आंगन का वो पेड़ नहीं है
कुएं की वो मेड़ नहीं है
छिपाछिपी का खेल थम गया
जाने कब मैं बड़ा हो गया
 
उस के मुखड़े को देखदेख के
आंगन, चांद उतर आता था
उस की धानी चूंदर से ले कर
धरती का रंग बदल जाता था
 
अलमारी में कागज के नीचे
मिले, आज कुछ कागज पीले
स्याही थोड़ी फैल गई थी
पर रंगों में कमी नहीं थी
 
पीला वर्क भी कथा कह गया
स्पर्श पुराना नया हो गया
स्मृतियों का लगा था मेला
बारबार फिर आया रेला
 
छलता, एहसास उस क्षण का
छूना अधरों से अधरों का
विस्मय रहस्य कुछ पल का
पिघल जाना दो जानों का
 
कुछ संदेश अधूरे थे
कुछ वाक्य हुए न पूरे थे
कुछ तो है रीतारीता
कुछ तो है बीताबीता.
डा. राजीव जैन

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