आंगन का वो पेड़ नहीं है
कुएं की वो मेड़ नहीं है
छिपाछिपी का खेल थम गया
जाने कब मैं बड़ा हो गया
उस के मुखड़े को देखदेख के
आंगन, चांद उतर आता था
उस की धानी चूंदर से ले कर
धरती का रंग बदल जाता था
अलमारी में कागज के नीचे
मिले, आज कुछ कागज पीले
स्याही थोड़ी फैल गई थी
पर रंगों में कमी नहीं थी
पीला वर्क भी कथा कह गया
स्पर्श पुराना नया हो गया
स्मृतियों का लगा था मेला
बारबार फिर आया रेला
छलता, एहसास उस क्षण का
छूना अधरों से अधरों का
विस्मय रहस्य कुछ पल का
पिघल जाना दो जानों का
कुछ संदेश अधूरे थे
कुछ वाक्य हुए न पूरे थे
कुछ तो है रीतारीता
कुछ तो है बीताबीता.
डा. राजीव जैन
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
(1 साल)
USD48USD10

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
(1 साल)
USD100USD79

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सरिता से और