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क्राइमिया, रूस और भारत

सत्ता के मोह में अंधभक्ति के चलते कांगे्रस नेतृत्व की गठबंधन सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में क्राइमिया को जनमत संग्रह के आधार पर यूके्रन से उस के अलग होने व उसे रूसी साम्राज्य का हिस्सा मान कर एक तरह की राजनीतिक आत्महत्या की है. रूस से सटे यूक्रेन के हिस्से क्राइमिया की स्थिति कमोबेश वैसी ही है जैसी भारत में कश्मीर की है. अगर देश की मरजी के खिलाफ एक प्रांत जनमतसंग्रह करा ले और दूसरे देश में विलय को स्वीकृति दे दे तो यह कश्मीर के कट्टरपंथियों को निमंत्रण है कि वे भी ऐसा करें तो भारत सरकार दुनियाभर में ‘दुहाई है दुहाई है’ की मांग नहीं कर सकती.

यूक्रेन 50 साल तक जबरन सोवियत संघ के विशाल साम्राज्य का हिस्सा रहा है. 1991 में स्वतंत्र होने के बाद आज भी वहां रूसीभाषी काफी संख्या में हैं. क्राइमिया प्रांत में तो कुछ ज्यादा ही हैं. रूस की निगाह क्राइमिया पर लंबे समय से है क्योंकि वहां गरम पानी का समुद्र है और रूसी नौसेना का बड़ा अड्डा है. जब तक यूक्रेन रूस का हिस्सा था, वहां नौसेना के खूब केंद्र बने. पर बाद में भी रूस यूके्रन को अपने इशारे पर चलाना चाहता था.

पिछली बार यूके्रन के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी समर्थक अलेक्जेंडर तुरचीनोव चुनाव जीत गए थे पर हाल में जनता के विरोध के मद्देनजर उन्हें पद छोड़ना पड़ा. पूरा यूके्रन हाथ में न आते देख रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने क्राइमिया से ही संतोष कर लिया पर भारत सरकार के समर्थन की बात समझ नहीं आती.

भारत सरकार को आमतौर पर जनमत संग्रहों को नकारना चाहिए क्योंकि देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां अगर जनमत संग्रह की नौबत आए तो दूरगामी प्रभाव देखे बिना लोग अलग होने के बहकावे में आ सकते हैं. यहां हिंदूमुसलिम का ही सवाल नहीं है, हर बोली, रंग और संस्कृति का भी है.

अगर मिजोरम, नागालैंड, बोडाओं, माओवादियों, तमिलों, दलितों, पंडितों को अवसर दिए जाएं तो हर कोई अपना स्वतंत्र देश मांग सकता है और जनमत संग्रह में मूर्ख जनता मोहर लगा सकती है बिना यह सोचेसमझे कि भविष्य में यह आपसी युद्धों को न्योता देना होगा. भारत सरकार को रूस के इरादों का घोर विरोध करना चाहिए ताकि कभी हमारे साथ ऐसा हो तो दुनिया हमारा साथ दे.

 

हवाई जहाज का गायब होना

कुआलालंपुर से बीजिंग जाने वाली फ्लाइट एमएच 370 का लापता हो जाना उस की दुर्घटना से ज्यादा दर्दनाक रहा है. 12-15 दिन तक जब हवाईजहाज का पता न चला तो यह पक्का था कि सभी पर्यटक मारे गए हैं पर यह आश्चर्य रहा कि ऐसे समय जब एक आम आदमी को भी मोबाइल नैटवर्क की सहायता से भीड़ में से खोजा जा सकता है तो रडारों, सैटेलाइट संपर्कों के बावजूद इस भारीभरकम 777 बोइंग को क्यों नहीं ढूंढ़ा जा सका?

यह तो 10-12 दिनों में पक्का हो गया था कि हवाई जहाज अपने नियत फ्लाइट रूट से अलग हो कर कहीं गया पर उस के रेडियो कौंटैक्ट क्यों बंद किए गए और वह कैसे जगहजगह लगे रडारों से बचता हुआ निकल गया?

अगर यह हवाई जहाज गहरे समुद्र में गिरा है तो शायद उसे वर्षों तक ढूंढ़ा न जा सके. 10 हजार फुट की गहराई के समुद्र में किसी हवाई जहाज को ढूंढ़ना भूसे में सूई को ढूंढ़ने से भी कठिन है. वहां पानी का दबाव इतना अधिक होता है कि उसे खोजना असंभव होता है.

कठिनाई यह भी रही कि यात्रियों और चालक दल की पारिवारिक जांचपड़ताल पर भी कुछ ऐसा न मिला जिस से कहा जा सके कि यह अपहरण की साजिश थी. कुछ लोग जाली पासपोर्ट पर जरूर थे पर उन की पृष्ठभूमि ऐसी नहीं निकली कि उन को शक के घेरे में लिया जा सके.

हवाई यात्रा आज बेहद सुरक्षित है और कुछ मामलों में सड़क दुर्घटनाएं ज्यादा होती हैं. ऐसे में एक विशाल हवाई जहाज का खो जाना वर्षों तक पहेली बना रहेगा. यह संतोष की बात है कि इस खोज में दुनिया के सारे देश एकसाथ काम करने लगे और मलयेशिया सरकार या मलयेशियाई हवाई कंपनी को कोसा कम गया.

 

‘आप’ और मीडिया

आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ और मीडिया के बीच विवाद सुलझने की जगह गहराता जा रहा है. मीडिया बेशक आम आदमी पार्टी के कामों को माइक्रोस्कोप से देख रहा है और उस की विरोध की किसी भी आवाज को ऐसे दर्शाया जाता है मानो शराफत की सफेद चादर पर काला धब्बा पूरी चादर को काली कर गया हो. वहीं सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, रामकृपाल सिंह यादव, अमर सिंह आदि की पैंतरेबाजी को वह ऐसे दिखाता है मानो छोटी घटना हो, कोई मक्खी मार दी गई हो.

अरविंद केजरीवाल की बौखलाहट स्वाभाविक है क्योंकि ‘आप’ को एक समर्थक मीडिया की सख्त जरूरत है. आम आदमी पार्टी के पास भाजपा और कांगे्रस की तरह काली करतूतों या मालिकों के मुनाफों या धर्म की दुकानों के अरबों रुपए तो हैं नहीं.

मीडिया का एकतरफा व्यवहार कुछ नया नहीं है. आमतौर पर अखबार या चैनल अपनीअपनी पसंद के नेताओं को कुछ ज्यादा सहानुभूति से दर्शाते हैं और यह उन का हक है. समाचारपत्रों या चैनलों से निष्पक्ष होने की अपेक्षा करना गलत है क्योंकि यही तो विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार है कि आप अपने पाठकों को या दर्शकों को वह बताएं जो आप चाहते हैं. यह मीडिया संचालकों का मौलिक अधिकार है.

पर हां, अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें. अगर मीडिया बड़े उद्योगपतियों का है और बड़े उद्योगपति किसी खास पार्टी को समर्थन दे रहे हैं तो उन्हें या किसी को भी शिकायत करने का पूरा अधिकार है. मीडिया को इस पर तिलमिलाना नहीं चाहिए बल्कि अपनी आलोचना उसी तरह लेनी चाहिए जैसी वह दूसरों की करता है.

हमारे देश में धर्म के दुकानदारों व अदालतों की तरह मीडिया भी अपनेआप को ‘टच मी नौट’ की गिनती में रखने लगा है और मीडिया विरोधी कोई भी बात अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन मान ली जाती है. जबकि यह गलत है. दूसरों पर कालिख मलने वालों के हाथों पर कालिख तो लग ही जाती है, यह मीडिया भी नहीं भूल सकता. यह पाठक पर छोडि़ए कि वह अपना विवेक किस हद तक इस्तेमाल करता है.

सुषमा की नाराजगी

भारतीय जनता पाटी का सुसंस्कृत, सौम्य और सभ्य चेहरा यदि कोई है तो वह सुषमा स्वराज का है. सुषमा स्वराज ने लोकसभा में 5 साल तक विपक्षी नेता की भूमिका जिस तरह अदा की है, वह याद रखने वाली है और राज्यसभा के अरुण जेटली के मुकाबले वे कहीं ज्यादा स्वीकार्य रही हैं. इसलिए जब टिकट बंटवारे पर वे बिफरीं और न केवल कार्यकारिणी में बल्कि ट्विटर पर भी उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की तो थोड़ी फुसफुसाहट हुई.

सुषमा स्वराज कट्टर संघपंथियों में से नहीं हैं कि जीतने की चाह में सारे नियमकानून ताक पर रख दिए जाएं. कर्नाटक के बदनाम खान मालिकों को टिकट देने में नरेंद्र मोदी के गुट ने जो तत्परता दिखाई वे उस से नाराज हैं. लालकृष्ण आडवाणी भी इस निमंत्रण के खिलाफ हैं पर वे अपनी खुद की सत्ता के खंभे उखड़ते देख कर चुप रह गए लेकिन सुषमा नहीं.

प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी की जगह सुषमा स्वराज का चेहरा आगे होता तो भाजपा को इतना विरोध न झेलना पड़ता. हां, सुषमा स्वराज हिंदुत्व समर्थकों की बरात को उस तरह इकट््ठा न कर पातीं जिस तरह नरेंद्र मोदी ने किया. नरेंद्र मोदी ने न केवल गुजरात में बड़े उद्योगपतियों की एक बड़ी जमात को अपने इर्दगिर्द रखा, उन पर 2002 के दंगों का दाग भी है जो बहुत से कट्टरपंथियों के लिए एक तिलक के समान है.

सुषमा स्वराज के विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी गुट राजनाथ सिंह के साथ मिल कर अपना काम कर लेने में सफल हो चुका है पर चुनावों में यह महंगा पड़ सकता है. यह नहीं भूलना चाहिए कि कांगे्रस पर प्रशासन में ढीलढाल का कोई आरोप नहीं है, उस पर उस भ्रष्टाचार का आरोप है जो उस के मंत्रियों ने किया, प्रभावशालियों ने किया. अगर वैसे ही भ्रष्टाचारी भारतीय जनता पार्टी में होंगे तो क्या दिखेंगे नहीं?

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, मार्च (प्रथम) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘खतरनाक भेदभाव’ पढ़ कर यही कहा जा सकता है कि उत्तरपूर्वी प्रदेशों से देश के अन्य भागों के अलगाव में सरकार की उदासीनता एक प्रमुख कारक है. 5 साल तक चलने वाली सरकारों के उत्तरपूर्वी प्रदेशों में कितने दौरे लगते हैं, इसी से इस बात की सत्यता का अंदाजा हो जाता है. टैलीविजन पर आने वाले धारावाहिकों में राजस्थान, गुजरात या पंजाब आदि राज्यों की कहानियां तो होती हैं मगर शायद ही कोई धारावाहिक उत्तरपूर्व राज्यों की खूबसूरती और सचाई दर्शाता हो. हमारे फिल्मनिर्माता विदेशों में महीनों शूटिंग करते हैं मगर सौंदर्य से भरे इन 7 राज्यों की ओर कभीकभार ही रुख करते हैं.
किसी फिल्मस्टार के जन्मदिन की खबर तो समाचार चैनलों पर दिनभर प्रसारित की जाती है मगर हफ्तेभर में उत्तरपूर्व की शायद ही कोई खबर टैलीविजन पर आती हो. इस भेदभाव के कारण ही इन राज्यों से आने वालों को देश के अन्य भागों में विदेशियों की तरह समझा जाता है.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (नई दिल्ली)
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संपादकीय टिप्पणी ‘खतरनाक भेदभाव’ में एक गंभीर और अच्छा सुझाव आया है कि नीडो तानिया की हत्या देश को महंगी पड़ सकती है’ हजारों साल से कुछ लोगों ने अपने फायदे के लिए देश में जाति और रंग का जो भेदभाव फैलाया उस से देश कमजोर बना. इतिहास बताता है कि भारत की चंद जातियां फेल होतीं तो पूरा भारत फेल हो जाता. वहीं जब गांधी ने सब को एकजुट किया तो अंगरेजों के लिए यही लोग अणुबम साबित हुए.
उत्तरपूर्व के युवाओं को दिल्ली में ठीक वैसे ही अपमान झेलना पड़ रहा है जैसे महाराष्ट्र के मुंबई शहर में हिंदीभाषी झेल रहे हैं. पहाड़ी युवाओं को चीनी समझ चिंकी नाम से वैसे ही चिढ़ाया व मारा जाता है जैसे मुंबई में हिंदीभाषियों को ‘भैया’ (गंवार अर्थ में) नाम से.
दूरदर्शन पर पूर्वोत्तर के लोगों से अधिक से अधिक समाचार पढ़वा कर तथा उन के तीजत्योहारों को बारबार दिखा कर उन के अजनबीपन को दूर किया जा सकता है. वरना चीन तो क्या, कोई भी विदेशी घुसपैठ करेगा और हम आपस में लड़ते रहने पर या तो गुलाम बनेंगे या लूटे जाएंगे.
माताचरण पासी, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
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‘आप के खिलाफ बड़े दल’ संपादकीय पढ़ कर मन क्षुब्ध हो गया. देश के शासक ही सुशासन नहीं आने देना चाहते तो फिर एक आम आदमी अपनी फरियाद ले कर कहां जाए. अरविंद केजरीवाल हवा के रुख के विपरीत चलने का हौसला रखने वाली एक मजबूत शख्सीयत हैं.
अव्यवस्था, भ्रष्टाचार एवं अपराध के गढ़ को केजरीवाल ने अपनी कर्मभूमि चुना, जो सत्ता के दिग्गजों को हजम नहीं हुई और वे ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ की तर्ज पर ‘आप’ को बदनाम करने पर तुले हैं. उन की ईमानदारी व सादगी को नौटंकी करार दे दिया गया. उन के इस्तीफा देने पर मीडिया ने ‘जिम्मेदारी छोड़ भागे केजरीवाल’ कहा. कुछ ने उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए अपनाया गया हथकंडा कह कर आम जनता में ‘आप’ की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया. 
ऐसा दिखलाया जा रहा था मानो केजरीवाल के आने से ही समाज में अव्यवस्था एवं भ्रष्टाचार फैल रहा है वरना इस से पहले तो यह देश कितने सुव्यवस्थित ढंग से चल रहा था. अचानक से हर राजनीतिज्ञ स्वयं को कानून एवं संविधान का रखवाला कहने लगा. केजरीवाल की विद्वता को उन की चालाकी करार दे दिया गया. देश की जनता को सही फैसला लेना होगा. उसे चुनावी हथकंडों पर ध्यान न देते हुए अपने मत का सही इस्तेमाल करना होगा क्योंकि देश को महापरिवर्तन की जरूरत है.
आरती प्रिदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘आप के खिलाफ बड़े दल’ के अंतर्गत समझा दिया गया है कि आज सत्ता की राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि जिसे साफ करने में सहस्र केजरीवाल भी अक्षम हैं. जनजीवन को नरक बना कर, देश को सियासी अखाड़ा बना, एकदूसरे का मुंह काला करने वाले राजनीतिक दल वास्तव में एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं. नेता देश के हर राज्य को रजवाड़ा बना, अपनी ताजपोशी करवा, जयचंदियों को पनाह देते हुए महमूद गजनवी व नादिरशाह बन कर देश एवं जनता को लूट रहे हैं. 
केजरीवाल की पार्टी से भी कोई आशा नहीं. अभी तो यह ठीक से स्थापित भी नहीं हो पाई है कि फूट की अनेक दीवारें खड़ी हो गई हैं. कारण यह है कि हर कोई लूटनेखसोटने के लिए मनचाहा चुनावी टिकट चाहता है. जिसे भी टिकट नहीं मिलता वही पार्टी छोड़ उस पार्टी में चला जाता है जिस की भर्त्सना करने में कभी उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)
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‘आप के खिलाफ बड़े दल’ शीर्षक से आप की संपादकीय टिप्पणी हर आम व खास का न केवल ध्यान खींचती है, बल्कि एक बार फिर सोचने को बाध्य भी करती है. दरअसल, देश में लोकतंत्र की भलाई के बहाने वर्षों से सत्ताधारी पार्टियां गफलत पैदा कर के जनता का पगपग पर शोषण कर येनकेन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने में लगी हुई थीं. ऐसे में ’आप’ का यों आना और लोगों के बीच अपनी पहचान बना लेना इन्हें रास नहीं आ रहा. ‘आप’ की जीत और सत्ता तक पहुंचने के पीछे आमजन की वह सोच है जिस में वह जाति, धर्म, भाईभतीजावाद, रिश्वतखोरी भ्रष्टाचाररूपी कुशासन से ऊब चुकी है और वह देश की दशा और दिशा में बदलाव चाहती है.
छैल बिहारी शर्मा, छाता (उत्तर प्रदेश)
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संपादकीय टिप्पणी ‘आप के खिलाफ बड़े दल’ पढ़ी. भले ही ‘आप’ की सरकार 49 दिन तक ही चली लेकिन जितने दिन अरविंद केजरीवाल सत्ता में रहे उतने दिनों तक वे जनता के हितों के लिए प्रयासरत रहे. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि विपक्षी पार्टियों ने एकजुट हो कर एक ऐसी सरकार को गिराने की साजिश रची जो सरेआम भ्रष्टाचार पर नकेल डालने और उन नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों की गरदन पर हाथ डालने का ऐलान कर चुकी थी जिन्होंने जनताजनार्दन के अधिकारों को अपने स्वार्थ के लिए कुचल दिया था.
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए अरविंद केजरीवाल की हार नहीं हुई बल्कि वे तप कर और अधिक खरा सोना बन कर निकले हैं.
एक अन्य संपादकीय टिप्पणी ‘स्कूल, शिक्षक और छात्र’ कसौटी पर खरी उतरी है. सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या पर हर रोज कोई न कोई नेता या अफसर बयान जारी करता रहता है. परंतु नेताओं व शिक्षकों के बच्चे निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ते हैं. उन पर कोई रोक नहीं लगती है. 
वास्तव में देखा जाए तो जब से ‘सर्वशिक्षा अभियान’ चला है, बच्चों को ‘मिड डे मील’ देने की व्यवस्था व कुछ राज्यों में ‘मुफ्त वरदी व किताबें’ देने का सिलसिला चला है तब से शिक्षा का भट्ठा बैठ गया है.
आज सरकारी स्कूलों में उन शिक्षकों पर कोई गाज नहीं गिरती है जो मोटा वेतन ले कर भी कभीकभार ही स्कूल जाते हैं. अफसर भी ऐसे शिक्षकों पर नकेल नहीं कस पाते हैं. फिर बच्चों को फेल नहीं करना है चाहे उस छात्र को 1 से 10 तक की भी गिनती न आती हो. जिम्मेदार शिक्षक को लताड़ने, उसे दबाने की साजिश रची जाती है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश)
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‘आप के खिलाफ बड़े दल’ के तहत आप के विचार पढ़े. इस में कोई शक नहीं है कि अरविंद केजरीवाल ने देश की राजनीति में अपना कदम बड़े जोरशोर के साथ रखा है. दोनों बड़ी पार्टियों को एक तरह से हिला ही दिया है और जो भी कदम नेतागण और उन की पार्टियां ले रही हैं उम्मीद है सोचसमझ कर लेंगी. ‘सरिता’ के कवर पेज पर तो केजरीवाल पिछले 3 अंकों से बराबर छाए रहे हैं. आप ने ठीक ही लिखा है कि यदि ‘आप’ सत्ता में न जाती और बीजेपी को बाहर से समर्थन दे कर उस की नाक में दम रखती तो शायद ज्यादा सफल रहती.
क्या गारंटी है कि केजरीवाल ऐसी गलती दोबारा नहीं करेंगे. दिल्ली में उन्होंने पूरी 70 सीटों के लिए चुनाव लड़ा था. मलाल यही रह गया कि बहुमत न मिलने की वजह से मजबूरी में कांगे्रस का साथ लेना पड़ा.
सवा 2 साल पहले, अन्ना हजारे के आंदोलन में केजरीवाल और किरन बेदी को मुख्य भूमिका में देखा गया था. कुछ महीनों बाद, केजरीवाल अलग हो गए और अपनी अलग पार्टी बना ली. किरन बेदी उन की दुश्मन बन बैठीं. किरन बेदी का कहना है कि मोदी की तो किसी से तुलना ही नहीं करनी चाहिए. किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं, वोटर के लिए चुनाव करना मुश्किल सा होता जा रहा है. जो भी हो, हम सब देशवासियों की एक ही अभिलाषा इस समय होनी चाहिए कि सत्ता में एक ही पार्टी बहुमत से आए.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)
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संपादकीय टिप्पणी ‘आप के खिलाफ बड़े दल’ पढ़ कर कहा जा सकता है कि अपने जन्म से मात्र 12 महीनों में ही, जिस तरह ‘आप’ ने दिल्ली में देश के राष्ट्रीय दलों को धूल चटा दी, वह निसंदेह ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि तारीफ के काबिल भी है. ऐसे में जब प्रथम अवसर पर ही आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सरकार भी बना ली, तो इन तथाकथित बड़े दलों को अपनी ‘औकात’ बचाने के लिए खिसियानी बिल्ली समान उस के विरुद्ध कुछ तो करना ही था और वह ‘चोरचोर मौसेरे भाइयों’ समान व्यवहार चाहे प्रत्यक्ष रहा हो या अप्रत्यक्ष, नहीं करते तो, फिर क्या उन्हें रसातल में थोड़े ही जाना था. 
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अति आत्मविश्वास की शिकार
अग्रलेख ‘केजरी (की) वाल : कांगे्रस भाजपा के सपनों पर सवाल’ के तथ्यों को भी आप के विचारों से जोड़ दिया जाए, तो नतीजा कुछ यों ही निकलता है कि अपनीअपनी जड़ें फिर से जमाने के लिए इन दलों को कोई भी बहाना तो चाहिए ही था और ‘आप’ के जनलोकपाल विधेयक के प्रस्तुतीकरण को संविधान विरुद्ध बता कर विरोध जताने के नाम पर केजरीवाल की सरकार को गिराने के सुअवसर को भुनाने हेतु उन्हें ‘आप’ के विरुद्ध होना ही था, जो आश्चर्यजनक कहा भी नहीं जा सकता. दुख है तो इस बात का कि ‘आप’ भी न केवल दिग्भ्रमित हो कर अपनी राह से भटकी, बल्कि अति आत्मविश्वास की शिकार भी हो गई.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (नई दिल्ली)
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भ्रष्ट राजनीति
मार्च (प्रथम) में प्रकाशित अग्रलेख ‘केजरी (की) वाल’ : कांग्रेस भाजपा के सपनों पर सवाल’ पढ़ा. केजरीवाल कह चुके हैं कि वे राजनीति में घुस कर उसे अंदर से ठीक करने आए हैं. उन्हें यह करने के लिए धैर्य से काम लेना था. संभव कार्य का नाम राजनीति है. गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय नए काम पर ध्यान देना था.
देश में भ्रष्टाचार धीरेधीरे आया है. आज देश में सभी भ्रष्टाचारी हैं. भ्रष्टाचार जाने में भी समय लगेगा. एक के बाद एक कई कदम उठाने होंगे. हमारी न्याय व्यवस्था अगर सस्ती और सक्रिय हो तो भ्रष्टाचार ठहर ही नहीं सकेगा. हमें कानून ऐसे बनाने चाहिए कि भ्रष्टाचार के अवसर ही नहीं आएं.
गोपाल कृष्ण, मुंबई (महाराष्ट्र)
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चाहिए युवा प्रधानमंत्री
लालकृष्ण आडवाणी भारत के उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं. वे अपने नाम से उप हटा कर प्रधानमंत्री का पद भोगना चाहते हैं. परंतु 1999-2004 के दौरान उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिस से कि उन की छवि उम्दा बनी हो. अटल बिहारी वाजपेयी ने फौजें बौर्डर पर भेजीं परंतु युद्ध नहीं कर सके. नतीजतन उन की छवि धूमिल हुई और वे भारतरत्न नहीं पा सके.
आज अधिकतर लोग युवा प्रधानमंत्री चाहते हैं. इसलिए चुनाव के बाद आडवाणी अपने किसी चहेते को तो प्रधानमंत्री बना सकते हैं परंतु वे स्वयं प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. यदि भाजपा गठबंधन की 272 से कम सीटें आती हैं तो सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है.
इंदिरा गांधी के अलावा सारे प्रधानमंत्री वृद्ध थे. इंदिरा गांधी ने बंगलादेश जीता. इमरजैंसी लगा कर भ्रष्टाचार को कम किया. इसी कारण वे 2 बार दोतिहाई मत ले कर जीतीं परंतु डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने से कांगे्रस की लोकप्रियता कम हुई.
इंदर गांधी, अंबाला छावनी (हरियाणा)
 
   

औस्कर का जश्न

लंबे इंतजार के बाद फिल्मी दुनिया के चहेतों का फेवरेट अवार्ड शो औस्कर संपन्न हो ही गया. इस बार यानी 86वें एकेडमी अवार्ड्स का आयोजन लास एंजिलिस के डौल्बी थिएटर में हुआ. इस बार भी बेहतरीन फिल्मों का जलवा देखने को मिला. हर मिजाज की फिल्म ने अपनीअपनी श्रेणियों में बाजी मारी. शुरुआत बैस्ट परफौर्मेंस ऐक्टर इन सपोर्टिंग रोल से हुई जिसे जैरेड लेटो ने हासिल किया. फिल्म ‘डलास बायर्स क्लब’ के लिए उन्हें अवार्ड मिला. बैस्ट फिल्म के लिए ‘12 ईयर्स अ स्लेव’, बैस्ट ऐक्टर का औस्कर मैथ्यू मैककौन्गे को फिल्म ‘डलास बायर्स क्लब’ के लिए जबकि बैस्ट ऐक्ट्रेस का औस्कर केट ब्लैनचेट को फिल्म ‘ब्लू जेसमिन’ के लिए मिला. वहीं बैस्ट डायरैक्टर का अवार्ड एल्फोन्सो केरोन को फिल्म ‘ग्रैविटी’ के लिए, बैस्ट मोशन पिक्चर औफ द ईयर फिल्म ‘12 ईयर्स अ स्लेव’ को मिला. कुल मिला कर औस्कर इस बार खूब रंगारंग और जानदार शो के तौर पर यादगार रहा. 

 

 

मौत की अबूझ पहेली

अभिनेत्री जिया खान की मौत आज भी पहेली बन कर सुर्खियों में आ जाती है. पहले सुसाइडल लैटर को ले कर हुई जांच और पोस्टमार्टम को ले कर विवाद हुआ. तब से ले कर अब तक इस मामले पर कोई न कोई खुलासा सामने आ ही जाता है. पहले सुना गया कि जिया खान की मां राबिया खान ने 8 गवाहों का स्ंिटग औपरेशन किया और अब खबर है कि राबिया ने अभिनेता सलमान खान पर जिया के हत्यारों को बचाने की कोशिश का आरोप लगाया है. राबिया ट्विटर पर लिखती हैं कि सलमान जैसे फिल्म स्टार हत्यारों को शरण दे रहे हैं. बहरहाल, जिया की मां स्ंिटग औपरेशन के आधार पर बौंबे हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल करेंगी जिस में मामले की जांच एसआईटी को ट्रांसफर किए जाने की मांग की जाएगी. पेचीदा होते इस मामले में अब कौन सा मोड़ आएगा, इस पर सब की नजर है.

 

गुलाब गैंग का बवाल

आजकल ज्यादातर फिल्मों की रिलीज से पहले कानूनी झमेला होना आम बात हो गई है. कभी धार्मिक भावनाओं के नाम पर तो कभी कौपीराइट जैसे मसलों को ले कर फिल्मों की रिलीज पर रोक लगाने का ड्रामा खेला जाता है.

हाल ही में फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के साथ भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा था. इस फिल्म के प्रदर्शन पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी फिर ऐन वक्त पर लगाई गई रोक को वापस ले लिया. कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में गुलाबी गैंग नामक महिला समूह का गठन करने वाली कार्यकर्ता संपत पाल के जीवन पर आधारित इस फिल्म के लिए संपत पाल की अनुमति नहीं ली गई थी जिस से नाराज हो कर संपत पाल ने ही इस की रिलीज रोकने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था.

 

हौलीवुड या बौलीवुड

बौलीवुड और हौलीवुड फिल्मों में अच्छा नाम कमा चुके इरफान इन दिनों अजीबोगरीब मुश्किल में फंस गए हैं. एक तरफ तो हौलीवुड की ‘जुरासिक पार्क 4’ जैसी फिल्म का औफर है तो दूसरी ओर उन के सब से करीबी मित्र और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया का प्रोजैक्ट है. कहा जा रहा है कि इरफान ने हालांकि अभी जुरासिक पार्क 4 के लिए हामी नहीं भरी है लेकिन उन्हें फिल्म की 3 मुख्य भूमिकाओं में से एक का प्रस्ताव दिया गया है. इसी बीच तिग्मांशु की भी फिल्म शुरू हो रही है. ऐसे में दोनों में से एक को चुनना उन के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. इरफान के मुताबिक वे कहानी का इंतजार कर रहे हैं, उस के बाद ही फैसला करेंगे कि किसे चुनें.

इरफानजी, फैसला आप चाहे जो करें लेकिन आप के फैन्स तो यही चाहेंगे कि आप बौलीवुड में भी दिखें और हौलीवुड में भी.

 

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