आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ और मीडिया के बीच विवाद सुलझने की जगह गहराता जा रहा है. मीडिया बेशक आम आदमी पार्टी के कामों को माइक्रोस्कोप से देख रहा है और उस की विरोध की किसी भी आवाज को ऐसे दर्शाया जाता है मानो शराफत की सफेद चादर पर काला धब्बा पूरी चादर को काली कर गया हो. वहीं सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, रामकृपाल सिंह यादव, अमर सिंह आदि की पैंतरेबाजी को वह ऐसे दिखाता है मानो छोटी घटना हो, कोई मक्खी मार दी गई हो.
अरविंद केजरीवाल की बौखलाहट स्वाभाविक है क्योंकि ‘आप’ को एक समर्थक मीडिया की सख्त जरूरत है. आम आदमी पार्टी के पास भाजपा और कांगे्रस की तरह काली करतूतों या मालिकों के मुनाफों या धर्म की दुकानों के अरबों रुपए तो हैं नहीं.
मीडिया का एकतरफा व्यवहार कुछ नया नहीं है. आमतौर पर अखबार या चैनल अपनीअपनी पसंद के नेताओं को कुछ ज्यादा सहानुभूति से दर्शाते हैं और यह उन का हक है. समाचारपत्रों या चैनलों से निष्पक्ष होने की अपेक्षा करना गलत है क्योंकि यही तो विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार है कि आप अपने पाठकों को या दर्शकों को वह बताएं जो आप चाहते हैं. यह मीडिया संचालकों का मौलिक अधिकार है.
पर हां, अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें. अगर मीडिया बड़े उद्योगपतियों का है और बड़े उद्योगपति किसी खास पार्टी को समर्थन दे रहे हैं तो उन्हें या किसी को भी शिकायत करने का पूरा अधिकार है. मीडिया को इस पर तिलमिलाना नहीं चाहिए बल्कि अपनी आलोचना उसी तरह लेनी चाहिए जैसी वह दूसरों की करता है.
हमारे देश में धर्म के दुकानदारों व अदालतों की तरह मीडिया भी अपनेआप को ‘टच मी नौट’ की गिनती में रखने लगा है और मीडिया विरोधी कोई भी बात अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन मान ली जाती है. जबकि यह गलत है. दूसरों पर कालिख मलने वालों के हाथों पर कालिख तो लग ही जाती है, यह मीडिया भी नहीं भूल सकता. यह पाठक पर छोडि़ए कि वह अपना विवेक किस हद तक इस्तेमाल करता है.