में बौद्धकला की विशिष्टता व भव्यता सदियों से दुनिया को सम्मोहित करती आई है. सांची के स्तूप विश्व विरासत में शुमार हैं. स्तूप, प्रतिमाएं, मंदिर, स्तंभ, स्मारक, मठ, गुफाएं, शिलाएं व प्राचीन दौर की उन्नत प्रस्तर कला की अन्य विरासतें अपने में समाए हुए सांची को वर्ष 1989 में यूनैस्को की विश्व विरासत सूची में शमिल किया गया है. बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां
देशी व विदेशी पर्यटक प्रतिदिन हजारों की संख्या में पहुंचते हैं. 
सांची में सुपरफास्ट रेलें नहीं रुकतीं, इसलिए भोपाल आ कर यहां आना उपयुक्त रहता है. सांची देश के लगभग सभी नगरों से सड़क व रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है.
खजुराहो
खजुराहो के मंदिर पूरे विश्व में आकर्षण का केंद्र हैं. पर्यटक यहां स्थापित भारतीय कला के अद्भुत संगम को देख कर दांतों तले उंगली दबाने से अपने को नहीं रोक पाते. मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई  विभिन्न मुद्राओं की प्रतिमाएं भारतीय कला का अद्वितीय नमूना प्रदर्शित करती हैं. यहां काममुद्रा में मग्न मूर्तियों के सौंदर्य को देख कर  खजुराहो को प्यार का प्रतीक पर्यटन स्थल कहना भी अनुचित नहीं होगा. काममुद्रा के साक्षी इन मंदिरों में प्रतिवर्ष असंख्य जोड़े अपनी हनीमून यात्रा पर यहां आते हैं.
किसी समय इस क्षेत्र में खजूर के पेड़ों की भरमार थी. इसलिए इस स्थान का नाम खजुराहो हुआ. मध्यकाल में ये मंदिर भारतीय वास्तुकला के प्रमुख केंद्र माने जाते थे. वास्तव में यहां 85 मंदिरों का निर्माण किया गया था, किंतु वर्तमान में 22 ही शेष रह
गए हैं. 
मंदिरों को 3 भागों में बनाया गया है. यहां का सब से विशाल मंदिर कंदरिया महादेव मंदिर है. उसी के पास ग्रेनाइट पत्थरों से बना हुआ चौंसठ योगनी मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, घंटाई मंदिर, आदिनाथ और दूल्हादेव मंदिर प्रमुख हैं. मंदिरों की प्रतिमाएं मानव जीवन से जुड़े सभी भावों आनंद, उमंग, वासना, दुख, नृत्य, संगीत और उन की मुद्राओं को दर्शाती हैं. ये शिल्पकला का जीवंत उदाहरण हैं. 
शिल्पियों ने कठोर पत्थरों में भी ऐसी मांसलता और सौंदर्य उभारा है कि देखने वालों की नजरें उन प्रतिमाओं पर टिक जाती हैं. ये कला, सौंदर्य और वासना के सुंदर व कोमल पक्ष को दर्शाती हैं. खजुराहो तो अद्वितीय है ही, इस के आसपास भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जो आप की यात्रा को पूर्णता प्रदान करते हैं. इन में राजगढ़ पैलेस, गंगऊ डैम, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं हीरे की खदानें आदि हैं. 
खजुराहो के लिए दिल्ली व वाराणसी से नियमित फ्लाइट उपलब्ध हैं व खजुराहो रेलवे स्टेशन सभी प्रमुख रेल मार्गों से जुड़ा है.
पचमढ़ी
प्राकृतिक सौंदर्य के कारण सतपुड़ा की रानी के नाम से पहचाने जाने वाले पर्यटन स्थल पचमढ़ी की खोज 1857 में की गई थी. यकीन मानिए, आप मध्य प्रदेश के एकमात्र पर्वतीय पर्यटन स्थल पचमढ़ी जाएंगे तो प्रकृति का भरपूर आनंद उठाने के साथसाथ  तरोताजा भी हो जाएंगे.  सतपुड़ा के घने जंगलों का सौंदर्य यहां चारों ओर बिखरा हुआ है. यहां का वाटर फौल, जिसे जमुना प्रपात कहते हैं, पचमढ़ी को जलापूर्ति करता है. 
सुरक्षित पिकनिक स्पौट के रूप में विकसित अप्सरा विहार का जलप्रपात देखते ही बनता है. प्रियदर्शनी, अप्सरा विहार, रजत प्रपात, राजगिरि, डचेस फौल, जटाशंकर, हांडी खोह, धूपगढ़ की चोटी और पांडव गुफाएं यहां के प्रमुख स्थल हैं. यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन पिपरिया है. यहां भोपाल और पिपरिया से सड़क मार्ग द्वारा भी जाया जा सकता है. निकटतम हवाई अड्डा  भोपाल 210 किलोमीटर की दूरी पर है.
बांधवगढ़़
राजशाहों का पसंदीदा शिकारगाह रहा है बांधवगढ़. प्रमुख आकर्षण जंगली जीवन, बांधवगढ़ नैशनल पार्क में शेर से ले कर चीतल, नीलगाय, चिंकारा, बारहसिंगा, भौंकने वाले हिरण, सांभर, जंगली बिल्ली, भैंसे से ले कर 22 प्रजातियों के स्तनपायी जीव और 250 प्रजातियों के पक्षियों के रैन बसेरे हैं. 
448 स्क्वायर किलोमीटर में फैला बांधवगढ़ भारत के नैशनल पार्कों में अपना प्रमुख स्थान रखता है. यहां पहाड़ों पर 2 हजार साल पुराना बना किला भी देखने लायक है. बांधवगढ़ प्रदेश के रीवा जिले में स्थित है. यहां आवागमन के सभी साधन देश भर से उपलब्ध हैं. 
नजदीकी हवाई अड्डा जबलपुर में है. यह रेल मार्ग से भी जबलपुर, कटनी, सतना से जुड़ा हुआ है.
कान्हा किसली
940 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विकसित कान्हा टाइगर रिजर्व राष्ट्रीय उद्यान है. इसे देखने के लिए किराए पर जीप मिल जाती है. कान्हा में वन्यप्राणियों की 22 प्रजातियों के अलावा 200 पक्षियों की प्रजातियां हैं. यहां बामनी दादर एक सनसैट पौइंट है. यहां से सांभर, हिरण, लोमड़ी और चिंकारा जैसे वन्यप्राणियों को आसानी से देखा जा सकता है.  जबलपुर, बिलासपुर और बालाघाट से सड़क मार्ग से कान्हा पहुंचा जा सकता है. नजदीकी विमानतल जबलपुर में है.

राजशाही शान राजस्थान

ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक सौंदर्य बिखेरती अरावली पर्वत शृंखलाओं के बीच बसे राजस्थान की मरुभूमि आज भी शौर्य और वैभव
के गीत गा रही है. मीलों फैले सुनहरी रेत के धोरे, कलात्मक राजप्रासाद, अजेय दुर्ग, बावडि़यां, छतरियां, स्मारक, अद्भुत हवेलियों और महलों के वास्तुशिल्प की कलात्मकता के साथ राजपूती वीरता की कहानियां अनायास ही पर्यटकों को आकर्षित कर लेती हैं. सदैव ही राजस्थानी आभूषण व कपड़े पर्यटकों को विशेष रूप से लुभाते रहे हैं.
दर्शनीय स्थल
अजमेर
अजमेर एक तरह से अंधविश्वास का शहर है पर फिर भी यहां विभिन्न ऐतिहासिक व दर्शनीय स्थल हैं.
दरगाह : तारागढ़ पहाड़ी के नीचे स्थित यहां प्रांगण में रखे 2 विशालकाय देग विशेष आकर्षण हैं साथ ही, अकबरी मसजिद तथा शाहजहानी मसजिद में सफेद संगमरमर की परिष्कृत नक्काशी मन मोह लेती है.
अढ़ाई दिन का झोपड़ा : खंडहर के रूप में एक उत्कृष्ट इमारत अढ़ाई दिन के झोपड़े के नाम से प्रसिद्ध है. यह भारतीय इसलामी वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है. बताया जाता है कि इसे निर्मित होने में केवल ढाई दिन लगे थे.
तारागढ़ का किला : 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस किले से शहर को देखा जा सकता है. लोक परंपरा में इसे गठबीठली भी कहा गया है. मुगलकाल में यहां सैन्य गतिविधियां होती थीं, अंगरेजों ने इस का इस्तेमाल सैनेटोरियम के रूप में किया.
संग्रहालय : यह अकबर का शाही निवास था, जिसे संग्रहालय में तबदील कर दिया गया. यहां राजपूतों के कवचों व उत्कृष्ट मूर्तियों का समृद्ध भंडार है.
सर्किट हाउस : कृत्रिम आनासागर झील के ऊंचे किनारे पर पूर्व में अंगरेजी रैजिडैंसी रहा सर्किट हाउस भी दर्शनीय है.
पुष्कर झील : अजमेर से 13 किलोमीटर दूर रेगिस्तान के किनारे स्थित व 3 तरफ से पहाडि़यों से घिरी हुई यह झील नाग पहाड़ी से अजमेर से पृथक हो जाती है.
खरीदारी : समकालीन डिजाइनों वाले सोने व चांदी के अद्भुत आभूषण, प्राचीन वस्तुएं, कलाकृतियां, रंगीन बंधेज की साडि़यां एवं मिठाई में प्रसिद्ध सोहन हलवा खरीदा जा सकता है.
कैसे पहुंचें : जयपुर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से 132 किलोमीटर दूर है अजमेर. यह महत्त्वपूर्ण शहरों के साथ सड़क एवं रेल सेवाओं से भी जुड़ा है. 
अलवर
किला : शहर से 1 हजार फुट और समुद्रतल से 1,960 फुट की ऊंचाई पर स्थित किला उत्तर से दक्षिण तक 5 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम तक 1.6 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है. बाबर, अकबर, जहांगीर एवं महाराणा प्रताप के शौर्य को इस किले ने नजदीकी से देखा है. किले में अनेक द्वार हैं जिन की नक्काशी देखते ही बनती है.
सिटी पैलेस : 18वीं शताब्दी के इस महल में राजपूत व मुगल शैली का सुव्यवस्थित समायोजन है. इस के पीछे कृत्रिम झील सागर है जिस के तट पर कई मंदिर हैं. असाधारण बंगाली छत व मेहराबों से युक्त अद्भुत मूसी की छतरी भी यहां स्थित है.
राजकीय संग्रहालय : 18वीं एवं 19वीं सदी के मुगल एवं राजपूत चित्र, अरबी, फारसी, उर्दू और संस्कृत की कई पांडुलिपियां जैसे गुलिस्तां (गुलाबों का बगीचा), वक्त-ए-बाबरी (मुगल सम्राट बाबर की आत्मकथा) और बोस्तां (झरनों का बगीचा) आदि संग्रहालय में हैं. यहां अलवर शैली के कलाकारों द्वारा चित्रित महाकाव्य महाभारत की प्रति भी है.
पुर्जन विहार (कंपनी गार्डन) : 1868 में महाराज शिवदान सिंह द्वारा बनवाए गए इस मनोरम बगीचे को शिमला की संज्ञा दी जाती है. अलवर से 10 किलोमीटर दूर विजय मंदिर पैलेस में जाने से पहले कंपनी गार्डन के सचिव की अनुमति लेनी आवश्यक है.
सिलिसेड झील : अलवर से 13 किलोमीटर दूर पैलेस होटल, 6 किलोमीटर की दूरी पर जयसमंद झील लोकप्रिय एवं मनोरम स्थल है.
सरिस्का : अलवर से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, अरावली की सुरम्य घाटी में झूलता यह लंबा घना वृक्षयुक्त अभयारण्य है. इस बाघ अभयारण्य को 1955 में प्रोजैक्ट टाइगर योजना के अंतर्गत मान्यता प्रदान की गई.
जोधपुर
16वीं शताब्दी में मारवाड़की राजधानी रहा जोधपुर मुख्य व्यापारिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है. यह राजसी गौरव की जीवंत मिसाल है.
मेहरानगढ़ किला : 125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर  5 किलोमीटर लंबा भव्य मेहरानगढ़ किला और कई विराट इमारतें स्थित हैं. यह किला ‘मयूर ध्वज’ के नाम से प्रसिद्ध है. बाहर से अदृश्य, घुमावदार सड़कों से जुड़े इस किले के 4 द्वार हैं. किले के भीतर मोतीमहल, फूलमहल, शीशमहल, सिलेहखाना और दौलतखाना आदि खूबसूरत इमारतें हैं. 
इन जगहों पर रखे राजवंशों के साजोसामान का विस्मयकारी संग्रह देखा जा सकता है. इस के अतिरिक्त पालकियां, हाथी के हौदे, विभिन्न शैलियों के लघुचित्र, संगीत वाद्य, पोशाकें व फर्नीचर का अनूठा संकलन है.
उम्मेद भवन पैलेस : 20वीं सदी का एकमात्र बलुआ पत्थर से निर्मित यह उम्मेद भवन पैलेस अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत निर्मित हुआ. यह 16 वर्ष में बन कर तैयार हुआ.
ओंसिया : जोधपुर बीकानेर राजमार्ग की दूसरी दिशा पर जोधपुर से 65 किलोमीटर की दूरी पर रेगिस्तान में ओंसिया मरुधान स्थित है. रेगिस्तान विस्तार, रेतीले टीले व छोटेछोटे गांवों के दृश्य देखने लायक हैं.
धवा : जोधपुर से45 किलोमीटर दूरी पर एक वन्यप्राणी उद्यान है जिस में भारतीय मृग सब से अधिक संख्या में हैं.
कैसे पहुंचें : दिल्ली, मुंबई, उदयपुर व जयपुर से वायुमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है. देश के प्रमुख शहरों के साथ सीधी रेल सेवाएं उपलब्ध हैं. सड़क द्वारा भी सुगमता से पहुंचा जा सकता है.
उदयपुर
उदयपुर को मेवाड़ के रतन के नाम से जाना जाता है. हरीभरी पहाडि़यों से घिरे झीलों के शहर उदयपुर की स्थापना 16वीं शताब्दी में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने की थी.
सिटी पैलेस : पहाड़ी पर झील के उप मुख्यद्वार, दीवारों से घिरा वास्तुकला का चमत्कार सिटी पैलेस किला गलियारों, मंडपों, छतों, प्रांगणों, कमरों व लटके बगीचों का समूह है.
3 मेहराबों का त्रिपोलिया द्वार मुख्य प्रवेश द्वार है जिस की 8 संगमरमर की ड्योढि़यां हैं.
मोर चौक : शीशे की उत्कृष्ट पच्चीकारी के लिए मोर चौक प्रसिद्ध है.
दरबार हौल : यहां के दरबार हौल में अत्यंत बेशकीमती, विशालकाय झाड़फानूस और महाराणाओं के आदमकद त्रिआयामी तैलचित्रों की शानदार शृंखला देखी जा सकती है.
सहेलियों की बाड़ी : यह एक बगीचा है. इस अलंकृत बगीचे में शाही घराने की महिलाएं सैर करने आया करती थीं. यहां मनमोहक
4 तालों में कई फौआरे हैं, तराशी हुई छतरियां व संगमरमर के हाथी हैं.
कैसे पहुंचें : जोधपुर, जयपुर, औरंगाबाद, मुंबई व दिल्ली से वायुसेवाएं उपलब्ध हैं. मुख्य शहरों से सीधी रेल सेवा द्वारा जुड़ा है. अनेक स्थानों के साथ बस सेवाओं से भी जुड़ा है.
माउंट आबू
ऋषियों, मुनियों की तपोभूमि और अरावली पर्वत शृंखला के दक्षिणी छोर पर स्थित माउंट आबू राजस्थान का एकमात्र पर्वतीय स्थल है. किवदंती है कि आबू हिमालय का पुत्र है. इस शहर का नाम अर्बुदा नामक सर्प पर पड़ा है.
नक्की झील : पहाडि़यों के बीच एक सुरम्य छोटी सी झील, झील के चारों ओर चट्टान की अजीब सी आकृति दिलचस्पी का केंद्र है. टोड राड विशेषकर उल्लेखनीय है जो वास्तविकता में मेंढक के आकार की लगती है.
सनसैट पौइंट : माउंट आबू में सनसैट पौइंट, हनीमून पौइंट, बाग व बगीचों के अलावा गुरुशिखर, जो अरावली पर्वत शृंखला की सब से ऊंची चोटी है, से माउंट आबू के देहाती परिवेश का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है.
ट्रैवोर टैंक : माउंट आबू से 5 किलोमीटर दूर यह स्थान घनी वृक्षयुक्त पहाडि़यों के कारण मंत्रमुग्ध कर देता है. पक्षीप्रेमियों के लिए आनंद- दायक स्थल है. पैंथर और भालू को देखने का सब से अधिक मौका इसी स्थल पर संभव है.
कैसे पहुंचें : यहां से 185 किलोमीटर पर उदयपुर का हवाईअड्डा सब से नजदीक है. 29 किलोमीटर की दूरी पर आबू रोड नजदीकी रेलवे स्टेशन है. आगे की यात्रा के लिए जीप, टैक्सी व बसें किराए पर ली जा सकती हैं.

घुमक्कड़ों की चहेती दिल्ली

दिल्ली पिछले कई सालों से बतौर राजधानी देश की सियासत का केंद्र तो है ही, साथ में अपने ऐतिहासिक महत्त्व के चलते देशीविदेशी पर्यटकों को भी लुभाती है. अपने 102 साल पूरे कर चुकी दिल्ली आज जितनी पुरानी है उतनी आधुनिक भी है. इन सालों में इस ने सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में बेहतर परिवर्तनों के साथ देशीविदेशी पर्यटकों के दिलों में खासी जगह भी बनाई है.
दिल्ली में पर्यटन का मजा ही कुछ और है. यहां की प्राचीन इमारतें, लजीज व्यंजन और फैशन पर्यटकों को विशेषतौर पर आकर्षित करते हैं. यहां घूमने के लिए जहां कुतुबमीनार, लाल किला, पुराना किला, इंडिया गेट, चिडि़याघर, डौल्स म्यूजियम, जामा मसजिद, चांदनी चौक, नई सड़क, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, प्रगति मैदान, जंतरमंतर, लोटस टैंपल, बिड़ला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर हैं वहीं पुरानी दिल्ली की परांठे वाली गली के परांठे, लाजपत नगर की चाट और शौपिंग व इंटरटेनमैंट के लिए शानदार मौल व मल्टीप्लैक्स भी हैं.
ऐतिहासिक धरोहरें
इंडिया गेट : दिल्ली में होने वाली ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग का पहला शौट इंडिया गेट में ही संपन्न होता है. राजपथ पर स्थित इंडिया गेट को दिल्ली का सिग्नेचर मार्क भी कह सकते हैं. अन्ना के अनशन और आंदोलन के दौरान भी इस जगह ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी. इस का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफगान युद्ध में मारे गए 90 हजार भारतीय सैनिकों की स्मृति में कराया गया था. 160 फुट ऊंचा इंडिया गेट दिल्ली का पहला दरवाजा माना जाता है. जिन सैनिकों की याद में यह बनाया गया था उन के नाम इस इमारत पर अंकित हैं. इस के अंदर अखंड अमर जवान ज्योति जलती रहती है. दिल्ली का पर्यटन यहां आए बिना अधूरा है.
पुराना किला : पुराना किला आज दिल्ली का लोकप्रिय पिकनिक स्पौट बन कर उभर रहा है. यहां हरी घास और पुराने खंडहर हैं तो वहीं एक बोट क्लब भी है जहां सैलानी अपने परिवार के साथ नौकायन का आनंद उठाते हैं. इस में प्रवेश करने के 3 दरवाजे हैं. हुमायूं दरवाजा, तलकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा. हालांकि वर्तमान में सिर्फ बड़े दरवाजे को प्रयोग में लाया जाता है.
जंतरमंतर : यह इमारत प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उन्नति का नायाब नमूना है. जंतरमंतर समरकंद की वेधशाला से प्रेरित है. ग्रहों की गति नापने के लिए यहां विभिन्न प्रकार के उपकरण लगाए गए हैं. यहां बना सम्राट यंत्र सूर्य की सहायता से समय और ग्रहों की स्थिति की सूचना देता है.
कुतुबमीनार : इस मीनार को देख कर स्मृतिपटल पर पीसा की झुकी हुई मीनार का चित्र उभर कर सामने आता है. भले ही इस मीनार के अंदर जाने के दरवाजे पर्यटकों के लिए बंद करा दिए गए हों पर यहां आने वाले सैलानियों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. यह मीनार मूल रूप से सातमंजिला थी पर अब यह पांचमंजिला ही रह गई है. इस मीनार की कुल ऊंचाई 75.5 मीटर है और इस में 379 सीढि़यां हैं. परिसर में और भी कई इमारतें हैं जो अपने ऐतिहासिक महत्त्व व वास्तुकला से सैलानियों का मन मोहती हैं. मीनार के करीब में चौथी शताब्दी में बना लौहस्तंभ भी दर्शनीय है.
 
दिल्ली के गार्डन
दिल्ली शहर ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जितना मशहूर है उतना ही दुर्लभ किस्म के पुष्पों से भरे उद्यानों के लिए भी जाना जाता है. यहां कई बेहतरीन गार्डन हैं जहां आ कर लगता है मानो किसी हिल स्टेशन पर आ गए हों. मुगल गार्डन की बात करें तो यहां तकरीबन 125 प्रकार के गुलाबों की खुशबू आप के दिल में उतर जाएगी. राष्ट्रपति भवन में स्थित यह गार्डन प्रकृतिप्रेमी पर्यटकों का पसंदीदा ठिकाना है.
13 एकड़ में फैले इस विशाल गार्डन में मुगलकाल व ब्रिटिशकाल की शैली का अद्भुत संगम परिलक्षित होता है. पर्ल गार्डन और बटरफ्लाय गार्डन जैसे कई बगीचों से मिल कर बना मुगल गार्डन 15 फरवरी से 15 मार्च तक आमजन के लिए खुलता है.
इसी तरह लोदी गार्डन भी खूबसूरत फौआरों, तालाब व रंगबिरंगे फूलों से सजा है. गार्डन में राष्ट्रीय बोनसाई पार्क भी है. कभी लेडी विलिंगटन पार्क के नाम से मशहूर रहे लोदी गार्डन में पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों समेत विविध किस्म के पक्षियों को देखना मजेदार अनुभव होता है. लोदी गार्डन के अलावा तालकटोरा गार्डन में रंगबिरंगे फूलों के साथसाथ स्टेडियम भी है जहां खेलों और कार्यक्रमों का समयसमय पर आयोजन होता रहता है.
संग्रहालय : शिल्प संग्रहालय यानी क्राफ्ट म्यूजियम में भारत की समृद्ध हस्तशिल्प कला को निहायत खूबसूरती से सजाया गया है. यहां अलगअलग जगहों से आए शिल्पकार प्रदर्शनियों में भाग लेते हैं. यहां आदिवासी और ग्रामीण शिल्प व कपड़ों की गैलरी हैं. अगर आप को हर राज्य के आर्टिस्टों के हाथों से बनी चीजें देखने और खरीदने का शौक है तो प्रगति मैदान के गेट नंबर 2 के पास स्थित क्राफ्ट म्यूजियम आप के लिए ही है. आम विजिटर के लिए यहां प्रवेश हेतु 10 रुपए का टिकट है जबकि स्कूल और फिजिकली डिसएबल्स के लिए कोई टिकट नहीं है. सोमवार को यह बंद रहता है.
शिल्प संग्रहालय के पास ही डौल संग्रहालय भी है. विभिन्न परिधानों में सजी गुडि़यों का यह संग्रह, विश्व के बड़े संग्रहों में से एक है. बहादुरशाह जफर मार्ग पर नेहरू हाउस की बिल्डिंग में स्थित इस संग्रहालय में 85 देशों की करीब साढ़े 6 हजार से अधिक गुडि़यों का अद्भुत संग्रह है. वहीं, 1960 में स्थापित राष्ट्रीय संग्रहालय में लघु चित्रों का संग्रह है. इस में बनी संरक्षण प्रयोगशाला में छात्रों को ट्रेनिंग दी जाती है.
साउथ दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित रेल संग्रहालय भारतीय रेल के 140 साल के इतिहास की अभूतपूर्व झांकी पेश करता है. यहां रेल इंजनों के अनेक मौडल सहित देश का प्रथम रेल मौडल और इंजन भी देखा जा सकता है. यहां बच्चों के लिए एक टौय ट्रैन भी है.
चिडि़याघर : दिल्ली का चिडि़याघर पुराने किले के नजदीक है. इस विशाल चिडि़याघर में जानवरों और पक्षियों की हजारों प्रजातियां और सैकड़ों प्रकार के पेड़ हैं. यहां दुनियाभर से लाए गए पशुपक्षियों को देखना रोचक लगता है. यह गरमियों में सुबह 8 से शाम 6 बजे तक और सर्दियों में सुबह 9 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है.
 
खाना, खरीदारी और मनोरंजन स्थल : दिल्ली में घुमक्कड़ों के लिए सिर्फ स्मारक और म्यूजियम ही नहीं हैं बल्कि मौजमस्ती, शौपिंग, इंटरटेनमैंट के साथ खानेपीने के भी अनेक विकल्प मौजूद हैं. बात खरीदारी की करें तो सब से पहला नाम कनाट प्लेस यानी सीपी मार्केट का आता है. दिल्ली के इस केंद्र बिंदु में सभी देशीविदेशी ब्रैंड्स के शोरूम तो हैं ही, साथ ही अंडरग्राउंड पालिका बाजार भी है, जो पूरी तरह से वातानुकूलित है. खरीदारी के साथ यहां खाने का भी पूरा इंतजाम है. यहां के इनर सर्किल में लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड के कपड़ों के शोरूम, रेस्टोरैंट और बार हैं. पास में ही जनपथ बाजार है जहां कई तरह का एंटीक सामान मिल जाता है.
इसी तरह पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका, जहां विदेशी सैलानियों की भारी तादाद दिखती है, खानेपीने और खरीदारी के लिए मुफीद जगह है. दिल्ली आने वाले किसी भी व्यक्ति की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक वह चांदनी चौक न आए. यहां की परांठे वाली गली में तो जवाहर लाल नेहरू से ले कर अक्षय कुमार जैसी हस्तियां परांठों का लुत्फ उठा चुकी हैं.

पूर्वोत्तर राज्य सात बहनों का सतरंगी संसार

पूर्वोत्तर के राज्यों में पर्यटन के लिए सब से अच्छी बात यह है कि एक बार टूर पर निकल कर पूरे पूर्वोत्तर की सैर की जा सकती है. पूर्वोत्तर में असम सहित 7 राज्य हैं और ये 7 बहनों के रूप में जाने जाते हैं. त्रिपुरा के एक पत्रकार ज्योति प्रसाद सैकिया ने पहली बार अपनी किताब में पूर्वोत्तर के 7 राज्यों को यह नाम दिया. असम के अलावा बाकी 6 बहनें मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम हैं.
असम
पूर्वोत्तर राज्यों का रास्ता असम से हो कर जाता है. असम
का स्थानीय नाम अहोम है. थाईलैंड की अहोम जाति कभी यहां राज किया करती थी. विभिन्न नस्लों और पूर्वोत्तर की संस्कृतियों के संगम के अलावा असम चाय बागानों, फूल, वनस्पति, दुर्लभ नस्ल के गैंडों और यहां मनाए जाने वाले पर्वों, विशेष रूप से बिहू के लिए भी जाना जाता है.
असम के कांजीरंगा नैशनल पार्क का मुख्य आकर्षण एशियाई हाथी और एक सींगवाले गैंडे हैं. इस के अलावा बाघ, बारहसिंगा, बाइसन, बनबिलाव, हिरण, सुनहरा लंगूर, जंगली भैंस, गौर और रंगबिरंगे पक्षी भी हैं.
कांजीरंगा को बर्ड्स पैराडाइज भी कहा जाता है. नैशनल पार्क में हर तरफ घने पेड़ों के अलावा एक खास किस्म की घास, जो हाथी घास कहलाती है, भी देखने को मिलती है. वैसे, कांजीरंगा एलीफैंट सफारी के लिए ही अधिक जाना जाता है. यहां हर साल फरवरी में हाथी महोत्सव बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है.
इस के अलावा असम के दर्शनीय स्थलों में एक है कामाख्या देवी का मंदिर, जो नीलांचल पर्वत पर स्थित
है. यहां का सालाना अंबुवाची त्योहार विश्वविख्यात है. प्राचीन शिव मंदिर उमानंद ब्रह्मपुत्र नदी के पीकौक टापू पर स्थित है.
गुवाहाटी से मात्र 369 किलोमीटर की दूरी पर शिवसागर है. असम की चाय और तेल व प्राकृतिक गैस के लिए शिवसागर जिला प्रसिद्ध है. यहां शिव मंदिर है, जो भारत का सब से ऊंचाई पर बने मंदिर के रूप में जाना जाता है. ये इलाके धर्मभीरु पर्यटकों को खासे भाते हैं.
ब्रह्मपुत्र पर सरायघाट पुल, बोटैनिकल गार्डन, तारामंडल, बुरफुकना पार्क और साइंस म्यूजियम, मानस नैशनल पार्क की भी गिनती असम के दर्शनीय स्थलों में होती है. पर्यटन के लिए यहां सब
से अच्छा समय अक्तूबर
से मई तक है.
अरुणाचल प्रदेश
असम, मेघालय पर्यटन के बाद अरुणाचल प्रदेश की यात्रा आसानी से की जा सकती है. असम के आगे का रास्ता अरुणाचल की राजधानी ईटानगर को जाता है. ईटानगर में 14वीं सदी का एक ऐतिहासिक किला है जो ईटा फोर्ट कहलाता है. यह 80 लाख ईंटों से बना किला है. मालुकपोंग भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है. यह खूबसूरत और्किड के फूलों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. यहां और्किड फूलों का एक सैंटर है, टिपी और्किडोरियम. यहां ग्लासहाउस में सुरक्षित रखे गए 300 से भी अधिक विभिन्न प्रजातियों के और्किड के फूलों पर शोधकार्य भी होता है.
यहां हिमालय के नीचे से हो कर एक नदी बहती है, जो स्थानीय लोगों द्वारा गेकर सिन्यी कहलाती है, जिस का अर्थ
गंगा लेक है. राजधानी में जवाहरलाल नेहरू म्यूजियम, क्राफ्ट सैंटर, एंपोरियम टे्रड सैंटर भी हैं. इस के अलावा यहां चिडि़याघर और पुस्तकालय
भी हैं. टिपी और्किड सैंटर से 165 किलोमीटर की दूरी पर बोमडिला है. हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां विशेष
रूप से गोरिचन और कांगटो
की चोटियां, मनोरम एहसास दिलाती हैं. यहां से लगभग 24 किलोमीटर की दूरी पर सास्सा में पेड़पौधों की एक सैंक्चुरी है. यहां 80 प्रजातियों के 2,600 पौधे हैं जो प्राकृतिक वातावरण में फूलतेफलते हैं. लगभग
100 वर्ग किलोमीटर में फैली इस सैंक्चुरी में मन को मोह लेने वाले प्राकृतिक दृश्य, ऊंचाई से गिरते झरने और बहती कामेंग नदी है. बलखाती सर्पीली पहाड़ी नदी कामेंग में एडवैंचर टूरिज्म के शौकीनों के लिए व्हाइट वाटर राफ्ंिटग का मजा कुछ और ही है. बोमडिला से 45 किलोमीटर की दूरी पर निरांग है जो मठों व गरम झरने के लिए विख्यात है. साथ ही, यह किवी फल के लिए भी मशहूर है. यहां एक खास प्रजाति के याकों और भेड़ का प्रजनन केंद्र है.
बोमडिला से तवांग 190 किलोमीटर की दूरी पर है. यह समुद्र से 12 हजार फुट ऊंचाई पर है. इसी रास्ते में सेला दर्रा है जो 14 हजार फुट की ऊंचाई पर है. यह विश्व का दूसरा सब से ऊंचा दर्रा कहलाता है. यहीं तवांग मठ है. यह जगह मठ के अलावा गुफाओं और झीलों के लिए भी प्रसिद्ध है.
इस के अलावा राज्य के दर्शनीय स्थलों में परशुराम कुंड, नैशनल पार्क और कई झील हैं.
नागालैंड
नागालैंड को किंग व राफ्ंिटग के लिए बेहतरीन स्थल कहा जाता है. इस राज्य में प्रवेश करने का गेटवे दिमापुर है. इस की वजह यह है कि हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन केवल दिमापुर में ही है. इसलिए दिमापुर नागालैंड का मुख्य शहर माना जाता है. दिमासा नदी के किनारे बसे होने के कारण इस का नाम दिमापुर है.
कोहिमा नागालैंड राज्य की राजधानी है और यह दिमापुर से 74 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां द्वितीय विश्वयुद्ध का स्मारक चिह्न है. कोहिमा के दक्षिण में 15 किलोमीटर की दूरी पर जापफू पीक नामक पहाड़ है, जिस की ऊंचाई समुद्रतट से 3048 मीटर पर है. सूर्योदय का दृश्य यहां से बड़ा खूबसूरत नजर आता है. जापफू पर्वत शृंखलाओं की चोटी से जुकोऊ वैली का खूबसूरत नजारा लिया जा सकता है.
पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र यहां का एक चर्च है.  राजधानी कोहिमा के नाम पर इसे कोहिमा कैथेड्रल चर्च कहा जाता है. यह भारत का विख्यात चर्च है, जो 25 हजार वर्ग फुट में फैला है.
यहां एक खूबसूरत दजुकोउ घाटी है. यह घाटी फूलों के खूबसूरत गुलदस्ते के रूप
में जानी जाती है. घाटी की पहाडि़यां सदाबहार जंगलों से पटी हुई हैं. जंगल के ऊंचेऊंचे पेड़ गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में शामिल हैं. करीब में सेइथेकिमा गांव है. यह जगह ट्रिपल फौल्स के लिए जानी जाती है. दरअसल, यह एक तिमंजिला झरना है.
चुमुकेदिमा नामक एक टूरिस्ट विलेज कौंप्लैक्स दिमापुर के करीब है, यहां से पूरे दिमापुर को देखा जा सकता है. इस के अलावा यहां से 74 किलोमीटर की दूरी पर दोयांग नदी के पास गवर्नर्स कैंप नामक टूरिस्ट स्पौट है. यहां पर्यटक रिवर राफ्ंिटग, फिश्ंिग और कैंपिंग करते हैं.
पर्यटन व परमिट से संबंधित जानकारी दिल्ली, कोलकाता और कोहिमा के पर्यटन निदेशालय से प्राप्त की जा सकती है. विदेशी पर्यटकों को भारत सरकार के गृह मंत्रालय से रेस्ट्रिक्टैड एरिया परमिट यानी आरएपी व प्रोहिबिटैड एरिया परमिट यानी पीएपी लेना जरूरी है. कम से कम 4 लोगों का ग्रुप होना जरूरी है. न्यूनतम 10 दिनों के लिए और अधिकतम 1 महीने के लिए चुनिंदा जिलों में पर्यटन की अनुमति दी जाती है.
त्रिपुरा
त्रिपुरा को नेचर, ईको और वाटर टूरिज्म के लिए जाना जाता है. राजधानी अगरतल्ला के आसपास कई अभयारण्य हैं. अगरतल्ला से 100 किलोमीटर की दूरी पर तृष्ण वन्यजीव अभयारण्य और 75 किलोमीटर की दूरी पर सेपाहीजाला अभयारण्य हैं. इन अभयारण्यों में लगभग 150 प्रजातियों के पक्षी और खास तरह के बंदर हैं.
कमला सागर झील अगरतल्ला से 27 किलोमीटर की दूरी पर है. यही
ईको पार्क है. यहां तेपानिया, कालापानिया, बारंपुरा, खुमलांग, जामपुई दर्शनीय स्थल हैं. राजधानी से 178 किलोमीटर की दूरी पर उनाकोटि पर्यटक स्थल है. यहां चट्टानों को काट कर व तराश कर अनेक कलाकृतियां बनाई गई हैं.
मिजोरम की सीमा जामपुई हिल है जो समुद्रतल से 914 मीटर की ऊंचाई पर है. यहां की सब से ऊंची चोटी बेतलोगछिप है. यह जामपुई हिल का ही हिस्सा है. इस के अलावा पुरातात्त्विक पर्यटन या धार्मिक पर्यटन का हिस्सा बौक्सनगर, गुनावती मंदिर, भुवनेश्वरी मंदिर, पिलक, देवतैमुरा हैं.
राजधानी अगरतल्ला से 55 किलोमीटर की दूरी पर रुद्रसागर झील के किनारे नीरमहल नामक मुगलकालीन स्थापत्य का एक खूबसूरत नमूना है. सर्दी के मौसम में झील में यायावर पक्षियों का जमघट लगा रहता है. त्रिपुरा में खोवाल, कमालपुर और कैलास नाम के 3 छोटे एअरपोर्ट भी हैं. ट्रेन के रास्ते गुवाहाटी से रेल यात्रा द्वारा भी यहां के स्टेशन कुमारघाट पहुंचा जा सकता है. वीजा ले कर यहां से बंगलादेश भी जाया जा सकता है.
मिजोरम
मिजोरम की राजधानी आइजोल 115 साल से भी पुराना शहर है. यह समुद्रतल से लगभग 4 हजार फुट ऊंचाई पर स्थित है. यहां एक म्यूजियम है, जो यहां की संस्कृति व इतिहास को संजोए हुए है. इस छोटे से शांत शहर से 204 किलोमीटर की दूरी पर चंफाई से म्यांमार तक का नजारा बखूबी देखा
जा सकता है. आइजोल से
85 किलोमीटर की दूरी पर टाडमिल लेक है. पर्यटक यहां बोटिंग करते हैं. यहां आसपास के जंगलों में प्रकृति की शोभा दर्शनीय है. यहां से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर वानतांग नाम का एक जलप्रपात है. यह राज्य का सब से ऊंचा स्थान है. यहां का थेंजोल हिल स्टेशन पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है.
ट्रैकिंग और एडवैंचर ट्रिप के लिए फावंगपुई है. यहां न केवल ट्रैकिंग और एडवैंचर का लुत्फ उठाया जा सकता है, बल्कि यहां से मिजोरम का पूरा नजारा भी दिखता है. यहां के पहाड़ों में वनौषधि, मसाले से ले कर विभिन्न किस्म के और्किड भी मिल जाते हैं. मिजोरम के उत्तरपश्चिम में मिजो हिल्स के पास डंपा अभयारण्य है. यहां हिरण, बाघ, चीता और हाथी पाए जाते हैं. यहां के अन्य दर्शनीय स्थानों में न्यू मार्केट, बर्मा लेन, सोलोमन केव, रिट्ज मार्केट, थाकथिंक बाजार आदि हैं.
मिजोरम का अपना कोई रेलवे स्टेशन नहीं है. असम के सिल्चर तक रेल से पहुंचा जा सकता है. सड़क के रास्ते सिल्चर से 7-8 घंटे की ड्राइविंग कर आइजोल पहुंचा जा सकता है. हां, यहां एअरपोर्ट जरूर है. भारत का सीमाक्षेत्र होने के कारण मिजोरम के बहुत सारे इलाकों में विदेशी पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं है. इस के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ती है.

लाहुल-स्पीति का अथाह सौंदर्य

चारों तरफ झीलों, दर्रों और हिमखंडों से घिरी, आसमान छूते शैल शिखरों के दामन में बसी लाहुल-स्पीति की घाटियां अपने सौंदर्य और प्रकृति की विविधताओं के लिए विख्यात हैं. जहां एक तरफ इन घाटियों की प्राकृतिक सौंदर्यता निहारते आंखों को सुकून मिलता है वहीं दूसरी तरफ हिंदू और बौद्ध परंपराओं का अनूठा संगम आश्चर्यचकित कर देता है. वैसे तो लाहुल-स्पीति दोनों को मिला कर एक जिला बनता है, लेकिन ये दोनों ही जगह अपनेअपने नाम के आधार पर सौंदर्य की अलगअलग परिभाषाएं गढ़ती हैं.
स्पीति 
स्पीति हिमाचल प्रदेश के उत्तरपूर्वी भाग में हिमालय की घाटी में बसा है. स्पीति का मतलब बीच की जगह होता है. इस जगह का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह तिब्बत और भारत के बीच स्थित है. यह जगह अपनी ऊंचाई और प्राकृतिक सुंदरता के लिए लोकप्रिय है. स्पीति क्षेत्र बौद्ध संस्कृति और मठों के लिए भी प्रसिद्ध है.
इतिहास : हिमालय की गोद में बसी इस जगह के लोगों को स्पीतियन कहते हैं. स्पीतियन लोगों का एक लंबा इतिहास है. इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि स्पीति पर वजीरों का शासन था जिन्हें नोनो भी कहा जाता था. वैसे तो समयसमय पर स्पीति पर कई लोगों ने शासन किया लेकिन स्पीतियन लोगों ने किसी की गुलामी ज्यादा दिनों तक नहीं सही. वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद यह पंजाब के कांगड़ा जिले का हिस्सा हुआ करता था. 1960 में यह लाहुल-स्पीति नामक जिले के रूप में एक नए प्रदेश यानी हिमाचल प्रदेश के साथ जुड़ा. बाद में स्पीति को सब डिवीजन बनाया गया और काजा को मुख्यालय.
आबादी : स्पीति और उस के आसपास के क्षेत्रों को भारत में सब से कम आबादी वाले क्षेत्रों में गिना जाता है. इस क्षेत्र के 2 सब से महत्त्वपूर्ण शहर काजा और केलोंग हैं. कुछ वनस्पतियों और जीव की दुर्लभ प्रजातियां भी स्पीति के महत्त्व को बढ़ाती हैं. यहां के लोग गेहूं, जौ, मटर आदि फसलें उगाते हैं.
यातायात : स्पीति जाने के लिए सब से निकटतम हवाई अड्डा भुंतर है, जो नई दिल्ली और शिमला जैसे प्रमुख शहरों से जुड़ा है. अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक भुंतर एअर बेस के लिए दिल्ली से जोड़ने वाली उड़ानों का लाभ ले सकते हैं. स्पीति से निकटतम रेलवे स्टेशन जोगिंद्रनगर है, जो छोटी लाइन का रेलवे स्टेशन है. इस के अलावा स्पीति से चंडीगढ़ और शिमला नजदीकी प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं, जो भारत के प्रमुख शहरों से जुड़े हैं.
यात्री रेलवे स्टेशन से स्पीति के लिए टैक्सियों और कैब की सुविधा आसानी से ले सकते हैं. सड़क से स्पीति राष्ट्रीय राजमार्ग 21 के माध्यम से पहुंचा जा सकता है. स्पीति तक रोहतांग दर्रा और कुंजम पास दोनों से पहुंचा जा सकता है.
मौसम : नवंबर से जून तक भारी बर्फबारी के कारण स्पीति जाने वाले सभी मार्ग बंद हो जाते हैं. इसलिए वहां सर्दियों को छोड़ कर साल भर कभी भी आया जा सकता है. गरमी के मौसम में मई से अक्तूबर तक का महीना स्पीति आने के लिए अनुकूल है क्योंकि यहां का तापमान
15 डिगरी सैल्सियस से ऊपर नहीं जाता है. स्पीति बारिश के छाया क्षेत्र में स्थित है, इसलिए यहां ज्यादा बारिश नहीं होती है. सर्दियों के दौरान यह जगह बर्फबारी से ढक जाती है औैर तापमान शून्य डिगरी से नीचे चला जाता है.
दर्शनीय स्थल
स्पीति एक ऐसी घाटी है जहां सदियों से बौद्ध परंपराओं का पालन हो रहा है. यह घाटी अपने कई मठों के लिए देश और विदेश में विशेष स्थान रखती है. यहां कई मठ ऐसे हैं जिन की स्थापना सदियों पहले की गई थी. इन में तबो और धनकर मठ प्रमुख हैं.
तबो :  तबो मठ को स्पीति घाटी में 996 में खोजा गया. यह स्थान बहुत ही सुंदर है. यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है. बताया जाता है कि यह मठ हिमालय पर्वतमाला के सब से पुराने मठों में से एक है. यहां की सुंदर पेंटिंग्स, मूर्तिंयां और प्राचीन ग्रंथों के अलावा दीवारों पर लिखे गए शिलालेख यात्रियों को बहुत आकर्षित करते हैं.
धनकर : यह मठ धनकर गांव में है जोकि हिमाचल के स्पीति क्षेत्र में समुद्र तल से 3,890 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यह जगह तबो और काजा 2 प्रसिद्ध जगहों के बीच में है. स्पीति और पिन नदी के संगम पर स्थित धनकर, दुनिया की ऐतिहासिक विरासतों में भी स्थान रखता है.
काजा : काजा स्पीति घाटी का उप संभागीय मुख्यालय है. यह स्पीति नदी के बाएं किनारे पर खड़ी चोटी की तलहटी पर स्थित है. काजा में रैस्ट हाउस और रहने के लिए कई छोटेछोटे होटल बने हुए हैं. यहां से हिक्किम, कोमोक और लांगिया मठों पर घूमने जाया जा सकता है.
अन्य दर्शनीय स्थल
स्पीति आने वाले लोगों के लिए घूमने के स्थान की कमी नहीं है. यहां किब्बर, गेट्टे, पिन वैली, लिंगटी वैली, कुंजम पास और चंद्रताल कुछ ऐसी जगहें हैं जहां जाए बिना स्पीति की यात्रा पूरी नहीं होती.
लाहुल 
कुछ लोग इसे हिमालयन स्कौटलैंड कहते हैं. वैसे लाहुल को लैंड विद मैनी पासेस भी कहा जाता है क्योंकि लाहुल से दुनिया का सब से ऊंचा हाईवे गुजरता है जो इसे मनाली, लेह, रोहतांग ला, बारालाचा ला, लचलांग ला और तंगलांग ला से जोड़ता है.
नदियां : हिमालय की पर्वत शृंखलाओं से घिरे लाहुल में जो शिखर दिखाईर् देते हैं उन्हें गयफांग कहा जाता है. साथ ही, यहां चंद्रा और भागा नाम की 2 नदियां बहती हैं. इन्हें यहां का जलस्रोत माना जाता है. चंद्रा नदी को यहां के लोग रंगोली कहते हैं. इस के तट पर खोक्सर, सिसु, गोंढला और गोशाल 4 गांव बसे हुए हैं जबकि भागा नदी केलौंग और बारालाचा से बहती हुई चंद्रा में मिल जाती है. जब ये दोनों नदियां तांडी नाम की नदी में मिलती हैं तो इसे चंद्रभागा कहा जाता है.
भाषा और रोजगार : लाहुल की जमीन बंजर है, इसलिए यहां घास और झाडि़यों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं उगता. स्थानीय लोग खेती के नाम पर आलू की पैदावार करते हैं. पशुपालन औैर बुनाई ही यहां के लोगों का प्रमुख रोजगार है. यहां के घर लकड़ी, पत्थर और सीमेंट के बने होते हैं. लाहुल के निवासियों की भाषा का वैसे तो कोई नाम नहीं है लेकिन इन की  भाषा लद्दाख और तिब्बत से प्रभावित है.
यातायात : लाहुल पहुंचने के लिए भी स्पीति की तरह भुंतर हवाई अड्डा एकमात्र साधन है. वैसे टैक्सियों औैर कैब के जरिए भी लाहुल पहुंचा जा सकता है. लाहुल का कोई अपना रेलवे स्टेशन नहीं है, इसलिए यात्रियों को पास में स्थित जोगिंदर नगर रेलवे स्टेशन उतरना पड़ता है. फिर वहां से टैक्सी और कैब से सड़क मार्र्ग द्वारा लाहुल जाया जाता है.
प्रमुख स्थल
लाहुल के आसपास घूमने के लिए केलौंग, गुरुकंटाल मठ, करडांग, शाशुर, तैयुल, गेमुर, सिसु और गोंढाल जैसे प्रमुख स्थल हैं जो किसी न किसी विशेषता की चादर ओढ़े हुए हैं.

पैगोडाओं का देश म्यांमार

प्लेन जब म्यांमार की राजधानी यांगोन पहुंचने से पहले म्यांमार के पानी से भरे हुए खेतों के ऊपर विशाल घंटों के आकार के बने बौद्ध मंदिरों और पैगोडाओं के ऊपर से गुजर रहा था, तब मैं बाहरी दुनिया से लगभग कटे हुए और हर जगह सैनिकों से घिरे हुए लोगों की कल्पना कर रहा था. पर क्या मेरी यह कल्पना सही थी? म्यांमार में कुछ दिन रहने के बाद मेरी कल्पना गलत साबित हो गई.
कहने की आवश्यकता नहीं कि आज का म्यांमार (1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार कर दिया गया) अपने पड़ोसी एशियाई देशों की तुलना में 20 या 21 भले ही न हो, उन के बराबर कदम मिलाने की दिशा में आगे अवश्य बढ़ रहा है. वहां भी शहरों में सैटेलाइट डिश जगहजगह दिखाई पड़ती हैं जिन से अमेरिकी सीएनएन के साथ ही कोरियाई सोप कार्यक्रम और सीरियलों का प्रसारण चौबीसों घंटे होता रहता है. इस के साथ ही उस के प्राकृतिक संसाधनों सोना, रूबी, पैट्रोल, गैस और लकड़ी आदि से तो अच्छीखासी विदेशी मुद्रा मिलती ही है, चीन से उस का व्यापार भी बराबर बढ़ रहा है. राजधानी यांगोन (रंगून नाम बदल कर अब यांगोन कर दिया गया है) के साथ ही अन्य शहरों में भी व्यापारी व नौकरीपेशा लोग साफसुथरे सारोंग (म्यांमार की पोशाक) और धुली कमीज पहने मोबाइल पर बात करते नजर आते हैं. उपनिवेशकालीन विशाल भवनों के साथ 
ही फ्लैटों के आधुनिकतम बहुमंजिलीय ब्लौक भी जगहजगह दिख जाते हैं. पर यूरोपीय रंगढंग में रंगे आज के म्यांमार की राजधानी ठेठ एशियाई भी है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता.
यांगोन के होटल में पहले ही दिन पता चल गया कि भारत के शहरों के समान वहां भी मच्छर हैं. सुबह नाश्ते के समय देखा कि होटल में इटली, स्पेन, फ्रांस, जरमनी और अमेरिका के साथ ही कोरिया, जापान, चीन, थाईलैंड, सिंगापुर आदि एशियाई देशों के लोग भी कम नहीं थे. सभी मच्छरों के संबंध में ही बातें कर रहे थे. कहने की आवश्यकता नहीं कि इन में से अधिकांश हमारे समान पर्यटक ही थे. उन्हें देख कर यह सोचा ही नहीं जा सकता था कि म्यांमार का यूरोपीय या एशियाई देशों ने बायकौट कर रखा है.
यांगोन, मंडाले और इराबादी नदी के आकर्षण के बावजूद म्यांमार की राजनीति से आप अछूते नहीं रह सकते. चाहेअनचाहे आप को इस से दोचार होना ही पड़ता है. सू की की आवाज दबाई जाती है, प्रजातीय अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और सैंसरशिप व बेगार मजदूरी तो दिनप्रतिदिन की बातें हैं. एअरपोर्ट से बाहर निकलने के पहले ही एअरपोर्ट पर मोबाइल फोन ले लिए जाते हैं और यदि आप किसी प्रकार छिपा कर ले भी आए तो फोन कनैक्ट नहीं हो पाएगा. आप अपने होटल में ब्रौडबैंड पर इंटरनैट कनैक्ट कर के देखिए, हौटमेल और याहू कभी नहीं जुड़ पाएंगे. म्यांमार सरकार का नैटवर्क बिना सिमकार्ड के ही हर जगह सक्रिय है. बाहर से मोबाइल फोन लाने पर भले ही रोक हो, पर वहां सप्ताहभर के लिए या महीनेभर के लिए मोबाइल फोन किराए पर मिल जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय रोमिंग सुविधा वहां नहीं है. इन्हीं सब बातों के कारण लोगों से कहा जाता है कि वे म्यांमार नहीं जाएं.
खास हैं पैगोडा
फिर भी कहना पड़ता है कि म्यांमार के लोगों में यदि कुछ ताकत बची है, उन की अंत:चेतना जागृत है तो बौद्ध धर्म में निष्ठा के कारण. इस छोटे से देश में सैकड़ों ही नहीं हजारों पैगोडा हैं, फिर भी नएनए पैगोडा बनते देर नहीं लगती. लोग हैं कि नएनए पैगोडा बनाते जा रहे हैं. आप किसी भी समय जाएं, मंदिरों में दानपात्र क्यात (म्यांमार की मुद्रा) से ऊपर तक भरे दिखेंगे.
1991 में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त आंग सान सू की और ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर द्वारा पर्यटकों के लिए म्यांमार के बहिष्कार की घोषणा की गई थी. उस के बाद से इस के पक्षविपक्ष में दुनियाभर में पत्रपत्रिकाओं में बराबर लिखा गया और अभी भी लिखा जा रहा है. यद्यपि सू की ने पर्यटकों को न आने के लिए कहा है पर उन का यह भी मत है कि पर्यटक ही दुनिया को म्यांमार के संबंध में सही स्थिति बता सकते हैं और म्यांमार के लोग ही पर्यटकों को देश की सही स्थिति बता सकते हैं.
होशियारी से लें काम
पर्यटकों से म्यांमार की सरकार को कम से कम लाभ हो, इस के लिए ऐसा किया जा सकता है कि महंगे होटलों में न ठहर कर सस्ते गैस्ट हाउस और प्राइवेट जगहों में ठहरें. कोशिश यही करें कि किसी बर्मी परिवार में ठहरें. पहचान यही है कि सरकारी होटलों और अन्य स्थानों के बाहर म्यांमार के राष्ट्रीय ध्वज फहरे रहते हैं व उन के नाम भी खासतौर पर शहरों या दर्शनीय स्थानों के नाम पर होते हैं. जिस होटल में ठहरें वहां खाना न खा कर बाहर किसी अन्य जगह खाएं और अलगअलग जगह खाएं. इसी प्रकार हस्तशिल्प की वस्तुएं बड़ी दुकानों से न ले कर छोटी दुकानों से या सीधे कारीगरों से लें. पैकेज टूर तो नहीं ही लें क्योंकि पैकेज टूर का सीधा नियंत्रण सरकार के हाथ में रहता है. इसी प्रकार होटल से टूर लेने की अपेक्षा स्वयं टैक्सी तय कर भ्रमण का कार्यक्रम बनाएं. इस से आप को बचत तो होगी ही, आप के द्वारा दिया गया पैसा सीधे जनता को ही मिलेगा.
म्यांमार आश्चर्यजनक रूप से अंतर्विरोधों का देश है जिस के लोगों ने शताब्दियों तक उत्पीड़न सहा है. (कुबला खान से ले कर जौर्ज छठे तक) वे आधुनिक समय में सैनिक शासन तक का डट कर सामना करते आ रहे हैं. यहां 1962 से सैनिक शासन है. 1987-1988 में देशभर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और सरकार विरोधी आंदोलन व अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण 1990 में चुनाव कराए गए पर उस में उस समय आंग सान सू की नजरबंदी के बावजूद उन की पार्टी ने 82 प्रतिशत मतों से विजय प्राप्त की पर जुंटा शासक ग्रुप ने सत्ता हस्तांतरण नहीं किया. शायद इसी कारण इस समय दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में सब से कम पर्यटक म्यांमार में आते हैं.
अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा 2003 में लगाए गए व्यापारिक प्रतिबंध के बावजूद पड़ोसी देश थाईलैंड, मलयेशिया, सिंगापुर, लाओस आदि ने इसे नहीं माना. सब से अधिक व्यापारिक संबंध तो चीन के साथ हैं. म्यांमार की अर्थव्यवस्था का 60 प्रतिशत से अधिक इस समय चीन के नियंत्रण में है. भारत से भी म्यांमार के व्यापारिक संबंध हैं, और तो और 2004 में म्यांमार के प्रधानमंत्री पहली बार राजकीय यात्रा पर भारत आए. बंगलादेश से भी म्यांमार की व्यापारिक संधि है. 
1989 में बर्मा की सरकार ने देश का नाम तो बदला ही, बर्मा के कुछ शहरों के नाम भी बदल दिए गए. तर्क यह था कि पहले के नाम उपनिवेशवादी नाम थे यानी अंगरेजों द्वारा रखे गए थे और नए नाम मूल बर्मी नाम हैं जैसे बर्मा से बदल कर म्यांमार और राजधानी रंगून से बदल कर यांगोन कर दिया जाना. इसी प्रकार इरावदी का नाम अब अय्यारवादी है. शहरों में पेगू अब बागो है, पगान बागान है और सेंडावे थांडवे है. बर्मी लोग अब बमार, करेन लोग कायिन और अराकानीज लोग राखेंग कहलाते हैं. यद्यपि बर्मा का नाम बदल कर अब सरकारी तौर पर म्यांमार कर दिया गया है पर वहां की मुख्य विरोधी पार्टी इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं करती. 
भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में दोनों ही नाम सही हैं. म्यांमार औपचारिक नाम है जो राजाओं के समय में प्रचलित था पर ऐतिहासिक दृष्टि से ‘बामा’, जिस से बर्मा बना, बोलचाल में अधिक आता है. ऐतिहासिक दस्तावेजों में दोनों ही नाम मिलते हैं. 
वैसे भी आंग सान ने अपने स्वतंत्रता आंदोलन का नाम ‘दोह बामा एसोसिएशन’ रखा था क्योंकि उन की दृष्टि में ‘बामा’ शब्द में देश के प्रत्येक वर्ग के लोग आ जाते हैं जबकि म्यांमार शब्द में केवल बहुसंख्यक बामर लोग ही आते हैं. इसी कारण वहां की अल्पसंख्यक जातियां मोन, शान, चिन, कायिन, कचीन और कायाह म्यांमार नाम मानने से इनकार करती हैं. उन को भय है कि वहां की सैनिक सरकार म्यांमार नाम का प्रयोग कर उन की पहचान मिटा देना चाहती है.
दिलचस्प है इतिहास
म्यांमार में इतनी अधिक जातियों के लोग रहते हैं कि उन के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है कि वे मूल रूप से बर्मी हैं या नहीं. स्वयं म्यांमार की सरकार ने ही कम से कम 135 अलगअलग वर्गों के लोगों को मान्यता दी है और इन में भी बामर या बर्मन लोगों की अधिकता है. इन्हीं लोगों की भाषा बर्मी, म्यांमार की राष्ट्रभाषा है. म्यांमार की पूरी आबादी के लगभग 70 प्रतिशत लोग बर्मन हैं. इन्हीं के हाथों में सत्ता और व्यापार है और इसी कारण अन्य लोगों द्वारा ये बराबर संदेह की दृष्टि से देखे जाते हैं.
म्यांमार में किसी समय भारतीय लोग भी काफी संख्या में थे. ब्रिटिश शासन में रंगून और मंडाले में 60 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय थे, पर अब यह संख्या घट कर काफी कम रह गई है. 
इस समय पूरे म्यांमार में 
2 प्रतिशत से भी कम भारतीय रह गए हैं. बर्मा में भारतीयों का आगमन 19वीं सदी में शुरू हुआ जब बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग बना. ब्रिटिशकाल में भारतीय लोग प्रशासनिक पदों के साथ ही व्यापार में भी सक्रिय थे. काफी लोग श्रमिक के रूप में भी ब्रिटिश सरकार द्वारा वहां लाए गए. 
धीरेधीरे बहुतों ने वहां जमीन खरीद ली, मकान बनवाए और साहूकारी का धंधा भी शुरू किया. बाद में बर्मा पर जापान के आक्रमण के बाद बहुतों को भारत लौटना पड़ा. उस के बाद जो बचे रहे वे बर्मा की स्वाधीनता के बाद लगभग नगण्य से रह गए. म्यांमार में अधिकांश भारतीय दक्षिण भारत से आए हैं. उन में यद्यपि हिंदुओं की प्रमुखता है पर मुसलमान भी कम नहीं हैं जिन के पूर्वज आजकल के पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल से आए हुए हैं.
नया है अंदाज
यह कहना गलत नहीं होगा कि 35 वर्षों से भी अधिक समय तक बर्मा विदेशी पर्यटकों के लिए एक प्रकार से बंद ही रहा. पर अब वहां की सैनिक सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के लिए म्यांमार के दरवाजे खोल दिए हैं और अब आसानी से वीजा मिल जाता है. म्यांमार पहुंचने के बाद यांगोन आप्रवास कार्यालय में वीजा की अवधि बढ़वाने में भी कोई मुश्किल नहीं होती. म्यांमार पहुंचने के बाद सभी विदेशी पर्यटकों को पुलिस में रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक होता है. 
यदि आप किसी होटल में ठहरते हैं तो वहां के रजिस्टर में तो रजिस्ट्रेशन होगा ही, इसलिए फिर से पुलिस में रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक नहीं होता. पर यदि किसी मठ या प्राइवेट मकान में या किसी मित्र या परिचित के यहां ठहरते हैं तो रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक है अन्यथा बाद में परेशानी हो सकती है. देश में कहीं आनेजाने पर भी विदेशियों पर अब कोई प्रतिबंध नहीं है. इसलिए कहा जा सकता है कि म्यांमार जाने के लिए इस से अच्छा समय कभी नहीं रहा.
यदि म्यांमार में कोई महंगी चीज खरीदनी हो तो टूरिस्ट डिपार्टमैंट स्टोर, एअरपोर्ट पर ड्यूटी फ्री दुकान या शहरों में आधिकारिक दुकानों से ही खरीद कर रसीद ले लेनी चाहिए अन्यथा बाहर ले जाने पर परेशानी हो सकती है. यद्यपि विदेशी मुद्रा लाने पर वहां रोक नहीं है. भारतीय रुपया भी दुकानों पर ले लिया जाता है पर सर्वश्रेष्ठ मुद्रा अमेरिकी डौलर ही है. यूरो और पाउंड भी कहीं भी स्वीकार किए जा सकते हैं पर उन का रेट वहां अच्छा नहीं मिलता.
 

दिलकश नजारों का शहर दुबई

28 जून की उस तपती दोपहर मरुधरा जोधपुर से दिल्ली के लिए उड़ान भरते वक्त यह एहसास भी नहीं था कि 5 दिन बाद जब हम लौटेंगे तो खट्टीमीठी यादों की इतनी अनगिनत पोटलियां हमारे इर्दगिर्द लटकी होंगी कि हम से संभाले नहीं संभलेंगी.
जोधपुर से कोटा अपने शहर तक की वापसी सड़कयात्रा के दौरान भी हम अपनी ये पोटलियां संभालतेखंगालते रहे. छिटपुट बारिश और हलकेफुलके नाश्ते के मध्य पोटलियों से मीठीमीठी सुमधुर यादों का छलकना पूरे रास्ते मन को उत्फुल्ल बनाए रहा. पर आदत से लाचार लेखकीय मन कलम थामने और कागज रंगने को बेताब हो रहा था. इसलिए एक दिन जब सभी को स्कूल, औफिस भेज कर थोड़ी फुरसत की सांस ली तो यादों की अब तक समेटी पोटलियां खुद ही एकएक कर खुलने लगीं.
जोधपुर से दिल्ली 55 मिनट का हवाई सफर पलक झपकते ही कट गया था. इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की छटा निराली थी. वहां की सफाई, साजसज्जा देख कर स्वयं के भारतीय होने पर गर्व हो आया था. फूड वेस्ट, पेपर वेस्ट, रिसाइक्लेबल वेस्ट आदि के लिए अलगअलग डस्टबिन थे. पासपोर्ट, वीजा चैकिंग की प्रक्रिया बेहद लंबी व चुनौतीपूर्ण थी.
हम हैरान थे कि इतने तामझाम और सुरक्षा बंदोबस्त के बीच भी कैसे आतंकवादी गतिविधियां घट जाती हैं. हमारे पेरैंट्स भी साथ थे. उन की दवा आदि लेने के लिए रखी छोटी सी पानी की बोतल भी सिक्योरिटी से निकालना भारी पड़ गया क्योंकि नियमानुसार हवाईयात्रा में तरल पदार्थ को ले जाने की इजाजत नहीं है.
एअरपोर्ट पर हम ने खूब तसवीरें लीं. दुबई तक का 3 घंटे का हमारा हवाई सफर आरामदायक रहा. वहां पहुंचते ही हम ने अपनी घडि़यां डेढ़ घंटा पीछे कर लीं. रात को 12 बज रहे थे लेकिन घड़ी के अलावा और कहीं गहन रात्रि होने का आभास नहीं था. चकाचौंध लाइट्स और यात्रियों की गहमागहमी से एअरपोर्ट गुलजार था.
अपनेपन का एहसास
बुर्का पहने औरतों और शेख की वेशभूषा के अलावा उन का सभी कुछ आधुनिक था. आधे से ज्यादा लोग हिंदुस्तानी थे या पाकिस्तानी और हिंदी या अंगरेजी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे. उन का मेकअप, ऐक्सैसरीज, एक्सैंट, शिष्टाचार सभीकुछ हमें सहज बनाते चले गए. हमें लग रहा था हम अपने ही देश में हैं. लेकिन जल्द ही स्वदेश में होने का एहसास लुप्त हो गया क्योंकि एक बार फिर हमें इमीग्रेशन की सख्त प्रक्रिया से गुजरना पड़ा.
एअरपोर्ट से ले कर वहां की किसी भी महत्त्वपूर्ण इमारत, यहां तक कि होटल तक में घुसने पर भी पासपोर्ट, वीजा चैकिंग की प्रक्रिया से दोचार होना पहले दिन से ही हमारी आदत में शुमार हो गया था. कई जगह प्रवेश के पूर्व तसवीर भी उतारी जाती थी. जैसा कि हमें पहले से चेता दिया गया था, वहां सबकुछ सहज उपलब्ध था सिवा डिं्रकिंगवाटर के. होटल में डिं्रकिंगवाटर मंगवाने पर जूस पेश कर दिया जाता था. 
हमारा विदेशभ्रमण का यह पहला अवसर था. और मुझे यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं हो रहा कि मैं ने इतनी स्वच्छ सड़कें, इतना सुरक्षित यातायात, वह भी बिना किसी वरदी वाले की उपस्थिति के पहली बार देखा था. चूंकि हम एक हौलीडे प्लानर के तहत इस यात्रा पर गए थे इसलिए हमें घुमानेफिराने के लिए बढि़या से बढि़या एअरकंडीशंड गाडि़यां, ड्राइवर और गाइड उपलब्ध थे. और नोटिस करने योग्य बात यह थी कि ये 
सभी या तो हिंदुस्तानी थे या पाकिस्तानी और आराम से हिंदी मिश्रित अंगरेजी में बात कर रहे थे. बड़ा अच्छा लगा यह देख कर कि वहां हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी एक ही ब्रीड के माने जाते हैं. उन्होंने हमें दुबई के बारे में कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध करवाईं. मसलन, वहां किसी भी तरह का 
कोई टैक्स नहीं लगता, न सर्विसटैक्स, न सैल्सटैक्स और न ही इन्कमटैक्स.
नियम और कायदे
यह जान कर आश्चर्य हुआ कि जहां दाऊद इब्राहीम जैसा डौन रहता हो वहां जीरो क्राइम है. क्योंकि वहां के कानून बेहद सख्त हैं. हम इंडियंस 
के लिए ये सभी बातें अविश्वसनीय सी थीं. उन्होंने हमें स्पष्ट कर दिया कि यदि हम ने सड़क पर या डस्टबिन के अलावा कहीं भी कुछ गिराया, यहां तक कि उन की गाड़ी को भी गंदा किया, तो 500 दिरहम इंडियन करैंसी में 8,500 रुपए फाइन देना होगा. हम सोचने लगे, ये कितने सख्त दिल वाले लोग हैं. लेकिन कदमकदम पर उन की सहृदयता देख हम अभिभूत हो गए. कहीं भी गाड़ी से चढ़नाउतरना या ज्यादा चलना होता वे आगे बढ़ कर पेरैंट्स का हाथ थाम लेते थे. सुबह से देर रात तक गधों की तरह काम में जुटे रहते हैं. रात को बिस्तर पर निढाल पड़ जाते हैं. सुबह फिर काम पर निकल पड़ते हैं.
सैड ड्यून पर कू्रजर से सवारी के दौरान बेटी का जी मिचलाने लगा तो ड्राइवर ने काफिले का साथ छोड़ दिया और एक साइड में गाड़ी रोक दी. गाड़ी से ठंडा पानी निकाल कर लाया, ‘जब गुडि़या की तबीयत संभलेगी तभी हम आगे बढ़ेगी.’ उस का अरबी अंदाज में बातचीत करना बेटे को बहुत गुदगुदा रहा था. वह मेरे कान में फुसफुसाया, ‘ये अंकल मूवीज की नकल करते हुए बोलते हैं. मूवीज में शेख ऐसे ही बोलते हैं.’ मैं ने उसे समझाया, ‘यह उन की नकल नहीं कर रहा. ऐक्टर्स इन की नकल कर के बोलते हैं.’
गाइड द्वारा प्रस्तुत एक और तथ्य हमें हैरान कर गया और वह था नागरिकता संबंधी नियम. उस ने बताया कि आप चाहे यहां 100 साल रह जाओ, यहां के पुरुष या स्त्री से शादी कर लो पर आप यहां की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते. आप का बर्थ चाहे यहां का हो पर आप के पेरैंट्स 
यहां के नहीं हैं तो भी आप को यहां की नागरिकता नहीं मिल सकती.
दुबई सिटी दर्शन के दौरान हम ने जुमैरा बीच, बुर्ज अल अरब, बुर्ज खलीफा, अटलांटिस पाम, दुबई मौल, मौल ए एमीरैट्स, दुबई म्यूजियम आदि खूबसूरत दर्शनीय स्थलों की सैर की. साथ ही, जम कर फोटोग्राफी भी की. बुर्ज खलीफा दुनिया की सब से ऊंची मीनार है. 124 मंजिली इस इमारत की आखिरी मंजिल पर एलिवेटर से पहुंचने में हमें मात्र 64 सैकंड लगे. और आश्चर्य, इतनी तीव्र गति का हमें एहसास तक नहीं हुआ. वह तो ऊपर पहुंच कर नीचे का नजारा देखा तब विश्वास हुआ कि हम कितनी ऊंचाई पर 
हैं. उतरते वक्त म्यूजिकल फाउंटेन के दिलकश नजारे ने मन मोह लिया. लग रहा था किसी मुगल गार्डन में पहुंच गए हैं.
वक्त की पाबंदी इतनी कि हमें कभी कहीं इंतजार नहीं करना पड़ा. एक और बात जिस ने हमें हैरत में डाला, वह थी कदमकदम पर बुर्कों में खड़ी महिला वौलंटियर्स. उन का मेकअपयुक्त चेहरा और नफासतभरी अंगरेजी मन मोह लेती थी. पुरुष वौलंटियर्स सफेद चोगे और सफेद स्कार्फ में नजर आते थे. सभी मुस्तैद और पगपग पर मदद करने को तत्पर. पूरा शहर बेहद खूबसूरत और व्यवस्थित तरीके से बसा हुआ है. एक जैसे आवास, गगनचुंबी इमारतें और मीनारें मन मोह लेने वाली थीं. ट्विस्टिड टावर देखने से लगता है कि बीच से इस इमारत को 90 डिगरी के एंगल पर मोड़ दिया गया है.
पहले दिन सिटी भ्रमण के बाद हम ने होटल आ कर आराम किया. फिर सैंड ड्यूंस पर जाने के लिए दूसरी गाड़ी में सवार हुए. टीलों पर गाड़ी चढ़ाने से पहले ड्राइवर ने पहियों की आधी हवा निकाल दी थी. फिर सब के सीटबैल्ट कस दिए थे. इस के बाद 20-25 गाडि़यों का काफिला टीलों पर भागने लगा था. 
टीलों के बीच बने गंतव्यस्थल तक पहुंचतेपहुंचते हम सब बेदम हो चुके थे. पर वहां पहुंचते ही जो बैठने, खानेपीने, नृत्यसंगीत आदि 
की व्यवस्था देखी तो सारी थकान छूमंतर हो गई. जूस, चाय, कौफी, स्नैक्स सबकुछ अपरिमित मात्रा में पेश किया जा रहा था.
एक बुर्कानशीन सभी महिलाओं के मेहंदी लगा रही थी. कुछ ही देर में बीच में बने मंच पर अरबी नृत्य आरंभ हो गया. घेरदार घाघरा पहने पुरुष लगातार गोलगोल घूमते 40 मिनट तक ‘तनूरा नृत्य’ करते रहे. फिर एक लड़की ने बैले नृत्य प्रस्तुत किया. शरीर का एकएक अंग उस ने तोड़मरोड़ कर रख दिया था. इस के बाद हम ने कैमल सफारी का आनंद लिया. बेटे ने सैंड पर स्पैशल बाइकराइड की. रंगबिरंगी रोशनी के बीच हम ने अरबी, भारतीय, सामिष और निरामिष भोजन का आनंद लिया.
यूएई जाने से पूर्व हमारे मन में यह डर बैठा हुआ था कि वहां सिर्फ नौनवेज और सीफूड ही मिलता है. लेकिन सब मिथ्या साबित हुआ. हमें हर जगह हमारी पसंद का शाकाहारी नाश्ता, खाना मिला. यहां तक कि एक दिन ‘मिनी पंजाबी’ रैस्तरां में हम ने पारंपरिक राजस्थानी थाली भी खाई. कढ़ी, खिचड़ी, बाजरे की रोटी, गुड़, छाछ, गट्टा करी, दालआलू, खमण, सिवइयों की खीर आदि का हम ने छक कर आनंद उठाया.
शौपिंग का आनंद
30 जून, 2013. लंच के पहले का हमारा समय शौपिंग के लिए नियत था. दुबई अपने गोल्ड और इलैक्ट्रौनिक्स आइटम्स के लिए विश्वविख्यात है. वहां के ये उत्पाद क्वालिटी में अव्वल और कीमत में कम होते हैं. हम ने 1 लैपटौप, 2 टैबलेट और 1 मोबाइल खरीदा. 
बच्चों के चेहरे मनपसंद उपहार पा कर खुशी से दमक रहे थे. लंच के बाद हम मीना ज्वैलर्स गए. वहां सोने की ढेरों वैरायटी थीं. व्हाइट, कौपर, गोल्ड, 18 कैरेट, 21 कैरेट, 22 कैरेट. एक स्क्रीन पर सोने के घटतेबढ़ते दाम डिस्प्ले हो रहे थे.
दुबई के सोने के बारे में यह विख्यात है कि विश्व के किसी भी कोने में उस की शुद्धता की परख करा ली जाए और उस में .01 प्रतिशत भी खोट निकल जाए तो जिस दुकान से वह खरीदा गया था वह सीज हो जाती है. इसलिए हम ने बिना किसी भय के अपनी पसंद की ज्वैलरी खरीदी. ज्वैलरी में इतनी वैरायटी और वह भी थोक के भाव से मैं पहली बार देख रही थी.
आज के डिनर का आयोजन कू्रज पर था. रंगबिरंगी रोशनी में जगमगाते कू्रज पर हमारा भव्य स्वागत हुआ. फिर हम लोगों ने जम कर केक और डिनर का लुत्फ उठाया.
दूसरे दिन सुबह होटल से बे्रकफास्ट करने के बाद गाड़ी हमें स्नोपार्क ले गई. बाहर तापमान 40 डिगरी था और अंदर था -4 डिगरी. गमबूट्स, जैकेट्स, ग्लव्स, टोपियां पहन कर हम सैंड, कू्रज के बाद अब बर्फ की सवारी के लिए तैयार थे. वहां स्लाइड, ट्यूब, स्ंिवग के साथसाथ हम ने एकदूसरे पर बर्फ फेंकने का भी खूब आनंद उठाया. एक छोटे से पूल के इर्दगिर्द कई पैंगविन भी घूमती नजर आईं.
अब वक्त था दोस्तों, रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने का. हम ने कई सारी दुकानें देखीं. परफ्यूम, डियो, घडि़यां, कौस्मैटिक्स, चौकलेट्स आदि खरीदे. आश्चर्य की बात थी कि कुछ दुकानों में भरपूर मोलभाव हो रहा था तो कुछ में एकदम फिक्स्ड प्राइस था. कहना मुश्किल था कि हम घाटे में रहे या लाभ में. लेकिन भारत लौटने पर जब सभी ने दिल खोल कर तोहफों को सराहा तो हमें सुकून हो गया कि हम लाभ में ही रहे.
उस के बाद 2 जुलाई को बे्रकफास्ट के बाद हम अटलांटिस पाम में शिफ्ट हो गए थे. यह 7 स्टार होटल अपनेआप में एक अलग दुनिया है. एक कंपलीट एंटरटेनमैंट पैकेज – डौल्फिन बे, द लौस्ट चैंबर फिश एक्वेरियम, जहां 65 हजार किस्मों के समुद्री जीव और मछलियां हैं, एक्वावैंचर वाटरपार्क जहां एकसाथ 5 हजार लोग पूल ऐक्टिविटी का आनंद उठा सकते हैं, मोनो रेल, स्वीमिंग पूल्स, स्पा जकूजी क्लब, रौयल बीच, सैफ्रौन और कैलोडियोस्केम जैसे रेस्तरां,? जहां बे्रकफास्ट में हमें 418 डिशेज पेश की गईं. कमरे में घुसते ही बड़ी सी टीवी स्क्रीन पर अपने नाम का स्वागत संदेश पढ़ कर दिल खुश हो गया था.
वहां चलने वाली मोनो रेल से हम ने पूरा दुबई देखा. रौयल बीच और ऐक्टिविटी पूल में नहाने का आनंद लिया. कांच की बड़ीबड़ी दीवारों के पार तरहतरह की मछलियां, समुद्री जीव देखे. नाइट क्लब में पाश्चात्य परिधान में संगीत की धुन पर थिरके. एक्वावैंचर में ढेर सारे वाटर स्पोर्ट्स का आनंद उठाया. स्पा और फिटनैस सैंटर में जा कर अपनी थकान मिटाई. होटल की ग्रांड लौबी में बैठ कर झरनों और पिआनो का लुत्फ उठाया. इस होटल में 3 हजार लोगों का स्टाफ है जो 42 देशों से हैं और 68 विभिन्न तरह की भाषाएं बोलते हैं.
होटल से विदाई के वक्त एक खूबसूरत बाला हमारे कमरे में उपस्थित हुई और हमें मुबारकबाद देते हुए एक खूबसूरत सा नजराना थमा कर चली गई. खोलने पर उस में से ढेर सारे स्विस चौकलेट्स निकले. दिल्ली पहुुंच कर हम ने अपनी घडि़यां फिर से 1.30 घंटा आगे कर ली थीं. पर दिल और दिमाग शायद वहीं कहीं पीछे छूट गया था.   
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